51. अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा को अलविदा
मैंने कुछ साल पहले कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया था। मुझे पता था कि यह एक बहुत महत्वपूर्ण कर्तव्य है, इसलिए मैंने शपथ ली थी कि मैं सत्य के अनुसरण में और भी ज़्यादा मेहनत करके नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन करूँगी ताकि वे सत्य के मार्ग पर जल्द-से-जल्द चलने में सफल हों। अमूमन जब भी मुझे समय मिलता, मैं दर्शनों के सत्य से खुद को लैस करने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ती। सभाओं में, मैं नए सदस्यों की समस्याओं और कठिनाइयों पर अच्छे से विचार करती, उन पर सहभागिता करने और उनके समाधान ढूँढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन देखती। जब भी मुझे कुछ समझ नहीं आता या हल नहीं कर पाती, तो मैं दूसरे भाई-बहनों के साथ मिलकर खोज करती। कुछ समय बाद जो भाई-बहन आस्था में नए थे, वे अपनी समस्या या कठिनाई आने पर सहभागिता के लिए मेरे पास आने लगे। मुझे बहुत खुशी हुई कि भले ही मैं इस कर्तव्य को थोड़े समय से ही निभा रही थी फिर भी हर कोई मुझे सम्मान दे रहा था। लगा कि मैं बहुत खराब नहीं कर रही थी, तो मुझमें अपने कर्तव्य को लेकर उत्साह और भी ज्यादा बढ़ गया।
बाद में, अगुआ ने बहन नैटली को मेरे साथ काम करने के लिए नियुक्त किया। कुछ वक्त बाद मुझे पता चला कि वह अपने कर्तव्य में बहुत सी जिम्मेदारियाँ उठाती थी और हमारे काम में समस्याओं और चूक का पता लगाने में भी अच्छी थी और कुछ समस्याओं को हल कर पाती थी। हर कोई उसे पसंद करता था और कोई भी मसला होने पर अक्सर सहभागिता के लिए उसे खोजता था। ये सब देखकर मैं परेशान हो गई : “नैटली अभी-अभी आई है, मगर दूसरे अभी से उसके बारे में इतना ऊँचा सोचते हैं। उन्हें समस्याएं आने पर क्या वे सिर्फ उसे ही खोजेंगे, मुझे नहीं? क्या उन्हें लगेगा कि मैं उसकी बराबरी नहीं कर सकती? नहीं, मुझे और भी ज्यादा मेहनत करनी होगी, ताकि सबको पता चले कि नैटली मुझसे बेहतर नहीं है। हर किसी के दिल में अपनी जगह बनाए रखने का यही एक तरीका है।” उसके बाद हर सभा से पहले मैं भाई-बहनों की स्थितियों और मुश्किलों को समझती, फिर परमेश्वर के वचनों को ढूँढ़कर उनके नोट्स बनाती। सभाओं में मैं यही सोचती रहती थी कि कैसे मैं नैटली से बेहतर सहभागिता करूँ, ताकि सबको ऐसा लगे कि मैं अधिक काबिल हूँ। हैरानी की बात है, एक दिन अगुआ ने हमसे कहा कि ज्यादातर भाई-बहनों की राय है कि नैटली अब से समूह की अगुआ का कर्तव्य निभाएँगी और समूह के कार्यों की जिम्मेदारी सँभालेंगी। मैं चौंक गई और सोचने लगी, “कहीं मेरे कान तो नहीं बज रहे? नैटली को समूह की अगुआ चुना गया है? मैं यह कर्तव्य उससे काफी पहले से निभा रही हूँ, पर कभी नहीं चुनी गई। दूसरे भाई-बहनों को पता चलेगा, तो वे क्या कहेंगे? कहीं वे ऐसा तो नहीं सोचेंगे कि वह मुझसे बेहतर है? मैं फिर सबका सामना कैसे करूँगी?” मैं इस सच को स्वीकार नहीं कर पाई और व्यथित थी। मैं जानती थी कि मुझे इस बारे में ऐसे नहीं सोचना चाहिए। मगर मैं नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी और मेरा खुद पर काबू नहीं था। मैंने किसी तरह खुद को सँभालने की कोशिश की, “यह भी ठीक है, मुझे बस अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है और ज्यादा चिंता नहीं करनी है।” उस वक्त मैंने सत्य की खोज नहीं की, न ही कोई आत्मचिंतन किया।
फिर एक दिन मुझे पता चला कि बहन सैडी की स्थिति खराब थी और वह सभाओं में नहीं आ रही थी। मैंने सहभागिता करने की उम्मीद में उससे संपर्क किया, मगर उसने कहा कि वह पहले से नैटली के संपर्क में है और वे पहले ही इस बारे में सहभागिता कर चुकी हैं। यह बात मेरे लिए परेशान करने वाली थी। “सैडी अपनी समस्याओं को लेकर हमेशा मेरे पास आया करती थी, मगर इसके बजाय अब वह सीधा नैटली के पास जा रही थी। क्या उसे लगता है कि मैं उतनी अच्छी नहीं हूँ, जितनी वह है? अगर ऐसे ही चलता रहा तो क्या हर कोई मेरे बारे में सब कुछ भूल जाएगा?” इस विचार ने मुझे पूरी तरह हतोत्साहित कर दिया और मेरे मन में नैटली के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा हो गया, मुझे लगा कि वह मेरी चमक छीन रही है। इसके बाद मैं उसके साथ काम नहीं करना चाहती थी। जब वह काम के बारे में बात करने आती, मैं उससे रूखा व्यवहार करती और कभी-कभी लापरवाही से बात करती। एक बार की बात है, जब हम ऑनलाइन सभा कर रहे थे, नैटली ने एक बहन के सवाल के जवाब में अपनी सहभागिता दी और मैं इतना चिंतित हुई कि यह तो मुझे पछाड़ देगी कि मैंने कुछ सुना ही नहीं। बस यही सोचती रही कि कैसे संगति में उसे पीछे छोड़ूँ और भाई-बहनों को दिखाऊँ कि मैं भी समस्याओं को उतनी ही अच्छी तरह हल कर सकती हूँ, जितना वह कर सकती है। नैटली की सहभागिता पूरी होते ही, जिस बहन ने सवाल किया था उसने कहा कि वह अभी भी अभ्यास के मार्ग को ठीक से नहीं समझी है। यह सुनकर खुश होते हुए मैंने सोचा, “तुमने वास्तविक समस्या को हल किए बिना काफी संगति की। अब तुमने मुँह की खाई। मुझे इस मौके का फायदा उठाना चाहिए ताकि मैं सबको दिखा सकूँ कि मैं तुमसे बेहतर हूँ और मेरी सहभागिता तुम्हारी सहभागिता से बेहतर है।” मैं फौरन सहभागिता करने लगी। मेरी सहभागिता पूरी होते ही यह स्पष्ट हो गया कि मैंने इस बहन के सवाल को अच्छी तरह समझा ही नहीं था और मेरा जवाब किसी काम का नहीं था। उसने मुझे यह बताने के लिए मैसेज भी किया कि मेरी संगति विषय से हटकर थी। उस वक्त मुझे बेवकूफों जैसा महसूस हुआ, मैं किसी कोने में जाकर छिप जाना चाहती थी। तभी कोई जरूरी काम आ जाने पर मैंने कॉल काट दिया। बाद में मैंने देखा कि वे लोग अब भी उस ऑनलाइन सभा में मौजूद थे, तब मेरे में एक दुर्भावनापूर्ण विचार आया : “अगर नैटली ऐसे ही बातें करती रही, तो न जाने यह कब तक चलता रहेगा। अगर मैं सभा में नहीं हूँ तो किसी और को भी रहने नहीं दूँगी, नहीं तो सबका ध्यान केवल नैटली पर ही रहेगा।” इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे मैंने यह संदेश भेज दिया : “सभा का समय खत्म हुआ, बातों को ज्यादा खींचने की कोई जरूरत नहीं है। और कोई समस्या हुई तो हम बाद में चर्चा कर सकते हैं।” कुछ ही मिनटों में सभा खत्म हो गई। मैं कंप्यूटर के सामने बैठी रही, बहुत बुरा लग रहा था। मैं अपनी सहभागिता को लेकर बहुत शर्मिंदा थी, और समस्या के हल में नैटली की नाकामी पर खुश होने को लेकर मैंने दोषी महसूस किया। मैंने मन में कहा, “मैं आखिर कर क्या रही थी? हमारा कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए उनके साथ काम करने का सोचने के बजाय मैं खुलेआम और मन-ही-मन ईर्ष्या की आग में जल रही थी, उसे नीचा दिखाने की कोशिश कर रही थी। क्या यह कर्तव्य निभाना है?” मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं नाम और रुतबे की होड़ में जी रही हूँ, हमेशा नैटली से होड़ और तुलना करती हूँ और चाहती हूँ कि दूसरे मेरी प्रशंसा करें। मुझे पता है यह स्थिति गलत है, मगर मैं इन सबसे निकल नहीं पा रही। परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जान सकूँ।”
एक सभा में मेरी नज़र परमेश्वर के इन वचनों पर पड़ी : “जब मसीह-विरोधी लोग कोई कर्तव्य निभाते हैं, चाहे वे कोई भी हों और जिस किसी भी समूह में हों, वे एक अलग तरह का आचरण प्रदर्शित करते हैं, जो यह है कि हर चीज में, वे हमेशा अलग दिखना चाहते हैं और खुद को प्रदर्शित करना चाहते हैं, वे हमेशा लोगों को बेबस और काबू में करना चाहते हैं, हमेशा लोगों की अगुआई करना और सभी फैसले खुद लेना चाहते हैं, वे हमेशा सुर्खियों में बने रहना चाहते हैं, हमेशा लोगों की नजर और ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं, और सभी से प्रशंसा पाना चाहते हैं। जब भी मसीह-विरोधी किसी समूह में शामिल होते हैं, चाहे उसमें कितने भी लोग हों, या समूह के सदस्य कोई भी हों, या उनका पेशा या पहचान चाहे कुछ भी हो, मसीह-विरोधी सबसे पहले यह देखने के लिए चीजों का जायजा लेते हैं कि कौन रोबदार और उत्कृष्ट है, कौन वाक्पटु है, कौन प्रभावशाली है, और कौन सुयोग्य या प्रतिष्ठित है। वे मूल्यांकन करते हैं कि वे किसे हरा सकते हैं और किसे नहीं, साथ ही कौन उनसे बेहतर है और कौन कमतर है। सबसे पहले वे इन्हीं चीजों पर ध्यान देते हैं। स्थिति का तुरंत आकलन करने के बाद, वे उन लोगों को अलग रखते हुए और नजरअंदाज करते हुए काम करना शुरू कर देते हैं जो फिलहाल उनके नीचे हैं। वे सबसे पहले उन लोगों के पास जाते हैं जिन्हें वे वरिष्ठ मानते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिष्ठा और रुतबा है, या जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभा है। सबसे पहले वे इन लोगों से अपनी तुलना करते हैं। अगर इनमें से किसी का भी भाई-बहन सम्मान करते हैं, या कोई लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा है और अच्छे पद पर है, तो वह मसीह-विरोधियों की ईर्ष्या का लक्ष्य बन जाता है, और जाहिर है कि तब उसे प्रतिस्पर्धी की तरह देखा जाता है। फिर, मसीह-विरोधी चुपचाप खुद की तुलना उन लोगों से करते हैं जिनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है, और जो भाई-बहनों की प्रशंसा पते हैं। वे ऐसे लोगों पर विचार करना शुरू कर देते हैं, पता लगाते हैं कि वे क्या कर सकते हैं और उन्होंने किस चीज में महारत हासिल की है, और क्यों कुछ लोग उनका सम्मान करते हैं। निरीक्षण करते-करते, मसीह-विरोधियों को पता चलता है कि ये लोग किसी खास पेशे के विशेषज्ञ हैं, और साथ ही हर कोई उन्हें ऊँची नजरों से इसलिए देखता है क्योंकि वे लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं और वे कुछ अनुभवजन्य गवाही साझा कर सकते हैं। मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को ‘शिकार’ मानते हैं और उन्हें विरोधियों की तरह देखते हैं, और फिर वे कार्य योजना बनाते हैं। कैसी कार्य योजना? वे उन पहलुओं को देखते हैं जहाँ वे अपने विरोधियों से मेल नहीं खाते और फिर उन पहलुओं पर काम करना शुरू करते हैं। जैसे कि, अगर वे किसी पेशे में उनके जितने अच्छे नहीं हैं, तो वे ज्यादा किताबें पढ़कर, सभी तरह की जानकारी ढूँढकर, और दूसरों से विनम्रतापूर्वक ज्यादा निर्देश माँगकर उस पेशे का अध्ययन करेंगे। वे उस पेशे से संबंधित हर तरह के काम में भाग लेंगे, धीरे-धीरे अनुभव हासिल करेंगे और अपनी शक्ति विकसित करेंगे। और जब उन्हें लगता है कि उनके पास अपने विरोधियों से मुकाबला करने के लिए पर्याप्त पूंजी है, तो वे अक्सर अपने ‘शानदार विचार’ व्यक्त करने के लिए आगे आते हैं, जानबूझकर अपने विरोधियों का खंडन करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं, उन्हें शर्मिंदा करते हैं और उनका नाम खराब करते हैं; इस तरह वे दर्शाते हैं कि वे कितने चालाक और असाधारण हैं, और साथ ही अपने विरोधियों को दबाते भी हैं। स्पष्ट दृष्टि वाले लोग इन सभी चीजों को देख सकते हैं, केवल वे लोग जो मूर्ख और अज्ञानी हैं और जिनमें विवेक की कमी है, वे नहीं देख सकते। ज्यादातर लोग केवल मसीह-विरोधियों के उत्साह, उनके अनुसरण, उनके कष्ट सहने, कीमत चुकाने और बाहरी अच्छे व्यवहार को देखते हैं, मगर असलियत मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में छिपी होती है। उनका मूल उद्देश्य क्या है? रुतबा हासिल करना। उनका सारा काम, उनकी सारी मेहनत और वे जो भी कीमत चुकाते हैं वह सब, जिस लक्ष्य पर केंद्रित होता है, वह वही चीज है जिसकी वे अपने दिलों में सबसे अधिक आराधना करते हैं : यानि कि रुतबा और शक्ति” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे ये एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरे विचारों और भावनाओं को बिल्कुल स्पष्ट देख रहा था। मैंने आत्मचिंतन किया कि कैसे जब से मैंने सिंचन का कार्यभार संभाला, मैं इसे दिखावा करने के मौके की तरह समझ रही थी। मैं दूसरों की समस्याओं का हल करके अपने लिए उनकी प्रशंसा और स्वीकृति पाना चाहती थी। जब अगुआ ने नैटली को मेरे साथ काम करने भेजा, मैंने यह नहीं सोचा कि हम कर्तव्य को साथ मिलकर कैसे अच्छे से निभाएं, बल्कि इसके बजाय मैं हमेशा उसके साथ होड़ कर रही थी और उससे अपनी तुलना कर रही थी। मेरा ध्यान सिर्फ इसी बात पर था कि भाई-बहन अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाते हैं, हम दोनों में से किसकी प्रतिष्ठा ज्यादा है या दूसरों के बीच किसकी जगह ज़्यादा ऊँची है। जब हर कोई अपनी समस्याओं को लेकर नैटली के पास जाने लगा, तो मुझे खतरा महसूस हुआ और अलग-थलग महसूस करने लगी, तो मैं उसे अपने प्रतिद्वंदी की तरह देखने लगी। मैं उसे हराना चाहती थी, अपनी हर कथनी और करनी में उससे आगे निकल जाना चाहती थी और मैंने क्या कुछ नहीं किया कि भाई-बहन सोचें कि मैं उससे बेहतर थी। देखने में तो यही लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मगर मेरा ध्यान इस पर बिल्कुल नहीं था कि अपने कर्तव्य को अच्छे से कैसे निभाऊँ, हम सभाओं से अधिक से अधिक कैसे लाभ प्राप्त कर सकते हैं या मेरे भाई-बहनों की कठिनाइयां और समस्याएं हल हो गई हैं या नहीं। मेरा उठाया गया हर एक कदम केवल प्रतिष्ठा और रुतबा पाने के लिए था। क्या यह किसी मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं है? मसीह-विरोधी, प्रतिष्ठा और हैसियत को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं। वे अपने से बेहतर लोगों से ईर्ष्या करते हैं, उनसे लड़ते हैं और हमेशा खुद की उनसे तुलना करते रहते हैं। वे रुतबा पाने, खुद को ऊँचा उठाने और दिखावा करने के लिए दूसरों को रौंदने, नीचा दिखाने और बदनाम करने से कभी पीछे नहीं हटेंगे। मैं जो भी कर रही थी क्या उसके पीछे मेरे मसीह-विरोधी इरादे छिपे हुए नहीं थे? ऐसे इरादे के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। इस बात का एहसास होते ही मैं बहुत पश्चात्ताप से भर गई, मैं उस रास्ते पर नहीं जाना चाहती थी और चाहती थी कि वाकई सत्य की खोज कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “शैतान के खेमे में चाहे समाज में हो या सरकारी हलकों में, कैसा माहौल है? कौन सी प्रथाएँ प्रचलित हैं? तुम सबको इसकी कुछ समझ होनी चाहिए। उनके कार्यों के सिद्धांत और दिशानिर्देश क्या होते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक नियम है; हर कोई अपने हिसाब से चलता है। वे अपने हित में और अपनी मर्जी के कार्य करते हैं। जिसके पास अधिकार होता है उसी का निर्णय अंतिम होता है। वे दूसरों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। जैसा वे चाहते हैं, वैसा ही करते हैं, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए संघर्ष करते हैं तथा पूरी तरह से अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं। जैसे ही उन्हें शक्ति प्राप्त होती है, वे इसका प्रयोग फौरन दूसरों पर करते हैं। यदि तुम उन्हें ठेस पहुँचाते हो, तो वे तुम पर शिकंजा कसना चाहते हैं, और तुम उन्हें उपहार देने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। वे बिच्छुओं की तरह हानिकारक हैं, कानून, सरकारी नियमों का उल्लंघन करने और यहाँ तक कि अपराध करने को तैयार हैं। वे यह सब करने में सक्षम हैं। तो शैतान के खेमे में इतना अँधेरा और दुष्टता है। अब, परमेश्वर मानवता को बचाने, लोगों को सत्य स्वीकार करवाने, सत्य समझाने और शैतान के बंधन और शक्ति से मुक्त करवाने आया है। यदि तुम लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और सत्य का अभ्यास नहीं करते तो क्या तुम अब भी शैतान की सत्ता में नहीं जी रहे हो? उस स्थिति में, तुम लोगों की वर्तमान स्थिति और दानवों और शैतान की स्थिति में क्या अंतर है? तुम लोग ठीक वैसे ही प्रतिस्पर्धा करोगे जैसे अविश्वासी करते हैं। तुम लोग उसी तरह लड़ोगे जैसे अविश्वासी लड़ते हैं। सुबह से लेकर रात तक तुम लोग षड्यंत्र और प्रपंच रचने, ईर्ष्या करने और विवादों में उलझे रहोगे। इस समस्या की जड़ क्या है? इसका कारण यह है कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और वे इन भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं। भ्रष्ट स्वभावों का शासन शैतान का शासन है; भ्रष्ट मानवता शैतानी स्वभाव में निवास करती है और कोई भी अपवाद नहीं है। इसलिए तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम इतने अच्छे, इतने विनम्र या इतने ईमानदार हो कि सत्ता और लाभ के संघर्ष में लिप्त नहीं हो सकते। यदि तुम सत्य को नहीं समझते और परमेश्वर तुम्हारी अगुआई नहीं करता तो तुम निश्चित रूप से अपवाद नहीं हो, और तुम किसी भी तरह अपनी निष्कपटता, दयालुता या अपनी युवावस्था के कारण, प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करने से खुद को दूर नहीं रख पाओगे। वास्तव में, जब तक तुम्हारे पास मौका और परिस्थितियाँ हैं, तुम भी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागोगे। प्रसिद्धि और लाभ के लिए ललचाना शैतान की दुष्ट प्रकृति वाले मनुष्यों का सर्वविदित व्यवहार है। कोई भी अपवाद नहीं है। सभी भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए जीते हैं, और वे इन चीजों के अपने संघर्ष में कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। शैतान की सत्ता के अधीन रहने वाले सभी लोगों का यही हाल है। इसलिए, जो कोई सत्य को स्वीकारता या समझता नहीं है, जो सिद्धांतों के अनुसार नहीं चल सकता, वह शैतान के स्वभाव के साथ जीने वाला व्यक्ति है। शैतानी स्वभाव पहले ही तुम्हारी सोच पर हावी होकर तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर चुका है; शैतान ने पूरी तरह तुम्हें अपने नियंत्रण और बंधन में जकड़ लिया है; और अगर तुम सत्य को स्वीकार करके शैतान से विद्रोह नहीं करते तो तुम बचकर नहीं निकल पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे पता चला कि क्यों मैं प्रतिष्ठा और निजी फायदे के पीछे भागने से खुद को रोक नहीं पा रही थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं शैतानी दृष्टिकोण और विष में डूबकर भ्रष्ट हो गई थी। जब मैं छोटी थी, मुझे घर पर और स्कूल में यही सिखाया गया और मन में ऐसे विचार भरे गए थे, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” और “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी।” इसलिए मैं किसी भी समूह में रहूँ, मुझे बस दूसरों से प्रशंसा की चाह थी, प्रशंसा मिलने और स्वीकृति पाने पर मैं बहुत खुश हुआ करती थी। मुझे लगता था कि केवल यही सम्मान भरा और अनमोल जीवन है। कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते हुए भी मैं इन्हीं शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी। दूसरों की प्रशंसा पाने के चक्कर में मैंने नैटली को अपना विरोधी समझा, हमेशा उसे मात देने के बारे में सोचती रही। मैंने सभा में उसकी सहभागिता को बाधित करने के लिए कपटपूर्ण साधनों का सहारा लिया और निष्ठुर चीजें कीं। मैं हमेशा यही सोचती थी कि कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ना और प्रशंसा पाना ही जीने का एकमात्र सम्मानित तरीका है। तथ्यों ने मुझे बता दिया था कि इन शैतानी विषों के अनुसार जीवन जीते हुए मेरी महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं बस बढ़ती चली गई थीं और मेरा दृष्टिकोण अधिक से अधिक संकीर्ण होता चला गया था, ऐसा तब तक चला जब तक कि मेरा व्यवहार नीच और खासकर परमेश्वर के लिए घृणित नहीं हो गया। इस तरह जीवन जीने में रत्ती भर भी सम्मान नहीं था। आखिर मुझे यह समझ आ गया कि शैतान ने मुझे कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। मैं अच्छी और बुरी चीज़ों के बीच अंतर नहीं कर पाती थी और मैं अपना जमीर और तर्क खो चुकी थी। अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता, तो मैं आत्मचिंतन नहीं करती और खुद को नहीं जान पाती, न ही मैंने शोहरत और हैसियत के पीछे भागने के नतीजों और खतरों को साफ तौर पर देखा होता। मैं केवल शैतानी विषों के सहारे जीती रहती और कौन जानता है कि कैसी बुराई कर बैठती? मैंने मन से परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन के लिए और मुझे अपने बारे में कुछ ज्ञान देने के लिए धन्यवाद दिया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और उसमें मुझे शोहरत और रुतबे के बंधनों से मुक्ति पाने का व्यावहारिक मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों के जरिए मुझे एहसास हुआ कि वह किसी से मशहूर होने या महान बनने को नहीं कहता। उन्हें कुछ शानदार हासिल करने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि हम बस उसके वचनों के मुताबिक ईमानदारी से अभ्यास करें और एक सृजित इंसान के कर्तव्य और जिम्मेदारियां निभाएं। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की नजर में सम्मानित होता है और उसे प्रसन्न करता है। मनुष्य को परमेश्वर को महान मानकर उसकी आराधना और उसका सम्मान करना चाहिए। मगर मैं तो हमेशा लोगों के दिलों में जगह चाहती थी और चाहती थी कि वे मेरी प्रशंसा करें और मुझे चाहें। ऐसा करके क्या मैं उसकी अपेक्षाओं के विरुद्ध नहीं जा रही थी और परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर नहीं चल रही थी। मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं थी। ऐसी बहुत सी चीजें थीं जिन्हें मैं समझने या हल करने में नाकाम थी और मैं केवल कुछ सिद्धांत झाड़ती थी मगर फिर भी अपने बारे में हमेशा बहुत ऊँचा सोचती थी। मैं बेशर्मों की तरह चाहती थी कि दूसरे मेरी ओर देखें और मेरी पूजा करें, जब ऐसा नहीं हुआ तो मैं इसके लिए लड़ने लगी। मुझे खुद की पहचान बिल्कुल भी नहीं थी और मुझे कोई शर्म नहीं थी! परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है और वह सर्वोच्च और महान है। वह सत्य व्यक्त करने और मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण करके धरती पर आया है। उसने कई अद्भुत कार्य किए हैं, मगर फिर भी वह कभी दिखावा नहीं करता या कभी परमेश्वर होने का फायदा नहीं उठाता। वह गुप्त और विनम्र है। परमेश्वर का सार कितना मनोरम है, इसे देखकर मैं और ज़्यादा शर्मिंदा हुई और दोषी महसूस किया। मैंने दैहिक इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करके सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया। मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा दूसरों से होड़ और तुलना करती रहती हूँ और रुतबा पाने की कोशिश करती हूँ ताकि दूसरे मुझे सम्मान दें। इससे तुम्हें नफरत है और मैं अब इस तरह नहीं जीना चाहती। मैं शोहरत और हैसियत को एक तरफ कर व्यावहारिक इंसान की तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।” उसके बाद मैंने नैटली के पास जाकर अपनी स्थिति और भ्रष्टता के बारे में सब कुछ बता दिया। हमने मिल-जुलकर काम करने के महत्व के बारे में सहभागिता की। उस पल मुझे बहुत दृढ़ता और सुकून महसूस हुआ।
उसके बाद भी नैटली के साथ काम करते हुए मेरे मन में अभी भी प्रतिस्पर्धा की ललक जागती थी, मगर जब भी मेरे मन में ये ख्याल आते, मैं फ़ौरन प्रार्थना करती और दैहिक इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह कर देती। मुझे याद है कि एक बार जब सभा की मेजबानी की बारी नैटली की थी, मैंने देखा कि वह तैयारी में बहुत व्यस्त थी, इसलिए मैंने दूसरों के मसले हल करने के लिए परमेश्वर के कुछ संबंधित वचन ढूँढ़े। मैंने सोचा, “इन अंशों को मैंने ढूँढ़ा है। अगर सभा अच्छे से हुई तो क्या सभी भाई-बहन ये सोचेंगे कि सारा काम नैटली ने अकेले किया है? क्या वे ये सोचेंगे कि वो मुझसे ज्यादा काम करती है? शायद इस सभा की मेज़बानी मुझे करनी चाहिए।” जब मैं ये सोच ही रही थी, मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर प्रतिष्ठा और निजी फायदे के लिए लड़ रही थी। तभी मुझे परमेश्वर के इन वचनों की याद आई : “तुम्हें नजरअंदाज करने औरइन चीजों को अलग करने, दूसरों की अनुशंसा करने, और उन्हें विशिष्ट बनने देने का तरीका सीखना चाहिए। विशिष्ट बनने और कीर्ति पाने के लिए संघर्ष मत करो अवसरों का लाभ उठाने के लिए जल्दबाजी मत करो। तुम्हें इन चीजों को दरकिनार करना आना चाहिए, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक प अपने अहंकारऔर हैसियत को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को नजरअंदाज करते हो, उतनी ही शांति महसूस करोगे, तुम्हारे हृदय में उतना ही ज्यादा प्रकाश होगा, और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धाकरोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, तो इसे आजमाकर देखो! अगर तुम इस तरह की भ्रष्ट स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होनाचाहते, तो तुम्हेंसत्य की खोज करनी चाहिए और इन चीजों का सार स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, और फिर इन्हें एक तरफ रख देना चाहिए और त्याग देना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। हमें त्याग करना सीखना चाहिए, दिखावा करने का कोई भी मौका छोड़कर अन्य लोगों को सामने आने देना चाहिए। इस पर विचार करते हुए मैंने उसे यह कहते हुए संदेश भेजा, “कल तुम ही सभा की मेज़बानी करो, मैं सहभागिता में तुम्हारी मदद करूँगी।” अगले दिन सभा में मैं अपनी छवि के बारे में नहीं सोच रही थी बल्कि सोच रही थी कि लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता कैसे की जाए। नैटली और मैंने साथ में सहभागिता की, हम दोनों ने एक दूसरे के पूरक का काम किया। इसके बाद सभी ने कहा कि सभा उनके लिए बेहद फायदेमंद साबित हुई। मैंने इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद किया और सत्य का अभ्यास करने की निश्चितता और शांति महसूस की।