46. मनमानी से अपना और दूसरों का नुकसान होता है

लिन, ऑस्ट्रेलिया

अप्रैल 2020 में मुझे मुख्य रूप से सिंचन कार्य की जिम्मेदारी संभालने के लिए कलीसिया अगुआ चुना गया। कुछ महीने बाद मैंने देखा कि कुछ नए विश्वासी नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, वे देर से आते और जल्दी चले जाते। कुछ लोग स्कूल या काम में व्यस्त रहते और कहते, समय मिला तो आएँगे। कुछ लोग इसलिए नहीं आते क्योंकि वे सीसीपी और धार्मिक दुनिया की अफवाहों और भ्रांतियों से गुमराह हो गए थे। हमने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन कुछ लोग फोन ही नहीं उठाते थे, ये ऐसा था जैसे वे गायब हो गए हों। मुझे लगा कि हमने उनसे संपर्क करने की कोशिश की, अगर वे सभाओं में नहीं आना चाहते, तो यह हमारी जिम्मेदारी नहीं थी और हमें उन्हें जाने देना चाहिए। इसके अलावा परमेश्वर भी तो बस ज्यादा लोग नहीं, बढ़िया लोग चाहता है। वह उन्हीं को बचाता है, जिनमें सच्ची आस्था है और जो सत्य से प्रेम करते हैं। अगर उनमें सच्ची आस्था नहीं है, तो हमारी तमाम कोशिशें बेकार हैं। इसलिए, मैंने न तो प्रार्थना की, न सत्य खोजा, न ही अगुआ से चर्चा की, और खुद ही उन नए सदस्यों को उनके हाल पर छोड़ने का फैसला कर लिया। इस दौरान मैंने उनमें से कुछ से बात करने की कोशिश की, लेकिन वे सभाओं में आना नहीं चाहते थे, तो मुझे और भी यकीन हो गया कि मेरा फैसला सही था। बाद में एक बहन, जिसके साथ मैंने काम किया था, ने देखा कि मैंने लगातार दो महीनों से बहुत-से नए सदस्यों को उनके हाल पर छोड़ दिया था, तो उसने मुझसे पूछा कि क्या ऐसा करना वाकई सही है। उसने सलाह दी कि मुझे अपने अगुआ से संगति कर सिद्धांत जानने चाहिए। मैंने सोचा, “पहले भी हमने ऐसे मामले इसी तरह निपटाए थे। ऐसा नहीं था कि हमने नए सदस्यों से बात करने की कोशिश नहीं की थी, बस अभी हम कुछ से संपर्क नहीं कर पाए थे और कुछ तो विश्वास ही नहीं रखना चाहते थे। मुझे सिद्धांत जानने की जरूरत ही नहीं है।” इसलिए मैंने उसका सुझाव नहीं माना। बाद में मुझे थोड़ी बेचैनी हुई और सोचने लगी कि क्या ऐसा करना वाकई सही था। फिर लगा कि जो मैंने किया था वह गलत नहीं हो सकता क्योंकि हमने तो उन्हें सहारा दिया था और यह हमारी गलती नहीं थी कि वे ही सभाओं में नहीं आए थे। अहम बात यह थी कि वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं थे। इसलिए मैंने न तो प्रार्थना की, न ही सत्य खोजा और हर महीने कुछ नए सदस्यों को गँवाती चली गई।

बाद में मेरी अगुआ को पता चला कि नए सदस्यों को छोड़ने के बारे में मैं सिद्धांतों पर नहीं चल रही थी, तो उन्होंने कड़ाई से मेरी काट-छाँट की, कहा कि मैं सिद्धांत नहीं जानती और उन्हें खोजा भी नहीं और बस मनमानी की। उन्होंने यह भी कहा कि हरेक नए सदस्य के लिए परमेश्वर के सामने आना मुश्किल था, दूसरे भाई-बहनों ने उन्हें सहारा देने में पूरी ताकत लगा दी थी, मगर मैं उनमें से कुछ को बस बेपरवाही से एक तरफ कर रही थी। मैं उन्हें कोई स्नेहमयी सहारा दिए बिना छोड़ती जा रही थी और ये बहुत गैर-जिम्मेदाराना बात थी। फिर उन्होंने पूछा, “नए सदस्य सभाओं में क्यों नहीं आते? उनकी धारणाएँ और मसले क्या हैं? क्या तुमने उन्हें सुलझाने के लिए संगति की है? क्या तुम नए सदस्यों की मदद के दूसरे तरीकों के बारे में सोचने की कोशिश कर रही हो?” सवालों की बौछार ने मुझे अवाक कर दिया और नए विश्वासियों को छोड़ते जाने के दृश्य मेरे मन में एक फिल्म की तरह एक-एक कर चलने लगे। आखिरकार तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने नए सदस्यों के प्रति जिम्मेदारी नहीं निभाई थी, वास्तव में स्नेह से उनकी मदद नहीं की, सहारा नहीं दिया। स्पष्टता से समझ नहीं सकी कि उनकी अनसुलझी धारणाएँ क्या हैं, या वे सभाओं में क्यों नहीं आते। वे कुछ समय तक सभाओं में नहीं आए, तो मुझे लगा कि उन्होंने विश्वास रखना छोड़ दिया है और मैंने उन पर ध्यान ही नहीं दिया। मैं नए विश्वासियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाई और यूँ ही उन्हें छोड़कर सिद्धांतों के विपरीत जा रही थी। मुझमें सच में मानवता नहीं थी! इसलिए मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना के लिए आई, उससे मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की, ताकि मैं उसका इरादा समझ सकूँ, आत्मचिंतन कर खुद के बारे में जान सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे : “जो लोग सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल में लगे हैं, उनके साथ अपने व्यवहार में तुम्हें सावधानी और विवेक से काम लेना चाहिए और प्रेम पर निर्भर रहना चाहिए। क्योंकि सच्चे मार्ग की जांच करने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक अविश्वासी होता है—यहाँ तक कि उनमें से धार्मिक लोग भी कमोबेश अविश्वासी ही होते हैं—और वे सभी अतिसंवेदनशील होते हैं : यदि कोई बात उनकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वे उसका खंडन कर सकते हैं और अगर किसी की कोई बात उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे बहस करने सकते हैं। इसलिए उनके बीच सुसमाचार का प्रचार करते समय हममें सहिष्णुता और धैर्य होना चाहिए। हमें बहुत ही प्यार से पेश आना चाहिए और विशिष्ट तौर-तरीके अपनाने चाहिए। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए जाएँ, वे सारे सत्य बताए जाएँ जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए व्यक्त करता है ताकि वे परमेश्वर की वाणी और सृष्टिकर्ता के वचनों को सुनें। इस तरह उन्हें लाभ मिलेगा। सुसमाचार फैलाने का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसने और सत्य से प्रेम करने वालों को परमेश्वर के वचन पढ़ने और उसकी वाणी सुनने देना। इसलिए, उनसे मनुष्य के शब्द कम बोलो और परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़कर सुनाओ। इसके बाद, सत्य पर संगति करो ताकि वे परमेश्वर की वाणी सुन सकें और कुछ सत्य समझ सकें। फिर, उनके परमेश्वर के पास लौटने की संभावना होगी। सुसमाचार फैलाना सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है। यह दायित्व चाहे किसी पर भी आए, उन्हें इससे भागना नहीं चाहिए या इसे अस्वीकार करने के लिए कोई बहाना या कारण नहीं ढूँढ़ना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। “परमेश्वर में अभी-अभी विश्वास शुरू करने वाले कुछ लोग अक्सर नकारात्मक और कमजोर होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उनमें परमेश्वर में आस्था से संबंधित विभिन्न सत्यों की कोई समझ नहीं होती। इसलिए वे मानते हैं कि उनकी क्षमता कमजोर है, वे आगे बढ़ने में अक्षम हैं, उन्हें बहुत सारी कठिनाइयाँ हैं—जिसके कारण नकारात्मकता जन्म लेती है और वे हार तक मान लेते हैं : वे कोशिशें छोड़ देने, सत्य का अनुसरण बंद करने का फैसला करते हैं। वे खुद को खुद ही निकाल देते हैं। वे यही सोचते हैं, ‘कुछ भी हो, परमेश्वर उसमें मेरे विश्वास को स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर मुझे पसंद भी नहीं करता। और मेरे पास सभाओं में जाने के लिए ज्यादा समय नहीं है। मेरा पारिवारिक जीवन कठिन है और मुझे पैसे कमाने की जरूरत है,’ वगैरह-वगैरह। इन्हीं सब कारणों से वे सभाओं में नहीं जाते। अगर तुम जल्दी से नहीं पता लगाते कि क्या चल रहा है तो शायद तुम उन्हें सत्य से प्रेम नहीं करने वाला, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखने वाला व्यक्ति समझ लोगे या उन्हें देह के सुखों का लालची, दुनिया का अनुसरण करने वाला और सांसारिक चीजों को न छोड़ पाने वाला समझ लोगे—और इसकी वजह से तुम उन्हें त्याग दोगे। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या ये कारण वास्तव में उनकी प्रकृति सार दर्शाते हैं? असल में, वे अपनी कठिनाइयों और उलझनों के कारण निराश हो जाते हैं; अगर तुम इन समस्याओं का हल निकाल सकते हो, तो वे इतने नकारात्मक नहीं रहेंगे और परमेश्वर का अनुसरण कर सकेंगे। जब वे कमजोर और नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लोगों के सहारे की जरूरत होती है। अगर तुम उनकी सहायता करोगे, तो वे फिर अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे। लेकिन अगर तुम उन्हें नजरअंदाज करते हो, तब उनके लिए नकारात्मकता के कारण हार मानना आसान हो जाएगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि जो लोग कलीसिया के कार्य करते हैं उनमें प्रेम है या नहीं, या वे इस बोझ को उठाते हैं या नहीं। कुछ लोग अक्सर सभाओं में नहीं आते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखते, यह सत्य को नापसंद करने के बराबर नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे देह के सुखों के लिए लालायित हैं, और अपने परिवारों और कार्यों को दरकिनार करने में सक्षम नहीं हैं—उन्हें अत्यधिक भावुक या पैसों का लालची तो और भी कम समझा जाना चाहिए। बात इतनी भर है कि इन मामलों में लोगों का आध्यात्मिक कद और आकांक्षाएँ अलग-अलग होती हैं। कुछ लोग सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य के अनुसरण में सक्षम होते हैं; वे इन चीजों को छोड़ने की तकलीफ सहने के लिए तैयार होते हैं। कुछ लोगों में कम आस्था होती है, और जब असली कठिनाइयों से सामना होता है तो वे कमजोर पड़ जाते हैं और उससे पार नहीं पा सकते। अगर कोई उनकी मदद या सहयोग नहीं करता है तो वे हाथ खड़े कर देंगे और खुद ही हार मान लेंगे; ऐसे समय में, उन्हें लोगों के समर्थन, देखरेख और सहायता की जरूरत होती है। ऐसा तब होता है जब तक वे छद्म-विश्वासी न हों, सत्य के प्रति प्रेम रहित न हों और अच्छे व्यक्ति न हों—ऐसे मामलों में उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। अगर वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अक्सर कुछ वास्तविक कठिनाइयों के चलते सभाओं में नहीं जाते, तो उन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए, बल्कि प्रेम के साथ सहयोग और मदद दी जानी चाहिए। अगर वे अच्छे व्यक्ति हैं, और समझने की योग्यता रखते हैं, अच्छे क्षमतावान हैं, तो वे और अधिक मदद और सहयोग पाने के योग्य हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, तो मैं वास्तव में खुद पर शर्मिंदा हुई। अंत के दिनों में परमेश्वर देहधारी होकर हमारे उद्धार के लिए वचन बोलने और कार्य करने आया है। परमेश्वर बहुत अपमान सहता है और अत्यधिक धैर्य के साथ वह मानवजाति को जहाँ तक संभव है, बचाता है। जब तक कोई परमेश्वर की वाणी सुनकर सत्य को स्वीकार कर सकता है, तब तक परमेश्वर उन्हें बचाएगा और किसी को नहीं त्यागेगा। हालाँकि मनुष्य अपराध करता है, परमेश्वर बार-बार क्षमा करता है। जब तक तुम्हारे दिल में थोड़ा सा भी पश्चात्ताप है, वह तुम्हें मौका देगा। इससे हम देख सकते हैं कि परमेश्वर मनुष्यों के लिए दया और सहनशीलता से ओत-प्रोत है—हमारे लिए उसका प्रेम सचमुच बहुत महान है। नए सदस्य नवजात शिशुओं जैसे हैं जो अभी सत्य नहीं समझते और अब तक सच्चे मार्ग पर पैर नहीं जमा पाए हैं। परमेश्वर चाहता है कि हम इन नए सदस्यों से अपार प्रेम और सहनशीलता का व्यवहार करें। अगर उनमें अच्छी मानवता है और वे सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो चाहे वे कमजोर हों, उनमें धार्मिक धारणाएँ हों, व्यस्तता के कारण सभाओं में न आ पाते हों, हम उन्हें यूं ही खारिज नहीं कर सकते और हमें निश्चित ही उन्हें यूँ ही नहीं छोड़ना चाहिए। हम सोचते हैं कि वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं और उन्हें त्याग देते हैं क्योंकि वे सभाओं में नहीं आते, जबकि हमने उन्हें केवल कुछ बार समर्थन दिया है, तो हम गैर-जिम्मेदार हैं। जब मैं आस्था में नई थी, तो घर में व्यस्त होने के कारण नियमित रूप से सभाओं में नहीं जा पाती थी। मेरे भाई-बहन इस बात को समझकर मेरी जरूरत का ख्याल रखते हुए सभा का समय बदल देते और बिना थके मेरे साथ संगति करते। उनकी मदद और सहारे से मैं सत्य का अनुसरण करने के महत्व को समझ सकी और अपने लिए परमेश्वर के प्रेम और सहनशीलता को महसूस कर सकी। फिर मैं नियमित रूप से सभाओं में भाग लेकर कर्तव्य निभाने लगी। अगर मेरे भाई-बहन उस वक्त मुझे त्याग देते और सोचते कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करती और एक छद्म-विश्वासी हूँ, तो वे मुझे पहले ही छोड़ चुके होते और आज मैं यहाँ नहीं होती! मुझे परमेश्वर के इरादों का जरा भी ध्यान नहीं था, न ही मैं नए सदस्यों को उनके संघर्षों के लिए कोई छूट दे रही थी। मैं उनसे असंतुष्ट थी, सोचती थी कि वे कुछ ज्यादा ही व्यस्त थे, उनमें बहुत धारणाएँ थीं। इसलिए मैंने उनसे ध्यान हटा लिया और उन्हें छोड़ दिया, उनकी मदद के लिए और कीमत नहीं चुकानी चाही। मेरी मानवता बहुत द्वेषपूर्ण थी और मैंने इन नए सदस्यों की जरा भी जिम्मेदारी नहीं ली थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ। मैं जल्द-से-जल्द अपनी गलतियाँ सुधारना चाहती हूँ और इन नए सदस्यों को प्रेम के साथ सहारा देना चाहती हूँ।”

इसके बाद मैंने दूसरे भाई-बहनों के साथ नए सदस्यों को सहारा देने के लिए जाना शुरू कर दिया। हमने उनके संघर्षों के बारे में जाना और उनके साथ धैर्य से संगति की, फिर उनमें से कुछ लोग सभाओं में लौट आए। उनमें से एक तो काम में इतनी व्यस्त थी कि उसके लिए सभाओं में आना ही मुश्किल था, उसने कहा, “अगर मैं मन में विश्वास रखूँ, तो परमेश्वर मुझे कभी नहीं त्यागेगा।” पहले मैं सोचती थी, वह बस पैसा कमाने में लगी है, उसमें सच्ची आस्था नहीं है, मगर उसको समझने के बाद पता चला कि वह सभाओं में इसलिए नहीं आ पाती थी क्योंकि हमारा तय किया हुआ समय उसके लिए सही नहीं था। इसलिए, हमने सभाओं का समय उसकी जरूरत के अनुसार तय कर दिया और उसके साथ संगति की, “अंत के दिनों में, परमेश्वर सत्य के जरिए इंसानियत को स्वच्छ करता और बचाता है। सच्चे विश्वासियों को साथ में परमेश्वर के वचनों पर संगति करनी चाहिए, सत्य का अनुसरण कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ देना चाहिए और जीवन स्वभाव में बदलाव करना चाहिए। परमेश्वर द्वारा बचाए जाने और उसके राज्य में प्रवेश पाने का सिर्फ यही एक रास्ता है। अगर हम आस्था रखते हैं पर सभाओं में शामिल नहीं होते, अगर हम सिर्फ वचनों में परमेश्वर को मानते हैं और अपने मन में ही विश्वास रखते हैं, अगर हम अपने विश्वास को एक शौक की तरह लेते हैं, तो इससे हम परमेश्वर की नजरों में अविश्वासियों की तरह हो जाते हैं। चाहे हमें उसमें अंत तक विश्वास रहा हो, फिर भी हमें उसकी स्वीकृति नहीं मिलेगी।” संगति के जरिए इस नई सदस्य को एहसास हुआ कि उसका नजरिया गलत था और वह फिर से सभाओं में आना चाहती थी। जब मैंने इन नए विश्वासियों को एक के बाद एक सभाओं में आने के लिए तैयार देखा, तो मेरा दिल पश्चात्ताप से भर गया। मैं अपने विचारों के आधार पर उन्हें त्याग रही थी। क्या मैं ऐसा करके उन्हें नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? मैंने सचमुच बहुत बुरा किया था!

एक दिन अगुआ ने मुझसे पूछा, “सिंचन कार्य संभालने के बाद से आपने अपनी गैर-जिम्मेदारी से कितने नए सदस्यों को छोड़कर जाने दिया? उन्हें त्यागते समय क्या आपने सत्य सिद्धांत खोजे?” उस समय मुझे समझ नहीं आया क्या कहूँ। तब उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करो जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, ‘जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।’ ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। वे सामान्य समय में चाहे जो भी कर रहे हों, सत्य की तलाश नहीं करते; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असल दशा और व्यवहार का खुलासा किया। उन नए विश्वासियों को जाने देते हुए मैंने न तो प्रार्थना की, न सत्य खोजा, न ही अगुआ से चर्चा की। मैंने बस आँख मूंदकर अनुभव के भरोसे काम किया, यह सोचकर कि हमने पहले भी कुछ ऐसे नए सदस्यों का सिंचन किया था जो महीनों तक सभाओं में नहीं आए थे और उनसे संपर्क न होने पर हमने उन्हें जाने दिया था। मैंने सोचा कि अब जब नए लोग वापस नहीं आ रहे थे तो हमें वैसा ही करना चाहिए? मुझे यहाँ तक लगा कि मैं साफ तौर पर जानती हूँ कि कौन सत्य नहीं खोज रहे थे और कौन छद्म-विश्वासी थे, इसलिए मैंने लापरवाही से उन्हें छोड़कर त्याग दिया। भले ही मैं कई बार बेचैन होती थी, फिर भी मैंने कोई खोज नहीं की। मेरी साथी ने मामला उठाया तब भी मैंने उसकी सलाह को गंभीरता से नहीं लिया और जो चाहा वही किया। मैंने अपने विचारों को सत्य सिद्धांत जैसा माना, सोचा कि मैं गलत नहीं हो सकती। क्या वह अहंकारी और दंभी होना नहीं था? मैंने न तो लोगों का ख्याल किया और न ही परमेश्वर को अपने दिल में रखा। मैं बहुत ज्यादा मनमानी कर रही थी! नए विश्वासियों में सच्ची आस्था होने या न होने का फैसला मैंने बस उनके सभाओं में आने-न-आने से किया, सोचा कि अगर वे कुछ समय तक दिखाई नहीं देते और मेरे संपर्क में नहीं रहते तो हम उन्हें जाने दे सकते हैं। वास्तव में, अगर नए सदस्य सभाओं में शामिल नहीं होते, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे छद्म-विश्वासी हैं। कौन सच्चे विश्वासी हैं और कौन छद्म-विश्वासी हैं, यह तय करने के लिए उनकी स्थितियों की वास्तविक समझ होनी चाहिए, उनसे अलग तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए। उनमें से कुछ लोग जो सभाओं में नहीं जा रहे थे, वे अनिच्छा से परिवार वालों के साथ आए थे, जिन्हें उम्मीद थी कि वे विश्वासी बन जाएंगे। मगर वे परमेश्वर के अस्तित्व तक में विश्वास नहीं रखते थे, उन्हें उसके वचन पढ़ना या सभाओं में जाना पसंद नहीं था। कुछ लोग सांसारिक चीजों, शोहरत या बुरे कर्मों के पीछे भाग रहे हैं, परमेश्वर का अनुसरण करने और सभाओं में जाने में उनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। वे परमेश्वर के वचनों से विमुख हैं और उन पर किसी भी संगति का विरोध करते हैं। इन लोगों की प्रकृति ऐसी है मानो वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, इसलिए वे सहज रूप से गैछद्म-विश्वासी हैं। यदि वे सभाओं में नहीं आना चाहते, तो हम उन्हें पूरी तरह छोड़ सकते हैं। हालाँकि कुछ नए सदस्य अच्छी मानवता और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखने वाले होते हैं, मगर अभी-अभी शामिल होने के कारण, सत्य या सभाओं के मायने नहीं समझते। उन्हें लगता है उन्हें बस मन में परमेश्वर को मानना है, सभाओं में उनके जाने या न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए वे इस बारे में ज्यादा नहीं सोचते और जब मन करता है, आ जाते हैं। कुछ लोग वास्तविक दिक्कतों में फँस जाते हैं और अपने काम और सभा के समय के बीच टकराव होने के कारण नहीं आना चाहते। हमें उनकी मुश्किलों में स्नेहपूर्ण मदद और समर्थन देना चाहिए, उनकी धारणाओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए और उन्हें मनुष्य को बचाने की परमेश्वर का इरादा समझना चाहिए। इसी के साथ हमें उनके समय के अनुसार सभा का समय तय करना चाहिए। मगर मैं नए विश्वासियों से उनके वास्तविक हालात या अपने काम में सिद्धांत पर चलने के अनुसार व्यवहार नहीं कर रही थी। मैं सत्य समझे बिना बस अड़ियल होकर मनमानी कर रही थी, सभाओं में न आने वाले कुछ नए सदस्यों से छद्म-विश्वासियों की तरह व्यवहार कर बेपरवाही से उन्हें बाहर जाने दे रही थी।

परमेश्वर ने पर्दे के पीछे से बहुत काम किया है, कई व्यवस्थाएं की हैं और अंत के दिनों के उसके कार्य को स्वीकार करने वाले हर नए विश्वासी के लिए उसने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। भाई-बहनों ने सब्र और स्नेह से उनके साथ कई बार सुसमाचार साझा किया है। लेकिन मैंने सिद्धांतों को खोजे बिना कुछ नए सदस्यों को छोड़ दिया था, यह मानकर कि परमेश्वर इन लोगों को नहीं बचाएगा। मैं सचमुच बहुत ही अहंकारी थी। यह उनकी गलती नहीं थी कि वे सभाओं में नहीं आ रहे थे, यह मेरी गलती थी कि मुझे पता नहीं था कि वे क्या झेल रहे हैं, और उनका साथ देकर जो मदद करनी थी, वह मैं नहीं कर रही थी। नए सदस्यों को छोड़ने के लिए मैंने बहाने बनाते हुए यहाँ तक कहा कि “परमेश्वर बढ़िया लोग चाहता है, बस ज्यादा लोग नहीं।” मगर इसका असल अर्थ यह है कि परमेश्वर के राज्य को ऐसे लोग चाहिए जिनमें सच्ची आस्था हो, जो सत्य से प्रेम करते हों, और यह कि परमेश्वर छद्म-विश्वासियों, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को नहीं बचाएगा। पर मैंने आंक लिया कि सभाओं में न आने वाले उन सभी नए विश्वासियों को परमेश्वर नहीं बचाएगा। मैं परमेश्वर के वचनों का गलत अर्थ लगा रही थी। मैंने कोई वास्तविक संगति नहीं की, उनकी मदद नहीं की, या कीमत नहीं चुकाई, और अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाईं। मैंने यह भी नहीं समझा कि उन्हें सच में सत्य की परवाह है या नहीं, या वे सच में छद्म-विश्वासी हैं या नहीं, मैंने आँखें बंद करके अपने विचारों के आधार पर उन्हें छोड़कर त्याग दिया। अगर अगुआ ने मेरी काट-छाँट न की होती, तो मुझे नहीं पता कि मैंने और कितने नए सदस्यों का नुकसान किया होता। मैंने देखा कि मेरा बर्ताव कितना घृणापूर्ण रहा था। मैं सत्य सिद्धांत नहीं जानती थी और उनकी खोज नहीं की थी, इसके बजाय, मैं बस शैतानी स्वभाव से ये सब करती रही। ये सब अपराध थे! मैं जानती थी अगर मैंने प्रायश्चित्त करके बदलाव न किया तो परमेश्वर यकीनन मुझे ठुकरा देगा।

एक कलीसिया अगुआ होने के नाते मेरे लिए परमेश्वर का इरादा है कि मैं आस्था में नए भाई-बहनों का सिंचन और सहयोग करूँ, ताकि उनकी धारणाएँ और समस्याएँ सुलझाई जा सकें, ताकि वे परमेश्वर के कार्य के बारे में जानकर जल्द से जल्द सच्चे मार्ग पर अपने पाँव जमा सकें। लेकिन मैंने वही किया जो मैंने चाहा और लापरवाही से गलत काम किया। मैं न केवल आँखें मूंदकर अपने रास्ते जा रही थी, बल्कि मैं दूसरों को भटका भी रही थी। नतीजतन मेरे भाई-बहन भी नए विश्वासियों को मनचाहे ढंग से त्याग रहे थे। मैं बुरा काम कर रही थी। इसके गंभीर परिणामों को जानकर मैं बहुत डर गई और खुद पर गुस्सा आया। उस वक्त मैंने परमेश्वर से प्रार्थना क्यों नहीं की, सत्य सिद्धांत क्यों नहीं खोजे? मैं अगुआ के पास क्यों नहीं गई और उन लोगों को यूँ ही छोड़ दिया जो सभाओं में नहीं जा रहे थे? मैंने ऐसी ढिठाई क्यों दिखाई? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, फिर उसके वचनों का एक अंश पढ़ा : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। मैंने इन वचनों को कई बार पढ़ा था, लेकिन जब मैंने इस अनुभव से इनकी तुलना की तो इन्होंने सच में मेरे दिल को छू लिया। मैं कुछ ही समय से कलीसिया अगुआ थी और मुझमें सत्य वास्तविकता बिल्कुल नहीं थी। बहुत-से सत्य सिद्धांत थे, जिन्हें मैं नहीं समझती थी, फिर भी मैं खुद को तेज मानती थी, मानो सब-कुछ समझती हूँ। नए विश्वासियों की वास्तविक स्थितियों के अनुसार उनसे अलग-अलग व्यवहार करने के बजाय मैंने बस उन सभी लोगों को छोड़ दिया जो छद्म-विश्वासियों की तरह सभा में नहीं आ रहे थे। मैं इतनी आत्मतुष्ट थी कि न प्रार्थना की, न सत्य खोजा, न ही अगुआ से बात की, न ही अपने साथी की सलाह मानी। मैं बहुत ज्यादा अहंकारी थी! वास्तव में, नए विश्वासियों से कैसे पेश आएं इस बारे में बहुत-से सत्य सिद्धांत हैं, जैसे कि स्नेह से लोगों की मदद करने के सिद्धांत, निष्पक्ष बर्ताव करने के सिद्धांत और नए सदस्यों की धारणाओं को ठीक करने के सत्य आदि। अगर मेरे पास थोड़ा भी परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता और मैं इतनी अहंकारी और आत्मतुष्ट न होती, अगर मैंने सचमुच इन सिद्धांतों पर विचार किया होता, तो मैं अपने काम में कभी इतनी अड़ियल बनकर बाधा न डालती। मुझे एहसास हुआ कि अहंकारी स्वभाव के साथ जीने के कारण मैंने बुराई की और परमेश्वर का विरोध किया। मुझे वास्तव में खुद से घृणा हुई, लगा कि मैं सचमुच परमेश्वर के धिक्कार के लायक हूँ। मैंने शपथ ली कि मुझे अपने अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए सत्य खोजना ही होगा।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “अपने कार्य में, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य व्यवस्थाओं के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, ‘क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? वह इससे घृणा करेगा या इसका तिरस्कार करेगा?’ तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों के विद्रोहीपन से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले कुछ लोगों के साथ सहभागिता करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाले लोग न मिल पाएँ, तो तुम्हें शुद्ध समझ वाले कुछ लोगों को ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का और भी सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करते रखते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी खड़ी करता है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर को नाराज करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे...। अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो, और सत्य खोजने के लिए खुद से और प्रश्न पूछते हैं, तो तुम्हारे कार्यों में विचलन कम होते जाएँगे। इस तरह से सत्य खोज सकने वाले लोग ही परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहकर उसका भय मानते हैं, क्योंकि ऐसे में तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और समर्पित हृदय से खोजते हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होंगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया। अगुआओं और कर्मियों को सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए, हमेशा पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करना चाहिए। हमें अपने कर्तव्यों में अक्सर प्रार्थना और सत्य की खोज भी करनी चाहिए, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए। हमें कभी भी अपने विचारों और अनुभवों या कल्पनाओं और धारणाओं पर नहीं चलना चाहिए, मनमानी नहीं करनी चाहिए। हमें आँख बंद करके खुद के भरोसे तो और भी नहीं रहना चाहिए-हमें सत्य सिद्धांतों को खोजना चाहिए। जब कोई बात समझ न आए, तो हम अपने भाई-बहनों के साथ सत्य की खोज और संगति कर सकते हैं, ताकि अमल में लाने से पहले सिद्धांतों पर हमारी पकड़ मजबूत हो। इसी तरह हमें परमेश्वर का इरादे के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना है। इस अनुभव से सच में मैंने सबक सीखा। अगर परमेश्वर ने ऐसा माहौल बनाकर अगुआ से मेरी काट-छाँट न करवाई होती, तो मैं अब भी नहीं समझ पाती कि अपने विचारों के आधार पर मेरी करनी के परिणाम कितने गंभीर हो सकते थे। मैंने खुद से कहा, अब से मुझे सत्य खोजना है और सिद्धांतों के अनुसार अपना काम करना है। बाद में, दो नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया, तो मैंने अपने अहंकारी स्वभाव का अनुसरण करके अक्खड़ता के साथ उनके बारे में राय बनाकर उन्हें त्यागा नहीं। उनमें से एक को कई बार समझने में मदद और समर्थन करने के बाद और अपने अगुआ के साथ उसकी स्थिति के बारे में संगति करने के बाद हमने अंततः तय किया कि वह छद्म-विश्वासी था, तो हमने उसे जाने दिया। मगर दूसरी बहन करीब दो साल से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद था, वो पूरी लगन से कर्तव्य निभाती थी। हालाँकि जब उसने लोगों का न्याय कर उनकी भ्रष्टता उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े, तो उनसे अपनी तुलना की और पाया कि वह बहुत ज्यादा भ्रष्ट है। उसने निर्णय किया कि उसका कुछ नहीं हो सकता और खुद पर से उसका भरोसा उठने लगा। दूसरों ने और मैंने उससे परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति की, ताकि वह समझ सके कि परमेश्वर का उद्धार पूरी मानवजाति के लिए है, जिसे शैतान ने पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। हमने संगति की कि परमेश्वर हमारी दिक्कतों, कमजोरियों और जरूरतों को समझता है और अगर हम सत्य का अनुसरण करते रहें तो परमेश्वर हमारा यूँ ही त्याग नहीं करेगा, क्योंकि वह हमेशा मनुष्य को यथासंभव बचाता है। उस बहन की आँखों में आंसू आ गए, वह परमेश्वर का प्रेम महसूस कर सकी। हमने कई बार उसकी मदद की और सहारा दिया और वह अब फिर से नियमित रूप से सभा में आने लगी है।

इस अनुभव ने वाकई मुझे भ्रष्ट मानवजाति के उद्धार के परमेश्वर के नेक इरादे और उसका अपार प्रेम दिखाया है। साथ ही, परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के जरिए मैं अपने अहंकारी स्वभाव को थोड़ा समझ सकी हूँ और काम में मनमानी करने के नुकसान और परिणामों को देख सकी हूँ। आखिर अब मैंने परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय पा लिया है। अब मैं सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ और यह परमेश्वर के वचनों के कारण ही हासिल हो पाया है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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