19. हीनता की भावनाओं का समाधान कैसे करें
मैं बचपन से ही शब्दों को लेकर हमेशा से अजीब रही हूँ, जबकि मेरी बहन वाक्पटु और स्पष्टवादी हुआ करती थी और सभी पड़ोसी उसे पसंद करते थे। इसलिए मैं उसके साथ बाहर जाने से कतराती थी और लोगों से मिलने पर मैं उनसे बचने के तरीके खोजने की कोशिश करती थी। जब सहपाठी मुझे स्कूल में मंच पर बोलने के लिए बुलाते थे, तो मुझे लगता था कि मेरा भाषा संगठन कौशल खराब है और मैं मूर्ख बनने से डरती थी, इसलिए मैं सीधे मना कर देती थी। जब भी मैं दूसरों को मुझसे बेहतर भाषा अभिव्यक्ति कौशल के साथ और कामों को निर्णायकता और साहस के साथ सँभालते देखती, तो मुझे ईर्ष्या होती थी। मुझे लगता था कि मुझमें वाक्पटुता की कमी है और मेरी काबिलियत खराब है, इससे मैं बहुत हीन महसूस करती थी।
अगस्त 2020 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास किया। उसके बाद मैं कलीसिया अगुआ बनी। पहले तो मैं भाई-बहनों के साथ सभाओं में भाग लेने के दौरान कुछ वास्तविक मुद्दे हल करने में सक्षम थी। बाद में भाई चेन यी और मैंने कलीसिया के कार्य पर एक साथ काम करना शुरू किया। एक सभा के दौरान हमने चर्चा की कि सुसमाचार कार्य में बेहतर प्रभावशीलता के लिए कैसे सहयोग किया जाए। भाई चेन यी को बहुत स्पष्ट और सुसंगत तरीके से संगति करते हुए सुनकर मुझे ईर्ष्या महसूस हुई, मैंने सोचा कि मैं भाई चेन यी की तरह संगति नहीं कर सकती। भाई चेन यी की संगति के बाद ऊपरी अगुआ ने मुझसे कहा, “तुम्हें भी अपनी संगति साझा करनी चाहिए।” मुझे बहुत घबराहट हुई और मैंने सोचा, “मेरी भाषा संगठन कौशल खराब है। अगर मेरी संगति अच्छी न हुई तो वे मुझे कैसे देखेंगे? शायद मुझे इसे छोड़ देना चाहिए। लेकिन संगति साझा न करने का कोई बहाना नहीं होता।” इसलिए मैंने एक संक्षिप्त संगति की। मेरे बोलने के बाद दूसरों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई और माहौल अजीब हो गया। उस पल मेरी इच्छा हुई कि जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ और मैं जितनी जल्दी हो सके उस जगह से निकल जाना चाहती थी। उसके बाद जब मैंने चेन यी के साथ काम किया, तो मैंने देखा कि वह अपने काम में कितना स्पष्ट और निर्णायक था, इसलिए अपने सहयोग के दौरान मैं कम बोलती थी। यहाँ तक कि जब मैं कुछ कहती भी थी तो काफी बेबस महसूस करती थी। हमारे काम में भटकाव या समस्याएँ देखने पर भी मैंने उनके बारे में बताने की हिम्मत नहीं की, सोचा कि मेरी काबिलियत इतनी खराब है कि मैं अच्छी सलाह भी नहीं दे सकती। चेन यी की तुलना में मुझे लगा कि मैं बहुत पीछे हूँ और एक अगुआ के बतौर अच्छा काम करने में असमर्थ हूँ। बाद में जब मैं सुसमाचार कार्य करवाने के लिए एक समूह में गई, तो पता चला कि कुछ भाई-बहनों को कठिनाइयाँ आ रही हैं। शुरू में मैंने उनकी समस्याएँ हल करने के लिए उनके साथ संगति करने का इरादा किया, लेकिन फिर मैंने सोचा, “चेन यी पहले इस समूह के लिए जिम्मेदार रहा है। मेरे पास चेन यी जैसी काबिलियत या संगति करने की क्षमता नहीं है और मुझमें चेन यी की तरह कार्य के नजरिये की भी कमी है। अगर मेरी संगति अच्छी तरह से न हुई तो हर कोई मुझे कैसे देखेगा? शायद मुझे संगति साझा नहीं करनी चाहिए।” इस बारे में सोचकर मैंने संगति नहीं की। उस दौरान जब भी मुझे समस्याओं का सामना करना पड़ता, मैं पीछे हट जाती थी और जब मुझे संगति करनी होती थी, तब संगति नहीं करती थी, इस कारण कुछ मुद्दे लंबे समय तक अनसुलझे रहे। सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ और भाई-बहनों की दशाएँ अच्छी नहीं थीं। उस समय मुझे यह पक्का हो गया कि मैं खराब काबिलियत वाली हूँ और एक अगुआ का कर्तव्य निभाने में असमर्थ हूँ और मैंने अपने दिल में शिकायत की कि परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत क्यों नहीं दी। बाद में अगुआओं ने मेरी मदद के लिए मेरे साथ संगति की, लेकिन मैं उसे स्वीकार नहीं कर पाई और मेरी दशा नहीं बदली। अंत में मुझे बरखास्त कर दिया गया।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और उसके बाद ही मुझे अपनी दशा के बारे में कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कायर लोगों के सामने कोई कठिनाई आती है, तो उन्हें कुछ भी हो जाए, वे पीछे हट जाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक तो यह उनकी हीनभावना के कारण होता है। हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं ले सकते जो उन्हें लेनी चाहिए, न ही वे वो चीजें हासिल कर पाते हैं जो वे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे के भीतर प्राप्त करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करती है और स्पष्ट रूप से उनके चरित्र को भी प्रभावित करती है। दूसरे लोगों के साथ होने पर, वे विरले ही अपने विचार व्यक्त करते हैं, और उन्हें शायद ही कभी अपने दृष्टिकोण या राय के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए देखा जा सकता है। जब किसी मसले से उनका सामना होता है, तो वे बोलने की हिम्मत नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर पीछे हट जाते हैं। थोड़े-से लोगों के बीच तो वे बैठने का साहस दिखाते हैं, लेकिन जब ज्यादा लोग होते हैं, तो वे अंधेरे कोने में दुबक जाते हैं, दूसरे लोगों के बीच आने की हिम्मत नहीं करते। जब कभी वे यह दिखाने के लिए कि उनकी सोच सही है, सकारात्मक और सक्रिय रूप से कुछ कहना और अपने विचार और राय व्यक्त करना चाहते हैं, तब उनमें ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं होती। जब कभी उनके मन में ऐसे विचार आते हैं, उनकी हीनभावना एक ही बार में उफन पड़ती है, उन पर नियंत्रण कर उन्हें दबा देती है और कहती है, ‘कुछ मत कहो, तुम किसी काम के नहीं हो। अपने विचार व्यक्त मत करो, अपने तक ही रखो। अगर तुम सचमुच अपने दिल की कोई बात कहना चाहते हो, तो कंप्यूटर पर लिखकर उस बारे में खुद ही मनन करो। तुम्हें इस बारे में किसी और को जानने नहीं देना चाहिए। तुमने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी!’ यह आवाज तुमसे कहती रहती है, यह मत करो, वह मत करो, यह मत बोलो, वह मत बोलो, जिस वजह से तुम्हें अपनी हर बात निगलनी पड़ती है। जब तुम ऐसी कोई बात कहना चाहते हो जिस पर तुमने मन-ही-मन बहुत मनन किया है, तब तुम पीछे हट जाते हो, कहने की हिम्मत नहीं करते या कहने में शर्मिंदा महसूस करते हो, यह सोचते हो कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, और अगर ऐसा कर देते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने कोई नियम तोड़ा है या कानून का उल्लंघन किया है। और जब किसी दिन तुम सक्रिय होकर अपने विचार व्यक्त कर देते हो, तो भीतर गहराई में बेहद बेचैन और विचलित हो जाते हो। हालाँकि अत्यधिक बेचैनी की यह भावना धीरे-धीरे धूमिल हो जाती है, फिर भी तुम्हारी हीनभावना धीरे-धीरे बोलने, विचारों को व्यक्त करने, एक सामान्य व्यक्ति बनने और बाकी सभी की तरह बनने की तुम्हारी इच्छा, विचारों, इरादों और योजनाओं को दबा देती है। जो लोग तुम्हें नहीं समझते उन्हें लगता है कि तुम कम बोलने वाले, शांत, संकोची, भीड़ में अलग न दिखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति हो। जब तुम बहुत-से दूसरे लोगों के सामने बोलते हो, तो तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, और तुम्हारा चेहरा लाल हो जाता है; तुम थोड़े अंतर्मुखी हो, वास्तव में सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि तुम हीनभावना से ग्रस्त हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि लोग हीनता की भावना में फँसकर नकारात्मक और निराश हो जाते हैं, उनमें ऊपर की ओर बढ़ने का संकल्प नहीं रह जाता। वे कमजोर हो जाते हैं और हर काम से कतराने लगते हैं, यहाँ तक कि वे अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करने में भी विफल हो जाते हैं। वे समस्याएँ और विचलन देखते हैं और अपनी राय जताना या सुझाव देना चाहते हैं, लेकिन उनमें साहस की कमी होती है, वे हताशा में डूबकर हुए खुद को अक्षम मान लेते हैं। मेरी दशा बिल्कुल यही थी। छोटी उम्र से ही मैंने अपनी बहन को हर काम में स्पष्ट और कुशल देखा था, जबकि मैं अनाड़ी थी और चुप रहती थी। मैं बहुत हीन महसूस करती थी और अक्सर परिस्थितियों से बचना पसंद करती थी, इस डर से कि मेरी कमियाँ उजागर हो जाएँगी, जिससे मेरा सम्मान खत्म हो जाएगा। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद जब मैं उन लोगों के साथ अपना कर्तव्य निभा रही थी जो अपने काम में स्पष्ट और निर्णायक थे, तो मैं बहुत निष्क्रिय हो गई। मैंने मान ही लिया था कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं काम करने में असमर्थ हूँ और मैं हीनता की भावनाओं के साथ जी रही थी। जब मुझे संगति करनी चाहिए थी, तब मुझे उसकी हिम्मत नहीं होती थी और अक्सर जैसे ही मैं राय देने वाली होती, मैं उन विचारों को छिपा जाती जिन्हें मुझे व्यक्त करना चाहिए था। चेन यी के साथ काम करने के अपने समय पर विचार करूँ तो सुसमाचार कार्य में सहयोग करने के तरीके पर चर्चा करते हुए मेरे पास मूल रूप से कुछ विचार थे, लेकिन यह देखकर कि वह कितना स्पष्ट था, मैंने खुद को कमतर महसूस किया और संगति साझा नहीं करना चाहा। मैं काम में कुछ मुद्दों की पहचान करने में सक्षम थी और उन्हें सामने लाना चाहती थी, लेकिन यह सोचकर कि मेरा बोलने का कौशल उसकी तरह अच्छा नहीं है, कुछ सोच-विचार के बाद मैंने अपने विचार व्यक्त नहीं किए। जब मैं काम करवाने के लिए कलीसिया गई और समस्याएँ देखीं, तो मैंने उन्हें हल करने के लिए संगति नहीं की, जिसके परिणामस्वरूप काम में कोई प्रगति नहीं हुई। मैं लगातार हीनता की भावनाओं के साथ जी रही थी और मेरी दशा बद से बदतर होती जा रही थी। मैं वे कर्तव्य पूरा करने में सक्षम नहीं थी जो मुझे करने चाहिए थे और पूरी तरह से बेकार महसूस कर रही थी। न केवल मेरा अपना जीवन कष्ट में था बल्कि मेरे कर्तव्य में भी देरी हो गई। समस्या की गंभीरता समझते हुए मैं जल्दी से इस दशा को बदलना चाहती थी।
एक भक्ति के दौरान मुझे एहसास हुआ कि मेरा अपनी काबिलियत को खराब मानने की वजह यह थी कि मैं दूसरों की राय से प्रभावित थी कि मुझमें बोलने के कौशल की कमी है और इसका कारण परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजें देखने में मेरी विफलता थी। तो फिर किसी व्यक्ति को कैसे आँकना चाहिए कि उसकी काबिलियत अच्छी है या बुरी? मैंने इस पहलू के बारे में परमेश्वर के वचनों को खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम एक भी गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और तुम बस इतने ही बहादुर हो कि किसी के आसपास न होने पर या अकेले होने पर ही खुलकर गा पाते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते, तो उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ और विचारसूत्र मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं की अनिवार्य समस्या को सुलझा सकोगे, और धीरे-धीरे उससे उबर सकोगे। अगर कोई ऐसी हीनभावनाओं को पहचान ले, उनके प्रति जागरूक होकर सत्य खोजे, तो वे आसानी से सुलझाई जा सकती हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “हम लोगों की काबिलियत कैसे मापते हैं? यह काम करने का उचित तरीका सत्य के प्रति उनके रवैए को देखना और यह जानना है कि वे सत्य को अच्छी तरह से समझ सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कुछ विशेषज्ञताएँ बहुत तेजी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन जब वे सत्य को सुनते हैं, तो भ्रमित हो जाते हैं और उनका ध्यान भटक जाता है। अपने मन में वे उलझे हुए होते हैं, वे जो कुछ भी सुनते हैं वह उनके अंदर नहीं जाता, न ही वे जो सुन रहे हैं उसे समझ पाते हैं—यही खराब काबिलियत होती है। कुछ लोगों को जब आप बताते हैं कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे सहमत नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि ऊँची शिक्षा प्राप्त और जानकार होने का मतलब है कि वे अच्छी काबिलियत वाले हैं। क्या अच्छी शिक्षा ऊँचे दर्जे की काबिलियत दर्शाती है? ऐसा नहीं है। लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को संभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा वचन और सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि किसी व्यक्ति की काबिलियत को आँकना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर है कि क्या वह सत्य समझ सकता है, क्या वह स्वयं को जान सकता है और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके इरादे समझ सकता है और वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से सामना होने पर वह परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास के मार्ग खोज सकता है या नहीं। अच्छी काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के वचन सुनने के बाद केवल कुछ शब्दों या विनियमों को समझने के बजाय सिद्धांतों और मुख्य बिंदुओं को समझ पाते हैं। अपने सामने आने वाले हालात को लेकर उनके अपने विचार, राय और समाधान होते हैं और वे बिना किसी विचलन के परमेश्वर के वचनों के अनुसार सटीक रूप से अभ्यास कर सकते हैं। लेकिन मैं मानती रही कि अच्छी काबिलियत वाले लोग वे होते हैं जो अपने काम में स्पष्ट और निर्णायक होते हैं। चूँकि मुझे लगता था कि खुद को व्यक्त करने की मेरी क्षमता खराब है और मेरे काम में निर्णायकता की कमी है, इसलिए मैंने खुद को कम काबिलियत वाला माना और खुद को अक्षम मानते हुए हीन और नकारात्मक महसूस करने की दशा में फँसी रही। केवल अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि इन मामलों पर मेरे विचार गलत थे। मैंने पौलुस के बारे में सोचा जिसके पास खूबियाँ और वाक्पटुता थी और जिसने यूरोप के अधिकांश हिस्सों में सुसमाचार का प्रचार किया था और कई पत्र लिखे थे, लेकिन उसमें सत्य समझने की क्षमता का अभाव था। उसे प्रभु यीशु के बारे में कोई समझ नहीं थी और उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव का सच्चा ज्ञान नहीं था। वह केवल अनेक आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत बोलना जानता था और यहाँ तक कि बेशर्मी से गवाही भी देता था कि उसके लिए जीना ही मसीह है और अंततः उसे परमेश्वर ने हटा दिया। इससे पता चलता है कि वह अच्छी काबिलियत वाला व्यक्ति नहीं था। अपनी काबिलियत का मेरा आकलन सत्य सिद्धांतों पर आधारित नहीं था, बल्कि मेरी मेरी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था, इसलिए यह गलत था। अब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैं परमेश्वर के वचनों को समझने, उनकी रोशनी में आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने में सक्षम थी। मैं काम में कुछ मुद्दों और भाई-बहनों की दशाओं को भी पहचान सकती थी, इन मुद्दों को हल करने के लिए संगति करना जानती थी और मैं परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के कुछ मार्ग भी खोज सकती थी। हालाँकि मेरी कार्य क्षमता में कुछ कमी थी और मेरा बोलने का कौशल उतना अच्छा नहीं था, जब मैंने ध्यानपूर्वक सहयोग किया और अपनी भूमिका पूरी तरह से निभाई, तो मैं अपने कर्तव्य करते हुए कुछ नतीजे हासिल करने में सक्षम रही। भाई-बहनों ने भी मूल्यांकन किया कि मेरी काबिलियत औसत थी, लेकिन मैं परमेश्वर के वचनों को समझ सकती थी। उन्होंने देखा कि परिस्थितियों से सामना होने पर मैं आत्म-चिंतन करने और सबक सीखने पर ध्यान देती थी और मैं कुछ भेद पहचान सकती थी। और फिर, जब मुझे कोई कार्य सौंपा जाता था, तो मैं मेहनती और सहयोगी बनी रहती थी और कुछ नतीजे प्राप्त करने में सक्षम थी। इस पर आत्म-चिंतन करने पर मैं खुद को सही ढंग से देखने में सक्षम हुई। मैं हीनता की भावनाओं से बँधी हुई और बेबस थी, अपनी कमियों को सही ढंग से देखने में असमर्थ थी। मैंने आँख मूँदकर यह तय कर लिया था कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं कार्य करने में असमर्थ हूँ और उस दशा में रहते हुए मैं वह भूमिका निभाने में विफल रही जो मुझे निभानी चाहिए थी और अपने कर्तव्य निभाते हुए मैं कोई बदलाव लाने में असमर्थ थी, जैसे कि जगह की बर्बादी। न केवल मुझे अपने कर्तव्य में हुए नुकसानों का पछतावा नहीं था, बल्कि मैंने शिकायत की कि परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत नहीं दी है। मैंने अपने कर्तव्य को नकारात्मकता और सुस्ती के साथ देखा। मैं वास्तव में विद्रोही थी! असल में परमेश्वर ने मुझे जो काबिलियत दी थी, वह पर्याप्त थी। मैं अब और हीनता की दशा में नहीं रह सकती थी। मुझे परमेश्वर से पश्चात्ताप करना था, अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज पर ध्यान केंद्रित करना था और अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करना था। जब मुझे अपने विचार साझा करने की जरूरत हो तो मुझे वही साझा करना चाहिए जितना मैं समझती हूँ। मुझे वही सामने लाना था जो परमेश्वर ने मुझे दिया था। भले ही मेरी संगति में कमियाँ हों, मैं बाद में मुद्दों का सारांश दे सकती हूँ। मुझे नकारात्मक या सुस्त नहीं होना चाहिए, जिससे परमेश्वर की आशा पर पानी फिर जाए। बाद में कलीसिया ने मेरे लिए कलीसिया के सफाई कार्य में अगुआओं की मदद करने की व्यवस्था की। भले ही मुझमें कई कमियाँ थीं, लेकिन अब मैं अपनी खराब काबिलियत से बेबस नहीं थी।
बाद में मैंने इस बात पर आत्म-चिंतन किया कि जब मैं दूसरों को बेहतर वाक्पटुता और कार्य क्षमता के साथ देखती हूँ, तो मैं हीन क्यों महसूस करती हूँ। इसमें कौन से भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं? एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मसीह-विरोधी विशेष रूप से अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को सँजोकर रखते हैं। उनकी दैनिक जीवन-शैली और अनुसरण सभी प्रतिष्ठा और रुतबे से जुड़े होते हैं। वे जब भी और जहाँ भी हों, कभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ते। मैंने विचार किया कि कैसे मैं भी वैसी ही रही हूँ। अपना कर्तव्य सँभालने के बाद से जब भी मैंने दूसरों को निर्णायकता और कुशलता के साथ संगति करते देखा, मैंने खुद को उनसे कमतर महसूस किया। इसलिए मैं हीनता की भावना के साथ जी रही थी, खुद को नकारात्मक रूप से सीमित कर रही थी। मुझे अपनी कमियाँ उजागर होने और सम्मान खोने का डर था और मेरे पास अपने कर्तव्यों के सहयोग में कोई सक्रिय रवैया नहीं था। मैं “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” जैसे शैतानी जहरों के साथ जी रही थी, मैं विशेष रूप से दूसरों की राय को लेकर चिंतित रहती थी। चेन यी के साथ काम करते समय यह देखकर कि वह हर तरह से मुझसे बेहतर था, मुझमें नीची नजर से देखे जाने का डर पैदा हो गया था। सभाओं के दौरान मैंने यथासंभव कम संगति करने की कोशिश की थी या बिल्कुल भी नहीं की। यहाँ तक कि जब मैंने काम में विचलन या समस्याएँ देखीं, जिनका समय पर समाधान होना था, तो मैंने उनके बारे में संगति करने से परहेज किया, मुझे डर था कि मेरी संगति चेन यी जितनी अच्छी नहीं होगी और मैं बुरी दिखूँगी। एक कलीसिया अगुआ के नाते कलीसिया के काम पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय मैं केवल इस बात से चिंतित थी कि कहीं मेरे अपने गौरव को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचेगा। समस्याओं का पता चलने पर मैंने उन्हें दरकिनार कर दिया और उन्हें तुरंत हल नहीं किया, जिससे काम में देरी हुई। मैं सचमुच स्वार्थी थी! परमेश्वर ने मुझे एक अगुआ का कर्तव्य निभाने के लिए ऊपर उठाया था ताकि मैं सत्य का अनुसरण कर सकूँ, पूरी तरह से अपनी भूमिका निभा सकूँ और कलीसिया के काम को आगे बढ़ा सकूँ। लेकिन एक अगुआ के बतौर अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी की जाएँ, इस पर विचार करने के बजाय मैं हर परिस्थिति में शर्मिंदगी से बचने के बारे में ही सोचती रही। जब भी मेरे गौरव पर खतरा मँडराता, मैं निराश हो जाती और खुद को नकारात्मक रूप से सीमित कर लेती थी, शिकायत करती कि परमेश्वर ने मुझे अच्छी काबिलियत नहीं दी है। यहाँ तक कि मैंने अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा भी खो दी थी। मैंने देखा कि मेरे अंदर अंतरात्मा और विवेक की कितनी कमी थी। वास्तव में मेरे पिछले कर्तव्यों के खराब नतीजे पूरी तरह से काबिलियत की समस्या के कारण नहीं थे। मुख्य समस्या यह थी कि मैं भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी, लगातार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचा रही थी। भले ही कलीसिया के काम में देरी हो जाए, मैं अपने अभिमान की रक्षा करती थी। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल कतई नहीं था, मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को ही अपना जीवन मानती थी। मैं मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रही थी। अगर मैं पश्चात्ताप न करती और नहीं बदलती, तो निश्चित रूप से परमेश्वर मुझसे घृणा करता और मैं हटा दी जाती।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास का मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीजों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अपने कर्तव्य निभाते हुए हमें सब कुछ परमेश्वर के समक्ष करना चाहिए और उसकी जाँच-पड़ताल को स्वीकारना चाहिए। समस्याएँ आने पर हमें कलीसिया के कार्य की रक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए, अपने अभिमान को अलग रखना चाहिए और जो हमें करना है उसे पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। केवल तभी हम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होंगे। जब मैं उन भाई-बहनों के साथ काम करती हूँ जो अपने काम में वाक्पटु और निर्णायक हैं, तो मुझे उनके साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना चाहिए, अपनी कमजोरियों की भरपाई करने के लिए उनकी खूबियों से सीखना चाहिए और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए। यह महसूस करते ही मेरा दिल खुश हो गया। उसके बाद अपने कर्तव्य करते हुए मैंने अपने इरादों को सही करने पर ध्यान केंद्रित किया। मैंने जितना समझा, उतनी ही संगति की, अब मैं अपने अभिमान या सीमित काबिलियत के बारे में चिंताओं से बाधित नहीं थी और कलीसिया का सफाई कार्य धीरे-धीरे बेहतर होने लगा। जल्दी ही मुझे फिर से कलीसिया अगुआ चुन लिया गया।
कुछ समय बाद ऊपरी अगुआ और मैं टीम के अगुआओं के साथ बैठक करने गए और उसने मुझे इसकी अध्यक्षता करने के लिए कहा। मैंने सोचा कि कैसे अगुआ वाक्पटु, निर्णायक हैं और भाई-बहनों की दशाएँ ठीक करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के उचित वचन खोजने में सक्षम हैं, जबकि मैं इससे जूझ रही हूँ। मेरा भाषा कौशल कमजोर था और मैं एक अच्छी वक्ता नहीं थी, इसलिए मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने बैठक को अच्छी तरह से न सँभाला तो दूसरे मुझे कैसे देखेंगे। मुझे जल्दी ही एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर हीनता की भावनाओं में फँस रही हूँ, अपने अभिमान की चिंता कर रही हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं देखती हूँ कि मैं फिर से हीनता की भावनाओं में फँस गई हूँ क्योंकि दूसरे मुझसे अधिक वाक्पटु हैं। मेरा मार्गदर्शन करो। मैं घमंड और अभिमान से बाधित नहीं होना चाहती। मैं अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाने और सहयोग करने की पूरी कोशिश करने की इच्छुक हूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग खूबियाँ और क्षमताएँ दी हैं। भले ही मेरे पास अच्छी काबिलियत नहीं है, जब मैं ईमानदारी से परमेश्वर के साथ सहयोग करती हूँ, तो मैं उसका मार्गदर्शन पा सकती हूँ। आज अगुआ के साथ काम करने के दौरान मैं उसकी क्षमताओं से सीखूँगी और अपने अभिमान या रुतबे से बाधित नहीं होऊँगी। मुझे अपनी समझ के अनुसार अपनी बात सामने रखने के लिए भरसक प्रयास करना चाहिए और इस तरह मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकती हूँ। इस एहसास के बाद मैं अब और अपने अभिमान से बाधित नहीं थी और मैंने काफी मुक्त महसूस किया। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो खास तौर पर टीम के अगुआओं की दशा के अनुकूल था और मैंने अपनी खुद की अनुभवजन्य समझ साझा की। टीम के अगुआओं की नकारात्मक दशा बदल गई। इसके बाद सभाओं के दौरान मैंने जितना समझा उतना ही साझा किया, इस बात की चिंता नहीं की कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं, बल्कि सक्रिय रूप से भाग लिया। मैं अपनी कमियों को सही ढंग से ठीक कर पाई और खुद को सीमित नहीं किया। अब मेरा हीनता की भावनाओं के बंधन से मुक्त होना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन का ही नतीजा है।