10. बचाए जाने के लिए ईमानदार बनना जरूरी है
अगस्त 2021 में मैं नए लोगों का सिंचन करने के लिए एक कलीसिया में आई। कुछ समय बाद मैंने पाया कि एक नई सदस्य का स्वभाव अहंकारी है, वह अक्सर अपने विचारों पर अड़ जाती थी और अपने भाई-बहनों के साथ तालमेल बिठाकर काम नहीं कर पाती थी। जब दूसरों ने उसे उसकी समस्या के बारे में सलाह दी, तो उसने न केवल सुनने से इनकार कर दिया, बल्कि सही-गलत पर बहस भी की और पीठ-पीछे उनकी आलोचना और निंदा की, जिससे वे विवश महसूस कर कलीसिया के काम में बाधा डालने लगे। सैद्धांतिक रूप से उसे बदल दिया जाना चाहिए था। हालाँकि मुझे कुछ चिंताएँ थीं क्योंकि मैं जानती थी कि मुझे इस मुद्दे पर उसके साथ संगति करनी चाहिए, लेकिन मैं पहले कभी अगुआ या कार्यकर्ता नहीं रही थी, मैंने इस विषय पर कभी किसी के साथ संगति नहीं की थी और मुझे नहीं पता था कि मुझे ऐसा कैसे करना चाहिए। लेकिन मैं सुपरवाइजर से पूछना भी नहीं चाहती थी क्योंकि मुझे डर था कि जब उसे पता चलेगा कि मैं यह समस्या तक नहीं सँभाल सकती, तो वह मुझे अक्षम समझेगी और तुरंत मेरी असलियत जान जाएगी और बाद में मुझे महत्व नहीं देगी या मुझे विकसित नहीं करेगी। मैंने इस तथ्य के बारे में भी सोचा कि वह नई सदस्य फ्रांसीसी थी और मैं फ्रांसीसी भाषा ज्यादा अच्छी तरह नहीं बोल पाती। अगर मैं खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाई, तो इससे नई सदस्य नकारात्मक और कमजोर होकर अपनी आस्था से पीछे हट सकती है और यह मेरी गलती होगी। मैंने इस बारे में बार-बार सोचा और सँभालने के लिए ये मामला कलीसिया-अगुआ भाई क्लॉड को सौंप दिया। मुझे एक अच्छा-सा लगने वाला कारण भी मिल गया कि यह क्लॉड के लिए प्रशिक्षण था, ताकि वह अपने बूते समस्याएँ हल करना सीखे। लेकिन बाद में, चूँकि उसने अपनी संगति के दौरान चीजें स्पष्ट रूप से नहीं समझाईं, इसलिए नई सदस्य निराश हो गई, उसे गलतफहमियाँ हो गईं और वह पीछे हट गई और विश्वास करना बंद कर दिया। इस वजह से क्लॉड बहुत हताश हो गया। उसने कहा कि उसने संगति करने में बहुत मूर्खता की। मैं जानती थी कि यह मामला मेरी जिम्मेदारी थी, लेकिन उसके साथ मैं खुलकर अपनी समस्याओं का गहन विश्लेषण नहीं कर पाई। मैंने शांति से उसके साथ संगति की और उसकी गलतियों की जाँच की। मैंने न केवल अपनी वास्तविक स्थिति प्रकट नहीं की, बल्कि उसे गलत ढंग से यह विश्वास भी करने दिया कि मैं समस्याएँ हल करने में बहुत अच्छी थी।
कुछ दिनों बाद एक सभा में अपनी संगति में हमारी अगुआ ने मेरी स्थिति के बारे में इशारा किया। उसने कहा कि एक सिंचन-कर्मी ने बिना जिम्मेदारी लिए अपने कर्तव्य निभाए। समस्या सामने आने पर उसने उसे खुद हल नहीं किया, बल्कि ऐसा करने के लिए उसे एक नए आए अगुआ की ओर बढ़ा दिया, जिसके परिणामस्वरूप समस्या ठीक से हल नहीं हुई और एक नई सदस्य पीछे और हट गई। जब मैंने अगुआ को अपनी समस्या के बारे में इतने दो-टूक तरीके से इशारा करते सुना, तो मैं शर्म से गड़ गई, मुझे लगा कि मेरी इज्जत मिटटी में मिल गई। कई कलीसियाओं के सुपरवाइजर और सिंचन-कर्मी वहाँ मौजूद थे। यह सुनकर वे सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे निश्चित रूप से यही सोचेंगे कि मुझ पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अपनी संगति समाप्त करने के बाद उसने सभी को बोलने दिया। मैंने सोचा, “अगुआ ने यहाँ सीधे बात की और मैं ही उसमें शामिल थी। अगर मैं अभी संगति नहीं करूँगी, तो क्या इससे ऐसा तो नहीं लगेगा कि मेरा काँट-छाँट स्वीकारने का रवैया नहीं है? इससे निश्चित रूप से अगुआ पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा।” अपनी छवि बहाल करने के लिए मैंने पहले संगति की और थोड़ा रिरियाते हुए कहा, “मुझे बहुत पछतावा है कि मैंने ऐसा कुछ होने दिया। मुझे लगता है कि मैं एक बहुत ही गैर-जिम्मेदार इंसान हूँ।” आत्म-ज्ञान का प्रदर्शन करने के बाद मैंने यह कहते हुए खुद को समझाना शुरू किया, “पहले मैंने नई सदस्य की स्थिति के बारे में जानने की कोशिश कर उसके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की थी और उसकी मदद और समर्थन करने का बहुत प्रयास किया था। लेकिन भाषा की बाधा के कारण जब उसे बरखास्त करने की बात आई, तो मैंने ये मामला सँभालने के लिए क्लॉड को दे दिया। मैंने इसके परिणामों पर विचार नहीं किया था, जिसके परिणामस्वरूप नई सदस्य पीछे हट गई।” बातचीत के बाद एक बहन ने मुझे संदेश भेजकर दो-टूक शब्दों में कहा, “तुम्हारे बोलने का लहजा बहुत दब्बू और थोड़ा धूर्ततापूर्ण था। ये असहज लग रहा था, मानो तुम लोगों से कह रही हो कि तुम पहले से ही जानती हो कि तुम गलत हो और वे तुम्हें बार-बार ये न जताएँ।” जब मैंने संदेश पढ़ा, तो मेरा चेहरा लाल हो गया और मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। यह बहुत शर्मनाक था, जैसे कोई चली जा रही चाल उजागर करने के लिए उस पर से पर्दा उठा दे। इसके बाद से मैंने हमेशा बहन के वचन अपने दिल में सँजो लिए। मैंने सोचा, उसने बिना लाग-लपेट के मेरी समस्याओं की ओर इशारा किया और इसके पीछे अवश्य ही परमेश्वर का इरादा रहा होगा। मुझे ठीक से आत्मचिंतन करना चाहिए और खुद को बेहतर समझने की कोशिश करनी चाहिए। आत्मचिंतन करते हुए मैंने महसूस किया कि जब भी मेरी काट-छाँट की जाती, मैं हमेशा स्वेच्छा से अपनी समस्याएँ स्वीकार कर लेती और फिर दूसरों की सहानुभूति और समझदारी बटोरने के लिए दुखी और व्यथित स्वर में अपनी वास्तविक कठिनाइयाँ व्यक्त करती, ताकि हर कोई मेरे प्रति उदार रहे और फिर मुझे जवाबदेह न ठहराए। साथ ही मैं यह भी चाहती थी कि दूसरे लोग यह महसूस करें कि मैं काट-छाँट स्वीकार सकती हूँ और मेरे बारे में वे अच्छे विचार रखें। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरे शब्द चालबाजी से भरे हुए थे। इसके बाद से मैंने परमेश्वर के वचन खाते-पीते समय इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया।
एक दिन मुझे बाइबल में परमेश्वर और शैतान के बीच हुए संवाद की याद आई : “यहोवा ने शैतान से पूछा, ‘तू कहाँ से आता है?’ शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, ‘पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ’” (अय्यूब 1:7)। परमेश्वर ने शैतान के बोलने का तरीका उजागर कर उसका विश्लेषण किया है : “शैतान के शब्दों की एक निश्चित विशेषता है : शैतान जो कुछ कहता है, वह तुम्हें अपना सिर खुजलाता छोड़ देता है, और तुम उसके शब्दों के स्रोत को समझने में असमर्थ रहते हो। कभी-कभी शैतान के इरादे होते हैं और वह जानबूझकर बोलता है, और कभी-कभी वह अपनी प्रकृति से नियंत्रित होता है, जिससे ऐसे शब्द अनायास ही निकल जाते हैं, और सीधे शैतान के मुँह से निकलते हैं। शैतान ऐसे शब्दों को तौलने में लंबा समय नहीं लगाता; बल्कि वे बिना सोचे-समझे व्यक्त किए जाते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा कि वह कहाँ से आया है, तो शैतान ने कुछ अस्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया। तुम बिल्कुल उलझन में पड़ जाते हो, और नहीं जान पाते कि आखिर वह कहाँ से आया है। क्या तुम लोगों के बीच में कोई ऐसा है, जो इस प्रकार से बोलता है? यह बोलने का कैसा तरीका है? (यह अस्पष्ट है और निश्चित उत्तर नहीं देता।) बोलने के इस तरीके का वर्णन करने के लिए हमें किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए? यह ध्यान भटकाने वाला और गलत दिशा दिखाने वाला है। मान लो, कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि दूसरे यह जानें कि उसने कल क्या किया था। तुम उससे पूछते हो : ‘मैंने तुम्हें कल देखा था। तुम कहाँ जा रहे थे?’ वह तुम्हें सीधे यह नहीं बताता कि वह कहाँ गया था। इसके बजाय वह कहता है : ‘कल क्या दिन था। बहुत थकाने वाला दिन था!’ क्या उसने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया? दिया, लेकिन वह उत्तर नहीं दिया, जो तुम चाहते थे। यह मनुष्य के बोलने की चालाकी की ‘प्रतिभा’ है। तुम कभी पता नहीं लगा सकते कि उसका क्या मतलब है, न तुम उसके शब्दों के पीछे के स्रोत या इरादे को ही समझ सकते हो। तुम नहीं जानते कि वह क्या टालने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसके हृदय में उसकी अपनी कहानी है—वह कपटी है। क्या तुम लोगों में भी कोई है, जो अक्सर इस तरह से बोलता है? (हाँ।) तो तुम लोगों का क्या उद्देश्य होता है? क्या यह कभी-कभी तुम्हारे अपने हितों की रक्षा के लिए होता है, और कभी-कभी अपना गौरव, अपनी स्थिति, अपनी छवि बनाए रखने के लिए, अपने निजी जीवन के रहस्य सुरक्षित रखने के लिए? उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, यह तुम्हारे हितों से अलग नहीं है, यह तुम्हारे हितों से जुड़ा हुआ है। क्या यह मनुष्य का स्वभाव नहीं है? ऐसी प्रकृति वाले सभी व्यक्ति अगर शैतान का परिवार नहीं हैं, तो उससे घनिष्ठ रूप से जुड़े अवश्य हैं। हम ऐसा कह सकते हैं, है न? सामान्य रूप से कहें, तो यह अभिव्यक्ति घृणित और वीभत्स है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। अतीत में, जब मैंने पढ़ा था कि परमेश्वर ने कहा कि शैतान ध्यान भटकाने और बहकाने वाले तरीके से बोलता है, तो मुझे हमेशा लगता था कि ऐसी चालें चल सकने वाले सभी लोग षड्यंत्रकारी और धूर्त होते हैं। लेकिन जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मुझे पता चला कि मैंने भी इस तरह का व्यवहार प्रकट किया है। जब अगुआ ने मेरे भाई-बहनों के सामने मुझे उजागर किया, तो बाहरी तौर पर तो मैंने इसे स्वीकार कर लिया और माना कि मैंने जिम्मेदारी से काम नहीं किया था। वास्तव में, मैंने इसे सच में स्वीकार नहीं किया था और मुझे महसूस हुआ कि कुछ गलत हुआ है। मुझे लगा कि मैं यह कर्तव्य लंबे समय से नहीं कर रही थी, इसलिए ये समस्याएँ क्षमा योग्य थीं। उसने सभा में मुझे एकदम सीधे क्यों उजागर किया, क्यों जरा भी मेरी इज्जत नहीं रहने दी? इसके बाद सभी ने निश्चित रूप से सोचा होगा कि मुझ पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए और मैं गैर-जिम्मेदार हूँ। अपनी छवि बहाल करने के लिए भाई-बहनों को यह सोचने देने के लिए कि मैं काट-छाँट स्वीकार कर सकती हूँ, मैंने स्वेच्छा से अपनी गलती स्वीकार की और दब्बू स्वर में जानबूझकर रिरियाते हुए बोली क्योंकि मैं लोगों को बताना चाहती थी कि मैं पहले से ही जानती हूँ कि मैं गलत हूँ, कि मुझे पछतावा और बहुत अफसोस है और वे अब मुझे और दोष न दें; कि मैं एक ऐसी इंसान हूँ जो अपनी गलतियाँ सुधारकर सत्य स्वीकार कर सकती है। ऊपर से तो ऐसा लगता था कि मैं खुद को जानती हूँ, लेकिन वास्तव में मैंने इस तरीके का इस्तेमाल लोगों का मुँह बंद करने और उन्हें मेरी समस्याओं के बारे में बात करने या मुझे जवाबदेह ठहराने से रोकने के लिए किया था। मेरा असली इरादा यह था। जब मैंने इस पर चिंतन किया, तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतान की तरह धूर्त और कपटी हूँ। मेरे शब्द लोगों को गुमराह और भ्रमित करने के मनसूबों से भरे हुए थे। जिस गैर-जिम्मेदाराना तरीके से मैंने अपना कार्य किया, उससे समस्याएँ पैदा हुईं और अगुआ ने मेरा नाम लिया। न केवल मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, बल्कि मैंने भाई-बहनों के सामने आत्म-ज्ञान होने का दिखावा किया, ताकि वे सोचें कि मैं ऐसी इंसान हूँ, जो सत्य स्वीकार सकती है। मैं वाकई शातिर और धोखेबाज थी! खुलकर बोलना और खुद को जानना सत्य का अभ्यास करने की अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए, लेकिन मेरी स्पष्ट स्वीकारोक्ति में चालें शामिल थीं और वह जिम्मेदारी से बचने का बहाना था। मैं सचमुच बहुत धूर्त थी!
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा, जो लोगों का दुष्ट स्वभाव प्रकट करता है। परमेश्वर कहता है : “आम तौर पर, धोखेबाजी बाहर ही दिखाई पड़ जाती है : कोई व्यक्ति घुमा-फिराकर बात करता है या बड़े-बड़े शब्दों वाली भाषा का उपयोग करता है और किसी को भनक तक नहीं लग पाती कि वह क्या सोच रहा है। यह धोखेबाजी है। दुष्टता की मुख्य विशेषता क्या है? यह कि सुनने में उनके शब्द खास तौर पर मीठे लगते हैं और ऊपर-ऊपर से सबकुछ सही प्रतीत होता है। ऐसा नहीं लगता कि कहीं कोई समस्या है और हर कोण से चीजें काफी अच्छी नजर आती हैं। जब वे कुछ करते हैं, तो तुम्हें वे किसी खास साधन का उपयोग करते हुए नजर नहीं आते और बाहर से कमजोरियों या गलतियों का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता है, लेकिन फिर भी वे अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। वे चीजों को अत्यंत गुप्त तरीके से करते हैं। मसीह-विरोधी ठीक इसी तरीके से लोगों को गुमराह करते हैं। इस तरह के लोगों और मामलों को पहचानना सबसे मुश्किल है। कुछ लोग अक्सर सही चीजें कहते हैं, सुनने में अच्छे लगने वाले बहानों का उपयोग करते हैं और कुछ लोग लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ऐसे धर्म-सिद्धांतों, कहावतों या क्रियाकलापों का उपयोग करते हैं जो मानवीय स्नेह के अनुरूप है। वे अपना अप्रत्यक्ष उद्देश्य हासिल करने के लिए करते कुछ हैं लेकिन दिखावा किसी और चीज का करते हैं। यह दुष्टता है, लेकिन ज्यादातर लोग इन व्यवहारों को धोखेबाजी के व्यवहार मानते हैं। लोगों में दुष्टता की समझ और उसके गहन-विश्लेषण की क्षमता सीमित होती है। दरअसल, धोखेबाजी की तुलना में दुष्टता को पहचानना ज्यादा मुश्किल है क्योंकि यह ज्यादा गुप्त होता है और इसके तरीके और क्रियाकलाप ज्यादा जटिल होते हैं। अगर कोई व्यक्ति धोखेबाज स्वभाव का है, तो आम तौर पर, दूसरे लोगों को उससे दो-तीन दिन बात करने के बाद उसकी धोखेबाजी का पता चल जाता है, या वे उस व्यक्ति के क्रियाकलापों और शब्दों में उसके धोखेबाज स्वभाव का खुलासा होते देख सकते हैं। लेकिन, मान लो कि वह व्यक्ति दुष्ट है : यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कुछ दिनों में पहचाना जा सके, क्योंकि छोटी अवधि में कोई महत्वपूर्ण घटना घटे या खास परिस्थिति उत्पन्न हुए बिना, सिर्फ उसकी बातें सुनकर कुछ भी पहचानना आसान नहीं है। वह हमेशा सही चीजें कहता और करता है और एक के बाद एक सही धर्म-सिद्धांत पेश करता रहता है। कुछ दिन उससे बातचीत करने के बाद, तुम्हें लग सकता है कि वह व्यक्ति बहुत अच्छा है, वह चीजों को छोड़ सकता है और खुद को खपा सकता है, उसमें आध्यात्मिक समझ है, उसके पास एक परमेश्वर-प्रेमी दिल है और उसके कार्य करने के तरीके में अंतरात्मा और विवेक दोनों हैं। लेकिन जब वह कुछ मामले संभाल लेता है, तो तुम्हें दिखाई देता है कि उसकी बातों और क्रियाकलापों में बहुत-सी चीजें और बहुत-से शैतानी इरादे मिले हुए हैं। तब तुम्हें एहसास होता है कि यह व्यक्ति ईमानदार नहीं बल्कि धोखेबाज है—यह एक दुष्ट चीज है। वह बार-बार सही शब्दों और ऐसे मधुर वाक्यांशों का उपयोग करता है जो सत्य के अनुरूप होते हैं और उनमें लोगों से बातचीत करने के लिए मानवीय स्नेह होता है। एक लिहाज से, वह खुद को स्थापित करता है और दूसरे लिहाज से, वह दूसरों को गुमराह करता है और इस तरह लोगों के बीच प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करता है। ऐसे लोग बहुत ही ज्यादा गुमराह करने वाले लोग होते हैं और एक बार ताकत और रुतबा हासिल कर लेने के बाद, वे कई लोगों को गुमराह कर सकते हैं और उनका नुकसान कर सकते हैं। दुष्ट स्वभाव वाले लोग बहुत ही खतरनाक होते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पाँच : वे लोगों को गुमराह करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं)। परमेश्वर के वचन प्रकट करते हैं कि दुष्ट स्वभाव वाले लोगों की मुख्य विशेषता यह है कि वे शब्दों और कर्मों में रहस्यात्मक होते हैं। दूसरों से अपने इरादे छिपाने के लिए वे हमेशा सही शब्दों का उपयोग करते हैं और अपना गुप्त मकसद हासिल करने के लिए ऐसे तरीके इस्तेमाल करते हैं, जो मानवीय भावनाओं के अनुसार होते हैं और सत्य के अनुरूप लगते हैं। मैंने उन चीजों के बारे में सोचा जो मैंने की थीं; यह वही तरकीब थी : मैं नई सदस्य की समस्याएँ नहीं सँभाल पाई थी, इसलिए अपनी सुपरवाइजर से अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद छिपाने के लिए मैंने मामला नए सदस्यों के अगुआ के पास भेज दिया। यहाँ तक कि मैंने एक बड़ा-सा बहाना भी ढूँढ़ लिया : यह क्लॉड के लिए प्रशिक्षण है, उसे यह सिखाने के लिए कि अपने बूते समस्याएँ कैसे हल की जाएँ। अंत में उसने उसे अच्छी तरह से नहीं सँभाला और मैंने उसके साथ संगति कर उसकी त्रुटियों का सारांश प्रस्तुत किया। मैं न केवल अपना वास्तविक व्यक्तित्व प्रकट करने में विफल रही, बल्कि मैंने उसके सामने अपनी एक अच्छी छवि भी प्रस्तुत की, ताकि उसे विश्वास हो कि मैं इन मुद्दों से अच्छी तरह निपट सकती हूँ। जब मैं अपनी अगुआ द्वारा उजागर की गई थी, तो सभी के दिलों में अपनी छवि बहाल करने के लिए मैंने अन्य लोगों को बात करने से रोकने के लिए अपनी गलतियाँ स्वीकार कीं, यहाँ तक कि सभी की सहानुभूति और समझदारी हासिल करने दब्बू आवाज का इस्तेमाल किया और उन्हें यह सोचने पर मजबूर करने के लिए कि मैं सत्य स्वीकार सकती हूँ, खुद को जानती हूँ और मेरा पश्चात्ताप का रवैया है, मैंने अपनी गलतियाँ स्वीकारीं। इस तरह वे अब मुझे जिम्मेदार नहीं ठहरा पाते। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने शब्दों और कर्मों पर चिंतन करते हुए मैंने देखा कि मैं वास्तव में भयानक हूँ। मैंने अपने घृणित इरादे छिपाने और इस प्रकार लोगों को गुमराह कर भ्रमित करने के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग किया, जो लोगों की संवेदनाओं और सत्य के अनुरूप प्रतीत होते थे। मैं वास्तव में एक कुटिल, धोखेबाज और शातिर इंसान थी। पहले जब मैं लोगों का दुष्ट स्वभाव प्रकट करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, तो मैं उन्हें अपने ऊपर लागू नहीं करती थी और सोचती थी कि मैं ऐसी इंसान नहीं हूँ। तथ्यों द्वारा उजागर होने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर आगे और आत्म-परीक्षा के बाद आखिरकार मुझे अपने बुरे स्वभाव का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ।
आगे आत्मचिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैंने अपना बुरा स्वभाव कई क्षेत्रों में प्रकट किया है। मुझे याद आया, कुछ ही समय पहले सुपरवाइजर ने मुझे बहन मरीना को एक काम सौंपने के लिए कहा था, जो उसे मुझसे ही लेना था। जब मैंने इस व्यवस्था के बारे में सुना, तो मैं परेशान हो गई। मैं दो साल से ज्यादा समय से उस काम के लिए खुद जिम्मेदार रही थी और मुझे लगता था कि कोई भी इस कर्तव्य में मेरी जगह नहीं ले सकता। मैंने नहीं सोचा था कि यह किसी और को दे दिया जाएगा। मैं वास्तव में सुपरवाइजर से पूछना चाहती थी कि क्या मैं इस काम की प्रभारी बनी रह सकती हूँ, लेकिन मुझे डर था कि सुपरवाइजर मुझे अति महत्वाकांक्षी और अनुचित समझेगी, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। बाहरी तौर पर मैंने आज्ञा का पालन किया, लेकिन जब मैंने काम सौंपा तो मैंने सुपरवाइजर और मरीना की मौजूदगी का इस्तेमाल जानबूझकर उस काम में कुछ महत्वपूर्ण विवरणों का उल्लेख करने के लिए किया। मैं चाहती थी कि वे देखें कि मैंने जो अनुभव संचित किया है और जो सिद्धांत मैंने वह कार्य करने में सीखे हैं, उन्हें कुछ दिनों या हफ्तों में प्राप्त नहीं किया जा सकता, ताकि सुपरवाइजर मुझे वह कर्तव्य निभाते रहने दे। जाहिर था, काम सौंपने के बाद सुपरवाइजर ने मुझसे पूछा कि क्या मैं मरीना को थोड़ी देर और परामर्श दे सकती हूँ। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। हालाँकि अब मैं काम के लिए जिम्मेदार नहीं रह गई थी, फिर भी मैंने जो कहा, उससे मेरा अपना उद्देश्य पूरा हो गया था। बाद में मरीना को अपने कर्तव्य में जो भी समस्याएँ और कठिनाइयाँ आतीं, वह मेरे पास आती, ताकि मैं चीजों का आकलन और मूल्यांकन कर सकूँ और वह मुझसे हर कार्य की समीक्षा करने के लिए भी कहती। इस तरह मैंने चुपचाप सत्ता फिर अपने हाथों में ले ली। उस समय के अपने व्यवहार को विस्तार से देखूँ, तो मैं स्पष्ट रूप से नहीं चाहती थी कि कोई और मेरी जगह ले, लेकिन सुपरवाइजर को यह सोचने से रोकने के लिए कि मैं अहंकारी और अविवेकी हूँ, मैंने काम सौंपने के अवसर का उपयोग अपनी काबिलियत का दिखावा करने के लिए किया और सुपरवाइजर की स्वीकृति प्राप्त कर ली। इस तरह मैंने सफलतापूर्वक वह सत्ता अपने हाथ में रखी और “चतुराई” से अपने इरादे छिपा लिए। जितना ज्यादा मैंने अपने व्यवहार पर चिंतन किया, मुझे उतना ही ज्यादा डर लगा। मुझे वाकई यह विश्वास नहीं हुआ कि मैं इस तरह की इंसान थी।
एक सभा के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जो मसीह-विरोधियों का बुरा स्वभाव प्रकट करते हैं, जिनसे मुझे अपने बारे में कुछ और जानकारी मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों की दुष्टता की एक स्पष्ट विशेषता होती है, और इसे पहचानने का राज़ मैं तुम लोगों के साथ साझा करूँगा : इसका राज़ है कि उनके भाषण और कार्य दोनों में, तुम उनकी गहराई नहीं समझ सकते या उनके दिल में नहीं झाँक सकते। तुमसे बात करते हुए उनकी आँखें हमेशा इधर-उधर नाचती रहती हैं, और तुम यह नहीं बता सकते कि वे कैसी योजना बना रहे हैं। कभी-कभी, वे तुमको यह एहसास दिलाते हैं कि वे निष्ठावान या काफी ईमानदार हैं, लेकिन ऐसा है नहीं—तुम उनकी असलियत कभी नहीं समझ सकते। तुम्हारे दिल में एक खास अनुभूति होती है, एक बोध कि उनके विचारों में एक गहरी सूक्ष्मता है, उनमें अथाह गहराई है, कि वे कपटपूर्ण हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। “यहाँ, ‘कुटिल’ का अर्थ है धूर्त और चालाक, और यह असामान्य व्यवहार को संदर्भित करता है। इस असामान्यता का संदर्भ किसी औसत व्यक्ति के लिए काफी छिपा हुआ और अभेद्य होना है, जो यह नहीं देख सकता कि ऐसे लोग क्या सोच रहे हैं या क्या कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के व्यक्ति के कार्यकलापों के तरीके, उद्देश्य और शुरुआती बिंदु की थाह लेना विशेष रूप से मुश्किल होता है, और कभी-कभी उनका व्यवहार भी लुका-छिपा और गुप्त होता है। संक्षेप में, एक पारिभाषिक शब्द है जो किसी व्यक्ति के कुटिल होने की वास्तविक अभिव्यक्ति और स्थिति का वर्णन कर सकता है, वह है ‘पारदर्शिता की कमी,’ जो उन्हें दूसरों के लिए अथाह और समझ से परे बना देता है। मसीह-विरोधियों के कार्यों की प्रकृति ऐसी होती है—यानी, जब तुम यह महसूस करते हो और समझते हो कि कुछ करने के उनके इरादे सीधे नहीं हैं, तो तुम्हें यह काफी भयानक लगता है, फिर भी अल्पावधि में या किसी कारण से तुम अभी भी उनके उद्देश्यों और इरादों को नहीं देख पाते, और तुम्हें अनजाने में ही लगता है कि उनके कार्यकलाप कुटिल हैं। वे तुम्हें इस तरह का एहसास क्यों कराते हैं? एक तरह से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कोई भी यह नहीं समझ सकता कि वे क्या कहते हैं या क्या करते हैं। दूसरी बात यह है कि वे अक्सर घुमा-फिराकर बात करते हैं, तुम्हें गुमराह करते हैं, अंततः तुम तय नहीं कर पाते कि उनके कौन-से कथन सच हैं और कौन-से झूठ, और उनके शब्दों का वास्तव में क्या अर्थ है। जब वे झूठ बोलते हैं, तो तुम्हें लगता है कि यह सत्य है; तुम्हें पता नहीं होता कि कौन-सा कथन सत्य है, कौन-सा असत्य, और अक्सर लगता है कि तुम्हें मूर्ख बनाया गया है और तुमसे धोखा किया गया है। यह भावना क्यों पैदा होती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग कभी भी पारदर्शी तरीके से काम नहीं करते; तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते कि वे क्या कर रहे हैं या किस काम में व्यस्त हैं, इससे अनिवार्य रूप से तुम्हें उनके प्रति संदेह होने लगता है। अंत में, तुम देखते हो कि उनका स्वभाव धोखेबाज, धूर्त और दुष्ट भी है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। परमेश्वर के वचनों ने मसीह-विरोधियों के अत्यंत बुरे स्वभाव प्रकट कर दिए। वे जो कहते और करते हैं, उसके पीछे हमेशा गुप्त मंशाएँ होती हैं, जिससे उनकी थाह पाना असंभव हो जाता है। अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को धोखा देने और गुमराह करने के लिए भ्रमों और शातिर तरीकों का उपयोग करते हैं। वे दूसरों को इस हद तक झाँसा देते हैं कि कोई नहीं जानता कि उनके शब्दों में से कौन-से शब्द सच्चे हैं और कौन-से झूठे। मेरा व्यवहार किसी मसीह-विरोधी जितना ही शातिराना था; मैंने जो कुछ भी कहा और किया, उसके हमेशा व्यक्तिगत उद्देश्य रहे। जब मुझे अपना कर्तव्य करने में समस्या होती, तो मैं उससे बचने के तरीके खोजने के लिए और साथ ही अपने सुपरवाइजर के सामने अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद उजागर होने से बचने के लिए भी अपना दिमाग चलाने लगती थी। जब मेरी अगुआ ने मेरे कर्तव्य में समस्याएँ उजागर कीं, तो मैंने यह सोचा कि लोगों को यह कैसे महसूस कराया जाए कि मैं एक ऐसी इंसान हूँ जिसने सत्य स्वीकारा है और यह भी कि अपनी जिम्मेदारी से कैसे बचा जाए। जब मैं सत्ता हथियाना और अपना पद बनाए रखना चाहती, तो हिसाब लगाती थी कि कैसे अपनी महत्वाकांक्षाएँ प्रकट न होने दूँ और कैसे यह सुनिश्चित करूँ कि सुपरवाइजर मुझे काम में शामिल रहने और अंतिम निर्णय लेने दे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे शब्दों और कर्मों के पीछे ऐसे गुप्त उद्देश्य भी थे! अपनी प्रतिष्ठा और पद की रक्षा के लिए मैंने केवल यही सोचा कि कैसे मैं खुद को छिपाऊँ और दूसरों को धोखा दूँ। खास तौर से अपनी अगुआ और सुपरवाइजर के सामने मैंने हर शब्द बोलने से पहले ध्यान से सोचा कि कौन-से शब्द मेरा उद्देश्य भी प्राप्त कराएँगे और प्रभावी ढंग से मेरी वास्तविक सोच भी छिपा लेंगे। यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव था! इस पर आत्मचिंतन करते ही मैं थोड़ी डर गई। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार लोग बनें और वही कहें जो हम वास्तव में सोचते हैं और जो भ्रष्टता हम प्रकट करते हैं, जो हम नहीं समझते और जो हम नहीं कर सकते, उसके बारे में खुलकर बोलें। लेकिन मैं हर समय बस यही सोचती थी कि कैसे छद्मवेश बनाए रखूँ, कैसे लोगों से अपना सम्मान करवाऊँ और कैसे अपनी छवि बनाए रखूँ। जो कुछ भी मैंने किया, वह हिसाब-किताब लगाकर किया गया, कपटपूर्ण और शातिराना था और जो कुछ भी मैंने प्रकट किया, वह शैतान का धोखेबाज और बुरा स्वभाव था। जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मेरी आँखों के सामने दृश्य घूमने लगे। मुझे अपना बचपन याद आया—मेरी माँ ने मुझे सिखाया “तेज घोड़ों को चाबुक की जरूरत नहीं होती, तेज आवाज करने वाले नगाड़े को भारी चोब की जरूरत नहीं पड़ती,” इसलिए मैंने हमेशा “तेज घोड़ा” और “तेज आवाज करने वाला नगाड़ा” और एक आज्ञाकारी शिष्ट बच्ची बनने का प्रयास किया। अगर मैं कुछ गलत कर देती तो किसी के कुछ कहे बिना उसे तुरंत स्वीकार लेती थी। मेरे बड़े होते हुए मेरे माता-पिता ने शायद ही कभी मुझे डाँटा या अनुशासित किया हो, इसलिए मुझे लगा कि आत्म-जागरूक होने और अपनी गलतियाँ स्वीकार करने से बहुत सारे कष्टों से बचा जा सकता था। उदाहरण के लिए, अगर मैं किसी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाती, तो अपने माता-पिता के दोष देने या डाँटने से बचने के लिए उनके बोलने से पहले ही रोना शुरू कर देती और दुखी होने का दिखावा करती। जब मैं रोती, तो मेरे माता-पिता इसे सहन न कर पाते। वे डरते कि मैं और ज्यादा दबाव नहीं झेल सकती, इसलिए वे फिर मुझे दोष नहीं देते थे। इसके बजाय वे मुझे दिलासा देते थे। इस तरह मैं अपने माता-पिता के धिक्कारने से बच जाती और मेरा आत्मसम्मान बरकरार रहता। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं वैसी ही रही। जब मैं अपना काम ठीक से कर पाने में विफल रहती और मुझे जिम्मेदारी लेनी होती, तो मैं दुखी होने का दिखावा करती और अपना लापरवाही भरा और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार छिपाने के लिए अपने पक्ष में दलीलें देती, ताकि कोई मेरी काट-छाँट न करे। सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे के अनुसार जीने की वजह से मैं वास्तव में अधिकाधिक कपटी और धोखेबाज बन गई थी। मैं वाकई कई कपटपूर्ण चालों का उपयोग करके “जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजे” पर अमल करने में माहिर थी और शैतान की ही छवि बन गई थी। सबसे भयानक बात यह थी कि चालबाजी और धोखाधड़ी मुझे लगभग सामान्य लगती थी। अगर मेरी बहन ने मुझे चेतावनी न दी होती और मुझे उजागर न किया होता, तो मुझे जरा भी होश या शर्म न आती। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “परमेश्वर ईमानदार लोगों को बचाता है, और जिन्हें वह अपने राज्य के लिए चाहता है, वे ईमानदार लोग होते हैं। अगर तुम झूठ और चालबाजी में सक्षम हो, धोखेबाज, कुटिल और छली व्यक्ति हो; तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो इसकी कोई संभावना नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा, न ही संभवतः तुम्हें बचाया जा सकेगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “यदि तुम्हारी बातें बहानों और बेकार तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ यानी अपनी कठिनाइयाँ उजागर करना नहीं चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से नफरत और उनका तिरस्कार करता है। धोखेबाज लोगों के हृदय में बहुत ज्यादा अंधकारमय पहलू होते हैं। उनके शब्द और कार्य हमेशा लोगों को धोखा देते और गुमराह करते हैं और वे कभी परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते। भले ही वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हों, उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलता और वे कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। यह जानकर मुझे लगा कि मैं वाकई खतरे में हूँ। मैंने परमेश्वर से यह कहने के लिए प्रार्थना की कि मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ और उससे मेरा मार्गदर्शन करने और वास्तविक बदलाव लाने में मेरी मदद करने के लिए कहा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “ईमानदार व्यक्ति बनो; अपने हृदय में मौजूद धूर्तता से छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। हर समय प्रार्थना के माध्यम से अपने आपको शुद्ध करो, प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित होओ, और तुम्हारा स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रार्थना के अभ्यास के बारे में)। “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन-प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखना होगा, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों से पीछा छुड़ाओ जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने कपटी स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ और कपट है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से नफरत करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और समर्पण की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में बहुत सरल हैं। वे हैं कि हम शुद्धता और ईमानदारी से बोलें और कार्य करें, हमारे दिलों में कोई धोखा, ढोंग या छल न हो, हमारा हृदय परमेश्वर के प्रति ईमानदार हो और हम दूसरों के साथ ईमानदार रहें। अगर हमने कुछ गलत किया हो या झूठ बोला हो, तो हमें उसे स्वीकारना और आत्मचिंतन करना चाहिए और एक सच्चे दृष्टिकोण के साथ सत्य स्वीकारना चाहिए। केवल इसी तरह से हम धीरे-धीरे अपने शैतानी स्वभाव दूर कर सकते हैं। मैंने कुछ ऐसे भाई-बहनों के बारे में सोचा, जिनकी काट-छाँट किया गया था। हालाँकि उन्हें उस समय शर्म महसूस हुई थी, फिर भी वे उसे स्वीकारने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम रहे। बाद में वे सत्य की खोज कर पाए, आत्मचिंतन कर पाए और अपनी विफलता का कारण खोज पाए। कुछ समय बाद उन्होंने और ज्यादा प्रगति की, अपने कर्तव्यों में अधिकाधिक बेहतर होते गए और उन्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। जहाँ तक मेरी बात है, अपनी छवि और पद बनाए रखने के लिए मैंने हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने और काट-छाँट से बचने के लिए कदम उठाए और मन ही मन सोचा कि मैं चतुराई से काम कर रही हूँ। नतीजतन मुझे क्या मिला? वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मेरा जीवन-स्वभाव नहीं बदला था। मैं अभी भी बहुत कपटी, धोखेबाज और बुरी थी। मैंने सिद्धांतों को समझे बिना अपना काम किया और जब मेरे सामने समस्याएँ आईं, तो मुझे पता नहीं था कि उन्हें कैसे हल किया जाए। तभी मुझे एहसास हुआ कि जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने और काट-छाँट से बचने के लिए बार-बार तरकीबें इस्तेमाल करके मैं वास्तव में परमेश्वर का उद्धार अस्वीकार रही थी और सत्य प्राप्त करने के अपने अवसर नष्ट कर रही थी। और जब-जब मैंने जिम्मेदारी से बचने के लिए तरकीबें इस्तेमाल कीं, तो मुझे यह सोचने के लिए अपना दिमाग चलाना पड़ा कि क्या कहना है और कौन-सा बहाना बनाना है। हो सकता है कि उस समय मैं इससे बच निकली, लेकिन अगली बार जब मेरी प्रतिष्ठा और छवि को खतरा हुआ, तो मुझे लोगों को धोखा देने के लिए दूसरा तरीका सोचना पड़ा। हर दिन इस धोखेबाजी और बेईमानी की स्थिति में रहना बहुत थका देने वाला था, परमेश्वर इससे नफरत और घृणा करता है और अंत में मैं सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने के अपने अवसर नष्ट कर दूँगी। यह चतुराई कैसे थी? मैं अज्ञानी और मूर्ख थी। जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैंने उत्सुकता से अपने धोखेबाज और बुरे स्वभावों का समाधान कर एक ईमानदार इंसान बनना चाहा।
मुझे ध्यान आया कि क्लॉड अभी भी नई सदस्य के साथ संगति करने के लिए कहने के मेरे घृणित उद्देश्य को नहीं जानता था। अगर मैं उसके सामने नहीं खुली, तो न केवल उसे मेरी कोई परख नहीं होगी, बल्कि वह अभी भी मेरा सम्मान करेगा और अभी भी निराशा की स्थिति में रहेगा और महसूस करेगा कि वह काम नहीं कर सकता। इसलिए मैं क्लॉड के पास गई, उसे नई सदस्य के साथ संगति करने के लिए भेजने के अपने इरादों के बारे में बताया और कहा कि मैंने इस मामले से क्या सीखा है। मैंने यह भी कहा कि नई सदस्य के पीछे हटने का अधिकांश दोष मुझ पर है और मैं स्वार्थी और नीच हूँ। सिर्फ अपनी इज्जत और हितों की रक्षा के लिए मैंने उसे धोखा दिया था और उसे जिम्मेदारी लेने को मजबूर किया था। फिर उसने मुझे अपने आत्मचिंतन, ज्ञान और इस मामले में उसने जो कुछ हासिल किया था, उसके बारे में बताया। उसके साथ संगति करने के बाद मुझे मुक्ति का एक बड़ा एहसास हुआ। मुझे लगा कि केवल सत्य का अभ्यास करके और एक ईमानदार व्यक्ति बनकर ही हम मन की शांति महसूस कर सकते हैं। इसके बाद मेरे सुपरवाइजर ने हमारे कार्य की कमियों पर विचार करने के लिए एक बैठक आयोजित की। उस महीने मेरी प्रभावशीलता बहुत कम हो गई थी। मैं इस कार्य-बैठक से बचना चाहती थी, लेकिन मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि परमेश्वर मेरे हर शब्द और कर्म की जाँच कर यह देखेगा कि मैं कैसा व्यवहार करती हूँ—वह देखेगा कि क्या मैं अपनी छवि और पद का बचाव करने के लिए फिर से अपनी पुरानी चालें चलती हूँ और अपनी कमियों और समस्याओं पर पर्दा डालती हूँ, या अपने कर्तव्य में समस्याओं का सामना करती हूँ, खुलकर बोलती हूँ और एक ईमानदार इंसान बनती हूँ। मैंने खुद से सत्य का अभ्यास करने को कहा, भले ही इससे मेरी छवि खराब हो जाए। इसलिए मैंने इस बारे में खुलकर बात की कि उस अवधि के दौरान कैसे मैंने अपने काम में खानापूरी की और चालें चलीं और कहा कि मैं अपनी समस्याओं और त्रुटियों का सारांश तैयार करूँगी, अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारूँगी और ज्यादा प्रभावी होने का प्रयास करूँगी। इस संगति के बाद मुझे मुक्ति का एक बड़ा एहसास हुआ और मुझमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने की इच्छा और प्रेरणा जगी। मेरे बोल चुकने के बाद भाई-बहनों ने मेरा अनादर नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने मेरे साथ अपने कर्तव्य निभाने के अभ्यास के कुछ तरीकों पर चर्चा की। मुझे उनकी संगति से बहुत फायदा हुआ और मैंने अपनी गलतियाँ सुधारने के और तरीके भी सीखे। इसके बाद अपने कार्य करते हुए मैं ये तरीके अभ्यास में लाई और धीरे-धीरे अपने काम में और ज्यादा प्रभावी होती गई। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।
इस अनुभव के माध्यम से मैं वास्तव में महसूस करती हूँ कि हम अपने कर्तव्यों में चाहे कितनी भी गलतियाँ करें या कितनी भी भ्रष्टता प्रकट करें, अगर हम शांति से चीजों का सामना कर सकते हैं, अपने दिल खोल सकते हैं और सत्य की तलाश कर सकते हैं, तो न केवल कोई हमारा अनादर नहीं करेगा, बल्कि हम आत्मचिंतन भी कर सकते हैं और अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सकते हैं। मैंने यह भी महसूस किया कि सिर्फ सत्य का अभ्यास करने वाले ही ईमानदार लोग होते हैं, उन्हीं के पास चरित्र और गरिमा होती है और केवल वे ही वास्तव में सहज और मुक्त महसूस करते हैं।