39. कीमत चुकाने के पीछे का लेनदेन

लियु यिंग, चीन

2019 के अंत में एक दिन अचानक मेरी पोती ने कहा कि उसके पैर में दर्द हो रहा है। मैं उसे इमेजिंग करवाने के लिए अस्पताल ले गई, लेकिन कुछ नहीं निकला, इसलिए मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया। अगले दिन उसने फिर कहा कि उसके पैर में दर्द हो रहा है। उसे दर्द से रोता देख मुझे भी रोना आ गया। उस रात उसके पैर में बार-बार दर्द होता रहा, और वह पूरी रात मुश्किल से सो पाई। उसके पैर की मालिश करते हुए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही। मैंने उसकी बीमारी परमेश्वर को सौंप दी, और परमेश्वर से उसकी रक्षा करने के लिए कहा। तीसरे दिन सुबह मेरा बेटा और बहू मेरी पोती को काउंटी अस्पताल ले गए।

अस्पताल में भर्ती होने के बाद उसे तेज बुखार हो गया। वह 40 डिग्री पर रहा और कम नहीं हुआ। शल्य और आंतरिक चिकित्सा विभाग में उसकी जाँच की गई, लेकिन कुछ नहीं निकला, और डॉक्टरों के पास कोई इलाज नहीं था। असहाय होकर मेरा बेटा उसे प्रांतीय राजधानी के एक अस्पताल ले गया। विशेषज्ञों के साथ परामर्श से निदान में एक पल ल्यूपस एरिथेमेटोसस निकला, तो दूसरे पल सेप्सिस। जब मेरी बहू के माता-पिता अस्पताल से लौटे और मुझे हालत बताई, तो मुझे बहुत चिंता हुई। ल्यूपस एरिथेमेटोसस और सेप्सिस दोनों घातक बीमारियाँ थीं। निदान को छोड़ भी दें, तो भी मेरी पोती को अभी भी 40 डिग्री तेज बुखार था, जो ज्यादा लंबे समय तक चलने पर उसके शरीर को बहुत नुकसान पहुँचा सकता था। उसकी स्थिति बहुत ही दयनीय थी। जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतनी ही ज्यादा मैं परेशान हुई। मैंने अपनी पोती की परवरिश की थी, और मैं उसे कुछ होते नहीं देख सकती थी। मैंने यह सोचकर खुद को बार-बार दिलासा देने की कोशिश की, "वह ठीक हो जाएगी। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। वह मेरी पोती की रक्षा करेगा। वह उसे मरने नहीं देगा।" चूँकि उस समय मेरे पैर पर चोट लगी थी, मैं उसे देखने अस्पताल नहीं जा सकती थी, इसलिए मुझे और भी चिंता होने लगी। मैं बस घर पर ही रहती, और मुझे खाने की बिल्कुल भी इच्छा न होती। जब मैं अपनी पोती की बीमारी के बारे में सोचती, तो अक्सर परेशानी की हालत में रोने लगती। वह अभी भी बहुत छोटी थी, और उसे इस तरह सहना पड़ रहा था। काश, मुझे यह बीमारी हो जाती, तो उसके स्थान पर मैं पीड़ा सह लेती। मैं यह भी सोचती, "मैं परमेश्वर पर विश्वास करती हूँ, फिर मेरे परिवार के साथ ऐसा क्यों हो रहा है?" लेकिन दोबारा सोचने पर मैं जान गई कि ये हालात मुझ पर परमेश्वर की अनुमति से आए हैं। शायद परमेश्वर मेरी आस्था की परीक्षा ले रहा है। मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकती। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने में लगी हूँ, तो मेरी पोती की बीमारी ठीक हो जानी चाहिए। इसके बाद, मैंने सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन खाती-पीती और अपना कर्तव्य निभाती रही। जब मैं अपने भाई-बहनों की मेजबानी करती, तो कभी-कभी अपने जख्मी पैर के कारण असुविधाजनक होने के बावजूद मैं वह सब-कुछ करती, जो मैं कर सकती थी। भाई-बहन मेरी मदद करना चाहते थे, लेकिन मैंने यह सोचकर उन्हें मदद नहीं करने दी कि अगर मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, तो परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह करेगा, और मेरी पोती की बीमारी ठीक हो जाएगी।

लगभग आधे महीने बाद मेरे बेटे ने फोन करके बताया कि मेरी पोती सेप्सिस से पीड़ित है, उसका तेज बुखार आता-जाता रहता है, और उसके दिल के पेरीकार्डियम पर फोड़ा हो गया है, जो कि जीवन के लिए खतरा है। जब मैंने यह खबर सुनी, तो मुझे अपने दिल में जकड़न महसूस हुई। मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकी, इसलिए मैंने परमेश्वर से माँग की, "मेरी पोती बीमार है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य निभाती रही। तुम्हें मुझे आशीष देना चाहिए था और मेरी पोती को ठीक करना चाहिए था। अब, न केवल मेरी पोती की बीमारी ठीक नहीं हुई है, बल्कि वह और बिगड़ गई है। क्या वाकई उसकी बीमारी का इलाज नामुमकिन है?” एक दिन मेरे पति रोते हुए मेरे पास आए और बोले, “हमारी पोती मर रही है। अस्पताल का कहना है कि उसकी बीमारी घातक है, और डॉक्टर का कहना है कि वह कुछ नहीं कर सकता। वे हमें उसे घर लाने के लिए कह रहे हैं।” मेरे पति के शब्द वज्रपात की तरह थे। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह सच है, और मैं इसे स्वीकार नहीं सकी। मेरा मन अपनी पोती के साथ बिताए जीवन की छवियों से भर गया। यह सोचकर कि मेरी पोती कितनी प्यारी दिखती है, मेरे आँसू बहे बिना नहीं रहे। मैंने बार-बार परमेश्वर से मेरे हृदय की निगरानी करने और आज्ञापालन में मेरी अगुआई करने की प्रार्थना की। लेकिन जब मैंने अपने फोन पर उसकी तसवीर देखी, तो उसका पूरा चेहरा सूज गया था, और मेरी विश्वास करते रहने की इच्छा खत्म हो गई। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ना नहीं चाहती थी और मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए कोई प्रेरणा महसूस नहीं हुई। मुझे केवल अपनी पोती की बीमारी की परवाह थी। बाद में, मेरा दामाद मेरी पोती का मेडिकल रिकॉर्ड परामर्श के लिए शंघाई के एक बड़े अस्पताल ले गया, लेकिन विशेषज्ञों ने भी यही कहा कि वे कुछ नहीं कर सकते, और सुझाव दिया कि हम बेकार में पैसा खर्च करना बंद कर दें। इसने मुझे विशेष रूप से परेशान कर दिया, "मैंने इतने सालों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, मैंने कभी अपने कर्तव्य निभाने नहीं छोड़े, और मैंने हमेशा कलीसिया द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित हर काम करने की पूरी कोशिश की। अपनी पोती के बीमार होने पर भी मैंने अपना कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ा। मैं अपने भाई-बहनों की मेजबानी करती रही। खुद को इतना खपाने और इतनी कीमत चुकाने के बाद भी परमेश्वर ने मेरी पोती की रक्षा क्यों नहीं की? उसे यह भयानक बीमारी कैसे हो गई?” जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही ज्यादा मुझे दुख हुआ। मैं रोए बिना नहीं रह पाई। अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मेरी पोती मर रही है। मैं अभी दुखी और कमजोर हूँ। मैं नहीं जानती कि क्या करूँ, और मुझे अभी भी तुमसे शिकायतें हैं। कृपया अपनी इच्छा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।"

अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश के बारे में सोचा, "4. यदि, तुम्हारे द्वारा मेरे लिए खर्च करने के बाद भी मैंने तुम्हारी तुच्छ माँगों को पूरा नहीं किया, तो क्या तुम मेरे प्रति निरुत्साहित और निराश हो जाओगे या यहाँ तक कि क्रोधित होकर गालियाँ भी बकने लगोगे? 5. यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी, दरिद्रता, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाने की पीड़ा को भुगतते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)')। परमेश्वर के सवालों का सामना करते हुए मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरी पोती की बीमारी मेरी इस बात की व्यावहारिक परीक्षा थी कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी थी या नहीं। अतीत में, मैं हमेशा सोचती थी कि मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए अपना कर्तव्य निभा रही हूँ और इसका मतलब है कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ, लेकिन जब मेरी पोती को सेप्सिस हो गया और उसकी हालत खराब हो गई, तो मैं नकारात्मक हो गई और शिकायत करने लगी, मेरी परमेश्वर के वचन पढ़ने की इच्छा नहीं रही, और मैं अपने कर्तव्य में उदासीन हो गई। मैंने देखा कि मुझमें परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और वफादार होने की वास्तविकता बिलकुल भी नहीं है। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की कि वह सबक सीखने और मेरी पोती की बीमारी के मामले में वास्तव में आज्ञाकारी होने में मेरा मार्गदर्शन करे। मैंने परमेश्वर के इस वचन के बारे में सोचा, "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? ... तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। परमेश्वर पर अपने विश्वास की शुरुआत से ही मैं सोचती थी कि अगर मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपा कर अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर मेरे परिवार को शांति और समृद्धि का आशीष देगा, और सभी परिजन बीमारियों और आपदाओं से बचे रहेंगे। चूँकि मैं परमेश्वर पर विश्वास करती थी, इसलिए हमेशा अपने कर्तव्य निभाने के लिए उत्सुक रहती थी। परमेश्वर मुझ पर बहुत मेहरबान था। अनजाने ही मेरी कुछ बीमारियाँ ठीक हो गईं, तो मेरा अनुसरण और भी मजबूत हो गया। भले ही मुझे कम्युनिस्ट पार्टी ने गिरफ्तार कर लिया हो, लेकिन रिहा होने के बाद भी मैं अपना कर्तव्य निभाती रही। लेकिन जब मेरी पोती को यह भयानक बीमारी हो गई, तो दिल ही दिल में मैंने शिकायत करनी शुरू कर दी कि परमेश्वर ने मेरी पोती की रक्षा नहीं की। हालाँकि मैंने अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन मैं चाहती थी कि परमेश्वर उसकी बीमारी ठीक करके उसकी रक्षा करे। मैं बाहर से खुद को खपाने और त्याग करने की परमेश्वर के आशीष से अदला-बदली करना चाहती थी। जब मेरी पोती की बीमारी ठीक नहीं हुई, बल्कि उसने उसके जीवन को खतरे में डाल दिया, और अस्पताल ने भी इलाज छोड़ दिया, तो मैं पूरी तरह से टूट गई। मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसके विरुद्ध शिकायत की, सोचा कि परमेश्वर अधार्मिक है, और नकारात्मक होकर परमेश्वर की प्रतिरोधी हो गई। मैं समझ गई कि मैं केवल अनुग्रह और आशीष प्राप्त करने के लिए ही परमेश्वर पर विश्वास करती थी, कि मैंने सत्य के बजाय जीवन में सुख और शारीरिक सुरक्षा का अनुसरण किया, मेरा त्याग करना और खुद को खपाना परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता नहीं थी, बल्कि परमेश्वर से की गई अनावश्यक मांगों और अपेक्षाओं से भरा था। यह परमेश्वर को धोखा देना और उसके साथ लेन-देन करने का प्रयास करना था। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, "वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से न्‍यासंगत या तर्कसंगत नहीं होती; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक़ का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को ख़त्‍म देता : तब भी परमेश्‍वर धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? मानवीय दृष्टिकोण से, अगर कोई चीज़ लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्‍वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज़ को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्‍वर धार्मिक है। अगर परमेश्‍वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्‍वर को अपना इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्‍या उसका निर्णय इस बात पर आधारित होना चाहिए : 'अगर वे उपयोगी हैं, तो मैं उन्‍हें नष्‍ट नहीं करूँगा; अगर वे उपयोगी नहीं हैं, तो मैं उन्‍हें नष्‍ट कर दूँगा'? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्‍वर की नज़रों में, किसी भी ऐसे व्‍यक्ति से जो भ्रष्‍ट है, वह जैसे भी चाहे निपटा जा सकता है; परमेश्‍वर जो कुछ भी करता है, वह उचित ही होगा, और सब परमेश्वर का ही विधान है। अगर तुम लोग परमेश्‍वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्‍हें सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। ... परमेश्‍वर का सार धार्मिकता है। यद्यपि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ़ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्‍वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्‍या थी? 'तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्‍य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्‍हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्‍भव है कि मैं तुम्‍हारे बुद्धिमान कर्मों की सराहना न करूँ?' ... वह सब जो परमेश्‍वर करता है धार्मिक है। हालाँकि वह तुम्‍हारे लिए अज्ञेय हो सकता है, तब भी तुम्‍हें मनमाने ढंग से फ़ैसले नहीं करने चाहिए। अगर तुम्‍हें उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में तुम्हारी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से तुम कहते हो कि वह धार्मिक नहीं है, तब तुम सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हो। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीज़ें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्‍वास था कि परमेश्‍वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्‍य हर चीज़ की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीज़ें हैं जिन्‍हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्‍वर के स्‍वभाव को जानना आसान बात नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मैंने जाना कि परमेश्वर की धार्मिकता वैसी नहीं है, जैसी मैंने कल्पना की थी। मैंने उसकी एक निश्चित मात्रा में काम करने और उसके अनुरूप वेतन प्राप्त करने, या अपने प्रयास में एक निश्चित कीमत चुकाने और बदले में एक निश्चित पारिश्रमिक पाने के रूप में कल्पना की थी। यह मेरी अपनी धारणा और कल्पना थी। परमेश्वर सत्य है और परमेश्वर का सार धार्मिकता है। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे और वह मानवीय धारणाओं के अनुरूप हो या नहीं, परमेश्वर जो करता है वह धार्मिक होता है। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता का आकलन लेन-देनों और व्यापार के दृष्टिकोण से किया था। मैं मानती थी कि अगर मैंने खुद को बहुत खपाया और बहुत त्याग किया, तो मुझे परमेश्वर की आशीष मिलेगी। मैंने सोचा था कि अगर मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत की, तो परमेश्वर को मेरे परिवार की रक्षा करनी चाहिए और मेरी पोती को बीमारी और आपदा से बचाना चाहिए। जब वह गंभीर रूप से बीमार हो गई, तो मैंने परमेश्वर से बहस की, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत की, और सोचा कि परमेश्वर अधार्मिक है। मेरा विचार बेतुका था। मैं अंधी थी और परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानती थी। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, इसलिए अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना स्वाभाविक और सही था, यह मेरा कर्तव्य और जिम्मेदारी थी। मुझे परमेश्वर के साथ लेन-देन की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। जिस तरह बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यपरायण होना चाहिए, उसी तरह, चाहे परमेश्वर ने मुझे अनुग्रह और आशीष दिए हों या नहीं, चाहे मुझे आपदाएँ झेलने के लिए बाध्य किया हो, फिर भी परमेश्वर धार्मिक है, इसलिए मुझे बिना शर्त परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। वरना मैं इंसान कहलाने लायक नहीं रहूँगी। जो लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, वे जन्म, बुढ़ापे, बीमारी, मृत्यु, आपदा और दुर्भाग्य से पीड़ित होते हैं, और जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उन्हें भी ऐसा ही अनुभव होता है। परमेश्वर ने कभी यह दावा नहीं किया कि परमेश्वर पर विश्वास करने वाले हमेशा सकुशल और सुरक्षित रहेंगे। इसके बजाय, चाहे हमारे सामने कैसे भी हालात आएं, चाहे हम आशीष पाएँ या आपदा झेलें, परमेश्वर चाहता है कि हम उस पर सच्चा विश्वास और उसके प्रति सच्ची आज्ञाकारिता रखें, और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करें। लेकिन मैं परमेश्वर पर केवल आशीष पाने के लिए विश्वास करती थी। मैंने परमेश्वर से अपने परिवार को सुरक्षित और बीमारी और आपदा से मुक्त रखने के लिए कहा, लेकिन मैंने सत्य की तलाश नहीं की और परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं किया। मैं समझ गई कि मेरा विश्वास केवल धार्मिक विश्वास था, जो मेरा दैनिक भरण-पोषण चाहता है। परमेश्वर ऐसे विश्वास को बिल्कुल भी नहीं मानता! तथ्यों के खुलासे के बिना मैं आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने के अपने गलत दृष्टिकोण को कभी न पहचान पाती। इस तरह विश्वास करके मैं कभी सत्य प्राप्त नहीं कर पाऊँगी, मैं केवल परमेश्वर द्वारा त्याग दी जाऊँगी। मैं जान गई कि ये हालात, जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर मेरे विश्वास को शुद्ध करने, मेरी मिलावट और भ्रष्टता दूर करने, मुझे बदलने और बचाने के एक साधन के रूप में परमेश्वर ने ही आने दिए हैं। यह परमेश्वर का प्रेम था! यह सोचकर मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई।

इसके बाद, मैं इस बात पर चिंतन करती रही कि किस प्रकृति ने परमेश्वर पर मेरे विश्वास को परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के लिए निर्देशित किया। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह पुरस्कार पाने के लिए होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य निभाते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं दुःख का भी सामना कर सकते हैं : मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। “परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे उसे परमेश्वर के रूप में मानें क्योंकि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट हो चुकी है और लोग उसे परमेश्वर नहीं बल्कि व्यक्ति मानते हैं। लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों की सुरक्षा और अपने भविष्य की संभावनाओं के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने के लिए किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि “यह मानव प्रकृति है,” जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में विवेक और समझ की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और महसूस किया कि मैं आशीष और लाभ प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करती हूँ, क्योंकि मैं "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "जब तक कोई संबद्ध लाभ न हो, तब तक कभी भी सुबह जल्दी मत उठो" जैसे शैतानी विषों द्वारा नियंत्रित थी। इन शैतानी विषों के अनुसार जीने के तरीके ने मुझे विशेष रूप से स्वार्थी और धोखेबाज बना दिया। मैंने केवल लाभ माँगे और अपना कर्तव्य निभाने में परमेश्वर के साथ लेन-देन करने की कोशिश की। हालाँकि मैंने परमेश्वर पर अपने वर्षों के विश्वास के दौरान खुद को बहुत खपाया था और कीमत चुकाई थी, लेकिन मैंने यह सब अपने आशीषों और लाभों के लिए किया था। मैं स्वयं द्वारा चुकाई गई छोटी-सी कीमत से परमेश्वर के महान आशीषों की अदला-बदली करना चाहती थी। मैं परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर रही थी और उसके प्रति वफादार नहीं थी। नतीजतन, जब मेरी पोती गंभीर रूप से बीमार हो गई और आशीष पाने की मेरी महत्वाकांक्षा चूर-चूर हो गई, तो मुझे दुख हुआ और मैंने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत की, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए कोई प्रेरणा महसूस नहीं की। मैंने जो खुद को थोड़ा खपाया और जो कीमत चुकाई, उसे परमेश्वर से बहस करने और उसका विरोध करने के लिए पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। मैंने देखा कि अपना कर्तव्य निभाने में मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी, उससे चीजें माँग रही थी, और परमेश्वर के साथ लेन-देन करने का प्रयास कर रही थी। मुझे शैतान ने बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया था, और मेरी प्रकृति बहुत स्वार्थी और धोखेबाज थी। मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जिसने प्रचार किया, काम किया, त्याग दिया, खुद को खपाया, बहुत-कुछ सहा, यहाँ तक ​​कि मरा भी तो एक शहीद के रूप में, लेकिन उसने सत्य का अनुसरण या प्रभु यीशु के वचनों का अभ्यास नहीं किया। उसका सारा त्याग और खुद को खपाना पुरस्कार और ताज हासिल करने के लिए था। उसने कहा कि वह अच्छी लड़ाई लड़ चुका है और उसने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और उसके लिए धार्मिकता का मुकुट सुरक्षित रखा है, जिससे उसका तात्पर्य था कि परमेश्वर केवल तभी धार्मिक होगा जब वह उसे पुरस्कार और मुकुट देगा, और अगर परमेश्वर ने पुरस्कार नहीं दिया या उसे मुकुट नहीं पहनाया, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं होगा। इससे हम देख सकते हैं कि पौलुस का परमेश्वर पर अपने विश्वास में पीड़ा सहना और खुद को खपाना, सब परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के लिए था। अंत में, उसने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाई और परमेश्वर ने उसे त्याग कर दंडित किया। मैं भी वैसी ही थी। मैं केवल अनुग्रह और आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करती थी, और मैंने अपने त्याग और खुद को खपाने को आशीष पाने का एक तरीका और पूँजी माना। अगर मैंने अनुसरण करने का अपना गलत दृष्टिकोण नहीं बदला, तो चाहे मैं खुद को कितना भी खपा लूँ, मुझे कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी, और पौलुस की ही तरह, परमेश्वर मुझे उजागर करके त्याग देगा।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है')। इसने मुझे दिखाया कि एक सृजित प्राणी के रूप में, जो परमेश्वर द्वारा प्रदत्त प्रचुर भोजन और जीवन की आपूर्ति का आनंद लेता है, मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए, और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और प्रेम का अनुसरण करना चाहिए। यही वह अंत:करण और विवेक है, जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए। मैंने सोचा कि कैसे मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया; उसे दुनिया के उपहास, बदनामी और ठुकराये जाने के साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी और धार्मिक दुनिया के उत्पीड़न और निंदा का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर भी उसने हमें सिंचन और पोषण प्रदान करने के लिए चुपचाप सत्य व्यक्त किया। उसने मेरी भ्रष्टता उजागर करने और फिर मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए कई तरह के हालात बनाए। हालाँकि मेरे भीतर अभी भी बहुत ज्यादा अवज्ञा और भ्रष्टता थी, और चीजें अपने अनुकूल न होने पर मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसके खिलाफ शिकायत कर सकती थी, फिर भी परमेश्वर ने कभी मुझे बचाना नहीं छोड़ा। उसने मेरा न्याय करने, मुझे उजागर करने, याद दिलाने, प्रेरित करने, दिलासा देने और प्रोत्साहित करने के लिए अपने वचनों का उपयोग किया और मेरे द्वारा अपने तरीके सुधारे जाने की प्रतीक्षा की। परमेश्वर का प्रेम कितना निस्स्वार्थ है, और वह कितना प्यारा है! लेकिन मैंने केवल आशीष और लाभ पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास किया था।मैंने परमेश्वर के प्रति प्रेम और आज्ञाकारिता का अनुसरण नहीं किया था। मुझमें वास्तव में कोई अंत:करण या विवेक नहीं था। जैसे ही मैंने यह जाना, मुझे निंदा और पश्चात्ताप का एक गहरा बोध हुआ, और मैंने परमेश्वर के प्रति बहुत ऋणी महसूस किया।

कुछ दिनों बाद, अस्पताल ने एक और नोटिस जारी किया कि मेरी पोती गंभीर रूप से बीमार है, और उन्होंने उसका बिस्तर अन्य रोगियों के लिए खाली करवाने के लिए उसे छुट्टी दे दी। जब मैंने यह खबर सुनी, तो मुझे बहुत दुख हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, तुमने मेरी पोती को साँस दी। तुम जो कुछ भी करते हो और जिस चीज की भी व्यवस्था करते हो, वह उचित और धार्मिक है। अगर वह मर भी गई, तो भी मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मैं फिर भी तुम पर विश्वास करूँगी और तुम्हारा अनुसरण करूँगी।" इसके बाद, मेरा बेटा उसे इलाज के लिए प्रांतीय राजधानी के दूसरे अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने मेडिकल रिकॉर्ड पढ़कर कहा कि उसकी बीमारी ठीक नहीं हो सकती, इसलिए वह उसे अस्पताल में भर्ती कराए बिना ही लौट आया। इस समय मैंने सोचा, "अगर परमेश्वर ने विधान किया है कि मेरी पोती मर जाएगी, तो कोई भी उसे नहीं बचा सकता। अगर परमेश्वर नहीं चाहता कि वह मर जाए, तो जब तक उसमें एक भी साँस है, कोई भी चीज उसका जीवन समाप्त नहीं कर सकती। सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है। मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी।” जब मैंने इस बारे में इस तरह सोचा, तो मुझे उतना बुरा नहीं लगा, जितना पहले लगता था। कुछ दिनों बाद जब मैं अस्पताल गई, तो मैंने देखा कि मेरी पोती दर्द से तड़प रही है। उसका चेहरा इतना दुबला हो गया था कि वह पहचान में नहीं आ रही थी। इससे मेरा दिल टूट गया, और मैं रोए बिना नहीं रह पाई। इस विचार ने कि मेरी पोती मर जाएगी, अभी भी मुझे बहुत दुखी कर दिया, और मैं इसका सामना नहीं करना चाहती थी। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं इन हालात से अपने आप नहीं निकल सकती। कृपया मेरे हृदय की निगरानी करो और अपना आज्ञापालन करने में मेरा मार्गदर्शन करो।” इस समय मैंने इसहाक की बलि चढ़ाने के अब्राहम के अनुभव के बारे में सोचा। परमेश्वर ने अब्राहम से अपने पुत्र को होमबलि के रूप में चढ़ाने के लिए कहा, उस समय अब्राहम भी बहुत व्यथित था, लेकिन उसने फिर भी इसहाक को परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार वेदी पर रख दिया। जब उसने अपने बेटे को मारने के लिए चाकू उठाया, तो परमेश्वर ने अब्राहम की ईमानदारी और आज्ञाकारिता देखी और उसे रोक दिया। अब्राहम को परमेश्वर पर सच्ची आस्था थी, और वह परीक्षण के सामने परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहा, जिसके लिए उसे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष मिली। लेकिन जब मैंने अपनी पोती को मौत के दरवाजे पर देखा, तो मैंने कहा कि मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करूँगी, लेकिन मैं फिर भी इसे भूल नहीं पाई। जब मैंने उसकी पीड़ा देखी, तब भी मैं इसका सामना नहीं करना चाहती थी। मुझे अब भी उम्मीद थी कि कोई चमत्कार होगा, कि परमेश्वर उसे ठीक कर देगा। मैंने अपने हृदय में परमेश्वर से माँग की, मुझमें अभी भी समझ नहीं थी। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा, "संपूर्ण मानवजाति में कौन है जिसकी सर्वशक्तिमान की नज़रों में देखभाल नहीं की जाती? कौन सर्वशक्तिमान द्वारा तय प्रारब्ध के बीच नहीं रहता? क्या मनुष्य का जीवन और मृत्यु उसका अपना चुनाव है? क्या मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियंत्रित करता है? बहुत से लोग मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वह उनसे काफी दूर रहती है; बहुत से लोग जीवन में मज़बूत होना चाहते हैं और मृत्यु से डरते हैं, फिर भी उनकी जानकारी के बिना, उनकी मृत्यु का दिन निकट आ जाता है, उन्हें मृत्यु की खाई में डुबा देता है; ..." ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 11')। हाँ, लोगों का जीवन और मृत्यु सब परमेश्वर के हाथ में है। लोगों के पैदा होने और मरने का समय परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत होता है। लोगों के पास इस मामले में कोई विकल्प नहीं होता। मेरी पोती की बीमारी ठीक हो सकती है या नहीं और वह कब तक जीवित रहेगी, यह पूरी तरह से परमेश्वर के हाथ में था। इस पर किसी इंसान का बस नहीं था। यह सोचकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मेरी पोती की बीमारी ठीक हो सके या नहीं, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार थी।

एक दिन एक बहन ने मुझे एक घरेलू उपाय के बारे में बताया। मैंने उसे अपनी बहन के बताए तरीके से अपनी पोती के लिए बनाया। मैं नहीं जानती थी कि वह उसे ठीक कर देगा या नहीं, लेकिन वह मुझे आजमाने लायक लगा। अप्रत्याशित रूप से, मेरी पोती की बीमारी दिन-ब-दिन ठीक होने लगी, बुखार धीरे-धीरे कम हो गया, और जल्दी ही वह खतरे से बाहर आ गई। जल्दी ही हमें एक दूसरा इलाज मिल गया, और उसे थोड़े समय लेने के बाद मेरी पोती के पैर में कोई दर्द नहीं रहा! मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। मैं जान गई कि मेरी बहन का मुझे इस उपाय के बारे में बताना परमेश्वर द्वारा तैयार और व्यवस्थित किया गया था। यह परमेश्वर का प्रेम था! मैंने यह भी देखा कि लोगों का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथ में है, और इससे मुझे परमेश्वर पर और ज्यादा विश्वास हो गया। कुछ महीने बाद मेरी पोती किसी चीज को पकड़कर कुछ कदम चलने में सक्षम हो गई, और उसकी बीमारी धीरे-धीरे ठीक हो गई। एक साल बाद वह सामान्य रूप से जीने और चलने-फिरने में सक्षम हो गई, और उसके दिल को हुई क्षति ठीक हो गई; बस इतना हुआ कि उसका बीमार पैर बढ़ नहीं पाया, उसके पैर एक-जैसे लंबे नहीं रहे, और वह हलकी-सी लँगड़ाने लगी। बाद में, जब प्रांतीय राजधानी के अस्पताल के विशेषज्ञों को पता चला कि मेरी पोती मरी नहीं, बल्कि वास्तव में ठीक हो गई है, तो उन्हें इस सच्चाई पर विश्वास नहीं हुआ। हमने उसकी बीमारी के इलाज के लिए प्रांतीय राजधानी के अस्पताल में बहुत पैसा खर्च किया था, लेकिन वे उसे ठीक नहीं कर सके। कई बड़े अस्पतालों ने मेरी पोती के मरने का ऐलान कर दिया था, लेकिन जब मैं आशीष पाने की इच्छा छोड़कर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए तैयार हो गई, और अपनी पोती परमेश्वर को सौंप दी, तो बिल्कुल भी ज्यादा खर्च किए बिना कुछ घरेलू उपचारों के इस्तेमाल से ही उसकी बीमारी ठीक हो गई। मैंने वास्तव में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के साथ ही परमेश्वर के चमत्कारी कर्म भी देखे। अब मेरी पोती के साथ मामूली लँगड़ाहट और थोड़ी तेज हृदय-गति के अलावा कोई समस्या नहीं है। उसकी स्थिति से परिचित लोगों का कहना है कि यह एक चमत्कार है कि वह इतनी अच्छी तरह से ठीक हो गई!

मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आ गए, "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्‍था में उनका लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्यों को कष्टदायक परीक्षणों के अनुभव से समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति एक आरामदायक और सहज परिवेश में या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। इस अनुभव के माध्यम से मैंने परमेश्वर पर अपने विश्वास में आशीष पाने की इच्छा और मिलावटों और भ्रष्टता की कुछ समझ प्राप्त की। परमेश्वर पर विश्वास के बारे में मेरा दृष्टिकोण बदल गया है, मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की व्यावहारिक समझ हासिल कर ली है। मुझे वास्तव में महसूस हुआ कि इन कठिनाइयों का अनुभव करना एक अच्छी बात रही, और यह परमेश्वर द्वारा मेरा शुद्धिकरण और उद्धार था!

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