मसीह-विरोधी कौन होता है? किसी मसीह-विरोधी को कैसे पहचाना जा सकता है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
मसीह के शत्रुओं के बारे में परमेश्वर की परिभाषा क्या है? जो परमेश्वर से शत्रुता करता है, सत्य से शत्रुता करता है, सत्य से घृणा करता है, परमेश्वर से घृणा करता है, और जो कुछ भी सकारात्मक है, उससे पूरी तरह से घृणा करता है। वह कोई आम व्यक्ति नहीं है जो अपने विचारों और अवलोकनों में कुछ क्षणों के लिए कमज़ोर, मूर्ख और थोड़ा गलत हो जाता है, न ही वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी समझ थोड़ी-सी बेतुकी और सत्य के अनुरूप नहीं है—ऐसा व्यक्ति मसीह का शत्रु है, परमेश्वर का दुश्मन! उसकी भूमिका किसी ऐसे व्यक्ति की है जो हर सकारात्मक चीज़ से पूरी तरह से नफ़रत करता है, हर सत्य से नफ़रत करता है, और परमेश्वर के सारे स्वभाव और सार से नफ़रत करता है। ऐसी भूमिका वाले व्यक्तियों से परमेश्वर किस तरह का व्यवहार करता है? परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा! प्राकृतिक रूप से, ऐसे लोग सत्य से घृणा और नफ़रत करते हैं। यहां जो खुलकर सामने आया है वह आम जनता का सामान्य भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, जैसे कि घमंड, थोड़ी-सी कठोरता या छोटी-मोटी धोखेबाज़ी; यहां जो सामने आया है वह बुराई, उग्रता और सत्य से घृणा है—ये भ्रष्ट स्वभावों में सबसे गंभीर अभिव्यक्तियां और स्वभाव हैं, और शैतान के लिए ये सबसे विशिष्ट और आवश्यक चीज़ें हैं। यह आम, भ्रष्ट लोगों में पाए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव का मामूली प्रकटन नहीं है, जो न तो सत्य के लिए वास्तविक ख़तरा बन सकता है और न ही पर्याप्त शक्ति में सम्मिलित हो सकता है—यह एक ऐसी शक्ति है जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। वे एक कलीसिया को अस्त-व्यस्त और नियंत्रित कर सकते हैं, और वे परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को नष्ट और बाधित कर सकते हैं। क्या आम, भ्रष्ट लोग ऐसा कुछ करते हैं? बिल्कुल नहीं, और इसलिए तुम्हें इसे कम नहीं समझना चाहिए। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका स्वभाव दुष्ट होता है, लेकिन स्वयं के लाभ के लिए इस दुष्ट स्वभाव में थोड़ा-सा स्वार्थ शामिल होता है, जबकि दूसरों में एक उग्र स्वभाव भी होता है—उदाहरण के लिए, जब वे फ़ायदा उठाए जाने पर प्रतिरोध करते हैं—लेकिन यह कभी कभार ही प्रकट होता है। मसीह के शत्रु इससे अलग कैसे हैं? उनका मुख्य स्वभाव अहंकार नहीं, बल्कि प्रचंड बुराई है। और यह बुराई मुख्य रूप से कैसे प्रकट होती है? यह उनके विचित्र तरीके से काम करने में देखी जा सकती है, जिसे आम लोग, जिनके पास थोड़ी-सी संस्कृति और कुछ सामाजिक अनुभव हैं, अपनी आँखों और कानों से पता नहीं लगा पाते। अब यह धोखे से बढ़कर बुराई बन गई है। वे घिनौने खेल खेल सकते हैं, गहरी चालें चल सकते हैं, और ये काम वे ज़्यादातर लोगों से "बेहतर" कर सकते हैं; अधिकांश सामान्य लोग उनका मुकाबला नहीं कर सकते और उनसे निपट नहीं सकते। यह मसीह का विरोध है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि आम लोग उनसे नहीं निपट सकते? यह इसलिए है क्योंकि उनकी बुराई इतनी चरम पर होती है कि लोगों को धोखा देने के लिए उनमें एक ज़बरदस्त शक्ति होती है। हम मसीह के शत्रुओं की अभिव्यक्तियों के बारे में संगति क्यों कर रहे हैं? क्योंकि मसीह के शत्रु लोगों को धोखा देने में बहुत ही सक्षम हैं। वे एक ही झटके में लोगों के बड़े समूह को धोखा दे देते हैं, किसी घातक महामारी की तरह जो अपने संक्रमण से, एक ही प्रकोप में बहुतों को नुकसान पहुंचा सकती है और मार सकती है। यह अत्यधिक संक्रामक है और इसकी पहुंच व्यापक है, इसकी संक्रामकता और मृत्यु दर आम बीमारियों से कहीं अधिक है। क्या ये गंभीर परिणाम नहीं हैं?
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (4)' से उद्धृत
जिस दौरान, परमेश्वर ने देहधारण नहीं किया था, तब कोई इंसान परमेश्वर विरोधी है या नहीं, यह इस बात से तय होता था कि क्या इंसान स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर की आराधना और उसका आदर करता था या नहीं। उस समय परमेश्वर के प्रति विरोध को जिस ढंग से परिभाषित किया गया, वह उतना भी व्यवाहारिक नहीं था क्योंकि तब इंसान परमेश्वर को देख नहीं पाता था, न ही उसे यह पता था कि परमेश्वर की छवि कैसी है, वह कैसे कार्य करता है और कैसे बोलता है। परमेश्वर के बारे में इंसान की कोई धारणा नहीं थी, परमेश्वर के बारे में उसकी एक अस्पष्ट आस्था थी, क्योंकि परमेश्वर अभी तक इंसानों के सामने प्रकट नहीं हुआ था। इसलिए, इंसान ने अपनी कल्पनाओं में कैसे भी परमेश्वर में विश्वास क्यों न किया हो, परमेश्वर ने न तो इंसान की निंदा की, न ही इंसान से अधिक अपेक्षा की, क्योंकि इंसान परमेश्वर को देख नहीं पाता था। परमेश्वर जब देहधारण कर इंसानों के बीच काम करने आता है, तो सभी उसे देखते और उसके वचनों को सुनते हैं, और सभी लोग उन कर्मों को देखते हैं जो परमेश्वर देह रूप में करता है। उस क्षण, इंसान की तमाम धारणाएँ साबुन के झाग बन जाती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को देहधारण करते हुए देखा है, यदि वे अपनी इच्छा से उसका आज्ञापालन करेंगे, तो उनका तिरस्कार नहीं किया जाएगा, जबकि जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले माने जाएँगे। ऐसे लोग मसीह-विरोधी और शत्रु हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं
जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, और जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य से अवगत होते हैं फिर भी परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करते, वे तो परमेश्वर के और भी बड़े विरोधी होते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें विचलित करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे "मज़बूत देह" वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं
हर पंथ और संप्रदाय के अगुवाओं को देखो। वे सभी अभिमानी और आत्म-तुष्ट हैं, और वे बाइबल की व्याख्या संदर्भ के बाहर और उनकी अपनी कल्पना के अनुसार करते हैं। वे सभी अपना काम करने के लिए प्रतिभा और पांडित्य पर भरोसा करते हैं। यदि वे कुछ भी उपदेश करने में असमर्थ होते, तो क्या वे लोग उनका अनुसरण करते? कुछ भी हो, उनके पास कुछ ज्ञान तो है ही, और वे सिद्धांत के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, या वे जानते हैं कि दूसरों को कैसे जीता जाए, और कुछ चालाकियों का उपयोग कैसे करें, जिनके माध्यम से वे लोगों को अपने सामने ले आए हैं और उन्हें धोखा दे चुके हैं। नाम मात्र के लिए, वे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने अगुवाओं का अनुसरण करते हैं। अगर वे उन लोगों का सामना करते हैं जो सच्चे मार्ग का प्रचार करते हैं, तो उनमें से कुछ कहेंगे, "हमें परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में हमारे अगुवा से परामर्श करना है।" देखिये, परमेश्वर में विश्वास करने के लिए कैसे उन्हें किसी की सहमति की आवश्यकता है; क्या यह एक समस्या नहीं है? तो फिर, वे सब अगुवा क्या बन गए हैं? क्या वे फरीसी, झूठे चरवाहे, मसीह-विरोधी, और लोगों के सही मार्ग को स्वीकार करने में अवरोध नहीं बन चुके हैं?
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अनुसरण करना ही परमेश्वर में सच्चे अर्थ में विश्वास करना है' से उद्धृत
कुछ ऐसे लोग हैं जो सर्वोच्च सत्ता की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में पूरी तरह से लापरवाह हैं। वे सोचते हैं, "सर्वोच्च सत्ता कार्य व्यवस्थाएं करती है और हम यहां नीचे पृथ्वी पर, अपना काम कर रहे हैं। जो कुछ कहा गया है और कुछ कार्य लचीले ढंग से कार्यान्वित किए जा सकते हैं—जब वे नीचे हमारे पास आते हैं, तो उनमें बदलाव किया जा सकता है। आखिरकार, सर्वोच्च सत्ता सिर्फ बात करती है, हम वे हैं जो वास्तव में कार्य कर रहे हैं। हम कलीसिया में स्थिति को समझते हैं पर सर्वोच्च सत्ता नहीं, इसलिए कलीसिया के लोग और काम जो हमें दिए गए हैं, वो जैसे हम उपयुक्त समझें, वैसे करने के लिए हैं। हम जैसे चाहे उसे कर सकते हैं और किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।" ऐसे लोगों के लिए, परमेश्वर की सेवा करने का सिद्धांत यह हैः "अगर मुझे लगता है कि कोई चीज़ ठीक है, तो मैं उस पर ध्यान दूँगा; अगर मुझे लगता है कि कोई चीज़ व्यावहारिक नहीं है, मैं उसे नज़रअंदाज़ कर दूँगा। अगर मैं चाहूँ तो तुम्हारा प्रतिरोध कर सकता हूँ या तुम्हारे विरुद्ध जा सकता हूँ, कोई भी ऐसी चीज़ जो मैं नहीं चाहता, उसे मुझे कार्यान्वित करना या अंजाम नहीं देना है। अगर तुम कुछ कहते हो, वह मुझे अनुपयुक्त लगे, मैं उसे तुम्हारे लिए संपादित कर दूँगा और उसे साफ करने के बाद तुम्हें सौंप दूँगा। जो कुछ भी मैंने अनुमोदित नहीं किया है, वह छपने के लिए नहीं जा सकता।" हर जगह, सर्वोच्च सत्ता की व्यवस्थाओं को वे उनके मूल रूप में प्रचारित करते हैं, लेकिन यह व्यक्ति उन कार्य व्यवस्थाओं के संपादित संस्करण को उन लोगों को भेजता है, जिसकी वे अगुआई करते हैं। ऐसा व्यक्ति हमेशा परमेश्वर को दूर रखना चाहता है और चाहता है कि हर कोई उनका अनुसरण और उन पर विश्वास करे। जिस तरह से वे देखते हैं, कुछ स्थानों में परमेश्वर उनके बराबर नहीं है—उन्हें भी परमेश्वर होना चाहिए और हर किसी को उन पर विश्वास करना चाहिए। वे जो करते हैं, उसका यही स्वरूप है। अगर तुम लोग इस बात को समझ गए हो, तो क्या तुम फिर भी रोओगे जब ऐसे व्यक्ति को हटाया जाएगा और उसके स्थान पर किसी और को लाया जाएगा? क्या तुम्हें फिर भी उनके प्रति सहानुभूति होगी? तुम क्या फिर भी सोचोगे, "सर्वोच्च सत्ता जो करता है वह अनावश्यक और अन्यायपूर्ण है—कैसे सर्वोच्च सत्ता किसी को निकाल सकता है जिसने इतनी यातना भोगी हो?" किसकी खातिर उन्होंने यातना भोगी? उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की खातिर यातना भोगी है। क्या वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं? क्या वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और समर्पित हैं? वे कुछ नहीं, वरन शैतान के नौकर हैं और उनका कार्य शैतान का प्रभुत्व है; यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना को नष्ट करता है और उसके कार्य को बाधित करता है। यह किस प्रकार का विश्वास है? वे शैतान और मसीह-विरोधी के सिवाय और कुछ नहीं हैं!
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर को नाराज़ करना क्या है?' से उद्धृत
किस प्रकार का व्यक्ति ख़ुद अपना राज्य स्थापित करता है? (मसीह-विरोधी।) और इस प्रकार के व्यक्ति को "मसीह-विरोधी" क्यों कहा जाता है? सबसे पहले, "विरोधी" का मतलब है प्रतिरोधी और प्रतिपक्षी होना, और इसमें शामिल है मसीह के प्रति, परमेश्वर के प्रति, और सत्य के प्रति प्रतिरोधी और प्रतिपक्षी होना। "प्रतिरोधी और प्रतिपक्षी" होने का क्या मतलब है? (प्रत्यक्ष विरोध में खड़ा होना।) (घृणा करना।) क्या परमेश्वर से घृणा करने वाले और उसके प्रत्यक्ष विरोध में रहने वाले लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं? क्या वे सत्य से प्यार कर सकते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकते। स्वयं को व्यक्त करने का उनका सबसे पहला ही तरीक़ा सत्य से प्यार नहीं करने वाला होता है। जब भी कोई सत्य बोलता है, तो वे उस व्यक्ति के चेहरे पर कुछ भी व्यक्त नहीं करते, लेकिन अपने हृदय में वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, और काफ़ी गहराई में वे इसका विरोध करते हैं। सभी सकारात्मक चीजों का विरोध करते हुए—उन सभी सत्यों जैसे परमेश्वर के सामने समर्पण करना, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना, ईमानदार व्यक्ति होना, सभी चीज़ों में सत्य की तलाश आदि—क्या उनके पास थोड़ी भी व्यक्तिपरक ललक या प्रेम है? नहीं, नाममात्र भी नहीं। इसलिए, उनके अंदर मौजूद इस प्रकार की प्रवृत्ति और भाव को ध्यान में रखा जाए तो वे पहले से ही परमेश्वर और सत्य के प्रत्यक्ष विरोध में खड़े हैं। तो, अपरिहार्य रूप से, ऐसे लोग सत्य या किसी सकारात्मक चीज़ से गहराई के साथ प्यार नहीं करते। उदाहरण के लिए, अगुवाई के पदों पर बैठे लोगों को अपने भाइयों और बहनों के विभिन्न विचारों को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, उन्हें भाइयों और बहनों के सामने अपने आपको व्यक्त करने और भाइयों और बहनों की निंदा को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, और उन्हें पद की परवाह नहीं करनी चाहिए। मसीह-विरोधी अभ्यास के इन सही तरीकों के बारे में क्या सोचेगा? शायद वह कहेगा, "यदि मैं भाइयों और बहनों के विचारों को सुनता, तो क्या तब भी मैं एक अगुआ होता? क्या तब भी मेरे पास पद और प्रतिष्ठा होती? क्या तब भी मैं लोगों को खुद से डराने में सक्षम होता? यदि मैं लोगों को खुद से डरा नहीं सकता, और यदि मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, तो मैं क्या काम कर सकता हूँ?" यह ठीक उसी प्रकार का स्वभाव है, जो मसीह-विरोधी में होता है; वह सत्य को नाममात्र भी स्वीकार नहीं करता, और अभ्यास का तरीका जितना ज़्यादा उचित होता है, उतना ही वह उसका विरोध करता है। वह इस बात को स्वीकार नहीं करता कि अभ्यास के ये सही तरीके सत्य का अभ्यास करने के तरीके हैं। उसकी मान्यता के अनुसार सत्य क्या है? वह यह है कि किसी के साथ व्यवहार करते समय व्यक्ति को हमेशा सख्ती बरतनी चाहिए, बुरे कामों, क्रूर तरीकों, और धोखेबाज़ी का इस्तेमाल करना चाहिए; व्यक्ति को कभी भी सत्य, प्रेम, और परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करना चाहिए। उसका रास्ता बुराई का रास्ता है। यह उन लोगों का स्वभाव और सार है जो मसीह-विरोधी किस्म के हैं, और इसी प्रकार से वे काम करते हैं और उनके कार्यों के पीछे की प्रेरणा भी यही है, वह स्रोत जहाँ से वे उत्पन्न होते हैं। उनकी प्रेरणा और उनके इरादे ऐसे ही हैं। उनकी प्रेरणा और उनके इरादों का सार, जिसे वे अक्सर प्रकट करते हैं, वस्तुतः एक मसीह-विरोधी का सार है—यानी सत्य के प्रति द्वेष और घृणा। यही उनका सार है। तो क्या, इसका मतलब सत्य और परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा होना है? इसका मतलब है सत्य और सकारात्मक चीज़ों से घृणा करना। उदाहरण के लिए, सृष्टि के एक पदार्थ के तौर पर, व्यक्ति को एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए; चाहे परमेश्वर जो भी कहे, मनुष्यों को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य सृष्टि के पदार्थ हैं। लेकिन मसीह-विरोधी कैसे सोचता है? "यह असत्य नहीं है कि मैं सृष्टि का एक पदार्थ हूं, लेकिन जहाँ तक समर्पण की बात है, तो यह परिस्थिति पर निर्भर है। सर्वप्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण, इसमें मेरा कुछ लाभ होना चाहिए; मुझे किसी नुकसान में नहीं डाला जाना चाहिए, और मुझे अपने हितों को सबसे आगे रखना चाहिए। यदि पुरस्कार और बड़े आशीर्वाद प्राप्त किए जा सकते हैं और तुम चाहते हो कि मैं समर्पण कर दूं, तो ठीक है, लेकिन पुरस्कारों और किसी गंतव्य के बिना मैं समर्पण नहीं कर सकता।" मसीह-विरोधी इसी तरह से देखता है। एक अन्य उदाहरण के रूप में, परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों, लेकिन मसीह-विरोधी इसके बारे में क्या सोचता है? "केवल मूर्ख ही ईमानदार होते हैं; चतुर लोग ईमानदार नहीं होते।" क्या इन्हीं विचारों से सत्य को स्वीकार न करने की प्रवृत्ति बनती है? इस प्रकार की प्रवृत्ति का सार क्या है? इसका सार सत्य से घृणा है। यही ऐसे मसीह-विरोधियों का सार है, और उनका सार यह निर्धारित करता है कि वे कैसे मार्ग पर चलते हैं और, बदले में, जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह निर्धारित करता है कि इस तरह का कर्तव्य निभाते समय वे क्या चीज़ें करेंगे।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (1)' से उद्धृत
जब एक मसीह-विरोधी खुद के बारे में प्रशंसा करता और गवाही देता है और जब एक सामान्य व्यक्ति यह करता है, तो इनमें क्या फ़र्क होता है? साधारण लोग अक्सर इसलिए डींग मारते और दिखावा करते हैं कि दूसरे उन्हें ऊँची नज़रों से देखें; उनके पास भी इस तरह के स्वभाव होते हैं और वे भी ऐसी स्थितियों को प्रकट करते हैं। तो इनमें फ़र्क कहाँ होता है? यदि तुम इसे स्पष्ट कर सकते हो, तो तुम यह देखने में सक्षम हो कि मसीह-विरोधी का सार क्या होता है। यदि तुम इसका पता नहीं लगाते हो, और आत्म-प्रशंसा और शेखी बघारने की सभी यदा-कदा होने वाली अभिव्यक्तियों का मसीह-विरोधी के क्षेत्र में निरूपण करते हो, तो क्या यह एक वैचारिक त्रुटि नहीं है? फिर, तुम भेद कैसे करते हो? जो जानबूझकर खुद के बारे में प्रशंसा करते और गवाही देते हैं, और जो लोग अनजाने में ऐसा करते हैं, उनके बीच सारभूत अंतर क्या है? (उनकी अभिप्रेरणाएँ अलग होती हैं)। यही अंतर है। साधारण लोगों के पास भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। जब वे खुद की प्रशंसा करते और डींग मारते हैं, तो वे दिखावा करने की कोशिश कर रहे होते हैं, और बात उससे आगे नहीं बढ़ती है। दूसरे उन्हें ऊँची नज़रों से देख सकते हैं, या नीची नज़रों से—उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं; उनके इरादे स्पष्ट नहीं होते, और उनका व्यवहार एक प्रकार के स्वभाव द्वारा शासित होता है और यह उस प्रकार के स्वभाव का एक उद्गार होता है, इससे अधिक कुछ नहीं। यदि वे सत्य की तलाश करते और काट-छाँट और निपटने को, न्याय और ताड़ना को, स्वीकार कर लेते हैं, तो इस तरह के स्वभाव को धीरे-धीरे कम किया जा सकता है, और, धीरे-धीरे, उनमें ईमानदारी और शर्म की भावना आएगी, और वे अधिक तर्कसंगत बन जाएँगे। इस तरह का व्यवहार और कम होता जाएगा और वे इसकी निंदा करेंगे, खुद को संयमित कर लेंगे और खुद को रोक लेंगे। यह तब होता है जब लोग अनजाने में खुद की प्रशंसा करते और गवाही देते हैं। अपने बारे में जान-बूझकर प्रशंसा करने और गवाही देने में निहित स्वभाव, अनजाने में ऐसा करने के समान होता है, लेकिन उनकी प्रकृतियाँ समान नहीं होती हैं। जानबूझकर खुद के बारे में प्रशंसा करना और गवाही देना, एक योजना के साथ किया जाता है; जो ऐसा करता है, वह किसी क्षण में अनायास कुछ नहीं बोल पड़ता है—हर बार जब वह अपने बारे में प्रशंसा करता और गवाही देता है, तो वह एक निश्चित अभिप्रेरणा और एक गुप्त उद्देश्य के साथ ऐसा करता है, और उसकी क्रियाओं में शैतान की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की विशेषताएँ होती हैं। बाह्य रूप से, यह व्यवहार एक जैसा दिखता है: दोनों ही मामलों में, लोग अपने बारे में प्रशंसा कर रहे और गवाही दे रहे हैं, लेकिन जब वे ऐसा अनजाने में करते हैं, तो परमेश्वर इसे एक भ्रष्ट स्वभाव के उद्गार के रूप में परिभाषित करता है; जब वे ऐसा जानबूझकर करते हैं, तो परमेश्वर इसे कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर इसे धोखेबाज़ होने के रूप में परिभाषित करता है, जिसका उद्देश्य यह होता है कि लोग उनके बारे में ऊँचा सोचें, उनका आदर करें, उनकी ओर ऊँची नज़रों से देखें, और फिर उनका अनुसरण करें। उनके इस व्यवहार की प्रकृति भ्रान्ति है। इसलिए, जब उनका इरादा लोगों को धोखा देना, उन पर अधिकार जमाना और उनसे अनुसरण करवाना होता है, तो वे अपने शब्दों और कार्यों में कुछ तरीकों और तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं और छोटे आध्यात्मिक क़द के होते हैं, या जिनके पास अपेक्षाकृत एक उथली नींव होती है, उन्हें आसानी से फँसाया और भटकाया जाता है, और वे यह नहीं जान पाते हैं कि क्या हो रहा है। न केवल वे इसके प्रति अंधे होते हैं, वे इन लोगों की ओर ऊँची नज़रों से देखने और उनके बारे में ऊँचा सोचने के लिए भी बाध्य होते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे उनका आदर और अनुसरण भी करेंगे। रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे अधिक देखी जाने वाली बातों में से एक यह होती है कि कुछ लोगों को किसी उपदेश की, जिसे उन्होंने अभी-अभी सुना हो, एक अच्छी समझ होती है, लेकिन जब वे बाद में मुद्दों का सामना करते हैं, तो वे उन्हें हल नहीं कर सकते हैं। यहाँ तक कि जब वे परमेश्वर के सामने तलाश के लिए आते हैं, तब भी कोई बात नहीं बनती है, और वे अंततः अपने अगुवा की तलाश करने के लिए मजबूर हो जाते हैं, हर बार जब वे किसी समस्या का सामना करें तो वे उसी अगुवा के बारे में सोचते हैं। यह एक अफ़ीम के धूम्रपान की आदत की तरह है—वे आदी हो जाते हैं। इसलिए, वे मसीह-विरोधी जो खुद की प्रशंसा करते और गवाही देते हैं, छोटे आध्यात्मिक क़द के उन अनाड़ी लोगों के लिए एक आभासी दवा बन जाते हैं जो यह नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा है। जैसे ही इन लोगों के पास कोई समस्या होती है, वे उस मसीह-विरोधी की तलाश में चले जाते हैं। समूह के साथ एक मुद्दे पर चर्चा करने और सत्य-सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझने के बाद भी, वे इसे वो कहने का साहस नहीं करेंगे जो यह है, और न ही वे इसे हल करने की हिम्मत करेंगे। इसके बजाय, समस्या को परिभाषित करने, और अंतिम निर्णय लेने के लिए, वे उस "मास्टर" की प्रतीक्षा करते हैं जिसका वे सम्मान करते हैं—और यदि उनका "मास्टर" कुछ भी नहीं कहता है, तो किसी के पास भी इस मुद्दे को हल करने का आत्म-विश्वास नहीं होता है। क्या उन्हें ज़हर नहीं दिया गया है? कितने काम की—कितने ज़हर की—इस मसीह-विरोधी को, इन लोगों को इतनी बुरी तरह से विषाक्त करने के लिए, आवश्यकता होती है? यदि वे अक्सर खुद को विश्लेषित करें और खुद को जानें, यदि वे अक्सर अपनी कमज़ोरियों, ग़लतियों, और पापों को हर किसी के सामने उजागर करें, तो क्या हर कोई उनका ऐसा आदर करेगा? बिलकुल नहीं। ऐसा लगता है कि वे इस "उपलब्धि" को प्राप्त करने के लिए काफ़ी प्रयास करते हैं, जो ठीक उसी तरह का परिणाम है जैसा वे चाहते हैं। जब लोग उनसे अलग होते हैं तो उन्हें पता नहीं होता कि उन्हें क्या करना चाहिए; जब वे किसी मुद्दे का सामना करते हैं, तो उनके पास कोई सिद्धांत नहीं होता और वे कुछ समझ नहीं पाते हैं। स्पष्ट रूप से, इन मसीह-विरोधियों ने उन्हें नियंत्रित करने के लिए उन्हें अल्प मात्रा में ज़हर नहीं खिलाया था। उन्होंने तो वास्तव में उन पर अपना ‘काम’ किया! यदि उन्होंने केवल कुछ शब्द कहे होते, तो क्या ये लोग उनके इतने नियंत्रण में आए होते? बिलकुल नहीं।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (2)' से उद्धृत
कुछ लोगों के पास एक मसीह-विरोधी के कुछ लक्षण होते हैं, और एक मसीह-विरोधी के स्वभाव के कुछ उद्गार, लेकिन वे सत्य को भी स्वीकार करते और मानते हैं, और सत्य से प्रेम करते हैं। वे उद्धार पाने के संभावित पात्र हैं। कुछ लोग, उनका स्वरूप चाहे जो भी हो, ऐसे हैं जो अपने प्रकृति-सार से ही सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण और घृणापूर्ण होते हैं। जैसे ही तुम सत्य की बात करते हो या उन्हें उपदेश देते हो, वे नाराज़ और विपक्षी हो जाते हैं: वे ऊँघना शुरू कर देते हैं, वे सो जाते हैं, वे ऊब जाते हैं, और जब वे समझते हैं तब भी उन्हें कोई रुचि नहीं होती है; या वे बाहर से सावधान लग सकते हैं, लेकिन वे सत्य को एक अलग दृष्टिकोण से, या ज्ञान और सिद्धांत के किसी ढाँचे से, मापते हैं। यदि मामला यह हो, तो चाहे वे परमेश्वर के कितने भी वचनों को पढ़ चुके हों या उन्होंने कितने भी उपदेश सुने हों, अंततः ओहदे और सांसारिक चीज़ों की तलाश, परमेश्वर से शत्रुता और सत्य के प्रति विद्वेष के उनके नज़रिए में कभी लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होगा। यह मसीह-विरोधी की ख़ासियत होती है। इसलिए, जब तुम कहते हो कि उनके काम का उद्देश्य लोगों को उनके पक्ष में जीतना है, और वे परमेश्वर के क़द के लिए स्पर्धा करने और लोगों को धोखा देने के लिए खुद की प्रशंसा करते और गवाही देते हैं, और यह कि उनके काम शैतान और मसीह-विरोधियों वाले हैं, तो क्या वे इस तरह की निंदा को स्वीकार करते हैं? वे नहीं करते। वे सोचते हैं: "मेरे लिए इस तरह से काम करना सही और उचित है। मैं इसी तरह से चीज़ों को किया करता हूँ। तुम चाहे मेरी जितनी भी निंदा और आलोचना कर सकते हो—मैं इस तलाश, इस इच्छा, या चीज़ों को करने के इस तरीके को छोड़ना नहीं चाहूँगा।" यह तय है: वे मसीह-विरोधी हैं। तुम्हारा कहा हुआ कुछ भी उनके दृष्टिकोण को बदल नहीं सकता है, न ही यह उनकी अभिप्रेरणाओं और इरादों को बदल सकता है, न ही उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को। यह एक पक्के मसीह-विरोधी का प्रकृति-सार है। चाहे उनकी परिस्थितियाँ कितनी भी बदल जाएँ, या उनके आसपास के लोग, मामले और चीज़ें कैसे भी बदलें, या समय कितना भी बदले, और परमेश्वर जिन संकेतों और चमत्कारों को करता है और उन्हें जितना अनुग्रह देता है—भले ही वह उन्हें दंडित करता हो—इन सब की परवाह किए बिना, उनके इरादे कभी नहीं बदलेंगे। एक इंसान होने का उनका तरीका और चीज़ों को करने का तरीका कभी नहीं बदलेगा, और न ही सत्य के प्रति उनकी दुश्मनी का नज़रिया बदलेगा। जब अन्य लोग बताते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह अपनी ही प्रशंसा करना और गवाही देना है और लोगों को धोखा देने की कोशिश करना है, तो वे अपने बोलने के तरीके को बदल कर ऐसा बना देते हैं, कि इसके बारे में कोई भी आपत्ति न उठा सके और इसे कोई भांप न सके। वे अपने प्रबंधन को पूरा करने और अपने गुप्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए और भी अधिक कुटिल साधनों का उपयोग करते हैं। यह वही है जो एक मसीह-विरोधी में प्रकट होता है, और यह एक मसीह-विरोधी के सार से उत्पन्न होता है। यहाँ तक कि अगर परमेश्वर उन्हें बताए कि उन्हें दंडित किया जाएगा, कि उनका अंत आ गया है, कि वे शापित और निंदित थे, क्या इससे उनका सार बदल सकता है? क्या यह सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदल सकता है? क्या यह पद, भाग्य और प्रतिष्ठा के प्रति उनके लगाव को बदल सकता है? नहीं बदल सकता। जिन लोगों को शैतान ने भ्रष्ट किया है उनको सामान्य मानवता वाले ऐसे लोगों में बदल देना जो परमेश्वर की आराधना करते हों, परमेश्वर का कार्य है; इसे हासिल किया जा सकता है। लेकिन क्या राक्षसों को सामान्य लोगों में बदलना संभव है, उन लोगों को जो मानवीय त्वचा ओढ़े हुए हैं लेकिन जिनका सार शैतानी है, जो शैतान के शिविर में शैतान की पूजा करते हैं और परमेश्वर से शत्रुता रखते हैं? यह असंभव होगा। परमेश्वर इस तरह का कार्य नहीं करता है; जिन लोगों को परमेश्वर बचाता है उनमें ऐसे लोग शामिल नहीं हैं। तो फिर, परमेश्वर ऐसे लोगों को कैसे परिभाषित करता है? वे शैतान के हैं। वे परमेश्वर के चयन या उद्धार के विषय नहीं हैं; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता है। चाहे वे परमेश्वर के घर में कितने समय तक रहे हों, उन्होंने जितना भी कष्ट उठाया हो या उनकी जो भी उपलब्धियाँ रही हों, उनके इरादे नहीं बदलते हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं या इच्छाओं को दरकिनार नहीं करेंगे, अपनी प्रतिष्ठा तथा लोगों को हासिल करने के लिए परमेश्वर के साथ होड़ लगाने की अपनी अभिप्रेरणा और लालसा को तो, वे और भी नहीं त्याग पाएँगे। ऐसे लोग जीते-जागते मसीह-विरोधी हैं।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (2)' से उद्धृत
सभी मसीह-विरोधी मर जाएंगे पर पश्चाताप नहीं करेंगे। वो अंतिम सांस तक परमेश्वर का विरोध करने की कसम खाते हैं और अंत तक लड़ते हैं। भले ही अंतर्मन में वे स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर है, उसने मनुष्य की रचना की और कि वह मानव जाति को बचा सकता है, पर उनकी प्रकृति उन्हें उनके चुने हुए मार्ग को और परमेश्वर से उनके बैर के तथ्य को बदलने में असमर्थ बनाती है। इस प्रकार, मसीह-विरोधियों के व्यवहार का सार यह है कि वे लगातार ऐसे बहुत-से साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करते रहते हैं, जिनसे वे रुतबा हासिल करने और लोगों को जीतने के अपने लक्ष्य को पूरा कर सकें, ताकि लोग उनका अनुसरण करें और उनका स्तुतिगान करें। संभव है कि अपने दिल की गहराइयों में वे जानबूझकर मानवता को लेकर परमेश्वर से होड़ न कर रहे हों, पर एक बात तो पक्की है, अगर मनुष्यों को लेकर वे परमेश्वर के साथ होड़ न भी कर रहे हों तो भी वे मनुष्यों के बीच रुतबा और शक्ति पाना चाहते हैं। अगर वह दिन आ भी जाए जब उन्हें यह अहसास होने लगे कि वे परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं, और वे अपने-आप पर लगाम लगा लें, तो भी वे दूसरे तरीकों का इस्तेमाल करके लोगों के बीच रुतबा और मान्यता पाने की कोशिश करते रहते हैं। संक्षेप में, भले ही मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं उससे वे अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करते प्रतीत होते हैं, और परमेश्वर के सच्चे अनुयायी लगते हैं, पर लोगों को नियंत्रित करने और उनके बीच रुतबा और शक्ति हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलेगी। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या करे, चाहे वह लोगों से कुछ भी चाहता हो, वे वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए, या अपने कर्तव्य उस तरह से नहीं निभाते कि वे परमेश्वर के वचनों और जरूरतों के अनुरूप हों, न ही वे उसके कथनों और सत्य को समझते हुए शक्ति और रुतबे का मोह ही त्यागते हैं। पूरे समय उनकी महत्वाकांक्षा उन पर सवार रहती है, उनके व्यवहार और विचारों को नियंत्रित और निर्देशित करती है, और उस रास्ते को तय करती है जिस पर वे चलते हैं। यह एक मसीह-विरोधी का सार-संक्षेप है। यहाँ क्या बात रेखांकित होती है? कुछ लोग पूछते हैं, "क्या मसीह-विरोधी वे लोग नहीं हैं जो लोगों को जीतने के लिए परमेश्वर से होड़ करते हैं, और जो उसे नहीं मानते?" वे परमेश्वर को मानने वाले भी हो सकते हैं, वे सही तौर पर उसे मानने वाले और उसके अस्तित्व में विश्वास रखने वाले हो सकते हैं, वे उसका अनुसरण करने और सत्य की खोज के इच्छुक भी हो सकते हैं, पर एक चीज कभी नहीं बदलेगी : वे शक्ति और रुतबे की अपनी महत्वाकांक्षा का त्याग कभी नहीं करेंगे, न ही वे अपने वातावरण के कारण या अपने प्रति परमेश्वर के रवैये के कारण इन चीजों का पीछा करना छोड़ेंगे। ये एक मसीह-विरोधी की विशिष्टताएँ हैं। किसी व्यक्ति ने कितना ही कष्ट क्यों न उठाया हो, उसने सत्य को कितना ही क्यों न समझ लिया हो, उसने कितनी ही सत्य-वास्तविकताओं में प्रवेश क्यों न कर लिया हो, उसे परमेश्वर का कितना ही ज्ञान क्यों न हो, इन बाहरी प्रतिभासों और अभिव्यक्तियों से परे, वह व्यक्ति कभी भी रुतबे और शक्ति के लिए अपनी महत्वाकांक्षा और प्रयासों पर न तो लगाम लगाएगा और न ही इनका परित्याग करेगा, और इससे उसका प्रकृति सार स्पष्ट रूप से निर्धारित हो जाता है। ऐसे लोगों को मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित करने में परमेश्वर ने जरा-सी भी गलती नहीं की है, इसे उनके प्रकृति सार ने ही निर्धारित कर दिया है। शायद कुछ लोग मानते थे कि मानवता के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा की कोशिश करने वाला व्यक्ति मसीह-विरोधी है। हालांकि, कई बार यह ज़रूरी नहीं होता कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा ही करें; इतना ही काफ़ी होता है कि उनका ज्ञान, समझ और प्रतिष्ठा व सामर्थ्य की आवश्यकता सामान्य लोगों के विपरीत हो। सामान्य लोग दंभी हो सकते हैं; वे दूसरों की प्रशंसा जीतने की और उन पर धाक जमाने का प्रयास कर सकते हैं, एक अच्छी श्रेणी पाने की होड़ लगाने का प्रयास कर सकते हैं। यह सामान्य लोगों की महत्वाकांक्षा है। जब उन्हें नेताओं के रूप में प्रतिस्थापित किया जाता है, उनके पद उनसे छिन जाते हैं, वे उससे उबर जाते हैं; वातावरण में परिवर्तन से, थोड़े आध्यात्मिक कद के विकास से, सत्य की थोड़ी-बहुत प्राप्ति या सत्य की गहरी समझ आने पर उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे शांत हो जाती है। उनका मार्ग व दिशा बदल जाते हैं और प्रतिष्ठा व सामर्थ्य की उनकी खोज धूमिल होने लगती है। उनकी इच्छाएँ भी धीरे-धीरे कम होती जाती हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी अलग होते हैं : वे प्रतिष्ठा व सामर्थ्य की अपनी खोज कभी नहीं छोड़ सकते। किसी भी समय, किसी भी वातावरण में, चाहे उनके आसपास कैसे भी लोग हों और वे कितने ही बूढ़े हो जाएँ, उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलेगी। किस बात से यह संकेत मिलता है कि उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलेगी? मान लें कि वे कलीसिया के नेता हैं : वे कलीसिया में सभी को नियंत्रित करना चाहेंगे। फिर शायद वे किसी दूसरे कलीसिया में जाएँ, जहां वे नेता नहीं हैं, फिर भी वे वह प्रतिष्ठा पाने के लिए तरसते हैं। ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं, सामर्थ्य इस्तेमाल करना चाहते हैं। क्या महत्वाकांक्षा उनके हृदयों में कूट-कूटकर नहीं भरी हुई है? वे जो ज़ाहिर करते हैं वह सामान्य मानवता के दायरे से परे है। क्या यह असामान्य नहीं है? इसमें असामान्य क्या है? वे जो ज़ाहिर करते हैं वह सामान्य मानवता द्वारा ज़ाहिर किए जाने योग्य नहीं है। वे क्या ज़ाहिर करते हैं? वह क्या है जिसकी वजह से यह ज़ाहिर होता है? इसका कारण उनकी प्रकृति है। वे बुरे आत्मा हैं। यह साधारण भ्रष्टता नहीं है; यह उससे अलग है। मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा व सामर्थ्य की खोज में अनथक प्रयत्न करते रहते हैं; वह पूरी तरह से इनके दिलो-दिमाग पर छाई रहती है। यह उनका प्रकृति-सार है; यह उनका मूल रूप है और उनका असली चेहरा है। प्रतिष्ठा के लिए वे केवल परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करते बल्कि लोगों के साथ भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। दूसरे लोग चाहे इच्छुक हों या न हों, राज़ी हों या न हों, मसीह-विरोधी उनकी इच्छाओं की परवाह किए बगैर सक्रिय रूप से उन्हें नियंत्रित करने और उनके नेता बनने की कोशिश करते हैं। मसीह-विरोधी जहाँ भी जाते हैं, प्रभारी बनना चाहते हैं और अपनी बात मनवाना चाहते हैं। क्या यह उनकी प्रकृति है? क्या लोग तुम्हारी बातें सुनना चाहते हैं? क्या उन्होंने तुम्हें चुना है? क्या लोगों ने तुम्हारा चयन किया है? क्या वे सहमत हैं कि अंतिम निर्णय तुम्हारा हो? कोई नहीं चाहता कि अंतिम निर्णय इन लोगों का हो और कोई भी उनकी बात नहीं सुनता, फिर भी वे अपनी कोशिशों से बाज नहीं आते। क्या यह कोई समस्या है? वे निहायत ही बेशर्म और निर्लज्ज होते हैं। जब ऐसे लोग नेता होते हैं, तब वे मसीह-विरोधी होते हैं; जब वे नेता नहीं होते, तब भी वे मसीह-विरोधी होते हैं।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (3)' से उद्धृत
चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में विश्वास रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें उसका आज्ञापालन करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते हो, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसका आज्ञापालन किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और गैर-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो "खज़ाना" होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे "अदम्य नायक" हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने "पवित्र और अलंघनीय" कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में "राजा" बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा आज्ञापालन करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ी-सी भी आज्ञाकारिता नहीं है! इंसान परमेश्वर के कार्य को आसानी से ग्रहण नहीं कर सकता। इंसान अपनी सारी ताक़त लगाकर भी थोड़ा-बहुत ही पा सकता है जिससे वो आखिरकार पूर्ण बनाया जा सके। फिर प्रधानदूत की संतानों का क्या, जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने की कोशिश में लगी रहती हैं? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें ग्रहण करने की आशा और भी कम नहीं है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?