85. मैं अब अपनी कमजोरियों का सामना सही तरीके से कर सकता हूँ
जब मैं छोटा था तो बड़े अक्सर मेरे बोलने पर मजाक उड़ाया करते थे। उस नासमझ उम्र में मुझे समझ नहीं आता था कि क्या हो रहा है और बड़ा होने पर ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे हकलाने की समस्या है। मैंने इसे ठीक करने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं कर पाया और इससे मुझे बहुत परेशान होती थी। इस दोष की वजह से दूसरे मुझे अक्सर चिढ़ाते और मजाक उड़ाते थे और धीरे-धीरे मैंने कम बोलना शुरू कर दिया और लोगों से मिलना-जुलना नहीं चाहता था और अकेले रहना पसंद करने लगा। जब मैं स्कूल में था तो मैं कभी भी अपने सहपाठियों की पार्टियों में नहीं गया और सर्दियों और गर्मियों की छुट्टियों के दौरान भी मैं बाहर निकलना या रिश्तेदारों के यहाँ जाना नहीं चाहता था। मैं बहुत अंतर्मुखी हो गया और मेरा आत्मसम्मान बहुत गिर गया। कभी-कभी घर में जब मेरी माँ मुझे हकलाते हुए सुनती तो वह मुझे डांटती, “क्या तुम धीरे नहीं बोल सकते? जल्दी मत करो! अगर तुम ऐसे ही रहे तो बड़े होकर तुम्हें पत्नी भी नहीं मिलेगी!” जब मैंने काम करना शुरू किया तो एक बार एक सहकर्मी ने मुझे हकलाते हुए सुना और मजाक में कहा, “तुम क्यों हकलाते हो? तुम तो सच में बहुत अजीब से हो!” हालांकि वह मजाक था लेकिन मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया, और मुझे खुद से नफरत होने लगी कि मैं अपनी इस हकलाहट को ठीक नहीं कर पा रहा।
सितंबर 2008 में मैंने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार किया। जब भाई-बहनों ने मेरी हकलाने की समस्या देखी तो उन्होंने मेरा मजाक उड़ाने या मुझे नीचा दिखाने के बजाय मुझे प्रोत्साहित किया और मेरी मदद की। कभी-कभी जब मैं सभाओं में अनजाने भाई-बहनों से मिलता तो मैं घबरा जाता। जब मैं परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए लड़खड़ाता तो भाई-बहन मेरे साथ पढ़ने लगते और मुझे उत्साहित करते कि मैं खुद को बंधन में महसूस न करूँ। परमेश्वर के घर में मुझे एक विशेष गर्मजोशी महसूस हुई। तीन वर्ष बाद भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया का अगुआ चुना और मुझे पता था कि यह परमेश्वर की ओर से मुझे ऊँचा उठाना है। लेकिन अगुआ के कर्तव्यों में सत्य की संगति करना और समस्याओं का समाधान करना शामिल होता है और भाई-बहनों के साथ अक्सर सभा करनी पड़ती है और विशेष रूप से बड़ी सभाओं में मैं अपनी हकलाने की समस्या से बाधित महसूस करता और बहुत घबरा जाता और डरता कि अगर मैं संगति करते समय लड़खड़ा गया तो मुझे शर्मिंदगी होगी और भाई-बहन मेरा मजाक उड़ाएँगे। मुझे याद है कि एक सभा में मैंने एक बहन को देखा जिसे मैं अच्छी तरह से नहीं जानता था और मैं चिंतित था कि अगर मैं ठीक से संगति नहीं कर पाया तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी। नतीजतन जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े तो मैं बुरी तरह से हकलाने लगा। वह बहन खुद को रोक नहीं पाई और हँस पड़ी। यह मेरे आत्म-सम्मान पर एक गंभीर चोट थी। हालांकि उस बहन ने मुझसे ईमानदारी से माफी माँगी फिर भी मैं अंदर से बहुत आहत महसूस कर रहा था मुझे हमेशा हीनता का एहसास होता इसलिए मैं अक्सर शिकायत करता, “मुझ में ये कमी क्यों है? मैं इसे दूर क्यों नहीं कर पाता?” बाद में भाई-बहनों के साथ मेलजोल के दौरान मैं बहुत संवेदनशील हो गया और हर बार परमेश्वर के वचन पढ़ने या संगति करने के बाद मैं भाई-बहनों के चेहरे की अभिव्यक्तियों पर बारीकी से ध्यान देता और जब भी मुझे कोई असामान्य हाव-भाव दिखता तो मैं सोचता, “क्या वे मुझ पर हँस रहे हैं?” इससे मैं और भी ज्यादा घबरा जाता और कभी-कभी तो मैं इतना परेशान हो जाता कि मेरे हाथों में पसीना आ जाता। आखिरकार मैं सभाओं से डरने लगा और विशेषकर बड़ी सभाओं में, मैं अपनी जिम्मेदारियाँ अपने साझेदार भाई को सौंप देता। मैं इस दर्दनाक और दबावपूर्ण स्थिति में बहुत लंबे समय तक जीता रहा और आखिरकार मैं और सहन नहीं कर पाया इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के बाद मैंने पाठ आधारित कर्तव्य अपनाया जहाँ मैं अपने दिन लेख चुनने में बिताता था और बोलने या दूसरों के साथ मेलजोल नहीं करना पड़ता था इसलिए मुझे अपनी हकलाने की समस्या के कारण बंधन महसूस नहीं करना पड़ता था।
सितंबर 2020 में, मुझे फिर से कलीसिया का अगुआ चुना गया लेकिन कार्य के भारी दबाव और अनजाने भाई-बहनों के साथ बार-बार मेलजोल के कारण मेरी हकलाने की समस्या और बिगड़ गई। जब सभाओं का समय आता तो मैं गहराई से चिंतित होता कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं और मैं इतना बाधित महसूस करता कि मैं उन दिनों को याद करने लगता जब मैं पाठ आधारित कर्तव्य करता था जहाँ मुझे बहुत अधिक लोगों के साथ मेलजोल नहीं करना पड़ता था और दबाव कम होता था। मैं आशा करता था कि मैं पाठ आधारित कर्तव्य पर लौट जाऊँ। अप्रत्याशित रूप से जुलाई 2021 में, भाई-बहनों ने मुझे प्रचारक के रूप में नामांकित किया। मैं मन ही मन में सोचता था, “प्रचारक के तौर पर कैसे काम कर पाऊँगा? कलीसिया का अगुआ होना पहले से ही काफी दबाव भरा है; मैं फिर से पदोन्नत होने की उम्मीद करने की हिम्मत नहीं करता।” लेकिन समझ के अनुसार, मैंने फिर भी चुनाव में भाग लेने का फैसला किया। चुनाव सभा के दौरान मैंने सोचा कि एक प्रचारक को कई लोगों के साथ बातचीत करनी पड़ती है और कई कलीसियाओं की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और उसका कार्य सत्य की संगति पर निर्भर करता है ताकि समस्याओं को हल किया जा सके। मैंने सोचा : मेरी गंभीर हकलाहट के साथ क्या मैं स्पष्ट रूप से संगति कर पाऊँगा? अगर भाई-बहन फिर से मुझ पर हँसे तो क्या मैं पूरी तरह से अपनी इज्जत नहीं खो दूँगा? आखिरकार मैंने अपना नाम वापस ले लिया। इसके बाद कुछ और चुनाव हुए। मुझे पता था कि कई बरस परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद मुझे उसके इरादे को समझना चाहिए और अधिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए। लेकिन जैसे ही मैं अपनी कमी के बारे में सोचता, मैं झिझक जाता और हर बार पीछे हट जाता।
दिसंबर 2023 में मुझे अगुआई की ओर से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि भाई-बहनों ने मुझे जिला अगुआ के रूप में नामांकित किया है और चाहते हैं कि मैं चुनाव में भाग लूँ। मैं मन ही मन में सोचता था, “मेरे इस दोष को देखते हुए, मैं चुनाव में भाग लेने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, और अगर मैं चुना गया तो भी मैं जिम्मेदारी नहीं निभा पाऊँगा। मुझे क्या करना चाहिए?” अगर मैं पीछे हटता तो मुझे भय था कि यह कलीसिया के कार्य का समर्थन न करना होता, लेकिन अगर मैं भाग लेता तो मैं खुद को अयोग्य महसूस करता। मैं बहुत दुविधा में था। अपनी एक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “बोलते समय हकलाने पर—यह किस तरह की समस्या है? (एक जन्मजात स्थिति है।) यह एक जन्मजात स्थिति है और एक प्रकार की शारीरिक कमी भी है। यकीनन, हकलाने के रूपों में फर्क होता है। कुछ हकलाने वाले लोग एक अकेले शब्दांश को खींच देते हैं, जबकि दूसरे लोग एक ही शब्दांश को दोहराते रहते हैं और सारा दिन ले लेने के बावजूद एक पूरा वाक्य भी बोल नहीं पाते हैं। संक्षेप में, यह एक जन्मजात स्थिति है और यकीनन यह एक प्रकार की शारीरिक कमी भी है। क्या इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से होता है? (नहीं।) इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से नहीं होता है। अगर कोई कहता है, ‘तुम तो बोलते समय तुतलाते हो; तुम यकीनन चालाक हो!’ या ‘तुम तो बात करते समय हकलाते भी हो; तुम इतने घमंडी कैसे हो सकते हो?’—क्या ऐसे कथन सही हैं? (नहीं।) एक कमी या दोष के रूप में हकलाहट का संबंध किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों के किसी भी पहलू से नहीं है। इसलिए हकलाहट एक जन्मजात स्थिति और एक प्रकार की शारीरिक कमी है। स्पष्ट रूप से इसमें किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव शामिल नहीं हैं और इसका उनसे कोई भी संबंध नहीं है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (9))। “कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें लोग हल नहीं कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि तुम दूसरों से बात करते समय घबरा जाते हो; जब तुम्हें स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो हो सकता है कि तुम्हारे पास अपने विचार और नजरिये होते हों, लेकिन तुम उन्हें स्पष्टता से कह नहीं पाते हो। जब बहुत सारे लोग मौजूद होते हैं तो तुम विशेष रूप से घबरा जाते हो; तुम बेतुके ढंग से बोलते हो और तुम्हारा मुँह कँपकाँपता है। कुछ लोग तो हकलाते भी हैं; दूसरे लोगों के मामले में, अगर विपरीत लिंग के सदस्य मौजूद होते हैं तो वे खुद को और भी कम स्पष्टता से व्यक्त कर पाते हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि क्या कहना है या क्या करना है। क्या ऐसी स्थिति पर काबू पाना आसान है? (नहीं।) कम-से-कम थोड़े समय में तुम्हारे लिए इस दोष पर काबू पाना आसान नहीं है क्योंकि यह तुम्हारी जन्मजात स्थितियों का हिस्सा है। ... यकीनन, अगर तुम इस पर काबू नहीं पा सकते हो तो तुम्हें नकारात्मक नहीं होना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनकाल में इसे कभी दूर न कर पाओ हो तो भी परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम्हारा मंच पर आने का भय, तुम्हारी घबराहट और डर, ये अभिव्यक्तियाँ तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाती हैं; चाहे वे जन्मजात हों या जीवन में बाद के परिवेश के कारण पैदा हुई हों, हद-से-हद वे एक कमी हैं, तुम्हारी मानवता का एक दोष हैं। अगर तुम इसे लंबे समय में या यहाँ तक कि एक जीवनकाल में भी नहीं बदल पाते हो तो भी इसके बारे में सोचते मत रहो, इसे खुद को बेबस मत करने दो और न ही तुम्हें इसके कारण नकारात्मक बनना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; इसे बदलने का प्रयास करने या इससे संघर्ष करने का कोई फायदा नहीं है। अगर तुम इसे बदल नहीं पाते हो तो इसे स्वीकार कर लो, इसे मौजूद रहने दो और इसके साथ सही ढंग से पेश आओ क्योंकि तुम इस कमी, इस दोष के साथ-साथ जी सकते हो; तुममें इनका होना परमेश्वर के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करता है। अगर तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो और अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य कर सकते हो तो तुम अभी भी बचाए जा सकते हो; यह तुम्हारे द्वारा सत्य स्वीकार करने और तुम्हारे उद्धार को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए तुम्हें अक्सर अपनी मानवता में किसी कमी या दोष से बेबस नहीं होना चाहिए और न ही तुम्हें अक्सर नकारात्मक और हतोत्साहित होना चाहिए या यहाँ तक कि न अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए और न सत्य का अनुसरण करना छोड़ना चाहिए और न उसी कारण से बचाए जाने का मौका खोना चाहिए। ऐसा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है; ऐसा कोई बेवकूफ, जाहिल व्यक्ति ही करेगा” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि हकलाना और रुक-रुक कर बोलना जन्मजात स्थितियां हैं, शारीरिक दोष हैं, और यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही यह कुछ ऐसा है जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। यह मेरे सत्य के अनुसरण या उद्धार के अनुसरण को प्रभावित नहीं करता। मुझे अपनी कमियों से बंधित नहीं होना चाहिए। अगर मैं एक शारीरिक दोष के कारण सत्य के अनुसरण और पदोन्नति और परिपोषण के अवसर को छोड़ दूँ जिससे उद्धार जैसे महत्वपूर्ण मामले में देरी हो जाए, तो क्या मैं छोटे के लिए बड़ा त्याग नहीं कर रहा होता? क्या यह वास्तव में मूर्खता और अयोग्यता नहीं होगी? परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर, मुझे बहुत सुकून मिला। पिछले समय को देखूँ, तो मैंने हमेशा बचपन से ही अपने भाषण दोष पर बहुत अधिक ध्यान दिया था, यह मानते हुए कि इसने मेरी जिंदगी, कार्य और कर्तव्यों में मुझे अक्सर असुविधाजनक और प्रभावित किया, जिसके कारण मैं कम संवाद करने वाला और विशेष रूप से अंतर्मुखी हो गया था और मेरा आत्मसम्मान बहुत कम हो गया था, जिसका मतलब था कि मेरे पास किसी भी चीज में आत्मविश्वास या प्रेरणा नहीं थी। सभाओं के दौरान जब भाई-बहन अपने अनुभवजन्य समझ की खुलेआम एक-दूसरे के साथ संगति करते थे, यह मुक्तिदायक और स्वतंत्र महसूस कराता था, और संगति के माध्यम से पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना भी आसान होता था लेकिन अपनी हकलाहट के कारण मैं दबाव महसूस करता था और मुझे सभाओं में राहत नहीं मिल पाती थी, यहाँ तक कि उनसे डरता था और जब भी संभव हो उन्हें टाल देता था, यानी मैंने सत्य प्राप्त करने के कई अवसर खो दिए। कलीसिया के चुनावों का सामना करते समय मैंने हमेशा भाग लेने का अवसर छोड़ दिया, और जब कलीसिया के कार्य को तत्काल लोगों के सहयोग की आवश्यकता होती, तो मैं जिम्मेदारी नहीं ले पाया और परमेश्वर के इरादे पर विचार करने में असफल रहा। मैंने देखा कि मैं अक्सर अपनी हकलाहट से बंधा और बाधित रहता था दर्द और दमन की स्थिति में जीता था और यह सब इसलिए था क्योंकि मैं अपनी कमियों को सही तरीके से नहीं देख पाया। मैंने सत्य को नहीं समझा और मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और मामलों को देखने का तरीका नहीं जानता था। इसने न केवल मुझे बंधन और बाधा में रखा बल्कि मुझे बार-बार अपने कर्तव्यों को अस्वीकार करने के लिए भी मजबूर किया। मैंने यह मानते हुए खुद को सीमित कर लिया कि अपनी हकलाहट के कारण मैं अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, जिससे मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उससे दूरी बना ली—मैं कितना मूर्ख था! मैं इतना नकारात्मक नहीं रह सकता था मुझे अपनी कमी को सही तरीके से देखना था और इस चुनाव का शांतिपूर्वक सामना करना था।
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि दो बहनें कुछ विशेष कारणों से चुनाव में भाग नहीं ले सकती थीं। मैं मन ही मन में सोचा, “ये दो बहनें चुने जाने की सबसे प्रबल उम्मीदवार हैं तो अगर वे भाग नहीं ले पातीं तो क्या मेरी चुने जाने की संभावना ज्यादा नहीं होगी?” अपनी कमी के बारे में सोचते हुए मुझे तुरंत बहुत दबाव महसूस हुआ। कलीसिया में रुतबा खोने की बात अलग थी लेकिन अगर मैं जिला अगुआ बन गया तो यह अपमान और भी बड़ा होगा। मैंने अपनी स्थिति एक बहन के साथ साझा की और उसने बताया कि मैं दूसरों की नजरों में अपनी छवि को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित रहता हूँ और गर्व और प्रतिष्ठा पर बहुत अधिक ध्यान दे रहा हूँ। उस बहन के चेताने पर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्थाओं में रहते हो तो तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर सक्रिय तत्व कम होंगे और नकारात्मक तत्व बाहर आकर तुम्हें परेशान करेंगे। इन नकारात्मक और प्रतिकूल अवस्थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग इन नकारात्मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए दैहिक इच्छाओं और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्वरूप, पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्हें रास्ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्पष्टता से नहीं देख पाते। तुम्हारे भीतर बहुत-सी नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हैं और वे तुम्हारे हृदय में समा गई हैं, इसलिए तुम अक्सर नकारात्मक, विषादपूर्ण चित्त वाले और परमेश्वर से दूर, और दूर और पहले से भी अधिक कमजोर होते जाते हो। यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रबोधन और कार्य को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम इन अवस्थाओं से बच नहीं पाओगे, और तुम्हारी नकारात्मक अवस्था नहीं बदलेगी, क्योंकि यदि तुम्हारे भीतर पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है, तो तुम रास्ता नहीं खोज पाओगे। इन दो कारणों के चलते, तुम्हारे लिए अपनी नकारात्मक अवस्था को त्यागकर सामान्य अवस्था में प्रवेश करना बहुत कठिन है। हालाँकि, जब तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हो तो कठिनाई का सामना करते हो, कड़ी मेहनत करते हो, बहुत प्रयास करते हो, अपना परिवार और करिअर भी छोड़ देते हो और सब-कुछ त्याग देते हो, तब भी तुम्हारे भीतर की नकारात्मक अवस्थाएँ रूपांतरित नहीं हो पातीं। ऐसे बहुत-से बंधन हैं जो तुम लोगों को सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने से रोकते हैं, जैसे, तुम्हारी धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान, सांसारिक आचरण के फलसफे, स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ और भ्रष्ट स्वभाव। ये प्रतिकूल चीजें तुम लोगों के हृदय में समा गई हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि मैं चुनावों के मामले में हमेशा निष्क्रिय रहा न केवल इसलिए कि मेरी हकलाहट ने मुझे बाधित किया था बल्कि प्रतिष्ठा और गर्व के बंधनों के कारण भी। मैंने सोचा “जितनी अधिक जिम्मेदारियाँ होंगी उतने ही अधिक भाई-बहनों से मुझे बातचीत करनी पड़ेगी और एक अगुआ के रूप में मुझे सत्य की संगति करनी होगी ताकि समस्याओं का समाधान हो सके और अगर सभाओं में संगति करते समय मैं हकलाऊँगा तो और भी अधिक लोग मेरी हकलाहट के बारे में जान जाएँगे। क्या यह मेरी प्रतिष्ठा को पूरी तरह धूल में नहीं मिला देगा?” इन विचारों को मन में रखते हुए मैं चुनावों में भाग लेने से डरने लगा और मैं पदोन्नति या परिपोषण नहीं चाहता था। मैं शैतानी विष “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” के अनुसार जी रहा था और हमेशा अपनी कमियों को छुपाने की पूरी कोशिश करता था ताकि कोई मेरी कमजोरियाँ न देख सके। मैंने कलीसिया के कार्य की जरूरतों पर विचार नहीं किया और बार-बार चुनावों में भाग लेने का अवसर छोड़ दिया। यहाँ तक कि जब कलीसिया के कार्य को तत्काल लोगों के सहयोग की आवश्यकता थी मैं तब भी केवल देखता रहा और पीछे हट गया। मैं सचमुच स्वार्थी और घृणित था! कलीसिया ने वर्षों तक मुझे सींचा और मेरा परिपोषण किया था और मुझे कलीसिया के कार्य का बोझ उठाना चाहिए था। यह एक सृजित प्राणी के रूप में मेरी जिम्मेदारी भी थी और मुझे इसे बिना शर्त स्वीकार करना और समर्पित होना चाहिए था। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मैं चुनावों में भाग लेने से बचता रहा और मना करता रहा, मैं परमेश्वर के घर का बोझ नहीं उठाना चाहता था और मुझे इस सम्मान की कोई समझ नहीं थी। परमेश्वर को इससे घृणा है और इसे नापसंद करता है। तब जाकर मुझे समझ में आया कि दमन और पीड़ा से भरा मेरा जीवन मेरी प्रतिष्ठा और गर्व पर अत्यधिक ध्यान देने और दूसरों की राय की अत्यधिक चिंता करने के कारण था। उसी समय, मैंने परमेश्वर के गंभीर इरादे को महसूस किया। परमेश्वर ने मेरी कमियों के कारण मुझसे घृणा नहीं की, बल्कि मुझे बार-बार पदोन्नति और परिपोषण के अवसर दिए। जब मैं अपनी कमियों और भ्रष्ट स्वभाव से बाधित और बंधित था और मायूस होकर पीछे हट रहा था, परमेश्वर ने अपने वचनों का उपयोग करके मुझे प्रबुद्ध और रोशन किया मुझे सत्य को समझने और नकारात्मक भावनाओं के बंधनों से मुक्त होने में मदद की। मैंने देखा कि परमेश्वर का प्रेम कितना वास्तविक है और मुझे यह पता था कि मुझे अब और निष्क्रिय और मायूस नहीं रहना चाहिए बल्कि मुझे अपने गलत इरादों को त्यागना होगा और सही तरीके से सहयोग करना और चुनाव में भाग लेना होगा।
बाद में, मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “अगर तुम्हारी मानवता का विवेक सामान्य है तो तुम्हें अपनी कमियों और दोषों का सही तरीके से सामना करना चाहिए; तुम्हें उन्हें मान और स्वीकार लेना चाहिए। यह तुम्हारे लिए फायदेमंद है। उन्हें स्वीकारने का मतलब उनसे बेबस होना नहीं है और न ही इसका मतलब उनके कारण अक्सर नकारात्मक होना है, बल्कि इसका मतलब उनसे बेबस न होना है, यह पहचानना है कि तुम भ्रष्ट मानवजाति के एक साधारण सदस्य हो जिसमें अपने खुद के दोष और कमियाँ हैं और कुछ भी शेखी बघारने लायक नहीं है, कि यह परमेश्वर ही है जो लोगों को उनका कर्तव्य निभाने के लिए ऊपर उठाता है और परमेश्वर उनमें अपने वचन और जीवन को क्रियान्वित करने का इरादा रखता है, उन्हें उद्धार प्राप्त करने और शैतान के प्रभाव से बचने देता है—कि यह पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा लोगों को ऊपर उठाना है। दोष और कमियाँ हर किसी में होती हैं। तुम्हें अपने दोषों और कमियों को अपने साथ मौजूद रहने देना चाहिए; उनसे मत बचो या उन्हें मत छिपाओ और उनके कारण अक्सर अंदर से दमित महसूस मत करो या यहाँ तक कि उनके कारण हमेशा हीन महसूस मत करो। तुम हीन नहीं हो; अगर तुम पूरे दिल से, पूरी शक्ति से, पूरे मन से और अपनी पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य निभा सकते हो और तुम्हारा दिल ईमानदार है तो परमेश्वर के सामने तुम सोने जितने बेशकीमती हो। अगर अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम कीमत नहीं चुका सकते और तुममें निष्ठा नहीं है तो अगर तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ औसत व्यक्ति से बेहतर भी हों, तो भी तुम परमेश्वर के सामने बेशकीमती नहीं हो, तुम्हारी कीमत रेत के एक कण जितनी भी नहीं है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर लोगों से अधिक अपेक्षाएँ नहीं रखता बल्कि चाहता है कि वे अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करें। जब वे अपनी काबिलियत और कार्यक्षमता के अनुसार कार्य करते हैं और अपनी प्राकृतिक स्थितियों के आधार पर अपनी क्षमता को पूरी तरह से उपयोग में लाते हैं और पूरे दिल से और अपनी पूरी शक्ति के साथ परमेश्वर के साथ सहयोग करते हैं तो परमेश्वर प्रसन्न होता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग दिखावा करें बल्कि चाहता है कि वे एक ईमानदार दिल से अपने कर्तव्यों का पालन करें। मैंने विचार किया कि कैसे मेरी हकलाहट ने मुझे कम आत्मसम्मान वाला बना दिया और मुझे मायूस, संवेदनशील और कमजोर बना दिया, और मैं दूसरों की राय की इतनी परवाह करता था कि इसके कारण मैं बार-बार चुनावों में भाग लेने से इनकार करता रहा और भारी जिम्मेदारियाँ उठाने के लिए तैयार नहीं था। अब मैंने समझा कि मेरी हकलाहट एक ऐसा दोष है जिसे दूर करना मुश्किल है और मुझे इसे स्वीकार करना और इसे सही तरीके से देखना सीखना होगा। जब आवश्यक हो मुझे बिना इसे छिपाए या ढके अपनी कमी के बारे में भाई-बहनों के साथ खुलकर बात करनी चाहिए। अपनी कमी के प्रति मेरा यही रवैया होना चाहिए।
कुछ दिनों बाद, चुनाव परिणामों की घोषणा हुई और मुझे जिला अगुआ के रूप में चुना गया। मैं बहुत भावुक हो गया और मैंने परमेश्वर से चुपचाप प्रार्थना की, “परमेश्वर, अगुआ के रूप में चुना जाना तुम्हारा उत्कर्ष है। मैं इस अवसर को अपने कर्तव्य को निभाने के लिए महत्व दूँगा और मैं इसे सर्वोत्कृष्ट तरीके से करने के लिए पूरी कोशिश करने को तैयार हूँ ताकि तुम्हारे प्रेम का बदला चुका सकूँ।” बाद में मैंने सोचा, “मैं अपनी कमी के बावजूद अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभा सकता हूँ?” एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिन्होंने मुझे बहुत प्रभावित किया और मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। परमेश्वर कहता है : “इस कारण से अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो कि तुम कुछ विशेष कर्तव्य कर रहे हो या कार्य की किसी विशेष मद के पर्यवेक्षक के रूप में सेवा कर रहे हो—यह एक गलत विचार है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारा व्यक्तित्व या जन्मजात स्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। अंत में, परमेश्वर यह आकलन नहीं करता है कि तुम उसके मार्ग पर चलते हो या नहीं या तुम अपने व्यक्तित्व के आधार पर उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, वह इस आधार पर भी आकलन नहीं करता है कि तुम्हारे पास कौन-सी जन्मजात काबिलियत, कौशल, क्षमताएँ, गुण या प्रतिभाएँ हैं और यकीनन वह यह भी नहीं देखता है कि तुमने अपनी दैहिक सहज प्रवृत्तियों और जरूरतों को कितना सीमित किया है। इसके बजाय परमेश्वर यह देखता है कि उसका अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए क्या तुम उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव कर रहे हो, क्या तुममें सत्य का अनुसरण करने की इच्छा और संकल्प है और अंत में, क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सफल हुए हो। परमेश्वर यही देखता है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है, चाहे तुम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखो। तुम मानवता की खराबियों और कमियों से बच सकते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से कभी नहीं बच सकते। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी पूर्ण या महान क्यों न हो या चाहे दूसरे लोगों की तुलना में तुममे कम खामियाँ और खराबियाँ हों और तुम्हारे पास ज्यादा शक्तियाँ हों, इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुम सत्य समझते हो और न ही यह सत्य की तुम्हारी तलाश की जगह ले सकता है। इसके विपरीत, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, बहुत सारा सत्य समझते हो और तुम्हें इसकी पर्याप्त रूप से गहरी और व्यावहारिक समझ है, तो इससे तुम्हारी मानवता की कई खराबियों और समस्याओं की भरपाई हो जाएगी। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम दब्बू और अंतर्मुखी हो, तुम हकलाते हो और तुम ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो—यानी, तुममें बहुत सारी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ हैं—लेकिन तुम्हारे पास व्यावहारिक अनुभव है और वैसे तो तुम बात करते समय हकलाते हो, फिर भी तुम स्पष्टता से सत्य की संगति कर सकते हो और यह संगति हर सुनने वाले को उन्नत करती है, समस्याएँ हल करती है, लोगों को नकारात्मकता से उबरने में सक्षम बनाती है और परमेश्वर के बारे में उनकी शिकायतें और गलतफहमियाँ दूर करती है। देखो, वैसे तो तुम अपने शब्दों को हकलाकर बोलते हो, फिर भी वे समस्याएँ हल कर सकते हैं—ये शब्द कितने महत्वपूर्ण हैं! जब आम लोग उन्हें सुनते हैं तो वे कहते हैं कि तुम एक गँवार व्यक्ति हो और जब तुम बोलते हो तो व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते हो और कभी-कभी तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो, वे वाकई उपयुक्त नहीं होते हैं। हो सकता है कि तुम क्षेत्रीय भाषा या रोजमर्रा की भाषा का उपयोग करते हो और तुम्हारे शब्दों में वह उत्कृष्टता और शैली नहीं होती है जो वाक्पटुता से बोलने वाले उच्च-शिक्षित लोगों में होती है। लेकिन तुम्हारी संगति में सत्य वास्तविकता होती है, यह लोगों की कठिनाइयाँ हल कर सकती है और जब लोग इसे सुनते हैं तो उसके बाद उनके चारों तरफ के सारे काले बादल छँट जाते हैं और उनकी सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। तुम क्या सोचते हो, क्या सत्य को समझना महत्वपूर्ण नहीं है? (है।) मान लो कि तुम सत्य नहीं समझते हो और भले ही तुम्हारे पास कुछ बौद्धिक ज्ञान हो और तुम वाक्पटुता से बोलते हो, लेकिन जब हर कोई तुम्हें बोलते हुए सुनता है तो वह सोचता है : ‘तुम्हारे शब्द सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं, उनमें रत्ती भर भी सत्य वास्तविकता नहीं है और वे वास्तविक समस्याएँ बिल्कुल भी हल नहीं कर पाते हैं तो क्या तुम्हारे ये सारे शब्द खोखले नहीं हैं? तुम सत्य नहीं समझते हो। क्या तुम बस एक फरीसी नहीं हो?’ वैसे तो तुमने बहुत-से धर्म-सिद्धांत बोले, लेकिन समस्याएँ अनसुलझी रह गई हैं और तुम सोचते हो : ‘मैं तो बहुत सच्चाई और गंभीरता से बोल रहा था, तुम लोगों को मेरी बातें क्यों समझ में नहीं आई हैं?’ तुमने ढेरों धर्म-सिद्धांत बोले और जो नकारात्मक थे वे नकारात्मक ही रह गए हैं और जिन लोगों को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ थीं, उनमें वे गलतफहमियाँ अब भी हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वहन में जो भी कठिनाइयाँ मौजूद हैं उनमें से कोई भी हल नहीं हुई है—इसका मतलब है कि तुमने जो शब्द बोले वे सिर्फ बेहूदा बातें थीं। चाहे तुम्हारी मानवता में कितनी भी कमियाँ और दोष क्यों न हों, अगर तुम्हारे बोले गए शब्दों में सत्य वास्तविकता है तो तुम्हारी संगति समस्याएँ हल कर सकती है; अगर तुम्हारे बोले गए शब्द सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं और उनमें जरा-सा भी व्यावहारिक ज्ञान नहीं है तो चाहे तुम कितनी भी बातें क्यों न करो, तुम लोगों की वास्तविक समस्याएँ हल करने में समर्थ नहीं होगे। चाहे लोग तुम्हें कैसे भी क्यों न देखें, अगर तुम जो चीजें कहते हो वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं और वे लोगों की दशाओं को संबोधित नहीं कर पाती हैं या लोगों की कठिनाइयाँ हल नहीं कर पाती हैं तो लोग उन्हें नहीं सुनना चाहेंगे। तो ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है : सत्य या लोगों की अपनी स्थितियाँ? (सत्य ज्यादा महत्वपूर्ण है।) सत्य का अनुसरण करना और सत्य को समझना सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। इसलिए चाहे तुम्हारी मानवता या तुम्हारी जन्मजात स्थितियों के लिहाज से तुममें कोई भी कमी क्यों न हो, तुम्हें उनसे बेबस नहीं होना चाहिए, बल्कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और सत्य को समझकर अपनी विभिन्न कमियों की भरपाई करनी चाहिए और अगर तुम्हें खुद में कुछ कमियों का पता चलता है तो तुम्हें उन्हें जल्दी से ठीक कर लेना चाहिए। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं, बल्कि वे हमेशा अपनी मानवता में कठिनाइयों, दोषों और कमियों को हल करने और अपनी मानवता की समस्याओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और यह पता चलता है कि वे स्पष्ट नतीजे प्राप्त किए बिना कई वर्षों तक प्रयास करते हैं और इसके फलस्वरूप खुद से निराश हो जाते हैं और सोचते हैं कि उनकी मानवता बहुत ही ज्यादा खराब है और वे सुधार के योग्य नहीं हैं। क्या यह बहुत बेवकूफी भरी बात नहीं है?” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई से छू लिया और मैंने देखा कि परमेश्वर वास्तव में व्यावहारिक रूप से हमें मार्ग दिखाता है। अपने कर्तव्य को निभाते समय हमें अपनी शख्सियत, काबिलियत, या उम्र से बाधित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर इस बात का माप करता है कि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को मानक के अनुसार निभा रहा है या नहीं, यह इस पर आधारित नहीं है कि वह व्यक्ति अंतर्मुखी है या बहिर्मुखी या उसका रुतबा क्या है उसकी काबिलियत या उम्र क्या है या फिर उसमें कोई दोष या बाधा तो नहीं है, बल्कि इस पर आधारित है कि वह सत्य का अभ्यास करता है या नहीं और अपने कर्तव्यों को सत्य-सिद्धांतों के अनुसार निभाता है या नहीं, और क्या वह परमेश्वर के मार्ग पर चलता है। उदाहरण के लिए अगुआई के कर्तव्य में भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और कर्तव्यों में समस्याओं का समाधान करना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर मैं खुद को सत्य से युक्त रखने और उसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करता हूँ, वास्तविकता है, सत्य पर मेरी संगति में पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी है और मैं भाई-बहनों की समस्याओं को हल कर सकता हूँ और उन्हें अभ्यास का मार्ग दिखा सकता हूँ तब अगर मैं बोलते समय लड़खड़ा भी जाऊँ तब भी भाई-बहनों को इससे लाभ मिलेगा। अगर मैं सत्य के अनुसरण में मेहनत नहीं करता तो भले ही मैं धाराप्रवाह और प्रभावशाली बोलता हूँ, अगर मैं सत्य की संगति नहीं कर सकता या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता तो मैं अगुआई का कार्य नहीं कर पाऊँगा। मैं हमेशा सोचता था कि अगुआ का कर्तव्य निभाने के लिए कम से कम अच्छी बोलने की कला होनी चाहिए और व्यक्ति को स्पष्ट वक्ता होना चाहिए और मेरे जैसा व्यक्ति जो हकलाता है और बोलते समय लड़खड़ाता है अगुआई के कर्तव्यों के लिए उपयुक्त नहीं हैं इसलिए मैं नेतृत्व के लिए चुनाव में भाग लेने से इनकार करता रहा। लेकिन यह पता चला कि अगुआ चुनने के लिए मेरे मानक गलत थे। परमेश्वर के घर में अगुआ का चुनाव सिद्धांतों पर आधारित होता है यह इस पर नहीं है कि व्यक्ति बाहरी रूप से कैसा दिखता है या उसमें कौन-कौन से जन्मजात दोष हैं बल्कि इस पर है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं और उसकी मानवता और काबिलियत कैसी है। जितना मैंने इसके बारे में सोचा उतना ही मैं समझा कि मेरे जन्मजात दोष और कमियाँ मेरा कर्तव्य निभाने में बाधाएँ या रुकावटें नहीं थीं और इन्हें अपने कर्तव्य को अस्वीकार करने के बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सत्य को समझना और परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुसार अभ्यास करना अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने की कुंजी है! मुझे आगे बढ़ने के लिए अभ्यास का मार्ग मिल गया है और भले ही मैं हकलाता हूँ और रुक-रुक कर बोलता हूँ मैं परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ मैं सत्य सिद्धांतों से खुद को लैस करने अपनी प्रतिष्ठा और गर्व को अलग रखने और अपने व्यवहार और कार्यों में वास्तविक और धरातल पर बने रहने पर ध्यान केंद्रित करूँगा। अब जब मैं सभाओं में संगति करता हूँ या परमेश्वर के वचन पढ़ता हूँ तो मैं अभी भी हकलाता हूँ लेकिन मैं इसे सही तरीके से देख सकता हूँ और मेरी मानसिकता अब बहुत शांत हो गई है। कभी-कभी मैं इसे दूर करने के लिए सचेत रूप से प्रयास करता हूँ और मुझे याद आता है जब भाई-बहन मुझे याद दिलाते थे “तुम थोड़ा तेज बोलते हो जिससे हकलाने की संभावना बढ़ जाती है; अगर तुम थोड़ा धीमे बोलो तो यह बेहतर होगा,” और “जब तुम अटकते हो तो अंतिम अक्षर को खींच सकते हो, इस तरह तुम्हारे हकलाने की संभावना कम हो जाएगी।” सभाओं में संगति करते समय मैं अपने बोलने की गति धीमी करने की कोशिश करता हूँ और जरूरत के अनुसार अपने शब्दों को खींचता हूँ सचेत रूप से सहयोग करने का प्रयास करता हूँ। अब मैं उतना घबराता नहीं हूँ जिससे मैं सभाओं में अधिक स्वतंत्र महसूस करता हूँ। एक बार मैं लेख पर पाठ आधारित कार्य के सुपरवाइजर से मिलने गया ताकि कार्य पर चर्चा कर सकूँ लेकिन मैं थोड़ा चिंतित था सोचते हुए, “वह सिद्धांतों को मुझसे बेहतर समझता है। अगर मैं घबरा गया और बुरी तरह से हकलाने लगा तो क्या होगा? वह मेरे बारे में क्या सोचेगा?” लेकिन फिर मैंने सोचा कि कार्य में समस्याएँ आई हैं और पिछले पत्र ने अच्छे परिणाम नहीं दिए इसलिए व्यक्तिगत रूप से मिलकर चर्चा करना और समस्या का समाधान करना आवश्यक है। मैं अपनी हकलाहट के कारण समस्या को हल करने से पीछे नहीं हट सकता था क्योंकि इससे कार्य में देरी होती। इस तरह सोचने पर मैं अब बाधित महसूस नहीं करता था इसलिए मैंने सुपरवाइजर के साथ बैठक आयोजित की ताकि कार्य पर चर्चा कर सकूँ।
अगर मैं पीछे मुड़कर देखूँ कि मैंने बार-बार अपनी हकलाहट के कारण अपने कर्तव्यों को अस्वीकार किया और अंततः बिना बाधित हुए अपने कर्तव्यों को शांति से स्वीकार कर पाया मुझे एहसास हुआ कि पूरे इस सफर में मुझे परमेश्वर के वचनों से सांत्वना, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मिला है। मैंने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ!