9. धर्म में रहकर सत्य नहीं मिल सकता
जब मैं बच्ची थी, तो अपने माता-पिता की तरह मैं भी प्रभु में पूरे उत्साह से आस्था रखती थी और कलीसिया की सभी गतिविधियों में, चाहे वे जो भी हों, बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। अपनी आय का दसवां हिस्सा दशमांश के रूप में देती और हमेशा कलीसिया की सेवकाई में शामिल होती थी। इसके कारण मैं कलीसिया की उपयाजक बन गई, और 30 साल की उम्र में, कलीसिया की एल्डर बन गई। लेकिन इतने सालों की आस्था के बाद भी कुछ तो ऐसा था जो मुझे परेशान कर रहा था। मैंने प्रभु यीशु के वचन देखे : “हर वो व्यक्ति जिसने मुझ प्रभु को प्रभु कहा, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा; बल्कि वो करेगा जो स्वर्ग में रहने वाले मेरे पिता की इच्छा के अनुसार चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:21-23)। इसने मुझे भ्रमित कर दिया। क्या हम ही वो लोग नहीं हैं जो प्रभु के नाम पर प्रचार और कार्य कर रहे थे, और “प्रभु, प्रभु” किसने पुकारा? प्रभु ने क्यों कहा कि वह ऐसे लोगों को नहीं जानता, क्यों कहा कि ऐसे लोग कुकर्मी होते हैं? क्या हमारे लिए यह उसका इरादा नहीं था कि हम इस तरह उसके लिए कड़ी मेहनत करें? तो फिर प्रभु का इरादा क्या है? मैं कभी जवाब नहीं ढूंढ़ पाई।
मार्च 2020 में एक दिन एक बहन ने मुझे ऑनलाइन एक प्रवचन सुनने के लिए बुलाया। मैंने सोचा, “महामारी के दौरान हम कलीसिया नहीं जा सकते, तो सुनना अच्छा रहेगा।” मैं खुशी-खुशी मान गई। उस ऑनलाइन सभा में बहन मौरीन ने इस बारे में संगति की कि बुद्धिमान और मूर्ख कुंवारियों का क्या मतलब है, मसीह कौन है, स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर, वगैरह के बारे में संगति की। मुझे लगा कि वह इन बातों के बारे में बहुत अच्छा बोलती है। इन तमाम मुद्दों के बारे में मैं अपने उपदेशों में स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाती थी, तो उसकी संगति मुझे बहुत अच्छी लगी। उसने यह भी कहा, “हम प्रभु के सभी विश्वासी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की आशा रखते हैं, लेकिन कैसे लोग उसमें प्रवेश कर सकते हैं?” फिर उसने बाइबल के ये पद पढ़े : “हर वो व्यक्ति जिसने मुझ प्रभु को प्रभु कहा, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा; बल्कि वो करेगा जो स्वर्ग में रहने वाले मेरे पिता की इच्छा के अनुसार चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:21-23)। वह बोली, “प्रभु कहता है, सभी विश्वासी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाले ही प्रवेश कर सकते हैं। तो परमेश्वर की इच्छा का पालन करने का क्या अर्थ है? बहुत से लोग सोचते है कि अगर वे अधिक सेवकाई करते हैं, बाइबल पढ़ते हैं, प्रार्थना करते हैं, और बहुत से नेक कर्म करते हैं, तो वे परमेश्वर की इच्छा का पालन कर रहे हैं, और जब प्रभु लौटेगा, तब वे राज्य में प्रवेश करेंगे। क्या यह नजरिया सही है? परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है? यहूदी धर्म के फरीसियों ने एक धर्मांतरित व्यक्ति को जीतने के लिए पूरी पृथ्वी और समुद्र की यात्रा की और बहुत-से अच्छे कर्म किए, लेकिन जब प्रभु यीशु ने आकर बहुत सारे सत्य व्यक्त किए, तो उन्होंने उसे प्रभु के रूप में नहीं पहचाना। उन्होंने उसका जमकर विरोध निंदा की, यहाँ तक कि उसे सूली पर चढ़ा दिया और अंत में कुकर्मी बन गए। इससे हम देख सकते हैं कि स्वर्गिक परमपिता की इच्छा का पालन करना केवल सुसमाचार का प्रचार करना, बाइबल पढ़ना, प्रार्थना करना और अच्छे कर्म करना ही नहीं है, जैसी कि हम कल्पना करते हैं। एक ईसाई को जो कुछ करना चाहिए, यह उसका एक पहलू मात्र है। तो स्वर्गिक परमपिता की इच्छा का पालन करने के असली मायने क्या हैं? बाइबल कहती है : ‘इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ’ (लैव्यव्यवस्था 11:45)। ‘पवित्रता के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा’ (इब्रानियों 12:14)। इससे हम देख सकते हैं, परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे पवित्र होकर पाप से मुक्त हो जाएँ। इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हों, उसके वचन सुनें, आगे से पाप न करें, उसका विरोध न करें या उसे धोखा न दें, और उसके कार्य को समर्पित होने और उसे स्वीकारने में सक्षम हों, भले ही वह मानवीय धारणाओं से मेल न खाए। केवल इस तरह का व्यक्ति ही परमेश्वर की इच्छा का पालन करता है और वही उसके राज्य में रहेगा। हालाँकि हम प्रभु में विश्वास रखते हैं, उसके लिए त्याग करते और खुद को खपाते हैं, फिर भी हम अक्सर झूठ बोलते हैं, पाप करते हैं, सहकर्मियों के साथ ईर्ष्या और बैर रखते हैं। विपत्तियाँ और बीमारियाँ आने पर परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं और उसे धोखा तक देते हैं। क्या यह वाकई परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है?” उसकी संगति के बाद अचानक मुझ पर यह प्रकट हुआ : परमेश्वर की इच्छा का पालन करना यह नहीं है कि हम बाहरी तौर पर कितने व्यस्त हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या हम उसके वचन सुनते हैं, उसके प्रति समर्पित होते हैं, और पाप करना और उसका विरोध करना बंद करते हैं। लेकिन हम अभी भी अक्सर पाप करते हैं, हम दिन में पाप करके रात को कबूल करने की हालत में जीते हैं। हम पाप से बचे नहीं हैं और हम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते, अगर हमारी इच्छा के विरुद्ध कुछ हो जाए, तो हम नाराज होकर प्रभु की शिकायत करते हैं। हम परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी पालन नहीं कर रहे।
इसके बाद मौरीन हर सभा में मेरे साथ कुछ वचन साझा करने लगी। मुझे लगा कि ये वचन अच्छे और नए हैं और बहुत उज्ज्वल लगते हैं। धीरे-धीरे मुझे इस तरह की सभाएँ अच्छी लगने लगीं, और अगली सभा का इंतजार रहने लगा। तभी मैंने जाना कि मैं जिन उपदेशों का प्रचार करती थी और पादरी जो उपदेश देते थे, वे तो मात्र शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं जिनसे हम लोगों को प्रोत्साहित करते थे। सच तो यह है कि हमें परमेश्वर और सत्य की बिल्कुल भी समझ नहीं थी। लेकिन जब मैं भाई-बहनों से ऑनलाइन मिलती और उनकी संगति सुनती, तो मुझे बहुत आनंद आता और लगता कि मेरा पोषण किया जा रहा है, साथ ही मुझे स्वतंत्रता और राहत महसूस होती। अगर मुझे बाइबल समझ न आती या मुझे किसी और चीज का पता न होता, तो मैं प्रश्न पूछ लेती थी और मुझे हमेशा वहाँ जवाब मिल जाते थे। इतना तो मुझे कभी अपनी कलीसिया की सभाओं में भी नहीं मिला था।
एक सभा के दौरान मौरीन ने मुझे पढ़ने के लिए एक अंश भेजा : “मैं कभी यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीहा भी कहा जाता था, और लोग कभी मुझे प्यार और सम्मान से उद्धारकर्ता यीशु भी कहते थे। किंतु आज मैं वह यहोवा या यीशु नहीं हूँ, जिसे लोग बीते समयों में जानते थे; मैं वह परमेश्वर हूँ जो अंत के दिनों में वापस आया है, वह परमेश्वर जो युग का समापन करेगा। मैं स्वयं परमेश्वर हूँ, जो अपने संपूर्ण स्वभाव से परिपूर्ण और अधिकार, आदर और महिमा से भरा, पृथ्वी के छोरों से उदित होता है। लोग कभी मेरे साथ संलग्न नहीं हुए हैं, उन्होंने मुझे कभी जाना नहीं है, और वे मेरे स्वभाव से हमेशा अनभिज्ञ रहे हैं। संसार की रचना के समय से लेकर आज तक एक भी मनुष्य ने मुझे नहीं देखा है। यह वह परमेश्वर है, जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्यों पर प्रकट होता है, किंतु मनुष्यों के बीच में छिपा हुआ है। वह सामर्थ्य से भरपूर और अधिकार से लबालब भरा हुआ, दहकते हुए सूर्य और धधकती हुई आग के समान, सच्चे और वास्तविक रूप में, मनुष्यों के बीच निवास करता है। ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसका मेरे वचनों द्वारा न्याय नहीं किया जाएगा, और ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसे जलती आग के माध्यम से शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंततः मेरे वचनों के कारण सारे राष्ट्र धन्य हो जाएँगे, और मेरे वचनों के कारण टुकड़े-टुकड़े भी कर दिए जाएँगे। इस तरह, अंत के दिनों के दौरान सभी लोग देखेंगे कि मैं ही वह उद्धारकर्ता हूँ जो वापस लौट आया है, और मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है। और सभी देखेंगे कि मैं ही एक बार मनुष्य के लिए पाप-बलि था, किंतु अंत के दिनों में मैं सूर्य की ज्वाला भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को जला देती है, और साथ ही मैं धार्मिकता का सूर्य भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को प्रकट कर देता है। अंत के दिनों में यह मेरा कार्य है। मैंने इस नाम को इसलिए अपनाया और मेरा यह स्वभाव इसलिए है, ताकि सभी लोग देख सकें कि मैं एक धार्मिक परमेश्वर हूँ, दहकता हुआ सूर्य हूँ और धधकती हुई ज्वाला हूँ, और ताकि सभी मेरी, एक सच्चे परमेश्वर की, आराधना कर सकें, और ताकि वे मेरे असली चेहरे को देख सकें : मैं केवल इस्राएलियों का परमेश्वर नहीं हूँ, और मैं केवल छुटकारा दिलाने वाला नहीं हूँ; मैं समस्त आकाश, पृथ्वी और महासागरों के सारे प्राणियों का परमेश्वर हूँ” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, उद्धारकर्ता पहले ही एक “सफेद बादल” पर सवार होकर वापस आ चुका है)। इस अंश को पढ़ लेने पर मौरीन ने मुझसे पूछा, “तुम्हें क्या लगता है यह किसने कहा है?” मैंने उसे तुरंत फिर से पढ़ा। मुझे लगा कि इन वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, और “मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है।” वचनों से मुझे परमेश्वर के प्रताप का आभास हुआ। मुझे यकीन था कि ये वचन परमेश्वर ने कहे हैं, क्योंकि कोई इंसान ऐसी बातें नहीं कह सकता। कोई भी मशहूर व्यक्ति, महापुरुष या धर्मगुरु ऐसी बातें नहीं कह सकता। मैंने मौरीन से कहा, “जाहिर है, यह परमेश्वर ने कहा है, क्योंकि केवल स्वयं परमेश्वर ही जानता है कि वह क्या करने वाला है, कोई इंसान यह कहने की हिम्मत नहीं करेगा : ‘मैं कभी यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीहा भी कहा जाता था, और लोग कभी मुझे प्यार और सम्मान से उद्धारकर्ता यीशु भी कहते थे।’” मेरा जवाब सुनकर, वह जोश में बोली, “आमीन! यह परमेश्वर की वाणी है! परमेश्वर की वाणी पहचान सकने वाले बुद्धिमान कुंआरियां हैं और उन्हें आशीष मिलता है।” मैंने ये वचन बाइबल में कभी नहीं पढ़े थे, इसलिए जानने को उत्सुक थी कि ये वचन आए कहाँ से। यह तब पता चला जब उसने कहा कि प्रभु यीशु सर्वशक्तिमान परमेश्वर, उद्धारक के रूप में लौट आया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने पुस्तक खोलकर सात मुहरें तोड़ दी हैं, ये वचन पुस्तक से ही हैं और अंत के दिनों में परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य हैं। यह सुनकर मैं बहुत उत्साहित हुई और सोचा, “पुस्तक खोल दी गई है? तब तो मुझे तुरंत परमेश्वर के वचन पढ़ने होंगे!” उसने संगति जारी रखते हुए कहा, “प्रभु यीशु अंत के दिनों में लौटता है। वह प्रकट होकर ‘सर्वशक्तिमान परमेश्वर’ के नाम से कार्य करता है। उसने बहुत से सत्य व्यक्त किए हैं, वह परमेश्वर के घर से न्याय का कार्य शुरू करता है, जो कि लोगों को पूरी तरह शुद्ध करने और बचाने का कार्य है। हम परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करके ही अपने पाप और भ्रष्टता को दूर कर शुद्ध हो सकते हैं। हम तभी बचाए जा सकते हैं और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। अंत के दिनों में परमेश्वर का नया नाम, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, प्रकाशितवाक्य की भविष्यवाणियाँ साकार करता है : ‘मैं अल्फा और ओमेगा हूँ, आरंभ और अंत, ... जो है, जो था और जो आने वाला है, सर्वशक्तिमान’ (प्रकाशितवाक्य 1:8)। ‘हल्लिलूय्याह! क्योंकि प्रभु हमारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान राज्य करता है’ (प्रकाशितवाक्य 19:6)। यहोवा, यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सभी परमेश्वर के ही नाम हैं। हालाँकि हर युग में परमेश्वर का एक अलग नाम होता है, लेकिन वह एक ही परमेश्वर और एक ही आत्मा है।” उसकी संगति सुनकर ही मुझे पता चला कि अंत के दिनों में परमेश्वर के नए नाम की भविष्यवाणी बहुत पहले ही प्रकाशितवाक्य में कर दी गई थी, लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया था। मैं केवल इतना जानती थी कि परमेश्वर स्वाभाविक तौर पर सर्वशक्तिमान है। मुझे कभी लगा ही नहीं कि “सर्वशक्तिमान परमेश्वर” वह नाम है जिसका उपयोग परमेश्वर अंत के दिनों में लौटने पर करता है। मैं बहुत खुश और जोश में थी। अब पता चला कि परमेश्वर पहले ही लौट चुका है, और वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है! उसने मुझसे यह भी कहा, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने 30 साल पहले, 1991 में प्रकट होकर काम करना शुरू किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सत्य के लाखों वचन व्यक्त किए हैं जो सबके लिए इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। अब उसके वचन पूरब से पश्चिम तक, दुनिया के कई देशों में फैल चुके हैं। अधिक से अधिक लोग परमेश्वर की वाणी सुनकर अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार रहे हैं। यह प्रभु यीशु की इस भविष्यवाणी को साकार करता है : ‘जैसे बिजली पूर्व से निकलकर पश्चिम तक चमकती है, वैसे ही मनुष्य के पुत्र का भी आना होगा’ (मत्ती 24:27)।” मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। अब पता चला कि चमकती पूर्वी बिजली परमेश्वर का प्रकटन और कार्य है। कुछ साल पहले, मैंने अखबार में पढ़ा था कि चमकती पूर्वी बिजली ने प्रभु के लौटने की गवाही दी है। लेकिन उस समय, अधिकांश पादरियों और एल्डरों ने इसकी निंदा की थी और विश्वासियों को पूर्वी बिजली का उपदेश नहीं सुनने दिया था, इसलिए मुझे लगा कि यह सच्चा मार्ग नहीं है। मैंने इसकी खोज और जांच नहीं की और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़े। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है, और 30 साल पहले प्रकट होकर कार्य कर रहा है। मुझे थोड़ी चिंता हुई, लगा बहुत पीछे छूट गई हूँ, इसलिए मैं परमेश्वर के और वचन पढ़ना चाहती थी। मौरीन के साथ परमेश्वर के वचनों पर सभा और संगति के माध्यम से कुछ समय बाद मैं इस बारे में कुछ समझ पाई कि परमेश्वर ने अंत के दिनों में कार्य करने के लिए देहधारण क्यों किया। मैंने यह भी जाना कि परमेश्वर न्याय का कार्य करने के लिए अपने वचनों का उपयोग कैसे करता है, हमें शुद्ध होकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए इस न्याय का अनुभव कैसे करना चाहिए, आदि। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने ये सभी रहस्य प्रकट किए हैं और बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं जिससे प्रभु यीशु की भविष्यवाणी साकार होती है : “जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना 16:13)। मुझे पक्का यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही प्रभु यीशु का दूसरा आगमन है। उसके बाद, मेरी बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों की एक पुस्तक भेजी। हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने आध्यात्मिक पोषण पाया।
इसके बाद मैं लगभग हर सभा में जाने लगी। लेकिन सभाओं के समय अक्सर टकराते थे, क्योंकि मैं अभी भी अपनी कलीसिया की सेवाओं में शामिल होती थी। मैंने सोचा, “क्या अपनी कलीसिया छोड़ दूँ?” लेकिन मैं 18 साल से एल्डर थी। हर कार्यकाल चार वर्ष का था और मेरे वर्तमान कार्यकाल का एक साल अभी बाकी था। अगर मैं कार्यकाल के बीच में कलीसिया छोड़ दूँ तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं उन्हें ऐसा तो नहीं लगेगा कि मैं लापरवाह हूँ और प्रभु के प्रति मेरी कोई निष्ठा नहीं है? लेकिन फिर सोचा, प्रभु तो लौट आया है, तो क्या मुझे धर्म में बने रहना चाहिए? मैं अच्छी तरह जानती थी कि उपदेश-मंच से पादरी जो कुछ कह रहे थे, उससे अब विश्वासियों का पोषण संभव नहीं था। वे बार-बार प्रभु यीशु के संकेतों और चमत्कारों की चर्चा करते थे और अक्सर प्रभु का अनुकरण करने, पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने, धैर्य रखने, आदि की बात करते थे। दशकों से, पादरी शब्दों और धर्म-सिद्धांत की उन्हीं पुरानी, घिसी-पिटी बातों का प्रचार कर रहे थे और मैं भी भाई-बहनों का कोई पोषण नहीं कर पा रही थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि धार्मिक दुनिया कुछ समय से उजड़ चुकी है। इस पर विचार करते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं कलीसिया छोड़ना चाहती हूँ, लेकिन मुझे अभी भी चिंता है, मुझे चिंता है कि भाई-बहन मेरे बारे में उल्टा-सीधा बोलेंगे। परमेश्वर, मैं क्या करूँ? मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करते-करते मुझे बाइबल की ये बातें याद आईं : “ऐसे दिन आते हैं, जब मैं इस देश में महँगी करूँगा; उस में न तो अन्न की भूख और न पानी की प्यास होगी, परन्तु यहोवा के वचनों के सुनने ही की भूख प्यास होगी” (आमोस 8:11)। “जब कटनी के तीन महीने रह गए, तब मैं ने तुम्हारे लिये वर्षा न की; मैं ने एक नगर में जल बरसाकर दूसरे में न बरसाया; एक खेत में जल बरसा, और दूसरा खेत जिस में न बरसा, वह सूख गया” (आमोस 4:7)। मुझे अकालग्रस्त इस्राएल के सात वर्ष याद आए, जब वहाँ अन्न का एक दाना तक नहीं था और यूसुफ के भाई अन्न मांगने मिस्र गए। अब सारा धार्मिक जगत अकालग्रस्त था, जिसमें पवित्र आत्मा के कार्य का अभाव था। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया में मैंने परमेश्वर के वर्तमान वचन खाए-पीए थे, वास्तविक रोशनी और पवित्र आत्मा का स्पष्ट मार्गदर्शन प्राप्त किया था। अगर मैंने जल्दी से नहीं पकड़ा, तो पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा मुझे हटा दिया जाएगा। अब मुझे ऐसी कलीसिया मिल गई थी जहाँ पवित्र आत्मा का कार्य था, मैंने परमेश्वर की वाणी सुनकर प्रभु का स्वागत किया था, इसलिए मुझे उस उजड़े धर्म में नहीं बने रहना चाहिए। इसके बाद, अगर मेरे लिए कार्य निर्धारित न किया जाता, तो मैं कलीसिया न जाती। लेकिन चूँकि मैं एल्डर थी, इसलिए मैं वहाँ कभी-कभार आराधना करने चली जाती।
छः महीने बाद, एक दिन, मैंने इंटरनेट पर एक मंच नाटक देखा, “एक समझदार फ़ैसला।” कहानी ने मुझे बहुत प्रेरित किया। मुख्य किरदार, ली मिंगझी, कस्बाई सरकार का एक अधिकारी था। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर, उसे थोड़ा-बहुत सत्य समझ आया। उसने बरसों सीसीपी के लिए की गई अपनी सेवा और दुष्टता के अनुसरण पर विचार किया। उसे एहसास हुआ कि वह तबाही की राह पर चल रहा है, और उसने स्पष्ट देखा कि केवल मसीह का अनुसरण करके और परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर ही वह सत्य और जीवन पा सकता है। उसने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि वह नौकरी छोड़कर परमेश्वर को समर्पित होने का संकल्प ले चुका है। जब उसकी पत्नी को पता चला तो उसने कड़ा विरोध किया, घरवालों ने उसे परमेश्वर में आस्था न रखने के लिए दबाव डाला। इस तरह घेरे जाने पर भी उसने समझौता नहीं किया, उसने उनसे बहस की, आखिरकार, उसने अडिग रहकर नौकरी छोड़ दी और परमेश्वर का अनुसरण करने लगा। फिर मैंने अपने बारे में सोचा। अगर धर्म में रहकर मैंने पूरे दिल से परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया, तो मुझे सत्य कभी प्राप्त नहीं होगा, और परमेश्वर मुझे हटा देगा। इतना ही नहीं, इस दौरान परमेश्वर के वचनों पर सभा और संगति करके मैंने धार्मिक दुनिया के परमेश्वर-विरोधी तथ्य को भी एकदम साफ तौर पर देखा। मुझे लगा जैसे परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन कर रहा है और अब धर्म छोड़ने का समय आ गया है।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य कई साल पहले ताइवान तक फैल गया था। उस समय, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन अखबारों में प्रकाशित हुए थे, लेकिन ताइवान के धार्मिक मंडलों ने संयुक्त रूप से चमकती पूर्वी बिजली के बहिष्कार की घोषणा की, जिस पर बहुत से पादरियों ने भी हस्ताक्षर किए। इन पादरियों को बहुत पहले से पता था कि प्रभु लौट आया है, लेकिन उन्होंने खोज और जाँच-पड़ताल नहीं की और न ही दूसरों को प्रभु के लौटने का समाचार सुनाया। यहाँ तक कि वे परमेश्वर का विरोध करने और ताइवान में उसके राज्य का सुसमाचार फैलने से रोकने के लिए एकजुट भी हो गए। इसने मुझे दो हजार साल पुराने मुख्य याजकों, शास्त्रियों और फरीसियों की याद दिला दी। उन्हें अच्छी तरह पता था कि प्रभु यीशु के वचन और कार्य में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने प्रभु यीशु को मसीहा नहीं माना क्योंकि उन्हें डर था कि सारे विश्वासी उसके पीछे चल पड़ेंगे जिससे उनका रुतबा और आय जाती रहेगी। इसलिए उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना और निंदा करने के लिए अफवाहें फैलाईं। वही आज की धार्मिक दुनिया में भी हो रहा है। पादरियों को डर है कि अगर सभी लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखकर कलीसिया जाना छोड़ देंगे, तो न भेंट आएगी और न ही उन्हें वेतन मिलेगा, तो अपने रुतबे और आय को बनाए रखने के लिए, उन्होंने एकजुट होकर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की निंदा और विरोध किया। प्रभु यीशु ने फरीसियों को शाप देते हुए जो कहा था, मुझे वह याद आ गया : “हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो। ... हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो” (मत्ती 23:13-15)। धार्मिक दुनिया के ये पादरी अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभु लौट आया है और उसने कई सत्य व्यक्त किए हैं, पर वे इसकी खोज या जाँच-पड़ताल नहीं करते, वे लोगों को गुमराह कर परमेश्वर के नए कार्य का पता लगाने से रोकते हैं और विश्वासियों को प्रभु का स्वागत करने से भी रोकते हैं। ये धर्मगुरु बेहद घृणित हैं! वे प्रभु के सच्चे अनुयायी नहीं, बल्कि आधुनिक फरीसी हैं।
एक सभा के दौरान, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते और याद करके सुनाते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें परेशान करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे ‘मज़बूत देह’ वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को समर्पित हुए बैठे हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे एहसास हुआ कि धार्मिक दुनिया के पादरियों को वेतन भाई-बहनों द्वारा परमेश्वर को दी जाने वाली भेंटों से दिया जाता है, फिर भी वे लोगों को उससे विमुख करते हैं, उनसे प्रभु का स्वागत करने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का अवसर छीनते हैं। क्या वे लोगों की आत्मा को निगल जाने वाले शैतान नहीं हैं? मैंने यह भी विचार किया कि कैसे कलीसियाओं ने महामारी के कारण सभी सेवाएँ निलंबित कर दी थीं। एक बैठक के दौरान पादरियों ने भाई-बहनों की आय बढ़ाने के एक उपाय के तौर पर उनके द्वारा उगाई गई फसलें समिति कार्यालय के बाहर बेचे जाने के बारे में चर्चा की, जिससे वे अपना दशमांश देना जारी रख सकें। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने इसका कड़ा विरोध किया। मैंने कहा, “बतौर पादरी, आपको लोगों के जीवन की परवाह करनी चाहिए। आप लोग केवल पैसे के बारे में कैसे सोच सकते हैं?” महासचिव ने मुझसे कहा, “जब कलीसिया सभाएँ स्थगित करती है, तो भाई-बहनों की भेंट घट जाती है, इससे कलीसिया की आय काफी कम हो जाती है।” मैंने देखा कि पादरियों को केवल अपने वेतन और आय की चिंता है, भाई-बहनों का सिंचन करने और उनकी आस्था मजबूत करने की नहीं। वे पाखंडी फरीसी थे जिनके बारे में प्रभु यीशु ने बात की थी। वे भाई-बहनों द्वारा परमेश्वर को दी जाने वाली भेंटों के लालची थे और उनके जीवन की परवाह नहीं करते थे। वे लोगों को प्रभु का स्वागत करने से भी रोकते थे और विश्वासियों पर शिकंजा कसे रखने की कोशिश करते थे। मुझे पादरियों का असली चेहरा साफ नजर आ गया। ये धार्मिक पादरी असल में मसीह-विरोधी थे जो परमेश्वर को नकारते और उसका विरोध करते थे। बरसों प्रभु में आस्था रखने के बाद, आखिरकार मैंने उन्हें पहचान लिया था। मैं अंततः जाग गई थी। मैंने परमेश्वर को कृपा करने, उसकी वाणी सुनने और अंत के दिनों में उसके कार्य को स्वीकारने का अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। वरना मैंने बुराई और परमेश्वर का विरोध करने में पादरियों का अनुसरण किया होता और अपने उद्धार का अवसर गँवा दिया होता।
फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन का एक वीडियो पाठ देखा : “क्या अब तुम लोग सचमुच समझ गए हो कि धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था का क्या अर्थ है? क्या धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था में कोई अंतर है? यह अंतर कहाँ है? क्या तुम इन सवालों की जड़ तक पहुंच गए हो? धर्म में विश्वास करने वाले आम तौर पर कैसे लोग होते हैं? उनके ध्यान का केंद्र क्या होता है? धर्म में विश्वास को कैसे परिभाषित किया जा सकता है? धर्म में विश्वास करना यह स्वीकार करना है कि एक परमेश्वर है, और धर्म में विश्वास करने वाले अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करते हैं : वे लोगों को मारते-पीटते या उनके साथ गाली-गलौज नहीं करते, वे लोगों को नुकसान पहुँचाने वाले बुरे काम नहीं करते, और वे विभिन्न अपराध नहीं करते या कानून नहीं तोड़ते। रविवार को, वे कलीसिया में जाते हैं। ये धर्म में विश्वास करने वाले लोग होते हैं। इसका मतलब है कि अच्छा व्यवहार करना और अक्सर सभा में भाग लेना इस बात का प्रमाण है कि इंसान धर्म में विश्वास करता है। जब कोई धर्म में विश्वास करता है, तो वह स्वीकार करता है कि एक परमेश्वर है, और उसे लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छा इंसान होना है; अगर वह पाप या बुरे काम नहीं करता, तो मरने के बाद वह स्वर्ग में जा सकेगा, उसका एक अच्छा परिणाम होगा। उसकी आस्था उसे आध्यात्मिक स्तर पर पोषण देती है। इसलिए, धर्म में विश्वास को इस तरह भी परिभाषित किया जा सकता है : धर्म में विश्वास करना, अपने दिल में यह स्वीकार करना है कि एक परमेश्वर है, और यह विश्वास करना है कि मरने के बाद तुम स्वर्ग में जा सकोगे, इसका मतलब है दिल में एक आध्यात्मिक संबल होना, अपने व्यवहार को थोड़ा बदलना, और एक अच्छा व्यक्ति होना। बस इतना ही। जहां तक इस बात का संबंध है कि वे जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वह मौजूद है या नहीं, क्या वह सत्य व्यक्त कर सकता है, वह उनसे क्या कहता है—उन्हें कुछ भी नहीं पता होता। वे बाइबल की शिक्षा के आधार पर यह सब अनुमान लगाते हैं और कल्पना करते हैं। यह धर्म में विश्वास है। धर्म में विश्वास मुख्य रूप से व्यवहारगत परिवर्तन और आध्यात्मिक पोषण की खोज है। लेकिन जिस मार्ग पर ये लोग चलते हैं—आशीषों के पीछे दौड़ने का मार्ग—वह नहीं बदला है। परमेश्वर में आस्था के बारे में उनके गलत विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं में कोई बदलाव नहीं आया है। उनके अस्तित्व की नींव, और अपने जीवन में वे जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करते हैं, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और मतों पर आधारित होते हैं और वे बिल्कुल नहीं बदले हैं। धर्म में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति की यही अवस्था होती है। तो परमेश्वर में आस्था क्या है? परमेश्वर में आस्था की परमेश्वर की परिभाषा क्या है? (परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास।) यह परमेश्वर के अस्तित्व और उसकी संप्रभुता में विश्वास होना है—ये सबसे बुनियादी चीजें हैं। परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना, परमेश्वर के वचनों के अनुरूप रहना, जीना, अपना कर्तव्य निभाना और सामान्य मानवता की सभी गतिविधियों में संलग्न होना है। निहितार्थ यह है कि परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर का अनुसरण करना है, वह करना है जो परमेश्वर कहता है, उस तरह जीना है जिस तरह परमेश्वर कहता है; परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों के जीवन के लक्ष्य और दिशा धर्म में विश्वास करने वाले लोगों से बिल्कुल अलग नहीं हैं? परमेश्वर में आस्था में क्या शामिल है? इसमें यह शामिल है कि क्या लोग परमेश्वर के वचनों को सुनने, सत्य को स्वीकारने, भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, परमेश्वर के अनुसरण के लिए सब कुछ छोड़ने, और अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाने में सक्षम हैं। इन चीजों का इस बात से सीधा संबंध है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं। अब तुम परमेश्वर में आस्था की परिभाषा जानते हो; तो फिर, परमेश्वर में आस्था का अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए? परमेश्वर अपने विश्वासियों से क्या अपेक्षा रखता है? (कि वे ईमानदार लोग हों, और वे सत्य के अनुसरण, अपने स्वभाव में बदलाव और परमेश्वर के ज्ञान के लिए उत्सुक हों।) लोगों के बाहरी व्यवहार में परमेश्वर क्या अपेक्षाएं करता है? (वह अपेक्षा करता है कि लोग धर्मनिष्ठ हों, स्वच्छंद न हों, और वे सामान्य मानवता के साथ जीवन जिएं।) लोगों में एक संत जैसा बुनियादी शिष्टाचार होना चाहिए और उन्हें सामान्य मानवता का जीवन जीना चाहिए। तो फिर, सामान्य मानवता के लिए मनुष्य के पास क्या होना चाहिए? इसका संबंध उन बहुत-से सत्यों से है जिनका एक विश्वासी के रूप में अभ्यास किया जाना चाहिए। ये सभी सत्य वास्तविकताएं रखने वाला ही सामान्य मानवता रख सकता है। अगर कोई सत्य का अभ्यास नहीं करता तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास रखता है? सत्य का अभ्यास न करने के क्या परिणाम होते हैं? लोगों को उद्धार प्राप्त करने के लिए, और परमेश्वर के सम्मुख समर्पण और उसकी आराधना के लिए, परमेश्वर में किस तरह विश्वास करना चाहिए? इन सब चीजों का संबंध परमेश्वर के वचनों और बहुत-से सत्यों के अभ्यास से है। इसलिए, मनुष्य को परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास करना चाहिए, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर में सच्ची आस्था रखना है। इस मामले का यही मूल है। सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना : यही मानव-जीवन का सही मार्ग है; परमेश्वर में आस्था मानव-जीवन के मार्ग से संबंधित है। परमेश्वर में आस्था बहुत सारे सत्यों से संबंधित है, और परमेश्वर के अनुयायियों को ये सत्य समझने चाहिए। अगर वे सत्य को नहीं समझते और उसे स्वीकार नहीं करते, तो वे परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे यह स्वीकार करते हैं कि एक परमेश्वर है, और यह भरोसा करते हैं कि एक परमेश्वर है—लेकिन वे इन सत्यों को नहीं समझते, न ही वे इन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर के अनुयायी नहीं हैं। धर्म में विश्वास करने के लिए महज बाहरी तौर पर अच्छा आचरण करना, खुद को संयमित रखना, विनियमों का पालन करना, और एक आध्यात्मिक पोषण का होना भर काफी है। अगर लोग अच्छा आचरण करते हैं और अपनी आत्मा के लिए उनके पास एक संबल और पोषण है, तो क्या उनके जीवन का मार्ग बदल जाता है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं कि धर्म में विश्वास करना और परमेश्वर में आस्था रखना एक ही बात है। तो क्या ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप उसमें विश्वास करते हैं? क्या उन्होंने सत्य को स्वीकार किया है? अगर कोई इनमें से कुछ भी नहीं करता तो वह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला या उसका अनुसरण करने वाला नहीं है। किसी व्यक्ति के धर्म में विश्वास रखने का सबसे स्पष्ट तरीका यह है कि वह परमेश्वर के वर्तमान कार्य और उसके द्वारा व्यक्त सत्य को स्वीकार नहीं करता। यह धर्म में विश्वास रखने वालों की प्रवृत्ति को दर्शाता है; वे परमेश्वर के अनुयायी कतई नहीं हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचन कितने सही हैं! मैंने धर्म में अपनी मौजूदगी पर विचार किया, जहाँ रहते हुए न मुझमें पवित्र आत्मा का कार्य था और न ही परमेश्वर के वर्तमान वचनों का सिंचन और पोषण मिलता था। मैं केवल धार्मिक नियमों और संस्कारों का पालन और कुछ नेक कर्म करते हुए दिख सकती थी। किसी भाई-बहन को नकारात्मक होते देखती, तो उसे सहारा देती और अक्सर उस पर हाथ रखकर उसके लिए प्रार्थना करती और सेवकाई में सक्रिय रूप से भाग लेती और सोचती कि यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही पता चला कि मैं धर्म में विश्वास रख रही थी, परमेश्वर में नहीं। ये दिखावे मात्र के अच्छे कर्म थे, मैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या उसके प्रति समर्पण नहीं कर रही थी, और इससे मेरा स्वभाव बदलने वाला नहीं था। मैंने सोचा था कि हम एक अच्छे गंतव्य और अपने उद्धार के लिए कड़ी मेहनत का आदान-प्रदान कर सकते हैं, लेकिन यह सिर्फ मेरा मनोरथ मात्र था, यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं था। मुझे यह भी याद आया कि मैं अक्सर भाई-बहनों से प्रभु का अनुसरण और कड़ी मेहनत करने को कहा करती थी कि जब हम स्वर्ग में प्रवेश करेंगे, तो हमारे हाथ में पाँच-दस शहरों का प्रबंधन होगा। लेकिन अब, परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे लगा कि मेरा उपदेश बेतुका और अवास्तविक था। हममें से किसी ने भी अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय का अनुभव नहीं किया था, हमारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं हुआ था, और हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के बिल्कुल भी योग्य नहीं थे। यह विचार कि जब हम स्वर्ग में प्रवेश करेंगे, तो पाँच-दस शहरों का प्रबंधन करेंगे, कोरी कल्पना थी। परमेश्वर के अनुयायियों के लिए बाहरी तौर पर अच्छे कर्म करना काफी नहीं है। मुख्य बात है परमेश्वर के कार्य और वचनों का अनुभव करना, स्वभाव में बदलाव लाना, उसके प्रति समर्पण और उसकी आराधना करना। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। मैंने देखा कि प्रभु में अपने विश्वास को लेकर मैं भ्रमित रही थी, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसकी परमेश्वर प्रशंसा करे। अगर मैं परमेश्वर में विश्वास रखकर धर्म में बनी रही, तो कभी सत्य नहीं पा सकूँगी। पर फिर मैंने सोचा, चूँकि मैं एल्डर के पद पर थी, इसलिए कलीसिया तो जाना ही था। अगर मैंने कलीसिया छोड़ दी, तो मुझे निकालकर तिरस्कृत किया जाएगा, दूसरे लोग मेरा आदर नहीं करेंगे और सोचेंगे कि मैं प्रभु के प्रति निष्ठावान नहीं हूँ। यह सोचकर मैं झिझक गई। मैंने सोचा उन्हें बता दूँ कि मैंने प्रभु का स्वागत कर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार लिया है, पर जानती थी जैसे ही मैंने यह कहा, पादरी और सहकर्मी मुझे सताएँगे और मुझ पर रोक लगाएँगे। मेरे मन में अंतर्द्वंद्व हो रहा था। मैं यह तो जानती थी कि देर-सवेर मैं धर्म छोड़ दूँगी, लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि अपना इस्तीफा उन्हें कैसे दूँ। मैं इस बारे में अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना और याचना करती।
एक दिन मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा : “परमेश्वर उनकी खोज कर रहा है, जो उसके प्रकट होने की लालसा करते हैं। वह उनकी खोज करता है, जो उसके वचनों को सुनने में सक्षम हैं, जो उसके आदेश को नहीं भूले और अपना तन-मन उसे समर्पित करते हैं। वह उनकी खोज करता है, जो उसके सामने शिशुओं के समान समर्पित हैं और उसका विरोध नहीं करते। यदि तुम किसी भी ताकत या बल से बाधित हुए बिना खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे ऊपर अनुग्रह की दृष्टि डालेगा और तुम्हें अपने आशीष प्रदान करेगा। यदि तुम उच्च पद वाले, सम्मानजनक प्रतिष्ठा वाले, प्रचुर ज्ञान से संपन्न, विपुल संपत्तियों के मालिक हो, और तुम्हें बहुत लोगों का समर्थन प्राप्त है, तो भी ये चीज़ें तुम्हें परमेश्वर के आह्वान और आदेश को स्वीकार करने, और जो कुछ परमेश्वर तुमसे कहता है, उसे करने के लिए उसके सम्मुख आने से नहीं रोकतीं, तो फिर तुम जो कुछ भी करोगे, वह पृथ्वी पर सर्वाधिक सार्थक होगा और मनुष्य का सर्वाधिक न्यायसंगत उपक्रम होगा। यदि तुम अपनी हैसियत और लक्ष्यों की खातिर परमेश्वर के आह्वान को अस्वीकार करोगे, तो जो कुछ भी तुम करोगे, वह परमेश्वर द्वारा श्रापित और यहाँ तक कि तिरस्कृत भी किया जाएगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचनों से समझ आया कि कलीसिया छोड़ने के बारे में मैं कई बार इसलिए झिझकी थी, क्योंकि मैं एल्डर का पद नहीं छोड़ पा रही थी। मेरे रुतबे के कारण ही भाई-बहन मेरा सम्मान करते थे। मेरे साथ उनका व्यवहार अलग था और कोई लाभ पहुँचाने वाली चीज होने पर वे हमेशा मेरे बारे में सोचते थे। मुझे डर था कि कलीसिया छोड़ते ही मैं यह सब गँवा बैठूँगी। मुझे रुतबे की लालसा थी और उससे मिलने वाले लाभों का लालच था। यह उचित मार्ग नहीं था, इससे परमेश्वर नाराज होता है। मुझे साफ पता था कि मुझे रुतबे की बेड़ियों से मुक्त होना है। खुद को न बदलने का मतलब है मैं परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रही हूँ। मुझे यह परिणाम नहीं चाहिए था। मैं अब भाई-बहनों का सम्मान पाने के लिए लालायित नहीं रह सकती थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग मेरी इज्जत करते हैं या नहीं। अहम यह था कि मुझे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है या नहीं। मुझे परमेश्वर के प्रति वफादार होना था, रुतबे के प्रति नहीं। यह जानकर, कलीसिया छोड़ने का मेरा संकल्प और मजबूत हो गया।
एक रविवार मैं हमेशा की तरह कलीसिया गई और सेवा के बाद मैंने सबसे कह दिया कि मैं एल्डर की नौकरी छोड़ रही हूँ। यह सुनकर सब हैरान रह गए और ऐसा न करने के लिए मुझे मनाने लगे। उसके बाद, कुछ पादरियों ने मुझे बुलाकर कहा, एल्डर बनना परमेश्वर के साथ एक वाचा है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। मैंने सोचा, “प्रभु वापस आ गया है, उसने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं और नया कार्य किया है। क्या अब भी मुझे इस वाचा को निभाने और प्रभु का स्वागत न करने की आवश्यकता है?” मुझे याद आया कि कैसे मुख्य याजक, शास्त्री और फरीसी साल भर मंदिर में परमेश्वर की सेवा करते थे, लेकिन जब प्रभु यीशु कार्य करने आया, तो उन्होंने प्रभु की निंदा कर उसका विरोध किया और उसे सूली पर चढ़ा दिया। क्या यही परमेश्वर के प्रति वफादारी थी? वे परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी वफादार नहीं थे। वस्तुतः उन्होंने उसका विरोध किया। आज प्रभु यीशु ने लौटकर नए वचन व्यक्त किए हैं। अगर मैं इस तथाकथित “वाचा” को निभाते हुए कलीसिया में बनी रही, परमेश्वर के वर्तमान वचनों और कार्य के साथ तालमेल नहीं बिठाया, तो यह परमेश्वर के प्रति मेरी वफादारी नहीं है! मैंने प्रभु यीशु की इन बातों पर विचार किया : “मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं” (यूहन्ना 10:27)। परमेश्वर की भेड़ों को उसके वचन सुनने चाहिए और बेझिझक उसका अनुसरण करना चाहिए। इसलिए पादरियों के मनाने की किसी भी कोशिश पर, मैं नहीं डिगी। मुझे धर्म से बाहर निकालने, उसके वर्तमान वचन खाने-पीने देने, और पवित्र आत्मा का कार्य प्रदान करने के लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ, जिसने मुझे वह राहत अनुभव करवाई है, जो मैंने पहले कभी नहीं जानी थी। एल्डर का पद छोड़ने के बाद, अब मैं उपदेश-मंच से नीरस और खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत नहीं बोलती थी। बल्कि, मैंने खुद को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से युक्त करने पर ध्यान दिया, मुझे हर दिन बहुत संतुष्टि महसूस हुई और मेरा दिल आनंद से भर गया।
जल्दी ही, यह बात फैल गई कि मैंने कलीसिया छोड़ दी। दो महीने बाद एक बहन ने एक धार्मिक समूह में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का एक वीडियो पोस्ट किया, तो पादरियों ने कलीसिया में लॉकडाउन करना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि उन्होंने एक संदेश भी जारी किया कि चूँकि किसी ने कलीसिया छोड़ दी है, इसलिए कलीसिया को चमकती पूर्वी बिजली के खिलाफ सावधानी बरतनी पड़ी है। यह खबर सुनकर मैं परेशान हो गई और पादरियों के लिए मुझे अफसोस हुआ। मुझे हमेशा से कहीं ज्यादा यकीन हो गया कि धार्मिक जगत के अधिकांश पादरी सत्य पसंद नहीं करते। उनकी प्रकृति सत्य से विमुख होने और सत्य से नफरत करने की है। उन्हें लगता है कि वे बाइबल और परमेश्वर को जानते हैं, लेकिन असल में वे अंधे हैं जो अंधों की अगुआई कर उन्हें गड्ढे में डाल रहे हैं। अभी भी परमेश्वर की कई भेड़ें बाहर भटक रही हैं और प्रभु की वापसी का स्वागत नहीं कर रही हैं। मुझे उन्हें राज्य का सुसमाचार सुनाना था, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना था, इसलिए मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रचार करना शुरू कर दिया। मैंने कुछ ऐसे लोग देखे हैं जो सच में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और एक-एक कर उसके पास लौट रहे हैं, इससे मैं बहुत खुश और उत्साहित हूँ। मुझे यह भी लगता है कि मेरा हर दिन पूर्ण और सार्थक है। मैं धर्म से बाहर निकालने और अपने पदचिह्नों पर चलने देने के लिए परमेश्वर की आभारी हूँ। इसके लिए मैं वाकई खुद को धन्य समझती हूँ।