केवल शोधन का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है
तुम सभी परीक्षण और शोधन के बीच हो। शोधन के दौरान तुम्हें परमेश्वर से प्रेम कैसे करना चाहिए? शोधन का अनुभव करने के बाद लोग परमेश्वर को सच्ची स्तुति अर्पित कर पाते हैं, और शोधन के दौरान वे यह देख सकते हैं कि उनमें बहुत कमी है। जितना बड़ा तुम्हारा शोधन होता है, उतना ही अधिक तुम देह-सुख के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो; जितना बड़ा लोगों का शोधन होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर के प्रति उनका प्रेम होता है। तुम लोगों को यह बात समझनी चाहिए। लोगों का शोधन क्यों किया जाना चाहिए? इसका लक्ष्य क्या परिणाम प्राप्त करना है? मनुष्य में परमेश्वर के शोधन के कार्य का क्या अर्थ है? यदि तुम सच में परमेश्वर को खोजते हो, तो एक ख़ास बिंदु तक उसके शोधन का अनुभव कर लेने पर तुम महसूस करोगे कि यह बहुत अच्छा और अत्यंत आवश्यक है। शोधन के दौरान मनुष्य को परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए? उसके शोधन को स्वीकार करने के लिए उससे प्रेम करने के संकल्प का प्रयोग करके : शोधन के दौरान तुम्हें भीतर से यातना दी जाती है, जैसे कोई चाकू तुम्हारे हृदय में घुमाया जा रहा हो, फिर भी तुम अपने परमेश्वर-प्रेमी हृदय का प्रयोग करके परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए तैयार हो, और तुम देह की चिंता करने को तैयार नहीं हो। परमेश्वर से प्रेम का अभ्यास करने का यही अर्थ है। तुम भीतर से आहत हो, और तुम्हारी पीड़ा एक ख़ास बिंदु तक पहुँच गई है, फिर भी तुम यह कहते हुए परमेश्वर के समक्ष आने और प्रार्थना करने को तैयार हो : “हे परमेश्वर! मैं तुझे नहीं छोड़ सकता। यद्यपि मेरे भीतर अंधकार है, फिर भी मैं तुझे संतुष्ट करना चाहता हूँ; तू मेरे हृदय को जानता है, और काश कि तू मेरे भीतर अपने और अधिक प्रेम को गढ़े।” यह शोधन के समय का अभ्यास है। यदि तुम अपने परमेश्वर-प्रेमी हृदय को नींव बनाओ, तो शोधन तुम्हें परमेश्वर के और निकट लाकर परमेश्वर के साथ तुम्हारी घनिष्ठता बढ़ा सकता है। चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें अपने हृदय को परमेश्वर के समक्ष सौंप देना चाहिए। यदि तुम अपना हृदय परमेश्वर को चढ़ा दो और उसे उसके सामने रख दो, तो शोधन के दौरान तुम्हारे लिए परमेश्वर को नकारना या त्यागना असंभव होगा। इस तरह परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध ज्यादा से ज्यादा घनिष्ठ और सामान्य हो जाएगा, और परमेश्वर के साथ तुम्हारी संगति ज्यादा से ज्यादा निरंतर हो जाएगी। यदि तुम सदैव ऐसे ही अभ्यास करोगे तो तुम परमेश्वर की रोशनी में अधिक समय बिताओगे, और उसके वचनों के मार्गदर्शन में और अधिक समय व्यतीत करोगे, तुम्हारे स्वभाव में भी अधिक से अधिक बदलाव आएँगे, और तुम्हारा ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। जब वह दिन आएगा, जब परमेश्वर के परीक्षण अचानक तुम पर आ पड़ेंगे, तो तुम न केवल परमेश्वर की ओर खड़े रह पाओगे, बल्कि परमेश्वर की गवाही भी दे पाओगे। उस समय तुम अय्यूब और पतरस के समान होगे। परमेश्वर की गवाही देकर तुम सच में उससे प्रेम करते हो और खुशी-खुशी उसके लिए अपना जीवन बलिदान कर देते हो; तुम परमेश्वर के गवाह बनते हो और वह बनते हो जिससे परमेश्वर प्रेम करता है। जिस प्रेम ने शोधन का अनुभव किया है वह मजबूत होता है, नाज़ुक नहीं। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर तुम्हें कब या कैसे अपने परीक्षणों के अधीन करता है, तुम इस बारे में अपनी चिंताओं को त्यागने में सक्षम हो कि तुम जीते हो या मरते हो, परमेश्वर के लिए खुशी-खुशी सब कुछ त्याग देते हो और परमेश्वर के लिए खुशी-खुशी कुछ भी सह लेते हो, इस प्रकार तुम्हारा प्रेम शुद्ध होगा और तुम्हारी आस्था में वास्तविकता होगी। केवल तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे, जिसे सचमुच परमेश्वर द्वारा प्रेम किया जाता है, और जिसे सचमुच परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया है।
यदि लोग शैतान के प्रभाव में आ जाते हैं, तो उनके भीतर परमेश्वर के लिए कोई प्रेम नहीं रहता, और उनके पिछले दर्शन, प्रेम और संकल्प लुप्त हो जाते हैं। लोग महसूस किया करते थे कि उनसे परमेश्वर के लिए दुःख उठाना अपेक्षित है, परंतु आज वे ऐसा करना निंदनीय समझते हैं, और उनके पास शिकायतों की कोई कमी नहीं होती। यह शैतान का कार्य है; इस बात का संकेत कि मनुष्य शैतान की सत्ता में आ चुका है। यदि तुम्हारे सामने यह स्थिति आ जाए, तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके, उसे उलट देना चाहिए—यह तुम्हें शैतान के हमलों से बचाएगा। कड़वे शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य बड़ी आसानी से शैतान के प्रभाव में आ सकता है, इसलिए ऐसे शुद्धिकरण के दौरान तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए? तुम्हें अपना हृदय परमेश्वर के समक्ष रखते हुए और अपना अंतिम समय परमेश्वर को समर्पित करते हुए अपनी इच्छा जगानी चाहिए। परमेश्वर चाहे कैसे भी तुम्हारा शुद्धिकरण करे, तुम्हें परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सत्य को अभ्यास में लाने योग्य बनना चाहिए, और परमेश्वर को खोजने और उसके साथ समागम की कोशिश करने की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए। ऐसे समय में जितने अधिक निष्क्रिय तुम होओगे, उतने ही अधिक नकारात्मक तुम बन जाओगे और तुम्हारे लिए पीछे हटना उतना ही अधिक आसान हो जाएगा। जब तुम्हारे लिए अपना कार्य करना आवश्यक होता है, चाहे तुम उसे अच्छी तरह से पूरा न करो, पर तुम वह सब करते हो जो तुम कर सकते हो, और तुम उसे पूरा करने के लिए अपने परमेश्वर-प्रेमी हृदय के अलावा और किसी चीज का प्रयोग नहीं करते; भले ही दूसरे कुछ भी कहें—चाहे वे यह कहें कि तुमने अच्छा किया है, या यह कि तुमने खराब किया है—कुलमिलाकर, तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम दंभी नहीं हो, क्योंकि तुम परमेश्वर के लिए से कार्य कर रहे हो। जब दूसरे तुम्हें गलत समझते हैं, तो तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने और यह कहने में सक्षम होते हो : “हे परमेश्वर! मैं यह नहीं माँगता कि दूसरे मुझे सहन करें या मुझसे अच्छा व्यवहार करें, न ही यह कि वे मुझे समझें और स्वीकार करें। मैं केवल यह माँगता हूँ कि मैं अपने हृदय से तुझसे प्रेम कर सकूँ, कि मैं अपने हृदय में शांत हो सकूँ, और कि मेरा अंतःकरण शुद्ध हो। मैं यह नहीं माँगता कि दूसरे मेरी प्रशंसा करें, या मेरा बहुत आदर करें; मैं केवल तुझे अपने हृदय से संतुष्ट करना चाहता हूँ, मैं वह सब करके, जो मैं कर सकता हूँ, अपनी भूमिका निभाता हूँ, और यद्यपि मैं मूढ़ और मूर्ख हूँ, और मुझमें क्षमता की कमी है और मैं अंधा हूँ, फिर भी मैं जानता हूँ कि तू मनोहर है, और मैं वह सब-कुछ तुझे अर्पित करने के लिए तैयार हूँ जो मेरे पास है।” जैसे ही तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तुम्हारे परमेश्वर-प्रेमी हृदय का उदय होता है, और तुम अपने हृदय में बहुत अधिक राहत महसूस करते हो। परमेश्वर से प्रेम का अभ्यास करने का यही अर्थ है। जब तुम इसका अनुभव करोगे, तो तुम दो बार असफल होगे और एक बार सफल होगे, या पाँच बार असफल होगे और दो बार सफल होगे, और जब तुम इस तरह अनुभव करोगे, तो केवल असफलता के बीच ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को देख पाओगे और खोज पाओगे कि तुममें क्या कमी है। जब तुम अगली बार ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हो, तो तुम्हें अपने आपको सावधान करना चाहिए, अपने क़दमों को संतुलित करना चाहिए, और अधिक बार प्रार्थना करनी चाहिए। धीरे-धीरे तुम ऐसी परिस्थितियों में विजय प्राप्त करने की योग्यता विकसित कर लोगे। जब ऐसा होता है, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ सफल होती हैं। जब तुम देखते हो कि तुम इस बार सफल रहे हो, तो तुम भीतर से आभारी रहोगे, और जब तुम प्रार्थना करोगे, तो तुम परमेश्वर को महसूस कर पाओगे, और यह भी कि पवित्र आत्मा की उपस्थिति ने तुम्हें छोड़ा नहीं है—केवल तभी तुम जानोगे कि परमेश्वर तुम्हारे भीतर कैसे कार्य करता है। इस प्रकार से किया जाने वाला अभ्यास तुम्हें अनुभव करने का मार्ग प्रदान करेगा। यदि तुम सत्य को अभ्यास में नहीं लाओगे, तो तुम अपने भीतर पवित्र आत्मा की उपस्थिति से वंचित रहोगे। परंतु यदि तुम चीज़ों का, जैसी वे हैं, उसी रूप में सामना करते हुए सत्य को अभ्यास में लाते हो, तो भले ही तुम भीतर से आहत हो, फिर भी पवित्र आत्मा तुम्हारे साथ रहेगा, उसके बाद जब तुम प्रार्थना करोगे तो परमेश्वर की उपस्थिति महसूस कर पाओगे, तुममें परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने का सामर्थ्य होगा, और अपने भाइयों और बहनों के साथ समागम के दौरान तुम्हारे अंतःकरण पर कोई बोझ नहीं होगा, और तुम शांति महसूस करोगे, और इस तरह से तुम वह प्रकाश में ला पाओगे, जो तुमने किया है। दूसरे चाहे कुछ भी कहें, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध रख पाओगे, तुम दूसरों द्वारा विवश नहीं किए जाओगे, तुम सब चीज़ों से ऊपर उठ जाओगे—और इसमें तुम दर्शा पाओगे कि तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कारगर रहा है।
जितना अधिक परमेश्वर लोगों का शोधन करता है, लोगों के हृदय उतने ही अधिक परमेश्वर से प्रेम करने में सक्षम हो जाते हैं। उनके हृदय की यातना उनके जीवन के लिए लाभदायक होती है, वे परमेश्वर के समक्ष अधिक शांत रह सकते हैं, परमेश्वर के साथ उनका संबंध और अधिक निकटता का हो जाता है, और वे परमेश्वर के सर्वोच्च प्रेम और उसके सर्वोच्च उद्धार को और अच्छी तरह से देख पाते हैं। पतरस ने सैकड़ों बार शोधन का अनुभव किया, और अय्यूब कई परीक्षणों से गुजरा। यदि तुम लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाना चाहते हो, तो तुम लोगों को भी सैकड़ों बार शोधन से होकर गुजरना होगा—तुम्हें इस प्रक्रिया से गुजरना ही चाहिए और इस कदम पर भरोसा रखना चाहिए—केवल तभी तुम लोग परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाओगे और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाओगे। शोधन वह सर्वोत्तम साधन है, जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता है, केवल शोधन और कड़वे परीक्षण ही लोगों के हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं। कष्टों के बिना लोगों में परमेश्वर के लिए सच्चे प्रेम की कमी रहती है; यदि भीतर से उनका परीक्षण नहीं किया जाता, और यदि वे सच्चे शोधन के भागी नहीं बनाए जाते, तो उनके हृदय हमेशा बाहर ही भटकते रहेंगे। एक निश्चित बिंदु तक शोधन किए जाने के बाद तुम अपनी स्वयं की निर्बलताएँ और कठिनाइयाँ देखोगे, तुम देखोगे कि तुममें कितनी कमी है और कि तुम उन अनेक समस्याओं पर काबू पाने में असमर्थ हो, जिनका तुम सामना करते हो, और तुम देखोगे कि तुमने कितना अधिक विद्रोह किया है। केवल परीक्षणों के दौरान ही लोग अपनी सच्ची अवस्थाओं को सचमुच जान पाते हैं; परीक्षण लोगों को पूर्ण बनाने में और भी अधिक सक्षम होते हैं।
अपने जीवनकाल में पतरस ने सैकड़ों बार शोधन का अनुभव किया और वह बहुत सी कष्टदायक तपन से होकर गुजरा। यह शोधन परमेश्वर के लिए उसके सर्वोच्च प्रेम की नींव बन गया और उसके संपूर्ण जीवन का सबसे अर्थपूर्ण अनुभव हो गया। वह परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने में समर्थ हो पाया, एक अर्थ में यह परमेश्वर से प्रेम करने के उसके संकल्प के कारण था परंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह उस शोधन और पीड़ा के कारण था, जिससे होकर वह गुजरा। यह पीड़ा परमेश्वर से प्रेम करने के मार्ग पर उसकी मार्गदर्शक बन गई और ऐसी चीज बन गई जो उसके लिए सबसे अधिक यादगार थी। यदि लोग परमेश्वर से प्रेम करते हुए शोधन की पीड़ा से नहीं गुजरते तो उनका प्रेम अशुद्धियों और अपनी स्वयं की पसंद से भरा होता है; ऐसा प्रेम शैतान के विचारों से भरा होता है और मूलतः परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने में असमर्थ होता है। परमेश्वर से प्रेम करने का संकल्प रखना परमेश्वर से सच में प्रेम करने के समान नहीं है। यद्यपि लोगों के हृदय की सारी सोच परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने के लिए ही होती है और प्रतीत होता है कि वह परमेश्वर की खातिर ही है और वह किसी भी मानवीय विचारों से रहित है, फिर भी जब परमेश्वर से प्रेम करने का ऐसा अभ्यास उसके सामने लाया जाता है तो वह उसे स्वीकृति या आशीष नहीं देता है। भले ही लोग समस्त सत्यों को पूरी तरह से समझ लें और जान जाएँ तो भी इसे परमेश्वर से प्रेम करने की निशानी नहीं कहा जा सकता, यह नहीं कहा जा सकता कि इन लोगों में परमेश्वर से प्रेम करने की वास्तविकता है। शोधन से गुजरे बिना अनेक सत्यों को समझ लेने के बावजूद लोग इन सत्यों को अभ्यास में लाने में असमर्थ होते हैं; केवल शोधन के दौरान ही लोग इन सत्यों का वास्तविक अर्थ समझ सकते हैं, केवल तभी लोग वास्तव में उनके आंतरिक अर्थ का अनुभव कर सकते हैं। उस समय जब वे इन सत्यों का पुनः अभ्यास करते हैं, तब वे ऐसा सटीकता से और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कर पाने में समर्थ होते हैं; उस समय उनके अभ्यास में उनके अपने विचार कम हो जाते हैं, उनकी मानवीय भ्रष्टता घट जाती है और उनकी मानवीय भावनाएँ कम हो जाती हैं; केवल उसी समय उनका अभ्यास परमेश्वर के प्रति प्रेम की सच्ची अभिव्यक्ति होता है। परमेश्वर के प्रति प्रेम के सत्य का प्रभाव मौखिक ज्ञान या मानसिक इच्छा से हासिल नहीं होता है और न ही इसे केवल उस सत्य को समझने से हासिल किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि लोग एक मूल्य चुकाएँ, वे शोधन के दौरान बहुत पीड़ा से होकर गुजरें, केवल तभी उनका प्रेम शुद्ध और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बनेगा। अपनी इस अपेक्षा में कि मनुष्य उससे प्रेम करे, परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि मनुष्य अपने जोश या मरज़ी का प्रयोग करके उससे प्रेम करे; केवल वफ़ादारी और उसकी सेवा के लिए सत्य के प्रयोग के माध्यम से ही मनुष्य उससे सच में प्रेम कर सकता है। परंतु मनुष्य भ्रष्टता के बीच रहता है, और इसलिए वह परमेश्वर की सेवा करने में सत्य और वफ़ादारी का प्रयोग करने में असमर्थ है। वह या तो परमेश्वर के संबंध में बहुत अधिक जोशीला है या फिर बहुत ठंडा और बेपरवाह; वह या तो परमेश्वर से अत्यधिक प्रेम करता है या अत्यधिक घृणा। जो भ्रष्टता के बीच जीते हैं, वे सदैव इन दोनों अतियों के बीच जीते हैं, वे सदैव अपनी मरज़ी के मुताबिक जीते हैं, फिर भी वे यह मानते हैं कि वे सही हैं। यद्यपि मैंने बार-बार इसका उल्लेख किया है, फिर भी लोग इसे गंभीरता से लेने में असमर्थ हैं, वे इसके महत्व को गहराई से समझने में अक्षम हैं, और इसलिए वे आत्म-वंचना के विश्वास के बीच, परमेश्वर के प्रति प्रेम के भ्रम में जीते हैं, जो उनकी मनमानी पर आश्रित है। पूरे इतिहास में, जैसे-जैसे मनुष्यजाति का विकास हुआ है और युग बीते हैं, मनुष्य से परमेश्वर की माँगें पहले से अधिक ऊँची होती गई हैं, और उसने लगातार यह माँग की है कि मनुष्य पूरी तरह से उसकी ओर फिर जाए। परंतु मनुष्य का ज्ञान अधिकाधिक धुँधला और अस्पष्ट होता गया है, और साथ ही साथ परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम अधिकाधिक अशुद्ध होता गया है। मनुष्य की दशा और जो कुछ भी वह करता है, वह लगातार परमेश्वर के इरादों के अधिकाधिक विरुद्ध होता गया है, क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पहले से अधिक गहराई तक भ्रष्ट कर दिया गया है। इसमें यह आवश्यक हो जाता है कि परमेश्वर उद्धार का और अधिक तथा बड़ा कार्य करे। मनुष्य परमेश्वर से अपनी अपेक्षाएँ अधिकाधिक बढ़ाता जा रहा है, और परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम निरंतर कम होता जा रहा है। लोग विद्रोहशीलता में, सत्य के बिना रहते हैं, वे ऐसा जीवन जीते हैं जो मानवता से रहित हैं; न केवल उनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी प्रेम नहीं है, बल्कि वे विद्रोहशीलता और विरोध से भरे हुए हैं। यद्यपि वे सोचते हैं कि उनमें परमेश्वर के प्रति पहले से ही बहुत अधिक प्रेम है, और वे उसके प्रति इससे अधिक अनुकूल नहीं हो सकते, परंतु परमेश्वर ऐसा नहीं मानता। उसे यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि उसके प्रति मनुष्य का प्रेम कितना भ्रष्ट है, और मनुष्य की चापलूसी के कारण उसने कभी मनुष्य के प्रति अपना मत नहीं बदला है, और न कभी मनुष्य की भक्ति के परिणामस्वरूप उसके सद्भाव का भुगतान किया है। मनुष्य के विपरीत, परमेश्वर अंतर करने में सक्षम है : वह जानता है कि कौन उससे वास्तव में प्रेम करता है और कौन नहीं, और मनुष्य के क्षणिक संवेगों के कारण जोश में आने और आपा खो देने के बजाय वह मनुष्य के सार और व्यवहार के अनुसार बरताव करता है। परमेश्वर आखिरकार परमेश्वर है, और उसकी अपनी गरिमा है, अपनी अंतर्दृष्टि है; मनुष्य आखिरकार मनुष्य है, और परमेश्वर के प्रति मनुष्य का प्रेम अगर सत्य से विमुख होगा, तो उसके कारण परमेश्वर उसकी ओर उन्मुख नहीं होगा। इसके विपरीत, वह मनुष्य के समस्त कार्यों के प्रति उपयुक्त रूप से व्यवहार करता है।
मनुष्य की दशा और अपने प्रति मनुष्य का व्यवहार देखकर परमेश्वर ने नया कार्य किया है, जिससे मनुष्य उसके विषय में ज्ञान और उसके प्रति समर्पण दोनों से युक्त हो सकता है, और प्रेम और गवाही दोनों रख सकता है। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर के शोधन, और साथ ही उसके न्याय और काट-छाँट का अनुभव अवश्य करना चाहिए, जिसके बिना मनुष्य कभी परमेश्वर को नहीं जानेगा, और कभी वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी गवाही देने में समर्थ नहीं होगा। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का शोधन केवल एकतरफा प्रभाव के लिए नहीं होता, बल्कि बहुआयामी प्रभाव के लिए होता है। इसलिए परमेश्वर उन लोगों में शोधन का कार्य करता है, जो सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं, ताकि उनका संकल्प और प्रेम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाए। जो लोग सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं और जो परमेश्वर को पाने की लालसा करते हैं, उनके लिए ऐसे शोधन से अधिक अर्थपूर्ण या अधिक सहायक कुछ नहीं है। परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य द्वारा सरलता से समझा-बूझा नहीं जाता, क्योंकि परमेश्वर आखिरकार परमेश्वर है। अंततः, परमेश्वर के लिए मनुष्य के समान स्वभाव रखना असंभव है, और इसलिए मनुष्य के लिए परमेश्वर के स्वभाव को समझना सरल नहीं है। सत्य मनुष्य द्वारा अंतर्निहित रूप में धारण नहीं किया जाता, और वह उनके द्वारा सरलता से नहीं समझा जाता, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं; मनुष्य सत्य से और सत्य को अभ्यास में लाने के संकल्प से रहित है, और यदि वह पीड़ित नहीं होता और उसका शोधन या न्याय नहीं किया जाता, तो उसका संकल्प कभी पूर्ण नहीं किया जाएगा। सभी लोगों के लिए शोधन बेहद कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शोधन के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धार्मिक स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक व्यावहारिक काट-छाँट प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से मनुष्य अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान प्राप्त करता है, और उसे परमेश्वर के इरादों की और अधिक समझ प्राप्त होती है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त होता है। शोधन का कार्य क्रियान्वित करने में परमेश्वर के लक्ष्य ऐसे होते हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शोधन का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना होता है। बल्कि इसका अर्थ है शोधन के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शोधन मनुष्य की व्यावहारिक परीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शोधन के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य कर सकता है।