15. मुझे अब परमेश्वर का नया नाम मालूम है

झाओक्षीण, ताइवान

बचपन से ही मैं प्रभु में विश्वास रखती और अपने माता-पिता के साथ सभाओं में जाती थी, इसलिए मैंने हाई स्कूल के बाद एक ईसाई कॉलेज में पढ़ाई की। एक कक्षा के दौरान, पादरी ने हमसे कहा, "अध्याय 13, इब्रानियों के पद 8 में कहा गया है कि 'यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है।' प्रभु यीशु ही एकमात्र उद्धारकर्ता है। युग चाहे जो हो, उसका नाम कभी नहीं बदलेगा, सिर्फ प्रभु यीशु के नाम में विश्वास रख कर ही हम बचाये जा सकेंगे...।" यह सुनने के बाद, मुझे पक्का विश्वास हो गया कि प्रभु यीशु के नाम को कायम रख कर ही हम बचाये जा सकेंगे, हमें उसके नाम को कभी भी नहीं नकारना है। कक्षा से बाहर, मैं संगति, बाइबल अध्ययन और सुसमाचार समूहों में सक्रिय रूप से भाग लेती। मैं कभी भी किसी धर्मोपदेश या सभा में मौजूद रहने से नहीं चूकी। लेकिन समय बीतने के साथ मैंने देखा कि पादरी और एल्डर वही पुरानी बातें दोहराते रहते हैं। कभी भी कोई नयी रोशनी नहीं होती, मेरी आत्मा बिल्कुल भी पोषित नहीं हो रही थी। कुछ भाई-बहनों ने कमज़ोर पड़ कर सभाओं में आना छोड़ दिया और उन्हें मदद या सहारा कम ही मिला। कुछ तो सभाओं के दौरान ऊंघते रहते, और सेवा के बाद दूसरों को बीमा या कोई सामान बेचते। कलीसिया के ऐसे हालात देख कर, मैं बहुत नाराज़ और मायूस हो गयी। मैंने सोचा, "अगर एक ईसाई अपने आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करता, हमेशा सांसारिक चीज़ों और धन के पीछे भागता है, तो क्या वह तब भी ईसाई कहलाने का अधिकारी हो सकता है? पादरी और एल्डर ये सब होते देखते हैं, मगर कोई परवाह नहीं करते। क्या यह प्रभु की इच्छा के अनुरूप है? इसे परमेश्वर की आराधना कैसे कहा जा सकता है?" एक लंबे अरसे तक सभाओं में पोषण न मिलने से मेरी आत्मा मुरझा गयी। मैं काम में भी व्यस्त रहती, इसलिए मैंने अब सभाओं में जाना छोड़ दिया। यह मुझे अच्छा नहीं लगा, इसलिए मैं घर पर ही बाइबल पढ़ने लगी और प्रभु से प्रार्थना करने लगी, हमेशा महसूस करती कि मैंने सारा उद्देश्य और उम्मीद खो दी है, मैं भटकी हुई और बेसहारा महसूस करती।

फिर अक्टूबर 2017 में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बहन ली और बहन वांग से मेरी ऑनलाइन मुलाक़ात हुई। मैंने पाया कि प्रभु के वचनों के बारे में उनकी संगतियाँ व्यावहारिक और प्रबुद्ध करने वाली हैं। मैंने वर्षों से प्रभु में विश्वास रखा था, मगर उसके वचनों के बारे में इतनी स्पष्ट संगति कभी भी किसी से नहीं सुनी थी। मुझे लगा कि उन्हें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन प्राप्त है। इसलिए, मैं उनसे अक्सर ऑनलाइन मुलाक़ात करने लगी।

एक बार सभा के लिए लॉग-इन करने में मुझे थोड़ी देर हो गयी, लेकिन जैसे ही मैं पहुँची, मैंने बहन ली को यह कहते सुना, "इंसान को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना तीन युगों में बंटी हुई है, वह प्रत्येक युग में नया कार्य करता है और अपना नया नाम रखता है। युग को बदलने और अपने कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए परमेश्वर अपने नाम का प्रयोग करता है। उसका कार्य आगे बढ़ता है और उसके नये कार्य के साथ उसका नाम बदल जाता है। व्यवस्था के युग में, परमेश्वर ने यहोवा नाम के साथ व्यवस्थाओं और आदेशों की घोषणा की। जब उसने व्यवस्था के युग को समाप्त किया, और अनुग्रह के युग में छुटकारे का कार्य किया, तो उसका नाम तब यहोवा नहीं, बल्कि यीशु था। अब अंत के दिनों में, परमेश्वर का कार्य फिर आगे बढ़ रहा है, और यीशु के छुटकारे के कार्य के आधार पर परमेश्वर के घर से शुरू करके वह न्याय का कार्य कर रहा है। उसने अनुग्रह के युग को समाप्त करके राज्य का युग शुरू कर दिया है, और इसी के साथ उसका नाम बदल गया है। अब यह यीशु नहीं, बल्कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर है।" जब मैंने उसे यह कहते सुना कि परमेश्वर का नाम बदल गया है, तो मैंने सोचा, "हो ही नहीं सकता। बाइबल में स्पष्ट रूप से कहा गया है, 'यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है' (इब्रानियों 13:8)। प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं बदल सकता, फिर भी तुम कहती हो कि परमेश्वर का नाम अब बदल गया है? अगर प्रार्थना करते समय हम यीशु को न पुकार कर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को पुकारें, तो क्या यह बाइबल के अनुरूप है?" बहन ली ने तब मुझे इसी से मिलता-जुलता एक उदाहरण देकर समझाया : "बहन झाओ, अगर तुम्हारी कंपनी एक साल के लिए तुम्हें आयोजन प्रमुख बना दे, फिर एक साल के लिए प्रबंधक, और फिर एक निदेशक, तो तुम्हारे काम की ज़रूरत के मुताबिक़ तुम्हारा पदनाम बदल जाएगा। जब तुम्हारा काम बदलता है, तो तुम्हारा पदनाम भी बदलता है। पहले, लोग तुम्हें आयोजना प्रमुख या प्रबंधक कहते थे, लेकिन अब वे तुम्हें निदेशक कहेंगे। वे तुम्हें अलग-अलग नामों से पुकारते, लेकिन क्या तुम बदल जाती? क्या तुम अब भी तुम ही नहीं रहोगी? इसी प्रकार हर युग में परमेश्वर एक नाम रखता है। जब परमेश्वर का कार्य अलग होता है तो उसका नाम बदल जाता है, फिर भी वह एक ही परमेश्वर है।" अब बात मेरी समझ में आने लगी। लेकिन जब मैंने यीशु का नाम बदलने के बारे में सोचा, तो मैं स्वीकार नहीं कर पायी। मैंने सोचा, "तुम चाहे जो कहो, मुझे परवाह नहीं, मैं प्रभु यीशु का नाम कायम रखूँगी। मैं इतनी आसानी से यकीन नहीं कर सकती।" सभा के बाद मैंने बहन ली की ऑनलाइन मुलाक़ात को ब्लॉक कर दिया।

लेकिन अगली शाम, दो बहनें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रचार करते हुए मेरे दरवाज़े पर आ गयीं। मेरी सोच थी कि यीशु का नाम नहीं बदल सकता, इसलिए मैंने उनके प्रति विमुख महसूस किया। वे कुछ भी कहें, मैं उन्हें नहीं सुनना चाहती थी, जाते समय, उन्होंने कहा, "बहन, प्रभु ने कहा था, 'ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा' (मत्ती 7:7)। हमें पता नहीं तुम इसे क्यों नहीं स्वीकार करती, लेकिन क्या तुमने कभी इस पर वाकई गौर किया है?" उनके जाने के बाद, उनकी बात मेरे मन को मथती रही। मैंने बेचैनी महसूस की। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के लोगों से सुनी हुई सभी संगतियों के बारे में सोचा, और यह कि मेरी आत्मा कितनी पोषित हुई थी। मेरा दिल जानता था कि उनके पढ़े हुए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सत्य हैं और पवित्र आत्मा के कथन हैं। उन्हें इस तरह ठुकरा कर मैं सत्य की साधक कैसे हो सकती हूँ? मैंने उस सभा को याद किया जब बहन ली ने संगति में कहा, "परमेश्वर की भेड़ें उसकी वाणी को सुनती हैं। अगर हम प्रभु की वापसी पर उसका अभिनंदन करना चाहते हैं, तो हमें उसकी वाणी को सुनना सीखना होगा। बुद्धिमान कुँवारियाँ प्रभु का अनुसरण करती हैं, क्योंकि वे उसकी वाणी को सुनती हैं। यह अनुग्रह के युग में बिल्कुल पतरस की तरह है। क्या उसने प्रभु का अनुसरण इसलिए नहीं किया क्योंकि उसने उसके वचन सुने और परमेश्वर की वाणी को पहचान लिया?" यह समझ लेने के बाद, मैंने जल्दी से अपनी बाइबल निकाली और प्रकाशित-वाक्य की पुस्तक खोल कर अध्याय 3 में पद 20-22 को पढ़ा, जिसमें लिखा है, "देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ। ... जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।" मैंने इन दो पदों पर ध्यान से मनन किया। प्रभु कहता है कि पवित्र आत्मा अंत के दिनों में बोलेगा और हमें उसके वचनों को सुनना चाहिए। मैं भाग्यशाली थी कि प्रभु के वापस आने की बात सुन पायी, तो फिर मैं अपनी ही धारणाओं से खिंची पीछे क्यों रहना चाहती हूँ, क्यों अपनी समझ से बाहर की किसी भी बात को अनसुना करना चाहती हूँ? मैंने सोचा, "अगर मैं अब परमेश्वर का नाम बदलने की बात समझ न पाऊँ, तो पहले मुझे इस पर गौर कर इसे समझना होगा, फिर फैसला करना होगा कि क्या करूं।" फिर मैंने मत्ती अध्याय 7, पद 7 में यह पढ़ा: "माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा।" मैंने सोचा, "अगर प्रभु सचमुच वापस आकर मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है, और मैं अपनी धारणाओं को मुझे अंधा और बहरा करने दे रही हूँ, ताकि मैं कुछ देख या सुन न सकूं और दरवाज़ा न खोलूँ, तो क्या प्रभु मुझे त्याग नहीं देगा?" उस रात मैं पलक भी नहीं झपका पायी। सुसमाचार को ठुकराने को लेकर मैं बेचैन रही। मैंने सोचा, "क्या मैं ग़लत हूँ? क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है?" अपने मन में ये विचार लिये मैंने प्रभु से प्रार्थना की, उसके मार्गदर्शन और प्रबुद्धता की विनती की।

फिर मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की आधिकारिक वेबसाइट तक पहुँच गयी, जिसे राज्य के अवतरण का सुसमाचार कहा जाता है। फिर मैंने परमेश्वर के नामों के बारे में एक अंश पढ़ा: "कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर का नाम नहीं बदलता, तो फिर यहोवा का नाम यीशु क्यों हो गया? यह भविष्यवाणी की गई थी मसीहा आएगा, तो फिर यीशु नाम का एक व्यक्ति क्यों आ गया? परमेश्वर का नाम क्यों बदल गया? क्या इस तरह का कार्य काफी समय पहले नहीं किया गया था? क्या परमेश्वर आज नया कार्य नहीं कर सकता? कल का कार्य बदला जा सकता है, और यीशु का कार्य यहोवा के कार्य के बाद आ सकता है। तो क्या यीशु के कार्य के बाद कोई अन्य कार्य नहीं हो सकता? यदि यहोवा का नाम बदल कर यीशु हो सकता है, तो क्या यीशु का नाम भी नहीं बदला जा सकता? इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है; बात केवल इतनी-सी है कि लोग बहुत सरल दिमाग के हैं। परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा। चाहे उसका काम कैसे भी बदले, चाहे उसका नाम कैसे भी बदल जाए, लेकिन उसका स्वभाव और बुद्धि कभी नहीं बदलेगी। यदि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को केवल यीशु के नाम से ही पुकारा जा सकता है, तो फिर तुम्हारा ज्ञान बहुत सीमित है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। इसे पढ़ने के बाद मैं बहुत प्रेरित हुई। मैंने सोचा कि किस तरह व्यवस्था के युग में परमेश्वर का नाम यहोवा था, और इस नाम से उसने इज़राइलियों की अगुआई की। मगर, जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने आया, तो क्या परमेश्वर का नाम यहोवा से यीशु नहीं हो गया? मैंने सोचा, "यह सब किस बारे में है? क्या प्रभु अंत के दिनों में वाकई एक नया नाम रख सकता है? अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर सचमुच प्रभु यीशु का प्रकटन है और मैं उसे न खोजूं या उस पर ध्यान न दूं, अगर मैं प्रभु का अभिनंदन करने का अपना मौक़ा गँवा दूं, तो मैं कितनी बेवकूफ़ होऊंगी!" उसी वक्त मैंने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की खोजबीन करने का फैसला किया।

मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के भाई चेन से ऑनलाइन संपर्क किया। एक सभा में, मैंने उन्हें अपनी उलझन के बारे में बताया। "बाइबल में कहा गया है: 'यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है' (इब्रानियों 13:8)। प्रभु यीशु का नाम नहीं बदल सकता। अगर वह अब आया है, तो उसे अभी भी यीशु नाम से ही पुकारना चाहिए। उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर कैसे कहा जा सकता है? मैंने हमेशा से प्रभु यीशु नाम ही पुकार कर उससे प्रार्थना की है, तो मैं किसी दूसरे नाम से प्रार्थना कैसे कर सकती हूँ?" भाई चेन ने तब मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश भेजे: "ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि परमेश्वर अपरिवर्तशील है। यह सही है, किंतु यह परमेश्वर के स्वभाव और सार की अपरिवर्तनशीलता को संदर्भित करता है। उसके नाम और कार्य में परिवर्तन से यह साबित नहीं होता कि उसका सार बदल गया है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और यह तथ्य कभी नहीं बदलेगा। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तनशील है, तो क्या वह अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना पूरी करने में सक्षम होगा? तुम केवल यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा अपरिवर्तशील है, किंतु क्या तुम यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता? यदि परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तनशील है, तो क्या वह मानवजाति की आज के दिन तक अगुआई कर सकता था? यदि परमेश्वर अपरिवर्तशील है, तो ऐसा क्यों है कि उसने पहले ही दो युगों का कार्य कर लिया है? ... 'परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता' वचन उसके कार्य को संदर्भित करते हैं, और 'परमेश्वर अपरिवर्तशील है' उसे संदर्भित करते हैं, जो परमेश्वर का अंतर्निहित स्वरूप है। इसके बावज़ूद, तुम छह-हज़ार-वर्ष के कार्य को एक बिंदु पर आधारित नहीं कर सकते, या उसे केवल मृत शब्दों के साथ सीमित नहीं कर सकते। मनुष्य की मूर्खता ऐसी ही है। परमेश्वर इतना सरल नहीं है, जितना मनुष्य कल्पना करता है, और उसका कार्य किसी एक युग में रुका नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए, यहोवा हमेशा परमेश्वर का नाम नहीं हो सकता; परमेश्वर यीशु के नाम से भी अपना कार्य कर सकता है। यह इस बात का संकेत है कि परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे की ओर प्रगति कर रहा है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)

इन्हें पढ़ने के बाद, भाई चेन ने यह संगति साझा की: "'परमेश्वर अपरिवर्तनीय है' शब्दों का संदर्भ परमेश्वर के स्वभाव और सार से है। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका नाम कभी नहीं बदल सकता। परमेश्वर हमेशा नया होता है, कभी पुराना नहीं पड़ता, उसका कार्य हमेशा सिर्फ आगे बढ़ता है, और उसका नाम उसके कार्य के साथ बदलता है। लेकिन परमेश्वर का नाम चाहे जैसे भी बदले, उसका स्वभाव और सार कभी नहीं बदलते। परमेश्वर सदा परमेश्वर ही होता है, और अपरिवर्तनीय होने का यही अर्थ है। यदि हम यह नहीं समझते कि 'परमेश्वर अपरिवर्तनीय है' का संदर्भ किससे है, या यह समझते हैं कि परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है, कभी पुराना नहीं होता, तो हम अपनी धारणाओं के आधार पर परमेश्वर के कार्य को सीमित करने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे आंकते भी हैं। फरीसी मसीहा के इंतज़ार में बाइबल से चिपके रहे। लेकिन जब प्रभु आया, तो उसका नाम मसीहा नहीं, बल्कि यीशु था, इसलिए उन्होंने उसे नकारा और निंदित किया। हालांकि वे जानते थे कि उसके वचनों और कार्य में अधिकार और सामर्थ्य है, फिर भी उन लोगों ने उसकी जांच-पड़ताल नहीं की, बल्कि उसका प्रतिरोध कर उसकी निंदा की। अंत में, उन लोगों ने यीशु को सूली पर चढ़ाने के लिए रोमन लोगों के साथ साँठ-गाँठ की, और एक भयंकर अत्याचार किया। अगर हम अब बाइबल से चिपके रहें, यह विश्वास करके कि यीशु का नाम कभी नहीं बदल सकता और सिर्फ वही एकमात्र उद्धारकर्ता है, और इस तरह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को नकार कर उसकी निंदा करें, तो क्या हम ठीक फरीसियों जैसे नहीं होंगे? फिर हम परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके स्वभाव का अपमान करने लगेंगे।"

आखिरकार मैं समझ पायी कि बाइबल में जब यह कहा गया, "यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है।" तो इसका संदर्भ सिर्फ परमेश्वर के स्वभाव और सार से है, और इसका यह अर्थ नहीं कि परमेश्वर का नाम कभी भी नहीं बदल सकता। मैंने समझ लिया कि पादरियों के धर्मोपदेश उनकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित हैं, और वे भी बाइबल को सही ढंग से नहीं समझते।

भाई चेन ने फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़ कर सुनाये: "प्रत्येक युग में परमेश्वर नया कार्य करता है और उसे एक नए नाम से बुलाया जाता है; वह भिन्न-भिन्न युगों में एक ही कार्य कैसे कर सकता है? वह पुराने से कैसे चिपका रह सकता है? यीशु का नाम छुटकारे के कार्य के वास्ते लिया गया था, तो क्या जब वह अंत के दिनों में लौटेगा, तब भी उसे उसी नाम से बुलाया जाएगा? क्या वह अभी भी छुटकारे का कार्य करेगा? ऐसा क्यों है कि यहोवा और यीशु एक ही हैं, फिर भी उन्हें भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया जाता है? क्या यह इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं? क्या केवल एक नाम परमेश्वर का उसकी संपूर्णता में प्रतिनिधित्व कर सकता है? ऐसा होने पर, परमेश्वर को भिन्न युग में भिन्न नाम से ही बुलाया जाना चाहिए, और उसे युग को परिवर्तित करने और युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस नाम का उपयोग करना चाहिए। क्योंकि कोई भी एक नाम पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और प्रत्येक नाम केवल एक दिए गए युग में परमेश्वर के स्वभाव के उस समय से संबंधित पहलू का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है; उसे केवल उसके कार्य का प्रतिनिधित्व ही करना है। इसलिए, समस्त युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए परमेश्वर ऐसे किसी भी नाम को चुन सकता है, जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो।" "'यहोवा' वह नाम है, जिसे मैंने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपनाया था, और इसका अर्थ है इस्राएलियों (परमेश्वर के चुने हुए लोगों) का परमेश्वर, जो मनुष्य पर दया कर सकता है, मनुष्य को शाप दे सकता है, और मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है; वह परमेश्वर, जिसके पास बड़ा सामर्थ्य है और जो बुद्धि से भरपूर है। 'यीशु' इम्मानुएल है, जिसका अर्थ है वह पाप-बलि, जो प्रेम से परिपूर्ण है, करुणा से भरपूर है, और मनुष्य को छुटकारा दिलाता है। उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और वह अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह प्रबंधन-योजना के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। ... यीशु का नाम अनुग्रह के युग के लोगों को पुनर्जन्म दिए जाने और बचाए जाने के लिए अस्तित्व में आया, और वह पूरी मानवजाति के उद्धार के लिए एक विशेष नाम है। इस प्रकार, 'यीशु' नाम छुटकारे के कार्य को दर्शाता है और अनुग्रह के युग का द्योतक है। 'यहोवा' नाम इस्राएल के उन लोगों के लिए एक विशेष नाम है, जो व्यवस्था के अधीन जीए थे। प्रत्येक युग में और कार्य के प्रत्येक चरण में मेरा नाम आधारहीन नहीं है, बल्कि प्रातिनिधिक महत्व रखता है : प्रत्येक नाम एक युग का प्रतिनिधित्व करता है। 'यहोवा' व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और उस परमेश्वर के लिए सम्मानसूचक है, जिसकी आराधना इस्राएल के लोगों द्वारा की जाती है। 'यीशु' अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है और उन सबके परमेश्वर का नाम है, जिन्हें अनुग्रह के युग के दौरान छुटकारा दिया गया था। यदि मनुष्य अब भी अंत के दिनों के दौरान उद्धारकर्ता यीशु के आगमन की अभिलाषा करता है, और उसके अब भी उसी छवि में आने की अपेक्षा करता है जो उसने यहूदिया में अपनाई थी, तो छह हज़ार सालों की संपूर्ण प्रबंधन-योजना छुटकारे के युग में रुक गई होती, और आगे प्रगति न कर पाती। इतना ही नहीं, अंत के दिनों का आगमन कभी न होता, और युग का समापन कभी न किया जा सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उद्धारकर्ता यीशु सिर्फ मानवजाति के छुटकारे और उद्धार के लिए है। 'यीशु' नाम मैंने अनुग्रह के युग के सभी पापियों की खातिर अपनाया था, और यह वह नाम नहीं है जिसके द्वारा मैं पूरी मानवजाति को समापन पर ले जाऊँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)

फिर भाई चेन ने संगति जारी रखी: "परमेश्वर की प्रबंधन योजना तीन चरणों में विभाजित है। प्रत्येक युग में वह अपने कार्य का एक चरण पूरा करता है और अपने स्वभाव का एक अंश व्यक्त करता है। प्रत्येक युग में वह जो नाम रखता है, वह उस युग में उसके कार्य और स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह परमेश्वर की संपूर्णता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। व्यवस्था के युग में परमेश्वर का नाम यहोवा था, इस नाम ने व्यवस्था के युग में परमेश्वर के कार्य के साथ ही उसके स्वभाव के प्रतापी, क्रोधपूर्ण, दयावान और अभिशाप देने वाले पहलुओं का प्रतिनिधित्व किया। परमेश्वर ने यहोवा नाम व्यवस्थाओं और आदेशों की घोषणा करने और पृथ्वी पर लोगों के जीवन की अगुआई करने के लिए प्रयोग किया। तब लोगों का व्यवहार नियंत्रित था और सभी लोग जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करें। लेकिन उस युग के अंत तक, लोग शैतान द्वारा ज़्यादा-से-ज़्यादा भ्रष्ट होते जा रहे थे, वे व्यवस्थाओं और आदेशों को कायम नहीं रख पा रहे थे। सभी के सामने दंडित होकर मौत की सज़ा पाने का ख़तरा था। लोगों को व्यवस्थाओं से बचाने के लिए, परमेश्वर ने देहधारी होकर यीशु नाम से छुटकारे का कार्य किया, अनुग्रह का युग शुरू कर व्यवस्था के युग को समाप्त किया। प्रभु यीशु ने प्रायश्चित का मार्ग मुहैया कराया, बीमारों का इलाज किया, दानवों को निकाल फेंका, और लोगों के पापों को क्षमा किया। उसने परमेश्वर के दयावान और स्नेही स्वभाव को भी व्यक्त किया, अंत में उसे सूली पर चढ़ा दिया गया और पूरी मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा हुआ। जो लोग यीशु को अपना उद्धारकर्ता मानते हैं, उसके नाम से प्रार्थना करते हैं, अपने पापों को स्वीकार कर प्रायश्चित करते हैं, वे अपने पापों के लिए क्षमा पा सकते हैं और प्रभु द्वारा दिया गया आनंद और शांति पा सकते हैं। प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया, न कि अंत के दिनों में इंसान के न्याय और उसके शुद्धिकरण का कार्य, हालांकि हमारी आस्था कहती है कि हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया है, फिर भी हमारी पापी प्रकृति कायम है। हम अभी भी पाप करके स्वीकार करने के दुष्चक्र में जीते हैं। हम अभी भी लगातार झूठ बोलते और धोखा देते हैं। हम सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं, ईर्ष्यालु और घृणापूर्ण हैं, और ऐसी ही बुराइयों से भरे हुए हैं। बच निकलने में असहाय होकर हम पाप में जीते हैं। इसलिए, हमें पाप के बंधनों से सदा-सदा के लिए बचाने और शुद्ध करने के लिए, न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने के लिए परमेश्वर अंत के दिनों में फिर एक बार देहधारी हुआ है, ताकि हम उसके राज्य में प्रवेश के योग्य बन सकें। उसने राज्य का युग शुरू करके अनुग्रह के युग को समाप्त किया है, उसका नाम भी बदल कर सर्वशक्तिमान परमेश्वर हो गया है। यह सच्चाई प्रकाशितवाक्य की इन भविष्यवाणियों को सटीक ढंग से पूरा करती है : 'प्रभु परमेश्‍वर, जो है और जो था और जो आनेवाला है, जो सर्वशक्‍तिमान है, यह कहता है, "मैं ही अल्फ़ा और ओमेगा हूँ"' (प्रकाशितवाक्य 1:8)। 'जो जय पाए उसे मैं अपने परमेश्‍वर के मन्दिर में एक खंभा बनाऊँगा, और वह फिर कभी बाहर न निकलेगा; और मैं अपने परमेश्‍वर का नाम और अपने परमेश्‍वर के नगर अर्थात् नये यरूशलेम का नाम, जो मेरे परमेश्‍वर के पास से स्वर्ग पर से उतरनेवाला है, और अपना नया नाम उस पर लिखूँगा' (प्रकाशितवाक्य 3:12)।"

मेरी आँखें खुल गयीं और मैंने जान लिया कि प्रभु अंत के दिनों में अपना नाम बदलता है! मैंने पहले भी ये पद पढ़े थे, लेकिन मैं इन्हें क्यों नहीं समझ पायी? इनमें स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी की गयी है कि प्रभु का एक नया नाम होगा—सर्वशक्तिमान—जब वह अंत के दिनों में फिर आयेगा। लेकिन मैंने हमेशा इसमें विश्वास रखा "यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है" (इब्रानियों 13:8), और फैसला कर लिया कि यीशु का नाम कभी भी नहीं बदल सकता। मैं हमेशा से अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को ठुकराती और उसका प्रतिरोध करती रही हूँ। मैं बहुत अज्ञानी थी! अब मैं जान गयी थी कि हर बार एक नया कार्य शुरू करते समय परमेश्वर अपना एक नया नाम रखता है, युग को बदलने और उस युग में अपने कार्य और स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए वह इस नये नाम का प्रयोग करता है। मुझे एहसास हुआ कि प्रत्येक युग में परमेश्वर द्वारा रखे गये नाम का गहरा महत्व होता है। अगर मैं अपनी धारणा पर कायम रहूँ कि परमेश्वर का नाम नहीं बदल सकता और वह अंत के दिनों में यीशु के रूप में आयेगा, तो फिर परमेश्वर का कार्य आगे कैसे बढ़ेगा? क्या हमेशा सिर्फ अनुग्रह का युग ही नहीं चलता रहेगा? जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मेरे मन में अब कोई शंका नहीं रही कि अंत के दिनों में परमेश्वर का नया नाम— सर्वशक्तिमान परमेश्वर है।

भाई चेन ने फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ कर सुनाया। "मैं कभी यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीहा भी कहा जाता था, और लोग कभी मुझे प्यार और सम्मान से उद्धारकर्ता यीशु भी कहते थे। किंतु आज मैं वह यहोवा या यीशु नहीं हूँ, जिसे लोग बीते समयों में जानते थे; मैं वह परमेश्वर हूँ जो अंत के दिनों में वापस आया है, वह परमेश्वर जो युग का समापन करेगा। मैं स्वयं परमेश्वर हूँ, जो अपने संपूर्ण स्वभाव से परिपूर्ण और अधिकार, आदर और महिमा से भरा, पृथ्वी के छोरों से उदित होता है। लोग कभी मेरे साथ संलग्न नहीं हुए हैं, उन्होंने मुझे कभी जाना नहीं है, और वे मेरे स्वभाव से हमेशा अनभिज्ञ रहे हैं। संसार की रचना के समय से लेकर आज तक एक भी मनुष्य ने मुझे नहीं देखा है। यह वही परमेश्वर है, जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्यों पर प्रकट होता है, किंतु मनुष्यों के बीच में छिपा हुआ है। वह सामर्थ्य से भरपूर और अधिकार से लबालब भरा हुआ, दहकते हुए सूर्य और धधकती हुई आग के समान, सच्चे और वास्तविक रूप में, मनुष्यों के बीच निवास करता है। ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसका मेरे वचनों द्वारा न्याय नहीं किया जाएगा, और ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसे जलती आग के माध्यम से शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंततः मेरे वचनों के कारण सारे राष्ट्र धन्य हो जाएँगे, और मेरे वचनों के कारण टुकड़े-टुकड़े भी कर दिए जाएँगे। इस तरह, अंत के दिनों के दौरान सभी लोग देखेंगे कि मैं ही वह उद्धारकर्ता हूँ जो वापस लौट आया है, और मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है। और सभी देखेंगे कि मैं ही एक बार मनुष्य के लिए पाप-बलि था, किंतु अंत के दिनों में मैं सूर्य की ज्वाला भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को जला देती है, और साथ ही मैं धार्मिकता का सूर्य भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को प्रकट कर देता है। अंत के दिनों में यह मेरा कार्य है। मैंने इस नाम को इसलिए अपनाया और मेरा यह स्वभाव इसलिए है, ताकि सभी लोग देख सकें कि मैं एक धार्मिक परमेश्वर हूँ, दहकता हुआ सूर्य हूँ और धधकती हुई ज्वाला हूँ, और ताकि सभी मेरी, एक सच्चे परमेश्वर की, आराधना कर सकें, और ताकि वे मेरे असली चेहरे को देख सकें : मैं केवल इस्राएलियों का परमेश्वर नहीं हूँ, और मैं केवल छुटकारा दिलाने वाला नहीं हूँ; मैं समस्त आकाश, पृथ्वी और महासागरों के सारे प्राणियों का परमेश्वर हूँ" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)

फिर भाई चेन ने हमारे साथ संगति की: "अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, राज्य के युग में न्याय का कार्य शुरू करता है, मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए ज़रूरी संपूर्ण सत्य व्यक्त करता है। वह इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के रहस्यों को प्रकट करता है, शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता के सत्य और इंसान के पाप करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने की जड़ को उजागर करता है। वह भ्रष्ट मानवजाति की विद्रोहशीलता और अधार्मिकता का न्याय करता है, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन लोगों को अपने स्वभाव के बदलाव का रास्ता दिखाते हैं। वे सभी जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम को स्वीकार करते हैं और परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शुद्धिकरण से गुज़रते हैं, जो पाप को छोड़ कर शुद्ध हो जाते हैं, वे महाविपत्ति में जीवित रह सकेंगे। परमेश्वर उन लोगों को अपने राज्य में ले जाएगा ताकि वे उसके आशीषों और वायदों का आनंद ले सकें। जो दुष्ट, मसीह-विरोधी और अविश्वासी अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, जो उसका प्रतिरोध, उसकी निंदा, और तिरस्कार कर उसे बदनाम करते हैं, वे महाविपत्तियों में रोयेंगे, अपने दांत पीसेंगे और परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दिये जाएँगे। परमेश्वर ने अंत के दिनों में अपना नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर रखा है ताकि वह मनुष्य के सामने अपने उस धार्मिक, प्रतापी स्वभाव के साथ प्रकट हो सके, जो कोई अपमान नहीं सहता, ताकि वह हमेशा-हमेशा के लिए इंसान को शुद्ध करके बचा सके, ताकि हमारे भ्रष्ट स्वभाव से हमें छुटकारा दिला कर परमेश्वर के राज्य का मार्ग दिखा सके। परमेश्वर हरेक इंसान को उसकी किस्म के अनुसार अलग रखता है, इस बुरे युग की समाप्ति करता है, और इस तरह इंसान का प्रबंधन करने और उसे बचाने की अपनी 6,000-वर्षीय योजना को पूरा करता है। यह सबके समझने के लिए भी है कि परमेश्वर न केवल सबका सृजन कर उन पर शासन करता है, बल्कि वह मानवजाति का मार्गदर्शन करने के लिए वचन बोल सकता है और कार्य भी कर सकता है। वह इंसान के लिए पाप-बलि बन सकता है, उसे शुद्ध और पूर्ण कर सकता है। परमेश्वर ही आदि और अंत है। कोई भी इंसान उसके अद्भुत कार्यों, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की थाह नहीं पा सकता, राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर नाम रखने का यही अर्थ है। जो लोग अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करते हैं, जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से प्रार्थना करते हैं और उसके वचन पढ़ते हैं, वे पवित्र आत्मा का कार्य और जीवन-जल का पोषण पा सकते हैं। फिर भी अनुग्रह के युग की कलीसियाओं में ऐसा सूनापन पहले कभी नहीं रहा। विश्वासियों की आस्था कमज़ोर हो चली है, प्रचारकों के पास कहने को कुछ नहीं रहा, और कोई भी प्रार्थना से प्रेरित नहीं हो रहा। ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग सांसारिक प्रवृत्तियों की ओर खिंचते चले जा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने मेमने के कदमों के साथ कदम नहीं मिलाया, उन्होंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय-कार्य को स्वीकार नहीं किया, इसलिए वे जीवन-जल का पोषण प्राप्त नहीं कर सकते। वे बस अँधेरे में गिर जाते हैं और उन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता।"

भाई चेन की संगति ने मुझे दिखाया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर, यहोवा और यीशु एक ही परमेश्वर है। यह केवल परमेश्वर ही है जो विभिन्न युगों में अलग-अलग कार्य करने के लिए अलग-अलग नाम रखता है। लेकिन उसका नाम चाहे जैसे बदले, उसकी पहचान और सार कभी भी नहीं बदलते। परमेश्वर परमेश्वर ही होता है। बस। प्रत्येक युग में परमेश्वर का नाम अर्थपूर्ण होता है। ख़ास तौर से, राज्य के युग में परमेश्वर का सर्वशक्तिमान परमेश्वर नाम रखना और परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय का कार्य करना हमारे पाप-मुक्त होने और परमेश्वर द्वारा बचाये जाने के लिए बहुत अहम है! मैंने सोचा कि बरसों से मैं किस तरह सभाओं और धर्मोपदेशों में कोई पोषण हासिल नहीं कर पायी थी। भाई-बहनों की आस्था कमज़ोर पड़ गयी थी और प्रचारकों के पास कहने को कुछ भी नहीं था। ऐसा इसलिए क्योंकि पवित्र आत्मा का कार्य आगे बढ़ चुका था। हम मेमने के कदमों के साथ कदम नहीं मिला रहे थे, हम परमेश्वर के मौजूदा वचनों से पोषित नहीं हो रहे थे, इसलिए हम अँधेरे में गिर गये थे। उस पल मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है, फिर मैंने विधिवत रूप से सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर लिया। तब से, हर दिन मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से प्रार्थना करने लगी और उसके वचनों को पढ़ने लगी। जीवन-जल से मेरा सिंचन हुआ और मैं मेमने के भोज में शामिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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