ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के क्या सिद्धांत हैं?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और परमेश्वर से लाभ उठाने मात्र के लिए काम न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... कुछ लोग परमेश्वर की उपस्थिति में नियम-निष्ठ और उचित शैली में व्यवहार करते हैं, वे "शिष्ट व्यवहार” के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी आत्मा की उपस्थिति में वे अपने जहरीले दाँत और पँजे दिखाने लगते हैं। क्या तुम लोग ऐसे इंसान को ईमानदार लोगों की श्रेणी में रखोगे? यदि तुम पाखंडी और ऐसे व्यक्ति हो जो "व्यक्तिगत संबंधों" में कुशल है, तो मैं कहता हूँ कि तुम निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर को हल्के में लेने का प्रयास करता है। यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसी बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे। यदि सत्य का मार्ग खोजने से तुम्हें प्रसन्नता मिलती है, तो तुम सदैव प्रकाश में रहने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम परमेश्वर के घर में सेवाकर्मी बने रहकर बहुत प्रसन्न हो, गुमनाम बनकर कर्मठतापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से काम करते हो, हमेशा देने का भाव रखते हो, लेने का नहीं, तो मैं कहता हूँ कि तुम एक निष्ठावान संत हो, क्योंकि तुम्हें किसी फल की अपेक्षा नहीं है, तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो। यदि तुम स्पष्टवादी बनने को तैयार हो, अपना सर्वस्व खपाने को तैयार हो, यदि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन दे सकते हो और दृढ़ता से अपनी गवाही दे सकते हो, यदि तुम इस स्तर तक ईमानदार हो जहाँ तुम्हें केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना आता है, और अपने बारे में विचार नहीं करते हो या अपने लिए कुछ नहीं लेते हो, तो मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग प्रकाश में पोषित किए जाते हैं और वे सदा राज्य में रहेंगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए खुला होना चाहिए। बाद में, तुम अन्य लोगों के प्रति खुला रहना, ईमानदारी से और सही तरीके से बोलना, अपने दिल की बात कहना, गरिमा, सत्यनिष्ठा और अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति बनना, और बढ़ा-चढ़ाकर या झूठ न बोलने वाला बनना या अपने को छिपाने या दूसरों को धोखा देने वाले शब्दों का उपयोग न करना सीख सकते हो। एक ईमानदार व्यक्ति होने के अभ्यास में एक और पहलू शामिल होता है, जो यह है कि व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाने में एक ईमानदार रवैया अपनाना चाहिए और इसे एक नेक दिल के साथ करना चाहिए। तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए और उन्हें अपने अभ्यास में कार्यान्वित करना चाहिए; यह केवल कहने की बात नहीं है, और न ही केवल एक निश्चित रवैया रखने की बात है कि दूसरों को काम बताकर तुम खुद आराम कर रहे हो। जब तुम आराम कर रहे हो तो एक ईमानदार व्यक्ति होने की वास्तविकता कहाँ होती है? बिना किसी वास्तविकता के, केवल नारे लगाने से बात नहीं बनेगी। परमेश्वर मनुष्य को जाँचता है, और मनुष्य के अंतरतम हृदय की जाँच करने और मनुष्य के आंतरिक हृदय को देखने के अलावा, वह मनुष्य के व्यवहार और उसके अभ्यास को भी देखता है। यदि तुम अपने आंतरिक हृदय में कुछ सोचते हो लेकिन तुम इसे व्यवहार में नहीं लाते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? ऐसा करने अर्थ है कि कहो कुछ, और सोचो कुछ और ही; यह उन कामों को करना है जिससे तुम अच्छे नज़र आते हो, और यह दूसरों को तुम्हारी बातों से बेवकूफ़ बनाना है—ठीक उन फरीसियों की तरह, जो धर्मग्रंथों को पढ़ने में अव्वल थे और उन्हें विस्तार से जानते थे। फिर भी, जब अभ्यास करने का समय आया, जब कीमत चुकाने और पद के आशीष को त्यागने का समय आया, तो उन्होंने ऐसा नहीं किया, उन्होंने परमेश्वर की आलोचना और निंदा करना और उसके पद के लिए स्पर्धा करना शुरू कर दिया। परमेश्वर को यह घृणास्पद लगा; चलने के लिए वह एक अच्छा मार्ग नहीं था! क्या दूसरे लोग इस प्रकार के व्यक्ति पर भरोसा कर सकते हैं? (नहीं।)

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है' से उद्धृत

एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करते हुए यह ज़रूरी है कि पहले व्यक्ति अपना हृदय परमेश्वर के समक्ष खोलना सीखना चाहिए और अपने दिल की बात परमेश्वर को बताते हुए प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिए। मान लो कि आज तुमने झूठ बोला है; किसी को यह बात पता नहीं चली है, और तुम अबतक यह बात सभी को साफ-साफ बताने का साहस नहीं जुटा पाए हो। तो कम से कम आज अपने आचरण की जांच में तुम्हें जो गलतियां और झूठ मिली हैं उन्हें तुरंत परमेश्वर के समक्ष जरूर लाना चाहिए, और अपने पापों की स्वीकारोक्ति में कहना चाहिए : "हे परमेश्वर, मैंने पुनः झूठ बोला है। मैंने फलां कारण से ऐसा किया है। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अनुशाषित करो।" अगर तुम्हारी सोच ऐसी है, परमेश्वर तुम्हें स्वीकार करेगा, और इसे याद रखेगा। शायद तुम्हारे लिए इस दोष या झूठ बोलने की भ्रष्ट प्रवृत्ति का समाधान करना काफी तनावपूर्ण और श्रमसाध्य हो, लेकिन डरो नहीं, परमेश्वर तुम्हारे साथ है, वह तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और बार-बार उभरने वाली इस कठिनाई से उबरने में तुम्हारी मदद करेगा। वह तुम्हें झूठ नहीं बोलने या झूठ को स्वीकारने का साहस देगा; तुम्हें यह स्वीकारने का साहस देगा कि कौन से झूठ तुमने बोले, क्यों बोले, तुम्हारे इरादे और उद्देश्य क्या थे; तुम्हें यह भी स्वीकार करने का साहस देगा कि तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, बेईमान हो; और वह तुम्हें इस अवरोध को दूर करने, और शैतान की कैद और नियंत्रण से बाहर निकल आने का साहस देगा। इस तरह, तुम परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष पा कर धीरे-धीरे प्रकाश में रहने लगोगे। जब तुम दैहिक सीमाओं के इस अवरोध को पार कर लेते हो और सत्य के प्रति समर्पित होने में समर्थ हो जाते हो, तो तुम स्वतंत्र और मुक्त हो जाओगे। जब तुम इस तरह से रहते हो, तो न केवल लोग, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। हालांकि कभी-कभार तुम अब भी गलत कर्म कर सकते हो, झूठ बोल सकते हो, और अब भी कभी-कभी तुम्हारे मन में अपने इरादे, स्वार्थ, स्वार्थी व घृणास्पद कर्म और विचार तुम्हारे पास होंगे, लेकिन तुम परमेश्वर की परीक्षा को स्वीकार कर सकते हो; अपना हृदय, अपनी वास्तविक स्थिति, अपनी भ्रष्ट स्वाभाविक प्रवृत्ति परमेश्वर को दिखा सकते हो, और इस तरह तुम्हारे पास अभ्यास का सही मार्ग होगा। अगर तुम्हारे अभ्यास का मार्ग और आगे की दिशा सही है, तो तुम्हारा भविष्य सुंदर और उज्ज्वल होगा। इस तरह, तुम सुकून भरे दिल के साथ जियोगे; तुम्हारी आत्मा संपोषित होगी, और तुम समृद्ध और आनंदित महसूस करोगे। अगर तुम दैहिक सीमाओं की इस अड़चन को पार नहीं कर पाते हो और अपनी भावनाओं व शैतानी दर्शनों की चपेट में रहते हो, और तुम्हारे कथन व कर्म हमेशा गुपचुप और गुप्त रहते हैं, कभी खुले दिन के उजाले में नहीं होते तो तुम शैतान के अधिकार क्षेत्र में जीते हो। जब तुम सत्य को समझते हो और दैहिक सीमाओं की अड़चन को पार कर लेते हो, तो तुम धीरे-धीरे मानवीय सादृश्य प्राप्त कर लेते हो। तुम साफगोई और सहजता के साथ बोलते और कार्य करते हो। अपने दिल की कोई भी बात या विचार, या अपनी गलतियों को दूसरों के साथ साझा करते हो, जिससे कि सभी लोग इन्हें स्पष्ट देख सकें, और अंततः वे कहेंगे कि तुम एक पारदर्शी व्यक्ति हो। पारदर्शी व्यक्ति क्या होता है? ऐसा व्यक्ति जो झूठ नहीं बोलता, अपने कथन में बेहद ईमानदार होता है, और जिसकी बातों को सभी सत्य मानते हैं। अगर ऐसे लोग अनजाने में कोई झूठ या गलत बात बोलते भी हैं, तो यह जानते हुए कि वे ऐसा अनजाने में कर रहे हैं, सभी लोग उन्हें माफ करने के लिए तैयार रहते हैं। जैसे ही उन्हें अपनी गलती का अहसास होता है वे क्षमायाचना करने तथा इसे सही करने के लिए लौट आएंगे। पारदर्शी व्यक्ति ऐसे ही होते हैं। ऐसे व्यक्ति को सभी पसंद करते हैं और उसपर विश्वास कर सकते हैं। अगर तुम इस स्तर पर पहुंचते हो तथा परमेश्वर और लोगों का विश्वास प्राप्त करते हो तो तुमने कोई साधारण काम नहीं किया है—यह किसी व्यक्ति के लिए सर्वोच्च प्रतिष्ठा है, और केवल ऐसे व्यक्ति के पास ही आत्म-सम्मान होता है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है' से उद्धृत

आज, अधिकांश लोग अपने कृत्यों को परमेश्वर के सम्मुख लाने से बहुत डरते हैं; जबकि तू परमेश्वर की देह को धोखा दे सकता है, परन्तु उसके आत्मा को धोखा नहीं दे सकता है। कोई भी बात, जो परमेश्वर की छानबीन का सामना नहीं कर सकती, वह सत्य के अनुरूप नहीं है, और उसे अलग कर देना चाहिए; ऐसा न करना परमेश्वर के विरूद्ध पाप करना है। इसलिए, तुझे हर समय, जब तू प्रार्थना करता है, जब तू अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत और संगति करता है, और जब तू अपना कर्तव्य करता है और अपने काम में लगा रहता है, तो तुझे अपना हृदय परमेश्वर के सम्मुख अवश्य रखना चाहिए। जब तू अपना कार्य पूरा करता है, तो परमेश्वर तेरे साथ होता है, और जब तक तेरा इरादा सही है और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए है, तब तक जो कुछ भी तू करेगा, परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा; इसलिए तुझे अपने कार्य को पूरा करने के लिए अपने आपको ईमानदारी से समर्पित कर देना चाहिए। जब तू प्रार्थना करता है, यदि तेरे हृदय में परमेश्वर के लिए प्रेम है, और यदि तू परमेश्वर की देखभाल, संरक्षण और छानबीन की तलाश करता है, यदि ये चीज़ें तेरे इरादे हैं, तो तेरी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली होंगी। उदाहरण के लिए, जब तू सभाओं में प्रार्थना करता है, यदि तू अपना हृदय खोल कर परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और बिना झूठ बोले परमेश्वर से बोल देता है कि तेरे हृदय में क्या है, तब तेरी प्रार्थनाएँ निश्चित रूप से प्रभावशाली होंगी।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके हृदय के अनुसार हैं

आज, जो कोई भी परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार नहीं कर सकता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकता है, और जो देहधारी परमेश्वर को न जानता हो, उसे पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने सभी कामों को देख और समझ कि जो कुछ तू करता है वह परमेश्वर के सम्मुख लाया जा सकता है कि नहीं। यदि तू जो कुछ भी करता है, उसे तू परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला सकता, तो यह दर्शाता है कि तू एक दुष्ट कर्म करने वाला है। क्या दुष्कर्मी को पूर्ण बनाया जा सकता है? तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा। परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। जितना तू परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, उतना ही तू शुद्ध होता जाता है और उतना ही तू परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, जिससे तू व्यभिचार की ओर आकर्षित नहीं होगा और तेरा हृदय उसकी उपस्थिति में रहेगा; जितना तू उसकी छानबीन को ग्रहण करता है, शैतान उतना ही लज्जित होता है और उतना अधिक तू देहसुख को त्यागने में सक्षम होता है। इसलिए, परमेश्वर की छानबीन को ग्रहण करना अभ्यास का वो मार्ग है जिसका सभी को अनुसरण करना चाहिए। चाहे तू जो भी करे, यहाँ तक कि अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता करते हुए भी, यदि तू अपने कर्मों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है और उसकी छानबीन को चाहता है और तेरा इरादा स्वयं परमेश्वर की आज्ञाकारिता का है, इस तरह जिसका तू अभ्यास करता है वह और भी सही हो जाएगा। केवल जब तू जो कुछ भी करता है, वो सब कुछ परमेश्वर के सम्मुख लाता है और परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, तो वास्तव में तू ऐसा कोई हो सकता है जो परमेश्वर की उपस्थिति में रहता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके हृदय के अनुसार हैं

एक ईमानदार व्यक्ति होने के नाते तुम्हें अपना दिल खोलना चाहिए, ताकि हर कोई उसके अंदर देख सके, तुम्हारे विचारों को समझ सके, और तुम्हारा असली चेहरा देख सके; अच्छा दिखने के लिए तुम्हें तुम खुद भेष धारण करने या खुद को आकर्षक बनाने का प्रयास न करो। लोग तभी तुम पर विश्वास करेंगे और तुमको ईमानदार मानेंगे। यह ईमानदार होने का सबसे मूल अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति होने की शर्त है। तू हमेशा पवित्रता, सदाचार, महानता का दिखावा करता है, नाटक करता है, और उच्च नैतिक गुणों के होने का नाटक करता है। तू लोगों को अपनी भ्रष्टता और विफलताओं को नहीं देखने देता है। तू लोगों के सामने एक झूठी छवि पेश करता है, ताकि वे मानें कि तू सच्चा, महान, आत्म-त्यागी, निष्पक्ष और निस्वार्थी है। यह धोखा है। भेष धारण मत कर और खुद को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत मत कर; इसके बजाय, अपने आप को स्पष्ट कर और दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपने हृदय को पूरी तरह उजागर कर दे। यदि तू दूसरों के देखने के लिए अपने हृदय को उजागर कर सकता है और अपने विचारों और योजनाओं को—चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक—स्पष्ट कर सकता है तो क्या तू ईमानदार नहीं बन रहा है? यदि तू दूसरों के समक्ष अपने आप को उजागर कर सकता है, तो परमेश्वर भी तुझे देखेगा और कहेगा: "तूने दूसरों के देखने के लिए स्वयं को खोल दिया है, और इसलिए मेरे सामने भी तू निश्चित रूप से ईमानदार है।" यदि तू दूसरे लोगों की नज़र से दूर केवल परमेश्वर के सामने अपने आप को उजागर करता है, और उनके साथ रहते हुए हमेशा महान और गुणी या न्यायी और निःस्वार्थ होने का दिखावा करता है, तो परमेश्वर क्या सोचेगा और परमेश्वर क्या कहेगा? वह कहेगा: "तू वास्तव में धोखेबाज़ है; तू विशुद्ध रूप से पाखंडी और क्षुद्र है; और तू ईमानदार व्यक्ति नहीं है।" परमेश्वर इस प्रकार से तेरी निंदा करेगा। यदि तू ईमानदार व्यक्ति होना चाहता है, तो तू परमेश्वर या दूसरों के सामने जो कुछ भी करता है उसकी परवाह किए बिना, तुझे अपने आप को उजागर करने में सक्षम होना चाहिए। क्या यह हासिल करना आसान है? इसके लिए समय की आवश्यकता होती है, इसमें आंतरिक संघर्ष की आवश्यकता होती है और हमें लगातार अभ्यास करना पड़ता है। धीरे-धीरे हमारा हृदय खुल जाता है और हम खुद को उजागर कर पाते हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास' से उद्धृत

ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? इस विषय की मूल बात है सब चीज़ों में सत्य का पालन करना। यदि तुम यह कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम परमेश्वर के उपदेशों को हमेशा अपने दिमाग़ के कोने में रखते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, "मेरी क्षमता कम है, लेकिन दिल से ईमानदार हूँ।" लेकिन, जब तुम्हें कोई कर्तव्य पूरा करने के लिए दिया जाता है, तो तुम पीड़ा सहने से या इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से पूरा नहीं किया तो तुम्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम इससे बचने के लिये बहाने बनाते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? बिल्कुल भी ऐसा नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिये? उन्हें अपने कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिये और उसका पालन करना चाहिये, और फिर अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार उसे पूरा करने में पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना चाहिये। यह कई तरीकों से व्यक्त क्या जाता है। एक तरीका यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिये, तुम्हें किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचना चाहिये, और अधूरे मन से इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिये। अपने खुद लाभ के लिये जाल न बिछाओ। यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति है। दूसरा तरीका है इसमें पूरी जी-जान लगा देना। तुम कहते हो, "यह वो सब कुछ है जो मैं कर सकता हूँ; मैं सब लगा दूंगा, और सब पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित कर दूंगा।" क्या यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति नहीं है? तुम अपना सब कुछ और जो कुछ भी तुम कर सकते हो, उसे समर्पित कर देते हो—यह ईमानदारी की एक अभिव्यक्ति है। यदि तुम अपना सब कुछ समर्पित करने को इच्छुक नहीं हो, यदि तुम इसे छिपा कर, बचा कर रखते हो, तो तुम अपने कामों में फिसड्डी हो, अपने कर्तव्यों से बचते हो और उन्हें किसी और से इसलिए करवाते हो क्योंकि तुम अच्छा काम न कर पाने के परिणामों को भुगतने से डरते हो, तो क्या यह ईमानदार होना है? नहीं, यह नहीं है। इसलिए, ईमानदार व्यक्ति होना केवल एक ईमानदार दिल रखना ही नहीं है। यदि तुम इसे तब अभ्यास में नहीं लाते, जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाये तो फिर तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो। जब तुम्हारे सामने समस्याएं आएं तो तुम्हें सत्य का पालन करना चाहिए और व्यावहारिक अभिव्यक्ति रखनी चाहिए। यह ईमानदार व्यक्ति होने का एकमात्र तरीका है, और यही एक ईमानदार हृदय की अभिव्यक्तियां हैं। कुछ लोग ऐसा महसूस करते हैं कि एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए, यह पर्याप्त है कि हम केवल सत्य बोलें और झूठ न बोलें। क्या ईमानदार होने की परिभाषा इतनी सीमित है? तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह अभिवृत्ति है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होनी चाहिए। इसलिए ईमानदारी इतनी क़ीमती है। यहाँ पर निहितार्थ क्या है? यहाँ निहितार्थ यह है कि यह हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित करने में सक्षम है और तुम्हारी अवस्थाओं को नियंत्रित करने में सक्षम है। यदि तुम्हारे अंदर इस तरह की ईमानदारी है, तो तुम्हें इसी तरह की अवस्था में जीना चाहिए, इसी तरह का व्यवहार दिखाना चाहिए, इसी तरह खुद को खपाना चाहिए। ईमानदार हृदय इतनी क़ीमती चीज़ है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल ईमानदार व्यक्ति बनकर ही कोई वास्तव में ख़ुश हो सकता है' से उद्धृत

अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या निपटान के बाद बुरी मन:स्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मन:स्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्य को सही स्तर पर निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपना कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक स्तर के अनुसार कर्तव्य निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मन:स्थिति में होने पर अपना कर्तव्य ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मन:स्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्य निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके काम में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, "मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक परमेश्वर मुझे जीने देगा, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत करूंगा ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!" जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मन:स्थिति या बाहरी हालात से नियंत्रित नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे व्यावहारिक और सच्ची अभिव्यक्तियों में से एक है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन में प्रवेश अपने कर्तव्य को निभाने का अनुभव करने से प्रारंभ होना चाहिए' से उद्धृत

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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