94. अगुआ प्रतिभाओं को न रोकें

सीसीलिया, स्पेन

अगस्त 2020 में, मुझे अगुआ चुना गया और मैंने कलीसिया का वीडियो-संबंधी काम संभाला। काम में नई होने के कारण मुझे इसके कई सिद्धांतों की जानकारी नहीं थी, और काम करते समय मेरे सामने अक्सर मुश्किलें आती थीं। इसलिए मैं टीम अगुआ बहन मार्शा से सलाह-मशविरा किया करती थी। मार्शा सिद्धांत और काम अच्छी तरह जानती थी। वह मेरी बड़ी मददगार थी। मैंने देखा, वह बारीकियों पर ध्यान देती थी, अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेती थी, और उसे जिम्मेदारी का एहसास था। कभी-कभी, जब मुझ पर काम का बोझ बढ़ जाता, तो अपना थोड़ा काम मैं उसे दे दिया करती। हम दोनों मिल-जुल कर काम करते थे।

फिर, धीरे-धीरे मुझे पता चला कि भाई-बहन अपनी समस्याएँ लेकर मार्शा के पास ही जाते हैं, उससे मिलने के बाद सीधे फैसले तक कर लेते हैं। इन हालात से मैं बड़ी नाखुश रहती। मन-ही-मन सोचती : “यूँ ही चलता रहा, तो क्या मैं अगुआ का अपना पद नहीं खो दूँगी? यह नहीं चलेगा। भविष्य में मुझे सौंपा गया सारा काम खुद ही संभालूँगी, मार्शा से मदद नहीं माँगूंगी। वरना, दूसरे सब लोग समझेंगे कि वह बहुत बढ़िया, प्रतिभाशाली कार्यकर्ता है।” एक बार, मार्शा को पता चला कि एक भाई वीडियो निर्माण कार्य में बहुत धीमा है। जांच करने पर पता चला कि उसका कौशल सही स्तर का नहीं था, वह सिद्धांत खोजे बिना अपना कर्तव्य निभाता, जिसके कारण अक्सर काम दोबारा करना पड़ता। इसलिए उसने उसकी मदद के लिए दूसरे अधिक प्रतिभाशाली भाई को लगा दिया। मुझे बहुत समय तक इस बारे में पता नहीं चला। मार्शा का फैसला सही था, फिर भी मुझे उस हालात से थोड़ी परेशानी हुई। मुझे लगा कि ऐसे बिना बताए इतना बड़ा फैसला ले लेना, मेरा निरादर करने जैसा था। क्या मैं सिर्फ दिखावे की अगुआ बन रही थी? बाद में, मैंने उससे पूछा कि उसने मुझे इसकी सूचना क्यों नहीं दी। मैं तो हैरान रह गई जब उसने कहा : “व्यस्त हो गई थी, तुम्हें बताना भूल गई।” यह सुनकर मैं अपना आपा खो बैठी और मन-ही-मन सोचा : “तुम ज्यादा-से-ज्यादा अधिकार लेकर मेरी स्वीकृति के बिना फैसले करती हो। तुम मेरा आदर नहीं करती! क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि कलीसिया को मेरी जरूरत नहीं? अगर यूँ ही चलता रहा, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? जाहिर है, वे मुझे बेकार समझेंगे। फिर मैं अगुआ का कर्तव्य कैसे निभाऊँगी?” इसका एहसास होने पर, मेरी घबराहट और बढ़ गई। एक बार मार्शा ने बताया कि उसने कुछ अध्ययन सामग्री जमा की थी, और कुछ कौशल सीखने के लिए सबको इकट्ठा करना चाहती थी। यह सुनकर मैं बेचैन हो गई और सोचा, “मैं ही तुम्हें याद दिलाती हूँ कि इस पर काम करना है, फिर भी, हमारी बातचीत के बाद तुम जाकर दूसरों के साथ संगति करती हो, उन्हें मार्गदर्शन देती हो। इसके पीछे मैंने क्या काम किया, ये कोई नहीं जानता, सभी सोचते होंगे कि मुझसे ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी तुम उठाती हो। अगर सब कुछ यूँ ही चलता रहा, तो मैं अगुआ कैसे बनी रह पाऊँगी?” दरअसल, मैं जानती थी कि अध्ययन में भाई-बहनों की अगुआई की जिम्मेदारी मार्शा की थी, और इस काम में देर नहीं की जा सकती, इसलिए मुझे हंगामा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी कि मार्शा यह काम संभाले। मैंने सोचा : “मार्शा ज्यादा-से-ज्यादा परियोजनाओं से जुड़ती जा रही है, इनमें से कुछ काम ऐसे भी हैं, जिनकी जिम्मेदारी मुझ पर है। दूसरे लोग समस्याएँ होने पर उसके पास जाना पसंद करते हैं। क्या जल्द ही वह मेरा स्थान ले लेगी?” ये सब ख्याल आने पर मैं बहुत दुखी हो जाती। इसलिए मैंने उसके काम में कमियाँ और समस्याएँ निकालना शुरू कर दिया। मैं दूसरों को दिखाना चाहती थी कि वह अपने काम में उतनी कुशल नहीं थी, मैं उससे ज्यादा प्रतिभाशाली थी।

एक दिन, एक उच्चतर अगुआ से हमारे काम के बारे में चर्चा के दौरान, उन्होंने यूँ ही जिक्र किया कि मार्शा की एक वीडियो परियोजना बहुत धीमी चल रही थी। मैं तो बस यही सुनना चाहती थी, मैंने तुरंत जवाब दिया : “सही है। उसे बहुत-सी परियोजनाएँ सौंपी गईं, लेकिन वह इन सबको नहीं संभाल सकती। उसकी कुछ परियोजनाएँ ज्यादा प्रभावी भी नहीं रही हैं। मेरे खयाल से उसे बहुत ज्यादा काम न देना ही ठीक रहेगा। उसे इतना अधिकार नहीं देना चाहिए।” यह कहने के बाद मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया : मैं ऐसा कैसे कह सकती थी? कर्तव्य परमेश्वर के आदेश हैं। मैं यूँ बोल रही थी मानो ये कर्तव्य मैंने उसे सौंपे हों, मानो ये काम करने का अधिकार मैंने उसे दिया हो, और अब मैं ही वापस ले रही हूँ। क्या मैं गलत स्थान पर नहीं थी? मुझे यकीन नहीं हुआ कि मैं ऐसा कुछ कह सकती थी, मुझे खुद से काफी डर लगने लगा। यही नहीं, उसमें से कुछ काम सच में मार्शा के कर्तव्य का हिस्सा था, लेकिन मैं उसे इन्हें निभाने से रोकने की कोशिश करती रही, उसके काम में कमियाँ निकालती रही। मैं चाहती थी कि सब देखें कि वह एक अच्छी कार्यकर्ता नहीं है, मुझसे कमतर है। मैं इतनी घिनौनी कैसे हो सकती हूँ?

फिर, मैं अपनी हालत ठीक करने के लिए, परमेश्वर के अंश खोजने लगी। मुझे अपनी हालत से मेल खाता एक अंश मिला जिसमें परमेश्वर मसीह-विरोधियों को उजागर करता है। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी तानाशाही चलाने वाले किसी तानाशाह की तरह होते हैं : वे किसी की नहीं सुनते, वे सभी को तुच्छ समझते हैं, और लोगों की क्षमताओं की परवाह किए बिना, या इस बात की परवाह किए बिना कि वे क्या सही विचार या बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त करते हैं और कौन-से उपयुक्त तरीके सामने रखते हैं, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ काम करने या उनके किसी भी काम में भाग लेने के योग्य न हो। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह खराब मानवता वाला होना है—लेकिन यह सिर्फ सामान्य खराब मानवता कैसे हो सकती है? यह पूरी तरह से एक शैतानी स्वभाव है; और ऐसा स्वभाव अत्यंत उग्र होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत उग्र होता है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर और कलीसिया की संपत्ति से सब-कुछ हर लेते हैं और उससे अपनी निजी संपत्ति के समान पेश आते हैं, जिसका प्रबंधन बिना किसी और के हस्तक्षेप के उन्हें ही करना होता है। कलीसिया का कार्य करते समय वे केवल अपने हितों, अपनी हैसियत और अपने गौरव के बारे में ही सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुँचाने देते, किसी योग्य व्यक्ति को या किसी ऐसे व्यक्ति को, जो अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम है, अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा खतरे में डालने तो बिल्कुल भी नहीं देते। ... जब कोई थोड़ा कार्य करके अलग दिखने लगता है, या जब कोई परमेश्वर के चुने हुए लोगों को लाभ पहुँचाने, उन्हें शिक्षित करने और सहारा देने के लिए सच्ची अनुभवात्मक गवाही पेश करने में सक्षम होता है, और सभी से बड़ी प्रशंसा प्राप्त करता है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत पैदा हो जाती है, और वे उन्हें अलग-थलग करने और दबाने की कोशिश करते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते, ताकि उन्हें अपने रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। ... मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, ‘मैं इसे कतई बरदाश्त नहीं करूँगा। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र में एक भूमिका पाना चाहते हो। यह असंभव है; इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक शिक्षित हो, मुझसे अधिक मुखर हो, और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो, और तुम मुझसे अधिक परिश्रम से सत्य का अनुसरण करते हो। अगर मुझे तुम्हारे साथ काम करना पड़े और तुम मेरी सफलता चुरा लो, तो मैं क्या करूँगा?’ क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं? नहीं। वे किस बारे में सोचते हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपनी हैसियत कैसे बनाए रखें। हालाँकि मसीह-विरोधी जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने वाले और अच्छी योग्यता वाले लोगों को विकसित नहीं करते या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की आराधना करने को तत्पर रहते हैं, जो अपने दिलों में उनका अनुमोदन और सराहना करते हैं, जो सहज संचालक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं और जो अच्छे-बुरे की पहचान करने में असमर्थ हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। पहले मैं सोचा करती थी कि यह अंश मसीह-विरोधियों को उजागर करता है, मुझ पर लागू नहीं होता, लेकिन फिर, मुझे एहसास हुआ कि मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव बहुत गंभीर था। पहले-पहल मैं सोचती थी कि मार्शा बहुत जिम्मेदार और मेहनती थी, और मैं अपना कुछ काम उसे सौंप कर खुश थी। लेकिन जब मुझे एहसास हुआ कि दूसरे उसकी सराहना करते, अपने सवाल लेकर उसके पास जाते हैं, और वह मेरी जानकारी में लाए बिना परियोजनाओं को आगे बढ़ाती है, तो मुझे फ़िक्र होने लगी कि वह मेरी चमक छीन रही थी और मेरे रुतबे के लिए खतरा बन रही थी, मैंने और ज्यादा परियोजनाओं में भाग लेने से उसे रोकने की कोशिश की, कुछ ऐसी परियोजनाओं से भी, जो उसके कर्तव्य का हिस्सा थीं। मुझे फ़िक्र थी कि अगर उसने अच्छा काम किया तो भाई-बहन उसकी और सराहना करेंगे, तुलना में मैं बदतर लगूँगी। मैंने उच्चतर अगुआ को भी गुमराह किया ताकि वह मार्शा को और काम न सौंपें। ऐसे सारे व्यवहार पर चिंतन करके मैं समझ गई कि मुझमें सचमुच इंसानियत नहीं थी, मैं अपना रुतबा बनाए रखने के लिए साफ तौर पर दूसरों को बाहर रख रही थी। मसीह-विरोधी अधिकार को सबसे ज्यादा मूल्यवान मानते हैं, कभी भी कलीसिया के कार्य या उसके हितों का ध्यान नहीं रखते। वे जो भी काम करते हैं, उसमें सिर्फ अपने रुतबे की परवाह करते हैं, जब कोई उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली उभरता है, और उनके रुतबे के लिए खतरा बनता है, तो वे उसे दबाने और अलग करने की भरसक कोशिश करते हैं, अपनी जिम्मेदारी के किसी भी कर्तव्य में उन्हें कोई अहम भूमिका नहीं निभाने देते। क्या मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी से थोड़ा-भी अलग था? मैं यूँ करती मानो कलीसिया का कार्य मेरी निजी जायदाद हो। कौन से कर्तव्य किन्हें सौंपने हैं, किन्हें कितना काम सौंपना है, इस पर विचार करते समय, मुझे हमेशा इसकी फ़िक्र होती कि क्या उनसे मेरे रुतबे और शोहरत को खतरा था। मैं जरा भी नहीं सोचती कि कलीसिया के कार्य पर इसका क्या असर पड़ेगा। मैं अपना रुतबा बनाए रखने के लिए लोगों को दबाकर उन्हें अलग-थलग कर रही थी, जिससे मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव उजागर हो रहा था। मैं सचमुच बहुत बुरी थी!

फिर, मेरी नजर इस अंश पर पड़ी : “जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीकों का इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह द्वेषपूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और बुरा है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकृत्य नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से बेहतर व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, उसे पूरी तरह कुचले। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे काम कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वे केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, और वे केवल अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट ही नहीं, बल्कि बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। उन्हें परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। क्या ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें अपनी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। उन्हें परमेश्वर का भय नहीं होता, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से भी ऊंचा और सत्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी महत्व नहीं होता। क्‍या वो लोग सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्यतः मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों में कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किन चीजों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, दुष्टों और मसीह-विरोधियों में, शैतान में और दानवों की किस्म में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु हैं, और उसके चुने हुए लोगों के भी शत्रु हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा मानो वह वहीं है और मेरा न्याय कर रहा है। मार्शा जो कार्य संभाल रही थी, उसमें कोई बड़ी समस्याएँ नहीं थीं, लेकिन वह मेरे रुतबे के लिए खतरा थी, इसलिए मैंने उसे दबाने का तरीका ढूँढ़ा, मार्शा को उच्चतर अगुआ के सामने उसे नीचा दिखाया इस उम्मीद में कि वे उसे कम काम देंगी, फिर वो मेरी जगह नहीं ले सकेगी। मैं अपना रुतबा मजबूत करने के लिए दूसरों को दबाती और दंडित करती थी। क्या मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था? “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है,” और “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ,” जैसे शैतानी जहर के साथ मैं जी रही थी। मैं बहुत स्वार्थी और घमंडी थी। मैंने अत्याचारी और तानाशाह सीसीपी के बारे में सोचा, जो अपनी स्थिति के लिए खतरा बनने वाले किसी भी इंसान को दबाती और अलग-थलग करती है। क्या मैं भी ऐसी ही नहीं थी? मैं उन भाई-बहनों को दबाती थी, जो प्रतिभाशाली थे, अपने काम में प्रभावी थे। मैंने कलीसिया में अपना अधिकार जमाने, भाई-बहनों से सिर्फ अपनी सराहना करवाने और उनके दिल में रहने की कोशिश की। मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी! मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जो अपना रुतबा बनाए रखने के लिए लोगों को दंड देने और उन पर अत्याचार करने के हर संभव तरीके का इस्तेमाल करते, रुतबे के लिए खतरा बनने वालों के साथ पाँव में लगे कांटे की तरह पेश आते, उन पर गलत आरोप लगाते, दंड देते, और निष्कासित होने तक उन्हें नहीं छोड़ते। हर प्रकार का दुराचार करने के बाद, वे मसीह-विरोधी आखिरकार परमेश्वर के घर से निकाल बाहर किए जाते। अगर मैं ऐसा ही करती रही, प्रायश्चित न किया, तो क्या आखिर में मेरा हश्र भी उन जैसा ही नहीं होगा? परमेश्वर ने संगति की है कि मसीह-विरोधियों को कैसे पहचानें, मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से कैसे बचें। सत्य के इस पहलू पर परमेश्वर ने बड़े स्पष्ट रूप से संगति की है, ताकि हम मसीह-विरोधियों को पहचान सकें, अपने मसीह-विरोधी व्यवहार के बारे में आत्मचिंतन कर सकें, और सत्य, प्रायश्चित और बदलाव का अनुसरण कर सकें। लेकिन मैंने काम में अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान नहीं दिया, ये नहीं सोचा कि अपने कर्तव्य सही ढंग से कैसे निभाऊँ, कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे करूँ। इसके बजाय, मैं रुतबे के लिए होड़ लगाती रही, अपने कर्तव्य से निजी उद्यम जैसे पेश आई, मानो यह रुतबा को बचाने और भाई-बहनों की सराहना पाने का जरिया हो, अपने कर्तव्य में मुझे संपूर्ण अधिकार चाहिए थे। मैं अपनी आकांक्षाओं में बह गई।

एक बार धार्मिक कार्यों के दौरान, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के दो अंशों पर पड़ी, जिनसे बहुत मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर, अगर तुम हर समय अपने तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि और रुतबे के चिंतन और आनंद में डूबे रहोगे, हमेशा अपना ही कार्य करते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने की इच्छा रखोगे, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करना चाहोगे और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने की इच्छा रखोगे, यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को, एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह का व्यवहार करते हो, दूसरों के साथ काम करने की इच्छा नहीं रखते, अपनी सत्ता को कम नहीं करना चाहते और इसे किसी और के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि किसी और की चले, चाहते हो कि सबका ध्यान तुम पर रहे, यदि तुम अकेले सत्ता का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य की तलाश करते हो, देह को दरकिनार करते हो, अपनी प्रेरणाओं और योजनाओं को त्याग देते हो, और स्वेच्छा से दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, दूसरों के साथ परामर्श करने और तलाश करने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, अगर वह सही है और सत्य के अनुरूप है, तो उसे स्वीकार करते हो, तो तुम बुद्धिमानी से और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। “तुम चाहे जो काम करो, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, तुम्हारी मदद करने के लिए हमेशा कोई-न-कोई होना चाहिए, तुम्हें सुझाव और सलाह देने वाला, या तुम्हारे साथ सहयोग करते हुए काम करने वाला। काम को ज़्यादा सही ढंग से करने, कम गलतियाँ करने और कम भटकने का यही एकमात्र तरीका है—जो बहुत अच्छी बात है। विशेष रूप से परमेश्वर की सेवा करना बड़ी बात है और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करना तुम्हें खतरे में डाल सकता है! जिन लोगों का स्वभाव शैतानी होता है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं। शैतानी स्वभाव के सहारे जीने वाले लोग कभी भी परमेश्वर को नकार सकते हैं, उसका विरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं। मसीह-विरोधी बहुत मूर्ख हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं है, वे सोचते हैं, ‘मुझे सत्ता पर कब्जा करने में काफी परेशानी हुई, तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? इसे दूसरों को देने का मतलब है कि मेरे पास अपने लिए कुछ नहीं होगा, है न? बिना सामर्थ्य के मैं अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का प्रदर्शन कैसे कर पाऊँगा?’ वे नहीं जानते कि परमेश्वर ने लोगों को जो सौंपा है वह सत्ता या रुतबा नहीं बल्कि कर्तव्य है। मसीह-विरोधी केवल सत्ता और हैसियत स्वीकारते हैं, वे अपने कर्तव्यों को एक तरफ रख देते हैं, व्यावहारिक कार्य नहीं करते। बल्कि सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, और सिर्फ सत्ता पर कब्जा करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और रुतबे के लाभों का आनंद लेना चाहते हैं। इस तरह से काम करना बहुत खतरनाक होता है—यह परमेश्वर का विरोध करना है! जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं, अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं। आज अगुआ या कर्मी के तौर पर तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, जो कोई सामान्य बात नहीं है। तुम किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रहे हो, और बिलों का भुगतान करने और रोजी-रोटी कमाने के लिए काम तो बिल्कुल नहीं कर रहे; इसके बजाय, तुम कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। खासकर यह देखते हुए कि यह कर्तव्य तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे जाने से मिला था, इसे निभाने का क्या अर्थ है? यही कि तुम अपने कर्तव्य के लिए परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो, चाहे तुम इसे अच्छी तरह से करो या न करो; अंत में, परमेश्वर को हिसाब देना ही होगा, एक परिणाम होना ही चाहिए। तुमने जिसे स्वीकारा है वह परमेश्वर का आदेश है, एक पवित्र जिम्मेदारी है, इसलिए वह कितनी भी अहम या छोटी जिम्मेदारी क्यों न हो, यह एक गंभीर मामला है। यह कितना गंभीर है? छोटे पैमाने पर इसमें यह शामिल है कि तुम इस जीवन-काल में सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं और यह भी शामिल है कि परमेश्वर तुम्हें किस तरह देखता है। बड़े पैमाने पर, यह सीधे तुम्हारे भविष्य और किस्मत से, तुम्हारे अंत से जुड़ा है; यदि तुम बुराई करते हो और परमेश्वर का विरोध करते हो, तो तुम्हें निंदित और दंडित किया जाएगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम जो कुछ भी करते हो, उसे परमेश्वर दर्ज करता है, और इसकी गणना और मूल्यांकन के परमेश्वर के अपने सिद्धांत और मानक हैं; जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम जो भी प्रकट करते हो, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारे अंत का निर्धारण करता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। पहले, मैं अगुआ के अपने पद को रुतबे की निशानी मानती थी। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मुझे एहसास हुआ कि मेरा कर्तव्य परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया आदेश है। यह एक जिम्मेदारी है, रुतबे और अधिकार से इसका कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने में, ऊंचे या नीचे रुतबे का कोई भेदभाव नहीं है। सभी लोग अपनी-अपनी जगह अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। अगुआ बनने के बाद, मुझे अभ्यास करने के अनेक मौके मिले और मैं धीरे-धीरे सीख रही थी कि सिद्धांतों के अनुसार काम कैसे करें, और कुछ सत्य भी समझ रही थी। परमेश्वर ने सिद्धांत समझने वाले प्रतिभाशाली भाई-बहनों को मेरे साथ काम करने के लिए नियुक्त किया, ताकि मैं अपना कर्तव्य बखूबी कर सकूँ, और कलीसिया का कार्य बढ़िया ढंग से करूँ। लेकिन मैंने सत्य का अनुसरण करने या दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम करने पर ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय, मैंने रुतबे को संजोया, अपना रुतबा बचाए रखने के लिए दूसरों का दमन किया, उन्हें अलग कर दिया, भाई-बहनों से अभ्यास का मौका तक छीन लिया। मैंने न सिर्फ भाई-बहनों को नुकसान पहुंचाया, बल्कि कलीसिया के कार्य पर भी असर डाला। अपने बर्ताव के आधार पर, मैं वाकई एक अगुआ बनने लायक नहीं थी। मैं इस गलत राह पर चलते नहीं रहना चाहती थी। बस, ईमानदार और व्यावहारिक ढंग से अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने कर्तव्य निभाना चाहती थी। फिर, मैं अपना कर्तव्य निभाने में और ज्यादा लगन दिखाने लगी, जब मैं दूसरों को अपने सवाल लेकर मार्शा के पास जाते देखती, तो अब मुझे उतना बुरा नहीं लगता, उतनी फिक्र नहीं होती कि वे मेरे बजाय उसे आदर से देखेंगे। बस यही सोचती कि अपने कर्तव्य निभाने के लिए मार्शा के साथ कैसे बढ़िया काम करूँ। जब मैं मार्शा को अपने काम में समस्याओं से जूझते देखती, तो उससे बात कर सही रास्ते पर आने में उसकी मदद करती। जब कुछ परियोजनाएँ धीमी गति से आगे बढ़तीं, तो मैं क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर उससे चर्चा करती। अगर किसी मसले पर मेरे पास अंतर्दृष्टि न होती, या उससे निपटना न आता, तो मैं संगति के लिए उसे ढूँढ़ती। समय के साथ, हम साथ मिलकर बेहतर काम करने लगे, मैं जमीन से बहुत जुड़ी हुई और आजाद महसूस करने लगी।

मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी याद आया : “कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्‍हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्‍यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्‍हें विकसित करना सीखने की आवश्‍यकता भी है, जिनसे तुम्‍हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्‍छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्‍य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी निष्‍ठा को लेकर प्रतिबद्ध हो। कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्‍य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्‍वार्थपूर्ण और घृणास्‍पद नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्वर के घर के हितों को ध्‍यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्र‍ेम नहीं होता। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम होंगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्‍त करने और कोई कर्तव्य निभाने देता है, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्‍हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्‍हारा कर्तव्‍यनिष्‍ठा प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्‍चेतना और समझ तो होनी ही चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। इनसे मैंने जाना कि प्रतिभाओं का पोषण करना अगुआ की जिम्मेदारी और कलीसिया के कार्य की जरूरत है। इस अनुभव से मैं यह समझ सकी कि यह कार्य कितना सार्थक है। एक तरह से, यह कलीसिया के संपूर्ण कार्य के लिए फायदेमंद है, यह ज्यादा लोगों को, कर्तव्य निर्वाह में अपनी प्रतिभा दिखाने, और कलीसिया के कार्य को और आगे बढ़ाने का मौका देता है। दूसरी ओर, यह भाई-बहनों को ज्यादा अभ्यास करने का मौका देता है, जिससे उनके जीवन-प्रवेश को लाभ होता है। ये सब सत्कर्म हैं, और परमेश्वर इन्हें याद रखेगा। पीछे मुड़कर सोचूँ, तो मार्शा मेरे लिए बहुत मददगार थी। उसने कुछ सिद्धांत समझने और थोड़ा आगे बढ़ने में मेरी मदद की, और हमारा काम बहुत आसानी से होने लगा। मैंने देखा कि परमेश्वर की अपेक्षाओं का अनुसरण करना, और कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ काम करना सीखना कितना अहम है। सिर्फ इसी तरह से हम कलीसिया का कार्य कर सकते हैं और अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हैं।

इस अनुभव के जरिए, मैंने अपने शैतानी स्वभाव और भ्रामक नजरिए की थोड़ी समझ हासिल की, नाम और रुतबे की चाह छोड़कर अपना कर्तव्य निभा सकी। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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