सत्य का अनुसरण कैसे करें (18)

हाल ही में हमारी संगति की विषयवस्तु काफी खास रही है। इसमें लोगों की उत्पत्तियाँ, उनके सार और उनके वर्गीकरण शामिल रहे हैं। हमने तीन तरह के लोगों की अभिव्यक्तियों पर चर्चा की है, जिनमें से हर एक का वर्गीकरण अलग है—जानवरों से पुनर्जन्म लेना, दानवों से पुनर्जन्म लेना और मानवों से पुनर्जन्म लेना। ज्यादातर लोगों के मामले में, इसका उनकी मनोदशा पर कुछ असर पड़ा है। इस पहलू में संगति सुनने के बाद तुममें से ज्यादातर लोग कैसा महसूस करते हैं? क्या तुममें से कोई ऐसा है जो इस विषयवस्तु को सुनने का अनिच्छुक है और कहता है, “ये मामले सत्य से जुड़े हुए नहीं लगते। क्या इन चीजों को जानने का कोई फायदा है?” जब नए विश्वासी ये शब्द सुनते हैं, तो क्या उनके द्वारा गलत धारणाएँ विकसित करने की संभावना है? क्या उनके नकारात्मक और कमजोर होने की संभावना है? ये शब्द सुनने के बाद लोग चाहे कैसा भी महसूस करें—चाहे वे गलत धारणाएँ विकसित कर लें या नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ—हर हाल में इन शब्दों पर संगति करना लोगों के लिए फायदेमंद है। कम से कम यह लोगों को कुछ अंतर्दृष्टि और भेद पहचानना हासिल करने, आचरण करने के लिए सही विचार और दृष्टिकोण समझने और आचरण करने के बुनियादी सिद्धांत समझने में समर्थ बनाता है। यह लोगों को इस संदर्भ में बहुत फायदा पहुँचाता है कि आचरण कैसे करें और कैसे जिएँ। खासकर, यह लोगों को यह जानने में मदद करता है कि सिद्धांतों के अनुसार दूसरों के साथ कैसे पेश आएँ। इस तरह, वे कई बेवकूफी भरी चीजें करने से बच पाएँगे और कम चक्करों में पड़ेंगे। हाल ही में हमारी संगति की विषयवस्तु में लोगों की उत्पत्ति और उनके अंदरूनी सार शामिल थे और हमने उन लोगों के लक्षणों के बारे में बात करके उसका समापन किया जो सच्चे मानवों से पुनर्जन्म लेते हैं। सच्चे मानवों से पुनर्जन्म लेने वालों में मुख्य रूप से दो विशेषताएँ होती हैं। वे क्या हैं? (सही-गलत का भेद पहचानना और यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत।) ये दो मुख्य अभिव्यक्तियाँ और विशेषताएँ हैं जो व्यक्ति की मानवता में होनी चाहिए। मोटे तौर पर कहें तो इन्हें ही हम अक्सर जमीर और विवेक कहते हैं। हालाँकि लोग अक्सर यह भेद पहचानना नहीं जानते कि व्यक्ति में जमीर और विवेक है या नहीं, या व्यक्ति में सच में इन दोनों से एक या दूसरा है या नहीं, क्या उनका जमीर और विवेक सामान्य हैं या क्या वे वो जमीर और विवेक हैं जो सामान्य मानवता में होते हैं। जब लोग सामान्य मानवता के बारे में ये तथ्य नहीं समझते तो जमीर और विवेक के बारे में उनके विचार या समझ सब बहुत आम होती है, इसलिए हमने यह समझाने के लिए कि मानव का जमीर और विवेक क्या हैं और यह पुष्टि करने के लिए कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं, विशिष्ट अभिव्यक्तियों के दो पहलुओं का इस्तेमाल किया। पहला है सही-गलत का भेद पहचानना और दूसरा है यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत। हमने पहले ही इन दो पहलुओं पर दो बार संगति की। सही-गलत का भेद पहचानना और यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत, ये मानवता के गुण हैं, मानवता के जिए हुए पहलू हैं और मानवता के वे विशिष्ट प्रकाशन और अभिव्यक्तियाँ हैं जो मानवों में होती हैं। इन दो पहलुओं—सही-गलत का भेद पहचानना और यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत—के लिए मैंने तदनुसार कुछ वास्तविक उदाहरण सूचीबद्ध किए और इन दो पहलुओं के अंदर लोगों की कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियों पर चर्चा की और तुमसे यह भेद पहचानने के लिए कहा कि वे मानवता होने की अभिव्यक्तियाँ हैं या नहीं और जिनमें वे हैं, वे ऐसे लोग हैं या नहीं जो सही-गलत का भेद पहचान सकते हैं और यह जानते हैं कि क्या सही है और क्या गलत। सही-गलत का भेद पहचानने के बारे में हमने कुछ मामलों पर संगति की ताकि यह गहन-विश्लेषण कर सकें कि लोग सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को कैसे लेते हैं और हमने इस पर भी संगति की कि नकारात्मक चीजों और मानवेतर अभिव्यक्तियों को कैसे पहचानें। हालाँकि मैंने तुम्हें यह बताने के लिए और ज्यादा विशिष्ट उदाहरण नहीं दिए कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं, फिर भी लोगों के दैनिक जीवन में सकारात्मक चीजों के प्रति उनकी कुछ अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण और उन्हें उजागर करके मैंने दिखाया कि व्यक्ति को सकारात्मक चीजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए और उनके प्रति क्या रवैया रखना चाहिए। मैंने नकारात्मक चीजों के प्रति लोगों के रवैयों और अभिव्यक्तियों को उजागर करने के लिए भी कुछ उदाहरण दिए, ताकि तुम यह भेद पहचानना सीख सको कि इन नकारात्मक चरित्रों के रवैयों और अभिव्यक्तियों की प्रकृति क्या है, उनकी मानवता सच्ची मानवता है या नहीं और उनकी मानवता का सार क्या है। अपनी पिछली दो संगतियों में हमने विशिष्ट रूप से यह नहीं बताया कि सकारात्मक और नकारात्मक चीजें क्या हैं, लेकिन उजागर की गई चीजों से आँकते हुए, क्या अब तुम्हें सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को परिभाषित करने में समर्थ नहीं होना चाहिए? संगति सुनने के बाद क्या तुमने यह सारांशित किया है कि सकारात्मक और नकारात्मक चीजें असल में क्या हैं? संगति की इस विशिष्ट विषयवस्तु को सुनने के बाद अगर तुम्हारे दिल में एक परिभाषा है और तुम यह जानते हो कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं और इस बारे में सत्य समझते हो, तो तुम जान जाओगे कि सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का भेद कैसे पहचानना है और उनके साथ कैसे पेश आना है, है ना? (हाँ।)

सकारात्मक चीजें क्या हैं? क्या यह ऐसा मुद्दा नहीं है जिसे समझना चाहिए? शायद तुम लोग सकारात्मक चीजों के कुछ उदाहरण दे सको, जैसे कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, परमेश्वर की मनोहरता, परमेश्वर का कार्य, मनुष्य के लिए परमेश्वर के इरादे, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ, साथ ही वे सभी सत्य जो परमेश्वर ने मानवजाति के सामने व्यक्त किए हैं, सत्य के अंदर मौजूद हर विस्तृत और विशिष्ट सत्य सिद्धांत—ये सभी सकारात्मक चीजें हैं। तुम लोग सकारात्मक चीजों के कुछ विशिष्ट उदाहरण दे सकते हो, तो क्या तुम नकारात्मक चीजों के कुछ विशिष्ट उदाहरण दे सकते हो? क्या परंपरागत संस्कृति एक नकारात्मक चीज है? (हाँ।) क्या बुरी प्रवृत्तियाँ नकारात्मक चीजें हैं? (हाँ।) क्या सरकारी नौकरी के पीछे भागना एक नकारात्मक चीज है? (हाँ।) क्या बहुत ज्यादा दौलत के पीछे भागना एक नकारात्मक चीज है? (हाँ।) ये सभी नकारात्मक चीजें हैं। इनके अलावा? (मैं बस इतना ही सोच सकता हूँ।) तुम लोग अपने दिलों में इन चीजों के बारे में कभी सोचते ही नहीं; तुम हमेशा अन्यत्र खोए रहते हो। और फिर भी, तुम लोगों को अक्सर लगता है कि कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के बाद, परमेश्वर के बहुत सारे वचन खाने-पीने के बाद तुम बहुत सारे सत्य तरह समझ गए हो। तो फिर, जब विशिष्ट मामलों की बात आती है तो तुम्हारा कोई दृष्टिकोण क्यों नहीं होता? तुमने जो कुछ भी समझा है, वह सब कहाँ चला गया? अगर तुमसे कहा जाए कि किसी मुद्दे के सार का गहन-विश्लेषण करने और उसके सार को स्पष्ट रूप से समझाने और इस तरह लोगों को उसमें शामिल सत्य और परमेश्वर के इरादे समझने में मदद करने के लिए वे सत्य इस्तेमाल करो जिन्हें तुम समझते हो, ताकि वे न सिर्फ नकारात्मक चीजों का भेद पहचान सकें, बल्कि यह भी जान सकें कि उसमें शामिल सकारात्मक चीजें और सत्य सिद्धांत क्या हैं, तो तुम कुछ नहीं बता पाते, तुम नहीं जानते कि क्या कहें। क्या यह सत्य न समझने की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) तो फिर तुम लोग आम तौर पर जिन समझ-बूझों के बारे में बात करते हो, वे सब क्या हैं? (शब्द और धर्म-सिद्धांत।) वे सब शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं। कुछ लोग आध्यात्मिक भक्ति के नोट्स लिखते समय अपने विचार झरने की तरह बहते हुए पाते हैं और वे ऐसे लिखते हैं मानो परमेश्वर ने उनका मार्गदर्शन किया हो; वे बहुत ही संरचित तरीके से लिखते हैं और इस हद तक द्रवित हो जाते हैं कि उनकी आँखें भर आती हैं और उनके चेहरे पर आँसू बहने लगते हैं। लेकिन, जब उनसे कहा जाता है कि उन्होंने जो लिखा है, उसे विभिन्न लोगों का भेद पहचानने, विभिन्न चीजों की असलियत जानने और विभिन्न समस्याएँ हल करने के लिए असल जिंदगी में लागू करें, तो वे ऐसा करने अक्षम रहते हैं। वे बहुत सारे धर्म-सिद्धांत समझते हैं, लेकिन सत्य नहीं समझते। नतीजतन, वे जिस भी मामले का सामना करते हैं, उसकी असलियत नहीं जान सकते और जो समस्या उन्हें पता चलती है उसे हल नहीं कर सकते। उनके इतने सारे धर्म-सिद्धांत समझने का क्या फायदा? जो लोग सत्य नहीं समझते, वे कितने दयनीय होते हैं! वे घमंडी और आत्म-तुष्ट लोग कई धर्म-सिद्धांत समझते हैं, फिर भी कोई असली समस्या हल नहीं कर सकते। यह बहुत दयनीय है। वापस मुद्दे पर आते हुए, चलो हम अपनी संगति इस बात पर जारी रखते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं। सत्य का यह पहलू स्पष्ट किया जाना जरूरी है। अगर हम एक आम बात बोलें और कहें, “परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है,” तो क्या ये शब्द सही हैं? (हाँ।) “परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है” एक सत्य है, लेकिन अगर तुम यह नहीं समझते कि यह कथन विशिष्ट रूप से किसे संदर्भित करता है या इसके अंदर का सत्य किसे संदर्भित करता है, तो तुम जो समझते हो वह सिर्फ धर्म-सिद्धांत है। अगर तुम कई मामलों में इस कथन को समझते हो और इसकी सच्ची समझ रखते हो और अपना दृष्टिकोण साबित करने के लिए कुछ विवरण भी दे सकते हो, तो तुम्हारे दृष्टिकोण का आधार परमेश्वर के शब्द हैं और यह साबित करता है कि तुम कुछ सत्य समझते हो। बहुत-से लोग कहते हैं, “परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है।” सैद्धांतिक रूप से यह कथन सही है और यह सत्य का एक पहलू भी है। तो, विशिष्ट रूप से, सकारात्मक चीजें क्या हैं? “परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है” के लिए एक विशिष्ट व्याख्या होनी चाहिए। तो, कौन-सी चीजें सकारात्मक चीजें हैं? परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है : परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं। क्या यह व्याख्या सही है? क्या यह इसे विशिष्ट बनाती है? (हाँ।) इस तरह यह कथन कि “परमेश्वर से आने वाली हर चीज एक सकारात्मक चीज है” सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर नहीं रहता, बल्कि एक सत्य सिद्धांत बन जाता है। क्या इसे इस तरह से कहना स्पष्ट है? (हाँ।) तो फिर सकारात्मक चीजों को परिभाषित करने वाला यह वाक्य पढ़ो। (परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं।) यह वाक्य पढ़ने के बाद तुम्हें कैसा महसूस होता है? क्या तुम्हारे दिलों में सकारात्मक चीजों की परिभाषा या दायरा स्पष्ट होना शुरू हो गया है? (हाँ।) तो इसे फिर से पढ़ो। (परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं।) जब तुम लोग सत्य के वचन पढ़ते हो, तो तुम्हें उन्हें धीरे-धीरे पढ़ना और उनका ध्यान से आनंद लेना सीखना चाहिए। तुम्हें उन्हें सही लय में पढ़ना सीखना चाहिए, उन्हें समझने लायक गति से गंभीरतापूर्वक और विधिवत् पढ़ना चाहिए, ताकि हर किसी के द्वारा उन्हें सुन लेने के बाद हर शब्द और वाक्य उनके दिलों में उत्कीर्ण हो जाए और गहरा असर छोड़े और तब से यह कथन परमेश्वर के वचनों का आधार और मापदंड बन जाए जिससे वे किसी निश्चित प्रकार की चीज को अंदर से माप सकें। यह कितना अच्छा होगा। इसे फिर से पढ़ो। (परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं।) यह अभी भी थोड़ा तेज था। मुझे बताओ, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय क्या तुम्हें गंभीर और साथ ही पवित्र भी नहीं होना चाहिए? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के वचन किसी गैर-विश्वासी के लेख की तरह हलके-फुलके ढंग से और तेजी से पढ़ोगे, तो सुनने वालों को कैसा लगेगा? (उन्हें कोई पवित्रता महसूस नहीं होगी।) तो, परमेश्वर के वचन पवित्रता के साथ पढ़ने के लिए तुम्हें उन्हें कैसे पढ़ना चाहिए? उन्हें पढ़ने की गति कैसी होनी चाहिए? (हमें उन्हें गंभीरता से और चाव से, एक-एक शब्द करके, गुंजायमान और सशक्त तरीके से पढ़ना चाहिए।) सही है। तो इसे फिर से पढ़ो और इसे गुंजायमान और सशक्त बनाने की कोशिश करो। (परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं।) अब जबकि यह वाक्य कई बार पढ़ा जा चुका है, तुम्हें यह याद हो गया होगा, है ना? (हाँ।) यह वाक्य तीन चीजों पर जोर देता है। पहली चीज क्या है? (जो परमेश्वर द्वारा सृजित है।) दूसरी चीज क्या है? (जो परमेश्वर द्वारा आदेशित है।) और तीसरी चीज क्या है? (जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन है।) और ये सभी चीजें क्या हैं? (ये सभी सकारात्मक चीजें हैं।) तुम्हें यह याद हो गया है, है ना? (हाँ।) सत्य याद करना और उसे अपने दिल में उत्कीर्ण कर लेना सभी सत्य सिद्धांत समझने, सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानने और उन पर सही मुद्रा और दृष्टिकोण रखने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों के अनुसार सही मार्ग चुनने और तदनुसार अभ्यास करने में समर्थ होने के लिए बेहद फायदेमंद है।

हमने अभी इस बारे में बात की कि सकारात्मक चीजें क्या हैं। परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन होने के दायरे में आने वाली सभी चीजें और घटनाएँ सकारात्मक चीजें हैं। ऐसे में, सकारात्मक चीजों की एक बड़ी संख्या है। पहले तो, परमेश्वर द्वारा सृजित सभी तरह की जीवित और निर्जीव चीजें सकारात्मक चीजें हैं। जीवित चीजें वे जीवन-रूप हैं जो क्रियाकलाप करने में सक्षम हैं, जो सांस ले सकती हैं और जिनमें जीवन-शक्ति होती है। उनकी जीवन-संरचना कैसी भी हो या उनके जीवन के कानून और नियम कुछ भी हों, अगर वे परमेश्वर द्वारा सृजित हैं, अगर वे परमेश्वर से आती हैं तो वे सकारात्मक चीजें हैं। भले ही तुम उन्हें पसंद न करो, भले ही वे तुम्हारी धारणाओं से मेल न खाती हों और भले ही वे लोगों के लिए फायदेमंद न हों या उन्हें नुकसान तक पहुँचा सकती हों, अगर वे परमेश्वर द्वारा बनाई गई हैं और उसके द्वारा आदेशित हैं तो वे सकारात्मक चीजें हैं। लेकिन कुछ लोग इस बारे में धारणाएँ रखते है। वे मानते हैं कि बुरे जानवर और वे जानवर जो लोगों को नुकसान पहुँचा सकते हैं—जैसे लोमड़ियाँ, भेड़िये या आदमखोर जानवर—वे सकारात्मक चीजें नहीं बल्कि नकारात्मक चीजें हैं। यह दृष्टिकोण परमेश्वर की इच्छाओं के खिलाफ है और पूरी तरह से और बिल्कुल गलत है। असल में, जो कुछ भी परमेश्वर ने बनाया है, अगर वह उसकी निंदा नहीं करता तो वह एक सकारात्मक चीज है। लोगों को उसके साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए, न उन्हें उसकी निंदा करनी चाहिए और न ही घिनौना लगने की वजह से उसे मारना या उससे निपटने के लिए किसी अन्य क्रूर तरीके का सहारा लेना चाहिए। लोगों को उसे प्राकृतिक तरीके से रहने देना चाहिए। भले ही तुम उसकी रक्षा न करो, फिर भी तुम्हें उसे जीने के लिए जगह देनी चाहिए और तुम्हें उसे नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए, क्योंकि वह परमेश्वर से आता है। यही रवैया लोगों को परमेश्वर द्वारा बनाए गए सभी विभिन्न प्राणियों के प्रति रखना चाहिए। अगर कोई चीज परमेश्वर द्वारा बनाई गई है तो चाहे तुम उसे पसंद करो या न करो, चाहे वह सुंदर हो या कुरूप, चाहे वह तुम्हारे प्रति मित्रवत हो या खतरा पैदा करे, चाहे वह खुली आँखों से दिखाई न दे या तुम उसे देख सको, चाहे उसका तुम्हारे जीवन पर कोई असर हो या न हो या मानव-अस्तित्व के साथ उसका जो भी संबंध हो, तुम्हें उसे और ऐसी सभी चीजों को समान महत्व देना चाहिए, उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए; उन्हें जीने के लिए जगह देनी चाहिए, उनके जीने के तरीकों और उनके जीने के नियमों का सम्मान करना चाहिए और उनकी तमाम गतिविधियों का भी सम्मान करना चाहिए। तुम्हें उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हें इन प्राणियों के साथ सह-अस्तित्व में रहने में समर्थ होना चाहिए और एक-दूसरे के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। यह ऐसी चीज है जिसे लोगों को समझना-बूझना चाहिए, और बेशक, इससे भी बढ़कर यह वह सिद्धांत है जिसका पालन व्यक्ति को अपने विभिन्न प्राणियों के साथ पेश आने के तरीके में करना चाहिए; व्यक्ति को उनके साथ मनुष्य की इच्छा से आने वाली अवधारणाओं या यहाँ तक कि जल्दबाजी के साथ बिल्कुल पेश नहीं आना चाहिए। परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों से जुड़े मामलों पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

सकारात्मक चीजों की परिभाषा से जुड़ा एक और पहलू है परमेश्वर द्वारा आदेशित होना, और परमेश्वर द्वारा आदेशित चीजों का दायरा काफी बड़ा है। उदाहरण के लिए, मोटे तौर पर विभिन्न जीवों की जीवन-अवधि, रूप, जन्मजात प्रकृति और जींस और साथ ही उनके जीवित रहने के तरीके, उनकी गतिविधि के प्रतिमान, भोजन प्राप्त करने और प्रजनन के तरीके और चार मौसमों के अनुकूल होने के लिए उनके रहने के प्रतिमान, जिसमें उनके प्रवास की दिशाएँ और गतिविधि की सीमाएँ शामिल हैं; इसके अलावा, चार मौसम, पहाड़ों, नदियों और झीलों के स्थान और पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा आदेशित विभिन्न जीवित या निर्जीव चीजों के अस्तित्व के रूप, इत्यादि—लोगों को इस दायरे में आने वाली इन चीजों का भी सम्मान करना चाहिए, उन्हें जीवित रहने के लिए जगह देनी चाहिए और उन्हें खत्म करने, उनमें दखल देने या उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए इंसानी इच्छा या अप्राकृतिक साधनों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, बाघ शाकाहारी जानवरों को खाने के लिए पैदा होते हैं; जेबरा, हिरण, बारहसिंगा और कुछ छोटे जानवर सभी बाघों के शिकार होते हैं। यह एक प्राणी का भोजन प्राप्त करने का तरीका है और वह दायरा है जिसमें वह ऐसा करता है; यह उसके जीवित रहने का एक नियम है। तो, जीवित रहने के इस नियम में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर का आदेश शामिल है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा आदेशित है, इसलिए चाहे लोग इसे काल्पनिक परिप्रेक्ष्य से कैसे भी देखें—चाहे वे इसे अद्भुत समझें या खूनी और क्रूर—यह निश्चित रूप से एक सकारात्मक चीज है। यह बिल्कुल निश्चित है और तुम इसे नकार नहीं सकते। भले ही तुम्हें अपने दिल में लगे कि बाघ द्वारा जानवरों का शिकार करना बहुत खूनी और क्रूर है और तुम ऐसा त्रासद दृश्य होते हुए देख तक नहीं सकते, फिर भी तुम्हें जानवरों की दुनिया में जीवित रहने के तरीके का सम्मान करना चाहिए। तुम्हें इसे बाधित या सीमित नहीं करना चाहिए और इस पारिस्थितिक परिवेश में अप्राकृतिक रूप से हस्तक्षेप करना या इसे नुकसान तो हरगिज नहीं पहुँचाना चाहिए। इसके बजाय तुम्हें चीजों को स्वाभाविक रूप से होने देना चाहिए और जानवरों की दुनिया के जीवित रहने के परिवेश की रक्षा करनी चाहिए। तुम्हें विभिन्न जानवरों से उनके जीवित रहने का अधिकार नहीं छीनना चाहिए। मांसाहारी जानवरों द्वारा शाकाहारी जानवरों या अन्य जानवरों का शिकार करके उनका भक्षण करना उनके जीवित रहने का एक नियम है और जीवित रहने का यह नियम परमेश्वर ने बनाया था और परमेश्वर ने ही आदेशित किया था। मनुष्य को इसमें दखल नहीं देना या इसे नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए बल्कि चीजों को स्वाभाविक रूप से होने देना चाहिए। तो चीजों को स्वाभाविक रूप से होने देने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब तुम किसी बाघ या किसी दूसरे मांसाहारी जानवर को हिरण या दूसरे जानवर का शिकार करते हुए देखो तो अगर तुममें पर्याप्त साहस है तो तुम दूर से देख सकते हो और दखल मत देना। अगर तुम डरपोक हो और खून-खराबे वाली, जानलेवा लड़ाई का यह दृश्य देखना सहन नहीं कर सकते तो मत देखना, लेकिन तुम्हें इन मांसाहारी जानवरों के शिकार करने वाले व्यवहार की इसलिए निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि तुम खूनी दृश्य देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते, और यह शिकायत तो तुम्हें बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि परमेश्वर ने इन मांसाहारी जानवरों को सृजित कर गलती की; यह एक बिना विवेक के किया गया काम है। यह सामान्य है कि तुम इसे नहीं समझते, लेकिन तुम्हें मांसाहारी जानवरों से उनके जीने का अधिकार नहीं छीनना चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “तो क्या हमें अप्राकृतिक रूप से उनकी रक्षा करनी चाहिए?” दखल देने का कोई काम न करके या नुकसान न पहुँचाकर तुमने पहले ही मनुष्य होने की जिम्मेदारी पूरी कर दी होती है। अप्राकृतिक रूप से उनकी रक्षा करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जानवर भी परमेश्वर के बनाए हुए प्राणी हैं; और यह देखते हुए कि उन्हें परमेश्वर ने सृजित किया था, परमेश्वर उन्हें पहले ही जीने का सामर्थ्य दे चुका है—उन्हें तुम्हारे दखल देने या मदद करने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा, क्या तुम उनकी मदद कर सकते हो? क्या तुम वह क्रूरता दोहरा सकते हो जिससे वे अपना शिकार करते हैं? लोगों में वह गुण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा, लोग सिर्फ कुछ शिकार मारने के लिए हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं जो जानवरों की जरूरतें पूरी करने से बहुत दूर है। इसके अलावा, कुछ जानवर मरा हुआ शिकार नहीं खाते; वे सिर्फ जिंदा, ताजा मांस खाते हैं। तुम्हें मांसाहारी जानवरों के जीने के अधिकारों में दखल नहीं देना चाहिए या उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए, न ही तुम्हें शाकाहारी जानवरों को नुकसान से बचाना चाहिए; इतना काफी है कि तुम उन्हें नुकसान न पहुँचाओ या उनका शिकार न करो। सभी तरह के जानवरों के जीने के अपने नियम हैं और वे परमेश्वर द्वारा आदेशित नियमों और परमेश्वर द्वारा स्थापित कानूनों के अनुसार प्रजनन करेंगे और जीवित रहेंगे। उनके जीने के अपने नियम हैं और जीने की अपनी क्षमताएँ है और अनेक प्रकार से उनकी जीने की क्षमताएँ इंसानों की जीने की क्षमताओं से भी श्रेष्ठ है। हालाँकि वे हथियार और औजार नहीं बना सकते और न ही उनका इस्तेमाल कर सकते हैं, फिर भी कुछ मामलों में स्वतंत्र रूप से जीने की उनकी क्षमता इंसानों की क्षमता से बेहतर है। अगर इंसान जंगल में रहते तो उनके लिए जीना मुश्किल होता; कुछ तो प्यास, भूख या ठंड से मर जाते या जंगली जानवरों द्वारा खा लिए जाते। यह स्पष्ट है कि जंगल में स्वतंत्र रूप से जिंदा रहने की इंसानों की क्षमता जानवरों की क्षमता से कम है। और ऐसा क्यों है? यह भी परमेश्वर के आदेश से संबंधित है।

जो कुछ परमेश्वर द्वारा आदेशित है, उसके बारे में लोगों को जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए वह है उसमें जानबूझकर दखल न देना या उसे नुकसान न पहुँचाना। उदाहरण के लिए, जानवरों के साथ व्यवहार को ही लो : लोगों को दया करके उनकी रक्षा करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम उन्हें परेशान नहीं करते, उनके जीवन-परिवेश को नुकसान नहीं पहुँचाते या उनके जीने के नियमों और कानूनों को नष्ट नहीं करते तो तुम इंसान होने की अपनी जिम्मेदारी पूरी कर देते हो। अगर कोई जानवर घायल हो जाता है या किसी मुश्किल का सामना करता है और इंसानों से मदद माँगता है तो क्या लोगों को उनकी मदद करनी चाहिए? (हाँ।) इस मदद को अप्राकृतिक दखल नहीं माना जाता, बल्कि यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जो लोगों को निभानी चाहिए। यह एक ऐसी जिम्मेदारी क्यों है जो लोगों को निभानी चाहिए? क्योंकि यह ऐसी चीज है जिसे करने में इंसान सक्षम हैं। इस स्थिति में, लोगों को प्यार दिखाना चाहिए और मदद करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि इंसान और जानवर दोनों ही प्राणी हैं। बात बस यह है कि परमेश्वर की नजर में इंसान उसके उद्धार का पात्र है, एक ऊँचे दर्जे का प्राणी है, दूसरों से अलग है। चूँकि इस भौतिक दुनिया में, इस जगह सभी एक-साथ रहते हैं, इसलिए जरूरत के समय एक-दूसरे की मदद करना किसी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता। यह ऐसा चरित्र है जो कम से कम, इंसानों में होना चाहिए और ऐसी चीज है जिसे हासिल करने में उन्हें समर्थ होना चाहिए। अगर सच में कोई घायल जानवर तुम्हारे पास मदद के लिए आता है, तो वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि वह तुम्हारा बहुत सम्मान करता है और तुम पर भरोसा करता है। यह तथ्य कि वह तुम्हारी मदद माँग सकता है, यह साबित करता है कि वह बेवकूफ नहीं है; वह सोचने में सक्षम है और जानता है कि हालाँकि इंसान उनसे अलग हैं, लेकिन इंसानों के पास उसे जिंदा रहने में मदद करने के तरीके हैं। जब दूसरे प्राणी इंसानों का इतना सम्मान करते हैं तो क्या इंसानों को सभी चीजों के स्वामी की भूमिका अच्छे से नहीं निभानी चाहिए और वे दायित्व पूरे नहीं करने चाहिए जो उन्हें करने चाहिए? (हाँ।) यही अभ्यास का सिद्धांत है। सभी चीजों के स्वामी की भूमिका अच्छे से निभाने के लिए यह इच्छा रखना भर काफी नहीं है—इसके लिए वास्तविक क्रियाकलाप जरूरी है। जब दूसरी जीवित चीजें मुश्किलों का सामना करती हैं या वे जरूरतमंद होती हैं तो तुम्हें उनकी सहायता करने के लिए मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए। अगर उनका मरना या किसी बड़ी आपदा का सामना करना नियत है और तुम मदद नहीं कर सकते तो कुछ नहीं करना है और तुम्हें बस चीजों को अपने आप होने देना चाहिए—तुम्हें बस पूरी कोशिश करनी है। अगर तुम उन्हें मुश्किलों या खतरे में देखते हो, तो उसी समय तुम्हें अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभाना चाहिए। अगर नहीं देखते तो उसे ढूँढ़ने के लिए मेहनत करने की जरूरत नहीं है—यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। उनकी अपनी नियति है और तुम्हें इस बारे में अग्रसक्रिय रूप से कोशिश करने की जरूरत नहीं है। इसके उलट, अगर वे मुश्किल में हैं और तुमसे मदद माँगते हैं, तो मदद का हाथ बढ़ाना तुम्हारा भारी कर्तव्य है; तुम्हें मना नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें सड़क पर कोई जंगली हंस मिलता है जो तुम्हारा रास्ता रोक रहा है और तुम्हें जाने से रोकने की कोशिश कर रहा है तो अगर तुम्हारा दिल प्रेममय है तो तुम्हें समझना चाहिए कि हंस मुश्किल में है और मदद माँगने के लिए तुम्हारे पास आया है। इस समय तुम्हें क्या करना चाहिए? (हंस के पीछे जाकर देखना कि क्या गड़बड़ी है और कर सकें तो मदद करना।) यह सही है। हंस के पीछे जाओ, देखो वह तुम्हें कहाँ ले जाता है और उसे किस मुश्किल या खतरे का सामना करना पड़ा है जिसके लिए इंसानी मदद की जरूरत है। तुम्हें उसकी मदद करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए—तुम उसे मँझधार में नहीं छोड़ सकते। जिम्मेदारी की यही भावना है जो इंसानों में होनी चाहिए। परमेश्वर द्वारा बनाए गए विभिन्न जीवों से प्यार करना, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों से प्यार करना—यह सकारात्मक चीजों से प्यार करने का चरित्र है जो लोगों में होना चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या यह पुण्य संचित करना और अच्छा काम करना है?” नहीं। “पुण्य संचित करना और अच्छा काम करना” वाली बात सही नहीं है। ऐसे बड़े बोल बोलने की जरूरत नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो, पुण्य संचित करने और अच्छा काम करने का पूरा विचार बकवास है! यह इंसान के दायित्व निभाना है; यह जिम्मेदारी की सबसे बुनियादी भावना है जो लोगों में होनी चाहिए। एक बार जब तुम हंस की मदद कर देते हो, तो तुम्हारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है। तुम्हें उससे धन्यवाद देने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, न ही तुम्हें उससे अपनी दया का बदला चुकाने की उम्मीद करनी चाहिए—तुमने जो किया वह ऐसी चीज थी जिसे करने के लिए इंसान बाध्य हैं। यह दायित्व पूरा करना और जिम्मेदारी की यह भावना रखना परमेश्वर के वचनों का पालन करना है—परमेश्वर द्वारा बनाई गई और आदेशित सभी चीजें सकारात्मक चीजें हैं और हमें उनसे प्यार करना चाहिए। परमेश्वर का आदेश है कि उसकी बनाई सभी चीजों से प्यार करो। यह मानवता के सामान्य बोध का हिस्सा है जो कम से कम, सभी चीजों के स्वामी होने के नाते इंसानों में होना चाहिए। विशिष्ट रूप से यह जिम्मेदारी की वह भावना है जो कम से कम, उनमें होनी चाहिए। दूसरे जीवों के साथ दखलंदाजी मत करो, उनके जीने के नियम नष्ट मत करो और उनसे उनका जीने का अधिकार मत छीनो; इसके अलावा, उन्हें किसी खास तरीके से जीने में अप्राकृतिक ढंग से मदद करने या किसी खास तरीके से जीने के लिए उनका मार्गदर्शन करने और उन्हें विनियमित करने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बजाय, उनके जीने के कानूनों और उनके जीने के नियमों का सम्मान करो। जब उन्हें मदद की जरूरत हो, अगर तुम्हें यह दिखे, तो तुम्हें उनसे टालमटोल नहीं करनी चाहिए या आँखें नहीं मूँदनी चाहिए, उन्हें नुकसान होते और मरते हुए नहीं देखना चाहिए, बल्कि इंसानों को जो जिम्मेदारी और दायित्व निभाना चाहिए, उसे निभाने के लिए मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए। उनकी मदद करके तुम उन्हें बचाते हो। इससे तुम थककर चूर नहीं हो जाओगे, न ही इसके लिए तुम्हें कोई बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी या बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी और उन्हें बचाने के लिए अपनी जान तो बिल्कुल भी नहीं देनी पड़ेगी। इसमें तुम्हारा कुछ नहीं जाएगा; यह ऐसी चीज है जो तुम्हें एक इंसान के तौर पर करनी ही चाहिए। अगर तुमसे उन्हें अपनी पूरी ताकत से बचाने के लिए कहा जाए, तो यह हासिल करना आसान नहीं होगा, लेकिन तुम्हें चीजों को उनके प्राकृतिक तरीके से होने देना चाहिए—उनमें दखल नहीं देना चाहिए, उनके जीवन-परिवेश को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए या उनके जीने के नियम नष्ट नहीं करने चाहिए और उनसे उनका जीने का अधिकार नहीं छीनना चाहिए। अगर तुम यह भी नहीं कर सकते, तो तुम अमानव हो, तुम इंसान का पुनर्जन्म नहीं हो और तुममें मानवता नहीं है। मानवता न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुममें जानवरों की रक्षा करने, उनकी देखभाल करने और परमेश्वर द्वारा बनाए गए जीवों का सम्मान करने का जमीर और विवेक तक नहीं है। अगर तुम हमेशा उन्हें नुकसान पहुँचाने, उन्हें खाने और उनसे उनका जीने का अधिकार छीनने के बारे में सोचते रहते हो, तो तुम इंसान नहीं बल्कि एक जंगली जानवर हो। क्या अब यह स्पष्ट है? (हाँ।)

परमेश्वर जो आदेशित करता है, उसके बारे में कुछ अन्य स्थितियाँ हैं। उदाहरण के लिए, कुछ जानवरों के जिंदा रहने के नियम दूसरे जीवों से थोड़े अलग या उलटे तक होते हैं, जैसे उल्लू, चमगादड़ और कुछ दूसरे जानवर, जिनका जिंदा रहने का नियम दिन में सोना और रात में सक्रिय रहना है। यह परमेश्वर ने आदेशित किया था और अगर कभी-कभी खास परिस्थितियों की वजह से ये जानवर कुछ समय के लिए अपनी यह दिनचर्या बदल भी लेते हों, तो भी सामान्य स्थितियों में उनके जिंदा रहने के कानून और नियम बुनियादी तौर पर नहीं बदलते। लोग हमेशा इन जानवरों के नियम बदलने के बारे में सोचते रहते हैं, उन्हें इंसानों की तरह दिनचर बना देते हैं। वे इन जानवरों के जींस और ब्लड सीरम, उनके एक्टिविटी पैटर्न वगैरह पर अनुसंधान करते हैं, उनके जिंदा रहने के नियमों और एक्टिविटी पैटर्न को बदलने और नष्ट करने का हर तरीका सोचते हैं। क्या यह अच्छा है? (नहीं।) क्या ऐसा व्यवहार, ऐसी सोच एक सकारात्मक चीज है? (नहीं।) यह एक नकारात्मक चीज है और ऐसी चीज है जो गैर-मानव करते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान से ये जीव थोड़े बदल तो जाते हैं, लेकिन बहुत दर्दनाक और असामान्य रूप से जीने लगते हैं। सामान्य लोग यह नहीं देख सकते। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “अब इतने सारे चूहे हो गए हैं; अगर कुत्ते चूहों को पकड़ पाते तो कितना अच्छा होता। कुत्ते घर की रखवाली भी कर सकते और हम कुत्तों के खाने पर पैसे भी बचा सकते क्योंकि वे चूहे खाते और हमें बिल्लियाँ रखने की जरूरत न पड़ती। एक तीर से तीन शिकार हो जाते। कितना अच्छा होता, है ना?” फिर वे अनुसंधान करते हैं कि बिल्लियों और कुत्तों के जींस कैसे मिलाए जाएँ, ताकि कुत्तों में कुत्ते और बिल्ली दोनों के जींस हों और वे एक डॉग-कैट हाइब्रिड बन जाएँ जो घर की रखवाली भी कर सकें और चूहे भी पकड़ सकें। क्या यह विचार अच्छा है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि वे हमेशा परमेश्वर ने जो आदेशित किया है उसे नष्ट करना चाहते हैं और परमेश्वर द्वारा आदेशित कानून तोड़ना चाहते हैं। यह ठीक वही है जो शैतान करता है और जो भ्रष्ट मानवजाति करती है।) ऐसे विचार बुरे होते हैं। बुरे विचार कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से शैतान और बुरी आत्माओं से आते हैं। इसलिए, ऐसे भ्रष्ट लोग गैर-मानव होते हैं। वे हमेशा परमेश्वर द्वारा आदेशित सकारात्मक चीजें बदलना चाहते हैं और विभिन्न जीवों के परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल कार्य, एक्टिविटी पैटर्न और जिंदा रहने के नियम बदलना चाहते हैं। वे हमेशा जीवों के परमेश्वर द्वारा आदेशित जीवन-रूप नष्ट करना चाहते हैं, वे हमेशा कुछ बुरे और बहुत ज्यादा विद्रोही विचार, सोच और दृष्टिकोण विकसित कर लेते हैं और हमेशा परमेश्वर द्वारा आदेशित विभिन्न चीजें नष्ट करना चाहते हैं। ऐसे लोग गैर-मानव हैं; उनमें मानवता नहीं है। उनकी सोच या क्रियाकलाप कभी भी जमीर और विवेक के दायरे में नहीं होते, बल्कि वे हमेशा सामान्य मानवता का दायरा पार करना चाहते हैं—यह गैर-मानव होने की अभिव्यक्ति है। वे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के भीतर सभी चीजों के परमेश्वर द्वारा आदेशित जीने के नियमों और अस्तित्व के रूपों का सम्मान नहीं करते या उन्हें कायम नहीं रखते। इसके बजाय, वे हमेशा परमेश्वर द्वारा आदेशित जीने के नियम नष्ट करना, बाधित करना और बदलना चाहते हैं, ताकि दूसरे जीवों के जीने के तरीके बदल सकें। वे चाहते हैं कि बिल्लियाँ अब बिल्लियाँ न रहें और कुत्ते अब कुत्ते न रहें, उन सभी को असामान्य, बुरी चीजों में बदल दें, उन्हें एक बुरी दिशा में विकसित होने पर मजबूर कर दें। वे हमेशा सकारात्मक चीजों का अस्तित्व नष्ट करना चाहते हैं और हमेशा सकारात्मक चीजों के जीवन-रूप नष्ट करना चाहते हैं। क्या वे गैर-मानव नहीं हैं? (हैं।) गैर-मानव जो विचार और दृष्टिकोण पैदा करते और रखते हैं, वे नकारात्मक चीजें होती हैं और वे सकारात्मक चीजों की विरोधी होती हैं। चूँकि उनके दृष्टिकोण नकारात्मक चीजें होती हैं और वे सकारात्मक चीजों की विरोधी होती हैं, इसलिए क्या उनके द्वारा अपने पेशों में पैदा की जाने वाली वस्तुएँ और उनसे मिलने वाले नतीजे नकारात्मक चीजें नहीं होतीं? (होती हैं।) ये चीजें नकारात्मक चीजें होती हैं। हालाँकि कुछ चीजें मानवजाति पर सीधे कोई बुरा असर नहीं डालतीं या उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचातीं, फिर भी अगर वे परमेश्वर द्वारा आदेशित चीजों की विरोधी हैं, अगर वे परमेश्वर द्वारा बनाए गए कानूनों और नियमों का उल्लंघन करती हैं और अगर उनका जीने का एक अलग तरीका या अलग कानून और नियम हैं जो मनुष्य के परमेश्वर द्वारा आदेशित कानूनों और नियमों में अप्राकृतिक दखल देने, उनका प्रसंस्करण करने और उन्हें नष्ट करने के कारण बने हैं, तो ये चीजें नकारात्मक चीजें हैं। चाहे जितने भी लोग ऐसी चीज के अस्तित्व को स्वीकारते और मानते हों या चाहे वह जितने भी लोगों के जीवन और अस्तित्व को भौतिक सुख देती हो, अगर वह परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल रूप में नहीं है और अगर वह परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल अवस्था में नहीं है, बल्कि उसके अस्तित्व की आदेशित संरचना, रूप या कानून और नियम बदल और नष्ट कर दिए गए हैं, तो वह एक नकारात्मक चीज है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शैतान ने उसका प्रसंस्करण कर दिया है, उसे नुकसान पहुँचा दिया है और बदल दिया है और उसमें शैतान की संरचनाएँ, उसके विचार और दृष्टिकोण, यहाँ तक कि शैतान के कुछ जहर या शैतान की साजिशें भी डाल दी गई हैं। अगर लोग उसकी असलियत न जान पाएँ, तो भी वह एक नकारात्मक चीज है। संक्षेप में, अगर वह ऐसी चीज है जो परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल चीज की विरोधी है, ऐसी चीज जिसका परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल रूप, संरचना या जीने के कानून और नियम—चाहे वह जीवित चीज हो या निर्जीव—नष्ट कर दिए गए और बदल दिए गए हैं और साथ ही जिसमें शैतान की तरफ से विभिन्न अतिरिक्त चीजें डाल दी गई या जोड़ दी गई थीं, तो वह एक नकारात्मक चीज है और पहले ही विकृत की जा चुकी है। इंसानों के भौतिक जीवन या अस्तित्व पर उसका चाहे कितना भी असर हो, अगर उसमें गुणात्मक बदलाव हुआ है और उसकी गुणवत्ता बदल गई है, तो वह एक नकारात्मक चीज है। यह पक्का है और बिल्कुल भी गलत नहीं है। अगर कोई चीज नकारात्मक चीज है, चाहे वह इस दुनिया में कितने भी समय से मौजूद हो या मनुष्य और समाज द्वारा कितने भी समय से स्वीकृत हो, अगर वह परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल चीज नहीं है, तो परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता और अगर परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता, तो वह एक नकारात्मक चीज है।

कुछ लोग कहते हैं, “सेब और नाशपाती दोनों परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल फल हैं। अगर दोनों की कलम लगाकर सेब-नाशपाती बना दी जाए, तो क्या वह नकारात्मक चीज होगी? हमें उसे खाना चाहिए या नहीं?” यह ऐसी चीज है जो रोजमर्रा की जिंदगी में सामने आ सकती है, है ना? मुझे बताओ, तुम्हें उसे खाना चाहिए या नहीं? अगर तुम उसे खाओगे तो क्या तुम्हें जहर चढ़ जाएगा? क्या उससे तुम्हें शारीरिक नुकसान होगा? क्या उससे तुम्हारी उम्र पर असर पड़ेगा? क्या उससे इस बात पर असर पड़ेगा कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है? क्या उससे तुम्हारे परिणाम पर असर पड़ेगा? इस मामले को कैसे देखना चाहिए? यह इस बात की परीक्षा लेता है कि तुम सत्य सिद्धांत समझते हो या नहीं और क्या तुम समझते हो कि हमने पहले किस बारे में संगति की थी। अगर तुम सत्य के इस पहलू को समझते हो और तुमने इस बारे में सत्य सिद्धांत समझ लिए हैं, तो जब तुम असल जिंदगी में चीजों का सामना करोगे, तो तुम जान जाओगे कि अभ्यास कैसे करना है, तुम जान जाओगे कि कौन-से क्रियाकलाप सत्य का उल्लंघन करते हैं और कौन-से क्रियाकलाप सत्य कायम रखते हैं और सत्य सिद्धांतों के दायरे में हैं। क्या तुम्हें सेब-नाशपातियाँ खानी चाहिए? (नहीं।) क्या ऐसा है कि तुम उन्हें खाने की हिम्मत नहीं करोगे या उन्हें खाना ही नहीं चाहिए? (हम उन्हें खाने की हिम्मत नहीं करेंगे।) तुम लोग कहते हो कि तुम उन्हें खाने की हिम्मत नहीं करोगे, लेकिन क्या तुमने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उनमें से काफी सेब-नाशपातियाँ खाई नहीं हैं? और उन्हें खाने के बाद क्या हुआ? क्या तुम्हें शारीरिक रूप से नुकसान हुआ? पहले तो, आओ यह तय करते हैं कि सेब-नाशपाती एक सकारात्मक चीज है या नकारात्मक। तुम लोगों ने कहा कि इसे नहीं खाना चाहिए। इस कथन का निहितार्थ यह है कि सेब-नाशपाती एक नकारात्मक चीज है, इसलिए उसे नहीं खाना चाहिए। क्या तुम्हारा यही मतलब था? (हाँ।) तो क्या यह समझ सही है? क्या सेब-नाशपातियों का मामला इसी तरह से समझना चाहिए? अगर मैंने तुम लोगों को संगति के लिए यह उदाहरण न दिया होता, तो तुम लोग सोचते कि सेब-नाशपातियाँ नहीं खानी चाहिए, कि उन्हें खाने से तुम्हारे अंदर जहर फैल जाएगा—ठीक वैसे ही जैसे ईव ने जब परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन कर अच्छे और बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाया, तो शैतान ने उसे पाप करने के लिए बहकाया और वह अविभाज्य रूप से शैतान के हाथों में पड़ गई। तुम सोचते कि, खासकर यह देखते हुए कि अब परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार का अहम क्षण है और समय फिसलता जा रहा है, तुम्हें सावधान रहना चाहिए और बिना सोचे-समझे चीजें नहीं खानी चाहिए, कि अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हो और प्रशासनिक आदेश भंग कर सकते हो, जिससे तुम्हें बचाए जाने का मौका नहीं मिलेगा और तब तक पछताना बेकार हो जाएगा। तुम लोग इस मामले की असलियत नहीं जान सकते; तुम लोग इतनी छोटी-सी चीज से चकरा गए हो। तुम लोग सोचते हो कि सेब-नाशपातियाँ नहीं खानी चाहिए और तुम उन्हें खाने की हिम्मत नहीं करोगे, कि ऐसा करना सिद्धांतों का उल्लंघन करना और प्रशासनिक आदेश भंग करना होगा, जो भयानक होगा! क्या तुम सब यही नहीं सोचते? तो, तुम्हें सेब-नाशपातियाँ खानी चाहिए या नहीं? (परमेश्वर, हमने अभी इस बारे में चर्चा की और हम सोचते हैं कि हम सेब-नाशपातियाँ खा सकते हैं, क्योंकि मनुष्य सेबों और नाशपातियों को सिर्फ बेहतर बना रहा है और उसने परमेश्वर द्वारा उनके लिए आदेशित कानून नहीं बदले हैं। इसलिए सेब-नाशपातियाँ खाने से प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं होता।) तुम लोगों की संगति के बाद तुम्हें कुछ स्पष्टता मिली है और अब तुम समझते हो कि सेब-नाशपाती के संबंध में परमेश्वर द्वारा आदेशित कानून मूल रूप से अपरिवर्तित रहे हैं, इसलिए तुम उसे खा सकते हो। तुम लोगों ने अभी जो कहा वह सही है; बस तुमने इसे स्पष्ट रूप से नहीं बताया। आओ अभी इस सवाल पर चर्चा नहीं करते कि सेब-नाशपातियाँ खाई जा सकती हैं या नहीं; आओ पहले इस बारे में बात करते हैं कि वे परमेश्वर द्वारा आदेशित कानूनों का उल्लंघन क्यों नहीं करतीं। सेब के पेड़ और नाशपाती के पेड़ दोनों परमेश्वर द्वारा सृजित पौधे हैं और लोग उन पर लगने वाले फल खा सकते हैं। जब इन दोनों पौधों की एक-साथ कलम लगाई जाती है या उनका क्रॉस-पॉलिनेशन किया जाता है, तो एक अलग तरह का फल पैदा होता है। चाहे यह अप्राकृतिक रूप से किया जाए या प्राकृतिक रूप से, मूल रूप से इस फल की उत्पत्ति, उसके अस्तित्व का रूप और उसके जीवित रहने के कानून और नियम परमेश्वर द्वारा मूल रूप से आदेशित कानूनों और नियमों से अपरिवर्तित रहते हैं। अगर मनुष्य अप्राकृतिक रूप से सेब के पेड़ और नाशपाती के पेड़ की शाखाओं की एक-साथ कलम लगाए तो भी, यह उनके जीवित रहने के मूल कानूनों और नियमों, उनके मूल जीवन-रूपों के आधार पर ही होता है कि दोनों की साझा जीवन-विशेषताओं वाला फल पैदा होता है। यह फल सेब-नाशपाती कहलाता है। मनुष्य एक अलग तरह का फल पैदा करने के लिए दो पौधों की एक-साथ कलम लगाने के लिए सिर्फ अपनी जिंदा रहने की क्षमता और अपने सोचने का तरीका, अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई इस्तेमाल करता है, लेकिन यह फल, सेब-नाशपाती, परमेश्वर ने जो आदेशित किया है उसके दायरे से बाहर नहीं जाता। यह एक पहलू है। दूसरी ओर, इंसानी दखल के बिना भी, अगर सेब और नाशपाती के पेड़ एक ही जंगल में साथ-साथ उगते हैं, तो क्या वे क्रॉस-पॉलिनेशन से बच सकते हैं? एकदम प्राकृतिक परिस्थितियों में, जब फूल खिलने का मौसम आता है, उनमें क्रॉस-पॉलिनेशन हो जाएगा और जमीन के नीचे उनकी जड़ें भी आपस में गुँथ जाएँगी। चाहे पराग मधुमक्खियों से फैले या हवा और वायु-संचरण से, सेब और नाशपातियाँ एक-दूसरे के पोषक तत्त्व ले लेंगी और सेब-नाशपाती फल एकदम प्राकृतिक तरीके से पैदा हो जाएगा। तो क्या तुम अब भी कह सकते हो कि यह सेब-नाशपाती मनुष्य-निर्मित है? (नहीं।) यह एक जीवित चीज है जो परमेश्वर द्वारा आदेशित प्राकृतिक परिवेश में प्राकृतिक रूप से उगती है; यह ऐसी चीज है जो परमेश्वर द्वारा स्वीकृत दायरे में है, इसलिए यह सेब-नाशपाती कोई कानून नहीं तोड़ती। चाहे इसमें सेब की विशेषताएँ हों या नाशपाती की, संक्षेप में यह कोई नकारात्मक चीज नहीं है; यह अभी भी एक तरह का फल है जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाया है। तुम अपनी चिंताएँ एक तरफ रखकर इसे खा सकते हो—इससे तुम्हें निश्चित रूप से कोई शारीरिक नुकसान नहीं होगा। हालाँकि, जब मैंने अभी-अभी मनुष्य द्वारा सेब और नाशपाती की टहनियों की अप्राकृतिक रूप से कलम लगाने का जिक्र किया था, तो तुम लोग यह निश्चित नहीं कर सके कि सेब-नाशपाती सकारात्मक चीज है या नकारात्मक, और तुम यह सोचकर इसे खाने की हिम्मत न करते, “सेब सेब है, उसमें नाशपाती के जींस नहीं होते, और नाशपाती नाशपाती है, उसमें सेब के घटक नहीं होते; निश्चित रूप से सिर्फ इन्हें ही खाया जा सकता है!” क्या चीजों को समझने का यह तरीका विकृत नहीं है? (हाँ, है।) यह विकृत है। विभिन्न जीवित चीजें एक ही जगह पर एक-साथ रहती हैं; उनका एक-दूसरे को प्रभावित करना और एक-दूसरे की जरूरतें पूरी करना, अपनी कमजोरियों की भरपाई करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों का इस्तेमाल करना अपरिहार्य है। इसके अंदर कई विवरण और रहस्य हैं। संक्षेप में, इन सबका उद्भव, अस्तित्व और प्रभाव परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति के जीवित रहने के लिए है। यही सकारात्मक चीजों के अस्तित्व का मूल्य और महत्व है; अंततः यह मनुष्य का सामान्य जीवन और मनुष्य का प्रजनन और निरंतरता बनाए रखने के लिए है। क्या यह मामला अब स्पष्ट है? (हाँ।)

इसके बाद, आओ एक और मामले पर चर्चा करते हैं, जिसका सामना लोग अक्सर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में करते हैं। देखो और सोचो कि इसका भेद कैसे पहचानना चाहिए और इसे कैसे लेना चाहिए। इंसानों की खाने की जरूरत पूरी करने के लिए लोगों ने गैर-जैविक अनाज ईजाद किए, विभिन्न बीजों और फलों के जींस संशोधित करके पैदावार बढ़ाई। शुरू में मकसद असल में कीड़े और बीमारियाँ कम करना, ज्यादा कीटनाशक इस्तेमाल न करना और इस तरह मेहनत घटाकर और कीड़ों और बीमारियों का दखल रोककर इंसानों की जरूरत वाले विभिन्न पौधे उगाना और साथ ही इंसानों की खाने की जरूरत पूरी करने के लिए पैदावार बढ़ाना था, जिसके परिणामस्वरूप ऐसा उत्पाद बना। यह उत्पाद क्या कहलाता है? गैर-जैविक भोजन। गैर-जैविक भोजन के आविर्भाव ने इंसानों की भोजन की जरूरत काफी हद तक पूरी कर दी है। लोगों का मानना है कि जैविक भोजन की पैदावार कम होती है और वह इंसानों की जरूरतें पूरी नहीं कर सकती। गैर-जैविक अनाजों के आविर्भाव के बाद से अनाजों की पैदावार बहुत बढ़ गई है, लोगों की आमदनी भी बढ़ी है और बहुत-से लोगों की भूख की समस्या हल हो गई है। इस तरह, इंसान “किस्मत से” गैर-जैविक खाना खा पा रहे हैं। तो, गैर-जैविक भोजन सकारात्मक चीज है या नकारात्मक चीज? वह “परमेश्वर ने जो आदेशित किया है” उसका उल्लंघन करता है या नहीं? क्या गैर-जैविक भोजन खाना चाहिए? गैर-जैविक भोजन के बारे में तुम लोगों के क्या दृष्टिकोण और मत हैं? तुम जैविक और गैर-जैविक भोजन की सकारात्मकता और नकारात्मकता को कैसे परिभाषित करते हो? (जैविक भोजन प्राकृतिक होता है और वह परमेश्वर द्वारा आदेशित है। वह एक सकारात्मक चीज है। गैर-जैविक भोजन वैज्ञानिक प्रसंस्करण और उत्पत्तिमूलक संशोधन से पैदा किया जाता है। वह परमेश्वर के बनाए मूल नियमों के खिलाफ है। इसलिए गैर-जैविक भोजन एक नकारात्मक चीज है।) (गैर-जैविक भोजन में मूल जींस क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और वह परमेश्वर के बनाए कानूनों के खिलाफ है। इसके अलावा, गैर-जैविक भोजन में भोजन का मूल पोषण-मूल्य नष्ट हो जाता है; उसे खाने से लोगों की सेहत को कोई फायदा नहीं होता। आजकल ऐसे बहुत सारे लोगों में, जो कई सालों से गैर-जैविक भोजन खा रहे हैं, सेहत से जुड़ी समस्याएँ व्यापक रूप से दिखाई देती हैं, इसलिए मुझे लगता है कि अगर हालात इजाजत दें, तो हमें इस बात की भरसक कोशिश करनी चाहिए कि उसे न खाएँ। लेकिन आज के समाज में ज्यादातर खाना गैर-जैविक है, इसलिए जिंदा रहने के लिए हमें निश्चित रूप से गैर-जैविक भोजन खाना पड़ता है।) तुम लोगों ने जो कुछ भी कहा है, वह सब सिद्धांतों के अनुरूप है और उसके मुख्य बिंदु सही हैं, लेकिन यह बहुत एकांगी है और कुछ विवरण ऐसे हैं जो स्पष्ट रूप से नहीं बताए गए हैं। कुछ लोग कहते हैं, “गैर-जैविक भोजन और जैविक भोजन बाहर से एक-सा दिखता है और उनका स्वाद कमोबेश एक-सा ही होता है। गैर-जैविक भोजन बुनियादी रूप से भोजन के परमेश्वर द्वारा आदेशित मूल रूपों से कोई अलग नहीं है। कुछ गैर-जैविक भोजन तो जैविक भोजन से बेहतर दिखता है और उसकी पैदावार भी जैविक भोजन से ज्यादा होती है और स्वाद भी जरूरी नहीं कि जैविक भोजन से बहुत ज्यादा खराब हो। तो फिर जैविक भोजन सकारात्मक चीज और गैर-जैविक भोजन नकारात्मक चीज क्यों है?” हालाँकि तुम लोगों ने अभी-अभी कहा कि तुम निश्चित हो कि जैविक भोजन सकारात्मक चीज है और गैर-जैविक भोजन नकारात्मक चीज है, लेकिन तुम लोग यह नहीं समझते कि उनमें इस तरह से अंतर क्यों किया जाता है; तुम लोग अभी भी यहाँ विवरण नहीं समझते। एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो तुम्हें जानना चाहिए : ऐसा क्यों है कि बाहर से एक-सी दिखने वाली दो चीजों में से एक सकारात्मक चीज है और दूसरी नकारात्मक चीज? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा इसलिए है क्योंकि गैर-जैविक भोजन का वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण किया जाता है और विज्ञान ने उसे नुकसान पहुँचा दिया है।” क्या यह कथन सही है? धर्म-सिद्धांत के अनुसार यह सही है। ऐसा लगता है कि यही मामला है। लेकिन सुनने के बाद भी लोगों को समझ नहीं आता। तो, उनके सार के अनुसार जैविक और गैर-जैविक भोजन में क्या फर्क है जो उन्हें क्रमशः सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के रूप में परिभाषित करने देता है? यह परिभाषा किस पर आधारित है? परमेश्वर इसे कैसे देखता है? इसमें सत्य क्या है? यह मुद्दे के सार तक पहुँचता है।

जैविक चीजें परमेश्वर से आती हैं। वे वही हैं जो परमेश्वर ने बनाई हैं और मनुष्य ने उन्हें “जैविक” नाम दिया है। अभी हम “जैविक” शब्द की उत्पत्ति या स्रोत पर या इस बात पर कि लोगों ने इसे ऐसा नाम क्यों दिया, ध्यान नहीं देते। हमें अभी भी इसे परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित करने के परिप्रेक्ष्य से देखने की जरूरत है। परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित करने में एक सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण बिंदु है, वह यह कि जब परमेश्वर ने एक बीज बनाया तो उसने उसमें वे सभी पोषक तत्त्व और घटक डाले जो उसमें होने चाहिए, साथ ही उसके कार्य भी। बीज में कौन-सी चीजें डाली गईं, यह तय करने के सिद्धांतों का क्या आधार है? वे मानव-शरीर की जरूरतों पर, मानव-शरीर के आंतरिक अंगों के कार्यों की ग्रहणशीलता और इन अंगों के लिए आवश्यक पोषण संबंधी घटकों पर आधारित थे। चूँकि ऐसे बीज से उगाया गया भोजन इंसानों के खाने के लिए है, तो खाए जाने के बाद यह भोजन मानव-शरीर पर क्या प्रभाव डालेगा और इंसान अपना सामान्य शारीरिक विकास और अस्तित्व बनाए रखने के लिए इसमें से कितने पोषक तत्त्व अवशोषित कर सकते हैं, ये सभी चीजें परमेश्वर को एक बीज या एक प्रकार का भोजन सृजित करते समय ध्यान में रखनी होती हैं। यह सिर्फ मिट्टी में उग सकने वाला बीज बनाना और उसे वैसे ही छोड़ देना नहीं है, नहीं, परमेश्वर ने इस पर सोचा है। ऐसे बीज की त्वचा, गूदे और अंकुर का मानव-शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा, ये चीजें क्या परिणाम प्राप्त कर सकती हैं, मानव-शरीर को क्या चाहिए, और ऐसा भोजन खाकर इंसानों को इसमें से कौन-से पोषक तत्त्व अवशोषित करने चाहिए, ये सभी चीजें परमेश्वर को ध्यान में रखनी होती हैं। चूँकि परमेश्वर इन चीजों पर विचार करता है, इसलिए जब वह ऐसा बीज बनाता है तो उसे इसे इंसानों की जरूरत के पोषण संबंधी अनुपातों के अनुसार बनाना होता है, और इस तरह यह बीज परमेश्वर के विचारों में अस्तित्व में आता है। यह बीज के पोषण संबंधी घटकों और संरचना के परिप्रेक्ष्य से इंसानों पर उसके प्रभाव को देखना है; यह एक पहलू है जिस पर परमेश्वर इस बीज को बनाते समय विचार करता है। इसके अलावा, परमेश्वर ऐसे बीज या फल का आकार और आकृति, उसके अंकुरण के समय की अवधि, उसके अस्तित्व का रूप, मिट्टी का प्रकार जिसमें वह उगने के लिए उपयुक्त है, किस तरह की मिट्टी में वह कितने पोषक तत्त्व अवशोषित करता है, इंसान उसे खाकर उसमें से कितने पोषक तत्त्व अवशोषित कर सकते हैं, और इसी तरह की अन्य चीजें भी ध्यान में रखता है। ये सभी विवरण ऐसी चीजें हैं जिन पर परमेश्वर को विचार करना होता है। कोई बीज बनाते समय परमेश्वर जिन विभिन्न कारकों पर विचार करता है, वे अंततः एक ही बिंदु पर आते हैं और वह है मनुष्य का सामान्य शारीरिक विकास और जीवन हासिल करने के लिए उसकी भोजन की जरूरत पूरी करना। यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। एक अन्य बिंदु भी महत्वपूर्ण है। अगर किसी बीज में जीवन-शक्ति नहीं है और वह रेत के कण या पत्थर की तरह बेजान चीज है जो मिट्टी में बोने पर अंकुरित नहीं हो सकता, तो इसका मतलब है कि लोगों के इस भोजन को एक बार खाने के बाद यह दोबारा उपलब्ध नहीं होगा। ऐसा बीज मनुष्य की भोजन की जरूरत पूरी करने में समर्थ नहीं है। इसलिए, इसमें जो घटक होने चाहिए, जैसे कि इसका छिलका और गुठली, उनके अलावा इस बीज में अंकुर होना चाहिए। बेशक, यह अंकुर सभी बीजों में मौजूद जीवन का लक्षण नहीं हो सकता। संक्षेप में, छिलके और गुठली के अलावा इस बीज में जीवन-शक्ति होनी चाहिए। इंसानी भाषा में इसे जीवन-शक्ति कहा जाता है, लेकिन परमेश्वर की शब्दावली में इसका मतलब है कि इस बीज में जीवन होना चाहिए। “जीवन होने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यह प्रजनन जारी रख सकता है; अंकुरित होकर और बढ़कर यह फल देने में समर्थ होना चाहिए। बीज को अंकुरित होकर, बढ़कर और फूल देकर और ज्यादा फल पैदा करने में समर्थ होना चाहिए और बीज की ही तरह उसके फलों में भी जीवन-शक्ति होनी चाहिए और उन्हें प्रजनन कर और ज्यादा फल देने में समर्थ होना चाहिए, क्योंकि इसी तरह वह मनुष्य की भोजन की जरूरत अनंत रूप से पूरी कर सकता है। परमेश्वर के बीज सृजित और आदेशित करने के पीछे ये दो सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं : एक तो उसमें मौजूद विभिन्न पोषक तत्त्व और उसके काम, और दूसरा यह कि इस बीज में जीवन-शक्ति होनी चाहिए, यानी यह बीज जीवित होना चाहिए। इंसानी शब्दावली में, अगर कोई चीज “जीवित” है तो उसे “जैविक” कहा जाता है। यह जैविक भोजन में, जब से परमेश्वर ने इसे बनाया है, असल में जीवन है। अगर तुम इसे मिट्टी में दबा दो और पानी और खाद डालो तो यह अंकुरित होगा, बढ़ेगा, फूल देगा और फिर फल देगा और उसका हर फल वही काम करेगा जो यह करता है। यही कार्यात्मकता लगातार मनुष्य की भोजन की जरूरत पूरी करती है, मनुष्य का भौतिक अस्तित्व बनाए रखती है और मनुष्य का प्रजनन और नैरंतर्य कायम रखती है। इसके अलावा, यह बीज मिट्टी में मिल जाता है और फल देता है, और ये फल—बीज की ही तरह—मनुष्य को प्रदान करने के लिए और फल देते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रजनन करने और फलने-फूलने की उसी प्रक्रिया से गुजरते हैं। इस तरह मनुष्य को भोजन की अनंत आपूर्ति होती है। भोजन की आपूर्ति के साथ, भोजन के स्रोत के साथ मनुष्य का भौतिक जीवन और अस्तित्व अनंत रूप से जारी रहता है और वह कभी बिना भोजन के नहीं रहेगा। इस तथ्य से यह देखा जा सकता है कि मनुष्य के आज तक जिंदा रहने में परमेश्वर द्वारा बनाए गए विभिन्न बीजों का योगदान नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मनुष्य को ऐसा योगदान देने का आधार परमेश्वर का सृजन और परमेश्वर का आदेश है। लेकिन अगर परमेश्वर द्वारा बीज के लिए आदेशित दो सबसे जरूरी चीजें नष्ट हो जाएँ—एक तो बीज के पोषक तत्त्व और उसके काम, और दूसरा उसकी असली जीवन-शक्ति—अगर ये दोनों चीजें खत्म हो जाएँ, तो जब बीज मिट्टी में गिरेगा तो वह न तो अंकुरित होगा, न बढ़ेगा, न फूल देगा और न ही फल देगा। वह सिर्फ मिट्टी में गायब हो जाएगा और तभी से इंसानों के भोजन का स्रोत खो जाएगा। तब मनुष्य किस चीज का सामना करेगा? (मौत का।) वह भूख, अकाल और फिर मौत का सामना करेगा और वह बच्चे पैदा करके अपनी नस्ल आगे नहीं बढ़ा पाएगा। यह एक पहलू है और यह बहुत गंभीर है। दूसरा पहलू यह है कि, जब किसी बीज का अप्राकृतिक तरीके से प्रसंस्करण किया जाता है, तो उसके पोषक तत्त्व बहुत कम हो जाते हैं, मूल रूप से कई तरह के पोषक तत्त्व होने के बजाय अब सिर्फ थोड़ी मात्रा में रह जाते हैं। इसके अलावा, उसके काम भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, एक खास तरह का भोजन पहले दिमाग को पोषण देता था, शारीरिक ताकत बढ़ाता था और लोगों को जीवन-शक्ति देता था, लेकिन अब, अप्राकृतिक प्रसंस्करण से गुजरने के बाद, ये काम बहुत कम हो गए हैं या पूरी तरह खत्म तक हो गए हैं। अगर कोई ऐसा खाना बहुत ज्यादा भी खाता है, तो भी उसे शारीरिक थकान महसूस होती है, उसकी सोच धीमी हो जाती है और याददाश्त में गिरावट आ जाती है। हालाँकि वह बूढ़ा नहीं होता, लेकिन बूढ़े व्यक्ति जैसा लगने लगता है। उसके पैर भारीपन महसूस करते हैं, शरीर अकड़ जाता है और त्वचा बूढ़ी लगने लगती है। वे शारीरिक रूप से बड़े हो गए दिखते हैं, लेकिन अंदर से वे जैविक भोजन खाने वालों से अलग महसूस करते हैं। अगर भोजन के मूल कार्य कमजोर पड़ जाते हैं या खत्म तक हो जाते हैं, तो खाए जाने के बाद वह लोगों के शरीर को न केवल कोई फायदा नहीं पहुँचाता, बल्कि उन पर कई बुरे असर भी डालता है। शरीर के लिए जरूरी विभिन्न पोषक तत्त्व समय पर नहीं मिल पाते, और साथ ही, शरीर के कई कार्य धीरे-धीरे खराब होने लगते हैं और खत्म हो जाते हैं। प्राकृतिक नतीजे के तौर पर, इस दुष्चक्र के कारण लोगों की सोच धीमी हो जाती है और उनमें कुछ अजीब हरकतें या विचार भी आ सकते हैं। ऐसी अभिव्यक्तियाँ गैर-जैविक भोजनों के लोगों पर पड़ने वाले कुछ बुरे असर और नतीजे हैं। गैर-जैविक भोजनों में वे घटक नहीं होते जो परमेश्वर द्वारा बनाए अनुसार उनमें होने चाहिए और वे अपना मूल कार्य भी खो चुके हैं। वे परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित मूल चीजों से अलग हैं। वे सब अप्राकृतिक तरीके से प्रसंस्करण करके बदल दिए गए हैं।

हालाँकि लोग मनुष्य की भोजन की जरूरत पूरी करने के लिए गैर-जैविक भोजन सृजित करते हैं, लेकिन ऐसा भोजन मनुष्य की सेहत और प्रजनन के लिए तमाम तरह के विपरीत कारक पेश करता है, जो मनुष्य की वंश-वृद्धि और उसके अस्तित्व पर असर डालते हैं। इसलिए, तुम्हें गैर-जैविक भोजन का भेद पहचानना चाहिए। हजारों सालों से मनुष्य जैविक भोजन का आनंद लेता आ रहा है। हम क्यों कहते हैं कि जैविक भोजन एक सकारात्मक चीज है, जबकि गैर-जैविक भोजन एक नकारात्मक चीज है? सबसे बड़ा फर्क क्या है? मूल बिंदु क्या है? मूल बिंदु यह है कि जैविक भोजन मनुष्य के लिए परमेश्वर बनाता है; वह परमेश्वर द्वारा आदेशित है। उसमें परमेश्वर के बनाए हुए मूल घटक और कार्य होते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें वह जीवन-शक्ति होती है जो परमेश्वर ने उसे दी है, जबकि गैर-जैविक भोजन ने वे मूल घटक और कार्य खो दिए हैं और उसमें परमेश्वर का दिया हुआ जीवन भी नहीं होता। चूँकि उसमें परमेश्वर द्वारा आदेशित ये दो सबसे महत्वपूर्ण चीजें नहीं होतीं, इसलिए वह परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित सकारात्मक चीजों के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। गैर-जैविक भोजन एक ऐसी चीज है जिसका इंसानी विज्ञान ने प्रसंस्करण किया है, उसे नुकसान पहुँचाया है और बदल दिया है, और अब उसमें सकारात्मक चीज की विशेषताएँ नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसमें परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित सकारात्मक चीजों के घटक और उनका सार नहीं है, और इसके बजाय वह परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित सकारात्मक चीजों के कार्यों और सार के खिलाफ जाता है। सकारात्मक चीजों के कार्यों और सार के खिलाफ जाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब परमेश्वर ने एक निश्चित बीज बनाया, तब उसका कार्य मनुष्य के लिए था, वह मनुष्य की सेवा करने और उसे लाभ पहुँचाने के लिए था और मनुष्य की सामान्य शारीरिक जरूरतें पूरी करने और अस्तित्व कायम रखने के लिए था, जबकि गैर-जैविक भोजन मनुष्य के सामान्य अस्तित्व को नुकसान पहुँचाता और उसे बाधित करता है, और साथ ही लोगों के सामान्य जीवन और अस्तित्व के लिए कई ऐसे नकारात्मक प्रभाव और नतीजे लाता है जिन्हें पलटा नहीं जा सकता। इसलिए गैर-जैविक भोजन को नकारात्मक चीज कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है। है ना? (हाँ।) क्या यह मुद्दा अब स्पष्ट है? (हाँ।) जैविक भोजन सकारात्मक चीज क्यों है, जबकि गैर-जैविक भोजन नकारात्मक चीज है? मोटे तौर पर कहें तो, जैविक भोजन परमेश्वर से आता है, मानवता को लाभ पहुँचाता और उसकी सेवा करता है, और मनुष्य के जीवन और अस्तित्व में योगदान करता है; वह मनुष्य के जीवन और अस्तित्व में ऐसा कार्य करता है जो कोई नहीं कर सकता—वह जो भूमिका निभाता है उसे कोई नहीं निभा सकता। लेकिन क्या गैर-जैविक भोजन मनुष्य की सेहत के लिए फायदेमंद है? (नहीं।) बिल्कुल उलटा : वह मनुष्य की सेहत के लिए फायदेमंद नहीं है; बल्कि वह मनुष्य की सेहत को नुकसान पहुँचाता है और मनुष्यों के भौतिक जीवन और अस्तित्व के लिए बहुत पीड़ा और परेशानी लाता है। उदाहरण के लिए, वह शरीर में कई तरह की दिक्कतें पैदा करता है, जैसे रक्त-संचार धीमा होना, अंगों में अकड़न होना, पैरों में भारीपन होना और चक्कर आना, और इससे कई बीमारियाँ समय से पहले ही शुरू हो जाती हैं और बढ़ जाती हैं; लोगों की एलर्जी संबंधी प्रतिक्रियाएँ भी उत्तरोत्तर गंभीर होती जा रही हैं। विभिन्न स्तरों की विपरीत प्रतिक्रियाएँ त्वचा से लेकर आंतरिक अंगों तक कई चीजों को प्रभावित करती हैं। ये वे विभिन्न परेशानियाँ और पीड़ाएँ हैं जो गैर-जैविक भोजन मनुष्य के भौतिक जीवन और अस्तित्व के लिए लाता है। चूँकि मानव-शरीर परमेश्वर ने बनाया है, इसलिए सिर्फ परमेश्वर ही उसकी संरचना और जरूरतें सर्वोत्तम ढंग से समझता है। इसलिए परमेश्वर ने मानव-शरीर की संरचना और जरूरतों के आधार पर मनुष्य के लिए तमाम तरह का भोजन बनाया। दक्षिण से उत्तर तक, पूरब से पश्चिम तक परमेश्वर ने विभिन्न प्रकार के भोजन बनाए जो स्थानीय लोगों के जीवन और अस्तित्व के लिए हितकर है। परमेश्वर द्वारा बनाए गए सभी भोजनों के मूल रूप मनुष्य के जीवन और अस्तित्व के लिए जरूरी भोजन-स्रोत उपलब्ध कराने के लिए हैं; मनुष्यों के भौतिक जीवन और अस्तित्व के लिए वे सब जरूरी हैं। यानी, व्यक्ति के शरीर को जीना और बने रहना है तो वह परमेश्वर द्वारा सृजित इन पौधों के बिना नहीं हो सकता। जब तक ये पौधे और बीज परमेश्वर से आते हैं, तब तक वे अपने मूल रूप में होते हैं, उनमें परमेश्वर द्वारा सृजित जरूरी कार्य और घटक होते हैं, साथ ही उनमें परमेश्वर द्वारा दी गई जीवन-शक्ति भी होती है। बीज चाहे कहीं भी हो—भले ही वह चट्टानों की दरारों में गिर जाए जहाँ मिट्टी नहीं होती—अगर उसमें जीवन-शक्ति है तो वह सामान्य रूप से अंकुरित हो सकता है, बढ़ सकता है और पक सकता है और, और ज्यादा बीज पैदा कर सकता है। केवल इसी तरह के ज्यादा व्यापक परिवेश में, जहाँ सभी चीजें प्रजनन करती और जीवित रहती हैं, लोग अपने शरीर के लिए भोजन का स्रोत पा सकते हैं, लगातार विभिन्न गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं और प्रजनन करते और जीते रह सकते हैं। अगर विभिन्न पौधे और बीज परमेश्वर द्वारा सृजित अपने मूल कार्य खो देते हैं, तो यह मनुष्य को भोजन से वंचित करने और मनुष्य का भोजन-स्रोत छीन लेने के बराबर है। भले ही लोग कुछ ऐसे भोजन बना लें और पैदा कर लें जो अपने मूल रूप में नहीं हैं और जो अस्थायी रूप से उनकी भूख मिटा सकते हैं, फिर भी चूँकि प्रसंस्करण से गुजरने के बाद भोजनों के मूल रूप बदल जाते हैं और वे अपने मूल कार्य छोड़ देते हैं, इसलिए उन्हें खाने के बाद लोगों के भौतिक कार्य और एहसास भी तदनुसार बदल जाते हैं। समय के साथ लोगों के शरीर भी कुछ विपरीत प्रतिक्रियाएँ अनुभव करेंगे; उन्हें कुछ बीमारियाँ और पीड़ाएँ हों जाएँगी, और इसके कुछ गंभीर नतीजे तक हो सकते हैं। यह मानवता के लिए भोजन बनाने में परमेश्वर के मूल इरादे के खिलाफ है और यह अस्तित्व के उन कानूनों और नियमों के भी खिलाफ है जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए आदेशित किए थे। इसलिए, चाहे तुम इसे कैसे भी देखो, अगर कोई चीज किसी जीवित चीज के सृजन में परमेश्वर के मूल इरादे और परमेश्वर द्वारा आदेशित कानूनों और नियमों के खिलाफ जाती है, तो उसने वह कार्य जिसके साथ परमेश्वर ने उसे बनाया था और वह भूमिका जो उसे निभानी चाहिए, साथ ही वह जीवन-शक्ति जो परमेश्वर ने उसे दी थी, खो दी है और इसलिए उसका सार बदल गया है। गैर-जैविक भोजन का उद्भव भोजन के सृजन के परमेश्वर के मूल इरादे के खिलाफ है; जब वैज्ञानिक भोजन के बीजों का वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण करते और उसे बदलते हैं, तो इससे भोजन का सार बदल जाता है। इस तरह, गैर-जैविक भोजन एक नकारात्मक चीज है। भले ही उसका रंग-रूप ज्यादा जीवंत और सुंदर हो जाए या वह बड़ा हो जाए या उसकी मात्रा बढ़ जाए—चाहे वह कैसे भी बदले, अगर वह उसके सृजन के परमेश्वर के मूल इरादे के खिलाफ जाता है और परमेश्वर द्वारा दिए गए अपने कार्य और जीवन-शक्ति खो देता है, तो वह एक नकारात्मक चीज है। यह बिना किसी संदेह के निश्चित है। चाहे वह कुछ भी हो, और चाहे उसका उद्भव किसी भी समय या किसी के भी करने से सामने आया हो, अगर उसे परमेश्वर ने सृजित या आदेशित नहीं किया, बल्कि वह परमेश्वर के सृजन और आदेश के खिलाफ जाता है, तो वह एक नकारात्मक चीज है। क्या यह मामला अब स्पष्ट है? (हाँ।)

अब जबकि गैर-जैविक भोजन के नकारात्मक होने के मामले पर स्पष्ट रूप से संगति की जा चुकी है, तो एक और मुद्दा है जिस पर संगति करने की जरूरत है। कुछ लोग पूछते हैं, “चूँकि गैर-जैविक भोजन एक नकारात्मक चीज है जो परमेश्वर के सृजन और आदेश के खिलाफ है, तो हमें उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए? क्या हमें उसे खाना चाहिए? क्या हमें उसे नहीं खाना चाहिए या सिर्फ थोड़ी मात्रा में खाना चाहिए? अभ्यास का सही तरीका क्या है?” तुममें से कुछ लोगों ने अभी बताया, “आज समाज में ज्यादातर भोजन गैर-जैविक है और अगर तुम जैविक भोजन खरीदना चाहो तो वह आसानी से नहीं मिलता—कुछ देशों और इलाकों में तो तुम उसे ज्यादा कीमत पर भी नहीं खरीद सकते। भले ही हम जैविक भोजन के फायदे और गैर-जैविक भोजन के नुकसान जानते हों, फिर भी हम कर ही क्या सकते हैं?” व्यापक परिवेश ऐसा ही है। यह शैतान की दुनिया है और यह लोगों को परमेश्वर द्वारा सृजित जीवन-शक्ति से संपन्न भोजन खाने से रोकती है। कुछ लोग कहते हैं, “हम जानते हैं कि गैर-जैविक भोजन हमारे शरीर के लिए हानिकारक है, लेकिन हमारे पास जैविक भोजन खाने का साधन नहीं है। हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें भूखे मर जाना चाहिए?” तुम भूखे नहीं मर सकते। जीने के लिए तुम्हें अभी भी गैर-जैविक भोजन खाना होगा। भले ही उसे खाना शरीर के लिए हानिकारक हो, फिर भी यह भूखे मरने से बेहतर है। भले ही तुम ऐसी मुश्किल के साथ जीते रहो, जब तक तुम मरते नहीं और अपना कर्तव्य निभा सकते हो, आखिरी पल तक डटे रहते हो और बीमार होने पर भी उद्धार पा लेते हो, तो तुमने इस दुनिया पर विजय हासिल कर ली है और शैतान को जीत लिया है। दूसरे लोग कहते हैं, “चूँकि गैर-जैविक भोजन लोगों के लिए बहुत हानिकारक है और उसके प्रभाव पलटे नहीं जा सकते, इसलिए मैं उसे बिल्कुल नहीं खाऊँगा। मैं अपने आँगन में कुछ जैविक भोजन उगाने का तरीका ढूँढूँगा।” अगर तुम्हारे पास साधन हैं, तो बेशक यह अच्छा है। लेकिन अगर तुम्हारे घर में आँगन न हो और तुम सब्जियाँ और अनाज न उगा सको, और तुम एक साधारण व्यक्ति हो जो जैविक भोजन न खरीद सकता हो, तो? तो तुम सिर्फ गैर-जैविक भोजन ही खा सकते हो। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं गैर-जैविक भोजन खाता हूँ, तो मैं कम से कम कुछ साल जिंदा रहूँगा और छोटी समयावधि में नहीं मरूँगा। अगर मुझे इससे कुछ अजीब बीमारियाँ भी हो जाएँ, तो भी इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता।” क्या तुम लोग तमाम तरह की अजीब बीमारियाँ होने और अपना जीवन-काल छोटा होने से डरते हो? (हाँ।) इस बारे में क्या किया जाना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “तब हम बस आखिरी विकल्प ही अपना सकते हैं—जो हम कर सकते हैं वही करें। जिंदा रहने के लिए हमारे पास गैर-जैविक भोजन खाने के अलावा कोई और चारा नहीं है।” क्या यह सिद्धांत सही है? (हाँ।) क्या यह वाकई सही है? तुम लोग यह भेद नहीं पहचान सकते कि यह सही है या गलत। क्या ऐसा करना जो तुम कर सकते हो वही करना और कोई और चारा न होना है? यह न तो जो तुम कर सकते हो वही करना है और न ही कोई और चारा न होना है। बल्कि यह आस्था से जीना है। क्या परमेश्वर के वचनों से एक पंक्ति नहीं है? “जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा।” लोगों का जीवन परमेश्वर के हाथों में है। कोई व्यक्ति कितने समय तक जीता है और उसकी शारीरिक स्थिति परमेश्वर के आदेश पर निर्भर है, इस पर नहीं कि वह क्या खाता है। लोगों का गैर-जैविक भोजन के बारे में सही विचार और दृष्टिकोण रखना और उसका भेद पहचानना ही काफी है। लेकिन लोगों को मौजूदा वस्तुनिष्ठ परिवेश के साथ सही तरीके से पेश आना चाहिए। अगर तुम्हारे पास अपना भोजन उगाने के लिए वित्तीय साधन या परिवेशगत स्थितियाँ नहीं हैं, तो जो उपलब्ध है वही खाओ। तो क्या तुम बीमार पड़ने या मरने के बारे में चिंता करोगे? चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। क्यों? हमारे दिलों में हमारे सहारे और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का सत्य है : “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परंतु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा,” और “जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा।” व्यक्ति का जीवन, शारीरिक स्थिति और उम्र, सब परमेश्वर के हाथों में है। कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है या नहीं, कब बीमार पड़ता है और कब मरता है—यह सब परमेश्वर के हाथों में है। चिंता करने या डरने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हें जैविक भोजन नहीं मिल सकता और तुम सिर्फ गैर-जैविक भोजन ही खा सकते हो, तो शांति से वही खाओ। जो कुछ उपलब्ध है वही खाओ। कुछ लोग कहते हैं, “अगर तुमने कहा कि गैर-जैविक भोजन एक नकारात्मक चीज है, तो तुम हमें उसे शांति से खाने के लिए क्यों कह रहे हो?” अगर तुम खाओगे नहीं तो जी कैसे पाओगे? अगर तुम बहुत थोड़ा खाते हो, तो क्या तुम्हारे शरीर को वास्तव में वह सब मिल सकता है जिसकी उसे जरूरत है? गैर-विश्वासी भी अब कहते हैं कि गैर-जैविक भोजन जैविक भोजन से बहुत कम पौष्टिक होता है; भले ही तुम बहुत ज्यादा खाओ, लेकिन उससे ज्यादा पोषण नहीं मिलता। यह भी एक तथ्य है। एक बिंदु और है जो वे नहीं जानते : जैविक भोजन में पोषण-घटकों का अनुपात सही होता है। खाए जाने के बाद वह अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए तुम्हारे शरीर को कई पोषक तत्व उत्पन्न करने में मदद करेगा, रक्त-संचार बढ़ाएगा और तुम्हारे अंदर अपने मूल कार्य करेगा। लेकिन गैर-जैविक भोजन में पोषण-घटकों की कमी होती है, इसलिए तुम्हारा शरीर अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पोषक-तत्वों का संश्लेषण करने में उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गैर-जैविक भोजन में जीवन-शक्ति नहीं होती और उसमें कई पोषण-घटकों का अभाव होता है; वह तुम्हें स्वस्थ नहीं बना सकता। दस-बीस साल उसे खाने के बाद लोगों को तरह-तरह के रोग और अजीब बीमारियाँ हो जाएँगी, और कुछ लोग बच्चे पैदा करने की क्षमता तक खो देंगे। ऐसे नतीजे बहुत गंभीर होते हैं। इसीलिए कुछ लोगों को लगता है, “मैंने बहुत सारा भोजन और सब्जियाँ खाई हैं, इसलिए मुझमें पोषण की कमी नहीं होनी चाहिए। लेकिन मुझे पूरे शरीर में कमजोरी क्यों महसूस होती है?” जैविक और गैर-जैविक भोजन में यही फर्क है; असल में तुमने इसे पहले ही महसूस कर लिया है। तुम्हें यह एहसास क्यों होता है? वह इसलिए कि गैर-जैविक भोजन में कोई जीवन-शक्ति नहीं होती। तुम उसे बहुत मात्रा में खाते हो, लेकिन उससे ज्यादा पोषण नहीं मिलता, इसलिए तुम शारीरिक रूप से कमजोर और ऊर्जाहीन महसूस करते हो। लेकिन फिर भी तुम्हें खाना तो पड़ेगा ही; अगर तुम नहीं खाओगे, तो तुम भूखे रहोगे और काम नहीं कर पाओगे या जिंदा नहीं रह पाओगे। लोगों को मूर्खतापूर्ण चीजें नहीं करनी चाहिए, न ही उन्हें अतियों पर जाना चाहिए। उन्हें हर चीज परमेश्वर के वचनों के अनुसार लेनी चाहिए और सभी चीजों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। लोगों को यह चीज स्पष्ट होनी चाहिए और उन्हें इसे समझना चाहिए। संक्षेप में, इन सबका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि लोगों को गैर-जैविक भोजन के साथ कैसे पेश आना चाहिए। गैर-जैविक भोजन से होने वाले नकारात्मक प्रभाव और उसके बाद के असर समझने के बाद, लोगों को उससे बेबस नहीं होना चाहिए, न ही उन्हें चिंता करनी चाहिए या डरना चाहिए, क्योंकि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। लोगों का जीवन और उनके बारे में हर चीज परमेश्वर के हाथों में है, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। है ना? (हाँ।) अगर तुम इसे इस तरह समझते हो, तो तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण सही हैं। यह सब सुनने के बाद, क्या तुम लोगों के दिल उज्ज्वल और मुक्त महसूस करते हैं? (हाँ।) यह एक असल जिंदगी का मुद्दा है जिसे लोगों को देखना चाहिए। अगर तुम इस मामले की असलियत नहीं जान सकते, तो तुम बहुत मूर्ख हो। गैर-जैविक भोजन खाना है या नहीं, इस बारे में हमने अभी अभ्यास के कई सिद्धांतों पर चर्चा की। तुम्हें अपने वस्तुनिष्ठ परिवेश और वास्तविक स्थितियों के आधार पर इसके साथ तदनुसार ही पेश आना चाहिए। संक्षेप में, तुम्हें सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार ही क्रियाकलाप भी करने चाहिए। अगर तुम्हारा मकसद अपना सामान्य भौतिक अस्तित्व और कार्य सुनिश्चित करना है, ताकि तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सको, परमेश्वर का अनुगमन करने के मार्ग से भटको नहीं, और अपना कर्तव्य निभाओ और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलो, तो तुम जो कर रहे हो वह सही है। यह परमेश्वर जो आदेशित करता है, उसके पहलू पर हमारी संगति की विषयवस्तु है।

हमने परमेश्वर जो आदेशित करता है, उसके पहलू पर संगति करने के लिए दो उदाहरणों का इस्तेमाल किया है। क्या यह मूल रूप से साफ-साफ समझा दिया गया है? (हाँ।) तो, क्या तुम लोग सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच फर्क कर सकते हो? क्या तुम सत्य के पहलू का इस्तेमाल उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को समझने के लिए कर सकते हो जिनका तुम सामना करते हो? अगर हमने इन दो उदाहरणों पर संगति न की होती, तो क्या तुम लोग उन्हें मापने के लिए उन सकारात्मक चीजों से संबंधित सत्य के इस पहलू को लागू कर पाते जिन्हें आज हमने परिभाषित किया है? (मैं शायद आसान चीजों का भेद पहचान पाता, लेकिन मैं वे दो अपेक्षाकृत जटिल उदाहरण न समझ पाता जिनके बारे में परमेश्वर बोला था।) यह अच्छी बात है कि हमने इस पर संगति की, वरना तुम लोग सेब-नाशपाती जैसा स्वादिष्ट भोजन खाने से चूक जाते, है ना? (हाँ।) कुछ लोग जो नियमों का पालन करने में ज्यादा प्रवृत्त होते हैं, सेब-नाशपाती देखकर उसे खाना तो चाहते हैं, लेकिन यह सोचकर हिम्मत नहीं करते कि इसे खाने से परमेश्वर द्वारा आदेशित सिद्धांतों का उल्लंघन होगा और यह परमेश्वर के वचनों के खिलाफ होगा, इसलिए वे खुद को रोक लेते हैं और उसे नहीं खाते, और नतीजतन, वे इस स्वादिष्ट भोजन को खाने के बहुत सारे मौके चूक जाते हैं। लेकिन भेद पहचानने की क्षमता के अभाव में वे कुछ स्पष्टतया नकारात्मक चीजों की बहुत तारीफ करते हैं और उनका गहराई से अनुमोदन करते हैं और उन्हें अपने दिलों में स्वीकार करते हैं। गैर-जैविक भोजन के बारे में वे यह तक सोचते हैं, “गैर-जैविक भोजन मनुष्य की भोजन की जरूरत बहुत हद तक पूरी करता है, और साथ ही, वह भूख से होने वाली मौतें कम करने में भी मदद कर सकता है। यह वाकई मानव-विकास के इतिहास में मानवजाति के प्रति विज्ञान का एक बहुत बड़ा योगदान है! यह वास्तव में परमेश्वर द्वारा किया गया है; यह परमेश्वर ही है जिसने इस मामले को बढ़ावा दिया है।” इतना सरल कथन एक तथ्य उजागर करता है। कौन-सा तथ्य? यही कि तुम सत्य नहीं समझते। यह गौण है; यहाँ एक और भी ज्यादा गंभीर समस्या है, जो यह है कि तुमने ऐसे शब्द कहे हैं जो परमेश्वर के प्रति घोर विद्रोही और ईशनिंदात्मक हैं, और इससे परमेश्वर को घृणा और जुगुप्सा महसूस होती है। अगर ऐसी समस्या इतनी गंभीर हो जाती है कि तुम परमेश्वर के इरादों के खिलाफ जाते हो और जानबूझकर परमेश्वर का विरोध और उसकी निंदा करते हो, तो तुम अपने उद्धार की उम्मीद खो सकते हो और यह तुम्हारे गंतव्य पर बुरा असर डालेगा। इसलिए, सत्य समझना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर हमने अपनी संगति में उदाहरणों का इस्तेमाल न किया होता, तो तुममें से कुछ लोग शायद सोचते, “गैर-जैविक भोजन वैज्ञानिक अनुसंधान का नतीजा है और विज्ञान का विकास मानवता को योगदान देता है, इसलिए इस योगदान के परमेश्वर द्वारा आदेशित होने की ज्यादा संभावना है, इसके परमेश्वर द्वारा आयोजित होने की ज्यादा संभावना है।” इस तरह से संगति करने के बाद, क्या अब यह स्पष्ट है? क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्या व्यक्ति को चीजें इसी तरह समझनी चाहिए? (नहीं।) अगर कोई व्यक्ति यह कहता है, तो वह मुसीबत में है; यह घोर विद्रोह है! इससे पहले कि तुम्हें यह स्पष्ट समझ आ जाए कि चीजें असल में क्या हैं और उनका सार क्या है, उन्हें जल्दबाजी में परिभाषित मत करो और उन चीजों को आसानी से स्वीकार या पसंद मत करो जिनका वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण किया गया हो। खासकर उन चीजों के संबंध में, जो बुरी प्रवृत्तियों में पूजनीय और लोकप्रिय हैं और ज्यादातर लोगों को पसंद हैं, तुम्हें सख्ती से सावधान रहना चाहिए—परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार उनका भेद पहचानो और उन्हें बिल्कुल भी स्वीकार मत करो। कुछ लोग कहते हैं, “हमारी काबिलियत कम है। जब हम ऑनलाइन तरह-तरह की जानकारी फैलती देखते हैं, तो हमें लगता है कि यह एक सामाजिक प्रवृत्ति है और गलत नहीं हो सकती। इसे देखने के बाद हमारे दिलों पर इसका असर पड़ता है। अगर हम शून्य में रहते, तो हम गुमराह न होते।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) तुम असली दुनिया में, वर्तमान समाज में रहते हो, और तुम अनिवार्य रूप से कई अजीब आवाजें और अजीब कहावतें और सिद्धांत सुनोगे। ये तर्क अनिवार्य रूप से तुम्हारे दिलों में प्रवेश करेंगे, जहाँ वे असर डालेंगे और तुम्हारे विचार बदल देंगे। लोग सोचते हैं कि जब तक वे इस समाज में रहते हैं, जब तक वे लोगों के बीच रहते हैं, तब तक वे न चाहते हुए भी प्रभावित होंगे, जब तक कि वे पहाड़ों और जंगलों में गहराई में न रहें या खुद को एक छोटे-से कमरे में बंद न कर लें, न तो इन चीजों के बारे में सुनें, न देखें और न ही सोचें, उस स्थिति में उनके दिल साफ रहेंगे। क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) जाहिर है, नहीं। तो यह समस्या कैसे हल की जा सकती है? तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और सत्य समझना चाहिए। अगर तुम्हें सत्य के सभी पहलुओं की स्पष्ट समझ है, तो इन चीजों का सामना करने पर तुम्हें पता चल जाएगा कि उनका अंतर्निहित सार क्या है। तुम जल्दी से सकारात्मक या नकारात्मक चीजों के रूप में उनका भेद पहचान पाओगे और उन्हें परिभाषित कर पाओगे, और—जमीर और विवेक होने के आधार पर—तुम जल्दी से सकारात्मक चीजों को स्वीकार कर लोगे और नकारात्मक चीजों का विरोध करोगे या उन्हें अस्वीकार कर दोगे, उनकी आलोचना करोगे और उनकी निंदा करोगे। इस तरह, तुम सुरक्षित रहोगे और असहाय महसूस नहीं करोगे, और न ही तुम्हें इतना चिंतित या डरा हुआ महसूस करने की जरूरत होगी। क्यों? क्योंकि परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाने से तुममें सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का भेद पहचानने की मूलभूत क्षमता होगी, विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मक चीजों पर तुम्हारे विचार और मत परमेश्वर के वचनों पर आधारित होंगे, और तुम यह तय कर पाओगे कि वे सकारात्मक चीजें हैं या नकारात्मक; इसलिए यह मामला कि तुम्हें क्या करना चाहिए, बहुत आसान होगा। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।)

क्या तुम लोग समझते हो कि हमने अभी-अभी किस बारे में संगति की? अगर हमने इस पर इस तरह से संगति न की होती, तो क्या तुम लोग इसे समझ पाते? (नहीं।) तो अगर तुम कुछ और साल अनुभव करो, तो क्या तुम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का भेद पहचान पाओगे? (सत्य के बिना हम इन चीजों भेद नहीं पहचान सकते; कभी-कभी तो हम नकारात्मक चीजों की सराहना और समर्थन तक कर देते हैं। इसलिए, ऐसा नहीं है कि ज्यादा वर्षों का अनुभव होने से हम भेद पहचानने में समर्थ हो जाते हैं।) क्या इन मामलों में रहस्य शामिल हैं? (नहीं, इनमें रहस्य शामिल नहीं हैं।) अगर इनमें रहस्य शामिल नहीं हैं, तो लोग इन्हें समझते क्यों नहीं? क्या ये बाहरी मामले हैं? (हाँ।) अगर ये सिर्फ बाहरी मामले होते, तो इन्हें समझना आसान होना चाहिए था, लेकिन असल में, इन मामलों में कुछ सत्य और विभिन्न चीजों के बारे में लोगों के दृष्टिकोण भी शामिल हैं। जब किसी चीज में चीजों के बारे में दृष्टिकोण और मुद्दों का सार और प्रकृति शामिल होती है तो उसमें सत्य शामिल होता है और जब उसमें सत्य शामिल होता है तो तुम लोग उसकी असलियत नहीं जान सकते और भ्रमित हो जाते हो। तो, क्या तुम लोगों को लगता है कि इस तरह से संगति करना जरूरी है? (हाँ, लगता है।) उम्मीद है, इस संगति को सुनने के बाद तुम अपना ध्यान खुद मामलों पर केंद्रित नहीं करोगे या विनियमों का पालन करना नहीं सीखोगे, बल्कि संगति के जरिये तुम सत्य और परमेश्वर के इरादे समझ पाओगे, सकारात्मक और नकारात्मक चीजें क्या हैं इसका भेद पहचान पाओगे और सत्य के संदर्भ में प्रगति करोगे और चीजों का भेद पहचानने की तुम्हारी क्षमता सुधरेगी। इसका मतलब होगा कि तुमने कुछ हासिल किया है। सकारात्मक चीजों के बारे में—हर वह चीज जो परमेश्वर द्वारा सृजित की गई, परमेश्वर द्वारा आदेशित की गई या परमेश्वर की संप्रभुता में है के दायरे में आती है—क्या तुम लोग हमारे द्वारा पहले दो विशेष उदाहरण सूचीबद्ध किए जाने के बाद अब उन सभी का भेद पहचानने में समर्थ हो? या ऐसा है कि तुम सिर्फ एक ही तरह की चीजों का भेद पहचान सकते हो और अभी भी उन चीजों का भेद पहचानने में असमर्थ हो जो इन दो उदाहरणों से अलग हैं? (मैं शायद कुछ हद तक एक ही तरह की चीजों का भेद पहचान सकता हूँ, और उन विभिन्न चीजों का भी जो अपेक्षाकृत सरल हैं, लेकिन मैं अभी भी उन चीजों का भेद स्पष्ट रूप से नहीं पहचान सकता जो बहुत जटिल हैं।) यह एक तथ्य है, है ना? अगर तुम अभी भी भेद नहीं पहचान सकते, तो तुम लोगों को एक सिद्धांत समझना चाहिए। पहले, यह देखो कि क्या कोई खास चीज उस कार्य के खिलाफ जाती है जो परमेश्वर द्वारा सृजित किए अनुसार उसका कार्य होना चाहिए या क्या वह अपने अस्तित्व के उस महत्व के खिलाफ जाती है जो परमेश्वर ने आदेशित किया था; देखो कि क्या वह इस पहलू के खिलाफ जाती है। अगर जाती है, तो वह एक नकारात्मक चीज है। अगर वह परमेश्वर के सृजन और आदेश के खिलाफ नहीं जाती, लेकिन उसके अस्तित्व के रूप और उसके अस्तित्व के मूल्य के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसका लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है या नकारात्मक—वह लोगों के जीवन में सिर्फ कुछ मकसद पूरे करती है और कुछ सुविधा देती है, कुछ फायदे देती है लेकिन कोई नुकसान नहीं पहुँचाती, मतलब वह परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य के अस्तित्व के रूप और उसके सामान्य जीवन को नष्ट या बाधित नहीं करती, न ही वह कोई विपरीत नतीजे लाती है, और उसका अस्तित्व मनुष्य के लिए सार्थक नहीं माना जा सकता और लोग उसके बिना भी ठीक से रह सकते हैं—तो उसे सकारात्मक या नकारात्मक चीज नहीं माना जा सकता। वह उस श्रेणी में नहीं आती; वह सिर्फ एक तरह की चीज या पदार्थ है, इसलिए हम उसे सकारात्मक या नकारात्मक के रूप में परिभाषित नहीं करेंगे। उदाहरण के लिए, घोड़ा-गाड़ी परिवहन का एक साधन है। उसे घोड़ा खींचता है, जो परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित एक जीवित प्राणी है। घोड़े द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी मनुष्य द्वारा निर्मित है, परमेश्वर द्वारा सृजित नहीं; वह मनुष्य द्वारा परमेश्वर की दी हुई जीवित रहने की क्षमता से बनाया गया एक उपकरण है। वह सामान ढो सकती है और लोगों को विभिन्न जगहों पर ले जा सकती है, जिससे लोगों की जिंदगी और यात्रा ज्यादा सुविधाजनक हो जाती है। तो, क्या तुम लोगों को लगता है कि मनुष्य-निर्मित घोड़ा-गाड़ी सकारात्मक चीज है या नकारात्मक? क्या घोड़ा-गाड़ी में ऊर्जा की खपत होती है? क्या वह धुआँ छोड़ती है और हवा को प्रदूषित करती है? (नहीं।) घोड़ा-गाड़ी लोगों के जीवन और अस्तित्व पर कोई बुरा असर नहीं डालती और वह लोगों का जीवन थोड़ा और सुविधाजनक भी बनाती है। लेकिन अगर वह न होती, तो लोग पैदल भी यात्रा कर सकते थे जो बस थोड़ी धीमी होती; ऐसा नहीं है कि लोग उसके बिना जीवित न रह पाते। यह ऐसी चीज है जो अनिवार्य नहीं है। तो, क्या यह चीज सकारात्मक चीज है या नकारात्मक? (मेरी समझ से यह नकारात्मक चीज नहीं है, लेकिन यह सकारात्मक चीज भी नहीं है; इसे सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता।) यह मनुष्य के हाथों से बनी है और इसे सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता। अगर तुम इस बात पर चर्चा करो कि घोड़ा-गाड़ी सकारात्मक चीज है या नकारात्मक, तो यह तिल का ताड़ बनाने और बाल की खाल निकालने जैसा होगा।

कुछ लोग कहते हैं, “पेड़ परमेश्वर द्वारा सृजित और आदेशित किए जाते हैं, और उनके जीवित रहने के नियम और अस्तित्व के रूप परमेश्वर से आते हैं, इसलिए वे सकारात्मक चीजें हैं। तो, अगर कोई पेड़ काट दिया जाता है और उसे लकड़ी में संसाधित कर दिया जाता है, तो वह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक?” लकड़ी मनुष्य की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कुछ सुविधाएँ प्रदान करती है, जैसे कि मेज-कुर्सियों जैसे विभिन्न प्रकार के फर्नीचर बनाने में इस्तेमाल करना, और उसे खाना पकाने के लिए जलाया भी जा सकता है। यह एक पौधे से एक चीज में रूपांतरित हो जाता है। यह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक? (इसे न तो सकारात्मक कहा जा सकता है और न ही नकारात्मक।) यह सही है, अब तुम समझते हो, तुम समझ गए हो। केवल वही चीजें सकारात्मक चीजें हैं जो इस सिद्धांत—परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन—के दायरे में आती हैं। जो भी चीज इस सिद्धांत का उल्लंघन करती है, वह एक नकारात्मक चीज है। इन दो श्रेणियों से बाहर की चीजों के बारे में अगर तुम चर्चा करते हो कि वे सकारात्मक हैं या नकारात्मक, तो यह मूल रूप से ऐसा है जैसे तुम बाल की खाल निकाल रहे हो, तिल का ताड़ बना रहे हो, और अपने सही काम पर ध्यान नहीं दे रहे हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग पूछते हैं, “इंसानों द्वारा बनाए गए परदे सकारात्मक चीज हैं या नकारात्मक?” कुछ लोग कहते हैं, “यह कपड़े के स्रोत पर निर्भर करता है। अगर परदे बिना रँगाई या ब्लीचिंग के और बिना कोई रसायन मिलाए, संसाधित कच्चे कपास से बने हैं, तो वे सकारात्मक चीज हैं। अगर उन्हें रँगा गया, ब्लीच किया गया और प्रिंट किया गया है या उनमें कुछ रसायन मिलाए गए हैं, तो वे नकारात्मक चीज हैं। नकारात्मक चीजें वे हैं जिन्हें हमें हटा और ठुकरा देना चाहिए, इसलिए हम उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते। केवल इसी तरह हम परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों का पालन कर रहे होते हैं और सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम करने वाले लोग बन रहे होते हैं। इसलिए, हम हर उस चीज की निंदा करते हैं जो कपास का उत्पाद नहीं है, और हम हर उस चीज की निंदा करते हैं जो प्राकृतिक स्रोत से नहीं आती।” वे कौन-सी चीजें हैं जो प्राकृतिक स्रोत से आती हैं? कपास, रेशम, और लिनन भी। इन व्यक्तियों के मतानुसार, इन कुछ चीजों के अलावा और कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे लोग पहन सकें—अगर तुम सिद्धांतों का उल्लंघन करने से बचना चाहते हो, और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और नकारात्मक चीजों को अस्वीकार करने में समर्थ होना चाहते हैं, तो तुम्हें ये चीजें ही पहननी चाहिए, क्योंकि केवल यही चीजें परमेश्वर द्वारा सृजित अपने मूल रूप में हैं। क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) कुछ लोग कहेंगे, “तो इस दृष्टिकोण के अनुसार जो कोई भी वैज्ञानिक तरीके से संसाधित कपड़े पहनता है, वह सकारात्मक चीजों से प्रेम करने वाला व्यक्ति नहीं है, वह सत्य का अभ्यास करने वाला व्यक्ति नहीं है, बल्कि वह भेद पहचानने की क्षमता और सिद्धांतों से रहित व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति जो अत्यधिक विद्रोही है और जिससे परमेश्वर नफरत करता है, और ऐसा व्यक्ति खत्म हो गया!” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह तिल का ताड़ बनाना है।) ऐसे लोगों के शब्दों में गुप्त अभिप्राय होते हैं और वे दूसरों की निंदा तक कर सकते हैं, बात का बतंगड़ बना सकते हैं। वे किस तरह के लोग हैं? (ऐसे लोग, जो नियमों का पालन करते हैं और जिन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती।) वे बेतुके लोग हैं, बेतुके प्रकार के। ये पाखंड और भ्रांतियाँ व्यक्त करके वे तिल का ताड़ बना देते हैं और मौजूदा विषयों का इस्तेमाल करके अपनी राय जाहिर करते हैं। उनके मन इन पाखंडों और भ्रांतियों से भरे रहते हैं और वे इन्हें लगातार उगलते रहते हैं, लेकिन जब तुम उनसे सत्य से जुड़ी किसी चीज पर संगति करने के लिए कहते हो, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता। जब तुम उनसे इस बात पर संगति करने के लिए कहते हो कि सकारात्मक चीजें क्या हैं, तो वे ये पाखंड और भ्रांतियाँ बोलते हैं। क्या तुम्हें यह घिनौना नहीं लगता? बहुत-सी चीजें परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन स्थित सकारात्मक चीजों से जुड़ी नहीं होतीं। सच पूछो तो, वे परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन वाले सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करतीं, और उनके अस्तित्व के रूप मनुष्य की रोजी-रोटी और अस्तित्व पर कोई बुरा असर नहीं डालते या उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाते। इसलिए, जब तुम बोलो, तो सबसे अच्छा है कि जमीर और विवेक रखो और तिल का ताड़ न बनाओ या मनमाने ढंग से निंदा न करो। परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन के दायरे में आने वाली चीजें हमारी संगति के लायक हैं और हमारी स्वीकृति, समझ, मानने, सँजोने और सुरक्षा के लायक हैं। इनके अलावा, जो चीजें इस दायरे में नहीं आतीं, उनके मामले में सबसे अच्छा है कि तिल का ताड़ न बनाओ और उन्हें संगति के लिए बड़े मुद्दे न समझो, उन पर बड़े उत्साह से संगति मत करो, और यहाँ तक कि अनेक सभाओं में उन पर बहुत गंभीरता से संगति मत करो। यह नहीं करना चाहिए। अक्सर बेतुके लोग, ऐसे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती, बुरे लोग, मसीह-विरोधी और दानव दिखावा करने के लिए, लोगों को यह दिखाने के लिए कि वे कितने चतुर हैं, ये चीजें करते हैं। जिन लोगों में भेद पहचानने की क्षमता नहीं होती, वे सोचते हैं कि यह सत्य पर संगति करना है, और भले ही उन्हें कोई आत्मिक उन्नयन न मिले, फिर भी वे सहने और सुनने करने के लिए बाध्य महसूस करते हैं। असल में, उन लोगों की तमाम बातें पाखंड और भ्रांतियाँ होती हैं, और उनका उन सकारात्मक चीजों के विषय से कोई लेना-देना नहीं होता जिनके बारे में मैं बात कर रहा हूँ। इसलिए, अगर तुम ऐसे लोगों को ऐसे विषय और तर्क उठाते हुए सुनो जो सकारात्मक चीजों से नहीं जुड़े हैं, तो तुम सुनने से मना कर सकते हो। अगर तुम सत्य समझते हो और तुममें भेद पहचानने की क्षमता है, तो तुम उनका खंडन कर सकते हो और उन्हें रोक सकते हो। तुम उन्हें कैसे रोकोगे? तुम कहोगे, “ठीक है, चुप रहो! तुम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हो, वे सत्य से जुड़ी नहीं हैं और न ही वे सकारात्मक चीजों से जुड़ी हैं। तुम जो कह रहे हो वे दानवी बातें हैं और कोई उन्हें सुनना नहीं चाहता। यहाँ सबको बाधित मत करो और सबके अपना कर्तव्य निभाने में दखल मत दो!” अगर उनके शब्दों में कोई गुप्त अभिप्राय है और वे मनमाने ढंग से निंदा करते हैं और कोई सकारात्मक असर नहीं रखते, तो तुम लोगों को खड़े होकर उन्हें विघ्न-बाधा उत्पन्न करने से रोकना चाहिए, साथ ही उन्हें उजागर भी करना चाहिए ताकि हर व्यक्ति भेद पहचानने की क्षमता प्राप्त कर ले। सुनने के बाद हर कोई समझ जाएगा कि उनके शब्द पाखंड और भ्रांतियाँ हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, कि वे नुक्ताचीनी कर रहे हैं, बाल की खाल निकाल रहे हैं, लोगों को गुमराह कर रहे हैं, शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल रहे हैं, और बड़े-बड़े विचार झाड़ रहे हैं, और उनके गुप्त अभिप्राय हैं और वे मुसीबत खड़ी करना चाहते हैं, और इसलिए उन्हें रोका और चुप कराया जाना चाहिए। मान लो उस समय मौजूद ज्यादातर लोग ऐसे भ्रमित लोग हैं जिनमें बुरे लोगों और दानवों का भेद पहचानने की क्षमता नहीं है और वे नहीं बता सकते कि वे भ्रांतियाँ फैला रहे हैं और लोगों को गुमराह कर रहे हैं। जब ये भ्रमित व्यक्ति और वे बुरे लोग और शैतान एक-साथ इकट्ठे होते हैं, तो वे सब ऐसे हिल-मिल जाते हैं जैसे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हों। परमेश्वर के वचन सुनने के बाद वे न केवल सत्य स्वीकार नहीं करते, बल्कि आडंबरपूर्ण शब्दों और बड़ी-बड़ी लेकिन खोखली बातों से कुछ भ्रांतियाँ भी फैलाते हैं। ऐसे में, तुम चुपचाप खड़े होकर जा सकते हो, कोई विचार व्यक्त करने की जरूरत नहीं। दानवों को दिखावा करने दो और ढोंग रचने दो। उनसे बहस मत करो, ताकि तुम्हारा मन परेशान न हो और तुम्हारे काम पर असर न पड़े। क्यों? क्योंकि दानव हमेशा दानव होता है; जानवर हमेशा जानवर होता है। उनमें कोई तार्किकता नहीं होती, वे सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते, और वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत; तुम चाहे कैसे भी संगति करो, उनके लिए सत्य समझना नामुमकिन है। दानव हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलेंगे, नारे लगाएँगे और बड़ी-बड़ी लेकिन खोखली बातें करेंगे, जबकि जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोग—आत्माविहीन लोग—भेद पहचानने की क्षमता बिल्कुल नहीं रखते। जहाँ भी शैतान और दानव बाधा उत्पन्न करते हैं, वे उनका अनुगमन करेंगे और उस गड़बड़ी में शामिल हो जाएँगे। अगर तुम उन्हें भेद पहचानना सिखाओ, तो वे सीख नहीं सकते। जो लोग सत्य समझते हैं, सिर्फ उन्हीं में चतुराई और बुद्धिमत्ता होती है, और वे मुसीबत देखकर छिप जाएँगे। वे किसी दानव को बाधा उत्पन्न करते देख उसका भेद पहचानने में समर्थ होंगे और उस गड़बड़ी में शामिल नहीं होंगे, क्योंकि वे बुराई से दूर रहना जानते हैं। जहाँ भी दानव दिखावा करते हैं, जहाँ भी जानवर इकट्ठे होते हैं, उस जगह गंदगी और अव्यवस्था की दुर्गंध आएगी। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं और इकट्ठे होना पसंद करते हैं। कोई भी कितनी भी बेतुकी और घटिया बातें कहे, वे सुनना पसंद करते हैं और बड़े मजे से उन बातों को दोहराते तक हैं। क्या यह दानवों का जमावड़ा नहीं है? अगर तुम एक चतुर व्यक्ति हो, तो ऐसी स्थिति देखकर तुम्हें तुरंत दूर हो जाना चाहिए और उनके साथ मेलजोल नहीं रखना चाहिए। तुम्हें उनके साथ मेलजोल क्यों नहीं रखना चाहिए? तुम्हें उनसे बहस क्यों नहीं करनी चाहिए? इसलिए कि तुम सत्य के बारे में कैसे भी संगति करो, वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; तुम कितने भी शब्द कहो, सब बेकार जाएँगे। जो लोग शैतान और दानवों के हैं, वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और जिनका जानवरों से पुनर्जन्म हुआ है, वे सत्य समझ नहीं पाते, इसलिए तुम कितना भी कहो, सब बेकार है। क्या वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं? क्या उन्होंने कभी सत्य खोजा है? वे मेरे कहे शब्द तक स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे सुझाए कुछ शब्द उन्हें गलत साबित कर सकते हैं? क्या वे उनका मन बदल सकते हैं? क्या वे तुम्हारे शब्द स्वीकार कर सकते हैं? इसलिए, मूर्खतापूर्ण चीजें मत करो। चुपचाप चले जाना ही समझदारी है। अगर तुम किसी दानव से पूछो, “तुम सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? तुम हमेशा झूठ क्यों बोलते और धोखा क्यों देते हो?” तो दानव बेशर्मी से तुम्हें गलत साबित करेगा; वह बहस करेगा और अपना बचाव करने के लिए विकृत तर्क देगा, और बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेगा कि वह झूठ बोल रहा है और धोखा दे रहा है। अगर तुम जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों से पूछो कि वे हमेशा विनियमों का पालन क्यों करते हैं, तो वे भी अपना बचाव करने के लिए विकृत तर्क देंगे और कहेंगे कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति का सामना करने पर तुम्हें स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ होना चाहिए कि दानव और जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोग सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, इसलिए तुम्हें उनके साथ संगति करना बंद कर देना चाहिए और मूर्खतापूर्ण चीजें करना रोक देना चाहिए। तुम चाहे कितने भी शब्द कहो या कितनी भी चीजें करो, तुम उनका प्रकृति सार नहीं बदल सकते, इसलिए कितनी भी बातें करो, कोई फायदा नहीं होगा। तुम्हें सत्य पर संगति उन लोगों के साथ करनी चाहिए जो सत्य स्वीकार कर सकते हैं। सिर्फ ऐसे लोग ही सत्य आसानी से स्वीकार कर सकते हैं—सिर्फ उन्हीं के साथ तुम सामान्य बातचीत कर सकते हो। दानवों के साथ और जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के साथ तुम कितने भी सत्य पर संगति करो या कितना भी काम करो, सब बेकार है। उस क्षण तुम उनका इस हद तक खंडन करने समर्थ हो सकते हो कि वे कुछ बोल न पाएँ और उन्हें लग सकता है कि तुमने जो कहा वह सही है, लेकिन बाद में उनका दिल बदल जाएगा और यहाँ तक कि वे तुम्हें गलत साबित करने और शर्मिंदा महसूस कराने के लिए कुछ शब्द भी तैयार कर लेंगे। देखो, जो लोग दानव हैं, क्या वे सत्य स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। जो लोग दानव हैं और जिन्होंने जानवरों से पुनर्जन्म लिया है, वे सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते। अगर वे किसी खास पल उसे स्वीकार करते भी हैं, तो भी यह सिर्फ जबानी जमा-खर्च होता है, और बाद में वे अपनी बात से मुकर जाएँगे। तो, क्या तुम उनके साथ सत्य पर संगति करके कोई परिणाम हासिल कर सकते हो? तुम उन्हें बदलना चाहते हो ताकि उनमें जमीर और विवेक आए और उन्हें पता चले कि वे सत्य नहीं समझते और उन्हें सत्य स्वीकार करना और उसका अभ्यास करना चाहिए—यह विचार और यह मकसद ही गलत है; तुममें ये कभी नहीं होने चाहिए। क्या अब तुम समझते हो? (हाँ।)

आओ, सकारात्मक चीजों के विषय पर वापस आते हैं। सकारात्मक चीजों का दायरा परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होने की श्रेणी में आता है। हम चाहे जिस भी चीज से निपट रहे हों, हमें विचार करना चाहिए, “क्या यह परमेश्वर द्वारा सृजित है? यह परमेश्वर के आदेश से कैसे जुड़ा है?” अगर इसे परमेश्वर ने सृजित नहीं किया और इसका परमेश्वर के आदेश से कोई लेना-देना नहीं है, तो हमें इसके साथ सावधानी से पेश आना चाहिए। अगर हम अभी भी दुनिया की प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं और उन पर प्रशंसा बरसाते हैं, तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? अगर कोई चीज परमेश्वर द्वारा सृजित, परमेश्वर द्वारा आदेशित या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन के दायरे में नहीं है, तो उसे न तो सकारात्मक चीज कहा जा सकता है और न ही नकारात्मक, इसलिए उस पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। अगर तुम उस पर चर्चा करते ही हो, तो क्या इसलिए कि तुम उसे एक सकारात्मक चीज के रूप में स्वीकार करना चाहते हो? या इसलिए कि तुम उसका एक नकारात्मक चीज के रूप में चरित्र-चित्रण करना चाहते हो और उसे अस्वीकार करना चाहते हो? उसे स्वीकार या अस्वीकार करने से तुम्हारे जीवन और तुम्हारे आचरण में क्या फायदा होगा? क्या यह सत्य की तुम्हारी स्वीकृति के लिए फायदेमंद है? अगर कोई फायदा नहीं है, तो उसे संगति और चर्चा का विषय समझने का कोई मतलब नहीं है; यह बेवकूफी होगी और बेवकूफी भरी चीजें करना होगा, है ना? (हाँ।) उदाहरण के लिए, घोड़ागाड़ियाँ, कपड़े, बिस्तर और कुर्सियाँ, जिनके बारे में हमने अभी बात की—अगर तुम हमेशा तिल का ताड़ बनाते हो और उस पर चर्चा करना चाहते हो : “यह एक सकारात्मक चीज है या नकारात्मक? हमें इसे स्वीकार करना चाहिए या अस्वीकार? क्या हमें इसे सँजोना चाहिए या इससे नफरत करनी चाहिए? इसके साथ पेश आने का सही तरीका क्या है?” तो यह विकृत होने की अभिव्यक्ति है। जो लोग विकृतियों में प्रवृत्त होते हैं, वे महत्वपूर्ण बिंदु नहीं समझ सकते; वे हमेशा रूपों, धर्म-सिद्धांतों और विनियमों पर मेहनत करते हैं और कभी नहीं समझते कि सत्य पर पर मेहनत कैसे करनी है। चूँकि बहुत-सी चीजों में सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का मामला शामिल नहीं होता, इसलिए उन पर संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि न तो सकारात्मक और न ही नकारात्मक चीजें होने के कारण उनका तुम्हारे जीवन प्रवेश और उस जीवन मार्ग पर जिस पर तुम चलते हो, थोड़ा ही असर पड़ता है, इसलिए तुम्हें उनमें गहरे जाने की जरूरत नहीं है। अगर तुम उनका इस्तेमाल कर सकते हो तो करो, और अगर नहीं करते तो भी ठीक है। अगर कुछ रसायन वाले उत्पाद हैं जो लोगों की सेहत पर बुरा असर डालते हैं, और उनकी गंध या रासायनिक घटक लोगों के शरीर को कुछ नुकसान पहुँचाते हैं, तो तुम्हें उनसे दूर रहने का तरीका ढूँढ़ना चाहिए, और ऐसी रोजमर्रा की चीजों का इस्तेमाल जितना हो सके कम करना चाहिए या बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इस तरह, तुम उनसे होने वाला नुकसान खत्म या कम कर सकते हो। इन नुकसानों से पूरी तरह बचना तो नामुमकिन होगा, लेकिन अगर वे फिलहाल तुम्हारे जीवन को नुकसान नहीं पहुँचाते, तुम्हें अल्पावधि में बीमार नहीं करते, और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास और उसका अनुगमन करने पर या अपना कर्तव्य निभाने और सत्य के अनुसरण पर असर नहीं डालते, तो यह काफी है, क्योंकि असली परिवेश ऐसा ही है। क्या यह सिद्धांत अब स्पष्ट है? (हाँ।)

हमने “जो परमेश्वर द्वारा आदेशित है” के पहलू पर थोड़ी संगति की है। तो, क्या हमें “जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है” से संबंधित सत्य पर भी संगति नहीं करनी चाहिए? (हाँ।) क्या “जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है” और “जो परमेश्वर द्वारा सृजित है और जो परमेश्वर द्वारा आदेशित है” के बीच कोई सूक्ष्म अंतर है? (हाँ।) परमेश्वर की संप्रभुता में क्या शामिल है? अक्सर कहा जाता है कि परमेश्वर लोगों के भाग्य पर संप्रभु है। लोगों का भाग्य चाहे जैसा भी हो, क्या खुद भाग्य का मामला एक सकारात्मक चीज है? (हाँ।) व्यक्ति का भाग्य कैसा भी हो, बाहर से वह अच्छा दिखे या बुरा, अगर वह परमेश्वर से आता है, परमेश्वर द्वारा आदेशित है या परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, तो वह एक सकारात्मक चीज है। तो यह कैसे तय किया जा सकता है कि लोगों का भाग्य सकारात्मक चीज है? लोगों का भाग्य हर तरह का होता है। बाहरी तौर पर, कुछ लोग सुखी जीवन जीते दिखते हैं, जबकि दूसरे लोग दुख झेलते हैं; कुछ लोग जीवन भर समृद्ध रहते हैं, जबकि दूसरों के लिए चीजें कभी सुचारु ढंग से नहीं होतीं; कुछ लोग अमीरी में रहते हैं, दूसरे घोर गरीबी में; कुछ लोगों के खुशहाल, आनंदमय परिवार होते हैं, जबकि दूसरों की शादियाँ दुखद होती हैं और बच्चे आज्ञाकारी नहीं होते; कुछ लोग जीवन भर अकेले रहते हैं, जबकि दूसरे अपने बच्चों और पोते-पोतियों से घिरे रहने का आनंद लेते हैं; कुछ लोग जीवन भर बीमारी और पीड़ा से त्रस्त रहते हैं, बहुत कष्ट में जीते हैं, जबकि दूसरे मजबूत और स्वस्थ होते हैं, सुखद, आजाद जीवन जीते हैं और आखिरकार परिपक्व बुढ़ापे में शांति से मर जाते हैं। क्या ये विभिन्न प्रकार के लोगों के भाग्य नहीं हैं? (हाँ।) तो क्या भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है? (वह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है।) अपनी धारणाओं में लोग सोचते हैं, “चूँकि भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसलिए सभी लोगों के भाग्य अच्छे होने चाहिए। इतने सारे बुरे भाग्य क्यों हैं?” एक और भी हैरान करने वाला तथ्य यह है कि ज्यादातर लोगों का भाग्य वैसा नहीं होता जैसा वे चाहते हैं। देखो—कितने लोग हैं जो जीवन भर कोई कठिनाई नहीं झेलते, धन और रुतबे वाले परिवारों में पैदा होते हैं और उन पर चारों ओर से स्नेह बरसाया जाता है? ऐसे कितने लोग हैं? सिर्फ संभ्रांत परिवारों में पैदा हुए लोगों का ही ऐसा भाग्य होता है। दूसरे ज्यादातर लोग जीवन भर कष्ट उठाते हैं और अनगिनत कठिनाइयाँ झेलते हैं, हर कदम पर बाधाओं का सामना करते हैं—उनके लिए चीजें बहुत मुश्किल होती हैं और सुचारु रूप से बिल्कुल नहीं होतीं। हालाँकि सिद्धांततः तुम मानते हो कि लोगों का समस्त भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन सभी चीजें सकारात्मक हैं, फिर भी तुम लोग अपने दिल से यह नहीं समझते : “अगर यह कहा जाए कि जो लोग बहुत अमीर घर में पैदा होते हैं, उनके लिए अच्छा भाग्य होना एक सकारात्मक चीज है, तो धर्म-सिद्धांत के हिसाब से यह स्वीकार्य है। लेकिन 80 से 90 प्रतिशत लोगों के साथ चीजें सुचारु रूप से नहीं होतीं और वे जिंदगी भर दुख झेलते हैं—तो ऐसे भाग्य भी सकारात्मक चीजें कैसे हो सकते हैं और वे परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन भी कैसे हो सकते हैं? यह कुछ हद तक अस्वीकार्य लगता है। नैतिक न्याय की भावना से हो या हमदर्दी से, ऐसे भाग्य सकारात्मक चीजों के रूप में वर्गीकृत नहीं किए जा सकते। यह बात समझ में नहीं आती। क्या ऐसा हो सकता है कि यह परिभाषा गलत हो? अगर यह वास्तव में गलत है, तो लोगों के भाग्य वाला हिस्सा उसमें से हटा देना चाहिए जिस पर परमेश्वर संप्रभु है। लेकिन अगर इसे हटा दिया जाए, तो यह इस तथ्य से इनकार करना होगा कि परमेश्वर लोगों के भाग्य पर संप्रभु है। क्या यह बहुत ज्यादा विद्रोहात्मक नहीं होगा? लेकिन हमें इस तथ्य को कैसे समझना चाहिए कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन सभी चीजें सकारात्मक हैं, और बुरे भाग्य भी सकारात्मक चीजें हैं?” लोग थोड़े परेशान हो जाते हैं। यह तुम लोगों के लिए एक मुश्किल सवाल है, है ना? (हाँ, है।) तो तुम लोग मुझे बताओ। देखें कौन इस मामले को स्पष्ट रूप से बता सकता है। (मुझे लगता है कि लोगों के मुश्किलों का सामना करने को बुरी चीज समझना गलत है। असल में, परमेश्वर किसी के लिए जो भी भाग्य आदेशित करता है, चाहे वह मुश्किलों से भरा हो या सुविधाओं से, वह उसके लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है। खासकर दुख लोगों को गढ़ने में और भी ज्यादा सक्षम होता है। इसके अलावा, ये चीजें लोगों की आत्माओं के पुनर्जन्म से जुड़ी हैं। शायद अपने पिछले जन्म में बुरे काम करने के कारण या पिछले जन्म में लिए गए किसी कर्ज के कारण व्यक्ति को उसे चुकाने के लिए इस जन्म में दुख झेलना चाहिए। यह सब परमेश्वर के आदेश और व्यवस्था के अधीन है।) तो इसमें सकारात्मक चीज क्या है? क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से बता सकते हो? (नहीं।) देखो, अगर कोई वास्तव में तुमसे इसके बारे में पूछे, तो तुम इसे स्पष्ट रूप से नहीं बता पाओगे; तुम यहीं अटक जाओगे। अगर तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम इसे बस जाने दोगे, लेकिन इससे तुम्हारे द्वारा इस सत्य को स्वीकार करने पर असर पड़ेगा कि “परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन सभी चीजें सकारात्मक हैं”, इससे यह वर्गीकृत करने के लिए कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं, तुम्हारे द्वारा इस सत्य का इस्तेमाल करने पर असर पड़ेगा, इससे तुम्हारे द्वारा किसी भी सकारात्मक चीज को स्वीकार करने और पहचानने पर असर पड़ेगा, और इससे “जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है” के दायरे में आने वाली सभी चीजों के प्रति तुम्हारे रवैये पर भी असर पड़ेगा, जिसमें, बेशक, यह शामिल है कि तुम उन्हें स्वीकार करते हो या उनकी निंदा करते हो—यह मुद्दा बहुत गंभीर है। अगर तुम भाग्य के मामले की असलियत नहीं जान सकते, तो तुम्हारे द्वारा इसे एक नकारात्मक चीज मानने और इसे ऐसे ही वर्गीकृत करने की संभावना है। लेकिन लोगों का भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन और परमेश्वर द्वारा आदेशित है। अगर तुम लोगों के भाग्य को, जिस पर परमेश्वर संप्रभु है और जिसे परमेश्वर ने आदेशित किया है, नकारात्मक चीजों के रूप में वर्गीकृत करते हो, तो इस मामले की प्रकृति क्या है? (परमेश्वर की ईशनिंदा।) यह परमेश्वर की निंदा करना और परमेश्वर की ईशनिंदा करना है। इंसानी शब्दावली में इसका मतलब है “तुमने बहुत बड़ा पाप किया है, इसलिए तुरंत जाकर अपने पाप स्वीकार करो!” हम इस बारे में और ज्यादा कुछ नहीं कहेंगे।

हमने अभी-अभी “परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन सभी चीजें सकारात्मक हैं” विषय पर संगति की और हमने लोगों के भाग्य का जिक्र किया। हालाँकि इस विषयवस्तु का दायरा बहुत बड़ा है, लेकिन यह बहुत विशिष्ट भी है; यह हर व्यक्ति और पूरी मानवजाति के जीवन से जुड़ा है। लोगों का भाग्य विभिन्न प्रकार का होता है, लेकिन ज्यादातर लोगों का भाग्य, जैसा कि लोग देखते हैं या खुद अनुभव करते हैं, एक शब्द में बताया जा सकता है : अभागा। “अभागे” का मतलब है कि व्यक्ति का भाग्य मुश्किलों और निराशाओं से भरा है; ऐसा व्यक्ति बहुत कठिन जिंदगी जीता है और ज्यादातर समय चीजें उसकी मर्जी के मुताबिक नहीं होतीं। चाहे किसी को अच्छे अनुभव हों या बुरे, चाहे वे कुछ भी देखें या महसूस करें, एक बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हालाँकि ज्यादातर लोगों को अपना भाग्य वैसा नहीं लगता जैसा वे चाहते हैं, फिर भी हर व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। इससे कभी इनकार नहीं किया जाना चाहिए। चूँकि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता ने ऐसी वास्तविकता उत्पन्न की है जिसे स्वीकार करना लोगों के लिए मुश्किल है, इसलिए इस बात पर संगति करना जरूरी है कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के सिद्धांत और उसकी जड़ क्या है, और लोगों के भाग्य पर संप्रभुता रखने के पीछे परमेश्वर का क्या मकसद है—यानी, परमेश्वर इस तरह से लोगों के भाग्य पर संप्रभुता क्यों रखता है और वह लोगों के लिए ऐसे भाग्य की व्यवस्था क्यों करता है। पहले, आओ देखते हैं कि लोगों के भाग्य पर संप्रभुता रखने के पीछे परमेश्वर का क्या मकसद है। क्या लोग इस दुनिया में खानापूरी करने या अपना समय गँवाने के लिए आते हैं? (दोनों के लिए ही नहीं आते।) लोगों के भाग्य की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का मकसद यह नहीं है कि वे दुनिया में बस चलती-फिरती लाशों की तरह घूमें और बस हो गया। बल्कि, यह है कि लोग देह में रहें और जीवन का अनुभव करें, और विभिन्न अवधियों में हर तरह के जीवन-परिवेश से और साथ ही विभिन्न परिस्थितियों से भी गुजरें। जीवन का अनुभव करने की बात करें तो, मनुष्य के देह में एक खासियत है : अगर कोई व्यक्ति बिना किसी मुश्किल दौर, कठिनाई, रुकावट या नाकामी के आरामदायक परिवेश में रहता है, तो उसके लिए बढ़ना और परिपक्व होना आसान नहीं होता। यह एक ऐसे पौधे की तरह है जो ग्रीनहाउस में बिना हवा और धूप का सामना किए बढ़ता है; उसका जीवन बहुत कमजोर होता है, क्योंकि उसके लिए प्रकृति से विभिन्न पोषक तत्व लेना आसान नहीं होता। कड़ी धूप और मजबूत हवाओं का सामना करने पर उसका टूटना और असमय मर जाना बहुत आसान होता है, और फिर उसका जीवन जारी नहीं रह सकता। इसलिए, मनुष्य के देह की प्रकृति और प्रवृत्ति के हिसाब से मानवजाति को ग्रीनहाउस के फूलों की तरह नहीं होना चाहिए जो हवा और बारिश का अनुभव नहीं करते, बल्कि उसे इंसानी दुनिया की विभिन्न नाकामियाँ, कठिन दौर और निराशाएँ सहनी चाहिए। ऐसे जीवन-परिवेश में मानवजाति अपनी परमेश्वर-प्रदत्त स्वतंत्र इच्छा और विचारों का इस्तेमाल करेगी, और वह—हर संभव तरीके से, स्वतंत्र रूप से, दृढ़ता से और बिना किसी कठिनाई के डर के—आगे बढ़ती रहेगी और जीती रहेगी। इससे लोगों की जीवन और अस्तित्व के लिए विभिन्न प्रवृत्तियाँ उद्दीप्त होंगी, और लोग स्वतंत्र रूप से जीने और हर परिवेश का और साथ ही अपने आसपास के सभी लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने के लिए अपने अस्तित्व के लिए परमेश्वर-प्रदत्त प्रवृत्ति का उपयोग करने में समर्थ होंगे। एक तो, मनुष्य के देह की वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति के परिप्रेक्ष्य से, लोगों को जीवित रहने की इच्छा पैदा करने के लिए इस परिवेश के उद्दीपन और प्रेरणा की आवश्यकता होती है, ताकि वे दृढ़ता के साथ जी सकें। ऊपर से, इस तरह जीना मुश्किल लगता है, लेकिन इस परिवेश के उद्दीपन और आघातों के बीच लोगों में जीवित रहने की एक मजबूत इच्छा विकसित होती है, और इसलिए वे आगे बढ़ते रहेंगे और धीरे-धीरे परिपक्व हो जाएँगे, धीरे-धीरे दूसरों के साथ रहना सीख लेंगे और कम नाजुक होंगे, इसके बजाय उनमें दृढ़ता, सहनशक्ति और लगन होगी, और वे किसी भी कठिनाई से निर्भय रहने में समर्थ होंगे। यह लोगों के भाग्य की व्यवस्था करने में परमेश्वर का शुरुआती मकसद है; यह लोगों के भाग्य की मूल अवधारणा है जिसकी उनके देह की प्रवृत्ति के मूल रूप के आधार पर अभिकल्पना की गई है। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि—इस मूल अवधारणा के आधार पर—जब लोग इस दुनिया में अपनी यात्रा करते हैं, बचपन से बुढ़ापे तक, धीरे-धीरे बड़े होने की प्रक्रिया में, वे जीवन की घटनाओं का अनुभव करते हैं, जीवन का अनुभव प्राप्त करते हैं और जीवन में विभिन्न कठिनाइयों का सामना करने के लिए कुछ सिद्धांत और मार्ग प्राप्त करते हैं। इस तरह, लोग धीरे-धीरे परिपक्व होते हैं और स्वर्ग और पृथ्वी के बीच, और दूसरे लोगों के बीच, स्वतंत्र रूप से रहने में उत्तरोत्तर सक्षम हो जाते हैं। वे बहुत नाजुक नहीं होंगे, और थोड़े-से आघात या असफलता से सामना होने पर—हतोत्साहित या हताश महसूस नहीं करेंगे—या यह तक महसूस नहीं करेंगे कि जीने में कोई उम्मीद नहीं है। बल्कि, विभिन्न कठिन परिस्थितियों का अनुभव करने के बाद वे जिंदगी और मौत को सही तरीके से देखने में उत्तरोत्तर सक्षम हो जाएँगे, और यह समझने में उत्तरोत्तर सक्षम हो जाएँगे कि वे कौन-से कर्त्तव्य हैं जो उन्हें जीवन में निभाने चाहिए और उन्हें सबसे ज्यादा किस चीज की जरूरत है, और इस तरह, वे जीवन में उत्तरोत्तर आराम महसूस करेंगे। इस प्रक्रिया में लोग धीरे-धीरे परिपक्व हो जाते हैं; यानी, वे धीरे-धीरे उस बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ उन्हें मुश्किलों और खतरे से डर नहीं लगता, मौत से डर नहीं लगता, और किसी कठिनाई से डर नहीं लगता। पहले, जब लोग युवा होते हैं तो वे कुछ अप्रिय और दिल को चुभने वाली बातें सुनकर या थोड़ी-सी मुश्किल होने या आघात लगने पर रोते हैं और सो नहीं पाते, और उन्हें लगता है कि जीने में कोई उम्मीद नहीं है। धीरे-धीरे, वे उस बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ दिल को चुभने वाली बातें सुनने और मुश्किलों का सामना करने पर उनके दिलों में एक निश्चित मात्रा में प्रतिरक्षा और प्रतिरोध आ जाता है और उन्हें अब ऐसा नहीं लगता कि जीने में कोई अर्थ नहीं है, न ही वे मौत के बारे में सोचते हैं। बाद में, जब वे और ज्यादा दिल को चुभने वाली बातें सुनते हैं और आघात और असफलताओं का सामना करते हैं, तो वे बिना ज्यादा प्रभावित हुए उन्हें अपने दिलों में सह सकते हैं और महसूस करते हैं कि लोगों के लिए जीवन में इन चीजों का अनुभव करना बहुत सामान्य है, और अपनी जिंदगी जीने के लिए उन्हें अब दूसरों की दिलासा, प्रोत्साहन या मदद की जरूरत नहीं पड़ती। इस तरह, क्या लोगों में धीरे-धीरे और ज्यादा हिम्मत नहीं आती? लोगों में स्वतंत्र रूप से जीने का सामर्थ्य होता है और स्वतंत्र रूप से जीने की प्रेरणा भी होती है। हर किसी को युवा और नासमझ होने के चरण से गुजरना पड़ता है। चालीस-पचास साल की उम्र के बाद ही वे धीरे-धीरे परिपक्वता की अवस्था में पहुँचते हैं और वयस्क बनते हैं। भले ही किसी ने परिवार न बसाया हो, करियर न बनाया हो, या वह माता या पिता न बना हो, लेकिन जीवन में उसने जो कुछ झेला है, जो बातें वह कहता है, और जीवन के प्रति, जीने के प्रति, उन मुश्किलों के प्रति जिसका वह सामना करता है, और उन चीजों के प्रति जो उसकी इच्छा के अनुसार होती हैं या नहीं होतीं, उनके प्रति उसके एहसासों, समझ और रवैये से आँकने पर तुम पाओगे कि वह व्यक्ति बड़ा और परिपक्व हो गया है। यह सब किसकी बदौलत है? यह उन विभिन्न मुश्किलों, निराशाओं, यहाँ तक कि उन आघातों और नाकामियों की बदौलत है जो परमेश्वर द्वारा आदेशित किए अनुसार लोगों के भाग्य में आती हैं। इसलिए, इस परिप्रेक्ष्य से, इसमें कोई शक नहीं कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है और लोगों को यह सत्य पूरी तरह से स्वीकार करना चाहिए। क्या यहाँ यह कहा जा सकता है कि लोगों के भाग्य पर अपनी संप्रभुता में परमेश्वर के सच में बहुत श्रम-साध्य इरादे होते हैं? (हाँ।) चाहे कोई परमेश्वर में विश्वास करे या न करे, जैसे-जैसे लोग जन्म से लेकर बड़े होकर परिपक्वता तक पहुँचते हैं, तो अच्छी काबिलियत वाले लोग समझ के इस बिंदु तक पर पहुँच जाते हैं कि वे भाग्य के अधीन हैं, और परमेश्वर को खोजने के बिंदु पर भी पहुँच जाते हैं। इस तथ्य से आँकने पर, क्या लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता का मूल इरादा एक सकारात्मक चीज नहीं है? (हाँ, है।) देखो, जब मैं यह कहता हूँ, तो तुम सब लोग सिर हिलाते हो और स्वीकार करते हो कि यह एक सकारात्मक चीज है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जो मैं कह रहा हूँ वह एक तथ्य है, और मैंने इस मामले का सार स्पष्ट रूप से बताया है, और तुम लोगों ने भी इसका अनुभव किया है, है ना? (हाँ।) मनुष्य को वास्तव में उस भाग्य से फायदा हुआ है जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। तुम्हारी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, या तुम कहीं से भी आए हो, और तुम इस समाज में कोई भी भूमिका निभाते हो, संक्षेप में, जब तक तुम परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन रहते हो, तुम्हें परमेश्वर से फायदे मिले हैं। कुछ लोग कहते हैं, “यह सही नहीं है। परमेश्वर को अपने चुने हुए लोगों के भाग्य पर, मनुष्यों के भाग्य पर संप्रभु होना है। परमेश्वर उन लोगों के भाग्य पर संप्रभु नहीं है जो दानवों या जानवरों से पुनर्जन्म लेते हैं।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) जो कोई भी चीज सृजित प्राणी है, वह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। अगर वह एक सृजित प्राणी है, तो उसका एक भाग्य है। तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हारा भाग्य है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक भाग्य की व्यवस्था की है, इसलिए तुम्हारा भाग्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुमने चुना हो, न ही वह कोई ऐसी चीज है जिसे तुमने सृजित किया हो; वह परमेश्वर की संप्रभुता से आता है। इसलिए, चाहे तुम कोई भी भूमिका निभाते हो, चाहे तुमने मनुष्य से पुनर्जन्म लिया हो या जानवर या दानव से, चूँकि तुम अब मनुष्य जाति के सदस्य हो, इसलिए तुम्हारा निश्चित रूप से एक भाग्य है, और तुम्हारा भाग्य निश्चित रूप से परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। इस बिंदु के आधार पर, क्या लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज नहीं है? (हाँ, है।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है? इसलिए कि परमेश्वर किसी भी सृजित प्राणी के लिए जिस भाग्य की व्यवस्था करता है, उसके पीछे उसके श्रमसाध्य इरादे होते हैं; यह सब इसलिए है ताकि मनुष्य इस दुनिया में परमेश्वर की दी हुई विभिन्न जन्मजात स्थितियों के साथ सामान्य रूप से और व्यवस्थित तरीके से जी सके। परमेश्वर किसी भी व्यक्ति के साथ नाइंसाफी नहीं करता। जैसा कि कहा जाता है, सूरज अच्छे और बुरे दोनों पर चमकता है। यही परमेश्वर की संप्रभुत्ता है। वरना, हम यह क्यों कहेंगे कि सिर्फ परमेश्वर ही मानवजाति का स्रष्टा है और सिर्फ परमेश्वर ही मानवजाति पर संप्रभु है? क्योंकि परमेश्वर यही करता है, परमेश्वर में यह क्षमता है, और उसके पास यह सार और यह अधिकार है। यह बिंदु यह स्पष्ट करता है—लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है और इसे न तो नकारा जा सकता है और न ही इस पर शक किया जा सकता है। यानी, मनुष्य के दैहिक जीवन के नियमों को देखते हुए, कठिनाइयों और कठिन दौरों के जिस भाग्य की परमेश्वर लोगों के लिए व्यवस्था करता है, वह उन्हें धीरे-धीरे परिपक्व बनने और इस जिंदगी का सफर सुचारु रूप से पूरा करने में मदद कर सकता है। इस परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है।

लोगों के भाग्य का एक और पहलू देखें तो, बहुत-से लोग मुश्किल, निराशा भरी जिंदगी जीते हैं। ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने कुछ बुरा किया है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें सजा मिल रही है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जवानी में अपने पिता, अधेड़ उम्र में अपने पति और बुढ़ापे में अपने बेटे खो देते हैं, उनके परिवार मौत से टूट जाते हैं। कुछ लोगों के साथ दुर्घटनाएँ हो जाती हैं, जैसे कार-दुर्घटना या वायुयान-दुर्घटना। कुछ लोग विकलांग होते हैं : कुछ अंधे होते हैं, कुछ बहरे होते हैं और कुछ के हाथ-पैर नहीं होते। कुछ लोग धोखा खाकर बहुत ज्यादा गरीब हो जाते हैं और दूसरे लोग अपनी पूरी जिंदगी कर्ज चुकाने में बिता देते हैं। जब लोगों के साथ ये विभिन्न दुर्भाग्यपूर्ण चीजें घटती हैं, तो बहुत-से लोग कहते हैं, “स्वर्ग अन्यायी है। ऐसा नहीं लगता कि स्वर्ग को ऐसा करना चाहिए। अगर परमेश्वर लोगों के भाग्य पर संप्रभु है, तो वह उन्हें इतना दुखी कैसे बना सकता है? वह निर्दोष लोगों को ऐसे आघात कैसे झेलने दे सकता है और ऐसी बदकिस्मती का सामना कैसे करने दे सकता है?” अगर लोग इसे सृष्टिकर्ता के लोगों का भाग्य आदेशित करने के मूल इरादे के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता के इरादे बहुत श्रमसाध्य हैं और लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है। लेकिन जब लोगों के भाग्य में कुछ खास चीजें होती हैं जो मानवता के जमीर के परिप्रेक्ष्य से दुखद लगती हैं, तो लोग समझ नहीं पाते कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज क्यों है, और वे समझ नहीं पाते कि क्या हो रहा है। बहुत-से लोग मानते हैं कि सृष्टिकर्ता द्वारा लोगों के भाग्य की व्यवस्था में कुछ गलत पहलू हैं, और उन्हें यह कहना सही नहीं लगता कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन सभी चीजें सकारात्मक होती हैं। इसलिए, कुछ लोगों ने एक आम कहावत बनाई है : “जो पुल बनाते हैं और सड़कों की मरम्मत करते हैं वे अंततः अंधे हो जाते हैं, जबकि अनेक दुष्कर्म करने वालों को बड़े परिवार होने का आशीष मिलता है।” कुछ लोग कहते हैं, “यह गलत है। पुल बनाना और सड़कों की मरम्मत करना पुण्य संचित करना और अच्छा काम करना है। जो लोग ऐसा करते हैं, उनके बड़े परिवार होने चाहिए और वे बहुत अमीर होने चाहिए। वे अंधे कैसे हो सकते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि ऐसा भाग्य भी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हो और वह एक सकारात्मक चीज भी हो? यह समझ में नहीं आता!” अगर लोग सत्य नहीं समझते और उन्हें परमेश्वर का ज्ञान नहीं होता, तो वे वास्तव में इन चीजों का पता नहीं लगा सकते या इन्हें समझ नहीं सकते। गैर-विश्वासी हमेशा कहते हैं, “स्वर्ग जीवित चीजों को सँजोता है।” इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर परमेश्वर है, अगर स्वर्ग है, तो परमेश्वर को अपनी प्रजा की देखभाल करनी चाहिए। अगर वह सृष्टिकर्ता है, तो उसे अपने सृजित प्राणियों की देखभाल करनी चाहिए और उनके साथ दयालुता से पेश आना चाहिए; उसे उन्हें ये दर्द नहीं सहने देने चाहिए। जैसा कि लोग इसे देखते हैं, अगर मनुष्य शैतान और दानवों की शक्ति के अधीन रहता, तो यह समझा जा सकता था कि वह ये दर्द सह सकता है, लेकिन चूँकि मनुष्य परमेश्वर के राज्य और परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन रहता है, इसलिए उसे ये दर्द नहीं सहने चाहिए। खासकर जब ऐसे भाग्य के परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होने की बात आती है, तो लोग यह समझने में और भी ज्यादा असमर्थ हो जाते हैं कि क्या हो रहा है। अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके लिए यह पहचानना बहुत मुश्किल होता है कि हर उस चीज के पीछे कोई मतलब होता है जिस पर परमेश्वर संप्रभुता रखता है और जिसकी व्यवस्था करता है; वे कुछ चीजें समझ नहीं सकते और इन खास स्थितियों में अटक जाते हैं। अगर किसी के पास परमेश्वर का थोड़ा भी भय मानने वाला दिल हो, तो वह कहेगा, “अगर हम इस मामले को समझा नहीं सकते तो चलो इसके बारे में बात नहीं करते, हमें अपनी मर्जी से इसका आकलन नहीं करना चाहिए।” उसे थोड़ा विवेक रखने वाला माना जा सकता है। कुछ लोगों में कोई जमीर या विवेक नहीं होता, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना तो दूर की बात है। वे ढीठ होते हैं और जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी मर्जी के मुताबिक नहीं होतीं, तो उनमें लापरवाही से आकलन करने की हिम्मत होती है, “हम्म! लोग कहते हैं कि स्वर्ग जीवित चीजों को सँजोता है, तो फिर कुछ लोग जो काफी अच्छे प्रतीत होते हैं, कम उम्र में ही क्यों मर जाते हैं? और वे हिंसापूर्ण मौत मरते हैं और अपने पीछे ढेर सारे बच्चे छोड़ जाते हैं। यह बहुत दयनीय, बहुत दुखद है! और लोग फिर भी दावा करते हैं कि परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है। अगर लोगों का ऐसा दुखद भाग्य होना परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है!” ये लोग परमेश्वर का आकलन इतनी लापरवाही से करते हैं। लोगों के भाग्य निस्संदेह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। इस पर कभी भी सवाल नहीं उठाया जा सकता या इसे कभी नकारा नहीं जा सकता। यह कथन कि “लोगों के भाग्य परमेश्वर के हाथों में हैं” हर समय सही है और हर समय तथ्य है, क्योंकि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है और यह बात किसी भी समय नहीं बदलेगी। तो फिर लोग ऐसी दुखद स्थितियों का सामना क्यों करते हैं? एक चीज है जिसके बारे में लोग नहीं जानते, या वे उसे धर्म-सिद्धांत के तौर पर समझते हैं लेकिन उसे स्पष्ट रूप से बता नहीं सकते, और वह यह है कि हर व्यक्ति के भाग्य का कारण और कार्य होता है। तुम्हारा भाग्य कैसा है और इस जीवन में तुम क्या चीजें सहोगे, ये तुम्हारे पिछले जन्म के कार्य हो सकते हैं और ये अगले जन्म में कारण भी बन सकते हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा गैर-विश्वासी लोग कहते हैं, “जो बोओगे वही काटोगे।” अपने पिछले जीवन में तुमने कुछ कारण और कार्य बोए होंगे—अगर परमेश्वर तुम्हारे लिए इस जीवन में मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने और मानवजाति का सदस्य बनने की व्यवस्था करता है, तो तुम्हें उन कारणों और कार्यों की कीमत चुकानी होगी जो तुमने बोए थे; तुम्हें उनकी भरपाई करनी होगी। तुम उनकी भरपाई करोगे या नहीं और तुम्हें करनी चाहिए या नहीं, यह तय करना तुम्हारे हाथ में नहीं है। कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसने बुरा काम किया है, सजा स्वीकार करने का इच्छुक नहीं होता। सिर्फ सृष्टिकर्ता ही इस मामले की व्यवस्था कर सकता है, उसी के पास यह अधिकार है, और बेशक, उसी के पास यह शक्ति है। तो ऐसा करने में सृष्टिकर्ता का क्या सिद्धांत है? यह अच्छे को पुरस्कृत करना और बुरे को दंडित करना है। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझता, परमेश्वर को नहीं जानता और परमेश्वर की संप्रभुता के मूल तत्व और सिद्धांत नहीं समझता, लेकिन चूँकि परमेश्वर में धार्मिक स्वभाव है इसलिए और सृष्टिकर्ता के तौर पर अपनी पहचान के कारण उसने मनुष्य और सभी चीजों के लिए स्वर्गिक नियम और कानून स्थापित किए हैं। ये स्वर्गिक नियम और कानून किस पर आधारित हैं? ये परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और परमेश्वर के अधिकार और शक्ति पर आधारित हैं। इन स्वर्गिक नियमों और कानूनों की स्थापना मानव-जगत में एक परिघटना में झलकती है, जो मनुष्यों का पुनर्जन्म है। मनुष्य के पुनर्जन्म की प्रक्रिया अक्सर सीधे तौर पर कारण और कार्य से जुड़ी होती है और यह कारण-कार्य संबंध लोगों के भाग्य में कुछ खास चीजों में प्रतिबिंबित और अभिव्यक्त होता है। इसके अलावा, मनुष्य के पुनर्जन्म की प्रक्रिया में लोग परमेश्वर के पुरस्कार और साथ ही परमेश्वर के दंड भी पाते हैं। परमेश्वर बुराई करने वालों को दंड देता है; यानी, वह उनका हर तरह के दुर्भाग्यों और दुर्घटनाओं से सामना करवाता है, और हर तरह की सजाओं से भी जिन्हें लोग अनुचित और अविवेकपूर्ण मानते हैं। इनमें से कुछ सजाएँ तो मनुष्य की नजर में बहुत दुखद होती हैं, लेकिन इस बात की एक पृष्ठभूमि होती है कि यह दुखद स्थिति उनके साथ क्यों घटित हुई। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो परमेश्वर ने उन पर बिना किसी वजह के थोप दी हो, बल्कि यह वह सजा है जो उन्हें इसलिए भुगतनी चाहिए कि उन्होंने असंख्य दुष्कर्म किए हैं। जब लोग इस मामले के पूरे विवरण की असलियत नहीं जान सकते, तो वे बकवास करते हैं और स्वर्ग और परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, जो बहुत बेवकूफी है। तो उन लोगों के साथ क्या स्थिति है जो परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं? चूँकि उन्होंने अपने पिछले जीवन में पुण्य जमा किया और बहुत सारी अच्छी चीजें कीं—ऐसी बहुत-सी चीजें जिनसे मानवजाति को फायदा हुआ, और ऐसी बहुत-सी चीजें जिनसे उन्हें परमेश्वर के स्वर्गिक नियमों और कानूनों के अनुसार निंदा नहीं बल्कि पुरस्कार मिले, इसलिए वे इस जीवन में कई आशीषों का आनंद लेते हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। मान लो एक औरत एक खुशहाल परिवार में पैदा हुई है—हालाँकि वह परिवार बहुत अमीर नहीं है, लेकिन उसमें बहुत सारे लड़के हैं और कोई लड़की नहीं है, और परमेश्वर उसके इसी परिवार में पैदा होने की व्यवस्था करता है। जैसे ही यह बच्ची पैदा होती है, वह पूरे परिवार की आँखों का तारा बन जाती है—इतनी प्यारी कि वे उसे नुकसान पहुँचने के डर से उसके पास साँस लेने तक से डरते हैं। बच्ची सुंदर, स्मार्ट और प्यारी है और उसके माता-पिता और बड़े-बुजुर्ग सभी उसे पसंद करते हैं। उसकी पूरी जिंदगी आराम से गुजरती है। वह चाहे कुछ भी करे या किसी भी मुश्किल का सामना करे, हमेशा अच्छे लोग उसकी मदद के लिए मौजूद रहते हैं और उसकी सारी मुश्किलें आसानी से हल हो जाती हैं। उसे कोई चिंता नहीं होती और वह एक आरामदेह, खुशहाल जिंदगी जीती है। वह सच में धन्य है! यहाँ क्या हो रहा है? क्या सृष्टिकर्ता कुछ लोगों के प्रति पक्षपात करता है? (नहीं।) तो फिर कुछ लोग इतने बड़े आशीषों का आनंद क्यों ले पाते हैं? स्वर्गिक नियमों और कानूनों में यह निर्दिष्ट है कि एक खास तरह के व्यक्ति को, जिसने ऐसी चीजें की हैं जो मानवजाति के लिए फायदेमंद हैं, पुरस्कार दिया जाना चाहिए, और हो सकता है वह लड़की ऐसी ही हो। सृष्टिकर्ता से पुरस्कार पाकर वह मानव-जगत में इतने बड़े आशीषों का आनंद लेती है। उसे कभी भोजन और कपड़ों की चिंता नहीं करनी पड़ती; वह जहाँ भी जाती है, अच्छे लोग उसकी मदद के लिए होते हैं, और वह जहाँ भी जाती है, लोग उसे पसंद करते हैं। यहाँ तक कि जब वह चालीस या पचास साल की हो जाती है और उसके बच्चे बड़े हो जाते हैं, तब भी उसके माता-पिता उसे अपनी आँखों का तारा समझते हैं; जब भी उनके पास कुछ अच्छा होता है, वे उसे उसके लिए बचाकर रखते हैं। दूसरे लोग उसे इतने बड़े आशीषों का आनंद लेते देख जलते हैं और कुछ लोगों को लगता है कि यह गलत है क्योंकि वे ऐसे आशीषों का आनंद नहीं ले सकते। अगर तुम भी सृष्टिकर्ता द्वारा व्यवस्थित ऐसे भाग्य का आनंद लेना चाहते हो और उसके जैसे भाग्य और आशीषों का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें भी ज्यादा पुण्य संचित करना चाहिए और ज्यादा अच्छे काम करने चाहिए, और तुम्हें वे चीजें भी ज्यादा करनी चाहिए जो स्वर्ग द्वारा पुण्य संचित करने और अच्छे काम करने के रूप में निर्दिष्ट की गई हैं—तब तुम भी ऐसे आशीषों का आनंद ले पाओगे। यह परिघटना, यह तथ्य लोगों को क्या बताता है? मानव-जगत में किसी व्यक्ति का भाग्य कैसा भी हो—चाहे वह आशीषों का आनंद ले या दुर्घटनाओं का सामना करे, चाहे उसकी पूरी जिंदगी सुचारु हो या वह बहुत दुखों और आपदाओं का सामना करे—इसका उसके पिछले और मौजूदा जीवन से एक खास रिश्ता होता है। आखिरकार, उसका भाग्य क्या है, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्वर्गिक नियमों और कानूनों से जुड़ा है। उसने पिछले जीवन में जो कुछ भी किया, अगर वह स्वर्गिक नियमों और कानूनों के प्रावधानों के अनुरूप था जिसके परिणामस्वरूप उसे पुरस्कार मिला, तो इस जीवन में उसका भाग्य, लोगों की नजर में, शानदार, आसान और बहुत अच्छा हो सकता है। अगर उसने पिछले जीवन में जो किया, उसने कई स्वर्गिक कानूनों का उल्लंघन किया और वह परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्वर्गिक नियमों और कानूनों के उन प्रावधानों से मेल खाने वाला हुआ जिसका नतीजा सजा होती है, तो परमेश्वर उसके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था करता है वह लोगों की नजर में यह होगा कि वह एक बहुत ही दुखद, दयनीय जीवन जिएगा, मानो यह जीवन सिर्फ उसके द्वारा आकर अपने पिछले कर्ज चुकाने के लिए हो। वह कभी अच्छे भोजन या वस्त्रों का आनंद नहीं लेता, और कोई उसे पसंद नहीं करता या उसकी परवाह नहीं करता। उसे लगता है कि यह उसके खराब भाग्य के कारण है कि वह इस जीवन में इतना दुख झेल रहा है। जब तक वह परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तब तक वह यह नहीं समझता कि व्यक्ति का पूरा जीवन परमेश्वर द्वारा आदेशित होता है। जब वह यह जान लेता है कि परमेश्वर चीजों को आदेशित करता है, तो उसके लिए परमेश्वर के सामने समर्पण करना आसान हो जाता है, और वह बहुत ज्यादा शिष्ट बन जाता है और फिर अपने भाग्य से नहीं लड़ता। पहले वह अंदर से विद्रोही महसूस करता था : “मैंने क्या बुरा किया है? इस जीवन में मेरा जमीर साफ है। मैंने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया। मुझे ऐसे भाग्य का सामना क्यों करना पड़ा? स्वर्ग निष्पक्ष नहीं है!” परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने के बाद वह समझता है: “यह परमेश्वर की धार्मिकता है। परमेश्वर ने मुझे इन चीजों के जरिये अपने सामने आने के लिए प्रेरित किया है!” इस तरह सोचना भी सही है, और यह एक तथ्य है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि लोगों को जो सजा मिलती है वह परमेश्वर की संप्रभुता से आती है। यह सब—कारण और कार्य का चक्र, बुरे को सजा और अच्छे को पुरस्कार देना, और स्वर्गिक नियम और कानून—आखिरकार किस पर निर्भर करता है? इन सबके पीछे परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है; परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ही इन सबके ऊपर संप्रभु है। इसलिए, जब लोगों के भाग्य में ऐसी तमाम तरह की चीजें आती हैं जो लोगों की धारणाओं, रुचियों या इच्छाओं के अनुरूप नहीं होतीं, तब भी लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता का मामला एक सकारात्मक चीज बनी रहती है। क्या इसका कोई मतलब नहीं है? (हाँ, है।) अपनी मानवीय दयालुता के कारण जब तुम लोगों को दुख सहते देखते हो, तो तुम सोचते हो, “वह व्यक्ति कितना दयनीय है! मैं किसी को दुख सहते हुए नहीं देख सकता, और मैं बुरे लोगों को दूसरों को परेशान करते हुए नहीं देख सकता।” कुछ लोग इस जीवन में हमेशा परेशान किए जाते हैं। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि अपने पिछले जीवन में उन्होंने हमेशा लोगों को परेशान किया और काफी लोगों को नुकसान पहुँचाया, इसलिए इस जीवन में उन्हें खुद परेशान किया जाता है। अगर तुम हमेशा लोगों को परेशान करते हो, तो आखिर में तुम्हें इसका यह फल मिलता है कि तुम्हें खुद परेशान होना पड़ता है। यह सृष्टिकर्ता की धार्मिकता है। इस तरह आचरण करके तुमने स्वर्गिक नियमों का उल्लंघन किया, इसलिए तुम्हें कीमत चुकानी होगी और पिछले जीवन में किए गए बुरे कामों के लिए पीड़ा और यातना सहनी होगी। यह परमेश्वर की धार्मिकता है और तुम इससे बच नहीं सकते। इसलिए, यह तथ्य कि लोगों के लिए तमाम तरह के भाग्य हैं, यह उत्तरोत्तर स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्वर्गिक नियम और कानून कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता, और कोई भी इसका अपवाद नहीं है। मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता की कभी दैहिक भावनाएँ नहीं रही हैं, और बेशक, सृष्टिकर्ता का सार कोई दैहिक भावनाएँ न रखना है। उसमें सिर्फ एक धार्मिक स्वभाव है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह, इंसानी भाषा में, तर्कसंगत और धार्मिक होता है। तो इसे सत्य के परिप्रेक्ष्य से कैसे देखा जाना चाहिए? यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है—ये सब सकारात्मक चीजें हैं। लोगों को इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए, और परमेश्वर का कोई ऐसा आकलन या मूल्यांकन नहीं करना चाहिए जो वास्तविकता के अनुरूप न हो या सत्य के अनुसार न हो। अगर तुम इंसानी परिप्रेक्ष्य से कुछ लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हो और उन पर दया करते हो तो भी, परमेश्वर के ऐसे अनुयायी के तौर पर जो कुछ सत्य समझता है, तुम्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की प्रशंसा करनी चाहिए और तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता की भी प्रशंसा करनी चाहिए। यह बहुत अच्छा है कि परमेश्वर इस तरह से संप्रभु है! चूँकि परमेश्वर इस तरह से लोगों के भाग्य पर संप्रभु है, इसीलिए मानवजाति आज तक एक व्यवस्थित तरीके से जीवित रह पाई है। अगर शैतान लोगों के भाग्य पर संप्रभु होता, तो मानवजाति बहुत पहले ही अराजकता में डूब गई होती और उसके लिए आज तक जीवित रहना असंभव होता। देखो दानव का राज्य कैसा है; परमेश्वर की संप्रभुता के बिना मानव-जगत दानव के राज्य जैसा ही होगा। दानव का राज्य क्या है? इसका सबसे यथार्थ उदाहरण सीसीपी के तानाशाही शासन में होने वाले आंतरिक संघर्ष हैं—जो खुलेआम और गुप्त दोनों तरह से होते हैं—जो खून-खराबे और जानलेवा इरादों से भरे होते हैं। यही दानव का राज्य है। क्या सीसीपी के तानाशाही शासन की आंतरिक स्थिति अराजक नहीं है? लोग अक्सर गायब हो जाते हैं, और जब उनकी स्पष्ट रूप हत्या हो जाती है, तब भी कोई इसकी घोषणा करने की हिम्मत नहीं करता। यह दानव के राज्य की अराजकता है, और यह आज की बुरी दुनिया की अराजकता भी है।

यह समस्त संदेह के परे निश्चित है कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है। चाहे लोगों के भाग्य अभिकल्पित करने में परमेश्वर के मूल इरादे के परिप्रेक्ष्य से देखें या परमेश्वर द्वारा स्थापित स्वर्गिक नियमों और कानूनों द्वारा प्रस्तुत लोगों के भाग्य के नतीजों के परिप्रेक्ष्य से, यह संपूर्ण निश्चितता के साथ कहा जाना चाहिए कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है, नकारात्मक नहीं। अगर तुम्हारे मन में इस सत्य के बारे में धारणाएँ है, तो तुम अपनी धारणाओं का समाधान करने के लिए परमेश्वर के वचनों में सत्य खोज सकते हो, लेकिन तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर यह नहीं कह सकते, “परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन लोगों के भाग्य हमेशा उनके लिए अच्छे और फायदेमंद होने चाहिए। परमेश्वर की संप्रभुता की वजह से कुछ लोगों के साथ चीजें इतनी बुरी क्यों होती हैं? यह परमेश्वर की संप्रभुता नहीं होनी चाहिए, है ना?” तुम्हें ऐसी चीज कभी नहीं कहनी चाहिए। ऐसा अत्यधिक विद्रोहात्मक और ईशनिंदात्मक कथन तुम्हारे मुँह से कभी नहीं निकलना चाहिए। आज से तुम्हें यह सत्य स्वीकार करना चाहिए और इसकी पुष्टि करनी चाहिए कि “लोगों के भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं और परमेश्वर की संप्रभुता एक सकारात्मक चीज है।” इस पर शक मत करो। लोगों के जो भाग्य तुम अपनी आँखों से देखते हो या अनुभव करते हो, वे चाहे कैसे भी तुम्हारी धारणाओं से टकराते हों, या अगर तुम्हें लगता है कि वे अमानवीय हैं तो भी, तुम्हें यह विश्वास करना चाहिए और इसकी पुष्टि करनी चाहिए कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता वास्तविक है और वह एक सकारात्मक चीज है। इस बात पर शक नहीं किया जा सकता। क्या इस सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति कर ली गई है? (हाँ।) यह परमेश्वर को जानने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है और यह हल हो गया है, है ना? (हाँ।) तो आज के लिए अपनी संगति हम यहीं खत्म करते हैं। अलविदा!

6 अप्रैल 2024

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