89. एक “अच्छे अगुआ” का आत्मचिंतन
मुझे बचपन से ही मेरे माता-पिता ने यह सिखाया कि लोगों के साथ दोस्ताना ढंग से रहो और मिलनसार और हमदर्द इंसान बनो। अगर मेरे मिलने-जुलने वाले लोगों में कोई समस्या या कमी होती तो मुझसे यह उम्मीद नहीं की जाती थी कि मैं उन्हें सीधे उजागर कर दूँ, बल्कि मुझे उनके मान-सम्मान का खयाल रखना था। इस शिक्षा के कारण मेरा कभी किसी के साथ कोई संघर्ष या विवाद नहीं हुआ और मेरे आसपास के लोगों को लगा कि मैं अच्छी इंसान हूँ और उन्होंने मेरे साथ जुड़ना चाहा। मुझे लगा कि यह व्यवहार करने का एक अच्छा तरीका भी है। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया तो मैंने अपने भाई-बहनों के साथ इसी तरह से व्यवहार किया। खासकर एक कलीसिया अगुआ बनने के बाद मुझे लगा कि मुझे भाई-बहनों के साथ दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए और दूसरों पर गलतियों का आरोप हल्के में नहीं लगाना चाहिए। इस तरह उनके साथ मेरे रिश्ते नहीं बिगड़ेंगे और भाई-बहन मेरे साथ बात करना चाहेंगे और एक सौम्य और अच्छे अगुआ के रूप में मेरी प्रशंसा करेंगे।
बाद में मैंने देखा कि एक समूह अगुआ बहन जोआन अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी नहीं उठा रही है और कोई वास्तविक कार्य नहीं करती है। मैंने उसे कई बार याद दिलाया, “एक समूह अगुआ के रूप में तुम्हें अपने भाई-बहनों की अवस्थाओं की परवाह करनी चाहिए, उन्हें समझना चाहिए और उनके काम की जांच करनी चाहिए।” फिर भी उसने वैसे काम नहीं किया जैसे मैंने कहा था, इसलिए मुझे उसे दोबारा याद दिलाना पड़ा और उससे वजह पूछनी पड़ी। उसने कहा कि उसके पास केवल एक घंटे का खाली समय था, लेकिन उसने इसका इस्तेमाल फेसबुक चलाने और फिल्में देखने में किया, इसलिए उसने किसी भी काम की जांच नहीं की। यह सुनने के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने सोचा, “तुम बहुत आलसी हो और बिल्कुल भी जिम्मेदारी नहीं लेती हो। कुछ भाई-बहन सभाओं में नहीं आ रहे हैं और तुम उन्हें सहारा देने के तरीके नहीं ढूँढ़ रही हो।” मैं उसके कर्तव्य के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होने के लिए उसकी काट-छाँट करना चाहती थी, लेकिन फिर मुझे लगा कि इससे वह मुझसे दूरी बना सकती है और कह सकती है कि मैं अच्छी और मिलनसार अगुआ नहीं हूँ। मैं उसके साथ अपना सामंजस्यपूर्ण संबंध नहीं बिगाड़ना चाहती थी, इसलिए उसकी काट-छाँट करने के बजाय मैंने उसका उत्साह बढ़ाने की कोशिश की। मैंने कहा, “तुम इस खाली समय में अपने भाई-बहनों की अवस्थाएँ समझने की कोशिश कर सकती हो और फिर तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकती हो।” यह बताने के बाद उसने कुछ दिन तो अच्छा काम किया, लेकिन जल्द ही अपने पुराने तौर-तरीकों पर लौट आई। चूँकि वह अपने कर्तव्य में लापरवाह रहती थी, इसलिए अधिकाधिक नए सदस्यों ने नियमित रूप से सभाओं में आना बंद कर दिया और कुछ नए सदस्यों ने तो बिल्कुल ही आना छोड़ दिया। मुझे बहुत गुस्सा आया। वह इतनी ज्यादा गैरजिम्मेदार थी! मैं वाकई उसकी काट-छाँट करना चाहती थी, लेकिन मुझे यह भी चिंता थी कि वह मुझसे दूरी बना लेगी, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और मुझे खुद ही उन नए सदस्यों का सिंचन कर उन्हें सहारा देना था। जब मैंने उनसे बात की तो मुझे पता चला कि वे सभाओं में इसलिए नहीं आ रहे थे क्योंकि उनकी कई मुश्किलों का समाधान नहीं हो पाया था, जबकि जोआन ने मुझे बताया था कि वे संदेशों का जवाब नहीं देते हैं। जोआन के अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह रवैये को देखने के बाद मैं वाकई उसकी काट-छाँट करना चाहती थी और उसे बताना चाहती थी कि अपने कर्तव्य में उसके गैरजिम्मेदार होने के कारण इतने गंभीर नतीजे मिले हैं। लेकिन मैं एक अच्छी अगुआ भी बनना चाहती थी जो सौम्य और मिलनसार हो, इसलिए मैंने अपना विचार बदल दिया और उसका उत्साह बढ़ाने के लिए फिर से कुछ बातें कह दीं। परिणामस्वरूप वह अभी भी नहीं बदली। एक सभा में जोआन ने शिकायत की, “मैं इस समूह में लंबे समय से हूँ। मुझे तरक्की क्यों नहीं मिली?” यह सुनकर मैंने सोचा, “तुम इतनी आलसी हो, अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह रहती हो और गैर-जिम्मेदार भी हो। तुम्हें तरक्की मिल भी कैसे सकती है?” हालाँकि मैं उस पर गुस्सा थी, फिर भी मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, “हम जो भी कर्तव्य निभाते हैं, वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के कारण करते हैं। हालाँकि हमारे कर्तव्य अलग-अलग हैं, हम सभी नए लोगों का सिंचन कर रहे हैं।” मैंने सोचा कि इससे उसे लगेगा कि मैं उसकी भावना समझती हूँ और उसकी परवाह करती हूँ और मैं अच्छी अगुआ हूँ। और बस इसी तरह जब मैं अपने भाई-बहनों की समस्याएँ देखती थी तो मैं कभी भी उन्हें उजागर या काट-छाँट नहीं करती थी। इसके बजाय उनका ढाढस बँधाने और उत्साह बढ़ाने के लिए मैं कुछ अच्छी बातें कह देती थी। मुझे लगता था कि ऐसा करके सबके मन में मेरी अच्छी, मिलनसार छवि बनी रहेगी।
एक और बार सुसमाचार की उपयाजक एडना और समूह अगुआ ऐन मिलजुल कर सहयोग नहीं कर रही थीं। एडना ने मुझसे गुस्से में कहा, “ऐन बहुत आलसी है! जब मैंने उससे उसके समूह के भाई-बहनों की अवस्थाओं और कठिनाइयों के बारे में पूछा तो उसने जवाब देने में बहुत समय लगाया। इससे मैं परिस्थिति तुरंत समझ नहीं पाई। वह अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाती है!” मुझे पता था कि एडना का स्वभाव बहुत घमंडी है और वह ऐसे लहजे में बोलती है जो किसी आदेश या मांग की तरह लगता है, जिसे दूसरों को स्वीकार करना मुश्किल लगता है। ऐन काफी अभिमानी थी और हो सकता है कि वह एडना के लहजे को बर्दाश्त नहीं कर पाई हो और इसीलिए जवाब नहीं देना चाहती हो। मैं यह बात एडना को बताना चाहती थी, लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती थी कि उसे ठेस पहुँचे या ऐसा लगे कि मैं उसे समझ नहीं पा रही हूँ, इसलिए मैंने उसे दोस्ताना तरीके से कहा, “हो सकता है ऐन व्यस्त रही हो और उसने तुम्हारा संदेश न देखा हो।” उसके बाद मैं ऐन के पास गई तो उसने दुखी होकर कहा, “एडना बहुत घमंडी है! वह हमेशा मुझसे मांग करती है, इसलिए मैं उसके संदेशों का जवाब नहीं देना चाहती।” जब मैंने देखा कि वह दूसरों की सलाह नहीं मानेगी तो मैं उसे इस बारे में सावधान करना चाहती थी, लेकिन मुझे चिंता हुई कि वह इसे स्वीकार नहीं करेगी और इससे हमारा तालमेल बिगड़ जाएगा, इसलिए मैंने कहा, “शायद तुमने एडना को गलत समझा है। वह चाहती है कि तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाओ।” मैं बस इसी तरह उन्हें केवल दिलासा और प्रोत्साहन देने वाली बातें कहती थी और उनकी समस्याएँ नहीं बताती थी। उनमें से कोई भी खुद को नहीं समझ पाया, एडना के पास अभी भी ऐन के काम की जांच करने का कोई तरीका नहीं था और ऐन को लगता था कि उसके साथ अन्याय हुआ है, इस हद तक कि वह अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ महसूस कर रही थी। मुझे पता था कि मैंने एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं, इसलिए वे अपनी समस्याएँ नहीं जान पाई थीं। मेरी वजह से ऐसा हुआ था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे प्रबोधन माँगा ताकि मैं खुद को जान सकूँ।
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करने के बाद मैं समझ गई कि सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है कि चाहे कुछ भी हो जाए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना और लोगों को नाराज करने से न डरना। फिर भी मैं जब अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत करती थी तो हमेशा ही उन पर सकारात्मक छाप छोड़ना और अपने बीच तालमेल बनाए रखना चाहती थी। मैंने उनकी प्रशंसा पाने के लिए एक मिलनसार और सहानुभूतिपूर्ण अगुआ बनने का प्रयास किया, लेकिन मैंने सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। जब मैंने यह देखा कि जोआन नए सदस्यों के सिंचन में जिम्मेदारी नहीं उठाती और आलसी बनी रहती है तो मैं चाहती थी कि गैर-जिम्मेदार होने के लिए उसकी काट-छाँट करूँ, लेकिन उसके साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए और उसके सामने खुद को अच्छी और मिलनसार अगुआ जताने के लिए मैंने उसकी समस्या को उजागर नहीं किया। परिणामस्वरूप, उसकी गैर-जिम्मेदारी के कारण कुछ नए लोगों की समस्याएँ अनसुलझी रह गईं और वे सभाओं में नहीं आए। एडना और ऐन को लेकर मैंने देखा कि वे तालमेल से सहयोग नहीं कर रही थीं और खुद को नहीं जानती थीं—मुझे उनकी समस्याओं को बताना चाहिए था और उन्हें खुद को समझने में मदद करनी चाहिए थी। यह काम के लिए फायदेमंद होता और उनके जीवन प्रवेश में मदद मिलती, लेकिन मैंने चीजों को बस सरसरी तौर पर निपटाने की कोशिश की और उनका ढाढस बँधाने और उत्साह बढ़ाने के कुछ शब्द बोलकर छुट्टी कर ली। परिणामस्वरूप, वे दोनों ही अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा रही थीं। एक अच्छे अगुआ की सौम्य और मिलनसार छवि बनाए रखने के लिए मैंने कलीसिया के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। मैंने कलीसिया के काम को प्रभावित होने दिया ताकि मैं लोगों के साथ अपने रिश्ते बनाए रख सकूँ। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी। मैं लोगों की खुशामद करने वाली और धोखेबाज इंसान थी। मैं जिस तरह से कार्य और आचरण कर रही थी वह पूरी तरह से मेरे भ्रष्ट स्वभाव पर आधारित था। मैं बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी। भले ही दूसरे मेरी प्रशंसा करें, लेकिन मैं कभी भी परमेश्वर से प्रशंसा नहीं पाऊँगी। मैंने अपने भाई-बहनों की समस्याओं को उजागर नहीं किया या उन्हें बताया नहीं और मैंने उन्हें सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं की। इसका नतीजा यह निकला कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचान पाए या अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाए, जिससे कलीसिया का काम प्रभावित हुआ। मैं भाई-बहनों को खुद को जानने या उनके जीवन प्रवेश में प्रगति करने में मदद नहीं कर रही थी। इसके बजाय मैं लोगों के मन में कायम अपनी अच्छी अगुआ की छवि को बचाती रही ताकि वे मेरी प्रशंसा करें और मुझे सम्मान दें, जो परमेश्वर को घृणित लगता है। यह एहसास होने पर मुझे बहुत दुख हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा।
बाद में मेरी अवस्था के बारे में पता लगने पर एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “‘अच्छे’ व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा ‘अच्छा’ व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन ‘अच्छे’ व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएंगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार की नहीं होती, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रकृति क्या है? वह भ्रमित और अबोध होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—इन्हीं चीजों ने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से कई कपटों से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत होना चुना, कुछ ने विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे ‘अच्छे’ व्यवहारों वाले लोगों को एक शब्द-युग्म से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द-युग्म क्या है? ‘चिकने पत्थर।’ चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के वे चिकने पत्थर होते हैं, जिनका नुकीलापन लंबे समय से बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—‘चिकना पत्थर’ यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। इससे पहले मुझे हमेशा लगता था कि जो लोग मिलनसार और सौम्य होते हैं, वे अच्छे लोग होते हैं, कभी यह उम्मीद नहीं की कि इस तरह के “अच्छे” व्यवहार के पीछे शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव और व्यक्तिगत लक्ष्य और इरादे छिपे होते हैं। मैंने बचपन से ही मिलनसार और सौम्य इंसान बनने का प्रयास किया था और मेरे आसपास के सभी लोग हमदर्द होने के लिए मेरी प्रशंसा करते थे, लेकिन दरअसल मैंने जो कुछ भी किया वह दूसरों से प्रशंसा पाने और अपनी बड़ाई करने के लिए था। मैंने देखने में अच्छे मिलनसार और सौम्य व्यवहार का इस्तेमाल अपने भाई-बहनों को अंधेरे में रखने और धोखा देने के लिए किया। परमेश्वर इस तरह के “अच्छे” व्यवहार वाले लोगों को “चिकने पत्थर” के रूप में चित्रित करता है। ये पत्थर बाहर से अच्छे लगते हैं और इन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती, लेकिन इन पर फिसलकर गिरना बहुत आसान है। वे देखने में अच्छे हैं, लेकिन उनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है। मैं ऐसी ही थी। मैं मिलनसार और सौम्य लगती थी और मैं कभी किसी को चोट नहीं पहुँचाती थी, लेकिन मैंने अपने भाई-बहनों की कोई वास्तविक मदद भी नहीं की। बल्कि मेरा दिल कपट और चालबाजी से भरा था। मैं सभी के साथ मिलजुलकर रहती थी और किसी को नाराज नहीं करती थी। मैं बस एक “चिकना पत्थर” थी, एक ऐसी खुशामदी इंसान थी जो हमेशा बीच का रास्ता अपनाती थी और एक चालाक पाखंडी थी। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं : “जो लोग मध्यम मार्ग पर चलते हैं, वे सबसे कपटी लोग होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करते, मिठबोले और चालाक होते हैं, तमाम परिस्थितियों में साथ देने में अच्छे होते हैं, और कोई भी उनकी कमियाँ नहीं देख सकता। वे जीवित शैतानों की तरह होते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। मुझे लगता था कि मिलनसार और सौम्य होने से दूसरे लोग मुझे पसंद करेंगे और परमेश्वर भी मुझे स्वीकृति देगा। अब मैं जान गई कि मेरे कार्य सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के वचन के अनुरूप बिल्कुल नहीं थे। ये मेरे कपटी स्वभाव का खुलासा थे। जो लोग इस तरह से काम करते हैं, उनमें कोई गरिमा या चरित्र नहीं होता और परमेश्वर उनसे घृणा करता है। मैं जान गई कि अगर मैंने पश्चात्ताप न किया और खुद को न बदला तो एक दिन परमेश्वर मुझे बेनकाब कर हटा देगा। मैं अब और उस तरह का इंसान नहीं बनना चाहती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया। मैंने विनती की कि वह मुझे अपना स्वभाव बदलने में मदद करे और यह शक्ति दे कि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूँ और उसके प्रति और अपने भाई-बहनों के प्रति ईमानदार बन सकूँ।
एक दिन एक बहन ने मुझे परमेश्वर के ये वचन भेजे :
वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, प्रकाशनों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ :
1. परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करो।
2. हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित हो, और जीवन-प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो।
3. उन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति करो, जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए।
4. विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनके कर्तव्यों में बदलाव करो या उन्हें बरखास्त करो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।
5. कार्य के प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और त्रुटियों को तुरंत सुधारने में सक्षम रहो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े।
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—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (1)
परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि हमारी मानवता का मूल्यांकन करने का उसका मानक यह नहीं है कि हम कितने “अच्छे” व्यवहार करते दिखते हैं या कितने लोग हमारे बारे में अच्छा सोचते हैं। बल्कि यह है कि क्या हम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं और क्या हमारे विचारों और कर्मों में सत्य का अभ्यास करने की गवाही है। केवल ऐसे लोगों में ही अच्छी मानवता होती है। मैंने जोआन को अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतते और गैर-जिम्मेदार होते देखा था, साथ ही एडना और ऐन को अपने भ्रष्ट स्वभाव और आपसी द्वेष में जीते हुए देखा था। उनके कार्यों से पहले ही कलीसिया के काम पर असर पड़ रहा था। एक कलीसिया अगुआ के रूप में मुझे उनकी मदद करने के लिए संगति करनी चाहिए थी, उनके कार्यों की प्रकृति को उजागर और गहन-विश्लेषण करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय मैंने उनसे केवल अच्छी बातें कीं और झगड़ा सुलझाने करने का प्रयास किया। जब मैंने कलीसिया के काम को प्रभावित होते देखा, तब भी मैं अपनी अच्छी छवि बनाए रखने की कोशिश करती रही। न केवल मेरे पास सत्य का अभ्यास करने की गवाही नहीं थी, मैं एक कलीसिया अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में भी नाकाम रही थी और मैंने अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में भी रत्तीभर मदद नहीं की थी। पहले मेरा मानना था कि अगर मैं अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से रह सकती हूँ और उन्हें जता सकती हूँ कि मैं मिलनसार और सौम्य हूँ तो मैं एक अच्छी अगुआ हूँ। दरअसल यह एक गलतफहमी है और यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के साथ जरा भी मेल नहीं खाती। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक अच्छा अगुआ वह होता है जो कलीसिया के हितों की रक्षा के लिए सत्य का अभ्यास कर सकता है, जो अपने भाई-बहनों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कर सकता है और उन्हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करा सकता है। जबकि मैं अपने भाई-बहनों की समस्याओं को उजागर या इंगित नहीं कर रही थी या उन्हें सत्य समझने और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने में मदद नहीं कर रही थी। इसके बजाय मैंने अपने अभिमान और छवि की रक्षा के लिए चालें चलीं, मैंने उन्हें दिलासे और उपदेश की बातें सुनाईं और किसी भी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं किया। ऐसा करके मैं अपने भाई-बहनों को मूर्ख बना रही थी और धोखा दे रही थी। तब मुझे एहसास हुआ कि वाकई एक अच्छा अगुआ होने के लिए मेरी कथनी और करनी परमेश्वर के वचनों के मानकों के अनुरूप होनी चाहिए और अगर मैं सत्य का अभ्यास नहीं करती हूँ तो मैं परमेश्वर के प्रतिरोधी मार्ग पर चलूँगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ऐसे लोगों को चाहता है जो उसके वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य कर सकें, न कि ऐसे अगुआओं को जो पारंपरिक सांस्कृतिक गुणों का पालन करते हैं, दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। इस विचार के साथ मुझे एहसास हुआ कि मुझे लोगों के साथ बातचीत करने का तरीका बदलना होगा। मैं भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय या अपने कर्तव्य निभाते समय सांसारिक आचरण के फलसफे का पालन नहीं कर सकती थी। इसके बजाय मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने भाई-बहनों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ सुलझाने में मदद करनी थी, ताकि वे सब सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकें। यही मेरी जिम्मेदारी थी। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य का अभ्यास करने में उससे मार्गदर्शन माँगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे रोशनी में रह सकते हैं और एक सामान्य व्यक्ति के समान जी सकते हैं। अगर तुम रोशनी में रहना चाहते हो, तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए जो ईमानदार बातें कहता हो और ईमानदार चीजें करता हो। मूलभूत बात है अपने आचरण में सत्य-सिद्धांत होना; जब लोग सत्य-सिद्धांत गँवा देते हैं, और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को गुमराह कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। ... कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपना स्वभाव बदलने का मार्ग दिखाया। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करना था और सत्य को अपना मानदंड बनाना था। मुझे खुद को अच्छे लगने वाले व्यवहारों के पीछे छिपाना बंद करना था और सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना था। जब मैंने ऐसी चीजें होते हुए देखीं जो सत्य सिद्धांतों के खिलाफ थीं या जब मैंने भाई-बहनों को भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर अपने कर्तव्यों का पालन करते देखा तो मुझे उनके साथ ईमानदार होने और सिद्धांतों के अनुसार उनके साथ व्यवहार करने की आवश्यकता थी। जब किसी को संगति के जरिए मदद की जरूरत थी तो मुझे संगति कर उसकी मदद करने की जरूरत थी; जब किसी को कोई चीज बताने की जरूरत थी तो मुझे उसे बता देना था; जब किसी की काट-छाँट करने की जरूरत थी तो मुझे उसकी काट-छाँट करनी थी। ये चीजें करके ही भाई-बहनों को यह एहसास हो सकता था कि उनके कर्तव्य निभाने के तरीके में विचलन है और वे समय रहते चीजों को बदल सकते थे। वाकई उनकी मदद करने का यही एकमात्र तरीका था। मुझे उनके साथ अपने संबंधों को परमेश्वर के वचनों की नींव पर बनाना था; लोगों के बीच एक सामान्य संबंध ऐसा ही होना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने का मार्ग समझने के बाद मैंने खुद से कहा “दूसरों की गलतियों के बारे में बात करने से मत डरो और हर समय उनसे सिर्फ अच्छी बातें मत करो। परमेश्वर उनसे नफरत करता है जो खुद को छिपाकर दूसरों को धोखा देते हैं। मेरी कथनी और करनी परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होनी चाहिए और मुझे सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए।” बाद में जब मैंने जोआन को फिर से आलसी होते देखा, भले ही मुझे अभी भी चिंता थी कि अगर मैंने उसे सीधे बताया तो मैं उसके दिल में अपनी अच्छी छवि गँवा दूँगी, मैंने परमेश्वर के वचनों के उन अंशों के बारे में सोचा जो मैंने पहले पढ़े थे और महसूस किया कि मैं अपने व्यवहार और आचरण में अभी भी सौम्य और मिलनसार बनने के विचार का अनुसरण कर रही हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और सत्य का अभ्यास करने में उससे मार्गदर्शन माँगा। उसके बाद मैं जोआन के पास गई और उससे कहा, “चूँकि तुम अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो, इसलिए बहुत से नए सदस्य सभाओं में नहीं आ रहे हैं। तुम्हारा इस तरह कर्तव्य निभाने के कारण नए सदस्यों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य में वास्तव में देरी हो रही है।” उसकी समस्या बताने के बाद मैंने अपने अनुभवों पर भी संगति की। मुझे लगा कि वह गुस्से में आकर मेरी अनदेखी कर देगी, लेकिन जो हुआ उसने मुझे चौंका दिया। न केवल उसे गुस्सा नहीं आया बल्कि उसने आत्म-चिंतन भी किया और कहा, “यह मेरी कमी है और मुझे इसे बदलने की आवश्यकता है।” उसके बाद जोआन ने अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाना शुरू कर दिया और जिन नए सदस्यों को उसने सींचा था वे नियमित रूप से सभाओं में आने लगे। हमारा रिश्ता नहीं टूटा क्योंकि मैंने सलाह देकर उसकी मदद की थी, दरअसल हमारा रिश्ता और बेहतर हो गया। बाद में जब मैंने उसे फिर से किसी तरह की भ्रष्टता उजागर करते देखा तो मैंने उसे सीधे बताया, और वह मेरी सलाह स्वीकारने और खुद को जानने में सक्षम हो गई। अब अपने कर्तव्य के प्रति उसका रवैया बहुत बदल गया है और उसे कलीसिया अगुआ चुना गया है। मैंने एडना और ऐन की समस्याएँ भी बताईं। एडना को अपने अहंकार और घमंड का एहसास हुआ और उसने कहा कि उसे दूसरों से बात करने का तरीका बदलना होगा। ऐन ने भी अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचाना और कहा कि वह बदलने को तैयार है। इससे मुझे बहुत खुशी हुई। परमेश्वर का धन्यवाद! केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों को बदल सकते हैं!
इन अनुभवों ने मुझे दिखाया कि वाकई अच्छा व्यक्ति वह नहीं है, जैसा कि लोग मानते हैं, जो दिखने में अच्छा व्यवहार करता है। अच्छा व्यक्ति वह है जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करता है और आचरण करता है, सत्य का अभ्यास करता है और ईमानदार रहता है। ऐसे ही व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि जब मैं भाई-बहनों में समस्याएँ देखती हूँ तो मुझे तुरंत उनके साथ संगति करनी चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए और जरूरत पड़ने पर उन्हें उजागर करना चाहिए और उनकी काट-छाँट करनी चाहिए। लोगों को उनकी अपनी भ्रष्टता और कमियों का एहसास कराने में मदद करने का यही एकमात्र तरीका है, ताकि वे अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य खोज सकें और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकें—मेरे लिए अपने भाई-बहनों की मदद करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। अब मैं उनकी समस्याएँ बताने से नहीं डरती। चाहे वे मेरे बारे में कुछ भी सोचें, मैं एक ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करूँगी, सिद्धांतों पर चलूँगी और कलीसिया के काम की रक्षा करूँगी। परमेश्वर का धन्यवाद!