अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)

तुम लोगों ने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, और हालाँकि तुम थोड़े-बहुत सत्य समझते हो, तुममें से प्रत्येक के दिल में तुम्हारी अपनी व्याख्याएं, मान्यताएँ और कल्पनाएं हैं—वे सभी सत्य और परमेश्वर के इरादों का पूरी तरह से उल्लंघन और विरोध करती हैं। ये चीजें क्या हैं? ये चीजें लोगों की धारणाएँ हैं। हालाँकि इंसान के पास बिल्कुल सत्य नहीं है, फिर भी उसका दिमाग अनेक धारणाएँ और कल्पनाएँ उत्पन्न करने के काबिल हैं, जो सारी-की-सारी सत्य से बेमेल हैं। जो कुछ भी सत्य के प्रतिकूल है वह इंसान की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित होता है। तो इंसान की धारणाएँ कैसे उपजती हैं? इसके अनेक विभिन्न कारण हैं। आंशिक रूप से यह पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा है, और साथ ही ज्ञान का प्रसार और शिक्षा और सामाजिक प्रवृत्तियों और पारिवारिक शिक्षा आदि का प्रभाव भी है। चीन—एक देश जिस पर हजारों वर्षों से नास्तिकता का राज्य रहा है—वहाँ लोगों को परमेश्वर की क्या समझ है, उनके मन में उसकी क्या परिभाषा है? हालाँकि परमेश्वर अदृश्य और अमूर्त है, पर वह वास्तव में अस्तित्व में है, वह हवा में यहाँ-वहाँ उड़ सकता है, बिना किसी निशान के आ-जा सकता है, एकाएक प्रकट और गायब हो सकता है, दीवारों से होकर जा सकता है, किसी भी पदार्थ या स्थान की रुकावट के बिना, और जबरदस्त काबिलियत के साथ, पूरी तरह सर्वशक्तिमान—परमेश्वर को लेकर लोगों के मन की धारणाएँ और कल्पनाएँ कुछ ऐसी हैं। तो लोगों की कल्पनाएँ और धारणाएँ कैसे उपजती हैं? ये मुख्य रूप से पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा और अनुकूलन से जुड़ी हुई हैं। नास्तिकता की शिक्षा चीन में हजारों वर्षों से दी जा रही है और इसने बहुत पहले ही वहाँ लोगों के अंतर्मन में गहराई से नास्तिकता के अपने बीज बो दिए थे। इस दौरान शैतान और तरह-तरह की दुष्ट आत्माओं ने लोगों को गुमराह कर उन पर नियंत्रण करने के लिए उनके बीच अनेक संकेत और चमत्कार दिखाए थे। ये बातें लोगों के बीच दूर-दूर तक फैल गईं, और उनका भयावह प्रभाव पड़ा है। ये दुष्ट आत्माएँ लोगों को गुमराह करने, बेवकूफ बनाने और नुकसान पहुँचाने के लिए अंधाधुंध काम करती हैं और इसलिए लोगों ने परमेश्वर के बारे में अनेक धारणाएँ और कल्पनाएँ तैयार कर ली हैं। निष्कर्ष में, लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ पूरी तरह से शैतान की दुष्ट सामाजिक शिक्षा और मतारोपण से उपजती हैं। प्राचीन काल से आज तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों ने शैतान की शिक्षा पाई है और उनके बीच पारंपरिक संस्कृति और ज्ञान का प्रसार और मतारोपण हुआ है, और इस तरह उन्होंने तरह-तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ तैयार कर ली हैं। भले ही इन चीजों ने लोगों के कार्य, पढ़ाई-लिखाई और सामान्य जीवन को सीधे प्रभावित न किया हो, फिर भी यही धारणाएँ और कल्पनाएँ लोगों द्वारा परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने और उसके समक्ष समर्पण करने में बहुत बड़ा रोड़ा बनी हुई हैं। भले ही लोगों ने परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा हो, फिर भी ये चीजें उनके परमेश्वर को जानने और उसके समक्ष समर्पण करने में बहुत बड़ी बाधा हैं, जिसके कारण उनकी आस्था बहुत कम है, वे अक्सर निराश और कमजोर महसूस करते हैं और परमेश्वर में अनेक वर्ष विश्वास रखने के बावजूद उन्हें परीक्षणों में दृढ़ रहने में बड़ी मुश्किल होती है। धारणाएँ और कल्पनाएँ पालने के ये परिणाम होते हैं।

ज्यादातर लोग मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है नेक काम करना और एक अच्छा इंसान होना। मिसाल के तौर पर, वे मानते हैं कि कोई परमेश्वर का विश्वासी तभी होता है जब वह गरीबों को दान देता है। अगर कोई बहुत सारे नेक काम करता है और दूसरों से प्रशंसा पाता है, तो वह दिल से परमेश्वर को धन्यवाद देता है और लोगों से कहता है, “मुझे धन्यवाद मत दो। तुम्हें स्वर्ग में परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि उसी ने मुझे यह करना सिखाया।” लोगों से वाहवाही पाने के बाद ऐसे लोग अत्यंत संतुष्ट और सुकून भरा महसूस करते हैं, और वे मानते हैं कि परमेश्वर में आस्था अच्छी चीज है, लोगों ने उनकी पुष्टि की है और परमेश्वर भी अवश्य उनकी पुष्टि करेगा। सुकून की यह भावना कहाँ से आती है? (उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से।) उनकी सुकून की यह भावना असली है या झूठी? (झूठी।) लेकिन उनके लिए यह असली है, और वे बहुत जमीनी, व्यावहारिक और वास्तविक महसूस करते हैं, क्योंकि उन्होंने जिस चीज का अनुसरण किया है वह सुकून पाने की भावना ही है। सुकून पाने की भावना कैसे आती है? यह भ्रांति उनकी धारणाओं के कारण आई है, और उनकी धारणाओं ने ही उन्हें यह सोचने दिया है कि परमेश्वर में विश्वास ऐसा ही होना चाहिए, उन्हें ऐसा ही इंसान बनना चाहिए, और उन्हें इसी तरह काम करना चाहिए, ये चीजें करने से परमेश्वर उनसे यकीनन प्रसन्न होगा, और वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करेंगे और अंत में स्वर्ग के राज्य के प्रवेश करेंगे। यह “यकीनन” कहाँ से आता है? (लोगों की धारणाओं से।) उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ ही उन्हें यह निश्चितता और यह भ्रांति देती हैं, और उन्हें इतना सहज महसूस कराती हैं। और परमेश्वर इस मामले को वास्तव में किस तरह से मापता और तय करता है? यह केवल एक प्रकार का अच्छा व्यवहार है, जो लोगों की धारणाओं और लोगों की अच्छाई के अनुसार किया जाता है। एक दिन, यह व्यक्ति ऐसा कुछ करता है जो सिद्धांतों के विपरीत होता है और उसकी काट-छाँट हो जाती है, और तब उसे यह पता चलता है कि नेक लोगों को मापने के परमेश्वर के मानदंड वैसे नहीं हैं जैसे उसने सोचे थे, और परमेश्वर के वचन ऐसी कोई बात नहीं कहते, और इसलिए वह प्रतिरोधी महसूस कर सोचता है, “क्या मैं नेक इंसान नहीं हूँ? इतने वर्ष तक मैं नेक इंसान रहा, और किसी ने भी कभी नहीं कहा कि मैं नेक इंसान नहीं हूँ। केवल परमेश्वर कहता है कि मैं नेक इंसान नहीं हूँ!” क्या इसमें समस्या नहीं है? यह समस्या कैसे खड़ी हुई? यह धारणाओं के कारण खड़ी हुई। यहाँ मुख्य अपराधी कौन है? (धारणाएँ।) मुख्य अपराधी लोगों की धारणाएँ हैं। लोगों की धारणाएँ उनके अक्सर परमेश्वर को गलत समझने और अक्सर तरह-तरह की माँगें रखने, परमेश्वर के बारे में अपनी राय देने और मन में परमेश्वर को मापने के तरह-तरह के मानदंड रखने का कारण बनती हैं; इनके कारण लोग यह मापने के लिए कि चीजें सही हैं या गलत, कोई नेक है या बुरा, और कोई परमेश्वर का वफादार है या नहीं और उसमें परमेश्वर के प्रति आस्था है या नहीं, अक्सर गलत विचारों और नजरियों का प्रयोग करते हैं। इन गलतियों का मूल कारण क्या है? मूल कारण हैं लोगों की धारणाएँ। शायद लोगों की धारणाओं का उनके खाने-सोने पर, और उनके सामान्य जीवन पर कोई प्रभाव न पड़ता हो, लेकिन ये चीजें लोगों के दिमाग और विचारों में मौजूद रहती हैं, ये छाया की तरह लोगों से चिपक कर हर समय उनका पीछा करती हैं। अगर तुम इन्हें समय से दूर न करते रहो, तो ये तुम्हारी सोच, परख, तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे परमेश्वर-संबंधी ज्ञान और परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों को निरंतर नियंत्रित करती रहेंगी। क्या यह तुम स्पष्टता से समझ रहे हो? धारणाएँ एक बड़ी समस्या है। परमेश्वर के बारे में लोगों का धारणाएँ रखना, उनके और परमेश्वर के बीच एक दीवार होने जैसा है, जो उन्हें परमेश्वर का वास्तविक चेहरा देखने से रोकती है, जो उन्हें परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और सच्चे सार को देखने से रोकती है। ऐसा क्यों है? इसलिए कि लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं, वे अपनी धारणाओं का प्रयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि परमेश्वर सही है या गलत और परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसे मापने, परखने और उसकी निंदा करने के लिए करते हैं। ऐसा करके लोग अक्सर कैसी दशा में डूब जाते हैं? क्या लोग अपनी धारणाओं में जीते हुए परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं? क्या वे परमेश्वर में सच्ची आस्था रख सकते हैं? (नहीं रख सकते हैं।) जब लोग परमेश्वर के प्रति थोड़ा-बहुत समर्पण करते भी हैं, तो ऐसा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार ही करते हैं। जब कोई अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करता है, तो वह समर्पण उनकी निजी चीजों से कलंकित हो जाता है जो शैतान और बाहरी दुनिया की होती हैं और वह सत्य के विपरीत होता है। परमेश्वर को लेकर लोगों की धारणाओं की समस्या गंभीर है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच के इस प्रमुख मुद्दे को तत्काल सुलझाने की आवश्यकता है। हर कोई परमेश्वर के सामने धारणाएँ लेकर आता है, परमेश्वर के बारे में हर तरह के संदेह लेकर आता है। या यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर के लोगों को इतना कुछ प्रदान करने, उनके लिए व्यवस्था और आयोजन करने के बावजूद लोग परमेश्वर के बारे में अनगिनत गलतफहमियाँ लेकर आते हैं। और फिर परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते का क्या होगा? लोग परमेश्वर को लगातार गलत समझते हैं, उस पर संदेह करते हैं और यह मापने के लिए कि परमेश्वर सही है या गलत, और उसके प्रत्येक वचन एवं कार्य को मापने के लिए निरंतर अपने ही मानकों का प्रयोग करते हैं। यह कैसा व्यवहार है? (यह विद्रोहशीलता और अवज्ञा है।) सही है, यह लोगों का परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, अवज्ञा और उसकी निंदा करना है, यह लोगों का परमेश्वर की आलोचना करना, उसके विरुद्ध ईशनिंदा करना और उसके साथ होड़ लगाना है, और गंभीर मामलों में लोग परमेश्वर को अदालत में खींच कर उसके विरुद्ध एक “निर्णायक संघर्ष” करना चाहते हैं। वह कौन-सा सबसे गंभीर स्तर है जहाँ तक लोगों की धारणाएँ पहुँच सकती हैं? यह स्वयं सच्चे परमेश्वर को नकारना है, यह नकारना है कि उसके वचन ही सत्य हैं, और परमेश्वर के कार्य की निंदा करना है। जब लोगों की धारणाएँ इस स्तर तक पहुँच जाती हैं, तो वे सहज ही परमेश्वर को नकार देते हैं, उसकी निंदा करते हैं, उसके विरुद्ध ईशनिंदा करते हैं और परमेश्वर को धोखा देते हैं। वे न सिर्फ परमेश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं, बल्कि वे सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर का अनुसरण करने से इनकार करते हैं—क्या यह डरावना नहीं है? (बिल्कुल।) यह एक डरावनी समस्या है। कहा जा सकता है कि धारणाएँ लोगों के लिए पूरी तरह नुकसानदेह हैं, इनसे कोई लाभ नहीं है। इसीलिए आज हम धारणाओं पर संगति कर रहे हैं और विश्लेषण कर रहे हैं कि धारणाएँ क्या हैं और लोग कौन-सी धारणाएँ पालते हैं—यह अत्यंत आवश्यक है। आम तौर पर तुम लोगों के भीतर कौन-सी धारणाएँ उभरती हैं? तुम्हारे कौन-से विचार, समझ, निर्णय और नजरिये तुम्हारी धारणाओं से जुड़े हैं? क्या यह विचार करने योग्य नहीं है? लोगों का व्यवहार उनकी धारणाओं से संबंधित नहीं होता है, लेकिन उस व्यवहार के पीछे के विचार और नजरिये सीधे उनकी धारणाओं से जुड़े होते हैं। लोगों की धारणाएँ परमेश्वर के कार्य के दायरे के बाहर नहीं होतीं। एक : परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों के मन की विभिन्न धारणाएँ। यानी परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों के मन में विभिन्न कल्पनाएँ और परिभाषाएँ होती हैं, उन्हें परमेश्वर में विश्वास से क्या हासिल करना चाहिए, और अपने परमेश्वर में विश्वास में उन्हें किस पथ पर चलना चाहिए, और इसलिए वे तरह-तरह की धारणाएँ पाल लेते हैं। दो : परमेश्वर के देहधारण के बारे में लोगों की धारणाएँ। लोगों के मन में देहधारण को लेकर और भी ज्यादा कल्पनाएँ और परिभाषाएँ होती हैं, और इसलिए वे सहज ही अनेक धारणाएँ पाल लेते हैं—ये आपस में जुड़े हुए हैं। तीन : परमेश्वर के कार्य को लेकर लोगों की धारणाएँ। लोगों के मन में परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य, उसके द्वारा प्रकट स्वभाव और उसके कार्य करने के तरीके को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ और परिभाषाएँ होती हैं, और इसलिए वे अनेक धारणाएँ पाल लेते हैं। इन तीन बिंदुओं को हम और ज्यादा विस्तार से विभाजित कर सकते हैं, वैसे इन तीन बिंदुओं में बुनियादी रूप में लोगों की तमाम धारणाएँ शामिल हैं, तो आओ, हम बारी-बारी से उन पर संगति करें।

अब आओ, हम पहले बिंदु पर बात करें, वे विभिन्न धारणाएँ जो लोग अपने मन में परमेश्वर में विश्वास को लेकर रखते हैं। इस प्रकार की धारणाओं का दायरा थोड़ा बड़ा होता है। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास के मामले में अजनबी हों, या उन्होंने पहले कभी परमेश्वर में विश्वास रखा हो, फिर भी पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते समय उनके मन में ढेरों धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं। जब वे पहली बार बाइबल पढ़ना शुरू करते हैं, तो लोग अपने दिलों में एक उफान महसूस करते हैं, और वे सोचते हैं, “मैं एक नेक इंसान बनूंगा; मैं स्वर्ग जाऊँगा।” बाद में, वे परमेश्वर में विश्वास को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएँ और परिभाषाएँ या दृढ़ विचार पाल लेते हैं, और यकीनन वे विभिन्न धारणाएँ भी पाल लेंगे। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद लोग उन्हें कैसा व्यक्ति बनना चाहिए, इसे लेकर वे तमाम चीजों की कल्पना करते हैं। कोई कहता है, “परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद से मैं सिगरेट नहीं पियूँगा, शराब नहीं पियूँगा और जुआ नहीं खेलूँगा। मैं उन बुरी जगहों पर नहीं जाऊँगा। मैं लोगों से विनम्रता से बातें करूँगा और अपने चेहरे पर मुस्कान रखूँगा।” यह क्या है? क्या यह एक धारणा है, या लोगों को इसी तरह व्यवहार करना चाहिए? (लोगों को इसी तरह व्यवहार करना चाहिए।) यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है, और लोगों को इस तरह कार्य करना चाहिए। यह धारणा नहीं है, न ही यह कल्पना करना है—सोचने का यह तरीका बिल्कुल तर्कसंगत और उचित है। कोई बड़ा भाई कहता है, “मैं बूढ़ा हूँ, मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है। मुझे युवाओं के बीच अपनी बोलचाल और काम करने के तरीके से एक उदाहरण पेश करना चाहिए। मुझे खिलखिलाना या अपनी उम्र का लिहाज न करने वाले काम नहीं करने चाहिए। मुझे गरिमापूर्ण और संस्कारी लगना चाहिए और मेरा आचरण एक परिष्कृत सज्जन जैसा होना चाहिए।” इसलिए युवाओं से बात करते समय उसका चेहरा गंभीर होता है, उसकी बातों में साहित्यिक शब्दों और वाक्यांशों की भरमार होती है, उसे देखकर युवा असहज महसूस करते हैं और उसके पास नहीं जाना चाहते। भाई-बहन सभाओं में नाचते हैं और परमेश्वर का गुणगान करते हैं, और बूढ़ा भाई यह मानकर कि उसे अपनी आँखों में कामुकता को काबू में रखना चाहिए, सिर्फ उपयुक्त दृश्य ही देखता है, तो वह खुद को देखने से रोकता तो है, मगर मन-ही-मन बड़बड़ाता है, “ये जवान लोग बड़ी आजादी से जीते हैं; मैं इतना दुखी होकर क्यों जीता हूँ? वैसे, परमेश्वर में विश्वास रखने पर व्यक्ति को थोड़ा दुखी होना चाहिए, क्योंकि उसी ने तो मुझे इतना बूढ़ा होने दिया है!” वह कहता तो है कि उसे नर्तकियों को नहीं देखना चाहिए, मगर फिर भी छुपी नजरों से देखता है, साफ तौर पर दिखावा करता रहता है। यह दिखावा कैसे आता है? वह शर्मिंदगी की इस स्थिति में कैसे पहुँचता है? इसलिए कि वह मन में एक कल्पना किए बैठा है कि परमेश्वर में अपने विश्वास में उसे कैसा व्यवहार और हाव-भाव दिखाना चाहिए, और इस कल्पना के हावी हो जाने से उसकी कथनी-करनी गुप्त और ढोंग-भरी हो जाती है। मिसाल के तौर पर, सभाओं में गाते समय कुछ लोग ताली बजाते हैं, खुल जाते हैं, मगर यह बूढ़ा भाई किसी मृत व्यक्ति के समान सुन्न और मंदबुद्धि जैसा रहता है, उसमें जरा-सी भी जीवनशक्ति नहीं होती न ही वह इंसान जैसा लगता है। वह मानता है कि बूढ़ा होने के कारण उसे एक बूढ़े आदमी जैसे पेश आना चाहिए और एक बच्चे की तरह नादान बर्ताव नहीं करना चाहिए, और लोगों को अपना मजाक नहीं उड़ाने देना चाहिए। संक्षेप में कहें, तो वह जो भी व्यक्त करता है वह बस दिखावा होता है, और वह अपने बहुत बड़ा व्यक्ति होने का दिखावा करने के लिए खुद को मजबूर करता है। ऐसा ढोंगी व्यवहार देखकर क्या दूसरे लोग कुछ सीख पाते हैं? (नहीं।) यह देखकर तुम्हें कैसा लगता है? अव्वल तो तुम्हें लगता है कि वह पाखंडी है और इससे तुम असहज हो जाते हो; दूसरे, तुम्हें लगता है कि वह झूठा है, उसे देखकर तुम्हें मतली और घृणा की अनुभूति होती है, और उससे बात करते समय तुम्हारा दम घुटता है और तुम लाचार महसूस करते हो, खुलकर बोल नहीं पाते हो। यदि तुम सावधान न रहो, तो वह तुम्हें यह कहकर भाषण भी पिला देता है, “देखो तुम जवान लोग क्या बन गए हो, तुम सब गहराई से भ्रष्ट हो गए हो! उम्दा खाना खाते हो, अच्छे कपड़े पहनते हो, ऐसे खाते हो जैसे हम नव वर्ष और दूसरे त्योहारों में खाया करते थे, और फिर भी तुम मीन-मेख निकालते हो और नाखुश रहते हो। जब हम छोटे थे, तो हमें बस दानों का भूसा और घास-फूस खानी पड़ती थी।” वह अपनी वरिष्ठता का दिखावा करता है, और दूसरों को भाषण देता है, और युवा लोग उससे बचकर रहते हैं। वह यह बात नहीं समझता और अपने बड़े-बुजुर्गों का आदर न करने और बुरा व्यवहार करने के लिए युवाओं की आलोचना भी करता है। उसकी इन बातों में क्या धारणाएँ और इंसानी इच्छा कूट-कूट कर नहीं भरी हुई है, ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं और दूसरों को शिक्षा देने में असमर्थ हैं। वैसे ये सब छोटी बातें हैं। इसमें अहम यह है : क्या इस तरह काम करके वह सत्य समझ सकेगा? (नहीं।) क्या यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सहायक और लाभप्रद है? (नहीं।) इस तरह अभ्यास और आचरण करके, दिन-ब-दिन इस तरह जीते हुए क्या वह परमेश्वर के समक्ष जी सकेगा? क्या उसने कभी चिंतन किया है, “क्या परमेश्वर में विश्वास की मेरी समझ सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है? परमेश्वर क्या अपेक्षा करता है? परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति से प्रेम करता है? क्या मेरी समझ और परमेश्वर की अपेक्षा के बीच कोई विसंगति है?” उसने इन प्रश्नों पर यकीनन पहले कभी विचार नहीं किया है। यदि उसने किया होता, तो भले ही वह उत्तर न जान पाया हो, लेकिन वह इतनी बेवकूफी से व्यवहार न करता। तो उसके यूँ करने का मूल कारण क्या है? (धारणाएँ।) और उसके धारणाएँ पालने का मूल कारण क्या है? वह यह है कि उसे इन बातों की भ्रांतिपूर्ण समझ है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को कैसे व्यवहार करना चाहिए और स्वयं को कैसे व्यक्त करना चाहिए। और यह भ्रांतिपूर्ण समझ कैसे पैदा हुई? इसका स्रोत क्या है? पारंपरिक संस्कृति और स्कूल शिक्षकों द्वारा दी गई शिक्षा है। मिसाल के तौर पर, युवाओं को बड़े-बुजुर्गों का आदर करना चाहिए और बच्चों से प्यार करना चाहिए, जबकि बड़े-बुजुर्गों को अपनी उम्र के अनुसार कार्य करना चाहिए, वगैरह। इसलिए वह अनेक विचित्र व्यवहार विकसित कर लेता है, कभी-कभी अजीबोगरीब ढंग से पेश आने लगता है, कभी-कभी अजीबोगरीब हाव-भाव दिखाता है, मगर किसी भी स्थिति में, वह पूरी तरह सामान्य नहीं दिखता। चाहे वह अजीब ढंग से पेश आए या उसके चेहरे पर अजीबोगरीब हाव-भाव हों, अगर वह सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं को नहीं समझता, और सत्य नहीं खोजता है, तो उसके पेश आने का ढंग यकीनन सत्य से परे होगा। ऐसे सरल मामले में—सिर्फ थोड़ा बाहरी व्यवहार—यह इसलिए है कि लोगों में दिल के भीतर धारणाएँ जड़ जमाए होती हैं इसलिए वे ऐसी बेतुकी चीजें करते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, तो वे नहीं जान सकेंगे कि परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानक क्या हैं। जब बड़े-बुजुर्ग परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानकों को नहीं समझते, तो वे विचित्र व्यवहार और हाव-भाव दिखाते हैं और बेतुके ढंग से पेश आते हैं; जब युवा लोग परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों को नहीं समझते, और परमेश्वर में उनका विश्वास उनकी कल्पनाओं और धारणाओं पर आधारित होता है, तो वे भी कुछ गलत हाव-भाव और व्यवहार दिखाते हैं। वे कौन-से गलत व्यवहार और हाव-भाव दिखाते हैं? मिसाल के तौर पर, कुछ युवा परमेश्वर के वचनों से समझते हैं कि वह लोगों से बच्चों जैसा शुद्ध और उन्मुक्त, तारोताजा और जीवंत जीवन जीने की अपेक्षा करता है, और वे सोचते हैं, “परमेश्वर के सामने हम हमेशा शिशु बने रहेंगे, कभी बड़े नहीं होंगे, तो हमें बच्चों की तरह चलना और बोलना चाहिए। मैं अब जान गया हूँ कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक कैसे बनूँ और परमेश्वर का अनुयायी कैसे बनूँ, और अब मैं जान गया हूँ कि बच्चों जैसा होना क्या होता है। मैं धोखेबाज हुआ करता था, बहुत परिष्कृत, सुन्न और मंदबुद्धि दिखाई देता था, लेकिन भविष्य में मुझे तरोताजा और ज्यादा जीवंत ढंग से पेश आना होगा।” बाद में, वे निरीक्षण करते हैं कि आजकल युवा समाज में किस तरह पेश आते हैं और एक बार इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद कि उन्हें कैसे पेश आना है, वे भाई-बहनों के बीच उसका अभ्यास शुरू कर देते हैं, सभी लोगों से बच्चे की वाणी में बातें करते हैं, बोलते समय अपने गले पर दबाव डालते हैं और मीठे बचकाने लहजे में बोलते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं कि सिर्फ इस किस्म की वाणी ही बच्चे की वाणी है, और साथ ही ऐसे विचित्र हाव-भाव दिखाते हैं जिससे लोग बेहद अजीब और असहज महसूस करते हैं। वे नहीं समझ पाते कि एक बच्चे की तरह शुद्ध और उन्मुक्त होने, तरोताजा और जीवंत होने से परमेश्वर का क्या अर्थ है, और वे बस बाहरी व्यवहार—ढोंग, नकल और दिखावे—में ही लगे रहते हैं। ऐसे लोगों की समझ विकृत होती है। यहाँ सबसे बड़ा मसला क्या है? न सिर्फ वे परमेश्वर के वचनों को शुद्ध रूप से समझने-बूझने में नाकाबिल हैं, बल्कि इसके विपरीत वे परमेश्वर के वचनों को गैर-विश्वासियों के व्यवहार, कृत्य और प्रवृत्तियों के साथ मिला देते हैं। क्या यह गलती नहीं है? वे परमेश्वर के सामने आकर खोजते नहीं हैं, वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते हैं, और वे सत्य नहीं खोजते हैं; इसके बजाय, वे अपने ही दिमाग का इस्तेमाल करके विश्लेषण और चीजों का अध्ययन करते हैं, या फिर वे गैर-विश्वासियों के बीच, पारंपरिक संस्कृति या वैज्ञानिक ज्ञान में कोई सैद्धांतिक आधार ढूँढ़ते हैं। क्या यह गलती नहीं है? (हाँ, अवश्य है।) यह सबसे बड़ी गलती है। गैर-विश्वासियों के ज्ञान में कोई सत्य कहाँ है? यदि तुम अपने आचरण का आधार ढूँढ़ रहे हो, तो तुम केवल परमेश्वर के वचनों में ही सत्य खोज सकते हो। किसी भी स्थिति में, लोग चाहे समझ के जिस भी स्तर तक पहुँच सकें, परमेश्वर का प्रत्येक वचन और मनुष्य से उसकी प्रत्येक अपेक्षा व्यावहारिक और विस्तृत होती है और बिल्कुल भी उतनी सरल नहीं होती, जितनी वह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं में दिखाई देती है। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उसके बाहरी रंग-रूप का अलंकार नहीं हैं, वे सिर्फ व्यवहार नहीं हैं, महज काम करने का तरीका तो बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि वे परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानक हैं; ये वे सिद्धांत और मानक हैं जिनके आधार पर मनुष्य को आचरण और कार्य करना चाहिए, और ये वे सिद्धांत हैं जिन पर लोगों को महारत हासिल कर उन्हें प्राप्त करना चाहिए। यदि मैं इन विस्तृत समस्याओं पर संगति न करूँ, तो लोग केवल कुछ धर्म-सिद्धांत समझ लेंगे और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में उन्हें मुश्किल होगी।

अभी हमने जिस विषय पर संगति की वह लोगों के बाहरी व्यवहार के संदर्भ में परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं। बाहरी व्यवहार के संदर्भ में तुम लोग और कौन-सी दूसरी बातें जानते हो? धारणाओं की बात करें, तो धारणाएँ सही होती हैं या गलत? (गलत।) वे सकारात्मक होती हैं या नकारात्मक? (नकारात्मक।) ये यकीनन परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के विपरीत होती हैं; ये सत्य के अनुरूप नहीं होतीं। चाहे ये लोगों की कपोल कल्पनाएँ हों, या इनका कोई आधार हो, किसी भी स्थिति में इनमें से किसी का भी सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। तो इन धारणाओं पर संगति करने और उनका बारीकी से विश्लेषण करने का प्रयोजन क्या है? अव्वल तो यह लोगों को इस बात से अवगत करने के लिए है कि धारणाएँ क्या हैं, साथ ही यह जानना कि ये धारणाएँ हैं, और ये धारणाएँ हैं, यह जानने के साथ-साथ, लोग सत्य में प्रवेश करें इससे पहले यह भी समझने देना कि सत्य क्या है। इसका उद्देश्य लोगों को सत्य का सार समझने देना है, जोकि वास्तव में परमेश्वर के समक्ष आना है। तुम्हारी धारणाएँ चाहे जितनी भी उचित हों, या उनका चाहे जैसा भी आधार हो, ये अभी भी धारणाएँ ही हैं; ये सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का स्थान ले सकती हैं। यदि तुम धारणाओं को सत्य मानते हो, तो फिर सत्य का तुम्हारे साथ कोई लेना-देना नहीं होगा, तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास के साथ कोई लेना-देना नहीं होगा, और तुम्हारी आस्था बेकार होगी। तुम परमेश्वर के लिए चाहे जितना भी काम करो या दौड़ो-भागो, परमेश्वर के लिए चाहे जितनी भी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम ये सब अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर करोगे, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हारी की हुई किसी भी चीज का सत्य या परमेश्वर के साथ कोई लेना-देना नहीं होगा; परमेश्वर इसकी निंदा करेगा और इसे स्वीकृति नहीं देगा—ये हैं इसके लाभकारी और हानिकारक परिणाम। तुम लोगों को अब समझ लेना चाहिए कि व्यक्ति के लिए अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को दूर करना कितना अहम है।

तुम्हारी धारणाओं को दूर करने का पहला कदम क्या है? यह इसे जानना और पहचानना है कि धारणा क्या है। जब परमेश्वर के घर ने पहले-पहल फिल्में बनाना शुरू किया, तो फिल्म निर्माण टीम में एक अप्रिय घटना घटी, जो लोगों की धारणाओं से जुड़ी है। मैं यह मामला अब विश्लेषण के लिए इसलिए नहीं ले रहा हूँ कि किसी की निंदा करनी है, बल्कि तुम्हारे विवेक को विकसित होने देने के लिए ले रहा हूँ, ताकि तुम लोग इस मामले को याद रखो, और इस मामले के जरिये धारणाओं की अपनी समझ को गहरा बना सको और जान सको कि धारणाएँ लोगों के लिए कितनी हानिकारक हैं। यदि मैं इस मामले के बारे में बात न करूँ, तो शायद तुम्हें लगे कि यह बड़ी बात नहीं है। हालाँकि मेरे विश्लेषण करने के बाद, तुम सब यकीनन सिर हिलाकर सहमति दोगे कि यह बड़ी बात है। फिल्में बनाने की बात पर यह सवाल उठता है कि पोशाक के लिए कौन-सा रंग और कौन-सी शैली चुनें। कुछ लोग खास तौर से रूढ़िवादी थे, खास तौर पर फीका सलेटी और खाकी रंग इस्तेमाल करते थे। इससे मैं उलझन में पड़ गया और सोचने लगा कि ये सब क्या है। वे इन रंगों की पोशाकें क्यों चुन रहे हैं? फीके सलेटी और खाकी रंग से पूरे दृश्य में खासा अंधेरा हो गया था, और यह देखकर मैं बहुत परेशान हो गया। उन्होंने थोड़ी ज्यादा रंगीन पोशाक क्यों नहीं चुनी? मैंने पहले ही कह दिया था कि पोशाक रंगीन होनी चाहिए और शैली उपयुक्त और सुरुचिपूर्ण। तो लोग परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं को अपने दिमाग में पीछे धकेलकर उन पर कोई ध्यान क्यों नहीं दे रहे थे, और इसके बजाय पोशाक बनाने के लिए फीके सलेटी और खाकी रंग चुन रहे थे? वे ऐसा बर्ताव क्यों कर रहे थे? क्या यह आत्मचिंतन के योग्य नहीं है? इसका मूल कारण क्या था? लोगों ने सत्य नहीं समझा था, और उनसे जो कहा गया उसे उन्होंने अनसुना किया और समर्पण नहीं किया—मूल कारण यह था कि लोगों के भीतर ऐसी प्रकृति है जो परमेश्वर से विश्वासघात करती है। यह प्रकृति क्या है? यह स्वभाव क्या है? सबसे अहम यह है कि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हैं, उनके हृदय सख्त हो गए हैं। लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और सत्य को खोजने को तैयार हैं, लेकिन चीजें करते समय वे बस अपने लक्ष्य पाने के लिए अपनी ही पसंद के आधार पर उन्हें करते हैं। यदि यह तुम्हारे निजी जीवन का मामला होता, तो सभी चीजें अपने चाहे अनुसार करना कोई बड़ी बात नहीं होती, क्योंकि इसका संबंध केवल तुम्हारे अपने जीवन प्रवेश से है। वैसे तुम अब कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो, और उस तरह कार्य करने के परिणाम परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की महिमा से संबंधित हैं, और इसका संबंध कलीसिया की प्रतिष्ठा से है; यदि लोग अपनी ही इच्छा के अनुसार अंधाधुंध काम करते हैं, तो वे परमेश्वर का निरादर कर सकते हैं। परमेश्वर का घर इस बात में दखल नहीं देता कि लोग कैसी पोशाक पहनते हैं—सिद्धांत यह है कि अच्छा और उचित दिखना है, ताकि दूसरे तुम्हें देखकर सीख सकें। हालाँकि क्या किसी के लिए फिल्मांकन करने हेतु पूरा फीका सलेटी और खाकी रंग की पोशाक पहनने का प्रस्ताव रखना उपयुक्त है? इस समस्या का सार क्या था? यह लोगों का अपनी धारणाओं के भरोसे काम करना था और फीके सलेटी और खाकी रंग को ऐसे किसी व्यक्ति का संकेत और प्रतीक मानना था जो परमेश्वर में विश्वास रखता है और उसका अनुसरण करता है। यह कहा जा सकता है कि उन्होंने इन रंगों को उन रंगों के रूप में परिभाषित किया जो सत्य, परमेश्वर के इरादों और उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप हैं। यह एक गलती थी। अपने आप में इन रंगों के साथ कुछ गलत नहीं है, लेकिन अगर लोग अपनी धारणाओं के आधार पर काम करते हैं और इन रंगों को एक प्रकार का प्रतीक बना देते हैं तो यह एक समस्या है। यह लोगों की धारणाओं का परिणाम है, और ये विचार और अभ्यास इसलिए आए क्योंकि लोगों के दिलों में ये धारणाएँ थीं। लोग इन धारणाओं और कल्पनाओं से यूँ पेश आते हैं मानो वे सत्य हों, फीके सलेटी और खाकी को परमेश्वर के विश्वासियों के पहनने की पोशाक के लिए एक प्रतीक मान लेते हैं, और सत्य, परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं को दरकिनार कर उन्हें बाहर रख देते हैं, उनका स्थान लोगों की धारणाओं और मानकों को दे देते हैं—यही समस्या का मूल कारण था। वास्तव में, पोशाकों के लिए रंग और शैलियाँ चुनना बाहरी काम हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन ये बेतुकी चीजें लोगों की धारणाओं के कारण हुईं, और इन्होंने एक विशेष नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न किया, और इसलिए मामला सुलझाने के लिए सत्य की जरूरत पड़ी।

परमेश्वर में अपने विश्वास में, लोग चाहे जिस भी मसले का सामना करें, या जिस भी समस्या से मुखातिब हों, उनके मन में निरंतर धारणाएँ उभरती हैं, और वे उनका प्रयोग करते रहते हैं। वे हमेशा अपनी धारणाओं के बीच जीते हैं, और उनसे विवश, दबे हुए और नियंत्रित रहते हैं। इस कारण से लोगों के विचार, व्यवहार, रहन-सहन के तरीके, आचरण के सिद्धांत, जीवन दिशा और लक्ष्य और साथ ही परमेश्वर के वचन और कार्य से उनके पेश आने के तरीके उनकी धारणाओं में रंगे होते हैं, और वे सत्य द्वारा मुक्त और स्वतंत्र नहीं होते। परमेश्वर में इस प्रकार विश्वास रखते हुए और हमेशा धारणाओं से चिपके रह कर दस-बीस साल बाद से सीधे आज तक, उनके मन में जो धारणाएँ आरंभ में थीं, वे अछूती ही रहती हैं। किसी ने उनका विश्लेषण नहीं किया है, स्वयं लोगों ने कभी उनकी जाँच नहीं की है, कभी काट-छाँट स्वीकारना तो दूर की बात है। लोगों ने उन्हें कभी भी ईमानदारी से नहीं संभाला है, और इसलिए उन्होंने चाहे जितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या वे परिणामों का लाभ उठा पाते हैं? उन्हें यकीनन कोई परिणाम नहीं मिलते। मनुष्य और परमेश्वर के बीच का रिश्ता धारणाओं का निरंतर विश्लेषण करने और समझने, और फिर उन्हें दूर करने की प्रक्रिया से धीरे-धीरे सुधरता है—क्या इसका कोई व्यावहारिक पहलू नहीं है? (बिल्कुल।) हालाँकि यदि तुम्हारी धारणाएँ निरंतर उसी चरण में हों जहाँ वे तब थीं जब तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था, तो यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में थोड़ा-भी सुधार हुआ है। परमेश्वर में विश्वास रखने की बात करें तो, और कौन-सी धारणाओं को तुमने दूर नहीं किया है जिन पर तुम जीने के लिए भरोसा करते हो? तुम लोग किन धारणाओं को हमेशा सही मानते हो, सत्य के अनुरूप मानते हो, और किन को तुम समस्या नहीं मानते हो? कौन-सी धारणाएँ तुम्हारे व्यवहार, अनुसरण और परमेश्वर में विश्वास के तुम्हारे नजरियों को प्रभावित कर सकती हैं, जिसके कारण परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता हमेशा उदासीन होता है और न पास का होता है न दूर का? तुम गलत ढंग से मानते हो कि तुम परमेश्वर से बहुत प्यार करते हो, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी बढ़ी है, कष्ट झेलने का तुम्हारा संकल्प बढ़ा है, जबकि दरअसल परमेश्वर के प्रति तुम्हारे भीतर जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं है। तुम सब लोगों को इस मामले का विश्लेषण करना चाहिए, और तुममें से प्रत्येक के मन में यकीनन ऐसी बहुत-सी धारणाएँ अभी भी मौजूद होंगी जिन पर तुम जीने के लिए भरोसा करते हो, और जिन्हें तुम दूर नहीं कर पाए हो। यह एक बड़ी गंभीर समस्या है।

मैंने परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों के मन में मौजूद धारणाओं के तीन उदाहरण दिए हैं, तो अब क्या तुम लोग पहले से ज्यादा यह जान गए हो कि तुम्हारे मन में परमेश्वर में विश्वास को लेकर कौन-सी धारणाएँ हैं? (हाँ।) तो फिर मुझे बताओ, और कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ लोगों को सत्य का अभ्यास करने से रोक सकती हैं और उनके कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर के साथ उनके सामान्य रिश्ते को प्रभावित कर सकती हैं, यानी वे धारणाएँ जो लोगों को परमेश्वर के समक्ष आने से रोक सकती हैं और जो उनके परमेश्वर को जानने पर सीधा प्रभाव डालती हैं? (मेरे मन में काफी मजबूत धारणा यह है कि मैं मानता हूँ कि यदि मैं हर दिन अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सका, तो परमेश्वर में इस प्रकार विश्वास रखने से मैं उद्धार प्राप्त कर सकूँगा।) यह मानना कि अपना कर्तव्य निभाकर तुम उद्धार प्राप्त कर सकोगे, एक धारणा और कल्पना है। तो क्या मानक स्तर तक अपना कर्तव्य निभाना महत्वपूर्ण है? क्या जो लोग मानक स्तर तक अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? यदि कोई अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाता है, तो इसका संबंध परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालने और उसे बाधित करने से है। ऐसा करने वाला कोई व्यक्ति न सिर्फ उद्धार प्राप्त नहीं करेगा बल्कि उसे दंड भी मिलेगा। तुम लोग इन चीजों के बारे में सोच नहीं पाते हो, उन्हें समझते नहीं हो, उन्हें स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते हो, फिर भी ऐसी बातें कहते हो, जैसे कि “अगर मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा, तो उद्धार प्राप्त कर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूँगा।” क्या यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है? यह विचार महज खयाली पुलाव पकाना है; इसे तुम इतनी आसानी से कैसे हासिल कर सकते हो? क्या सत्य को स्वीकार न करना परमेश्वर में आस्था रखना माना जा सकता है? क्या कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव का त्याग किए बिना उद्धार प्राप्त कर सकता है? तुम लोगों के भीतर धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित तमाम चीजें है। तरह-तरह की कल्पनाएँ, समझ और परिभाषाएँ जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, उन सबका संबंध धारणाओं से है। तुम लोगों के मन में और कौन-सी धारणाएँ हैं? (मैं सोचता हूँ कि मेरा निभाया हुआ कर्तव्य जितना अहम होगा और परमेश्वर की गवाही वाली मेरी उपलब्धियाँ जितनी ज्यादा होंगी, मैं उतनी ही योग्यता पाऊँगा, परमेश्वर मुझे उतनी अधिक स्वीकृति देगा, और भविष्य में मेरे आशीष उतने ही ज्यादा होंगे।) यह भी एक धारणा है। संक्षेप में कहें, तो सभी धारणाएँ लोगों की कपोल कल्पनाएँ और निष्कर्ष हैं। भले ही शायद उनका कोई आधार हो, पर वे परमेश्वर के वचनों या सत्य के किसी आधार से नहीं उपजी हैं, बल्कि ये ऐसे विचार हैं जो लोगों के खयाली पुलाव पकाने पर आधारित हैं और आशीष पाने की आकांक्षा से उपजे हैं। जब लोग ऐसे किसी विचार के हावी हो जाने पर कुछ करते हैं, तो वे तरह-तरह की चीजें करते हैं, और आखिरकार बहुत बड़ी कीमत चुकाते हैं तब जाकर उन्हें पता चलता है कि उन्होंने गलती की है, वे सिद्धांतों के विरुद्ध गए हैं, कि चीजें वैसी नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, और इसलिए वे निराश हो जाते हैं। एक दिन पीछे मुड़कर देखने पर उन्हें एहसास होता है कि वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के भरोसे एक पथ पर चलते रहे हैं, काफी समय पहले ही व्यर्थ हो चुका है, और फिर वे लौट जाना चाहते हैं, मगर यह संभव नहीं है। तुम लोगों के मन में और कौन-सी धारणाएँ हैं, जिन्हें तुमने अब तक दूर नहीं किया है? (मैं सोचता हूँ कि चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ और परमेश्वर के लिए खुद को खपाता हूँ, तो परमेश्वर को मुझे आशीष और लाभ देने चाहिए। जब मुझे कोई समस्या हो और मैं परमेश्वर को पुकारूं, तो मुझे लगता है कि परमेश्वर को मेरे लिए एक रास्ता खोल देना चाहिए, और चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए मेरे लिए सब कुछ सुगम होना चाहिए। इसीलिए अपने कर्तव्य निर्वहन के समय जब मेरे सामने कोई कठिन स्थिति आती है, तो मैं परमेश्वर को गलत समझ कर उससे कुढ़ता हूँ, और मुझे लगता है कि परमेश्वर को मेरे साथ ऐसी चीजें नहीं होने देनी चाहिए।) ज्यादातर लोगों के मन में यह धारणा है; यह परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों के मन में एक प्रकार की समझ है। लोग सोचते हैं कि कोई व्यक्ति लाभ पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखता है, और यदि उसे लाभ नहीं मिलते तो यह पथ जरूर गलत होगा। तो क्या यह धारणा अब दूर हो गई है? क्या तुमने इसे सुधारना शुरू कर दिया है? जब यह धारणा तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित करती है, या तुम्हारी आगे की दिशा को प्रभावित करती है, तो क्या तुमने इसे दूर करने के लिए सत्य को खोजा है? लोग अक्सर अपने दिलों में परमेश्वर में विश्वास को परिसीमित कर लेते हैं, मान लेते हैं कि चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो सब-कुछ शांतिपूर्ण होना चाहिए, या फिर वे सोचते हैं, “मैं खुद को खपाकर परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो परमेश्वर को मेरे परिवार को आशीष देने चाहिए, मेरे पूरे परिवार को शांति प्रदान करना चाहिए, ऐसा करना चाहिए कि मैं बीमार न पडूँ ताकि मेरा परिवार खुश रह सके। और हालाँकि मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ, पर यह कार्य परमेश्वर का है, इसलिए परमेश्वर को इसकी पूरी जिम्मेदारी उठानी चाहिए, और सभी चीजें अच्छे से व्यवस्थित करनी चाहिए और ऐसा करना चाहिए कि अपना कर्तव्य निभाते समय मेरा किसी भी मुश्किल, खतरे, या प्रलोभन से सामना न हो। यदि ऐसा कुछ होता है, तो शायद यह परमेश्वर की करनी नहीं है।” ये सब लोगों की धारणाएँ हैं; परमेश्वर के कार्य की समझ न होने पर संभव है कि लोग ऐसी धारणाएँ रखने लगें। क्या ये धारणाएँ अक्सर तब उभरती हैं जब तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हो? (हाँ।) यदि तुम हमेशा मानते हो कि तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ सिर्फ सामान्य और उचित हैं, चीजें ऐसी ही होनी चाहिए, और तुम उन्हें दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे और तुम्हारे पास जीवन प्रवेश नहीं होगा। तुम्हारे लिए सत्य का कोई मूल्य या अर्थ नहीं होगा, और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था भी निरर्थक होगी। परमेश्वर में अपनी आस्था में, यदि लोग अक्सर परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं, सभाओं में भाग लेते हैं, धर्मोपदेश सुनते हैं, और खास तौर पर एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीते हैं, फिर भी वे अपनी धारणाओं के भरोसे रहते हुए कार्य और आचरण करते हैं और अपना कर्तव्य निभाते हैं, हर चीज को अपनी धारणाओं पर आधारित करते हैं, और हर तरह की चीज का सही-गलत मापने के लिए अपनी धारणाओं का प्रयोग करते हैं, तो क्या इस प्रकार के लोग अपनी धारणाओं के भीतर नहीं जी रहे हैं? वे चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुनें, या परमेश्वर के वचनों को जितना भी खाएँ-पिएँ, क्या अपनी धारणाओं के भीतर जीने वाले लोग कभी जरा भी बदल सकेंगे? क्या परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता कभी भी सुधर सकेगा? (नहीं।) तो क्या परमेश्वर ऐसी आस्था को स्वीकृति देता है? (नहीं।) वह यकीनन नहीं देता। इसीलिए लोगों के अंदर की धारणाओं का विश्लेषण करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

ज्यादातर लोगों के मन में धारणाएँ तब नहीं होतीं जब वे भरपेट खा-पी चुके होते हैं, और सब कुछ बढ़िया चल रहा होता है, या जब वे कुछ पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों का पालन कर रहे होते हैं, लेकिन जब परमेश्वर अपना कार्य कर सत्य व्यक्त करता है, तो अनगिनत धारणाएँ उभर आती हैं। अपना कर्तव्य निभाने से पहले और सभाओं में केवल सामान्य रूप से भाग लेते समय लोगों के मन में कोई धारणा नहीं होती, लेकिन जब परमेश्वर उनसे अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करता है या अपने कर्तव्य में वे किसी मुश्किल का सामना करते हैं, तो अनेक धारणाएँ उभर जाती हैं। जब लोग शारीरिक रूप से सुखी रह कर जीवन के मजे ले रहे होते हैं, तो उनके मन में कोई धारणाएँ नहीं होतीं, लेकिन जब वे बीमार पड़ जाते हैं या विपत्ति से उनका सामना होता है, तो स्वाभाविक रूप से धारणाएँ उभरती हैं। मिसाल के तौर पर, किसी व्यक्ति का कार्य और पारिवारिक जीवन परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले सुचारु रूप से चलता रहता है, लेकिन परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, कुछ ऐसी चीजें हो जाती हैं जो उन्हें पसंद नहीं होतीं। कभी-कभार उनकी आलोचना की जाती है, उनसे भेदभाव किया जाता है, उन पर धौंस जमाया जाता है, उन्हें गिरफ्तार कर यातना भी दी जाती है, और फिर उन्हें स्थायी बीमारियाँ हो जाती हैं, जिससे वे परेशान हो जाते हैं और सोचते हैं, “मेरे परमेश्वर में विश्वास रखने के दौरान चीजें ठीक क्यों नहीं रहीं? मैं सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, तो परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं करता? परमेश्वर मुझे बुरे लोगों द्वारा पिटते हुए और दानवों द्वारा कुचले जाते हुए देखकर भी बेपरवाह कैसे रह सकता है?” क्या लोग ऐसी धारणाएँ नहीं बनाते हैं? किस कारण से वे ये धारणाएँ बनाते हैं? लोग मानते हैं, “चूँकि मैं अब परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए मैं उसका हूँ, और परमेश्वर को मेरी देखभाल करनी चाहिए, मेरे खाने-पीने और रहने के ठिकाने का ख्याल रखना चाहिए, मेरे भविष्य और मेरे भाग्य का ख्याल रखना चाहिए और साथ ही मेरे परिवार की सुरक्षा सहित मेरी निजी सुरक्षा का भी, और गारंटी देनी चाहिए कि मेरे लिए सब-कुछ अच्छा होगा, और सब-कुछ शांति से और बिना किसी दुर्घटना के होगा।” और अगर तथ्य लोगों की अपेक्षा और कल्पना के अनुरूप नहीं हुए, तो वे सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखना उतना अच्छा या उतना आसान नहीं है जितना मैंने कल्पना की थी। पता चल रहा है कि मुझे अभी भी ये सब उत्पीड़न और तकलीफें झेलनी होंगी और परमेश्वर में अपने विश्वास में मुझे अनेक परीक्षणों से गुजरना होगा—परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं करता?” यह सोच सही है या गलत? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तो फिर क्या यह सोच यह नहीं दर्शाती कि वे परमेश्वर से अनुचित माँगें कर रहे हैं? ऐसी सोच वाले लोग परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज क्यों नहीं करते हैं? परमेश्वर की सदिच्छा स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के पीछे है, जिसके कारण लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं; लोग परमेश्वर के इरादे क्यों नहीं समझते? वे परमेश्वर के कार्य से सहयोग क्यों नहीं कर सकते? परमेश्वर इरादतन लोगों को ऐसी चीजों का सामना करने देता है, ताकि वे सत्य खोज सकें, उसे प्राप्त करें, और सत्य के भरोसे जिएँ। हालाँकि लोग सत्य नहीं खोजते, और इसके बजाय अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का प्रयोग कर हमेशा परमेश्वर को मापते हैं—यही उनकी समस्या है। तुम्हें इन अप्रिय चीजों को इस तरह से समझना चाहिए : ऐसा कोई इंसान नहीं होता जिसका पूरा जीवन दुखों से मुक्त हो। किसी को पारिवारिक परेशानी, किसी को काम-धंधे की, किसी को शादी-विवाह की और किसी को शारीरिक व्याधि की परेशानी। हर किसी को कष्ट झेलना होता है। कुछ लोग कहते हैं, “लोगों को कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? अगर हमारा पूरा जीवन सुख-शांति से बीतता, तो कितना अच्छा होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुख ही न आएँ?” नहीं—सभी को दुख भोगने होंगे। दुख इंसान को भौतिक जीवन की असंख्य संवेदनाओं का अनुभव कराते हैं, फिर चाहे ये संवेदनाएं सकारात्मक हों, नकारात्मक हों, सक्रिय हों या निष्क्रिय हों; दुख तुम्हारे अंदर तरह-तरह की भावनाएँ और समझ पैदा करते हैं, जो जीवन के तुम्हारे सारे अनुभव होते हैं। यह एक पहलू है, और यह लोगों को अधिक अनुभवी बनाने के लिए है। यदि तुम सत्य की खोज करके इससे परमेश्वर के इरादे का पता लगा सको, तो तुम उस मानक के और भी करीब पहुँच जाओगे, जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। दूसरा पहलू यह है कि यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है। कौन-सी जिम्मेदारी? यह वह पीड़ा है जिससे तुम्हें गुजरना होगा। यदि तुम इस कष्ट का सामना कर इसे सह पाओ, तो यह गवाही है, कोई शर्मनाक चीज नहीं है। कुछ लोग बीमार पड़ने पर डरते हैं कि दूसरे लोग इस बारे में जान जाएँगे; वे सोचते हैं कि बीमार पड़ना बड़े शर्म की बात है, जबकि दरअसल इसमें शर्मिंदा होने की कोई बात ही नहीं है। एक सामान्य इंसान के तौर पर, अगर बीमारी के दौरान भी, तुम परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो पाते हो, तमाम दुख सह पाते हो, और फिर भी अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाते हो, परमेश्वर द्वारा सामान्य तौर पर तुम्हें सौंपे गए कार्य पूरे कर पाते हो, तो यह अच्छी चीज है या बुरी? यह अच्छी चीज है, यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण की गवाही है, यह तुम्हारे वफादारी से कर्तव्य निभाने की गवाही है, और यह वह गवाही है जो शैतान को शर्मिंदाकर उस पर विजय प्राप्त करती है। इसलिए हर सृजित प्राणी और हर परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति को किसी भी प्रकार के कष्ट को स्वीकार कर उसको समर्पित हो जाना चाहिए। तुम्हें इसे इसी तरह से समझना चाहिए, और तुम्हें यह सबक सीखना चाहिए और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त करना चाहिए। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है और यही परमेश्वर की चाहत है। परमेश्वर हर सृजित प्राणी के लिए इन्हीं की व्यवस्था करता है। परमेश्वर का तुम्हें इन स्थितियों और हालात में डालना तुम्हें जिम्मेदारी, दायित्व और काम सौंपने के समान ही है, और इसलिए तुम्हें उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए। क्या यह सत्य नहीं है? (अवश्य है।) यदि यह परमेश्वर की ओर से आता है, यदि परमेश्वर तुमसे ऐसी अपेक्षा करता है, और तुम्हारे लिए उसका यही इरादा है, तो यही सत्य है। इसे सत्य क्यों कहा जाता है? इसलिए कि यदि तुम इन वचनों को सत्य के रूप में स्वीकारते हो, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी धारणाओं और विद्रोहशीलता को दूर कर पाओगे, ताकि जब तुम्हारा मुश्किलों से दोबारा सामना हो, तब तुम परमेश्वर की आकांक्षाओं का विरोध न करो या उसके प्रति विद्रोह न करो, यानी तुम सत्य का अभ्यास कर सकोगे और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे। इस प्रकार तुम ऐसी गवाही दे पाओगे जो शैतान को शर्मिंदा करेगी, और तुम सत्य प्राप्त करके उद्धार पा सकोगे। यदि तुम यह सोचकर अपनी ही धारणाओं और विचारों पर चलोगे, “अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए। मुझे वैसा व्यक्ति होना चाहिए जो धन्य हो,” तो इस आशीष को तुम किस रूप में समझते हो? तुम जिस आशीष को समझते हो, वह जीवन पर्यंत वैभव और समृद्धि, अपनी पसंद का खाना-पीना, किसी बीमारी का न होना, संपन्नता के साथ जन्म लेना, लेने के लिए हर चीज का तैयार मिलना, और बिना किसी परिश्रम के धनी भौतिक जीवन का आनंद लेना। इसके अलावा ऐसा शांतिपूर्ण जीवन जीना, जहाँ हर चीज सुचारु रूप से हो जाए, बिना किसी पीड़ा के शानदार आराम से जीना—तुम्हारे हिसाब से यही आशीष है। लेकिन अब इस पर गौर करो तो क्या यह आशीष है? यह आशीष नहीं है, यह एक विपदा है। दैहिक सुखों की लालसा के पथ पर चलने के कारण तुम परमेश्वर से और भी दूर चले जाओगे, और साथ ही इसके कारण तुम इस दुष्ट संसार में और भी ज्यादा गहराई तक डूब जाओगे, खुद को बाहर खींचकर मुक्त करने में असमर्थ हो जाओगे। जब सृष्टिकर्ता तुम्हें बुलाता है, तो ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम छोड़ने को तैयार नहीं होते हो, और इन दैहिक सुखों को जाने नहीं दे सकते हो। भले ही परमेश्वर तुम्हें कोई काम सौंपे, और तुम्हें कोई कर्तव्य निभाने को कहे, तो खुद को बेहद अनमोल समझकर पेश आते हो : आज तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, कल तुम अच्छी मनःस्थिति में नहीं हो, तुम्हें माता-पिता की याद आ रही है, अपने जीवनसाथी की याद आ रही है, हर दिन केवल दैहिक सुखों के बारे में सोचते हो, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाते, लेकिन दूसरों के मुकाबले ज्यादा मजे लेना चाहते हो। तुम एक परजीवी की तरह जीते हो—क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकोगे? क्या तुम गवाही दे सकोगे? नहीं, तुम नहीं दे सकोगे। परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों के मन में बहुत सारी कल्पनाएँ हैं। वे कल्पना करते हैं कि उनके परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, उनके पास जीवन पर्यंत धन-दौलत और शांति होगी, और उनके साथ उनके रिश्तेदारों को भी लाभ मिलेगा और सबकी आँखें ईर्ष्या से चमकेंगी, वे कभी भी गरीब नहीं होंगे, कभी बीमार नहीं पड़ेंगे, या किसी भी विपत्ति से उनका सामना नहीं होगा। ऐसी कल्पनाओं के कारण लोग परमेश्वर से अनेक अनुचित अपेक्षाएँ रखते हैं। जब तुम परमेश्वर से अनुचित अपेक्षाएँ रखते हो, तो परमेश्वर से तुम्हारा रिश्ता सामान्य है या असामान्य? यह यकीनन असामान्य है। तो क्या इन धारणाओं और कल्पनाओं के कारण तुम परमेश्वर के साथ खड़े होते हो या उसके विरोध में? इनके कारण तुम परमेश्वर के विरोध में ही खड़े हो सकते हो, उससे होड़ लगा और उसका प्रतिरोध कर सकते हो, और परमेश्वर को धोखा देकर उसे त्याग भी सकते हो, और ये व्यवहार ज्यादा-से-ज्यादा गंभीर होते जाते हैं। यानी, एक बार लोगों के मन में ये धारणाएँ आ जाएँ, तो वे अब परमेश्वर से सामान्य रिश्ता बनाए नहीं रख पाते हैं। जब लोग परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं, तो उनके दिलों में विद्रोहशीलता और नकारात्मकता की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। ऐसे वक्त में उन्हें इन धारणाओं को दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। जब वे सत्य समझ लेते हैं, जब वे परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य और परमेश्वर में आस्था के लिए उसकी अनेक अपेक्षाओं को समझ लेते हैं, जब वे ये चीजें समझ लेते हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार और कार्य कर सकते हैं, तब इस तरह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ दूर हो जाएँगी। एक बार जब वे सत्य समझ लेंगे तो वे सहज ही धारणाएँ छोड़ देंगे, और उस मुकाम पर परमेश्वर से उनका रिश्ता अधिक सामान्य हो जाएगा। धारणाओं को दूर करना परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ दूर करने के समान है। दूसरे शब्दों में कहें, तो सिर्फ जब वे अपनी धारणाओं को दूर कर उन्हें जाने देंगे, तभी वे समझ पाएँगे कि सत्य क्या है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं।

तुम लोगों के दिलों में और कौन-सी धारणाएँ हैं जो तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? कौन-सी धारणाएँ अक्सर तुम लोगों को तुम्हारे जीवन में प्रभावित और शासित करती हैं? जब तुम्हारे साथ कुछ ऐसी चीजें हों जो तुम्हारी पसंद के अनुसार न हों, तो स्वाभाविक रूप से तुम्हारे मन में धारणाएँ प्रकट होती हैं और तब तुम परमेश्वर से शिकायत करते हो, बहस करते हो और उससे स्पर्धा करते हो, और ये परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों में तेजी से बदलाव लाते हैं : तुम शुरुआत में यह महसूस करने से कि तुम परमेश्वर से बहुत प्रेम करते हो, उसके प्रति बहुत वफादार हो, उसे अपना पूरा जीवन समर्पित कर देना चाहते हो, वहाँ से निकल कर तुम एकाएक अपना इरादा बदल लेते हो, और अब तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो या परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहना चाहते हो, और परमेश्वर में अपने विश्वास और इस मार्ग को चुनने को ले कर तुम्हें पछतावा होता है, यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा चुने जाने पर भी शिकायत करते हो। दूसरी और कौन-सी धारणाएँ परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों में एकाएक बदलाव लाने में समर्थ हैं? (जब परमेश्वर मेरी परीक्षा लेने के लिए एक स्थिति की व्यवस्था कर मेरा खुलासा करता है, और मुझे लगता है कि मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा, तो मैं परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना लेता हूं। मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर में विश्वास कर उसका अनुसरण करता हूँ, और मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है, तो अगर मैं परमेश्वर का त्याग न करूँ, तो उसे मुझे छोड़ना नहीं चाहिए।) यह एक तरह की धारणा है। क्या तुम लोगों के मन में अक्सर ऐसी धारणाएँ होती हैं? परमेश्वर द्वारा छोड़ दिए जाने को लेकर तुम लोगों की क्या समझ है? क्या तुम सोचते हो कि यदि परमेश्वर तुम्हें छोड़ देता है, तो इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता और वह तुम्हें नहीं बचाएगा? यह एक दूसरे प्रकार की धारणा है। तो ऐसी धारणा कैसे आती है? क्या यह तुम्हारी कल्पना से आती है या इसका कोई आधार है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हें अच्छा परिणाम नहीं देगा? क्या यह बात खुद परमेश्वर ने तुम्हें बतायी थी? ऐसे विचार पूरी तरह से तुम्हारे द्वारा निरूपित किए गए हैं। अब तुम जान गए हो कि यह एक धारणा है; अहम सवाल यह है कि इसे कैसे सुलझाया जाए। लोगों के मन में परमेश्वर में आस्था को लेकर वास्तव में अनेक धारणाएँ होती हैं। यदि तुम्हें एहसास हो कि तुम्हारे मन में कोई धारणा है, तो तुम्हें जान लेना चाहिए कि यह गलत है। तो इन धारणाओं को कैसे दूर करना चाहिए? पहले, तुम्हें यह स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि क्या ये धारणाएँ ज्ञान से आती हैं या शैतानी फलसफों से, खोट कहाँ है, हानि कहाँ है, और एक बार यह स्पष्ट रूप से समझ लेने के बाद, तुम स्वाभाविक रूप से धारणा को जाने दे पाओगे। हालाँकि यह तुम्हारे इसे अच्छी तरह से दूर कर देने के समान नहीं है; तुम्हें अभी भी सत्य खोजना चाहिए, समझना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार धारणा का विश्लेषण करना चाहिए। जब तुम स्पष्ट रूप से पहचान सकोगे कि धारणा गलत है, यह एक बेतुकी बात है, यह सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं है, तो इसका अर्थ है कि तुमने बुनियादी तौर पर धारणा को दूर कर दिया है। यदि तुम सत्य नहीं खोजते, धारणा को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर नहीं कसते, तो तुम यह स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाओगे कि धारणा किस तरह गलत है, और इसलिए तुम धारणा को पूरी तरह से छोड़ नहीं पाओगे; भले ही तुम्हें मालूम हो कि यह एक धारणा है, फिर भी तुम इसे अनिवार्यतः पूरी तरह से जाने नहीं दे पाओगे। ऐसे हालात में, जब तुम्हारी धारणाएँ परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रतिकूल हों, और भले ही शायद तुम्हें एहसास हो जाए कि तुम्हारी धारणाओं के गलत होने पर भी तुम्हारा दिल तुम्हारी धारणाओं से चिपका हुआ है, और तुम पक्के तौर पर जानते हो कि तुम्हारी धारणाएँ सत्य के प्रतिकूल हैं, फिर भी अपने दिल में अब भी यह मानते हो कि तुम्हारी धारणाएँ तर्कसंगत हैं, तब तुम ऐसे व्यक्ति नहीं होगे जो सत्य समझता है, और तुम जैसे लोगों के पास कोई जीवन प्रवेश नहीं होता और तुममें आध्यात्मिक कद का बेहद अभाव होता है। मिसाल के तौर पर, लोग अपने परिणाम और गंतव्य और अपने कर्तव्य के समायोजन तथा कर्तव्य से हटा दिए जाने के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। कुछ लोग अक्सर ऐसी चीजों के बारे में गलत निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं, वे सोचते हैं कि जैसे ही वे अपने कर्तव्य से हटा दिए जाएँगे, और जब उनकी कोई हैसियत नहीं होगी या फिर परमेश्वर कहेगा कि वह उन्हें पसंद नहीं करता या अब उसे उनकी जरूरत नहीं है, तो यह उनका अंत होगा। वे लोग इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं। वे मानते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई तुक नहीं है, परमेश्वर मुझे नहीं चाहता है, और मेरा परिणाम पहले से तय है, तो अब जीने का क्या तुक है?” दूसरे लोग ऐसे विचार सुनकर, उन्हें उचित और गरिमामय समझते हैं—लेकिन वास्तव में, यह कैसी सोच है? यह परमेश्वर के प्रति विद्रोहशीलता है, यह खुद को मायूसी में छोड़ देना है। वे खुद को मायूसी में क्यों छोड़ देते हैं? इसलिए कि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हैं, वे स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हैं कि परमेश्वर लोगों को किस तरह बचाता है, और वे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं रखते हैं। जब लोग मायूस हो जाते हैं, तो क्या परमेश्वर जानता है? (हाँ।) परमेश्वर जानता है तो फिर वह ऐसे लोगों से कैसे पेश आता है? लोग एक तरह की धारणा बना लेते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर ने मनुष्य के लिए इतना श्रमसाध्य मूल्य चुकाया है, उसने हर व्यक्ति पर बहुत काम किया है और बहुत प्रयास किए हैं; परमेश्वर के लिए किसी व्यक्ति को चुनना और बचाना आसान नहीं है। अगर कोई व्यक्ति खुद को मायूसी में छोड़ देगा, तो परमेश्वर बहुत आहत होगा और हर दिन यही उम्मीद करेगा कि वह व्यक्ति उससे बाहर निकल आए।” यह अर्थ सतही स्तर पर है, लेकिन वास्तव में यह भी इंसान की ही धारणा है। परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति एक विशेष रवैया अपनाता है : यदि तुम खुद को मायूसी में छोड़ देते हो और आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करते, तो वह तुम्हें खुद चुनने देगा; वह तुम्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने पर मजबूर नहीं करेगा। यदि तुम कहते हो, “मैं अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहता हूँ, मैं परमेश्वर के कहे अनुसार अभ्यास करने और उसके इरादों को पूरा करने के लिए सब-कुछ कर सकता हूँ। मैं अपने सभी गुणों और प्रतिभाओं का प्रयोग करूंगा, और अगर मैं किसी भी काम के काबिल नहीं हूँ तो मैं समर्पण करना और आज्ञाकारी बनना सीखूंगा; मैं अपना कर्तव्य नहीं छोडूँगा,” परमेश्वर कहता है, “यदि तुम इस तरह से जीने को तैयार हो, तो अनुसरण करते रहो, लेकिन परमेश्वर जैसा कहे, तुम्हें वैसा ही करना चाहिए; परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक और उसके सिद्धांत नहीं बदलते।” इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका मतलब है कि सिर्फ लोग ही खुद को छोड़ सकते हैं; परमेश्वर कभी किसी को छोड़ नहीं देता है। यदि कोई अंततः उद्धार पाकर परमेश्वर को निहारने में समर्थ है, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित कर परमेश्वर के सामने आ सकता है, तो ऐसा उसके असफल होने पर या एक ही बार उसकी काट-छाँट होने पर हासिल नहीं किया जा सकता या एक ही बार उसका न्याय करने और ताड़ना देने पर हासिल नहीं किया जा सकता। पूर्ण बनाए जाने से पहले पतरस को सैकड़ों बार शुद्ध किया गया था। अंत तक श्रम करने के बाद बने रहने वालों में ऐसा एक भी नहीं होगा जिसने अंत तक पहुँचने से पहले केवल आठ या दस बार परीक्षणों और शोधन का अनुभव किया हो। किसी व्यक्ति की चाहे जितनी भी बार परीक्षा ली जाए और उसका शोधन किया जाए, क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? (हाँ, अवश्य है।) जब तुम परमेश्वर के प्रेम को देख सकोगे, तब तुम मनुष्य के प्रति परमेश्वर के रवैये को समझ सकोगे।

जब कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और देखते हैं कि वह अपने वचनों में लोगों की निंदा कर रहा है, तो वे धारणाएँ बना कर पसोपेश में पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन कहते हैं कि चूँकि तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता या स्वीकार नहीं करता, तुम दुराचारी हो, मसीह-विरोधी हो, वह बस तुम्हें देखने भर से नाराज हो जाता है, और वह तुम्हें नहीं चाहता। लोग ये वचन पढ़ कर सोचते हैं, “क्या ये वचन मुझे लागू होते हैं। परमेश्वर ने तय कर लिया है कि वह मुझे नहीं चाहता, और चूँकि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं भी अब उसमें विश्वास नहीं रखूँगा।” कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ कर अक्सर धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट दशाओं को उजागर करता है और उनकी निंदा करते हुए कुछ बातें कहता है। वे यह सोच कर निराश और कमजोर हो जाते हैं कि वे ही परमेश्वर के वचनों का निशाना थे, परमेश्वर उन्हें छोड़ रहा है, और वह उन्हें नहीं बचाएगा। वे इतने निराश हो जाते हैं कि उन्हें आँसू आ जाते हैं और अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। यह वास्तव में परमेश्वर को लेकर गलतफहमी है। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर को रेखांकित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को त्यागता है, और वह लोगों को किन हालात में छोड़ता है, या वह लोगों को किन हालात में किनारे कर देता है; इन सभी के लिए सिद्धांत और संदर्भ हैं। अगर तुम्हें इन विस्तृत मामलों में पूरी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम्हारे अतिसंवेदनशील होने की बड़ी संभावना होगी और तुम परमेश्वर के केवल एक वचन के आधार पर खुद को परिसीमित कर लोगे। क्या यह समस्या नहीं है? लोगों का न्याय करते समय परमेश्वर उनके किस मुख्य पहलू की निंदा करता है? परमेश्वर जिसका न्याय कर जिसे उजागर करता है, वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार होते हैं, वह उनके शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति की निंदा करता है, वह परमेश्वर के प्रति उनके विद्रोह और विरोध की विभिन्न अभिव्यक्तियों और व्यवहारों की निंदा करता है, वह परमेश्वर को समर्पित न हो पाने, हमेशा परमेश्वर का विरोध करने, हमेशा अपनी अभिप्रेरणाएँ और लक्ष्य रखने के लिए उनकी निंदा करता है—लेकिन ऐसी निंदा का यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने शैतानी स्वभाव वाले लोगों को त्याग दिया है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है, तो तुममें समझने की क्षमता नहीं है, जो तुम्हें कुछ हद तक मानसिक रोग वाले लोगों जैसा बना देता है, हमेशा हर चीज के प्रति शक्की और परमेश्वर की गलत व्याख्या करने वाला। ऐसे लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, फिर वे बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : “मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं” (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर के इरादों और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते। कुछ लोग थोड़े समय के लिए कमजोर महसूस करते हैं और फिर वे यह सोच कर दोबारा परमेश्वर के समक्ष आते हैं, “यह सही नहीं है, मुझे परमेश्वर का अनुसरण करते रहना चाहिए, और वैसे ही करना चाहिए जैसी परमेश्वर की अपेक्षा हो। यदि मैं परमेश्वर का अनुसरण न करूँ या अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से न निभाऊँ, तो मेरा जीवन बेकार हो जाएगा। सार्थक जीवन जीने के लिए मुझे परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए।” तो वे परमेश्वर का अनुसरण कैसे करें? उन्हें परमेश्वर के कार्य का अनुभव अवश्य करना चाहिए। कोई सिर्फ यह कहे कि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है पर वह परमेश्वर के कार्य का अनुभव न करे, तो यह परमेश्वर का अनुसरण करना नहीं है। पहले अपना कर्तव्य वफादारी से न निभाना और थोड़ी काट-छाँट स्वीकारने को तैयार न होना—क्या किसी को परमेश्वर का कार्य स्वीकारते समय यह रवैया अपनाना चाहिए? काट-छाँट किए जाने को न स्वीकारना और थोड़ा भी दुख झेलने पर लगातार शिकायत करते रहना—यह कैसा स्वभाव है? व्यक्ति को आत्मचिंतन करना चाहिए और समझना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षा क्या है, और उसे वैसा ही करना चाहिए जैसी कि परमेश्वर की अपेक्षा हो। यदि परमेश्वर कहता है कि तुम ज्यादा अच्छे नहीं हो, तो तुम ज्यादा अच्छे नहीं हो, और तुम्हें चीजों को परिसीमित करने या परमेश्वर का विरोध करने के लिए अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए; तुम्हें समर्पण कर यह स्वीकारना चाहिए कि तुम ज्यादा अच्छे नहीं हो। तब क्या तुम्हारे सामने अभ्यास का पथ नहीं होगा? यदि कोई सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को समर्पित हो पाता हो, तो क्या वह तब भी परमेश्वर को छोड़ सकेगा? नहीं, नहीं छोड़ सकेगा। ऐसा भी समय होता है जब तुम मानते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है—लेकिन दरअसल, परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ नहीं दिया है, वह तुम्हें एक तरफ रख देता है ताकि तुम आत्मचिंतन कर सको। परमेश्वर को शायद तुम घिनौने लगो, और वह तुम पर ध्यान न देना चाहे, लेकिन उसने तुम्हें सचमुच त्यागा नहीं है। ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन उनके सार और उनमें अभिव्यक्त अनेक चीजों के कारण, परमेश्वर देख लेता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और इसलिए परमेश्वर उन्हें वास्तव में त्याग देता है; वे सच में चुने नहीं गए थे, उन्होंने बस कुछ समय तक सेवा की थी। इसी बीच ऐसे भी कुछ लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुशासित करने, ताड़ना देने, न्याय करने और यहाँ तक कि निंदा कर शाप देने के भरसक प्रयास करता है, और इसके लिए वह उनसे पेश आने के ऐसे विभिन्न तरीके इस्तेमाल करता है जो मनुष्य की धारणाओं के प्रतिकूल होते हैं। कुछ लोग परमेश्वर का इरादा नहीं समझते, और सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें परेशान कर उनका दिल दुखा रहा है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर के समक्ष जीने में कोई गरिमा नहीं है, वे अब परमेश्वर को आहत नहीं करना चाहते और कलीसिया को छोड़ देना चाहते हैं। वे यह भी सोचते हैं कि यूँ करने के पीछे एक कारण है, और इस तरह वे परमेश्वर से मुँह मोड़ लेते हैं—लेकिन दरअसल परमेश्वर ने उनका त्याग नहीं किया था। ऐसे लोगों को परमेश्वर के इरादे का कोई अनुमान नहीं होता है। वे थोड़े ज्यादा ही संवेदनशील होते हैं, और परमेश्वर का उद्धार छोड़ने की हद तक चले जाते हैं। क्या इन लोगों के भीतर सच में जमीर है? ऐसा समय भी होता है जब परमेश्वर लोगों को दूर रखता है, ऐसा समय भी होता है जब वह उन्हें कुछ समय के लिए किनारे कर देता है ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें, लेकिन परमेश्वर उनका त्याग नहीं करता; वह उन्हें प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर सिर्फ दुष्ट लोगों को त्याग देता है जो अनेक बुरे कर्म करते हैं, जो छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मुझमें पवित्र आत्मा ने कार्य नहीं किया है, बहुत समय से मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिली है। क्या परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” यह एक गलतफहमी है। इसमें स्वभाव की समस्या भी है : लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे हमेशा अपने तर्क के पीछे चलते हैं, हमेशा हठी और तर्कहीन होते हैं—क्या यह स्वभाव की समस्या नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें त्याग दिया है, वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो क्या उसने तुम्हारा परिणाम तय कर दिया है? परमेश्वर ने तुमसे गुस्से में सिर्फ कुछ वचन बोले हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि उसने तुम्हें छोड़ दिया है, वह तुम्हें अब नहीं चाहता? ऐसे मौके आते हैं जब तुम पवित्र आत्मा का कार्य महसूस नहीं कर सकते, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें अपने वचन पढ़ने से वंचित नहीं किया है, न ही उसने तुम्हारा परिणाम नियत किया है या उद्धार का तुम्हारा रास्ता बंद किया है—तो फिर तुम किस बात को ले कर इतने नाराज हो? तुम एक बुरी दशा में हो, तुम्हारी मंशाओं के साथ समस्या है, तुम्हारे विचार और नजरिये के साथ समस्याएँ हैं, तुम्हारी मानसिक दशा विकृत है—फिर भी तुम सत्य खोज कर इन चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर परमेश्वर की गलत व्याख्या कर उसके बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर पर जिम्मेदारी डालते हो, और यह भी कहते हो, “परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, इसलिए मैं अब उसमें विश्वास नहीं रखता।” क्या तुम तर्कहीन नहीं हो? क्या तुम अनुचित नहीं हो? ऐसा व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है, बिल्कुल नासमझ होता है, हर तर्क के लिए अभेद्य होता है। वे सत्य को बहुत कम स्वीकार कर पाते हैं और उनके लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा।

ये वचन याद रखो : पतरस को सैकड़ों बार शोधन के बाद पूर्ण बनाया गया था। तुम लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं में, सैकड़ों बार शोधन किए जाने का अर्थ है परमेश्वर का अनुसरण करने और अंत में क्रूस पर उलटा चढ़ाए जाने के लिए अनकही मुश्किलों का शानदार जीवन जीना। लेकिन बात ऐसी नहीं है; यह महज मनुष्य की धारणा है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह मनुष्य की धारणा है? इसलिए कि लोग नहीं समझते कि परमेश्वर के परीक्षण क्या हैं और यह कि प्रत्येक परीक्षण परमेश्वर के हाथों ही व्यवस्थित कर किया जाता है; लोग इस “सैकड़ों बार” को नहीं समझते या यह नहीं समझते कि परमेश्वर ने पतरस का “सैकड़ों बार” शोधन क्यों किया या यह “सैकड़ों बार” कैसे हुआ, या इसका मूल कारण क्या था—लोग ये चीजें नहीं जानते, इसके बजाय चीजों को समझने के लिए हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के भरोसे रहते हैं, और नतीजतन वे परमेश्वर को गलत समझते हैं। लोग परमेश्वर के उन कुछ वचनों को नहीं समझ पाते, जिनका उन्होंने अनुभव नहीं किया है। असल जीवन में, यदि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को केवल आशीष दे, उनका मार्गदर्शन करे और उनसे शांति से बात करे, तो परीक्षण लोगों के लिए सदा सिर्फ खोखले शब्द होंगे, एक शब्द, परिभाषा या अवधारणा से ज्यादा कुछ नहीं होंगे। हालाँकि परमेश्वर अक्सर तुम पर यह कार्य करता है : अभी तुम्हें बीमार कर देता है, अभी तुम्हारा सामना किसी अप्रिय चीज से करवा देता है जिससे तुम हतोत्साहित और कमजोर हो जाते हो, अभी तुम्हारा सामना किसी ऐसी मुश्किल स्थिति से करवा देता है, जिससे निपटना तुम्हें बहुत कठिन लगता है, और तुम नहीं जानते कि क्या करना सही है—ये चीजें तुम्हारे लिए क्या हैं? इन तमाम अप्रिय चीजों, इन तमाम कष्टों, मुश्किलों या तकलीफों, या शैतान के प्रलोभनों की बात पर भी, यदि तुम हमेशा उन्हें परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए परीक्षणों के रूप में ले सको, मान सको कि प्रत्येक परीक्षण सैकड़ों में से एक है, और तुम उन्हें स्वीकार कर उनके भीतर सत्य को खोज सको, तो तुम्हारी दशा में परिवर्तन होगा और परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में सुधार होगा। लेकिन यदि परीक्षणों का सामना होने पर तुम उन्हें ठुकरा दो, उनसे छिपने, उनका प्रतिरोध और विरोध करने की निरंतर कोशिश करते रहो, तो ये “सैकड़ों परीक्षण” सदा तुम्हारे लिए खोखले शब्द ही होंगे, जो कभी साकार नहीं होंगे। मिसाल के तौर पर, कोई तुम्हारे प्रति बुरा रवैया रखता हो, और इसका कारण जाने बिना तुम दुखी हो जाते हो। यदि तुम गर्ममिजाजी में जीते हो, अपने देह-सुखों में जीते हो, तो तुम्हारे पास भी उनके साथ अप्रिय होने का बहाना है—दांत के बदले दांत, आँख के बदले आँख। लेकिन यदि तुम परमेश्वर के समक्ष जीते हो, और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया और बचाया जाना चाहते हो, तो जिन सब चीजों का तुम सामना कर रहे हो, उन्हें परमेश्वर के एक परीक्षण के रूप में लेकर स्वीकार लेना चाहिए; असल में, यह उन विभिन्न तरीकों में से एक है जिससे परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है। इस तरह संगति करके क्या तुम लोग अब अपने दिलों में बहुत अधिक मुक्त और काफी ज्यादा राहत महसूस कर रहे हो? यदि तुम लोग इन वचनों के अनुसार अभ्यास कर सको, अपने व्यवहार और नजरियों को इन वचनों की कसौटी पर कस सको, तो तुम्हें इससे अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित होने में बड़ी सहायता मिलेगी।

परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की धारणाओं पर आज की चर्चा में कौन-से मुख्य पहलू हैं? एक है लोगों के बाहरी व्यवहार का पहलू, फरीसियों की ही तरह झूठा बर्ताव करना, अत्यंत परिष्कृत और सुशील ढंग से पेश आना; दूसरा पहलू है रोटी, कपड़ा, मकान और यात्रा का; परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की समझ का एक और पहलू है, यह सोचना कि परमेश्वर में विश्वास रखने से उन्हें आशीष प्राप्त होने चाहिए और उन्हें लाभ दिए जाने चाहिए। इस पहलू को लेकर अय्यूब का अनुभव क्या था? जब अय्यूब को परीक्षणों का सामना करना पड़ा, तो वह यह सुनिश्चित कर पाया कि ये परमेश्वर से आए थे, उसने कोई गलत काम नहीं किया था और यह परमेश्वर का दंड नहीं था, बल्कि यह परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा थी और शैतान उसे प्रलोभन दे रहा था—उसने इसे इसी तरह से समझा। और अय्यूब के मित्रों ने इसे कैसे समझा? उन्होंने माना कि यह विपदा अय्यूब पर इसलिए टूटी होगी क्योंकि उसने कुछ गलत किया था और परमेश्वर का अपमान किया था। उनका इस तरह सोचना यह दर्शाता है कि उनके मन में परमेश्वर में विश्वास को लेकर धारणाएँ थीं। अय्यूब की समझ दूसरों से अलग क्यों थी? इसलिए कि अय्यूब ने स्पष्ट देख लिया था कि क्या हो रहा है, और इसलिए उसने इस बारे में कोई धारणाएँ नहीं पालीं। जब परमेश्वर अय्यूब पर अपना कार्य कर रहा था, तब अय्यूब ने अनुभव प्राप्त कर परमेश्वर के कार्य को जान लिया, और मनुष्य की ये धारणाएँ और विचार अब अय्यूब में नहीं मिलने वाले थे। और इसलिए जब परमेश्वर का हाथ अय्यूब पर पड़ा, तो क्या उसने गलत समझा? (नहीं।) उसने गलत नहीं समझा और इसलिए उसने शिकायत नहीं की; उसने गलत नहीं समझा और इसलिए उसने विद्रोह नहीं किया; उसने गलत नहीं समझा और इसलिए वह सचमुच समर्पित हो पाया। क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) यह सही क्यों है? यदि लोग परमेश्वर के वचनों पर अपने दिल में “आमीन” कहते हैं, परमेश्वर के वचनों को सकारात्मक चीजों की वास्तविकता के रूप में लेते हैं, उस चीज के रूप में जोकि सही है, मानक है, सर्वोपरि है, और उन सिद्धांतों के रूप में लेते हैं जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए, तो वे समर्पण करेंगे, गलत नहीं समझेंगे। जब लोग परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों या उसके द्वारा किए गए कार्यों के बारे में गलतफहमियाँ पैदा करते हैं, तो इसके लिए हमेशा एक अभिव्यक्ति होती है—वह अभिव्यक्ति क्या है? (वे उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं हैं।) और परमेश्वर के वचनों और कार्यों को स्वीकारने की अनिच्छा के पीछे क्या होता है? यह कि उनके अपने विचार हैं, और इन विचारों का परमेश्वर के वचनों से विरोधाभास और टकराव होता है, और फिर लोग परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और धारणाएँ पाल लेते हैं, यह मानकर कि परमेश्वर जो कुछ कहता है, वह अनिवार्य रूप से सही नहीं है। कभी-कभी भले ही लोग उन्हें स्वीकारते हुए दिखें, फिर भी यह सिर्फ दिखावा है, सच्ची स्वीकृति नहीं है। सत्य को खोजने के बाद व्यक्ति को पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सोचना चाहिए, और दिल से परमेश्वर के वचनों से सहमत होना चाहिए, और केवल तभी वह परमेश्वर के अनुकूल हो पाएगा। यदि तुम इन चीजों को दिल से नहीं स्वीकारते, और गलत समझकर उनका विरोध और प्रतिरोध करते हो, तो यह दर्शाता है कि तुम्हारे भीतर कुछ है। यदि तुम अपने भीतर की इस चीज का विश्लेषण कर सत्य को खोज सको, तो तुम्हारी धारणाएँ दूर हो सकती हैं; यदि तुम्हारी समझ विकृत है, तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, या तुममें समझ की क्षमता नहीं है, तुम परमेश्वर के वचनों से अपनी धारणाओं की तुलना करने में बिल्कुल नाकाबिल हो, उन्हें जानने और उनका विश्लेषण करने में असमर्थ हो, और जान ही नहीं पाते कि कब तुम्हारे भीतर धारणाएँ उभरती हैं, तो तुम्हारी धारणाएँ दूर नहीं हो सकेंगी। कुछ लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उनके दिलों में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ हैं, फिर भी वे कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हैं, वे डरते हैं कि अगर वे बता देंगे तो उनकी नाक कट जाएगी और लोग उन्हें नीची नजर से देखेंगे। यदि कोई उनसे पूछे, “यदि तुमने परमेश्वर को गलत नहीं समझा है, तो ऐसा क्यों है कि तुम उसे समर्पित नहीं हो पाते हो?” तो वे जवाब देते हैं, “मैं अभ्यास करने का तरीका नहीं जानता हूँ।” यह कैसी अभिव्यक्ति है? यदि तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, यदि तुम समझ-बूझ के काबिल नहीं हो, और नहीं जानते कि कोई समस्या आने पर आत्मचिंतन कैसे करें, तो तुम परमेश्वर को लेकर अपनी धारणाओं या गलतफहमियों को दूर नहीं कर पाओगे। जब ऐसी चीजें होती हैं जो तुम्हारी धारणाओं से संबंधित न हों, तो तुम बहुत शांत महसूस करते हो, और यह नहीं देखा जा सकता कि तुम्हें कोई समस्या है। हालाँकि जैसे ही कोई ऐसी चीज होती है जो तुम्हारी धारणाओं को छूती हो, तो तुम्हारे अंदर परमेश्वर से टकराव की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। यह संघर्ष कैसे अभिव्यक्त होता है? कभी-कभी शायद तुम्हें गुस्सा आए, और समय के साथ इस भावना के दूर न होने पर, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ और ज्यादा जड़ें जमा लेंगी और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव फैल जाएगा, और तुम अपनी धारणाओं की भड़ास निकालकर परमेश्वर की आलोचना करने लगोगे। जैसे ही तुम परमेश्वर की आलोचना करते हो, वैसे ही यह सोच या व्यवहार की समस्या नहीं रह जाती, बल्कि शैतानी स्वभाव का प्रकटन बन जाती है। यदि कोई सिर्फ अज्ञानता के कारण थोड़ा टकराव दर्शाता है या उसके व्यवहार में समर्पण नहीं होता है, तो परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता है; यदि कोई अपने स्वभाव के चलते परमेश्वर के साथ सीधे टकराता है और ऐसा वह जान-बूझ कर करता है, तो यह उसके लिए मुसीबत खड़ी करेगा, और वह परमेश्वर की अवज्ञा कर रहा होगा। जब कोई जानबूझकर परमेश्वर की अवज्ञा करता है, तो यह परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध एक अपमान है। इसलिए मन में धारणाएँ होने पर लोगों को उन्हें दूर करना चाहिए; अपनी धारणाएँ दूर करने के बाद ही लोग परमेश्वर और अपने बीच की गलतफहमियाँ दूर कर सकते हैं; और उनके और परमेश्वर के बीच की गलतफहमियाँ दूर होने के बाद ही वे सच में परमेश्वर को समर्पित हो सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे मन में कोई धारणा नहीं है, और मेरे और परमेश्वर के बीच की गलतफहमियाँ दूर हो गई हैं। अब मैं किसी भी चीज के बारे में नहीं सोचता हूँ।” क्या यह काफी है? धारणाएँ दूर करने का उद्देश्य केवल उन्हें दूर करना नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के अनुसार अभ्यास करना, परमेश्वर को समर्पित होना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मेरे मन में परमेश्वर को लेकर कोई गलतफहमी न हो तो यह काफी है, सब कुछ ठीक होगा, और मैं सुरक्षित रहूँगा।” यह सचमुच सत्य का अभ्यास करना नहीं है, न ही यह सच्चा समर्पण है—समस्या अभी भी दूर नहीं हुई है। यदि समस्या सचमुच दूर हो गई होती, तो न सिर्फ लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर कोई गलतफहमी नहीं होती, बल्कि वे यह भी जानते कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं और उनके साथ होने वाली चीजों में उसके इरादे क्या हैं। वे न सिर्फ अपनी धारणाओं का विश्लेषण कर पाएँगे बल्कि धारणाओं वाले लोगों की यह सीखने में भी मदद कर पाएँगे कि सत्य को कैसे खोजें, सत्य का अभ्यास कैसे करें और परमेश्वर की अपेक्षाएँ कैसे पूरी करें। क्या वे तब परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं होंगे? धारणाओं को दूर करने का अंतिम लक्ष्य परमेश्वर के इरादों को समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है—यही अहम है। तुम कहते हो कि तुमने मन में परमेश्वर के बारे में कोई गलतफहमी नहीं पाली है, तो क्या तुम सत्य को समझते हो? यदि तुम सत्य को नहीं समझते हो, तो भले ही तुम्हारे मन में कोई धारणा या गलतफहमी न हो, तुम अब भी परमेश्वर को समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। कोई गलतफहमी न होने का यह अर्थ नहीं है कि तुम परमेश्वर को समझते हो, यह अर्थ तो बिल्कुल भी नहीं है कि तुम उसके प्रति समर्पण करने के काबिल हो। सब-कुछ ठीक होने पर लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर कोई धारणा या गलतफहमी नहीं होती, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उनके मन में परमेश्वर को लेकर कोई धारणा या गलतफहमी है ही नहीं। जब उनके साथ उनके निजी हितों को प्रभावित करने वाली कोई चीज हो जाती है, तब स्वाभाविक रूप से उनके मन में धारणाएँ उभरती हैं और वे परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ बना लेते हैं और शिकायतें करते हैं। जब लोग अपने निजी हितों को इतना ज्यादा अहम मानते हैं, तो क्या वे परमेश्वर को समर्पित हो सकेंगे? ऐसा क्यों है कि जब किसी के निजी हितों को प्रभावित करने वाली कोई चीज हो जाती है, तो उसके चलते उनके मन में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं, और वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर उसकी अवज्ञा करते हैं? शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभाव वाले लोगों के साथ ऐसे ही होता है। जब उनके निजी हितों को प्रभावित करने वाली कोई चीज हो जाती है तो वे अब परमेश्वर को समर्पित नहीं हो पाते, और तब भी परमेश्वर को समर्पित नहीं हो पाते जब कोई ऐसी चीज हो जाती है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के विपरीत होती है। लोगों की स्थिति के अनुसार परमेश्वर के प्रति उनकी धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा होती हैं। यदि वे सत्य खोज नहीं पाते और उसे स्वीकार नहीं कर पाते, तो उनकी धारणाएँ कभी दूर नहीं होंगी और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता कभी भी फिर से सामान्य नहीं हो पाएगा। जो लोग मन में धारणाएँ रखते हैं, पर उन्हें दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजते, वे परमेश्वर द्वारा नहीं बचाए जाएँगे, भले ही उन्होंने जितने भी वर्ष उसमें विश्वास रखा हो।

परमेश्वर द्वारा मनुष्य का उद्धार केवल खोखली बातें नहीं हैं। वह ये सत्य इसलिए व्यक्त करता है ताकि भ्रष्ट मानवजाति की उन विभिन्न चीजों को दूर किया जा सके जो सत्य के विपरीत हैं—उसकी धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान, फलसफे, पारंपरिक संस्कृति, इत्यादि—इन चीजों का विश्लेषण करके, मनुष्य को समझने देता है कि सकारात्मक चीजें किससे बनती हैं और नकारात्मक चीजें किससे, कौन-सी चीजें परमेश्वर से आती हैं, कौन-सी चीजें शैतान से आती हैं, सत्य क्या है, शैतान के फलसफे और तर्क क्या हैं। जब लोग इन चीजों को साफ तौर पर देख पाएँगे, तो वे सहज ही जीवन का सही मार्ग चुनेंगे, वे सत्य का अभ्यास कर पाएँगे, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चल पाएँगे और नकारात्मक चीजों को पहचान पाएँगे। यही इंसान से परमेश्वर अपेक्षा रखता है और इसी मानक से वह लोगों को पूर्ण करता है और बचाता है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं का विश्लेषण करता है, लेकिन मेरे अंदर तो कोई धारणा नहीं है। जिन लोगों में धारणाएँ होती हैं, वे आमतौर पर बहुत धूर्त और शातिर होते हैं, या फिर धर्मशास्त्री और फरीसी होते हैं। मैं वैसा नहीं हूँ।” ऐसी बात कह पाने में समस्या क्या है? वे खुद को नहीं जानते। उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे भी संगति की जाए, वे यह सोच कर उसे खुद पर लागू नहीं करते कि वे ऐसे नहीं हैं। यह अज्ञानता है, उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है। क्या तुम लोग इस तरह सोच पाए हो? आज ज्यादातर लोग ऐसा नहीं सोचते। जब किसी ने परमेश्वर के अनेक वचनों को खा-पी लिया हो, और वह कुछ सत्यों को समझ सकता हो, तो वह स्पष्ट रूप से देख सकता है कि सभी के पास धारणाओं और कल्पनाओं की चीजें हैं, और सभी के पास भ्रष्ट स्वभाव है। इन चीजों का विश्लेषण करने में कुछ भी शर्मनाक नहीं है; इसके अलावा, उनका विश्लेषण करने पर, वे मानते हैं कि इससे दूसरों को विवेक विकसित करने में मदद मिलेगी और वे स्वयं भी विकसित होकर सत्य को अधिक तेज़ी से समझने में सक्षम होंगे। यही कारण है कि वे सभी लोग खुलकर अपना विश्लेषण कर पाते हैं। धारणाओं का विश्लेषण करने का उद्देश्य क्या है? इनका उद्देश्य है धारणाओं को दर-किनार करना, मनुष्य और परमेश्वर के बीच की गलतफहमियों को दूर करना और फिर लोगों को इस योग्य बनाना कि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर ध्यान केंद्रित कर सकें, उन्हें उद्धार के मार्ग पर कैसे प्रवेश करने का ज्ञान हो सके और वे जान सकें कि सत्य का अभ्यास करने के लिए क्या करना चाहिए। इस तरह अक्सर अभ्यास करने से, अंत में अभीष्ट प्रभाव प्राप्त होता है : एक पहलू यह है कि लोग परमेश्वर की इच्छा को समझकर उसके प्रति समर्पित हो पाएँगे और दूसरा पहलू यह है कि उन्हें बुरी धारणाओं और कल्पनाओं और ज्ञान से उपजने वाली चीजों जैसी नकारात्मक चीजों को नकारने तथा उनका विरोध करने की प्रतिरक्षा मिलेगी। जब कभी किसी धार्मिक बुद्धिजीवी, धर्मशास्त्री या किसी धार्मिक पादरी या एल्डर से तुम्हारा सामना होगा, तो उनसे बात करके ही तुम उनकी असलियत जान जाओगे और सत्य के ज़रिए तुम उनकी असंख्य धारणाओं, कल्पनाओं, पाखंड और भ्रांतियों का खंडन कर पाओगे। इससे पता चलता है कि तुम नकारात्मक चीजों की पहचान कर सकते हो, तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ गए हो, तुम्हारा एक विशिष्ट आध्यात्मिक कद है और तुम इन धार्मिक अगुआओं और हस्तियों से सामना होने पर घबराते नहीं हो। वे जिस ज्ञान, विद्वत्ता और फलसफे की बातें करते हैं, यहां तक कि उनकी सारी विचारधारा और सिद्धांत—अपुष्ट होते है, क्योंकि तुम धर्म के वचनों और धर्मसिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं की असलियत जान चुके हो। और अब वे चीजें तुम्हें गुमराह नहीं कर सकतीं। लेकिन तुम लोग अभी तक वहां नहीं पहुँचे हो। जब तुम्हारा सामना इन धार्मिक धोखेबाजों, फरीसियों या किसी ऐसे व्यक्ति से होता है जो थोड़ी-बहुत हैसियत पा चुका है, तो तुम लोग भयभीत हो जाते हो; यह जानते हुए भी कि वे जो कह रहे हैं वह गलत है, उनकी बातें धारणाओं और कल्पनाओं से निर्मित हैं, ज्ञान से पैदा हुई हैं, पर तुम लोगों को पता नहीं होता कि उसका खंडन कैसे करना है, उसका विश्लेषण कहाँ से शुरू करना है या उन लोगों को किन शब्दों से उजागर करना है। क्या इससे साबित नहीं होता कि तुमने अभी भी सत्य को समझा नहीं है? (जरूर।) इसलिए तुम लोगों को सत्य से युक्त हो जाना चाहिए, और एक बार सत्य को समझ लेने के बाद तुम फिर खुद विश्लेषण कर सकोगे और जान जाओगे कि लोगों को कैसे समझें-बूझें। जब सत्य को समझ लोगे, तो तुम लोगों को स्पष्ट रूप से समझ पाओगे, लेकिन यदि तुम सत्य को नहीं समझोगे, तो कभी भी लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाओगे। लोगों और चीजों को समझने के लिए, तुम्हें सत्य की समझ होनी चाहिए; सत्य को आधारशिला बनाए बिना, अपना जीवन बनाए बिना, तुम किसी भी चीज की गहराई में नहीं जा पाओगे।

जब लोग विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं के मसले को सुलझा लेते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के वचनों का ज्ञान और अनुभव प्राप्त हो जाता है, साथ ही वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में भी प्रवेश कर चुके होते हैं। परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया में, एक-एक करके, लोगों में उत्पन्न होने वाली विभिन्न धारणाएँ और कल्पनाएँ दूर हो जाती हैं, और परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के सार के बारे में लोगों के परमेश्वर-संबंधी ज्ञान में और लोगों के प्रति परमेश्वर की जो विभिन्न प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें परिवर्तन आ जाता है। यह परिवर्तन कैसे लाया जाता है? यह तब लाया जाता है जब लोग विभिन्न इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं को एक तरफ रख देते हैं, जब वे ज्ञान, फलसफों, पारंपरिक संस्कृति या दुनिया से आए विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों को एक तरफ रखकर, परमेश्वर से आए और सत्य से जुड़े विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करते हैं। जब लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में भी प्रवेश कर लेते हैं और सत्य का उपयोग करके प्रश्नों को समझने और उनके बारे में सोचने लगते हैं एवं सत्य का प्रयोग करके समस्याएँ हल कर पाते हैं। जब एक बार लोग परमेश्वर के बारे में अपनी विभिन्न धारणाएँ और गलतफहमियाँ दूर कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में तुरंत सुधार कर पाते हैं, और साथ-साथ जीवन प्रवेश की ओर अपना पथ प्रशस्त कर पाते हैं। जब लोगों में ऐसे बदलाव आ जाते हैं, तो परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते का क्या होता है? यह सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता का रिश्ता हो जाता है। इस स्तर पर संबंधों में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती, कोई परीक्षा नहीं होती और विद्रोह भी बहुत कम होता है; लोग परमेश्वर के प्रति बहुत अधिक विनीत, समझदार, श्रद्धावान, वफादार एवं ईमानदार हो जाते हैं और वास्तव में परमेश्वर का भय मानने लगते हैं। जब लोग अपनी धारणाएँ दूर कर लेते हैं तो उनके जीवन में यह बदलाव आ जाता है। यदि तुम लोग ऐसा बदलाव ला पाओ, तो फिर क्या तुम अपनी धारणाएँ दूर करने को तैयार हो जाओगे? (हाँ।) लेकिन लोगों की धारणाओं को दूर करना एक बहुत ही पीड़ादायक प्रक्रिया है। लोगों को अपने दैहिक-सुखों को नकारना होता है, उन्हें अपनी धारणाओं को एक तरफ रखना होता है, उन चीजों को दरकिनार करना होता है जिन्हें वे सही मानते हैं, उन चीजों को एक तरफ रखना होता है जिनको वे लगातार खोजते हैं, उन चीजों को अलग रखना होता है जिन्हें वे सही मानते हैं, जिनका उन्होंने आजीवन अनुसरण किया है और जिन चीजों के लिए वे आजीवन तरसते रहे हैं। इसका मतलब यह है कि लोगों को खुद के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए, ज्ञान, फलसफों को दर-किनार कर देना चाहिए—यहां तक कि शैतान की दुनिया से सीखी गयी जीवन-शैली को भी छोड़ देना चाहिए और उसके स्थान पर एक ऐसी जीवन-शैली अपनानी चाहिए जिसकी बुनियाद और मूल सत्य हो। इस तरह, लोगों को बहुत से कष्ट सहने चाहिए। ज़रूरी नहीं कि इस तरह के कष्ट कोई शारीरिक रोग या दैनिक जीवन की मुश्किलें और कठिनाइयाँ ही हों, बल्कि ये तुम्हारे दिल में विभिन्न चीजों और इंसानों के बारे में हर तरह के दृष्टिकोण में हुए परिवर्तन से आ सकते हैं, या ये परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान के विभिन्न पहलुओं में हुए बदलाव से भी आ सकते हैं, जो दुनिया, मानव जीवन, मानवजाति और परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान और दृष्टिकोण तक को उलट कर रख देते हैं।

हमने अभी-अभी परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की धारणाओं पर संगति की और अनेक उदाहरण दिए ताकि तुम्हें सत्य के इस पहलू की एक बुनियादी संकल्पना मिल सके। इसके बाद, तुम सब इस पर फिर से सोच-विचार कर सकते हो, और साथ मिलकर इस पर संगति कर सकते हो, निष्कर्ष निकाल सकते हो, और इन्हें कदम-दर-कदम दूर करने से पहले, धीरे-धीरे आत्मचिंतन कर समझ सकते हो, और परमेश्वर में विश्वास को लेकर विभिन्न धारणाओं का विश्लेषण कर सकते हो। संक्षेप में कहें तो लोगों के मन में परमेश्वर में विश्वास को लेकर अनेक कल्पनाएँ और धारणाएँ होती हैं। मिसाल के तौर पर, लोगों के जीवन के संदर्भ में हो, या शादी-ब्याह, परिवार या कामकाज के संदर्भ में, जैसे ही कोई मुश्किल आती है, वैसे ही लोग अपने मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं और फिर वे उसके बारे में शिकायत कर उसकी आलोचना करते हैं, हमेशा दिल से यह सोचते हुए कि “परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं करता है, मुझे आशीष क्यों नहीं देता है?” ठीक वैसे ही जैसे गैर-विश्वासी हमेशा कहते हैं : “स्वर्ग अन्यायपूर्ण है,” और “स्वर्ग अंधा है”; लेकिन ये चीजें संयोग से नहीं होतीं। जब जीवन आरामदेह और खुशहाल होता है, तो लोग परमेश्वर से कभी भी धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं बोलते और वे उसे नकार भी सकते हैं और उसके अस्तित्व पर संदेह भी कर सकते हैं। हालाँकि जब विपत्ति आती है, तो इसकी जिम्मेदारी वे परमेश्वर पर डाल देते हैं, और वे उसकी आलोचना और उसके विरुद्ध ईशनिंदा करने लगते हैं। कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि एक बार परमेश्वर में विश्वास रख लेने के बाद उन्हें अब कुछ भी सीखने या करने की जरूरत नहीं है, समय आने पर परमेश्वर उनके लिए सब-कुछ तैयार कर देगा और अगर उन्हें कोई कठिनाई हो तो वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं और अपना मामला उसे सौंप सकते हैं और वह उनके लिए इसे सुलझा देगा। वे मानते हैं कि यदि वे बीमार पड़ गए तो परमेश्वर उन्हें ठीक कर देगा, विपत्ति आए तो परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, और परमेश्वर के दिन का आगमन होने पर वे रूप बदल लेंगे और यदि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखाएगा, तो सब-कुछ ठीक हो जाएगा—लोगों के मन में ये कल्पनाएँ और धारणाएँ होती हैं। जहाँ तक कर्तव्यों से जुड़े उस व्यावसायिक ज्ञान की बात है जो लोगों को सीखना चाहिए, लोगों को उसे कर्तव्यों की जरूरत के अनुसार सीखना चाहिए; इसे उचित काम के प्रति व्यक्ति की व्यावहारिकता और समर्पण कहा जाता है, और किसी को सिर्फ सपना देखते हुए अपनी कल्पना के भरोसे नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर लोगों से वह करने की अपेक्षा करता है जो लोगों को करना चाहिए, यानी वे कर्तव्य जो लोगों को निभाने चाहिए। इसे बिल्कुल भी बदला नहीं जा सकता और इसके प्रति निष्ठापूर्ण दृष्टिकोण रखना चाहिए—यह सत्य के अनुरूप है, और यह वह नजरिया है जो लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति रखना चाहिए। यह कोई धारणा नहीं है, यह सत्य है और परमेश्वर इसी की अपेक्षा करता है। ऐसे बहुत-से मौके होते हैं जब परमेश्वर द्वारा किया हुआ कार्य लोगों की कल्पनाओं के प्रतिकूल होता है। यदि लोग अपनी धारणाओं को एक तरफ रख कर परमेश्वर के इरादों और सत्य सिद्धांतों को खोज सकें, तो वे इन चीजों से उबर सकेंगे। यदि तुम जिद्दी हो, और जिद पकड़कर अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो, तो यह तुम्हारे सत्य को न स्वीकारने, सही चीजों और परमेश्वर की अपेक्षाओं को न स्वीकारने के बराबर है। यदि तुम सत्य को या उन चीजों को नहीं स्वीकारते, जो सही हैं, तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि तुम परमेश्वर के विरोध में हो? सत्य और सकारात्मक चीजें परमेश्वर से आती हैं। यदि तुम उन्हें स्वीकार नहीं करते, और इसके बजाय अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो, तो साफ तौर पर तुम सत्य के विरुद्ध हो। परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की धारणाओं के बारे में अपनी संगति को हम यहीं समाप्त करेंगे। शेष यह है कि तुम लोगों को इन सिद्धांतों और आज यहाँ संगति में बताए गए वचनों के आधार पर इसे खुद पर लागू करना है। परमेश्वर में विश्वास को लेकर लोगों की धारणाएँ सबसे ज्यादा आम हैं और तीन प्रकार की धारणाओं में सबसे मूलभूत हैं। इन धारणाओं से जुड़े सत्य सचमुच उतने गूढ़ नहीं हैं, और इसलिए इन धारणाओं को दूर करना आसान होना चाहिए।

अब हम देहधारण के बारे में लोगों की धारणाओं पर संगति करेंगे; लोगों के मन में देहधारण के बारे में भी अनेक धारणाएँ होती हैं। जब लोगों ने देहधारी परमेश्वर को नहीं देखा होता, तब उनके मन में ढेरों कल्पनाएँ होती हैं, है कि नहीं? मिसाल के तौर पर, वे मानते हैं कि देहधारी को सब-कुछ स्पष्ट रूप से समझना और देखना चाहिए। संक्षेप में कहें, तो वे सोचते हैं कि देहधारी परमेश्वर का देह असाधारण रूप से उत्तम होगा, और वह उन जैसे लोगों के लिए कुछ ज्यादा ही अच्छा और उनकी पहुँच से बाहर होगा। जब लोग परमेश्वर से न मिले हों, तो उनकी ये कल्पनाएँ धारणाएँ होती हैं, और ये कुछ विशेष आकलनों, या लोगों के ज्ञान, धार्मिक मान्यताओं और पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा के अनुसार पैदा होती हैं। एक बार परमेश्वर से मिल लेने के बाद, लोग नई धारणाएँ बना लेते हैं : “तो, मसीह ऐसा दिखता है। वह इस तरह बोलता है और उसका व्यक्तित्व ऐसा है। जो मैंने सोचा था उससे वह भिन्न कैसे हो सकता है? मेरे परमेश्वर को ऐसा नहीं होना चाहिए।” दरअसल, लोगों को कोई अंदाजा नहीं है और वे समझा नहीं सकते कि परमेश्वर को कैसा होना चाहिए। लोग लगातार ये धारणाएँ बनाने के साथ-साथ निरंतर स्वयं को नकारते रहते हैं और अपनी काट-छाँट करते रहते हैं, यह मानते हुए कि मन में धारणाएँ और कल्पनाएँ रखना गलत है, परमेश्वर के कार्य सही हैं मगर वे अभी भी उन्हें समझ नहीं पाते हैं। उनकी धारणाएँ निरंतर बाहर निकलती रहती हैं और उनके दिलों में यह सोचते हुए एक युद्ध चलता रहता है, वे सोचते हैं, “परमेश्वर जो करता है वह सही है; मुझे अपने मन में कोई धारणा नहीं रखनी चाहिए।” लेकिन वे अपनी धारणाओं को पूरी तरह किनारे नहीं रख पाते, वे अभी भी आश्वस्त नहीं हैं, और इसलिए उनके दिलों में सुकून नहीं है। वे सोचते हैं, “वह मानव है या परमेश्वर? यदि वह परमेश्वर है, तो वह उस जैसा नहीं दिखाई देता, और यदि वह मानव है, तो उसके लिए इतने सत्य व्यक्त करना संभव नहीं होगा।” वे यहाँ अटक जाते हैं। वे संगति के लिए किसी दूसरे को ढूँढ़ना चाहते हैं, लेकिन इस बारे में बात करना उनके लिए मुश्किल होता है, इस डर से कि लोग उनकी हँसी उड़ाएँगे, या दूसरे उन्हें बहुत बड़ा बेवकूफ कहेंगे, जिसमें आस्था नहीं है या जिसकी समझ विकृत है, और इसलिए वे अपनी भावनाओं को दबा लेते हैं। चाहे जो हो, किसी ने परमेश्वर को देखा हो या न देखा हो, अगर उसके दिल में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ तैयार होती हैं, तो उसकी समझ के साथ भी समस्या है। परमेश्वर बहुत-से सत्य व्यक्त करता है, और उनके बारे में बहुत स्पष्ट और सुबोध संगति करता है, ताकि लोग अपने दिलों में और वचन से आश्वस्त हो सकें। जब लोग ऐसी स्थिति में भी धारणाएँ और कल्पनाएँ बना लेते हैं, तो अब यह समस्या उतनी सरल नहीं रह जाती है। कुछ लोगों के मन में आध्यात्मिक समझ न होने के कारण धारणाएँ होती हैं; कुछ लोगों के मन में विकृत समझ के कारण धारणाएँ होती हैं; और कुछ लोग धारणाएँ इसलिए बना लेते हैं क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और लेश मात्र भी सत्य को नहीं समझते हैं। बात जो भी हो, अगर लोगों की मान्यताएँ और विचार परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के सार के अनुरूप न हों, और वे लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने, परमेश्वर को जानने और उसके कार्य के प्रति समर्पित होने में रुकावट बनते हैं, या फिर उनके कारण लोग ऐसे विचार और नजरिये रखते हैं, जो परमेश्वर से सवाल करते हैं, उसे गलत समझते हैं, नकारते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं, तो ये सब धारणाएँ हैं और ये सब सत्य के विरुद्ध हैं।

अब, मैं तुम्हारे साथ संगति के लिए कुछ ठोस उदाहरणों का प्रयोग करूँगा। तुममें से बहुत-से लोगों ने मेरे बारे में कहानियाँ सुनी होंगी। जब तुमने पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, या तुमने खुद को किसी खास स्थिति में पाया, तो किसी ने तुम्हें कुछ ऐसी कहानियाँ सुनाई होंगी, जिनसे तुम्हारा दिल भावुकता से भर गया होगा या तुम रो पड़े होगे। मिसाल के तौर पर, किसी ने कहा कि एक साल नव वर्ष के वक्त दूसरे सभी लोग नव वर्ष मनाने के लिए घर चले गए, जबकि मसीह हवा और बर्फ का सामना करते हुए, सड़कों पर अकेला भटकता रहा, उसके लिए जाने को कोई घर नहीं था। यह कहानी सुनने के बाद, कुछ लोग बहुत भावुक हो गए और बोले, “परमेश्वर के लिए संसार में आकर जीना सचमुच बहुत मुश्किल है! मानवजाति बहुत भ्रष्ट है और वे सभी परमेश्वर को नकारते हैं, और इसीलिए परमेश्वर इस तरह दुख सहता है। लगता है परमेश्वर ने जो कहा वह सच है, ‘लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।’ ये वचन साकार हो गए हैं। परमेश्वर बहुत महान है!” वे मानते हैं कि परमेश्वर की महानता इस कहानी से उत्पन्न हुई है, और वे इस कहानी से यही निष्कर्ष निकालते हैं। इस कहानी को सुनकर तुम रो पड़ते हो, पर क्या कभी तुमने सोचा है कि लोग ऐसी कहानियाँ क्यों सुनना चाहते हैं? वे ऐसी कहानियों से भावुक क्यों हो जाते हैं? लोगों के मन में परमेश्वर के देह के बारे में एक प्रकार की धारणा है, परमेश्वर के देह को लेकर उनकी एक प्रकार की अपेक्षा है और उनके पास उसके देह को मापने का एक प्रकार का मानक है। यह धारणा क्या है? वह यह है कि यदि परमेश्वर देहधारी होकर आता है, तो उसे दुख सहना चाहिए। परमेश्वर ने कहा था : “लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।” यदि ये वचन साकार नहीं हुए होते, यदि मनुष्य पुत्र की जीवन स्थितियाँ ऐसी नहीं रही होतीं, और उसने इस तरह दुख न सहकर खुशी का आनंद लिया होता, तो लोग उसकी प्रशंसा नहीं करते और अभिप्रेरित महसूस नहीं करते, और तब वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, जरा भी दुख सहने को तैयार नहीं होते। लोग मानते हैं कि परमेश्वर को दुख सहना चाहिए, और दुख सह कर ही वह मानवजाति के लिए एक उदाहरण और एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता है। वे मानते हैं कि इस संसार में आने पर परमेश्वर विशाल संपत्ति और पद का आनंद नहीं ले सकता—ये चीजें इस संसार की हैं। परमेश्वर इस संसार में विशेष तौर पर दुख सहने के लिए आया है, और दुख सहने के बाद ही वह मानवजाति को उसका अनुसरण करने से पहले, अवाक बना सकता है, अपने दुखों से उन्हें भावुक कर उनसे अपनी प्रशंसा करवा सकता है। लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में ऐसी धारणा होती है, जिस वजह से वे ऐसी कहानियों से तादात्म्य स्थापित करते हैं और इन्हें स्वीकारने में उन्हें आसानी होती है। तो क्या तुम लोग जानना चाहोगे कि यह कहानी सच्ची है या नहीं? तुम सब क्या चाहते हो, यह सच्ची हो या फिर न हो? क्या इसका जवाब देना तुम्हारे लिए मुश्किल है? यदि यह सच्ची हो, तो लोग इसे अपनी धारणाओं के बहुत अनुरूप पाएँगे; यदि यह सच्ची न हो, तो क्या तुम सबके अंतर्मन में यह शौर्यपूर्ण उदाहरण नष्ट हो जाएगा? क्या तुम लोगों पर इसका प्रभाव पड़ेगा? क्या यह तुम सबके लिए एक झटका होगा? वास्तव में, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि यह सच्ची है या नहीं। फिर महत्वपूर्ण क्या है? लोगों की धारणाओं का विश्लेषण करना। हर किसी के मन में देहधारी परमेश्वर, उसके जीवन, उसके जीवन परिवेश, उसके जीवन की गुणवत्ता, उसके रोटी, कपड़ा, मकान और आने-जाने के साधन को मापने के लिए एक धारणा है, एक मानक है, और वह धारणा यह है कि अब चूँकि परमेश्वर आ गया है, उसे दुख सहने चाहिए। इसके अलावा, लोगों के दिलों में यह बात है कि मसीह को निश्चित रूप से प्रभावशाली होना चाहिए, आराधना, प्रशंसा और श्रद्धा के योग्य होना चाहिए : उसे अत्यंत शीघ्रता से पढ़ने में समर्थ होना चाहिए, और जिस भी चीज पर कभी उसकी नजर पड़े, उसे कभी भूलना नहीं चाहिए, उसमें सामान्य लोगों की पहुँच से बाहर की कुछ असाधारण काबिलियतें होनी चाहिए, और उसे संकेत और चमत्कार दिखाने में समर्थ होना चाहिए, जो फिर उसे अनुसरण और “शक्तिमान परमेश्वर” की पदवी के योग्य बना देते हैं। यदि असल जीवन में लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ साकार हो जाएँ तो वे अपनी आस्था में बहुत जोशीले और आत्मविश्वासी हो जाएँगे। यदि असल में जो चीजें होती हों वे उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के प्रतिकूल हों, जैसे कि मसीह का सत्ताधारी अधिकारियों द्वारा पीछा किए जाते हुए देखना, तो लोग सोचते हैं, “परमेश्वर अभी भी पीछा किए जाने की पीड़ा झेल रहा है—यह वह नायक और उद्धारकर्ता नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी!” और फिर वे सोचते हैं कि परमेश्वर विश्वास रखने के योग्य नहीं है। क्या ऐसा उनकी धारणाओं के कारण नहीं हुआ है? ये धारणाएँ कैसे बनती हैं? एक पहलू यह है कि ये लोगों की कल्पनाओं से पैदा होती हैं, जबकि दूसरा पहलू यह है कि लोग प्रसिद्ध और महान लोगों की छवियों से प्रभावित होते हैं, जिसके कारण वे परमेश्वर के बारे में गलत परिभाषाएँ गढ़ लेते हैं। लोग मानते हैं कि प्रसिद्ध और महान लोगों का जीवन सरल होता है, उनके लिए एक टूथब्रश 20-30 साल चल सकता है, और एक ही पोशाक मरम्मत करके जीवन भर पहनी जा सकती है। कुछ प्रसिद्ध और महान लोग कुछ भी व्यर्थ किए बिना खाना खाते हैं, यहाँ तक कि खाना खा लेने के बाद कटोरा भी साफ चाट लेते हैं, खाने के वे दाने भी उठा कर खा लेते हैं जो यहाँ-वहाँ गिर गए हों, और इसलिए लोग अपने दिलों में इन महान लोगों के बारे में असाधारण छवि बना लेते हैं, और वे देहधारी परमेश्वर को मापने के लिए इन छवियों का प्रयोग करते हैं। यदि देहधारी परमेश्वर उनकी छवियों से मेल नहीं खाता, तो वे धारणाएँ बना लेते हैं, लेकिन यदि देहधारी परमेश्वर का इन छवियों के साथ सटीक मेल बैठ जाता है, तो वे धारणाएँ नहीं बनाते। क्या लोगों का इन चीजों के साथ मसीह की तुलना करना सत्य के अनुरूप है? क्या प्रसिद्ध और महान लोग जो कुछ करते हैं, वह सत्य के अनुरूप है? क्या उनका प्रकृति सार संतों वाला है? दरअसल, ये सभी प्रसिद्ध और महान लोग दानव और दानव राजा हैं, और उनमें से एक में भी सामान्य मानवता का सार नहीं है। उन्हें मापने के लिए इंसानी धारणाओं का प्रयोग करने पर भले ही ऐसा लगे कि उनमें कुछ गुण हैं, मगर उनके प्रकृति सार और कृत्यों के संदर्भ में वे सब सार रूप में दानव और शैतान हैं। देहधारी परमेश्वर से तुलना करने के लिए दानवों और शैतानों की छवियाँ लेना क्या परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा नहीं है? शैतान और दानव हमेशा से भेस बदलकर खुद को छिपाने में श्रेष्ठ रहे हैं। बाहर कही गई उनकी सभी बातें और उनके किए हुए सभी काम लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, और वे हमेशा मीठी बातें बोलते हैं। हालाँकि वे मन में जो योजना बनाते हैं और परदे के पीछे वे जो करते हैं, वे सब शर्मनाक दानवी चीजें होती हैं, और अगर कोई उन्हें उजागर न करे, तो कोई भी उनकी थाह नहीं पा सकेगा। शैतान और दानव राजाओं द्वारा बोली गई हर बात पाखंडी और गुमराह करने वाली होती है, और सत्य समझने वाले कुछ लोग इसे स्पष्ट रूप से समझ पाएँगे। कुछ लोग हमेशा दानवों और महान लोगों की छवियों की तुलना देहधारी परमेश्वर से करते हैं, और बेमेल होने पर वे परेशान हो जाते हैं, धारणाएँ बना लेते हैं और कभी भी उन्हें जाने नहीं देते हैं। क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं? यकीनन ऐसे बहुत-से लोग हैं। कुछ लोग अभी भी चिंतित हैं कि जो कहानी मैंने अभी सुनाई वह सच्ची है या नहीं। जब पहली बार मैंने इस बारे में सुना, तो मैं पसोपेश में पड़ गया कि मैं यानी इससे जुड़ा हुआ व्यक्ति नहीं जानता था कि मुझे अनुमानतः क्या हुआ था। यह कहानी एक बड़ा लतीफा और एक बड़ा झूठ थी। यह सच्ची नहीं थी। उस स्थिति में, भले ही नए कार्य के इस चरण को स्वीकार करने वाले बहुत ज्यादा भाई-बहन नहीं थे, फिर भी कुछ लोग थे जिन्होंने परमेश्वर के पहले-पहल अपने वचन कहना शुरू करने पर उसे स्वीकार कर लिया था। यही नहीं, वे सभी यीशु के विश्वासी थे, जिन्होंने उसके कार्य के इस चरण को स्वीकार लिया था। वे सभी प्रेम दर्शाने को तैयार थे, और मसीह के चेहरे पर दरवाजा कभी भी बंद नहीं कर सकते थे; वे यकीनन कभी ऐसा नहीं कर सकते थे। नव वर्ष पर, कुछ लोगों ने मुझे अपने घर आमंत्रित किया था। इसके अलावा, जब इतने सारे भाई-बहन थे, तो यह कैसे हो सकता था कि मैं किसी के घर जाता और मेरी मेजबानी नहीं होती? ऐसा कहना यूँ लगता है मानो भाई-बहन विद्रोही हो रहे थे और कोई भी कहीं भी मेरी मेजबानी नहीं करता। यह भाई-बहनों को फँसाने और उनके बारे में अफवाहें फैलाने का प्रयास था! यह सब पूरी तरह से बेबुनियाद था, और साफ तौर पर छिपे हुए मंसूबों वाले कुछ लोगों द्वारा गढ़ा गया था, फिर भी तुम लोगों ने सचमुच उस पर यकीन कर लिया। तुम अभी भी इस पर कैसे विश्वास कर सकते हो? इसलिए कि लोगों के मन में देहधारण को लेकर कुछ विशेष धारणाएँ हैं, उनकी भावनाओं, आकांक्षाओं और मनोवैज्ञानिक रचना के संदर्भ में उनकी ये आवश्यकताएँ हैं, और इसलिए वे ऐसी कहानियाँ सुनने को तैयार हैं। कुछ लोगों ने इन कहानियों को गढ़ने के मौके का फायदा उठाया और फिर उन्होंने इन्हें फैलाने और प्रसारित करने, इन्हें अतिरंजित करने और फिर निष्कर्ष निकालने और चीजें गढ़ने की भरसक कोशिश की। आखिरकार, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों ने उन मनगढ़ंत बातों को सुना और इन्हें सच्चा मान लिया। यदि आज मैंने इस मामले को स्पष्ट न किया होता, तो तुम लोग जीवन भर कभी भी सच और झूठ में फर्क नहीं कर पाते। क्या अब तुम समझ रहे हो? यह घटना कभी हुई ही नहीं।

अब मैं तुम्हें कुछ बातें बताऊँगा ताकि इनके जरिये तुम लोग समझ सको कि देहधारण और मसीह को लेकर कौन-सी धारणाएँ हैं। जब परमेश्वर के नए कार्य का यह चरण शुरू हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे, तब कलीसिया को कुछ भजन लिखने की जरूरत थी, और मैंने भी एक भजन लिखा। उस वक्त, देहधारी परमेश्वर की गवाही पहले ही दी जा चुकी थी। मेरा भजन पढ़ने के बाद, कुछ लोगों ने सोचा कि यह बहुत अच्छा है, लेकिन एक व्यक्ति ऐसा था जिसने एक बड़ी अजीब बात कही : “तुमने यह भजन इतनी जल्दी कैसे लिख डाला? तुम्हें इतने सारे शब्द सूझे कैसे?” यह सुनकर मुझे बड़ी उलझन हुई, और मैंने सोचा, “क्या किसी को गाना लिखने के लिए शब्दों की जरूरत होती है? क्या किसी का जानकार होना जरूरी है? तो मेरे द्वारा व्यक्त किए गए वचन उसकी सोच में क्या हैं?” उसके मन में एक धारणा थी, एक विचार था, वह मानता था कि देहधारी द्वारा व्यक्त किए जा रहे ये वचन महज शब्द और आलेख हैं—उसने न ही सोचा, और न ही समझा कि ये वचन सत्य थे। उसे देहधारी का किया हुआ हर कार्य बहुत अस्पष्ट लगा। सत्य को न समझ पाने के कारण उसने उन्हें समझने के लिए गैर-विश्वासियों के कथनों का प्रयोग किया, और यह सुनकर लोग असहज हो गए और चिढ़ गए। इस व्यक्ति को आध्यात्मिक समझ नहीं थी और ऐसे लोग अभी भी हैं। तो यह मामला किस प्रकार की धारणाओं से संबंधित है? इस व्यक्ति ने देहधारी को नहीं नकारा और न ही मसीह को नकारा; उसने जो हुआ उसे मापने के लिए एक धारणा का प्रयोग किया। उसका मानना था कि मसीह जरूर जानकार और शिक्षित होगा और दूसरे लोगों के बीच होने पर वह उन्हें पूरी तरह से विश्वास दिलाने में समर्थ होगा। भले ही मसीह बहुत शिक्षित न हो, फिर भी परमेश्वर और मसीह बनने के योग्य होने के लिए उसकी काबिलियत, प्रतिभा और क्षमताएँ दूसरों से बेहतर होनी चाहिए, यानी वह कुछ मामलों में दूसरे लोगों से कुछ तरीकों से बेहतर होना चाहिए या कुछ खास ढंग से बाकी लोगों से भिन्न होना चाहिए। वह मानता था कि मसीह तब मसीह हो सकता है जब वह इस योग्य हो। वह नहीं मानता था कि मसीह में मसीह का सार होने पर ही, वह मसीह हो सकता है, और इसीलिए उसने ऐसी बात कही। परमेश्वर में लोगों के विश्वास और उनके जीवन प्रवेश में इस प्रकार की धारणा कौन-सी रुकावटें डालती है? लोग परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण करने और परमेश्वर के देह का विश्लेषण और उसका अध्ययन करने के लिए अपना दिमाग लगाएँगे, और वे यह सोचते हुए हमेशा उसकी जाँच करते रहते हैं “क्या इस व्यक्ति की बात तार्किक है? क्या यह सामान्य सोच के अनुरूप है? क्या यह व्याकरण के नियमों के अनुरूप है? उसने इसे किससे सीखा?” वे परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते, वे सत्य स्वीकारने के दृष्टिकोण से परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते। इसके बजाय, वे विश्लेषण, जाँच और प्रश्न उठाने के लिए अपने दिमाग और ज्ञान का प्रयोग करते हैं। लोग इस व्यक्ति को मापने या उससे पेश आने के लिए चाहे जैसे भी नजरियों या धारणाओं का प्रयोग करें, अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं।) वे निश्चित तौर पर सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं। एक और भी पहलू है जो तुमने नहीं समझा है, और वह यह है कि लोग यह नहीं पता लगा पाते हैं कि वह देहधारी है या नहीं—क्या यह अहम नहीं है? (बिल्कुल।) बहुत-से लोग उसके द्वारा दिए गए धर्मोपदेशों और खोले गए रहस्यों को सुनकर पता लगा लेते हैं कि वह सचमुच परमेश्वर है, उसके वचन सत्य और जीवन हैं, और वे परमेश्वर से आते हैं। हालाँकि यदि लोग हमेशा अपनी धारणाओं से परमेश्वर की जाँच करते हों, और कभी भी उसके वचनों को सत्य के रूप में न स्वीकारते हों, तो अंतिम परिणाम क्या होता है? वे इस व्यक्ति की पहचान और सार और उसके कार्य पर हमेशा सवाल उठाएँगे, यानी वे यह सत्यापित नहीं कर पाएँगे कि वह मनुष्य है या परमेश्वर, यह सोचेंगे कि यह व्यक्ति शायद परमेश्वर का भेजा हुआ कोई संदेशवाहक या कोई नबी है क्योंकि इंसान ऐसी बातें नहीं कह पाते हैं जैसी वह कहता है। कुछ लोग यह स्वीकार नहीं करते कि यह व्यक्ति परमेश्वर है, क्योंकि उनके भीतर बहुत-से प्रतिबंध और जंजीरें और बहुत-सी धारणाएँ होती हैं, जो इस देह से मेल नहीं खाती हैं। जब ये मेल नहीं खातीं, तो ये लोग सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं, और इसलिए वे अटक जाते हैं। जब ऐसे व्यक्ति को तुम उसकी आस्था में प्रयास करने को कहते हो, तो उसके मन में बहुत-सी धारणाएँ पैदा होती हैं जिन्हें वह जाने नहीं दे पाता, और जब तुम उसे जाने को कहते हो, तो वह डर जाता है कि उसे आशीष नहीं मिलेंगे। क्या ऐसे लोग हैं? क्या तुम लोग ऐसे हो? हालाँकि तुम लोगों में से ज्यादातर ने पुष्टि की है कि यह व्यक्ति सचमुच देहधारी परमेश्वर है, मगर वास्तव में तुम 80-90 प्रतिशत ही पुष्टि करते हो, और अभी भी 10-20 प्रतिशत संदेह और प्रश्न हैं। यह कहा जा सकता है कि तुमने मूलतः इसकी पुष्टि की है, और बचे हुए संदेह और प्रश्न उतने महत्वपूर्ण मसले नहीं हैं। इन धारणाओं का समाधान पहुँच के भीतर है, लेकिन यदि ये धारणाएँ और प्रश्न समय रहते दूर नहीं किए जाएँगे तो ये बेहद तकलीफदेह हो सकते हैं। जहाँ तक तुम्हारी धारणाओं का सवाल है, मुझे तुम लोगों से कैसे पेश आना चाहिए ताकि तुम लोग संतुष्ट हो पाओ, सोच पाओ कि यह परमेश्वर का किया हुआ है, और परमेश्वर को लोगों से इसी तरह पेश आना चाहिए? क्या मुझे धीमी आवाज में बोलना चाहिए और फिर तुम्हारे बारे में चिंतित होकर हर मामले में तुम सबकी परवाह करनी चाहिए? यदि किसी दिन मुझे पता चले कि तुममें से कुछ लोगों ने कुछ बेतुका किया है, और फिर मैं तुम लोगों को खरी-खोटी सुना दूँ, तुम्हें उजागर कर सख्ती से तुम सबका न्याय करूँ, और तुम्हारे स्वाभिमान को चोट पहुँचा दूँ, तो क्या तुम लोगों को लगेगा कि मैं परमेश्वर जैसा नहीं हूँ? तुम सब मानते हो कि परमेश्वर अत्यंत सज्जन और विनम्र होगा, अत्यधिक प्रेमपूर्ण होगा, और वह प्रेमपूर्ण दयालुता से सराबोर होगा, तो फिर तुम सबकी धारणाओं और कल्पनाओं वाला परमेश्वर बनने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ? यदि तुम लोग अभी भी परमेश्वर से ऐसी माँगें करते हो, तो तुम विवेकहीन हो, और तुम लोग परमेश्वर को वास्तव में नहीं जानते हो।

देहधारण को लेकर धारणाओं के बारे में मैं तुम सबको एक और बात बताता हूँ। बीस वर्ष पहले, जब मैं चीन में था, तब मैं 20 वर्ष का भी नहीं था, उस उम्र में लोग अपनी बातों और कृत्यों में उतने अनुभवी और परिपक्व नहीं होते; वे कमउम्र लोगों की तरह ही बोलते और पेश आते हैं, और यह सामान्य है। यदि वे बड़ी उम्र के लोगों की तरह बोलते या पेश आते, तो वह सामान्य नहीं होता। किसी भी उम्र के लोगों का अपने उम्र समूह के लोगों जैसा होना सामान्य है। परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया और मनुष्य के लिए एक सामान्य विकास रूपरेखा नियत की। बेशक, देहधारी परमेश्वर स्वयं भी कोई अपवाद नहीं है और वह भी इसी रूपरेखा के अनुसार जीवन जीता और उसका अनुभव करता है। यह रूपरेखा परमेश्वर से आई, और परमेश्वर इसका उल्लंघन नहीं करेगा। इसलिए, 20 वर्ष की आयु का होने से पहले, देहधारी परमेश्वर के कुछ व्यवहार यकीनन कमउम्र लोगों जैसे ही थे। मिसाल के तौर पर, एक बार घर बदलते वक्त, कुछ भाई-बहन जाते समय कुछ पेन और नोटबुक्स पीछे छोड़ गए। मुझे लगा इन्हें खो देना दुख की बात होगी, और फिर भाई-बहनों को नोट्स भी तो लिखने होते हैं, तो मैंने उन्हें पैक कर कुछ बहनों के बीच बाँट दिया। तब किसी ने धारणा बना ली और कहा, “जिसे भी ये चीजें चाहिए वह खुद आकर ले सकता है। तुम बच्चे जैसा बर्ताव कर रहे हो, सबको बाँटते फिर रहे हो!” उसने यही कहा। यह एक अहम मामला है या मामूली? यदि कोई किसी सामान्य व्यक्ति की आलोचना करे कि वह बच्चों जैसा बर्ताव कर रहा है, तो ऐसा करना सामान्य बात होगी, यह एक कथन होगा, और कोई भी उस पर ध्यान नहीं देगा या उसे गंभीरता से नहीं लेगा; कोई भी यह नहीं सोचेगा कि यह कथन कोई धारणा थी या कोई नजरिया, बस उसे जैसा है वैसा ले लेगा। हालाँकि मुझसे ऐसा कहने के पीछे उसका नजरिया क्या था? इसकी प्रकृति क्या थी? उसकी धारणाओं और कल्पनाओं में, भले ही देहधारी परमेश्वर 20 वर्ष का न हुआ हो, फिर भी उसे बड़ी उम्र के व्यक्ति जैसा बर्ताव करना चाहिए, हर दिन गंभीर बैठकर सामने देखते रहना चाहिए, बुद्धिमान, कभी लतीफे न सुनाने वाले या गपशप न करने वाले, विशेष रूप से स्थिर और संयमित, अनुभवी बड़ी उम्र के व्यक्ति जैसा दिखना चाहिए। जैसे ही मैं ऐसा बर्ताव करता या ऐसा कुछ करता जो एक बड़े व्यक्ति के कृत्य के प्रतिकूल होता, जैसे कि कुछ बहनों के बीच पेन और नोटबुक बाँटना, तो कोई न कोई मेरे कार्यों की यह कहकर निंदा करता कि मेरे कृत्य बच्चों जैसे हैं, ये मसीह और उसके मन में बसे परमेश्वर के कार्यों जैसे नहीं हैं, क्योंकि देहधारी परमेश्वर को किसी भी तरह से बच्चे जैसा बर्ताव नहीं करना चाहिए। क्या यह उसका देहधारी परमेश्वर को परिभाषित करना नहीं है? ऐसी परिभाषा एक तरह की निंदा और आलोचना है, या यह एक प्रकार की सराहना और समर्थन है? (यह निंदा और आलोचना है।) यह एक प्रकार की निंदा क्यों है? क्या ऐसा है कि देहधारी परमेश्वर बच्चे जैसा था, यह कहकर वह परमेश्वर को नकार रहा था? उसके ऐसा कहने में गलत क्या था? ऐसी धारणा बनाने के पीछे उसके मन में कौन-सा प्रमुख मुद्दा था? (वह देहधारी की सामान्य मानवता को नकार रहा था, परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता को नकार रहा था। यह ऐसा है जैसा परमेश्वर ने अभी-अभी कहा कि देहधारी बिल्कुल सृजित मानवजाति जैसा है, जिसकी विकास रूपरेखा सामान्य है। लेकिन उस व्यक्ति ने परमेश्वर को विशेष रूप से अलौकिक माना और इसलिए उसने देहधारण को नहीं समझा। इसकी प्रकृति परमेश्वर को नकारना और उसकी निंदा करना है, और यह ईशनिंदा है।) सही है, उसका नकारना ही इस समस्या का सार था। उसने देहधारी परमेश्वर को इस तरह से क्यों नकारा? इसलिए कि उसने अपने दिल में देहधारी परमेश्वर के बारे में एक धारणा पाल रखी थी, वह सोचता था, “तुम परमेश्वर हो, इसलिए तुम सामान्य उम्र बढ़ने के साथ अपनी सामान्य मानवता प्रकट नहीं कर सकते हो। तुम अभी 20 वर्ष के नहीं हो, लेकिन तुम्हें एक 50 वर्ष के बड़े व्यक्ति जितना परिपक्व और अनुभवी होना चाहिए। तुम परमेश्वर हो, इसलिए तुम्हें सामान्य मानवजाति की विकास रूपरेखा का उल्लंघन कर जीना चाहिए। तुम्हें अलौकिक होना चाहिए, तुम्हें दूसरे हर किसी से भिन्न होना चाहिए, तभी तुम वह मसीह और परमेश्वर हो सकोगे जो हमारे मन में है।” उसके मन में यह धारणा थी। और इस धारणा का परिणाम क्या था? यदि यह घटना नहीं हुई होती, तो क्या इस धारणा का खुलासा हुआ होता? कोई नहीं जानता; बात बस इतनी है कि इस मामले से उसका खुलासा हुआ। यदि उसके मन में इस मामले को लेकर कोई धारणा थी, लेकिन उसने सोचा था कि परमेश्वर ने जो किया था, लोग उसे पूरी तरह से नहीं समझ पाए थे और उसने बेपरवाही से नहीं बोला था, तो उसके पास खोजने के लिए स्थान होता और यह क्षमायोग्य होता। लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वे अच्छी तरह से नहीं समझ पाते हैं। हालाँकि लोग इन चीजों को अच्छी तरह नहीं समझते हैं, फिर भी कुछ लोग आलोचना और निंदा करते हैं, जबकि दूसरे लोग बेपरवाही से नहीं बोलते और इसके बजाय प्रतीक्षा कर सत्य खोजते हैं—क्या यहाँ प्रकृति में अंतर नहीं है? (बिल्कुल।) तो अच्छी तरह समझने में इस व्यक्ति की विफलता की प्रकृति क्या थी? वह तुरत निंदा करने पर उतर आया और यह एक गंभीर समस्या थी। एक बार जब लोग धारणाएँ बना लेते हैं, तो देहधारी परमेश्वर को लेकर उनके मन में शक, निंदा और अस्वीकृति पैदा हो जाती है, और यह अत्यंत गंभीर मामला है।

मैंने अभी-अभी देहधारण के बारे में धारणाओं के तीन उदाहरण दिए हैं। ये तीन उदाहरण कुछ मुद्दे दिखाते हैं, और तुम्हें खोजकर पता लगाना चाहिए कि इनमें सत्य क्या है। पहली धारणा क्या है? (लोग महान हस्तियों की अपनी परिभाषाओं का प्रयोग कर देहधारी परमेश्वर को परिसीमित कर देते हैं, यह मानकर कि मानवजाति हेतु एक आदर्श बनने के लिए परमेश्वर को दुख सहने चाहिए।) यह एक धारणा है जो लोगों के मन में होती है। उनकी धारणा यह है कि देहधारी परमेश्वर को ज्यादा दुख सहने चाहिए और मनुष्य के लिए एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए, उसके लिए एक आदर्श होना चाहिए। दूसरी धारणा क्या है? (लोग मानते हैं कि मसीह को साधारण लोगों से अधिक जानकार और शिक्षित होना चाहिए, और तभी वह मसीह है।) बहुत-से लोग अभी भी मानते हैं कि परमेश्वर के कथन और कार्य उसके ज्ञान और गुणों से आते हैं, या फिर उन कुछ चीजों से आते हैं, जिनमें उसे प्रवीणता प्राप्त है या जिन्हें उसने समझा है—यह एक धारणा है। और तीसरी धारणा क्या है? (लोग मानते हैं कि मसीह में सामान्य मानवजाति के कोई भी प्रकाशन नहीं होने चाहिए।) विशेष रूप से कहें तो बात यह है कि देहधारी परमेश्वर को अलौकिक होना चाहिए और उसे दूसरे सभी लोगों से भिन्न होना चाहिए और उसमें अलौकिक क्षमताएँ होनी चाहिए। यदि मसीह हर दृष्टि से साधारण और सामान्य होता, तो परमेश्वर में लोगों की आस्था कमजोर होती, और वे परमेश्वर पर शक करते और उसे नकार भी देते—सभी लोग अलौकिक परमेश्वर से प्रेम करते हैं। मेरा ये कहानियाँ सुनाना क्या तुम लोगों के लिए सत्य समझने में लाभकारी है? (हाँ।) यह लाभकारी होना चाहिए। यदि मैं बिना किसी तथ्यात्मक आधार के सत्य के इस पहलू पर संगति करता, तो शायद तुम सब सोचते कि यह अस्पष्ट है, और तुम नहीं जान पाते कि इसका संदर्भ वास्तव में किससे है। हालाँकि मैंने जो तुम्हें बताए हैं वे कुछ ठोस उदाहरण हैं, और इन्हें सुनने के बाद तुम लोग सोचते हो कि ये व्यावहारिक और समझने में आसान हैं, और इन कहानियों के जरिये तुम कुछ सत्यों को समझ पा रहे हो। लेकिन क्या तुम लोग किन्हीं दूसरी चीजों का सामना होने पर उन्हें मापने और उनके साथ पेश आने के लिए यह सीख पा रहे हो कि सत्य का प्रयोग कैसे करें? यदि तुम सत्य को लागू कर सकते हो, तो इससे यह पता चलता है कि तुम्हें आध्यात्मिक समझ है और तुम इन कहानियों में सत्य समझते हो; यदि नहीं तो तुम लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है और तुम इन कहानियों में सत्य को नहीं समझ पाए हो। यदि इन कहानियों के हालात में तुम उनके सत्य का पता लगा सकते हो, जान सकते हो कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, जान सकते हो कि तुम्हें क्या समझना, विश्लेषण करना और किसमें प्रवेश करना चाहिए, और किन सत्यों को तुम्हें खोजना और हासिल करना चाहिए, तो तुम्हारे पास आध्यात्मिक समझ है; यदि मेरे ये कहानियाँ सुना देने के बाद तुम्हें इन चीजों में बड़ी दिलचस्पी हो जाती है, और तुम उन्हें याद तो रखते हो, पर सत्य को एक तरफ रख देते हो, तो तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है। यदि तुम इन कहानियों के सत्य को सचमुच समझ सकते हो, तो मेरा ये कहानियाँ बताना बेकार नहीं हुआ होगा। अगर इससे तुम लोगों को सत्य समझने में मदद मिल सके, तो मैं तुम्हें कुछ व्यावहारिक उदाहरण दूँगा। समस्या चाहे जो हो, मैं उसका विश्लेषण करूँगा; अगर इससे तुम्हें समझ मिलती है, तुम सत्य समझ पाते हो, और चीजें स्पष्ट रूप से देख पाते हो, तो चाहे जितनी भी कहानियाँ सुनानी हों, मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी। वास्तव में, मैं तुम्हें ये चीजें नहीं बताना चाहता हूँ, और मैं तुम्हें सच में सही और गलत की कहानियाँ नहीं बताना चाहता हूँ, लेकिन अगर ये चीजें सत्य में प्रवेश करने में तुम्हारी मदद करें, तो मैं तुम्हें ये बताऊँगा; अगर इनसे तुम्हें सत्य को समझने में मदद मिले, तो थोड़ा और बोलने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन, यदि तुम लोगों को मेरा लगातार बोलते रहना पसंद न हो, तो मेरे पास कम बोलने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा।

मैंने तुम्हें जो कहानियाँ सुनाई हैं, उनसे किन धारणाओं को दूर करना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें समझना चाहिए कि देहधारी परमेश्वर के मामले में परमेश्वर इस देह की मानवता को मूलतः कैसे परिभाषित करता है? वह साधारण और सामान्य है, और भ्रष्ट मानवजाति के बीच रहकर सामान्य मानवता की सभी गतिविधियों में शामिल हो सकता है, और वह कोई भिन्न प्रकार का नहीं है। वह लोगों की मदद, मार्गदर्शन और अगुआई कर सकता है। उसकी सामान्य मानवता हो या उसकी दिव्यता या उसका व्यक्तित्व—पहलू चाहे जो हो—उसे निश्चित रूप से हाथ में लिया हुआ कार्य और अपनी सेवकाई संभालने में समर्थ होना चाहिए। यही वह मानक है जिससे परमेश्वर मसीह और देहधारण को मापता है; यह उसके कार्य के लिए और उसकी परिभाषा के लिए एक मानक है। जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया, तो अब के देहधारण की तुलना में उसकी मानवता के कुछ अलौकिक पहलू थे। वह चमत्कार कर सकता था : वह अंजीर के वृक्ष को शाप दे सकता था, समुद्र को फटकार सकता था, समुद्र और हवाओं को शांत कर सकता था, बीमारों को ठीक कर सकता था, राक्षसों को निकाल सकता था, और पाँच रोटियों और दो मछलियों से पाँच हजार लोगों को खाना खिला सकता था, इत्यादि। हालाँकि इसके अलावा, उसकी सामान्य मानवता और बुनियादी जरूरतें अत्यंत सामान्य और व्यावहारिक दिखाई देती थीं। ऐसा नहीं है कि वह साढ़े तैंतीस वर्ष का पैदा हुआ था और फिर उसे क्रूस पर चढ़ा दिया गया। एक-एक दिन, एक-एक वर्ष, एक-एक मिनट, एक-एक सेकंड जीते हुए वह साढ़े तैंतीस वर्ष की उम्र तक जीवित रहा, जब तक कि आखिरकार उसे क्रूस पर नहीं चढ़ा दिया गया जिससे उसने मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा किया। इस संसार में साढ़े तैंतीस वर्ष जीने के बाद ही देहधारी ने यह कार्य पूरा किया—क्या यह व्यावहारिक नहीं है? (जरूर है।) यह व्यावहारिक है। परमेश्वर द्वारा अब किए जा रहे कार्य के चरण की बात करें, तो वह तुम सबको जो भी बताता है और जिन भी सत्यों पर तुम्हारे साथ संगति करता है, वे तुम्हारे आध्यात्मिक कद, जीवन में तुम्हारे विकास के स्तर और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित संपूर्ण परिवेश पर आधारित होते हैं, और इसलिए मैं सोच-विचार करता हूँ कि कौन-से सत्य तुम्हारे साथ संगति के लिए सबसे अधिक उपयुक्त होंगे और वे कौन-से सत्य हैं जो मैं चाहता हूँ कि तुम समझो। बाहर से, ऐसा लगता है मानो यह देह इन चीजों पर चिंतन कर रहा है, जबकि असल में साथ-ही-साथ परमेश्वर का आत्मा कार्य कर रहा है; जब यह व्यक्ति समन्वय करता है, तब परमेश्वर का आत्मा इस सबका मार्गदर्शन करता है। यदि तुम इस पर इस तरह से गौर करो, तो तुम इस देह के सार या उसकी पहचान पर संदेह नहीं करोगे—तुम इन चीजों पर कभी सवाल नहीं उठाओगे। मैं तुम लोगों के साथ जो चीजें करता हूँ और तुम लोगों से जो अपेक्षाएँ रखता हूँ, वे कभी भी परमेश्वर के आत्मा की संपूर्ण प्रबंधन योजना के प्रतिकूल नहीं हो सकते। वे साथ-साथ आगे बढ़ते हैं, एक ही दिशा में चलते हैं, और एक-दूसरे को सहारा देते हैं। यदि परमेश्वर के आत्मा ने यह देह धारण न किया होता, तो वह तुमसे आमने-सामने बात न कर पाता, तुम उसकी बातें न सुन पाते, और तुम नहीं समझ पाते कि वह तुमसे क्या अपेक्षाएँ रखता है। हालाँकि यदि केवल यह देह ही होता और परमेश्वर का आत्मा उसके भीतर न रहा होता, तो क्या यह देह कोई भी कार्य कर पाता? यकीनन नहीं कर पाता। यदि परमेश्वर देहधारी न हुआ होता, तो कोई भी इंसान इस कार्य का बीड़ा न उठा पाता। इसलिए, इस सामान्य देह को प्रति दिन, प्रति माह, और प्रति वर्ष जीना होगा, पल-दर-पल इसी प्रकार जीवन जीना होगा, परमेश्वर की मानवता निरंतर परिपक्व होते हुए, उसका अनुभव सदा बढ़ते हुए, और साथ ही परमेश्वर की प्रबंधन योजना द्वारा अपेक्षित कार्य का बीड़ा उठाने की निरंतर कोशिश करते हुए। कार्य के इस चरण के निर्वहन में, मैं 20 वर्ष से भी कम उम्र में ही कलीसिया में कार्य करने लगा था, और भाई-बहनों के संपर्क में आया था। मैंने सभाओं में भाग लेना, संगति करना और कलीसियाओं के बीच आना-जाना शुरू कर दिया, और मैं तरह-तरह के लोगों के संपर्क में आया। उस वक्त से अब तक, मुझे लगता है कि मेरी भाषाई काबिलियत और लोगों और चीजों को देखने की मेरी काबिलियत लगातार बढ़ती रही है। मेरी काबिलियत की यह बढ़त तुम सबके हालात से भिन्न कैसे है? तुम लोगों को मेरे बोले गए वचनों और मेरे द्वारा संगति किए गए सत्यों के जरिये अनुभव करना चाहिए, और अनुभव बढ़ने के साथ तुम धीरे-धीरे सुनिश्चित हो जाओगे कि मैं जो वचन बोलता हूँ वे परमेश्वर से आए हैं, वे सत्य हैं, सही हैं, और ऐसे वचन हैं जो तुम लोगों को स्वभावगत परिवर्तन प्राप्त कर उद्धार पाने योग्य बना सकते हैं। अपनी बात कहूँ, तो जब तुम लोग तरक्की कर रहे होते हो, तब मैं और ज्यादा गहरा होता जाता हूँ। तुम लोगों के बारे में मेरी समझ तो लगातार बढ़ ही रही है, मैं लगातार वे चीजें भी तैयार कर रहा हूँ जो मैं कदम-दर-कदम तुम्हारा पोषण कर पाने के लिए कहना चाहता हूँ। कुछ लोग कहते हैं, “तुम हमारी जरूरतों का पोषण देना चाहते हो, हमारा आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ाना चाहते हो, हमें परिवर्तित होने और उद्धार के पथ पर ज्यादा-से-ज्यादा प्रगति करने के योग्य बनाना चाहते हो, और चाहते हो कि परमेश्वर से हमारा हमेशा से ज्यादा करीबी रिश्ता बने, तो तुम यह कैसे करोगे?” तुम्हें इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैं कभी कोई चीज नहीं माँगता, न ही मुझे उपवास रखने या प्रार्थना करने, या कोई भी चीज माँगने की जरूरत है जैसे कि वर्षा के लिए प्रार्थना करना, ताकि परमेश्वर जल्द-से-जल्द मुझे कुछ वचन दे दे जिनसे मैं तुम लोगों का पोषण कर सकूँ। मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है। चूँकि यह देह स्वयं परमेश्वर है, और वह यह सेवकाई करता है, इसलिए वह लोगों को पोषण देने के लिए सत्य व्यक्त करता है—परमेश्वर के देहधारी शरीर और भ्रष्ट मानवजाति के बीच यही अंतर है। इसलिए तुम लोगों को जो चाहिए उसे समझने पर ध्यान देने की मुझे जरूरत नहीं है; फिर भी मैं तुम लोगों को जो पोषण देना चाहता हूँ और तुम्हारे साथ जो संगति करना चाहता हूँ, वह यकीनन वही है जिसकी तुम लोगों को जरूरत है। तुम लोगों को मेरे वचनों और कार्य के मद्देनजर बस आगे बढ़ने की जरूरत है, और तुम लोगों की दशा सुधरने लगेगी, और इसके साथ-साथ तुम्हारे जीवन में भी और ज्यादा-से-ज्यादा तरक्की होगी। साथ ही, जब मैं तुम्हारा सिंचन करूँगा, तब परमेश्वर का आत्मा साथ ही साथ अपना कार्य करेगा। असल में, परमेश्वर का आत्मा ही उसकी मानवता के साथ सहयोग करता है, और उसकी मानवता उसकी दिव्यता के साथ सहयोग करती है—वे सब एक ही समय पर काम करते हैं। मैं यहाँ तुम लोगों का सिंचन कर रहा हूँ, और परमेश्वर का आत्मा तुम लोगों के बीच है, कार्य कर रहा है, प्रबुद्ध और प्रकाशित कर रहा है, और तुम लोगों के लिए स्थितियाँ बना और हालात तैयार कर रहा है, ताकि तुम लोग विभिन्न सत्यों में प्रवेश कर सको। उसकी मानवता और दिव्यता इस तरह एक साथ कार्य करती हैं। तो क्या ऐसा कोई इंसान है जो देह और आत्मा के बीच यह समन्वय प्राप्त कर सके? बिल्कुल नहीं। इसलिए, यदि तुम परमेश्वर के संपूर्ण प्रबंधन को जानने की कोशिश न करो, और सत्य के इस पहलू से देह के साथ पेश न आओ, तो तुम कभी भी समझ नहीं पाओगे कि इस देह का वास्तविक सार क्या है, यह देह किसके बारे में है, और वह ठीक किस तरह से कार्य करता है। यदि तुम ये चीजें न समझ पाओ, तो तुम कभी भी सुनिश्चित नहीं हो पाओगे कि वह इंसान है या परमेश्वर। हालाँकि यदि तुम इस स्तर को स्पष्ट रूप में देख सको, या अपने अनुभव में इस स्तर तक पहुँच सको, और इसे समझ सको, तो फिर तुम जान लोगे कि परमेश्वर के देह—मसीह—के धरती पर कार्य करते समय, पवित्र आत्मा उसके साथ ही साथ वही कार्य करता है, और यह ऐसी चीज है जो पूरी मानवजाति में कोई भी हासिल नहीं कर सकता है। और आत्मा के कार्य करते समय, उसके कार्य के साथ-साथ देह कार्य करता है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं, संगत हैं, और कभी भी एक-दूसरे के प्रतिकूल नहीं होते। कुछ लोग कहते हैं, “कभी-कभी जब मैं परीक्षणों का सामना करता हूँ, तब पवित्र आत्मा मुझे सबक सीखने के लिए प्रबुद्ध करता है। मगर तुम दूसरे सत्य व्यक्त करते हो। यह सब क्या है?” इसमें कोई विरोधाभास या विरोध नहीं है। मसीह धीरे-धीरे और उपयुक्त क्रम में सत्य व्यक्त करता है, जबकि पवित्र आत्मा सभी के अनुभवों में विभिन्न सीमाओं तक उनकी अगुआई करता है—सबके लिए एक ही ढाँचा है, ऐसा कोई नजरिया नहीं है। मसीह उन अहम मसलों के आधार पर सत्य पर संगति करने के द्वारा उपदेश देता है जिनका सामना वास्तव में परमेश्वर के चुने हुए लोग करते हैं, और पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन भी हर व्यक्ति के अपने हालात पर आधारित होता है। इसमें कोई विरोधाभास या विवाद नहीं है। अलग-अलग समय और अलग-अलग चरणों में लोगों का आध्यात्मिक कद भिन्न-भिन्न होता है, जबकि परमेश्वर द्वारा किया गया पूरा कार्य उसके द्वारा व्यक्त सत्य में है, यानी सत्य, मार्ग और जीवन जैसा कि परमेश्वर द्वारा कहा गया है। उसका कार्य इस दायरे से परे नहीं जाता—यह सब सत्य है। पवित्र आत्मा जिन सत्यों से तुम्हें प्रबुद्ध करता है, और समझने के लिए तुम्हें जो रोशनी देता है, वे किस पर आधारित होते हैं? ये इन सत्यों पर आधारित होते हैं जिन्हें मसीह अब व्यक्त करता है, यानी, सत्य, मार्ग और जीवन जिनके बारे में वह अब तुम्हें समझने देता है। कुछ लोग कहते हैं, “हमें देह रूप में तुम्हारी जरूरत नहीं है। हमें प्रबुद्ध करने और हमारे मार्गदर्शन के लिए हमारे पास पवित्र आत्मा का होना काफी है। तुम्हारे बिना भी हमें वैसी ही नई प्रबुद्धता और रोशनी मिल सकेगी, हम नए युग में वैसे ही प्रवेश कर सकेंगे, और हम वैसे ही उद्धार प्राप्त कर सकेंगे।” क्या ऐसा कहना तर्कसंगत है? (नहीं।) धार्मिक लोगों ने दो हजार वर्षों से यीशु में विश्वास रखा है, और पवित्र आत्मा ने दो हजार वर्ष तक उनका मार्गदर्शन किया है, पर उन्होंने क्या पाया है? सिर्फ छुटकारे का सुसमाचार, और उन्होंने परमेश्वर के अत्यधिक अनुग्रह का आनंद लिया है, फिर भी वे परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में व्यक्त ये सत्य प्राप्त नहीं कर पाए हैं। इसलिए, यदि अंत के दिनों में परमेश्वर का देहधारी शरीर इतने सारे सत्य व्यक्त करते हुए यहाँ मौजूद न होता, तो तुम लोग क्या हासिल कर पाते? तुम बस उन्हीं धार्मिक लोगों जैसे ही होते, पवित्र आत्मा से अत्यधिक प्रबुद्धता और अत्यंत अनुग्रह प्राप्त करते, या फिर परमेश्वर तुम्हें चुनकर तुम्हारा उपयोग करता और तुम एक नबी या एक प्रेरित बन जाते, लेकिन यदि तुम अंत के दिनों के परमेश्वर के देहधारण द्वारा व्यक्त ये सत्य स्वीकार नहीं करते हो, तो तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं होगा जिससे कि तुम पूर्ण बनाए जा सको, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सको, या परमेश्वर की स्वीकृति पा सको।

तुम लोग अब देहधारण को स्वीकार करने में समर्थ हो, मगर तुम लोगों के मन में देहधारण के सार को लेकर अभी भी कुछ धारणाएँ हैं, और तुम कभी इसे लेकर सुनिश्चित नहीं होते कि देहधारण ही व्यावहारिक परमेश्वर है। यदि अभी मैं तुम लोगों से बातें कर रहा होता और तुम्हें पता चलता कि मैं बाहरी दुनिया की भी कुछ चीजें नहीं समझता हूँ, तो क्या तुम धारणाएँ बना लोगे? कुछ लोग इससे उबर नहीं पाएँगे, और सोचेंगे, “तुम इसे भी नहीं समझते हो। ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम देहधारी परमेश्वर हो, तो तुम्हें सब-कुछ समझना चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिसे तुम नहीं जानते, या जो तुम कर नहीं सकते। भले ही तुम एक साथ हर जगह नहीं रह सकते हो, फिर भी तुम्हें सब-कुछ जानना चाहिए!” क्या यह वह धारणा नहीं है जो लोगों के मन में है? (बिल्कुल।) यह भी एक धारणा है। देहधारण की सामान्य मानवता के पीछे की संकल्पना क्या है? वह यह है कि देहधारी के सोचने के तरीके में सामान्य इंसानी तर्क है—यह अलौकिक नहीं है, यह अस्पष्ट नहीं है, और यह खोखला नहीं है। अध्ययन कर जिस चीज तक सामान्य मानवता की सोच से पहुँचा जा सकता है, उसे वह प्राप्त कर सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह ऐसी चीजों के बारे में उस व्यक्ति से ज्यादा जाने जिसे इसमें विशेषज्ञता हासिल है, और यह सामान्य है। इसके अलावा, वह सामान्य मानवता के तर्क और सोच के अनुसार बोलता और कार्य करता है, अलौकिक ढंग से नहीं। मिसाल के तौर पर, सामान्य मानवजाति की सोच कदम-दर-कदम आगे बढ़ती है, और देहधारी भी इसी तरह सोचता है। उसकी सामान्य मानवता ऐसी क्यों है? क्या यह उचित है? (हाँ।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह उचित है? कोई सामान्य व्यक्ति सीढ़ियाँ चढ़ते समय एक बार में कितने पायदान चढ़ता है? (एक।) एक कदम पर एक पायदान; सीढ़ियाँ चढ़ने का यही सामान्य तरीका है। यदि मैं एक कदम पर कई पायदान चढ़ कर तुरंत घर के अंदर प्रवेश कर जाता, तो क्या तुम लोग यह कर पाते? (नहीं।) नहीं, तुम लोग नहीं कर पाते। और अगर मैं जोर दे कर कहूँ कि तुम्हें यह करना ही है, तो तुम लोग क्या करोगे? क्या तुम यह कर पाओगे? (नहीं।) नहीं, तुम लोग नहीं कर पाओगे। यह उन लोगों की जरूरतों पर आधारित होता है जो इस कार्य का लक्ष्य हैं। मैं सत्य पर इस प्रकार संगति करता हूँ, एक विषय और एक मुख्य मुद्दा लेता हूँ, और फिर विशिष्ट रूप से और पूरी तरह बोलने में अपनी पूरी क्षमता लगा देता हूँ, कहानियाँ सुनाता हूँ, उदाहरण देता हूँ, बार-बार बातें दोहराता हूँ, फिर भी इस तरह बोलने पर भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो नहीं समझते हैं और मुख्य बात ही नहीं समझते। इसलिए यदि मैं इतने विस्तार से न बोलूँ और सभी चीजों को अत्यंत गूढ़ और सामान्य ढंग से न समझाऊँ, तो तुम लोग कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे, या समझ नहीं पाओगे, और यह कार्य खोखला और अव्यावहारिक होगा। तुम लोग एक कदम पर एक पायदान चढ़ कर आगे बढ़ सकते हो, इसलिए मैं भी एक कदम पर एक पायदान चढ़ कर तुम्हें आगे बढ़ाऊँगा, और इस तरह से तुम लोग मेरे कदम से कदम मिला सकोगे। यदि मैं एक कदम में चार पायदान चढ़ जाऊँ, तो नतीजा क्या होगा? तुम लोग कभी भी मेरे कदम से कदम नहीं मिला पाओगे। यदि मेरी सोच उन्नत होती, मैं कूदते-फांदते हुए आगे बढ़ पाता और तुम लोग वहाँ नहीं पहुँच पाते, तो देहधारण निरर्थक हो जाता। इसलिए यह देह चाहे जितना भी सामान्य और व्यावहारिक क्यों न हो—ऐसा लग सकता है कि उसमें परमेश्वर के आत्मा की काबिलियतें नहीं हैं—ये सब मानवजाति की जरूरतों के कारण है। चूँकि फिलहाल परमेश्वर द्वारा पोषित होने वाले लोग वे हैं जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं, जो कोई सत्य नहीं समझते, और जिनमें सत्य समझने की काबिलियत नहीं है, इसलिए देहधारी होने पर उसके पास सामान्य मानवता की सबसे बुनियादी सोच होनी चाहिए। यह सबसे बुनियादी सोच क्या है? वह यह है कि जब वह बोले, तो औसत काबिलियत वाले, यहाँ तक कि थोड़ी कम काबिलियत वाले लोग भी उसे समझ सकें। अगर उनकी सोच सामान्य हो, तो सभी लोग उसकी कही और बताई हुई चीज को समझ सकेंगे, उसके द्वारा उपदेशित सत्यों को समझ सकेंगे, और फिर सत्य को स्वीकार सकेंगे। केवल इसी प्रकार से परमेश्वर के किए हुए कार्य का प्रत्येक कदम और उसके बोले हुए सभी वचनों का प्रभाव पड़ सकेगा और नतीजे दिखाई दे सकेंगे। क्या यह वास्तविक नहीं है? (बिल्कुल।) तो यदि लोग धारणाओं से चिपके रहें और यह कह कर उन्हें जाने न दें, “पहले, कुछ सम्राटों को असाधारण स्मरण शक्ति का गुण प्राप्त था, और वे एक ही नजर में दस पंक्तियाँ पढ़ सकते थे। क्या परमेश्वर को ऐसा नहीं होना चाहिए? यदि तुम्हारे पास ये गुण नहीं हैं, तो हम तुम्हारा अनुसरण नहीं कर पाएँगे, क्योंकि तुम अत्यंत साधारण हो। बढ़िया होगा यदि तुम एक बड़ी हस्ती जैसे लगो,” इससे तुम क्या समझ सकते हो? लोग शैतान द्वारा इस बिंदु तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं, जहाँ वे इतने ज्यादा अज्ञानी हैं कि सुधार से परे हैं। थोड़ी-सी सामान्य इंसानी सोच और काबिलियत होने, और परमेश्वर के उन्हें चुनने और उन पर कार्य करने के कारण, लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का थोड़ा मन होता है और वे थोड़ा जमीर और विवेक रख पाते हैं—इसके अलावा वे कुछ भी नहीं समझते। न केवल वे कोई भी सत्य नहीं समझते, बल्कि वे यह भी नहीं समझते कि सामान्य मानवता क्या है, भ्रष्ट स्वभाव क्या हैं, धारणाएँ और कल्पनाएँ कैसे पैदा होती हैं, उन्हें कैसे दूर करना चाहिए, लोगों को परमेश्वर से कैसे पेश आना चाहिए, या कम-से-कम उनके पास कैसा जमीर और विवेक होना चाहिए, इत्यादि। परमेश्वर चाहे जितनी भी आसानी से समझी जाने वाली भाषा का प्रयोग करे, लोग ठीक से समझ नहीं पाते और बस सतही ढंग से ही समझ पाते हैं। मुझे बताओ, कुछ भी न समझने वाले, परमेश्वर का विरोध करने वाले भ्रष्ट लोगों के समूह का सामना होने पर, देहधारी परमेश्वर में किस प्रकार का सार, कैसी मानवता और कैसी सामान्य इंसानी सोच होनी चाहिए, ताकि वह परमेश्वर के समक्ष ऐसे लोगों को ले जा सके? मुझे बताओ, परमेश्वर को क्या करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है न? लोगों को जीतने के लिए वह अनेक संकेत और चमत्कार क्यों नहीं दिखाता?” यह एक धारणा है जो ज्यादातर लोगों के मन में है। वे यह सवाल नहीं उठाते कि क्या संकेत और चमत्कार दिखाकर और अलौकिक उपायों से भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा कर उन्हें दूर किया जा सकता है। क्या लोगों के मन में अलौकिक साधनों से सत्य गढ़ा जा सकता है? क्या यह शैतान को आश्वस्त करेगा? (नहीं।) तुम लोगों का फिलहाल “नहीं” कहना शायद एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत है, लेकिन किसी दिन-विशेष तक अनुभव करने के बाद तुम लोग जान जाओगे कि लोग कितने संवेदनाहीन और मंदबुद्धि हैं, कितने विद्रोही और दुराग्रही हैं, आखिर कितने दुष्ट हैं, और वे सत्य से कितना प्रेम नहीं करते हैं। किसी दिन-विशेष तक अनुभव कर लेने के बाद, तुम लोग समझ जाओगे कि परमेश्वर का देहधारी शरीर, सामान्य मानवता का यह देह, वह है जिसकी संपूर्ण मानवता को जरूरत है। इसलिए, यदि तुम्हारे मन में अभी भी तरह-तरह की कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, तो तुम्हारा ऐसा करना एक गैर-जिम्मेदार रवैया है और परमेश्वर के लिए यह ईशनिंदा है; यह मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे को नकारना और उस पर सवाल उठाना है। यदि तुम सोचते हो, “हमारे पास ज्ञान, शिक्षा और दिमाग है। हम अंत के दिनों में पैदा हुए हैं, और हममें से कुछ लोगों ने संसार में उच्च शिक्षा प्राप्त की है, और हमारी कुछ विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमियाँ है। हम आधुनिक, शिक्षित लोग हैं, और ऐसे अत्यंत साधारण और सामान्य मसीह को, जिसे सब लोग नीची नजर से देखते हैं, नकारने के हमारे पास कारण हैं; हमारे पास तुम्हारे बारे में धारणाएँ बनाने के कारण हैं,” तो फिर यह कैसी समस्या है? यह विद्रोहशीलता है और अच्छे-बुरे में फर्क नहीं जानना है! धारणाएँ पैदा होने के बाद लोग उन्हें दूर कर सकते हैं, लेकिन उनके दूर हो जाने के बाद भी यदि लोग जिद पकड़ कर परमेश्वर के देहधारण या मसीह के सामान्य मानवता वाले पक्ष को स्वीकार करने से मना करते हैं, तो फिर इससे उन्हें तकलीफ होगी और यह उन्हें उद्धार प्राप्त करने से रोकेगी। जब तुम किसी दिन-विशेष तक अनुभव कर लोगे, तो तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर का देहधारण जितना सामान्य होता है, उसकी मानवता जितनी सामान्य होती है, उसका स्वरूप और जो वो प्रकट करता है, जितना सामान्य होता है, उतना ही ज्यादा हमारा उद्धार होता है, और ये चीजें जितनी अधिक सामान्य होती हैं, उतनी ही हमारी जरूरत के अनुरूप होती हैं। अगर परमेश्वर का देहधारण अलौकिक होता, तो धरती पर जीने वाले लोगों में किसी को भी उद्धार प्राप्त न होता। परमेश्वर की दीनता और अप्रत्यक्षता के कारण ही, देखने में असाधारण लगने वाले परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता के कारण ही, इंसान को उद्धार का अवसर मिलता है। चूँकि लोगों में विद्रोहशीलता, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव और भ्रष्ट सार है, इसलिए परमेश्वर के प्रति तरह-तरह की धारणाएँ, गलतफहमियाँ और विरोध पैदा होते हैं; यही कारण है कि इन धारणाओं के परिणामस्वरूप लोग अक्सर घमंड और आत्म-विश्वास से इस मसीह को अस्वीकार करते हैं और उसकी सामान्य मानवता को नकारते हैं—यह एक बड़ी गलती है। अगर तुम संपूर्ण उद्धार पाना चाहते हो, यदि तुम परमेश्वर का उद्धार पाना चाहते हो, उसका न्याय और उसकी ताड़ना पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपनी विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं और मसीह की सामान्य मानवता के बारे में भ्रामक परिभाषाओं को भुला देना होगा, तुम्हें मसीह के बारे में अपने विभिन्न नजरियों और रायों को अलग रखना होगा और परमेश्वर से आने वाली हर बात को स्वीकार करने के तरीके पर विचार करना होगा। केवल तभी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन और उसके द्वारा व्यक्त किए गए सत्य धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय में प्रवेश कर पाएँगे और तुम्हारा जीवन बन पाएँगे। यदि तुम उसका अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हें उसकी हर चीज को स्वीकार करना चाहिए; उसका आत्मा हो, उसके वचन हों, या उसका देह, तुम्हें सब-कुछ स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि तुमने उसे सचमुच स्वीकार कर लिया है, तो तुम्हें उसके विरोध में खड़ा नहीं होना चाहिए, हमेशा उसे गलत नहीं समझना चाहिए, अपनी धारणाओं के भरोसे रहकर उसके प्रति विद्रोही नहीं होना चाहिए, अपनी धारणाओं से चिपके तो रहना ही नहीं चाहिए, हमेशा उस पर शक नहीं करना चाहिए, और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण और प्रतिरोधी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार का रवैया सिर्फ तुम्हें हानि पहुँचाएगा, और यह तुम्हारे लिए बिल्कुल भी लाभकारी नहीं है। क्या तुम मेरी बात मान सकते हो? (हाँ।) अच्छी बात है, तो चलो जल्दी करो, और अपनी धारणाएँ दूर करने के लिए सत्य को खोजो। यह मसला भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ा हुआ है, और यदि तुम इसे नहीं सुलझाते हो, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों के कारण अपनी जान देनी पड़ेगी।

अब, जब उस रूप की बात आती है, जिसमें परमेश्वर अंत के दिनों में अपना कार्य करता है, तो इस तथ्य के बावजूद कि कुछ लोग इस बारे में कुछ खास कल्पनाएँ और धारणाएँ पैदा करते हैं, ये कल्पनाएँ और धारणाएँ ज्यादातर परमेश्वर में उनकी आस्था में रुकावट बनने में नाकाबिल होती हैं, और लोग यूँ ही नहीं कह देंगे कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते या फिर वे परमेश्वर को नकारते हैं। यह घटना क्या है? यह परमेश्वर के वचनों द्वारा प्राप्त परिणाम है। परमेश्वर के वचनों और कार्य ने लोगों को जीत लिया है, और वे मूल रूप से मसीह को अपने परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। इस अर्थ में, लोगों ने बुनियादी तौर पर सच्चे मार्ग पर नींव बना ली है, और वे इस बारे में सुनिश्चित हैं, इस बारे में आश्वस्त हैं। यह परिणाम प्राप्त हो जाने पर, क्या परमेश्वर के बारे में लोगों की गलतफहमियाँ दूर हो जाती हैं? (नहीं, दूर नहीं होतीं।) उनकी गलतफहमियों के दूर न होने से यह साबित होता है कि उनके मन में परमेश्वर के देहधारी रूप और मसीह को लेकर अभी भी अनेक कल्पनाएँ, अपेक्षाएँ और धारणाएँ हैं। ये धारणाएँ तुम्हारे विचारों का मार्गदर्शन कर सकती हैं, तुम्हारे अनुसरण को दिशा और लक्ष्य दिखा सकती हैं, और ये अक्सर तुम्हारी दशा को भी प्रभावित कर सकती हैं। जब वे मामले जिनसे तुम्हारा सामना होता है, वे तुम्हारी धारणाओं को नहीं छेड़ते हैं, तो तुम अभी भी परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकते हो, और अपना कर्तव्य सामान्य ढंग से निभा पाते हो। जैसे ही किसी चीज का तुम्हारी धारणाओं से टकराव होता है, यह तुम्हारी धारणाओं से परे हो जाती है, और विरोधाभास पैदा हो जाते हैं, तो तुम उन्हें कैसे दूर करते हो? क्या तुम अपनी धारणाओं को खुला छोड़ देते हो, या तुम उनकी काट-छाँट करते हो, उन्हें सीमित करते हो, और उनके खिलाफ विद्रोह करते हो? कुछ लोगों के मन में कुछ घट जाने पर धारणाएँ पैदा होती हैं, और फिर वे न सिर्फ अपनी धारणाओं को जाने नहीं देते, बल्कि वे जाकर दूसरों के बीच अपनी धारणाओं को फैलाते भी हैं, और उन्हें बताने के मौके ढूँढ़ते हैं, ताकि दूसरे लोग भी धारणाएँ बना लें। कुछ लोग यह कहकर बहस भी करते हैं, “तुम सब कहते हो कि परमेश्वर का किया सब-कुछ सार्थक है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस घटना-विशेष का कोई अर्थ है।” क्या ऐसा कहना उपयुक्त है? (नहीं।) वह सही पथ कौन-सा है जिस पर चलना चाहिए? जब कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हों, तो उन्हें एहसास हो सकता है कि परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता सामान्य नहीं है, उन्होंने परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पाल ली हैं, और दूर न करने पर ये बहुत खतरनाक हो जाएँगी, और वे परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं, परमेश्वर पर सवाल उठा सकते हैं, और परमेश्वर को धोखा भी दे सकते हैं। फिर वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और अपनी धारणाएँ छोड़ देते हैं। सबसे पहले वे अपने गलत नजरिये को नकारते हैं, फिर वे उसे दूर करने के लिए सत्य खोजते हैं। यह करके वे आसानी से परमेश्वर को समर्पित हो सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति धारणाएँ बना लेता है, लेकिन फिर भी मानता है कि वह सही है, और अगर वह आखिरकार अपनी धारणाओं को पूरी तरह जाने न दे पाए या उन्हें दूर न कर पाए, तो समय के साथ ये धारणाएँ उसके जीवन प्रवेश पर प्रभाव डालेंगी। गंभीर मामलों में, वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह भी कर सकता है, और उसका प्रतिरोध कर सकता है, और इसका परिणाम ऐसा होगा जिसके बार में सोचना मुश्किल है। यदि यह वह व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है, जो कुछ सत्यों को पहले ही समझता है, और जो कभी-कभार चीजों के बारे में धारणाएँ बना लेता है, तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं है, और उसकी धारणाओं का उस पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। चूँकि उसके भीतर सत्य है जो उसके विचारों और व्यवहार को निर्देशित करता है, और उसके कर्तव्य निर्वहन में उसका मार्गदर्शन करता है, इसलिए उसकी धारणाओं का परमेश्वर के उसके अनुसरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। शायद किसी दिन वह कोई धर्मोपदेश या कोई संगति सुनेगा, और समझ जाएगा और फिर उसकी धारणाएँ दूर हो जाएँगी। कुछ लोग परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं, और बाद में कर्तव्य करने का उनका मन नहीं होता, और वे उन्हें निभाने के लिए मेहनत नहीं करते हैं, हमेशा नकारात्मक स्थिति में होते हैं, उनके दिलों में टकराव, असंतोष और रोष होता है—क्या यह व्यवहार सही है? क्या इस चीज को दूर करना आसान है? मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम खुद को चालाक मानते हो, मगर मैं कहता हूँ कि तुम मूर्ख हो, तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है। यह सुनकर तुम नाराज हो जाते हो, इससे तुम्हारा टकराव होता है, और तुम मन-ही-मन कहते हो, “कभी किसी ने मुझसे यह कहने की हिम्मत नहीं की कि मुझमें आध्यात्मिक समझ नहीं है। आज पहली बार मैंने यह सुना है, और मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। आध्यात्मिक समझ न होने पर क्या मैं कलीसिया की अगुआई कर सकता था? क्या मैं इतना ज्यादा काम कर सकता था?” एक विरोधाभास आ गया है, है न? तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसा होने पर क्या लोगों के लिए आत्मचिंतन करना आसान होता है? किस प्रकार का व्यक्ति आत्मचिंतन कर सकता है? ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकार कर उसे खोजता है, वही आत्मचिंतन कर सकता है। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें विवेक है, तो तुम्हें ऐसा होने पर पहले खुद को नकारना चाहिए; खुद को नकारने का अर्थ यह स्वीकारना है कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है। भले ही तुम्हारे पास कुछ विचार और नजरिये हों, वे अनिवार्यतः सही नहीं होते। इसलिए ऐसे हालात में खुद को नकारने का अभ्यास करना ही सही चीज है, यह खुद को नीचे गिराना नहीं है। खुद को नकारने के बाद तुम्हारे दिल में सुकून महसूस होगा, तुम्हारा व्यवहार बहुत अच्छा हो जाएगा, और तुम्हारे रवैये में सुधार होगा। जब तुम परमेश्वर को यह कहते हुए सुनते हो कि तुम मूर्ख हो, और तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो तुम्हें परमेश्वर के समक्ष शांत होकर एक आज्ञाकारी मानसिकता के साथ परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए। भले ही तुम्हें अभी परमेश्वर के वचनों के प्रति कोई चेतना या समझ नहीं है, और तुम नहीं जानते हो कि वे सही हैं या गलत, फिर भी अपने विश्वास में तुम्हें यह मानना चाहिए : “परमेश्वर सत्य है, तो परमेश्वर कोई गलत बात कैसे कह सकता है?” हालाँकि परमेश्वर ने जो कहा वह तुम्हारी सोच से भिन्न है, फिर भी तुम्हें आस्था के आधार पर परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए; भले ही तुम उन्हें न समझो, फिर भी तुम्हें इन वचनों को सत्य के रूप में स्वीकारना चाहिए। इस बात की गारंटी है कि ऐसा करना सही है। यदि लोग परमेश्वर के वचनों को न समझ पाने के कारण उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, तो यह विवेकहीनता है, और इस मामले में इन लोगों को शर्मिंदा किया जाना चाहिए। तो परमेश्वर के प्रति समर्पित होना कभी भी गलत नहीं हो सकता है। यह धर्म-सिद्धांत नहीं है, यह व्यावहारिक है, और ये वचन अनुभव से आते हैं। फिर परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में लेकर स्वीकार कर पाने के बाद, तुम्हें आत्मचिंतन शुरू कर देना चाहिए। कर्तव्य निर्वहन और दूसरों के साथ बातचीत के जरिये तुम्हें यह पता चल जाएगा कि न सिर्फ तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है, बल्कि तुम बेहद मूर्ख भी हो और तुममें बहुत-सी खामियाँ और कमियाँ हैं, और तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे साथ एक गंभीर समस्या है। क्या इसका यह अर्थ नहीं होगा कि तुम परमेश्वर की बात को समझ कर उसे स्वीकार कर पाओगे? तुम्हें इन वचनों को स्वीकार कर लेना चाहिए, पहले एक विनियम, एक परिभाषा या एक संकल्पना के रूप में, और फिर वास्तविक जीवन में तुम्हें उसके वचनों से अपनी तुलना करने और उन्हें समझने और अनुभव करने का कोई तरीका सोचना चाहिए। ऐसा करने के कुछ समय बाद, तुम्हारे पास अपने बारे में एक सही आकलन होगा। ऐसा होने के बाद, क्या अभी भी तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ होंगी? क्या तुम अभी भी परमेश्वर और अपने बीच इस मामले में कोई असहमति न होने पर परमेश्वर द्वारा किए गए तुम्हारे आकलन को स्वीकारने से मना करोगे? (नहीं।) तुम उसे स्वीकार कर पाओगे और अब विद्रोही नहीं रहोगे। सत्य को स्वीकार कर सकने और इन चीजों को अच्छी तरह समझ लेने के बाद तुम कदम आगे बढ़ाकर तरक्की कर पाओगे। यदि तुम सत्य स्वीकार नहीं करते हो, तो तुम हमेशा एक ही जगह खड़े रहोगे और कोई तरक्की नहीं करोगे। क्या सत्य को स्वीकारना महत्वपूर्ण है? (हाँ, बिल्कुल।) लोगों को परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं को छोड़ देना चाहिए, और परमेश्वर की बातों के प्रति कोई शत्रुता या टकराव नहीं रखना चाहिए—सत्य को स्वीकारने का केवल यही एकमात्र रवैया है। कुछ लोग पद से हटा दिए जाने के कारण निराश और कमजोर हो जाते हैं। वे अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं, और हमेशा निष्क्रिय होकर काम में ढिलाई करते हैं। बाहर से, ऐसा लगता है मानो यह इसलिए है कि उनकी कोई हैसियत नहीं है और उन्हें हैसियत बहुत ज्यादा पसंद हैं, मगर सच में मामला यह नहीं है। वे सिर्फ इसलिए निराश और कमजोर महसूस करते हैं, क्योंकि परमेश्वर द्वारा उनका आकलन या भाई-बहनों द्वारा उनका आकलन उनके अपने बारे में आकलन से मेल नहीं खाते, क्योंकि वे खुद को जिस तरह आँकते और समझते हैं, यह उससे खराब है। इसीलिए वे विश्वास नहीं कर पाते और दुखी हो जाते हैं, और आखिरकार वे यह सोच कर नकारात्मक और विरोधी होने और खुद को निकम्मा मान कर खारिज कर लेने का फैसला कर लेते हैं, “क्या तुमने नहीं कहा कि मैं पर्याप्त रूप से अच्छा नहीं हूँ? फिर मैं तुम्हें दिखा दूँगा, मैं कुछ भी नहीं करने वाला।” इसका नतीजा यह होता है कि वे अपने कर्तव्यों में विलंब करते हैं, परमेश्वर का अपमान करते हैं और उनका अपना जीवन प्रवेश धीरे-धीरे पूरी तरह रुक जाता है—यह एक जबरदस्त नुकसान है।

कुछ लोग कहते हैं, “जब मसीह कहता है कि मैं बुरा हूँ तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाता। अगर स्वर्ग के परमेश्वर ने मेरे बारे में कुछ बुरा कहा तो मैं केवल उसकी बात को ही स्वीकार करूँगा। देहधारी परमेश्वर की मानवता सामान्य होती है; उसका न्याय गलत हो सकता है और उसके किए हुए कार्य भी 100 प्रतिशत सही नहीं हो सकते। इस बात को लेकर कुछ सवाल हैं कि क्या लोगों के बारे में उसके मूल्यांकन और उनकी निंदा में गलती हो सकती है या जैसे वह उन्हें संभालता और उनके लिए व्यवस्था करता है, क्या उसमें गलती हो सकती है। इसलिए मैं इस बात से नहीं डरता कि मसीह—धरती का परमेश्वर—मेरे बारे में क्या कहता है, क्योंकि वह मेरी निंदा या मेरा परिणाम तय नहीं कर सकता।” क्या ऐसे लोग होते हैं? बिल्कुल होते हैं! जब मैं उनसे निपटता हूं, तो वे कहते हैं, “स्वर्ग का परमेश्वर धार्मिक है!” जब मैं उन्हें संभालता हूं, तो वे कहते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूं, किसी व्यक्ति में नहीं!” वे इन शब्दों से मुझे नकारते हैं। और ये शब्द क्या हैं? (वे परमेश्वर का नकार हैं।) सही है, वे परमेश्वर का नकार हैं, उसके साथ धोखा हैं। उनका मतलब है, “यह तुम्हारे हाथ में नहीं, बल्कि स्वर्ग के परमेश्वर के हाथ में है।” उनकी जो धारणा है और उन्हें परमेश्वर की जो समझ है, उसके अनुसार ये लोग कभी नहीं समझ पाएँगे कि देहधारी मसीह और स्वर्ग के परमेश्वर के बीच क्या संबंध है, यानी देह और स्वर्ग के आत्मा के बीच क्या संबंध है। उनकी नजर में, पृथ्वी पर यह तुच्छ व्यक्ति हमेशा एक व्यक्ति ही रहेगा, यह व्यक्ति चाहे कितना भी सत्य व्यक्त करे, कितने भी उपदेश दे, फिर भी वह एक इंसान ही है; चाहे वह कुछ लोगों को पूर्ण बना दे, उनका उद्धार कर दे, तो भी वह पृथ्वी पर ही रहेगा, वह तब भी व्यक्ति ही होगा और स्वर्ग के परमेश्वर से श्रेष्ठ नहीं हो पाएगा। इस प्रकार, ये लोग मानते हैं कि परमेश्वर में आस्था होने का मतलब है कि इंसान को स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास होना चाहिए; उनके लिए, परमेश्वर में विश्वास का अर्थ ही स्वर्ग के परमेश्वर में सच्ची आस्था का होना है। ऐसे लोग वैसे ही विश्वास रखते हैं जैसे वे चाहते हैं। जिस भी तरीके से उन्हें खुशी मिलती है, उसी तरह विश्वास रखते हैं और वे कल्पना करते हैं कि परमेश्वर वैसा ही होगा जैसा वे उसे चाहते हैं। जब देहधारी मसीह की बात आती है, तब भी वे अपनी कल्पना का ही अनुसरण करते हैं : “अगर यह पृथ्वी का परमेश्वर मेरे लिए थोड़ा अच्छा होता, अगर उसने सुनिश्चित किया होता कि मेरे लिए सब-कुछ अच्छा हो, तो मैं उसका सम्मान करता और उससे प्रेम करता। यदि वह मेरे लिए अच्छा नहीं है, यदि वह मुझसे चिड़चिड़ाता है, यदि मेरे प्रति उसका व्यवहार बुरा है, हमेशा मेरी काट-छाँट करता है और मुझसे निपटता है, तो वह मेरा परमेश्वर नहीं है; मैं स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास करूँगा।” ऐसे रवैये वाले लोगों की संख्या कम नहीं हैं। उनमें तुम लोग भी शामिल हो, क्योंकि मैं पहले ही ऐसे लोगों का सामना कर चुका हूँ। जब सब-कुछ ठीक होता है, तो वे मेरे साथ बहुत अच्छे होते हैं और मेरा कहा ध्यान से सुनते हैं, लेकिन जैसे ही मैं उन्हें हटा देता हूं, वे मेरे खिलाफ हो जाते हैं। इसलिए जब वे परमेश्वर के लिए अच्छे होते थे, तो क्या वे वास्तव में मानते थे कि यह परमेश्वर था, मसीह था? नहीं : उनकी नजर परमेश्वर की पहचान और हैसियत पर होती है, उनकी हर चाल परमेश्वर की हैसियत और पहचान की खुशामद करने से अधिक कुछ नहीं होती। हर समय वे सिर्फ स्वर्ग के अस्पष्ट परमेश्वर को ही सच्चे परमेश्वर के रूप में पहचानते हैं; पृथ्वी का यह परमेश्वर चाहे कितने भी सत्य व्यक्त कर ले, या वह मनुष्य के लिए चाहे कितना भी शिक्षाप्रद और लाभप्रद हो, मात्र इस तथ्य कि वह अपनी सामान्य मानवता में रहता है और देहधारी है, का अर्थ है कि वह कदाचित स्वर्ग का परमेश्वर नहीं हो सकता, और ये लोग उसकी चाहे जैसे चापलूसी करें, सेवा करें और पृथ्वी के इस परमेश्वर का सम्मान करें, लेकिन मन में अभी भी ये लोग मानते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है। इस सोच पर तुम्हारा क्या विचार है? यह कहना उचित है कि काफी लोगों के मन की गहराई में यही सोच मौजूद है, यह उनके अवचेतन में गहरी दबी हुई है। मसीह के पोषण और उसकी चरवाही को स्वीकारने के साथ-साथ वे मसीह का निरीक्षण और अध्ययन कर उससे सवाल-जवाब भी कर रहे हैं—साथ ही वे उस समय की प्रतीक्षा भी कर रहे हैं जब स्वर्ग का धार्मिक परमेश्वर उनके सभी कृत्यों का न्याय करने के लिए आएगा। और वे स्वर्ग के परमेश्वर से उनका न्याय करने की कामना क्यों कर रहे हैं? क्योंकि वे अपनी इस आकांक्षा को खुली छूट देने के लिए अपनी पसंद, धारणाओं और कल्पनाओं पर चलना चाहते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर—कि उनकी कल्पना का परमेश्वर—वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वे चाहते हैं, जबकि पृथ्वी का परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा; पृथ्वी का परमेश्वर केवल सत्य व्यक्त करता है और सत्य सिद्धांतों पर बोलता है। और वे सोचते हैं, “मनुष्य के लिए स्वर्ग के परमेश्वर का प्रेम निस्वार्थ, बिना शर्त और बिना किसी सीमा के होता है, जबकि जैसे ही तुम कुछ गलत कहते हो या करते हो और पृथ्वी के परमेश्वर को पता चलता है, वह तुम्हें अपने धर्मोपदेशों में नकारात्मक उदाहरण की तरह उपयोग करता है और तुम्हारा विश्लेषण करना शुरू कर देता है—इसलिए लोगों को उससे ज्यादा सावधान रहना चाहिए, उन्हें खुद को ज्यादा छिपाकर रखना चाहिए और कुछ हो जाने पर उसे बताना नहीं चाहिए।” मुझे बताओ, तुम लोग क्या कहते हो, क्या मैं उन चीजों का विश्लेषण नहीं कर सकता जिन्हें तुम मुझसे छिपाकर रखने की कोशिश करते हो? मुझे तुम्हारे कृत्यों का विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है; मैं तुम्हारे स्वभावों और तुम्हारी दशाओं का विश्लेषण करूँगा। मुझे तुम्हारे द्वारा की गई इन चीजों को उदाहरणों के रूप में लेने की जरूरत नहीं है; मैं पहले की तरह अभी भी सत्य पर संगति कर सकता हूँ, समस्याएँ सुलझाने के लिए धर्मोपदेश दे सकता हूँ, और मैं अभी भी लोगों को सत्य समझने के योग्य बना सकता हूँ। छद्म-विश्वासी अपने दिलों में यह मानते हैं कि यह देह, यह परमेश्वर उन चीजों को नहीं जान सकता जिन्हें उसकी आँखें नहीं देख पातीं, आध्यात्मिक क्षेत्र या सत्य से जुड़ी किसी चीज को जानना तो दूर की बात है। वे मानते हैं कि वह उन चीजों को भी नहीं देख सकता जो लोग खुद पर भ्रष्ट स्वभाव हावी हो जाने पर करने के काबिल होते हैं, और उसका मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से समझना संभव नहीं है—छद्म-विश्वासियों का यही तर्क और समझ है। वे मसीह से हमेशा एक जाँचने और सवाल-जवाब करने के और गैर-विश्वासी रवैये के साथ पेश आते हैं, और वे मसीह को मापने के लिए इंसान को मापने के मानदंडों और जिस ज्ञान को वे समझते हैं और जिन चीजों की वे कल्पना करते हैं, उन्हीं का प्रयोग करते हैं। मिसाल के तौर पर, दूसरों से बात करते समय कुछ लोग मानते हैं कि दूसरे लोग नहीं जानते कि उनके मन में क्या चल रहा है और उनके स्वभाव किस प्रकार के हैं, और वे मुझसे भी इसी तरह बात करते हैं, मुझसे भी एक साधारण व्यक्ति की तरह ही पेश आते हैं, यह सोचते हुए कि मैं कुछ नहीं जानता—क्या यह उनका परमेश्वर को न जानना नहीं है? वे दूसरे लोगों से झूठ बोलते हैं, पर दूसरे लोगों को फर्क नहीं पड़ता, और वे मुझसे भी खिलखिलाते हुए इसी तरह झूठ बोलते हैं, मुझे अपने बराबर का समझते हैं और हमेशा मुझसे अपने यार जैसा बर्ताव करना चाहते हैं। वे मानते हैं कि वे ऐसा बर्ताव इसलिए कर सकते हैं क्योंकि वे मुझसे परिचित हैं और वे सोचते हैं कि शायद मैं कुछ नहीं जानता हूँ। क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? यह एक इंसानी धारणा है, यह इंसानी अज्ञान है, और इस अज्ञान में शैतानी दुष्ट स्वभाव घात लगाए रहता है; यही दुष्ट स्वभाव लोगों को धारणाएँ बनाने की ओर आगे बढ़ाता है। मुझे बताओ, क्या मुझे किसी व्यक्ति को उजागर करने या उसकी प्रकृति की असलियत समझने के लिए उस व्यक्ति के साथ जीने, उसके विचारों और नजरियों का निरीक्षण करते हुए हर पल बिताने और उसकी पृष्ठभूमि को पूरी तरह से समझने की जरूरत है? (नहीं।) नहीं, मेरे लिए यह जरूरी नहीं है, लेकिन तुम लोग यह नहीं कर पाओगे। हालाँकि तुम लोग हर दिन लोगों के साथ मिलते-जुलते हो, साथ जीते हो, फिर भी तुम उनके प्रकृति सार की असलियत नहीं समझ पाते हो। तुम्हें चाहे जो हो जाए, तुम चीजों को सिर्फ सतही ढंग से देख सकते हो, उनके सार को नहीं। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति का पूरा खुलासा कर दे, तभी तुम लोग उसे थोड़ा समझ-बूझ सकोगे, वरना उसके साथ अनेक वर्षों तक जुड़े रहकर भी तुम उसकी असलियत नहीं समझ पाओगे। मैं किसी के साथ एक या दो दिन संपर्क में रहता हूँ, और वह कुछ चीजें करता है, कुछ बातें कहता है, और कुछ विचार व्यक्त करता है, और फिर मैं मूल रूप से जान लेता हूँ कि वह कैसा व्यक्ति है। हालाँकि ऐसे कुछ लोग हैं जिन्होंने अब तक कुछ नहीं किया है, जिनसे मैंने बातचीत नहीं की है या जिनके साथ कुछ नहीं संभाला है, फिर भी उनको लेकर मेरे मन में सवाल उठते हैं, और जैसे ही उनका किसी चीज से सामना होता है और वे कोई विचार व्यक्त करते हैं, वैसे ही उनका प्रकृति सार उजागर हो जाता है। कई लोग कहते हैं, “उनके प्रकृति सार के उजागर होते ही क्या तुम उनकी असलियत समझ सकते हो? तुम्हारी यह अंतर्दृष्टि किस चीज पर आधारित होती है? ऐसा कैसे है कि हम उनकी असलियत नहीं जान पाते?” यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, तो लोगों को नहीं माप सकते, और तुम्हारे पास कभी भी यह करने के मानदंड नहीं होंगे। यदि तुम्हारे पास वे मानदंड न हों, तो तुम लोगों की असलियत समझ नहीं सकोगे। लेकिन मेरे पास वे मानदंड हैं। एक लिहाज से मैं सत्य समझता हूँ, इसलिए किसी को मापने में मैं ज्यादा बोधपूर्ण हूँ और शीघ्र ऐसा कर लेता हूँ, और दूसरे लिहाज से परमेश्वर का आत्मा कार्यरत है। कुछ लोग सोचते हैं, “जब लोग इस संसार में लंबे समय तक जी चुके होते हैं, तो वे चीजों और लोगों की असलियत समझ पाते हैं।” यह वास्तविक अंतर्दृष्टि नहीं है; वे किस चीज की असलियत समझते हैं? इस समाज में मौजूद तरह-तरह के घोटालों को, जैसे कि राजनीतिक घोटाले, व्यापार संबंधी घोटाले, वित्तीय घोटाले या अश्लील किस्से-कहानियों, छवियों-फिल्मों से जुड़े घोटाले। जिन लोगों ने इनका ज्यादा अनुभव किया है या इनके बारे में ज्यादा सुना है, वे इससे बच कर रह सकते हैं। जो लोग इन चीजों से कम गुजरे हैं या जिन्होंने इनका कम अनुभव किया है, वे अक्सर धोखा खा जाते हैं, लेकिन एक बार ज्यादा धोखा खा लेने के बाद वे अनुभव प्राप्त कर लेते हैं, और उनकी असलियत समझ पाते हैं। इसी तरीके से वे चीजों की असलियत समझते हैं। हालाँकि जब मनुष्य की भ्रष्टता, प्रकृति और शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य के सार की बात आती है, तब यदि लोगों के पास सत्य न हो, तो उनमें इन चीजों की असलियत समझने की बुद्धिमत्ता कभी नहीं होगी और वे तरह-तरह के लोगों द्वारा किसी मामले के पीछे प्रकट किए गए स्वभावों या समस्या के स्रोत की असलियत कभी भी समझ नहीं पाएँगे। यदि तुम इन चीजों की असलियत नहीं समझ सकते, तब तुम मामले या उससे संबंधित लोगों, घटनाओं और चीजों को संभालने का तरीका नहीं जानोगे—तुम्हारे पास इसे संभालने का कोई तरीका नहीं होगा, न ही तुम्हारे पास ऐसा मामला संभालने की बुद्धि होगी। इसी वजह से जब तुम्हारा ऐसे मामले से सामना होता है, तो बहुत घबरा जाते हो, उद्वेलित हो जाते हो, और तुम्हारे लिए इससे निपटना मुश्किल हो जाता है। यदि तुम सत्य स्पष्ट रूप से समझते हो, तो तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उनके भ्रष्ट स्वभावों के सार की असलियत समझ सकते हो। उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों को गहराई से समझने के जरिये तुम उनके सार को जान लोगे, और फिर तुम जान जाओगे कि वे किस प्रकार के हैं, वे कैसे व्यक्ति हैं, तुम जान जाओगे कि उनसे सतर्क कैसे रहें, उन्हें कैसे पहचानें, और जान जाओगे कि इस मामले को कैसे झेलें। क्या यह बुद्धिमत्ता का स्रोत नहीं है? (जरूर है।) तो मसीह इंसान की असलियत समझ कर उसे पोषण दे सकता है—इन सबका स्रोत क्या है? धर्म-सिद्धांत के अर्थ में कहें तो ये सब परमेश्वर के आत्मा से आते हैं। अधिक व्यावहारिक अर्थ में कहें तो यह इसलिए है कि मसीह के पास वह सत्य है जो परमेश्वर से आता है। यह ऐसा ही है। जब एक दिन तुम सबके पास तुम्हारे जीवन के रूप में सत्य वास्तविकता होगी, तब तुम सबके पास बुद्धिमत्ता होगी और तुम, लोगों की असलियत समझ पाओगे।

इंसानी धारणाओं का एक और पहलू है और वह है परमेश्वर के कार्य को लेकर लोगों द्वारा बनाई जाने वाली धारणाएँ। परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाएँ कैसे बनती हैं? कुछ तो लोगों के विश्वास की पिछली समझ से बनती हैं और कुछ परमेश्वर के काम के बारे में उनकी अपनी कल्पनाओं से बनती हैं। उदाहरण के लिए, लोग परमेश्वर के न्याय-कार्य की कल्पना इस तरह करते थे जैसे आकाश में एक बड़ा सफेद सिंहासन हो, और उस पर बैठा हुआ परमेश्वर सभी लोगों का न्याय कर रहा हो। आज तुम सभी जानते हो कि ऐसी कल्पनाएँ अवास्तविक हैं—ऐसी चीजें असंभव हैं। जो भी हो, लोग परमेश्वर के कार्य, प्रबंधन और मनुष्य से उसके व्यवहार के बारे में कई तरह की कल्पनाएँ करते हैं और इनमें से अधिकांश कल्पनाएँ इंसान के पूर्वानुराग से आती हैं। मैं यह क्यों कह रहा हूं? क्योंकि लोग कष्ट नहीं उठाना चाहते। वे परमेश्वर का अनुसरण हमेशा अंत तक आसानी से करना चाहते हैं, उसके प्रचुर अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं, उसका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं और फिर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं। कैसी अद्भुत सोच है! परमेश्वर के कार्य के बारे में भ्रष्ट मानवजाति का सबसे आम और असाधारण विचार है पालकी में बैठकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना। इसके अलावा, जब लोग परमेश्वर के कार्य का सामना करते हैं, तो अधिकांश समय वे इसे समझ ही नहीं पाते; वे इसमें निहित सत्य को नहीं जानते हैं या उन्हें पता नहीं होता कि इस कार्य को करने में परमेश्वर का उद्देश्य क्या है और परमेश्वर मनुष्य से ऐसा व्यवहार क्यों करता है। उदाहरण के लिए, मैंने पहले “विशाल” और “अपार” शब्दों का उपयोग करते हुए परमेश्वर के प्रेम का वर्णन किया है, लेकिन मुझे लगता है कि शायद तुम लोगों ने कभी मेरे इन दो शब्दों के अर्थ को ही नहीं समझा। इन दो शब्दों का उपयोग करने का मेरा उद्देश्य क्या था? इनके ज़रिए सबका ध्यान आकर्षित करना मेरा उद्देश्य था, ताकि तुम लोग उन पर आत्म-मंथन करो। सतही तौर पर, ये शब्द खोखले लगते हैं। उनका एक निश्चित अर्थ है, लोग उन पर कितना भी विचार करें, लेकिन वे उनका यही अर्थ बताएँगे, “विशाल—इसका अर्थ है आकाश की तरह असीम; यह कह रहा है कि परमेश्वर का हृदय असीम है, मानवजाति के प्रति उसके प्रेम की कोई सीमा नहीं है!” परमेश्वर का प्रेम ऐसा नहीं है जिसकी कल्पना मनुष्य अपने मन में कर सके। लोग इस प्रेम की कल्पना नहीं कर सकते, उन्हें अपनी शिक्षा और ज्ञान से इस शब्द की व्याख्या नहीं करनी चाहिए, इसे समझने और अनुभव करने के लिए किसी अन्य विधि का उपयोग करना चाहिए। अंततः तुम लोगों को सचमुच भान हो जाता है कि परमेश्वर का प्रेम सांसारिक लोगों द्वारा बताए गए प्रेम से अलग है, परमेश्वर का सच्चा प्रेम किसी भी दूसरे प्रकार के प्रेम से अलग है, समस्त मानवजाति द्वारा समझे जाने वाले प्रेम से अलग है। तो परमेश्वर का यह प्रेम वास्तव में है क्या? तुम्हें परमेश्वर के प्रेम को कैसे समझना चाहिए? सबसे पहले तो, तुम इसमें इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं को बीच में मत लाओ। माँ के प्रेम को ही लो : अपने बच्चों के लिए एक माँ का प्रेम बिना शर्त होता है, वह अत्यंत रक्षात्मक और स्नेहपूर्ण होता है। अभी की स्थिति में, मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम में क्या तुम लोग माँ के प्रेम जैसी संवेदना और आशय की अनुभूति करते हो? (हाँ।) फिर तो कुछ गड़बड़ है—यह गलत है। तुम्हें परमेश्वर के प्रेम में और अपने माता-पिता, पति, पत्नी, बच्चों, रिश्तेदारों के प्रति प्रेम में, दोस्तों के प्रति चिंता में अंतर करना चाहिए और परमेश्वर के प्रेम को नए सिरे से जानना चाहिए? परमेश्वर का प्रेम आखिर है क्या? परमेश्वर के प्रेम में कोई सांसारिक भावनाएँ नहीं होतीं और उस पर रक्त-संबंधों का कोई प्रभाव नहीं होता। यह शुद्ध और सरल प्रेम होता है। तो लोगों को परमेश्वर के प्रेम को कैसे समझना चाहिए? हम परमेश्वर के प्रेम पर चर्चा क्यों कर रहे हैं? परमेश्वर का प्रेम परमेश्वर के कार्य में निहित है, ताकि लोग इसे मानें, स्वीकार करें एवं इसका अनुभव करें और अंततः महसूस करें कि यह परमेश्वर का प्रेम है और जानें कि यही सत्य है, परमेश्वर का प्रेम खोखले शब्दों से नहीं बना है, न ही यह परमेश्वर के व्यवहार का कोई रूप है, बल्कि सत्य है। जब तुम इसे सत्य के रूप में स्वीकार कर लोगे, तो तुम इससे परमेश्वर के सार के इस पहलू को पहचान पाओगे। यदि तुम इसे व्यवहार का कोई रूप मानते हो, तो इसे पहचानने में तुम्हें कठिनाई होगी। “व्यवहार” से क्या अभिप्राय है? उदाहरण के तौर पर माताओं को ही लो : वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए अपना यौवन, अपना खून-पसीना और आँसू सब दाँव पर लगा देती हैं, और वे उन्हें वह सब देती हैं जो वे चाहते हैं। चाहे उसके बच्चों ने सही किया हो या गलत, या वे किसी भी रास्ते पर चल रहे हों, एक माँ अपने बच्चों को बिना यह सिखाए, मदद किए या मार्गदर्शन किए कि सही रास्ते पर कैसे चलें, निःस्वार्थ भाव से देती है, अपने बच्चों की जरूरतें पूरी करती है, बस निरंतर उनकी देखभाल करती है, उनसे प्रेम करती है और उनकी रक्षा करती है, और वह ये सब इस हद तक करती है कि आखिरकार बच्चा बता नहीं पाता कि क्या सही है और क्या गलत। ऐसा होता है एक माँ का प्यार या इंसान की देह, भावनाओं या खून के रिश्तों से पैदा होने वाला प्यार। लेकिन परमेश्वर का प्रेम ठीक इसके विपरीत होता है : यदि परमेश्वर तुम से प्रेम करता है, तो वह अक्सर तुम्हें ताड़ना देकर, तुम्हें अनुशासित कर और तुम्हारी काट-छाँट करके इसे व्यक्त करता है। हालाँकि ताड़ना और अनुशासन के बीच तुम्हारे दिन बेआराम गुजर सकते हैं, लेकिन एक बार इसका अनुभव कर लेने के बाद तुम्हें पता चलेगा कि तुमने बहुत कुछ सीखा है, लोगों से मिलते-जुलते समय तुम उन्हें पहचान सकते हो, तुम समझदार बन जाते हो, तुम यह भी जान लेते हो कि तुमने कुछ सत्य समझ लिए हैं। यदि परमेश्वर का प्रेम एक माँ या पिता के प्रेम जैसा होता, जैसा कि तुम्हें लगता है, अगर वह देखभाल में बहुत ही सच्चा होता, और निरंतर अनुग्रहशील होता, तो क्या तुम ये चीजें हासिल कर पाते? तुम नहीं कर पाते। और इसलिए परमेश्वर का प्रेम जिसे लोग समझ सकते हैं वह परमेश्वर के उस सच्चे प्रेम से भिन्न होता है, जिसका वे उसके कार्य में अनुभव कर सकते हैं; लोगों को इससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना चाहिए, और उसके वचनों में सत्य को खोजना चाहिए ताकि वे जान सकें कि सच्चा प्रेम क्या है। यदि वे सत्य को न खोजें, तो कोई भ्रष्ट प्रवृति का व्यक्ति, अचानक यह कैसे समझ सकेगा कि परमेश्वर का प्रेम क्या है, मनुष्य में उसके कार्य का उद्देश्य क्या है और उसके श्रमसाध्य इरादे किस बारे में हैं? लोग इन बातों को कभी नहीं समझेंगे। परमेश्वर के कार्य को लेकर लोगों के मन में इस गलतफहमी के होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है, और यही परमेश्वर के सार का वह पहलू है जिसे समझ पाना लोगों को बहुत मुश्किल लगता है। लोगों को खुद इसका गहन अनुभव करना चाहिए, और इसके साथ व्यावहारिक ढंग से जुड़ कर इसे सराहना चाहिए, ताकि उसे समझने में समर्थ हो पाएँ। आम तौर पर, जब लोग “प्रेम” कहते हैं, तो उनका अर्थ होता है किसी को वह चीज देना जो उसे पसंद हो, जब वह मीठा चाहते हो, तो उसे कोई कड़वी चीज न देना या कभी-कभार उसे कड़वी चीज दी भी जाए, तो यह किसी बीमारी को ठीक करने के लिए हो; संक्षेप में कहें तो इसमें इंसान का स्वार्थ, उसकी भावनाएँ और सांसारिकता जुड़ी होती हैं; इससे लक्ष्य और अभिप्रेरणाएँ जुड़ी होती हैं। लेकिन परमेश्वर तुममें चाहे जो भी करे, वह तुम्हारा जैसे भी न्याय करे, तुम्हें जैसे भी ताड़ना दे, दंडित और अनुशासित करे, या जैसे भी तुम्हारी काट-छाँट करे, भले ही तुम उसे गलत समझो, मन-ही-मन उसके बारे में शिकायत करो, फिर भी परमेश्वर बिना थके निरंतर धैर्य के साथ तुममें कार्य करता रहेगा। परमेश्वर का इस प्रकार कार्य करने का अंतिम उद्देश्य क्या है? वह तुम्हें जगाने के लिए यह तरीका इस्तेमाल करता है, ताकि किसी दिन तुम परमेश्वर के इरादों को समझ सको। लेकिन इस परिणाम को देख कर परमेश्वर को क्या प्राप्त हुआ है। वास्तव में उसने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि तुम्हारा सब कुछ परमेश्वर से आता है। परमेश्वर को कुछ भी हासिल करने की जरूरत नहीं है। उसके लिए बस इतना जरूरी है कि लोग ठीक से अनुसरण करें और उसके कार्य करते समय उसकी अपेक्षाओं के अनुसार प्रवेश करें, ताकि अंततः सत्य वास्तविकता को जीने, मनुष्यता के साथ जीने और अब शैतान द्वारा गुमराह न होने, उसके छल और प्रलोभन में न फँसने, शैतान के विरुद्ध विद्रोह करने, और परमेश्वर को समर्पित हो कर उसकी आराधना करने में समर्थ हो पाएँ और फिर परमेश्वर अति प्रसन्न हो जाए और उसका महान कार्य पूरा हो जाए। परमेश्वर क्या हासिल करता है? परमेश्वर तुम्हें प्राप्त करता है और तुम उसका गुणगान कर सकते हो। लेकिन परमेश्वर के लिए तुम्हारे गुणगान का क्या अर्थ है? यदि तुम परमेश्वर का गुणगान न करो तो क्या वह परमेश्वर नहीं होगा? यदि तुम उसका गुणगान न करो तो क्या वह सर्वशक्तिमान नहीं होगा? क्या तुम्हारे गुणगान न करने से उसका सार या उसकी हैसियत बदल जाएगी? (नहीं।) नहीं। इसे केवल परमेश्वर का प्रेम और कार्य कहा जा सकता है। क्या परमेश्वर के प्रेम के विशाल और अपार होने की तुम्हारी समझ का यही अर्थ है? (नहीं।) तुम लोगों की समझ उस मुकाम तक नहीं पहुंची है। जब कोई परमेश्वर के दिल को तोड़ देता है और दूसरे सोचते हैं कि परमेश्वर उसे किसी भी सूरत में नहीं बचाएगा, तब भी जब वे आत्म-चिंतन करते हैं, अपने तौर-तरीकों की गलतियाँ महसूस कर प्रायश्चित्त करते हैं और अपनी बुराइयाँ छोड़कर उसका उद्धार स्वीकार करते हैं, तो परमेश्वर का रवैया क्या होता है? परमेश्वर उन सभी को समान ढंग से स्वीकारता है। अगर लोग सही पथ पर चलते हैं, तो परमेश्वर लोगों के अपराधों का हिसाब नहीं रखेगा। यही परमेश्वर का प्रेम है। यहाँ मनुष्य की किस धारणा का समाधान होना है? परमेश्वर के प्रेम के तरीके के बारे में धारणा का। लोगों को अपनी विभिन्न भावनाओं और कल्पनाओं को पीछे छोड़ देना चाहिए; उन्हें सत्य को खोजकर उसे समझना चाहिए ताकि वे अपनी धारणाओं को जाने देने में समर्थ हो सकें। किसी के लिए अपनी धारणाओं को पीछे छोड़ देना आसान है, लेकिन अपनी धारणाओं को पूरी तरह से बदल लेना आसान नहीं है। यदि भविष्य में तुम्हारा ऐसे ही किसी मसले से सामना हो, और तुम फिर से धारणाएँ बना लो, तो यह किस प्रकार की समस्या है? इससे साबित होगा कि यह धारणा तुम्हारे भीतर गहराई से पैठी हुई है। भले ही कुछ मामलों में तुम सत्य पर संगति करके धारणाओं को जाने दे सको, कुछ दूसरे मामलों में तुम उन्हें जाने नहीं दे पाओगे। शायद किसी एक मामले में किसी धारणा को जाने देना आसान हो, लेकिन लोगों से उनकी धारणाएँ पूरी तरह से दूर करवा देना आसान नहीं होता है। लोग अपनी धारणाएँ पूरी तरह से दूर कर पाएँ इससे पहले उन्हें अनेक सत्य समझने होंगे। इसके लिए आवश्यक है कि जिन मामलों से सामना हो, उनमें लोग सत्य को खोजें, व्यावहारिक रूप से परमेश्वर के प्रेम का अनुभव कर उसे समझें और इसके लिए जरूरी है कि परमेश्वर अनेक कार्य करे, ताकि लोग उसे जान सकें। केवल लोगों के परमेश्वर को जानने के बाद ही परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ पालने की उनकी समस्या पूरी तरह से दूर की जा सकेगी।

तुम लोगों के लिए फिलहाल यह जरूरी है कि तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में जो धारणाएँ हैं उनका विश्लेषण करो और इसका भी कि ये धारणाएँ क्या हैं, और मुख्यतः परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं और परमेश्वर की कार्यविधि के बारे में अपनी विभिन्न कल्पनाओं, टकरावों और अपेक्षाओं को सारांशित करो। ये चीजें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में तुम्हारे लिए रुकावट बन सकती हैं और इनके कारण तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हारे साथ किए गए सभी कार्यों को गलत समझ सकते हो और उनके प्रति टकराव महसूस कर सकते हो। ऐसी धारणाएँ अत्यंत गंभीर हैं और विश्लेषण करने योग्य हैं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग परमेश्वर के वे वचन पढ़ते हैं जिनमें लोगों का न्याय और निंदा की जाती है, और वे धारणाएँ बना कर कहते हैं, “परमेश्वर कहता है कि वह मुझ जैसे लोगों से प्रेम नहीं करता, तो शायद वह मुझे नहीं बचाएगा।” क्या यह एक धारणा नहीं है? इस धारणा का परिणाम क्या होगा? तुम्हारे भीतर चाहे जो भी भ्रष्टता हो, या तुम चाहे जैसे भी व्यक्ति हो, तुम जानते हो कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद नहीं करता जो उसके विरुद्ध विद्रोह करते हैं, तो फिर तुम प्रायश्चित्त क्यों नहीं करते हो? यदि तुम सत्य को स्वीकारते हो, अपनी भ्रष्टता को त्याग देते हो, और पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित हो जाते हो, तो फिर क्या परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करेगा? तुम यह कह कर परमेश्वर को परिसीमित क्यों कर देते हो कि वह तुम्हें नहीं बचाएगा? तुम्हारे ये नकारात्मक विचार तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके कार्य का अनुभव करने से रोकेंगे, इनके कारण तुम अटके रहोगे, खुद को मायूसी में डुबो दोगे, यहाँ तक कि परमेश्वर को नकार भी दोगे। कुछ कलीसियाओं में मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग दिखाई पड़ते हैं, गड़बड़ी पैदा करते हैं, और ऐसा करते हुए वे कुछ लोगों को गुमराह करते हैं—यह अच्छी बात है या बुरी? यह परमेश्वर का प्रेम है या परमेश्वर लोगों के साथ खिलवाड़ कर उनका खुलासा कर रहा है? तुम इसे नहीं समझ सकते, समझ सकते हो क्या? परमेश्वर सभी चीजों को पूर्ण बनाने के लिए उन्हें अपनी सेवा में ले आता है और वह उन लोगों को बचाता है जिन्हें बचाना चाहता है, और सच्चाई से सत्य को खोजने वाले और सत्य का अभ्यास करने वाले लोग आखिर में जो प्राप्त करते हैं वह सत्य होता है। हालाँकि कुछ लोग जो सत्य नहीं खोजते, वे यह कह कर शिकायत करते हैं, “परमेश्वर का इस तरह कार्य करना सही नहीं है। इससे मुझे बहुत कष्ट होता है! मैं लगभग मसीह-विरोधियों के साथ हो गया था। अगर यह सचमुच परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया गया है, तो वह लोगों को मसीह-विरोधियों के साथ कैसे होने दे सकता है?” यहाँ क्या चल रहा है? तुम्हारे मसीह-विरोधियों के पीछे न चलने से साबित होता है कि तुम्हें परमेश्वर की रक्षा प्राप्त है; अगर तुम मसीह-विरोधियों के साथ हो जाते हो, तो यह परमेश्वर के साथ धोखा है, और अब परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता। तो कलीसिया में इन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों का गड़बड़ी पैदा करना अच्छी बात है या बुरी? बाहर से लगता है कि यह बुरी बात है, लेकिन जब इन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों का खुलासा होता है, तो वे समझ-बूझ में विकसित हो जाते हैं, वे स्वच्छ कर दिए जाते हैं और आध्यात्मिक कद में ऊँचे हो जाते हैं। भविष्य में जब तुम ऐसे लोगों से दोबारा मिलोगे, तो उनके अपने असली रंग दिखाने से पहले ही तुम उन्हें पहचान जाओगे और ठुकरा दोगे। इससे तुम कुछ सबक सीख कर लाभान्वित हो पाओगे; तुम जान लोगे कि मसीह-विरोधियों को कैसे पहचानें और अब शैतान से गुमराह न हों। तो मुझे बताओ, क्या यह अच्छी बात नहीं है कि मसीह-विरोधियों को लोगों को बाधित और गुमराह करने दिया जाए? इस चरण तक अनुभव करने के बाद ही लोग देख सकते हैं कि परमेश्वर ने उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप कार्य नहीं किया है, वह बड़े लाल अजगर को उन्माद के साथ गड़बड़ी पैदा करने की अनुमति देता है, मसीह-विरोधियों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने की अनुमति देता है, ताकि वह अपने चुने हुए लोगों को पूर्ण करने के लिए शैतान को अपनी सेवा में लगा सके, और केवल तभी लोग परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को समझ सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे मसीह-विरोधियों ने दो बार गुमराह किया है, फिर भी मैं उन्हें नहीं पहचान सकता हूँ। यदि कोई और ज्यादा चालाक मसीह-विरोधी आ गया, तो मैं फिर से गुमराह हो जाऊंगा।” तो ऐसा फिर से होने दो, ताकि तुम इसका अनुभव कर सबक सीख लो—परमेश्वर को इसी तरह चीजें करनी होंगी, ताकि वह मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचा सके। यहाँ परमेश्वर की कार्यविधि का वर्णन करने के लिए दो वाक्यांशों का प्रयोग किया जा सकता है, और वे ये हैं कि परमेश्वर की विभिन्न कार्यविधियाँ असाधारण हैं, और साधारण लोगों की कल्पना से परे हैं। मैं इन दो वाक्यांशों “असाधारण” और “कल्पना से परे” का प्रयोग करके परमेश्वर के कार्य को क्यों परिभाषित करता हूँ? इसलिए कि भ्रष्ट मानवजाति ये चीजें नहीं समझ सकती और वह सत्य, परमेश्वर की कार्यविधियों और शैतान के विरुद्ध लड़ाई में परमेश्वर की बुद्धिमत्ता को नहीं समझती है—इन चीजों को लेकर मानवजाति की समझ शून्य है। तो फिर लोग अभी भी अपने मन में विचार और धारणाएँ कैसे रख सकते हैं? इसलिए कि वे थोड़ा ज्ञान सीखते हैं, कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं, उनकी अपनी पसंद है, और इसलिए वे कुछ विशेष धारणाएँ और कल्पनाएँ बना लेते हैं। वैसे आध्यात्मिक क्षेत्र और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य के मामलों में वे इन चीजों को बिल्कुल भी नहीं समझते। अंत के दिनों में, सृष्टिकर्ता पूरी मानवजाति से सीधे आमने-सामने होकर अपने वचन बोलता है। संसार के सृजन के बाद से ऐसा पहली बार हुआ है। यानी वह पूरी मानवजाति से आमने-सामने होता है और इस प्रकार खुले तौर पर अपने कार्य करता है, अपनी प्रबंधन योजना का प्रचार करता है और फिर उसे लागू करता है, और मानवजाति के बीच इसे क्रियान्वित करता है—यह पहली बार है जब कभी ऐसा हुआ है। लोग परमेश्वर की सोच, उसके सार और परमेश्वर की कार्यविधि के इस क्षेत्र बारे में कुछ भी नहीं जानते और इस क्षेत्र के लिए अजनबी होते हैं, और इसलिए लोगों के लिए इन चीजों के बारे में अपने मन में धारणाएँ पाल लेना सामान्य है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे सत्य के अनुरूप हैं। लोगों की धारणाएँ चाहे जितनी भी सामान्य क्यों न हों, वे अभी भी सत्य के विरुद्ध हैं, वे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं हैं, और परमेश्वर के इरादों से टकराती हैं। यदि समय रहते ये धारणाएँ दूर नहीं की गईं, तो ये लोगों के परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और उनके जीवन प्रवेश में बहुत बड़ा अवरोध बन जाएँगी। इसलिए, इंसानी धारणाओं के विषय में, वे चाहे लोगों की कल्पनाओं और विचारों के जितने भी अनुरूप हों, अगर वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं हैं, तो वे सत्य के प्रतिकूल रहेंगी, परमेश्वर के विरुद्ध होंगी, और परमेश्वर से संगत नहीं होंगी। लोगों की धारणाएँ उनकी कल्पनाओं के जितने भी अनुरूप हों, लोगों को उन्हें समझने-बूझने की हमेशा कोशिश करनी चाहिए; उन्हें अपनी धारणाओं को आँखें बंद करके बिल्कुल स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। मानवजाति को क्या स्वीकार करना चाहिए? मानवजाति को परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर से आने वाली सभी सकारात्मक चीजों को स्वीकारना चाहिए। जहाँ तक शैतान से संबंधित चीजों का सवाल है, लोग उन्हें चाहे जितना अच्छा मानें या अपनी कल्पनाओं के जितना भी अनुकूल समझें, उन्हें इनको स्वीकार नहीं करना चाहिए बल्कि इन्हें ठुकरा देना चाहिए। केवल इसी प्रकार से लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त कर सकते हैं, और सृष्टिकर्ता की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं।

लोगों की धारणाएँ केवल परमेश्वर के वचनों के जरिए और सत्य के प्रयोग से दूर की जा सकती हैं; उन्हें धर्म-सिद्धांतों के प्रचार के जरिए और आग्रह करके दूर नहीं रखा जा सकता है—यह उतना आसान नहीं है। लोगों में धार्मिक मामलों के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि वे विभिन्न धारणाओं या दुष्ट और विकृत चीजों से चिपके रहने को बाध्य हैं, जिन्हें वे दर-किनार नहीं कर पाते। इसका कारण क्या है? इसलिए कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है। लोगों की धारणाएँ बड़ी हों या छोटी, गंभीर हों या न हों, यदि उनका स्वभाव भ्रष्ट न हो, तो इन धारणाओं को दूर करना आसान है। आखिर, धारणा केवल सोचने का एक तरीका ही तो है। लेकिन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, जैसे कि अहंकार, दुराग्रह और दुष्टता के कारण, धारणाएँ एक जोड़ बन जाती हैं जिसके कारण लोग परमेश्वर का विरोध करने, गलत व्याख्या करने, यहां तक कि परमेश्वर की आलोचना करने लगते हैं। अपने मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रख कर भी कौन परमेश्वर को समर्पित होकर उसका गुणगान कर सकता है? कोई भी नहीं। मन में धारणाएँ रखकर लोग सिर्फ परमेश्वर के प्रति विरोधात्मक हो सकते हैं, वे उसके बारे में शिकायत करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, और उसकी निंदा भी करते हैं। यह ये दर्शाने के लिए काफी है कि धारणाएँ भ्रष्ट स्वभावों में से पैदा होती हैं, धारणाओं का प्रकटन भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा है, और प्रकट होने वाले सभी भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे मन में धारणाएँ हैं, लेकिन मैं परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता हूँ।” यह छलपूर्ण बात है। वे भले ही कुछ भी न कहें, अपने दिलों में वे अभी भी विरोधात्मक हैं, और उनका व्यवहार विरोधात्मक है। क्या ऐसे लोग सत्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं? यह असंभव है। भ्रष्ट स्वभाव द्वारा शासित हो कर, वे अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं—ऐसा उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। इसलिए, जैसे-जैसे धारणाएँ दूर होती जाती हैं, वैसे-वैसे लोगों का भ्रष्ट स्वभाव भी दूर होता जाता है। यदि लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर हो जाता है, तो उनके कई अपरिपक्व, बचकाने विचार—यहाँ तक कि जो चीजें पहले ही धारणाएँ बन चुकी हैं—वे उनके लिए कोई मुद्दा नहीं रहतीं; वे केवल विचार होती हैं, उनका तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। धारणाएँ और भ्रष्ट स्वभाव आपस में जुड़े हुए होते हैं। कभी-कभी कोई धारणा तुम्हारे दिल में होती है, लेकिन यह तुम्हारे क्रियाकलापों को निर्देशित नहीं करती। जब यह तुम्हारे तात्कालिक हितों में बाधा पैदा नहीं करती, तो तुम इसे अनदेखा कर देते हो। हालांकि, इसे अनदेखा करने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारी धारणा में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, जब कुछ ऐसा होता है जो तुम्हारी धारणाओं से टकराता है, तो तुम इससे एक खास रवैये से चिपक जाते हो, एक ऐसा रवैया जिस पर तुम्हारा स्वभाव हावी रहता है। यह स्वभाव दुराग्रह हो सकता है, अहंकार हो सकता है और यह क्रूरता हो सकता है; इस कारण से तुम परमेश्वर से तुरंत कहते हो, “मेरे नजरिया कई बार अकादमिक रूप से पुष्ट हो चुका है। हजारों वर्षों से लोगों ने ये विचार रखे हैं, तो मैं क्यों नहीं रख सकता हूँ? तुम इंसानी धारणाओं से बेमेल जो चीजें कहते हो वे गलत हैं, तो तुम अभी कैसे कह सकते हो कि ये ही सत्य हैं, और सभी चीजों से ऊपर हैं? मेरा दृष्टिकोण पूरी मानवजाति में सर्वोच्च है!” एक धारणा तुमसे ऐसा व्यवहार करवा सकती है, ऐसे बड़बोलेपन की ओर बढ़ सकते हो। इसका कारण क्या है? (भ्रष्ट स्वभाव।) सही है, यह भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। धारणाओं और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बीच सीधा संबंध होता है और उनकी धारणाओं को दूर करना जरूरी है। एक बार परमेश्वर में आस्था को ले कर लोगों की धारणाओं को दूर कर देने के बाद, उनके लिए परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना आसान हो जाता है और वे अपने कर्तव्य को अधिक सुचारु रूप से अच्छे ढंग से निभाते हैं, वे आड़े-तिरछे रास्ते नहीं पकड़ते, कोई गड़बड़ी या बाधा उत्पन्न नहीं करते, और वे ऐसा कोई काम नहीं करते जिससे परमेश्वर को शर्मिंदगी उठानी पड़े। यदि लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं को दूर न किया जाए, तो उनके लिए ऐसे काम करना आसान हो जाता है जिनसे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होती हैं। अधिक गंभीर मामलों में, लोगों की धारणाएँ उनमें परमेश्वर के देहधारण के प्रति हर तरह का विरोध पैदा कर सकती हैं। धारणाओं की बात करें तो ये यकीनन वे गलत सोच हैं जो सत्य के प्रतिकूल हैं, पूरी तरह से सत्य के विरुद्ध हैं, और इनके कारण लोगों के मन में परमेश्वर के प्रति तरह-तरह की विरोधात्मक भावनाएँ पैदा हो सकती हैं। इस टकराव के कारण तुम मसीह पर सवाल उठाते हो और उसे स्वीकारने या उसके प्रति समर्पित होने में समर्थ नहीं हो पाते, और इससे तुम्हारा सत्य को स्वीकारना और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना भी प्रभावित होता है। इससे भी अधिक गंभीर मामलों में, परमेश्वर के काम के बारे में लोग विभिन्न धारणाओं के कारण परमेश्वर के काम को नकार देते हैं, परमेश्वर के काम करने के तरीके, परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को भी नकार देते हैं—ऐसी स्थिति में उन्हें उद्धार की किसी भी तरह की कोई उम्मीद नहीं रहती। लोगों में चाहे परमेश्वर के किसी भी पहलू के बारे में धारणाएँ हों, इन धारणाओं के पीछे उनके भ्रष्ट स्वभाव ही घात लगाए होते हैं, जो इन भ्रष्ट स्वभावों को बदतर बना सकते हैं, लोगों को परमेश्वर के कार्य, स्वयं परमेश्वर और परमेश्वर के स्वभाव को अपने भ्रष्ट स्वभाव से देखने का और भी बड़ा बहाना दे देते हैं। क्या इससे उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव से परमेश्वर का विरोध करने का हौसला नहीं मिल जाता? यही मनुष्य के लिए धारणाओं का परिणाम है।

हालाँकि हमने पहले अक्सर इंसानी धारणाओं के बारे में बात की है, मगर हमने कभी भी क्रमानुसार और विस्तार से संगति नहीं की है कि लोग अपने मन में किन पहलुओं और मामलों के बारे में धारणाएँ रखते हैं, और वे कैसी धारणाएँ बनाते हैं। आज इस प्रकार सिलसिलेवार ढंग से संगति और विश्लेषण करके मैंने तुम लोगों को अनुसरण करने का एक स्पष्ट रास्ता दिया है ताकि तुम लोग जान लो कि तुम्हारे मन में किस प्रकार की धारणाएँ हैं, और फिर उन्हें बारी-बारी से दूर करने का तुम्हें रास्ता मिल सके। यदि लोग बारी-बारी से इन धारणाओं को दूर कर सकें तो सत्य के सभी पहलू उनके मन में स्पष्ट हो जाएँगे। इस तरह से उनका आगे का पथ भी और अधिक स्पष्ट हो जाएगा, और परमेश्वर में अपनी आस्था में वे जिस पथ पर चलते हैं, उस पर वे जितना आगे जाएँगे वह उतना ही अधिक ठोस और उजला होता जाएगा।

20 सितंबर 2018

पिछला: सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन-प्रवेश

अगला: अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (2)

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें