18. जब पदोन्नति की मेरी उम्मीद टूट गई

एलेना, यूएसए

नवंबर 2020 में मैंने नवांगतुकों को सींचने का अभ्यास करना शुरू किया। कुछ समय बाद अगुआ ने मुझे समूह की सभाओं की मेजबानी करने की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा। मैंने मन ही सोचा, “लगता है कि अगुआ मुझे महत्व देती है, क्या ऐसा हो सकता है कि वह मुझे विकसित कर रही है? अगर मैं कड़ी मेहनत करूँ तो शायद मुझे पदोन्नति मिल जाए।” इसलिए जब भी मैं समूह में किसी को कोई मुद्दा उठाते देखती तो मैं सक्रियता से जवाब देती। जब मैं नए भाई-बहनों को देखती जो कुछ नहीं समझ पाते तो मैं उत्साहपूर्वक उनकी मदद करती। बाद में समूह को दो अगुआ चुनने की जरूरत थी और मैंने सोचा, “भले ही मुझे यह कर्तव्य करते हुए लंबा समय नहीं हुआ है, लेकिन मुझे समूह का एक महत्वपूर्ण सदस्य माना जाता है, अगुआ ने मुझे ज्यादा से ज्यादा नवांगतुकों को सींचने का काम सौंपा है और हर कोई मेरे बारे में अच्छा सोचता है, इसलिए मुझे अगुआ चुना जाना चाहिए, है न?” लेकिन मुझे हैरानी हुई कि मुझसे भी कम समय से नवांगतुकों की सिंचाई कर रही दो बहनों को अगुआ चुन लिया गया। इतना ही नहीं, जब ये दोनों बहनें पहली बार आई थीं तो मैंने ही उनसे यह कर्तव्य निभाने से संबंधित सिद्धांतों के बारे में संगति की थी। सिद्धांतों के मामले में वे मुझसे ज्यादा नहीं समझती थीं और सींचे गए लोगों की संख्या और कर्तव्यों के नतीजों के मामले में भी वे मुझसे बहुत पीछे थीं। मेरे बजाय उन्हें क्यों चुना गया? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं इन बहनों से भी बदतर हूँ, जो अभी-अभी आई हैं? जितना ज्यादा मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही ज्यादा नाराज और व्यथित हो जाती। अगले कुछ दिनों तक न चाहते हुए भी मैं इसी बारे में सोचती रही, यहाँ तक कि खाते-पीते और सोते समय भी मैं अपना दिल शांत नहीं कर पाई। मुझे लगा कि चाहे मैंने कितना भी काम किया हो या कितना भी कष्ट सहा हो, इसे किसी ने नहीं देखा और यह सब व्यर्थ था। उसके बाद भले ही मैं अपना कर्तव्य निभाती रही, मैंने अपनी प्रेरणा खो दी। जब मैं समूह में किसी को कोई मुद्दा उठाते देखती तो मैं जवाब देने की जहमत नहीं उठाती। मैं सोचती, “मैं अगुआ नहीं हूँ तो मुझे बोलने की क्या जरूरत है? कोई न कोई तो देर-सबेर जवाब देगा ही।” जब भाई-बहनों ने मुझसे एक सभा की मेजबानी करने के लिए कहा तो मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी। मैंने सोचा, “इसका क्या मतलब है? सभाओं की मेजबानी करने से कोई असली रुतबा नहीं मिलता और कोई भी इसके चलते मेरे बारे में ऊँचा नहीं सोचेगा। इसके अलावा अगर मैं सभा के दौरान व्यावहारिक अनुभवजन्य समझ के बारे में संगति नहीं कर पाती हूँ तो वे सभी सोच सकते हैं कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं और मुझे नीची नजरों से देखेंगे। यह वाकई बिना यश वाला काम है।” मैंने इस मामले के बारे में बहुत सोचा, लेकिन मैं वाकई यह कर्तव्य नहीं करना चाहती थी। फिर मुझे लगा कि अपना कर्तव्य अस्वीकारने का मतलब होगा कि मैं समर्पण नहीं कर रही हूँ, इसलिए मैंने अनिच्छा से इसे स्वीकार लिया। उसके बाद मैं उदासीनता की मनोदशा में रही और मुझे काम के प्रति जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं था। धीरे-धीरे मुझे अपने कर्तव्य बहुत ज्यादा मुश्किल लगने लगे और जब नवांगतुकों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा या उनमें परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ होतीं तो मैं नहीं जानती थी कि इन मुद्दों को सुलझाने के लिए सत्य की संगति कैसे की जाए। ज्यादा से ज्यादा नवांगतुकों ने नियमित रूप से सभाओं में भाग लेना बंद कर दिया और मैंने अपने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं की। हर दिन मैं बस किसी तरह काम चलाती थी, अपने कर्तव्य मशीनी ढंग से करती थी। जब मैंने भजन सुना कि “परमेश्वर में विश्वास करना पर जीवन को हासिल न करना, दंड का कारण बनता है” तो मेरे दिल में बहुत बेचैनी हुई, जैसे कि अगर मैं इसी तरह आगे बढ़ती रही तो मुझे ही सजा मिलेगी और मेरा दिल वाकई तकलीफ में था।

मेरी मनोदशा इतनी खराब हो गई कि मुझे लगा मैं अब और नहीं टिक पाऊँगी। इसलिए मैंने खुलकर अगुआ से अपनी मनोदशा के बारे में बात की। अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया : “तुम लोगों के अनुसरण में तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत धारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की रुतबा पाने की अभिलाषा और तुम्हारी असंयत इच्छाओं की काट-छाँट करने के लिए है। आशाएँ, रुतबा और धारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... अब तुम लोग अनुयायी हो और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गई है। लेकिन तुम लोगों ने अभी तक रुतबे के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों का रुतबा ऊँचा होता है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारा रुतबा निम्न होता है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा रुतबे के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाओं के कारण नहीं होता? ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगा उतना ही कम तू पाएगा। रुतबे के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसकी काट-छाँट की जाएगी और उसे उतने ही बड़े शोधन से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनकी अच्छी तरह से काट-छाँट करने और उनका न्याय करने की जरूरत है ताकि वे इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देता; बल्कि तू हमेशा उन असंयत इच्छाओं और उन चीजों पर ध्यान देता है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद अगुआ ने मुझे याद दिलाई, “हम रुतबे पर जितना ज्यादा ध्यान देते हैं, परमेश्वर हमें बेनकाब करने और हमारी काट-छाँट करने के लिए उतनी ही ज्यादा परिस्थितियाँ व्यवस्थित करता है और इससे हमें यह पहचानने में मदद मिलती है कि अनुसरण के बारे में हमारे दृष्टिकोण गलत हैं और हम समय रहते उन्हें बदल सकते हैं। क्या तुमने इस बात पर विचार किया है कि भाई-बहनों ने तुम्हें समूह अगुआ क्यों नहीं चुना? तुम्हारे असल मसले क्या हैं? जब तुम्हें समूह अगुआ नहीं चुना गया तो तुमने अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा खो दी। क्या यह नहीं दर्शाता है कि तुम रुतबे के पीछे भागती हो? तुम हमेशा रुतबे के पीछे भागती हो और दिखावे के लिए काम करती हो, अगर तुम्हें रुतबा मिल गया, तब भी क्या तुम अच्छी तरह से काम कर सकती हो?” अगुआ के याद दिलाने पर ही मैं परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्म-चिंतन करने लगी। जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य करना शुरू किया था तो अगुआ अक्सर मुझसे सभाओं की मेजबानी करवाती थी और जिन नवांगतुकों की सिंचाई में मुझे लगाया गया था, उनकी संख्या बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि मुझे अहमियत दी जा रही है और ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है जिसे तरक्की दी जा रही है और विकसित किया जा रहा है और तब मैं अपने कर्तव्य में वाकई प्रेरित थी। चाहे वह सभाओं के दौरान संगति करना हो या नवांगतुकों को सींचना हो, मुझमें जिम्मेदारी की बड़ी भावना थी। लेकिन बाद में मुझसे भी कम समय से नवांगतुकों को सींच रही दो बहनों को समूह अगुआ चुन लिया गया और मैं निराश हो गई। मुझे लगा कि अगुआ उन्हें अहमियत देती है और भाई-बहन उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, जबकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं समूह में हूँ या नहीं और इसलिए अपना कर्तव्य करने की मेरी प्रेरणा अचानक गायब हो गई और मैं अब समूह के मुद्दों से परेशान नहीं होती थी। जब भाई-बहनों ने मुझे खासकर सभाओं की मेजबानी करने के लिए चुना तो मैंने सोचा कि यह कर्तव्य महत्वहीन है और इससे मुझे दूसरों से प्रशंसा और अहमियत पाने में मदद नहीं मिलेगी और इसलिए मैंने बस अनमने ढंग से कर्तव्य निभाया। इसी समय मैंने देखा कि मेरी मनोदशा बिल्कुल वैसी ही है जैसी परमेश्वर ने उजागर की थी : “जब तुम लोगों का रुतबा ऊँचा होता है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारा रुतबा निम्न होता है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा रुतबे के आशीष होते हैं।” मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। ... भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने वाले मसीह विरोधियों की वास्तविक स्थिति और मनोदशा को पूरी तरह उजागर करते हैं। मैंने देखा कि मसीह विरोधियों की तरह मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत महत्व दिया था, हमेशा दूसरों के बीच कोई ओहदा पाना चाहती थी, हमेशा दूसरों से अहमियत और प्रशंसा पाना चाहती थी, उम्मीद करती थी कि लोग मेरी बातों की परवाह करेंगे और उन्हें ध्यान से सुनेंगे, महसूस करती थी कि सिर्फ इसी तरह से मेरी उपस्थिति का एहसास हो सकता है और मेरा जीवन मूल्यवान हो सकता है। मुझे लगा कि अगर मेरे पास रुतबा नहीं है और मैं दूसरों से प्रशंसा और अहमियत नहीं पा सकती तो मैंने जो कुछ भी किया वह निरर्थक था। भले ही मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और अपना कर्तव्य करती हूँ, वास्तव में मैं यह सब सत्य का अनुसरण करने के लिए नहीं कर रही थी, न ही परमेश्वर को संतुष्ट करने या परमेश्वर के इरादों पर विचार करने के लिए कर रही थी। मैंने अपने कर्तव्य को रुतबा पाने का साधन माना था और मैं सिर्फ यही सोचती थी कि क्या दूसरों के बीच मेरा कोई ओहदा है और क्या मैं दूसरों से प्रशंसा और अहमियत पा सकती हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा कि इस कर्तव्य में परमेश्वर की मुझसे क्या अपेक्षाएँ या जरूरतें हैं या मुझे परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए। जब मुझे अपने कर्तव्य में दूसरों से प्रशंसा नहीं मिली तो मैं नकारात्मक, लापरवाह हो गई और शिकायतों से भर गई। मुझे एहसास हुआ कि अनुसरण के बारे में मेरे दृष्टिकोण मसीह-विरोधी जैसे ही थे और मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को सबसे ज्यादा महत्व देती थी। कलीसिया ने मुझे अपना कर्तव्य करने का अवसर दिया था, उम्मीद जताई थी कि मैं अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करूँगी और परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को उतार फेंकूँगी। लेकिन मुझे अच्छे-बुरे का पता नहीं था और थोड़ा काम करने और थोड़ी पूंजी हासिल करने के बाद मैं समूह की अगुआई करना और प्रशंसा पाना चाहती थी और जब रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई तो मैं अपना कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। मैंने अपनी हताशा दिखाने के लिए भी अपने कर्तव्य का इस्तेमाल किया, मैं समूह के मुद्दों को हल नहीं करना चाहती थी और मैंने कलीसिया के हितों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। क्या मैं परमेश्वर का साफ विरोध नहीं कर रही थी? शुरू से लेकर अंत तक मैं दूसरों से प्रशंसा पाने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य का इस्तेमाल कर रही थी। किस तरह से मेरे पास कोई मानवता या सूझ-बूझ थी? मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण नहीं करते और उनके पास जरा भी परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। वे केवल अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करते हैं, कलीसिया के कार्य की नहीं और उनमें कोई मानवता नहीं होती। मेरा व्यवहार मसीह-विरोधियों से कैसे अलग था? जब मैंने इस बारे में सोचा तो मैं कुछ हद तक डर गई और मुझे लगा कि मेरी मनोदशा वाकई खतरनाक थी।

बाद में मैंने पदोन्नत होने की अपनी निरंतर इच्छा पर विचार किया, खुद से पूछा, “लोगों को तरक्की देने और विकसित करने के लिए कलीसिया के सिद्धांत असल में क्या हैं?” एक दिन सभा के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कार्य की विभिन्न मदों के निरीक्षकों से कौन-से मानक अपेक्षित होते हैं? तीन मुख्य अपेक्षित मानक हैं। पहला, उनमें सत्य को समझने की योग्यता होनी चाहिए। केवल वही लोग जो सत्य को विशुद्ध रूप से बिना किसी विकृति के समझकर निष्कर्ष निकाल सकते हैं, वही अच्छी काबिलियत वाले होते हैं। अच्छी काबिलियत वाले लोगों में कम-से-कम आध्यात्मिक समझ तो होनी ही चाहिए और उन्हें स्वतंत्र रूप से परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की प्रक्रिया में उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और काट-छाँट को स्वतंत्र रूप से स्वीकार करने और सत्य को खोजने में सक्षम होना चाहिए, जिससे कि वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं और अपनी ही इच्छा में मिलावट और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर सकें—अगर वे इस मानक के स्तर तक पहुँच सकें, तो इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने का तरीका जानते हैं, और यह अच्छी काबिलियत की अभिव्यक्ति है। दूसरे, उन्हें कलीसिया के कार्य का बोझ उठाना ही चाहिए। जो लोग वास्तव में बोझ उठाते हैं, उनमें सिर्फ उत्साह ही नहीं, वास्तविक जीवन अनुभव होता है, वे कुछ सत्य समझते हैं, और वे कुछ समस्याओं की असलियत जान सकते हैं। वे देखते हैं कि कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों में बहुत-सी कठिनाइयाँ और समस्याएँ हैं, जिनका समाधान जरूरी है। वे इसे अपनी आँखों से देखते हैं और इस बारे में अपने दिल से चिंता करते हैं—यही है कलीसिया के कार्य के लिए बोझ उठाने का मतलब। अगर कोई महज अच्छी काबिलियत वाला और सत्य को समझने में सक्षम है, मगर वह आलसी है, देह-सुखों का लालच करता है, वास्तविक काम करने को तैयार नहीं है, और तभी थोड़ा-सा काम करता है जब ऊपरवाला उस काम को पूरा करने की आखिरी तारीख तय कर देता है, जब वे उसे करने से बच नहीं सकते, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो कोई भी बोझ नहीं उठाता। जो लोग कोई भी बोझ नहीं उठाते, वे ऐसे लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जिनमें न्याय की भावना नहीं होती, और जो निकम्मे होते हैं, ठूंस-ठूंसकर खाते-पीते पूरा दिन बिता देते हैं, और किसी भी चीज पर गंभीरता से विचार नहीं करते। तीसरे, उनमें कार्यक्षमता होनी चाहिए। ‘कार्यक्षमता’ का क्या अर्थ है? सरल शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ है कि न सिर्फ वे लोगों को काम सौंप सकते हैं और निर्देश दे सकते हैं, बल्कि वे समस्याओं को पहचान कर हल भी कर सकते हैं—कार्यक्षमता होने का मतलब यही हैं। इसके अतिरिक्त, उन्हें सांगठनिक कौशल की भी जरूरत पड़ती है। सांगठनिक कौशल वाले लोग विशेष रूप से लोगों को एकजुट करने, कार्य को संगठित और व्यवस्थित करने और समस्याएँ सुलझाने में कुशल होते हैं, और कार्य को व्यवस्थित करते और समस्याओं को हल करते समय वे लोगों को पूरी तरह से मनाकर उनसे पालन करवा सकते हैं—सांगठनिक कौशल होने का यही अर्थ है। जिन लोगों में वास्तव में कार्यक्षमता होती है, वे परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित विशेष कामों को क्रियान्वित कर सकते हैं, और वे ऐसा बिना किसी ढिलाई के तेजी से और निर्णायक ढंग से कर सकते हैं, और यही नहीं, वे विभिन्न कामों को अच्छे ढंग से कर सकते हैं। ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं को विकसित करने के परमेश्वर के घर के तीन मानक हैं। अगर कोई व्यक्ति इन तीन मानकों पर खरा उतरता है, तो वह एक दुर्लभ, प्रतिभाशाली व्यक्ति है और उसे पदोन्नत, विकसित, और सीधे प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, और कुछ समय तक अभ्यास के बाद वे कार्य हाथ में ले सकते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में लोगों की तरक्की और विकसित होना इस बात पर आधारित नहीं है कि कौन सबसे लंबे समय से अपने कर्तव्य कर रहा है या किसने सबसे ज्यादा कष्ट सहे हैं, न ही यह इस बात पर आधारित है कि अगुआओं के साथ किसका सबसे करीबी रिश्ता है। सबसे महत्वपूर्ण कारक यह है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, वह अपने कर्तव्यों से कैसे पेश आता है और क्या वह परमेश्वर के इरादों पर विचार कर सकता है और वास्तविक कार्य कर सकता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं की रोशनी में पीछे मुड़कर खुद को देखते हुए मैंने पाया कि मैंने सत्य का अनुसरण करने का प्रयास नहीं किया और मेरे दिन दिल में रुतबे की चाह के साथ बीतते थे। जब मुझे रुतबा नहीं मिला तो मैं नकारात्मकता में जीती रही और मेरे जीवन में लंबे तक प्रगति नहीं हुई। बस इस एक बिंदु ने दिखा दिया कि मैं पदोन्नति की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही थी। इसके अलावा भले ही मैं अपने कर्तव्यों में व्यस्त लगती थी, असल में मुझमें जिम्मेदारी की सच्ची समझ नहीं थी, मैं सिर्फ दिखावे के लिए काम करने पर ध्यान केंद्रित करती थी और जब समस्याएँ या मुश्किलें आती थीं तो मैं सत्य सिद्धांतों की खोज पर ध्यान केंद्रित नहीं करती थी और न ही मैं अक्सर इन चीजों का सारांश बनाने और उन पर चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करती थी। कई बार मैं सिर्फ तभी काम करती थी जब मुझे उकसाया जाता था और जब अगुआ ने मेरे मसले बताए और मेरे साथ सिद्धांतों पर संगति की, तभी मैं समस्याएँ सुलझाने और भटकावों को ठीक करने में सक्षम हो पाई। इसके अलावा जब भी काम में व्यस्त होती थी, मैं घबरा जाती थी और यह भेद करने में असमर्थ रहती थी कि क्या जरूरी है और क्या नहीं। इसे देखते हुए मैंने पाया कि मुझमें बहुत सारी कमियाँ थीं और कलीसिया का मुझे तरक्की न देना पूरी तरह से सिद्धांतों के आधार पर मेरा मूल्यांकन करना था। मैंने अपना असली आध्यात्मिक कद बिल्कुल नहीं पहचाना और मुझमें वाकई आत्म-जागरूकता की कमी थी। असलियत में अगर मुझे समूह अगुआ बना दिया जाता तो भले ही इससे प्रतिष्ठा की भावना आती, मगर मैं समूह अगुआ का वास्तविक कार्य करने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाती और अगर ऐसा होता तो मैं न सिर्फ भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाती, बल्कि कलीसिया के कार्य में भी देरी करती। जिन दो बहनों को पदोन्नत किया गया था, वे अपने कर्तव्यों में ज्यादा व्यावहारिक थीं और वे अपने कार्य में आने वाली समस्याओं और भटकावों पर चिंतन करने और सारांश बनाने पर भी ध्यान केंद्रित करती थीं। सभाओं के दौरान मैं अक्सर उन्हें अपने कर्तव्य करते समय उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता और उन क्षेत्रों के बारे में बात करते सुनती थी, जिनमें वे कमजोर थीं। वे अपनी असफलताओं के कारणों का सारांश बनाती और चिंतन करती थीं और वे इस बारे में बात करती थीं कि कैसे उन्होंने परमेश्वर का इरादा समझने के लिए सत्य की खोज की और कैसे उन्होंने मुश्किलों, नकारात्मकता और असफलताओं का सामना होने पर मुश्किलें सुलझाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया। मैंने देखा कि कैसे उन्होंने अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर के वचनों से आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर के इरादे खोजने पर ध्यान केंद्रित किया। मैंने यह भी देखा कि उन्होंने सिद्धांतों में प्रयास किया और भले ही वे लंबे समय से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रही थीं, उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन था और कुछ समय बाद उन्होंने बहुत प्रगति की। इस बिंदु पर मैंने समझा कि इस प्रकाशन का सामना करते हुए परमेश्वर का इरादा मुझे खुद को जानने की अनुमति देना था ताकि मैं समय रहते अनुसरण पर अपने गलत दृष्टिकोणों को सुधार सकूँ और सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित कर सकूँ, प्रगति और परिवर्तन कर सकूँ। इन बातों का एहसास होने पर मेरे मन में अब कोई गलतफहमी या प्रतिरोध नहीं था और मैं सिर्फ सत्य खोजना चाहती थी और ऐसी स्थिति के माध्यम से ज्यादा आत्म-चिंतन करना चाहती थी।

बाद में मैंने फिर से चिंतन किया। मैंने देखा कि इस बार जब मुझे पदोन्नत नहीं किया गया तो मैं नकारात्मकता में पड़ गई क्योंकि मेरा परिप्रेक्ष्य गलत था। मैंने लोगों को कलीसिया द्वारा दी जाने वाली तरक्की को अधिकारियों की सांसारिक पदोन्नति की तरह माना और मैंने सोचा कि पदोन्नत होने का मतलब रुतबा पाना है, इसलिए जब मुझे पदोन्नत नहीं किया गया तो मैं नकारात्मक और कमजोर हो गई, कुछ भी नहीं करना चाहती थी। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और मुझे कलीसिया द्वारा लोगों को पदोन्नत और विकसित करने के उद्देश्य और महत्व के बारे में थोड़ी और समझ मिली। परमेश्वर कहता है : “जिन विभिन्न प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जाता है उनके लिए परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ क्या होती हैं? परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए जाने के लिए, कम-से-कम उन्हें ऐसे लोग होना चाहिए जिनमें अंतरात्मा और विवेक हो, जो सत्य स्वीकार सकते हों, जो वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हों, और जो परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हों, और कम-से-कम काट-छाँट किए जाने पर उसे स्वीकार कर समर्पण करने में सक्षम हों। परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किए जाने और प्रशिक्षण से गुजरने वाले लोगों को जो प्रभाव प्राप्त करना चाहिए, वह यह नहीं है कि वे अधिकारी या मालिक बन सकें या पूरे दल की अगुआई करें और यह भी नहीं है कि वे लोगों को उनके सोचने के तरीकों के बारे में सलाह दे सकें और बेशक यह तो और भी कम है कि उनमें बेहतर पेशेवर कौशल हो या उनके पास उच्च स्तर की शिक्षा हो, या ज्यादा प्रतिष्ठा हो, या यह कि उनका जिक्र उन लोगों के साथ किया जा सके जो दुनिया में अपने पेशेवर कौशलों या राजनीतिक कारनामों के लिए प्रख्यात हैं। इसके बजाय, जो प्रभाव हासिल होना चाहिए, वह यह है कि वे सत्य को समझें और परमेश्वर के वचनों को जिएँ, और वे ऐसे लोग बनें जो परमेश्वर का भय मानते हों, और बुराई से दूर रहते हों। प्रशिक्षण लेने से, वे सत्य को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते हैं, और यह बेहतर ढंग से जान पाते हैं कि परमेश्वर में आस्था वास्तव में क्या है और परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए—यह उन लोगों के लिए अत्यंत लाभकारी है जो पूर्णता प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर का घर सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित करके ये प्रभाव और मानक हासिल करना चाहता है, और यह पदोन्नत और उपयोग किए जाने वाले लोगों द्वारा काटी गई सबसे बड़ी फसल भी होती है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। “सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जो लोग पदोन्नत और विकसित किए जाते हैं, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। जिन लोगों को पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी काबिलियत होती है, इसलिए उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों के कारण होता है। तो फिर लोगों को पदोन्नत करने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों होते हैं? चूँकि लोगों की काबिलियत और चरित्र में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग चुनता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के परिणाम अलग होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, जो अपना कर्तव्य करने में वफादार नहीं होते, वे हटा दिए जाते हैं। परमेश्वर का घर इस आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे अपना कर्तव्य करने में वफादार हैं या नहीं। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों के स्थान, मूल्य, रुतबे या अवस्थिति में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम-से-कम उस अवधि के दौरान जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों की श्रेणियों, स्थानों, या रुतबे के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, कुछ विशेष कार्य करने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, जबकि कुछ लोगों को अपनी काबिलियत या पारिवारिक परिवेश में समस्याओं जैसे विभिन्न कारणों से ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? ऐसा नहीं है। क्या उनका मूल्य और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, और परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है। लोगों के पदों, मूल्य और रुतबे में ध्यान देने योग्य अंतर किस मुकाम पर दिखाई देते हैं? ये तब दिखाई देते हैं जब लोग अपने मार्ग के अंत पर पहुँचते हैं, परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है, और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान प्रदर्शित रवैयों और विचारों और साथ ही परमेश्वर के प्रति उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों और रवैयों पर अंततः एक निष्कर्ष तैयार हो जाता है—यानी जब परमेश्वर की नोटबुक में एक पूरा रिकॉर्ड दर्ज हो जाता है—उस वक्त, क्योंकि लोगों के नतीजे और मंजिलें अलग होंगी, इसलिए उनके मूल्य, पदों और रुतबे में भी अंतर होंगे। केवल तभी इन तमाम चीजों की झलक मिल सकेगी और करीब-करीब जाँचकर उनका पता लगाया जा सकेगा, जबकि फिलहाल सभी लोग एक समान हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि परमेश्वर का घर अविश्वासी दुनिया की तरह लोगों को तरक्की नहीं देता और उन्हें विकसित नहीं करता, जहाँ लोगों को अधिकारी बनाया जाता है और वे अपना नाम बनाते हैं। परमेश्वर का घर लोगों को तरक्की देता है ताकि उन्हें प्रशिक्षित होने के ज्यादा अवसर मिल सकें। परमेश्वर उम्मीद करता है कि अपने कर्तव्यों में लोग सत्य समझ सकें, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकें, ज्ञान पा सकें और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकें और जान सकें कि परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए अपने कर्तव्य कैसे करने हैं। परमेश्वर के घर में कर्तव्य चाहे जो भी हो, रुतबे में कोई अंतर नहीं है और सत्य पाना सबसे महत्वपूर्ण बात है। मैंने उन कई कमियों के बारे में सोचा जो मैंने नवांगतुकों को सींचने के अपने काम के दौरान प्रकट की थीं। कभी-कभी जब नए लोग कुछ धारणाएँ या प्रश्न सामने रखते थे तो मुझे पता नहीं होता था कि उन्हें कैसे सुलझाया जाए, लेकिन सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मुझे कुछ सत्यों की साफ समझ मिली और मैंने अपने भाई-बहनों के प्रति ज्यादा प्रेम और धैर्य विकसित किया। ये सभी लाभ नवांगतुकों को सींचने के दौरान प्राप्त हुए थे। मैंने फिर से सोचा कि कैसे भाई-बहनों ने मुझे सभाओं की मेजबानी करने के लिए चुना। भले ही इससे मुझे दूसरों से प्रशंसा न मिले, लेकिन इससे मुझे सत्य पर ज्यादा विचार करने, परमेश्वर के ज्यादा करीब आने और सत्य का अनुसरण करने में प्रयास करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। इस पर विचार करते हुए मैं गहराई से प्रभावित हो गई और मुझे पछतावा हुआ। इसलिए कि मैं नहीं जानती थी कि मेरे लिए क्या अच्छा है, मुझमें आत्म-जागरूकता की कमी थी और मैं परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को बिल्कुल भी नहीं समझ पाई। मुझे इस बात ने प्रभावित किया कि मेरे इतने विद्रोही और विवेकहीन होने के बावजूद परमेश्वर ने अपने वचनों का उपयोग करके मुझे प्रबुद्ध किया और अपने इरादे को समझने के लिए मार्गदर्शन किया ताकि मैं गलत रास्ते पर चलना बंद कर सकूँ। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया और मैंने अब प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे के पीछे नहीं भागने का संकल्प लिया। मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थी।

बाद में मैंने अपने कर्तव्यों में सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और इसका एहसास हुए बिना ही मुझे कुछ प्रबोधन और रोशनी मिली, मैं कुछ सिद्धांत समझने लगी और मैंने अभ्यास का एक मार्ग पाया। सभाओं के दौरान मैं अब इस बात पर ध्यान केंद्रित नहीं करती थी कि किस तरह से संगति करूँ ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें, बल्कि मैं परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करने पर ध्यान केंद्रित करती थी ताकि उसके इरादे समझ सकूँ, मैंने परमेश्वर के वचनों के माध्यम से आत्म-चिंतन किया और अपने भ्रष्ट स्वभाव और मेरे द्वारा चुने गए गलत मार्ग को ज्यादा स्पष्टता से देख पाई। इस तरह से अभ्यास करने पर मैंने खुद को परमेश्वर के बहुत करीब पाया। बाद में एक बहन को समूह में पदोन्नत किया गया जिसे अपना कर्तव्य निभाते हुए लंबा समय नहीं हुआ था और भले ही मेरा दिल अभी भी थोड़ा अशांत था, मैं इसे सही ढंग से देख सकी और रुतबे से बेबस नहीं हुई क्योंकि मुझे पता था कि सत्य के मामले में मुझमें बहुत कमी है। मुझे दूसरों से प्रशंसा पाने की जरूरत नहीं थी, बल्कि ज्यादा सत्य समझने, अपने भाई-बहनों को सींचने और अपने कर्तव्य पूरे करने की जरूरत थी। मैंने मन ही मन कहा, “भले ही मुझे कभी पदोन्नति न मिले, मैं फिर भी परमेश्वर के प्रति समर्पण करूँगी, अपने उचित स्थान पर खड़ी रहूँगी, अडिग होकर सत्य का अनुसरण करूँगी और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करूँगी।” मैंने उम्मीद भी नहीं की थी और कुछ ही समय बाद मुझे सिंचाई कार्य का पर्यवेक्षक चुन लिया गया। जब ऐसा हुआ तो मुझे रुतबा मिलने की खुशी नहीं हुई और इसके बजाय मैंने इसे एक जिम्मेदारी के रूप में देखा। मुझमें बहुत कमी थी और मेरा भ्रष्ट स्वभाव अभी भी बहुत गंभीर था, मुझे चिंता थी कि मेरी पुरानी समस्याएँ फिर से उभर आएँगी और मैं परमेश्वर के इरादे को निराश कर दूँगी, इसलिए मैंने अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरा मार्गदर्शन और मेरी रक्षा करने के लिए कहती रही। बाद में अपने कर्तव्य करते समय मैंने कुछ हद तक परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय विकसित किया और मैंने अपने कर्तव्यों पर ज्यादा ध्यान देना और उनके बारे में ज्यादा सोचना शुरू कर दिया। मैं यह समझ पाने और बदलाव लाने में सक्षम हो पाई, यह सब परमेश्वर के वचनों के कारण ही संभव हो पाया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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