अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (2)

धारणाओं के मसले पर पिछली बार हमने तीन बिंदुओं पर संगति की थी : पहला बिंदु था परमेश्वर में विश्वास के बारे में धारणाएँ, दूसरा था देहधारण के बारे में धारणाएँ, और तीसरा था परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ। हमने पहले दो बिंदुओं पर चर्चा पूरी कर ली थी, और तीसरे बिंदु से जुड़ी कुछ काफी वैचारिक विषयवस्तुओं के बारे में बात की थी। इस बिंदु से जुड़ी धारणाओं या इन धारणाओं से जुड़ी विषयवस्तु को लेकर बाद में क्या तुम सबने सावधानी से सोच-विचार किया कि इन धारणाओं से जुड़ी और इस सत्य से संबंधित दूसरी और कौन-सी विषयवस्तु है? कोई भी सत्य अपने शाब्दिक अर्थ जितने सरल नहीं होते; उन सबमें अपना वास्तविक अर्थ निहित होता है, और ये लोगों के जीवन प्रवेश और साथ ही उनके दैनिक जीवन के सभी पहलुओं और परमेश्वर में विश्वास से जुड़े होते हैं। तो क्या तुम सबने अपने दैनिक जीवन में से इस सत्य से जुड़ी किसी विषयवस्तु का अनुमान लगाया है? जब तुम सत्य के इस पहलू पर संगतियाँ सुनते हो, तो तुम लोग शाब्दिक अर्थ में इसका कुछ अंश ही समझ सकते हो, और स्पष्ट धारणाओं की थोड़ी समझ-बूझ हासिल कर सकते हो। इसके बाद, और अधिक चिंतन-मनन, प्रार्थना और खोज करके और अपने अनुभव के आधार पर भाई-बहनों के साथ संगति करके तुम थोड़ी और गहरी और अधिक व्यावहारिक समझ प्राप्त कर सकते हो। इन तीन सत्यों पर शाब्दिक अर्थ में गौर करें, तो इनमें से कौन-सा सत्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, परमेश्वर के स्वभाव की उनकी समझ और उनके व्यावहारिक प्रवेश से सबसे अधिक जुड़ा हुआ है? कौन-सा सत्य सबसे ज्यादा गहरा और गूढ़ है? (तीसरा सत्य।) तीसरा सत्य थोड़ा ज्यादा गहरा है। पहला परमेश्वर में विश्वास से जुड़ी धारणाओं का था, और ये धारणाएँ काफी स्पष्ट और सतही हैं; दूसरा देहधारण से जुड़ी धारणाओं का था, जिनमें कुछ ऐसी विषयवस्तु होती है जिसे लोग देख और समझ सकते हैं, और जीवन में जिसके संपर्क में वे आ सकते हैं और जिस पर वे सोच-विचार कर सकते हैं; तीसरा परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाओं का था, जो लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ा है—यह अंतिम सत्य थोड़ा ज्यादा गूढ़ है। तो परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ वास्तव में क्या हैं? परमेश्वर के कार्य को लेकर लोगों के मन में कौन-सी धारणाएँ होती हैं? उन्हें इन धारणाओं को कैसे समझना और उनसे कैसे निपटना चाहिए, और उन्हें कैसे दूर करना चाहिए? यही है आज की संगति की विषयवस्तु।

जब परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाएँ उनके तर्क और परख के प्रयोग से ऊपर उठकर परमेश्वर से माँगें करने, परमेश्वर से अत्यधिक आकांक्षाएँ रखने, उसके विरोध में होने और उसके कार्य के बारे में कुछ आकलन या राय बनाने तक पहुँच जाती हैं, तो ये धारणाएँ अब सिर्फ एक दृष्टिकोण या मान्यता नहीं रह जातीं बल्कि ये लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से भी जुड़ी होती हैं। एक बार भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ जाने के बाद, ये लोगों को ऐसा बनाने के लिए काफी होती हैं कि वे परमेश्वर का प्रतिरोध करें, उसके बारे में राय बनाएँ यहाँ तक कि उसे धोखा भी दें। इसलिए अगर परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाएँ कल्पनाओं और अटकलों से आगे न बढ़ें तो कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर ये बढ़कर परमेश्वर के कार्य के बारे में एक दृष्टिकोण और एक रवैया बन जाएँ, परमेश्वर से अनुचित माँगों, उसकी आलोचना और निंदा में तब्दील हो जाएँ, या महत्वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं या इरादों से भर जाएँ, तब ये साधारण धारणाएँ नहीं रह जातीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि ये अब साधारण धारणाएँ नहीं रह गई हैं? इसलिए कि ये धारणाएँ और विचार तुम्हारे जीवन प्रवेश, परमेश्वर के कार्य की तुम्हारी समझ, और इस बात से जुड़ी होती हैं कि क्या तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकते हो या नहीं, और क्या तुम उसे अपने संप्रभु और सृष्टिकर्ता के रूप में पहचान सकते हो या नहीं, और इन सबका परमेश्वर के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण और रवैये से सीधा संबंध होता है। इसे इस रूप में देखें तो क्या लोगों के लिए ये धारणाएँ रखना एक गंभीर समस्या है? (हाँ।) इन धारणाओं का विश्लेषण अगर हम सैद्धांतिक दृष्टिकोण से करें, तो ये थोड़े अमूर्त या तुम सबके दैनिक जीवन से बहुत ज्यादा कटे हुए-से लग सकते हैं। तो आओ हम विभिन्न प्रकार के लोगों के जीने की स्थितियों पर थोड़ी और चर्चा करें जो हम दैनिक जीवन में या मानवजाति के बीच देख सकते हैं, या उनकी नियति, जीवन और परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के प्रति उनके विभिन्न नजरियों और रवैयों के बारे में चर्चा करें ताकि लोगों की धारणाओं का विश्लेषण कर उन्हें देखने दे सकें कि परमेश्वर किस प्रकार से मानवजाति पर शासन कर उन्हें आयोजित करता है और परमेश्वर के कार्य के असली हालात क्या हैं। यह ऐसा विषय है जिस पर संगति करना उतना आसान नहीं है। अगर संगति बहुत ज्यादा सैद्धांतिक हो, तो लोगों को लगेगा कि यह खोखली है, और अगर यह तुच्छ मुद्दों से बहुत ज्यादा जुड़ी हो, या लोगों के असल जीवन के बहुत करीब हो, तो वे सोचेंगे कि यह बहुत उथली है, और फिर ऐसी समस्याएँ होंगी। चाहे जो भी हो, आओ हम इस बारे में इस तरह से संगति करें कि यह काफी सीधी और समझने में आसान हो, जो अभी भी कहानी बताने के जरिए ही होगी। कहानी के कथानक और किरदारों और साथ ही कहानी में दर्शाए गए जीने के फलसफे और लोगों द्वारा देखी जाने वाली घटनाओं के जरिये, वे उन कुछ तरीकों और विधियों को समझ सकते हैं जिनसे परमेश्वर अपना कार्य करता है और साथ ही असल जीवन में लोग परमेश्वर के कार्य, उसकी संप्रभुता और सभी चीजों के आयोजन के बारे में लोगों के दोषयुक्त विचारों या उन कुछ गलत चीजों को समझ सकते हैं जिनसे लोग चिपके रहते हैं—इस तरह संगति करने से यह लोगों के समझने के लिए थोड़ा आसान हो जाता है।

तो कहानी यह है। एक समय की बात है, एक छोटी-सी लड़की ऐसे परिवार में जन्मी जो ज्यादा अमीर नहीं था। जब वह बहुत छोटी थी, तभी से उसकी एक कामना थी : उसने जीवन में अमीर या दौलतमंद होना नहीं माँगा, वह बस इतना चाहती थी कि कोई ऐसा हो जिसके भरोसे वह रह सके। क्या यह कामना बहुत ज्यादा थी? क्या यह बहुत ज्यादा का आग्रह था? (नहीं।) लेकिन दुर्भाग्य से उसके वयस्क होने से पहले ही उसके पिता का निधन हो गया, तो हुआ यह कि उसके जीवन में ऐसा कोई नहीं था जिस पर वह भरोसा कर सके। इस जीवन में वह जिस प्रधान व्यक्ति के भरोसे रह सकती थी उसे उसने खो दिया था, वह एकमात्र व्यक्ति जिसे उसका बालमन भरोसे लायक मानता था। क्या उसका बालमन बहुत व्यथित नहीं हुआ? ऐसा कुछ हो जाने से उसे बड़ी व्यथा हुई होगी। क्या उसके दिल को सदमा पहुँचा था? यकीनन सदमा पहुँचा था। यह सदमा कैसे पहुँचा? इसलिए कि अपने बालमन में वह यह कहने के लिए अभी तैयार नहीं थी, “मैं स्वतंत्र रह सकती हूँ। अपनी जरूरतें पूरी कर सकती हूँ, मुझे अब अपने माता-पिता के भरोसे रहने की जरूरत नहीं है।” जैसा कि कहते हैं, वह अभी अपने पंख नहीं फैला पाई थी। अपनी भोली सोच में वह यह नहीं सोच पाई थी कि अपने भविष्य के लिए उसे क्या करना है, या वह अपने माता-पिता के बिना कैसे जीवित रहेगी। ऐसी स्थिति में, जब वह ऐसी चीजों के बारे में अवगत भी नहीं हुई थी, तभी उसके पिता का निधन हो गया, जिसका अर्थ था कि उसके जीवन के सहारे के साधन जा चुके थे और उसका वक्त पहले से भी ज्यादा बुरा होने वाला था। तुम कल्पना कर सकते हो कि इसके बाद उसके दिन कैसे गुजरे होंगे। उसने अपनी माँ और नन्हे भाई के साथ मुश्किल जीवन बिताया, बड़ी मुश्किल से गुजारा किया। लेकिन वह चाहे जितनी भी व्यथित रही हो, जीवन तो चलना ही था, इसलिए वह लड़खड़ा कर आगे बढ़ती रही, अपनी माँ और भाई का साथ देती रही। कुछ साल बाद वह बड़ी हो गई और स्वतंत्र रूप से कुछ कमाने लगी ताकि अपनी माँ और भाई के जीने का खर्च उठा सके, मगर वे अभी भी किसी भी सूरत से अमीर नहीं थे। इस पूरे दौर में उसके अंतरतम की कामना नहीं बदली थी। उसे ऐसा कोई चाहिए था जिसके भरोसे वह रह सके, मगर कैसा व्यक्ति? वह ठीक किस प्रकार के व्यक्ति के भरोसे रहना चाहती थी? तुम लोग उस व्यक्ति का वर्णन करो। सबसे आसान शब्दों में “कोई ऐसा जिसके भरोसे रह सकें” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कोई ऐसा व्यक्ति, जो उसे जीवन के साधन और साथ ही खाना-कपड़ा दे सके, और उसे बाहर जाकर अपने-आप गुजारा न करना पड़े, या कोई पीड़ा न सहनी पड़े। कोई ऐसा, जिसका सहारा कम-से-कम मुसीबत के वक्त उसे मिल सके, जैसा कि कहते हैं, कोई ऐसा जो मुश्किलों में साथ दे—वह किसी ऐसे व्यक्ति के भरोसे रहने की उम्मीद कर रही थी। भले ही वह जीवन में उसे पैसों से मदद न कर सके या सहारा न दे सके, कम-से-कम कुछ बुरा होने या उसके व्यथित होने पर उसके पास सहारे के लिए उसका कंधा हो, कोई ऐसा जो मुश्किल वक्त से उबरने, और तूफान से बाहर निकलने में उसकी मदद कर सके—उसकी बस यही कामना थी। क्या यह माँग बहुत ज्यादा थी? क्या यह कामना अयथार्थवादी थी? यह माँग ज्यादा नहीं थी और यह कोई अयथार्थवादी कामना नहीं थी। क्या बहुत-से लोग ऐसी ही कोई बेहद सरल-सी कामना नहीं करते हैं? बहुत कम ही लोग कह सकते हैं कि वे पैदा हुए तब से अपने सिवाय किसी और के भरोसे नहीं रहे। इस संसार और किसी समुदाय में जीने वाले ज्यादातर लोगों को उम्मीद होती है कि उनका कोई दोस्त होगा, या कोई ऐसा होगा जिसके भरोसे वे रह सकें और यह लड़की कोई अपवाद नहीं थी।

पलक झपकते ही उसकी शादी की उम्र हो गई, और अब भी वह किसी ऐसे की कामना कर रही थी जिसके सहारे वह रह सके, जो भरोसेमंद हो। जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति खास तौर पर दौलतमंद हो या उसे भोग-विलास में रखे, और जरूरी नहीं कि वह बातचीत में बहुत माहिर हो। बस जब भी वह किसी मुसीबत में हो, या कोई मुश्किल झेले या बीमार पड़ जाए, तो उसे सहारा देने के लिए वह मौजूद हो, भले ही कुछ ज्यादा नहीं, सिर्फ दिलासे के दो शब्द ही कह दे। क्या यह ऐसी कामना थी जो आसानी से पूरी हो सकती थी? यह अनिश्चित है। कोई नहीं जानता कि क्या लोगों की कामनाएँ वे हैं जो परमेश्वर ने उन्हें देने या उनमें पूरा करने की योजना बनाई है, या आखिरकार उनकी कामनाएँ पहले से ही उनकी नियति में पूर्वनियत हैं। इसलिए, कोई नहीं जानता था कि क्या इस लड़की की कामना पूरी होगी, और वह खुद भी यह नहीं जानती थी। मगर, जीवन के अगले चरण में कदम रखते समय वह अपनी इस कामना को थामे हुए थी। उस वक्त वह काफी आशंकित और बेचैन थी, लेकिन जो भी हो वह दिन आखिर आ ही गया। वह नहीं जानती थी कि जिस व्यक्ति से वह शादी करने की सोच रही थी, उसके भरोसे वह अपना शेष जीवन बिता सकती थी या नहीं, मगर फिर भी वह अपने दिल से सचमुच उम्मीद करती थी : “यह व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जिसके भरोसे मैं रह सकूँ। मेरे जीवन के पिछले लगभग बीस साल काफी मुश्किलों में गुजरे। अगर किसी ऐसे से मेरी शादी हो गई जो भरोसेमंद न हो, तो मेरा शेष जीवन और भी कठिन हो जाएगा। मैं और किसके भरोसे रह पाऊँगी?” वह कष्ट में थी, मगर वह कुछ नहीं कर सकती थी, इसलिए वह बस उम्मीद करती रही। जब लोग यह नहीं जानते कि वे इस जीवन में क्यों हैं और उन्हें जीवन कैसे गुजारना चाहिए, तो वे जीने के लिए ऐसी कामना और अनजानी उम्मीद के साथ टटोलते हुए आगे बढ़ते हैं। इस घड़ी के आने पर उसे मालूम नहीं था कि उसका भविष्य कैसा होगा। भविष्य अनजाना था। वह आगे बढ़ती रही। लेकिन बहुत-से तथ्य अक्सर लोगों की कामनाओं के विपरीत चले जाते हैं। फिलहाल चलो, यह टिप्पणी न करें कि परमेश्वर लोगों की नियति को इस तरह क्यों व्यवस्थित करता है—क्या यह व्यवस्था परमेश्वर ने जानबूझकर की है या यह इसलिए है कि लोगों की भ्रष्टता और अज्ञानता के कारण उनकी आकांक्षाएँ और माँगें परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित उनकी नियति के ठीक विरुद्ध हो गई हैं, जिससे उनकी कामनाएँ अक्सर पूरी नहीं हो पातीं, और वैसे नहीं हो पातीं जैसे उन्होंने उम्मीद की थी—चलो, फिलहाल हम इन बातों पर चर्चा नहीं करते। पहले चलो हम कहानी जारी रखें।

शादी हो जाने के बाद, वह लड़की अपनी कामना थामे हुए जीवन के अगले चरण में पहुँच गई। जीवन के इस चरण में उसे क्या मिलने वाला था? वह नहीं जानती थी, लेकिन वह इससे बच नहीं सकी, सिर्फ इसलिए कि वह अज्ञात से डरती थी। उसे खुद को मजबूत बनाकर आगे बढ़ना था, और उसे अभी भी एक-एक कर दिन गुजारने थे। उसके जीवन के इस अहम मोड़ पर, परमेश्वर ने उसके लिए जो नियति व्यवस्थित की थी, वह आखिरकार आ पहुँची—और यह उसकी लालसा से ठीक उल्टी थी। वह जिस घरेलू पारिवारिक जीवन के लिए तरस रही थी, एक सादा बिस्तर, लिखने के लिए मेज, एक सादा साफ-सुथरा कमरा, पति और बच्चे—उसका चाहा हुआ सादा जीवन कभी नहीं मिल पाया। शादी के बाद, उसका पति काम के कारण पूरे साल भर घर से दूर रहता था, इसलिए उन्हें एक-दूसरे से अलग रहना पड़ता था। किसी महिला के लिए ऐसा जीवन क्या संभावनाएँ लेकर आता है? रंगबाजी और भेदभाव का शिकार होने की संभावनाएँ। जीने के ऐसे माहौल का सामना करना उसके जीवन और नियति के लिए एक और ठोकर थी। यह ऐसी चीज थी जिसकी उसने कभी कल्पना नहीं की थी, और जिसे वह कभी देखना या झेलना नहीं चाहती थी। लेकिन अब, तथ्य पूरी तरह से उसकी कामनाओं और कल्पनाओं से बेमेल थे। जो वह देखना या अनुभव नहीं करना चाहती थी वह वास्तव में उसके साथ हो गया था। उसका पति पूरे साल काम पर दूर रहता था। उसे जिंदगी और पैसों दोनों के मामले में अपने ही बलबूते रहना पड़ता था। खर्चों के लिए उसे खुद बाहर जाकर कमाना पड़ता था। जीवन में उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था, और हर चीज के लिए उसे खुद के भरोसे रहना पड़ता था। जीने के ऐसे माहौल में, क्या यह महिला किसी ऐसे के साथ मिल पाई जिसके भरोसे वह रह सकती थी या बिल्कुल नहीं मिल पाई? (बिल्कुल नहीं।) शादी के बाद क्या उसकी कामना पूरी हो पाई या चूर-चूर हो गई? (चूर-चूर हो गई।) जाहिर है, उसके जीवन के दूसरे अहम चरण में, उसकी उम्मीद एक बार फिर चूर-चूर हो गई, और उसके पास कोई ऐसा नहीं था जिसके भरोसे वह रह सके। वह जीवन में जिसके भरोसे रहने की सोच रही थी वह उसके साथ नहीं था और उस पर बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता था। उसने जिस व्यक्ति को अपना शक्ति स्तंभ माना था, अपनी चट्टान और ऐसा व्यक्ति माना था, जिसके भरोसे वह रह सकती थी, उस पर तो बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता था। उसे तमाम चीजें खुद करनी पड़ती थीं, सभी चीजें खुद सँभालनी और झेलनी पड़ती थीं। अपने सबसे मुश्किल वक्त के दौरान वह बस अपने बिस्तर में मुँह ढँक कर रो सकती थी, उसके पास दर्द बांटने वाला कोई नहीं था। अपने नाम, प्रतिस्पर्धात्मकता और आत्मसम्मान की खातिर वह बाहर से खुद को विकट दिखाती थी, एक सशक्त महिला जैसी लगती थी, लेकिन वास्तव में भीतर गहरे वह बड़ी नाजुक थी। उसे सहारा चाहिए था, और वह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए तरसती थी जिसके भरोसे वह रह सके, लेकिन यह कामना अभी तक पूरी नहीं हो पाई थी।

आगे कुछ साल बाद किराए पर घर लेते हुए, बंजारों की जिंदगी जीते हुए, वह अपने कई सारे छोटे-छोटे बच्चे लिए घूम रही थी। इस तरह, जीवन से उसकी सबसे बुनियादी अपेक्षा साल बीतने के साथ धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके दूर होती जा रही थी। वह बस इतना चाहती थी कि उसका एक छोटा-सा कमरा हो, जिसमें एक बिस्तर हो, लिखने की मेज हो, खाना पकाने के लिए चूल्हा हो, और उसका परिवार एक मेज के चारों ओर बैठकर खाना खा सके, वह थोड़ी-सी मुर्गियाँ पाल सके और सादा जीवन जी सके। उसने अमीर या दौलतमंद होने की अपेक्षा नहीं की थी। जीवन सादा, सुकून-भरा हो और परिवार एक साथ हो, बस यह काफी था। लेकिन अभी वह अपने बच्चों के साथ सिर्फ किसी तरह गुजारा कर पा रही थी। उसके पास ऐसा कोई नहीं था जिसके भरोसे वह रह सके, उससे भी बदतर वह खुद ऐसी बन गई थी जिसके भरोसे उसके बच्चे थे। उसने यह भी सोचा कि चूँकि इस नश्वर संसार में जीना इतना ज्यादा दर्दनाक था, इसलिए शायद उसे इस पीड़ा को दूर करने का कोई तरीका ढूँढ़ना चाहिए, जैसे कि कोई बौद्ध भिक्षुणी बन जाना या मानव समाज और इस पीड़ा से दूर कोई ऐसी जगह तलाशना जहाँ न वह किसी के भरोसे रहे, न ही कोई और उसके भरोसे रहे, जहाँ वह अपने आध्यात्मिक गुणों को उन्नत कर सके, क्योंकि इस तरह जीना बेहद थकाऊ और दर्दनाक था। लेकिन ऐसी कौन-सी एक चीज थी जो उसका पोषण कर रही थी और उसे जिंदा रख रही थी? (उसके बच्चे।) सही है। अगर उसके बच्चे न होते, तो शायद उसके जीवन का हरेक दिन और भी दर्दनाक होता लेकिन बच्चे होने के बाद, उसने अपने कंधों पर जिम्मेदारियाँ उठाईं और ऐसी बन गई जिसके भरोसे वे रह सकें। जब उसके बच्चे “मम्मी” कहकर पुकारते, तो उसे लगता कि उसके कंधों पर भारी बोझ है, और वह अपनी जिम्मेदारियाँ बस यूँ ही नहीं छोड़ सकती, और दूसरों के भरोसे नहीं रह सकती, बल्कि उसे ही वह बनना होगा जिसके भरोसे दूसरे रहें—उसे लगा कि इसे भी जीवन की खुशी का स्रोत जीवन के प्रति एक रवैया, और जीने की एक अभिप्रेरणा माना जा सकता है। इस तरह, उसने अपने बच्चों की खातिर लगभग दस साल और तकलीफें सहीं। क्या ये दिन बहुत लंबे लगे? (हाँ, लंबे लगे।) ये लंबे क्यों लगे? (कठिन जीवन जीने के कारण उसे ये दिन लंबे लगे।) तुम अनुभव से जानते हो, ये बातें किसी ऐसे व्यक्ति की लगती हैं जो इन सबसे गुजर चुका है। दिन कठिन और यातना-भरे थे, इसलिए ये बहुत लंबे लगे। उसने जो कुछ अनुभव किया वह उसके दिल की गहरी यातना जैसी थी, इसलिए उसे दिन गिन-गिन कर गुजारने पड़े, और ऐसा जीवन गुजारना आसान नहीं था। बच्चों के बड़े हो जाने के बाद भी उसकी कामना नहीं बदली। उसके दिल में कहीं गहराई में अभी भी यह कामना दबी हुई थी : “बच्चे बड़े हो गए हैं, और उनकी देखभाल करने में अब उतनी मेहनत नहीं लगती। अगर मेरे पति मेरे साथ रह सके और परिवार फिर से एक साथ हो सके तो हमारा जीवन और भी बेहतर होगा।” उसकी अद्भुत कल्पना लौट आई, और जैसा कि गैर-विश्वासी कहते हैं, इससे उसमें फिर से उम्मीद की किरण चमक उठी। रात में जब कभी वह सो नहीं पाती तो उसे ऐसे ख्याल आते थे : “अब चूँकि बच्चे बड़े हो चुके हैं, अगर वे कॉलेज में दाखिला पा सके, और फिर अच्छी नौकरी तलाश कर पैसा कमा सके, तो जीवन आसान हो जाएगा और खाना, कपड़ा और घर-बार पहले से बेहतर हो जाएगा। और अगर मेरे पति वापस आ गए, तो जीवन और बेहतर हो जाएगा, और मेरे पास कोई ऐसा होगा जिसके भरोसे मैं रह सकूँगी! जिन दो लोगों पर पहले मैंने भरोसा किया था उन्होंने मुझे निराश किया, लेकिन अब मेरे पास ऐसे लोग हैं जिन पर मैं भरोसा कर सकती हूँ। स्वर्ग मुझ पर बहुत मेहरबान रहा है! लगता है अच्छे दिन आने वाले हैं।” उसे यकीन था कि आगे अच्छे दिन आने वाले हैं। यह अच्छी बात है या बुरी? कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि व्यक्ति के जीवन में उसकी नियति क्या है, या आगे क्या होने वाला है। सभी लोग जीवन में अपनी सुंदर कामनाओं से चिपककर इसी तरह लड़खड़ाते हुए चलते हैं।

दस साल गुजर गए, उसके पति का एक अलग काम के लिए तबादला हो गया, और परिवार आखिरकार फिर से एक साथ हो गया जो कि एक अच्छी बात थी। तो अंत में, क्या उसका पति ऐसा व्यक्ति बन पाया जिसके भरोसे वह रह सकती थी? क्या वह उसके जीवन की थोड़ी पीड़ा बाँट पाया? चूँकि वे कभी भी साथ नहीं रहे थे, न ही गहराई से उनमें बातचीत हुई थी, इसलिए वह अपने पति को ठीक से जानती भी नहीं थी। उसके बाद के दिनों में, वह और उसका पति साथ रहना सीखने लगे और उन्होंने एक-दूसरे के बारे में गहरी समझ हासिल कर ली। फिर भी उसकी कामना नहीं बदली। उसे उम्मीद थी कि यह आदमी हर हालत में वह बन सकेगा जिसके भरोसे वह रह सकेगी, जो उसे आराम पहुँचा सकेगा और उसका दर्द दूर कर सकेगा। लेकिन चीजें उसकी इच्छानुसार नहीं हुईं। यह पति जिसके साथ उसकी गहराई से बातचीत नहीं हुई थी, यह व्यक्ति जिसे वह बिल्कुल नहीं समझती थी, वह उसके भरोसे रह ही नहीं सकती थी। कारण यह था कि उन दो जनों की जीते रहने की काबिलियत, मानवीय गुण, जीवन के नजरिये, मूल्य, और अपने बच्चों, परिवार और रिश्तेदारों के प्रति रवैये बिल्कुल अलग थे। पति-पत्नी निरंतर झगड़ते थे, मामूली बातों पर बात का बतंगड़ बनाते थे। इस महिला को कहीं न कहीं यह उम्मीद थी कि अगर वह बर्दाश्त करती रहेगी तो शायद उसका पति उसकी दयालुता, धैर्य और मुश्किलों को समझ पाएगा, और बाद में उससे भावनात्मक रूप से जुड़ पाएगा, और फिर से उसके करीब हो पाएगा, लेकिन उसकी कामना तब भी सच नहीं हुई। जहाँ तक उसकी बात थी, क्या उसका पति ऐसा व्यक्ति था जिसके भरोसे वह रह सकती थी? क्या वह ऐसा व्यक्ति बन सकता था जिसके भरोसे वह रह सकती थी? (नहीं, वह नहीं बन सकता था।) जब भी मुश्किलों से उसका सामना हुआ, उसका पति न सिर्फ उसे दिलासा देकर उसकी पीड़ा कम नहीं कर पाया, बल्कि उसने तो उसकी पीड़ा और बढ़ा दी, जिससे वह और ज्यादा निराश और बेसहारा महसूस करने लगी। इस वक्त, उसके अंतरतम की भावनाएँ और जीवन की समझ क्या थी? यह निराशा और पीड़ा थी, जिस कारण से उसके मन में सवाल उठा, “क्या वास्तव में परमेश्वर है? मेरा जीवन इतना कठिन क्यों है? मैं बस कोई ऐसा व्यक्ति चाहती हूँ जिसके भरोसे मैं रह सकूँ, क्या यह माँग बहुत ज्यादा है? मेरी बस यह छोटी-सी कामना है। मेरे इतने वर्षों के जीवन में यह अब भी पूरी क्यों नहीं हो पाई है? मेरी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा नहीं हैं, और मेरी कोई आकांक्षाएँ नहीं हैं। मैं बस ऐसा कोई चाहती हूँ जो बुरे वक्त में मुझे सहारा दे सके, बस। इतनी छोटी-सी कामना भी पूरी क्यों नहीं हो सकती?” यह स्थिति कई वर्षों तक बनी रही। जाहिर है, इस परिवार का जीवन बहुत सद्भावनापूर्ण नहीं था; उनके बीच अक्सर तू तू मैं मैं होती थी। बच्चे अपने माता-पिता की ही तरह दुखी और उदास थे। परिवार में कोई शांति या खुशी नहीं थी, और हरेक व्यक्ति दिल में कहीं गहरे सिर्फ डर, घबराहट, आतंक और साथ ही पीड़ा और बेचैनी महसूस करता था।

कुछ वर्ष बाद, चीजें पलट गईं और प्रभु यीशु का सुसमाचार उस तक पहुँच गया। उसे लगा कि उसकी कामना आखिरकार पूरी हो जाएगी। उसने सोचा, “मुझे अपने पिता, पति या अपने आसपास के किसी के भी भरोसे रहने की जरूरत नहीं है। अगर मैं प्रभु यीशु के भरोसे रहूँगी, तो सुकून से रह पाऊँगी, और मेरे पास कोई ऐसा होगा जिसके भरोसे मैं रह सकूंगी, वास्तविक शांति और खुशी पा सकूंगी और फिर जीवन उतना भारी नहीं लगेगा।” प्रभु यीशु का सुसमाचार स्वीकार करने के बाद, यह महिला ज्यादा खुशहाल हो गई, और बेशक उसका जीवन काफी ज्यादा आबाद हो गया। हालाँकि उसके प्रति उसके पति का रवैया नहीं बदला था, और वह अभी भी पहले जैसा ही कठोर था, उसकी अनदेखी करता था, और उसे उसका कोई ख्याल, परवाह या चिंता नहीं थी, न धैर्य, आभार या सहिष्णुता थी, फिर भी उसके दिल में प्रभु यीशु का उद्धार होने के कारण इन सबके बारे में उसका रवैया बदल गया। उसने अब अपने पति से बहस करना या तर्क-वितर्क करना छोड़ दिया, क्योंकि वह समझ गई थी कि इन चीजों के बारे में बहस करके लोग कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं। जब भी चीजें बिगड़ जातीं, वह प्रभु यीशु से बातें करती और उसका दिल काफी खुल जाता। इस तरह अब उसका पारिवारिक जीवन पहले की अपेक्षा ज्यादा आबाद लगने लगा। लेकिन अच्छे दिन ज्यादा टिके नहीं, और उसके जीवन ने एक और मोड़ ले लिया। प्रभु यीशु में विश्वास रखने के बाद से, वह जोश के साथ सुसमाचार का प्रचार करती थी, उसने कलीसियाई जीवन अपना लिया था, और अपने भाई-बहनों का साथ देती थी। मगर उसके पति ने इसकी मंजूरी नहीं दी। वह उसे सताने लगा और अक्सर ऐसी बातें कह कर डांटने लगा : “क्या तुम अब भी मेरे साथ रहना चाहती हो? अगर तुम सचमुच ऐसा नहीं करना चाहती हो, तो अलग हो जाते हैं!” उसके पास प्रभु से प्रार्थना करने और इसे बर्दाश्त करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। हालाँकि ऐसे दिन मुश्किल और दर्दनाक थे, लेकिन उसके दिल का सदमा पहले से काफी कम था, और उसे प्रार्थना से थोड़ी सांत्वना मिल रही थी। जब भी वह संतप्त होती, तो प्रभु से प्रार्थना करती थी। उसके दिल में अब ऐसा कोई था जिसके भरोसे वह रह सकती थी और उसे अस्थायी संतृप्ति मिली और उसे लगा कि उसका जीवन काफी बेहतर था।

धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए। चूँकि बच्चे बचपन से उसी के साथ थे और उसके प्रति उनका स्नेह काफी मजबूत था, इसलिए उस महिला को लगा, “अब चूँकि मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं, मुझे अपने पति के भरोसे रहने की जरूरत नहीं है, मैं अपने बच्चों के भरोसे रह सकती हूँ।” देखने में तो लगता कि वह पहले ही प्रभु यीशु के भरोसे हो गई है, और उसने अपना दिल, अपना परिवार और अपना भविष्य और संभावनाएँ भी उसके हाथों में सौंप दी हैं। लेकिन दरअसल, भीतर गहरे वह अब भी ऐसे लोगों की कामना से चिपकी हुई थी जिन्हें वह देख सकती थी और जिनके साथ उसका रिश्ता था, उसे उम्मीद थी कि एक दिन यह कामना जरूर पूरी होगी। चूँकि लोग प्रभु यीशु को नहीं देख सकते, इसलिए वे कहते हैं कि प्रभु यीशु उनके साथ में है, उनके दिल में है, लेकिन वह सोचती थी कि परमेश्वर को छुआ नहीं जा सकता या देखा नहीं जा सकता, तो यह बात उसे बेचैन करती थी। वह सोचती थी कि अहम घटनाओं और बड़े मसलों से उबरने के लिए प्रभु यीशु के भरोसे रहना काफी है, लेकिन असल जीवन में उसे अपने बच्चों के भरोसे रहना ही होगा। इस पूरे समय के दौरान उसकी कामना नहीं बदली थी, और उसने उसे जाने नहीं दिया था। वह अब प्रभु यीशु में विश्वास रखती थी, मगर यह कामना अभी भी क्यों नहीं बदली थी? इसके अनेक कारण हैं। एक कारण यह है कि वह सत्य नहीं समझती थी, और उसे परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन के बारे में ज्यादा जानकारी या समझ नहीं थी; यह वस्तुपरक कारण है। व्यक्तिपरक कारण यह है कि वह कायर थी। हालाँकि वह परमेश्वर में विश्वास रखती थी, मगर इतनी ज्यादा पीड़ा सहने के बाद, उसके मन में परमेश्वर में विश्वास रखने की महत्ता या लोगों की नियति, परमेश्वर के आयोजन और सृष्टिकर्ता की कार्यविधि के बारे में स्पष्ट अंतर्दृष्टि नहीं थी। कौन-सी चीजें यह बताती हैं कि उसे इन चीजों के बारे में कोई स्पष्ट अंतर्दृष्टि नहीं थी? अव्वल तो वह हमेशा अपनी खुशी और बेहतर जीवन की छुपी हुई लालसा को दूसरों के मत्थे मढ़ देती थी, इस उम्मीद से कि दूसरों की सहायता या मददगार हाथों के द्वारा उसकी कामना साकार हो सकेगी। क्या यह जीवन और नियति के बारे में एक गलत नजरिया था? (हाँ।) यह नजरिया गलत था। माता-पिता के रूप में क्या अपनी उम्मीदों को बच्चों पर डालना गलत है, यह उम्मीद करना गलत है कि बड़े होने के बाद वे तुम्हारे प्रति कर्तव्यपरायण होंगे और तुम्हारा साथ दे पाएँगे? यह गलत नहीं है, और यह ज्यादा माँगना भी नहीं है। तो फिर यहाँ समस्या क्या है? वह निरंतर अपने बच्चों के भरोसे रहना चाहती थी, अपने बच्चों के भरोसे रह कर खुशहाल जीवन जीना चाहती थी, अपना शेष जीवन बच्चों के भरोसे रह कर गुजारना चाहती थी, और अपने बच्चों के भरोसे रह कर तरह-तरह की चीजों का आनंद लेना चाहती थी। ऐसा करने के पीछे उसकी गलत सोच क्या थी? उसके मन में यह विचार क्यों था? उसकी इस सोच का स्रोत क्या था? लोग हमेशा एक खास तरह के जीवन और एक खास जीवन स्तर की अत्यधिक उम्मीद रखते हैं। यानी यह जानने से पहले ही कि परमेश्वर ने उनके जीवन को किस तरह पूर्व-नियत किया है या उनकी नियति क्या है, वे पहले ही यह योजना बना लेते हैं कि उनका जीवन स्तर क्या होना चाहिए, जोकि यह है कि उन्हें खुशहाल होना चाहिए, उनके जीवन में शांति और आनंद होना चाहिए, उन्हें अमीर और दौलतमंद होना चाहिए, और उनके पास भरोसेमंद और मददगार लोग होने चाहिए—लोग पहले ही अपने जीवन पथ, अपने जीवन लक्ष्यों और जीवन की अंतिम मंजिल और बाकी सब चीजों की योजना बना लेते हैं। इन सब बातों में क्या परमेश्वर में कोई विश्वास है? (नहीं।) नहीं, कहीं नहीं है। जीवन के बारे में इस महिला की हमेशा एक सोच थी : अगर मैं अमुक-अमुक के भरोसे रहूँ, तो मेरा जीवन ज्यादा शांतिपूर्ण, खुशहाल और संपन्न हो जाएगा; अगर मैं फलाँ-फलाँ के भरोसे रहूँ, तो मेरा जीवन ज्यादा आबाद, सुरक्षित और उल्लासमय हो जाएगा। क्या यह नजरिया सही है या गलत? (यह गलत है।) इतने वर्षों के बाद, वह प्रभु यीशु में विश्वास रखने के चरण तक पहुँच चुकी थी, मगर उसने स्पष्ट रूप से यह नहीं देखा था कि मानव जीवन किस बारे में है। अभी भी उसके अपने इरादे और योजनाएँ थीं, और वह अपने भविष्य के पथ का अनुमान लगा रही थी और भविष्य के जीवन की योजना बना रही थी। अब इस पर गौर करें, तो क्या जीवन के प्रति ऐसा रवैया और इस प्रकार की योजना बनाना सही था या गलत? (गलत था।) क्यों? (क्योंकि वह परमेश्वर की लोगों से जो अपेक्षाएँ हैं उनका अनुसरण करने के बजाय अपने ही आदर्शों और कामनाओं का अनुसरण कर रही थी।) वह जिसका अनुसरण कर रही थी उसका परमेश्वर के पूर्व-विधान से कोई लेना-देना नहीं था। यह जानने से पहले कि परमेश्वर क्या करने वाला था, उसने पहले ही यह संकल्प कर लिया कि उसे ऐसा कोई व्यक्ति तलाशना है जिसके भरोसे वह रह सके। वह इस चरण में अमुक व्यक्ति के भरोसे रहेगी और अगले चरण में अमुक व्यक्ति के भरोसे। इस प्रकार, उसने परमेश्वर पर अपना भरोसा खो दिया और परमेश्वर के भरोसे रहने के बजाय पूरी तरह से लोगों के भरोसे हो गई। जब उसके मन में निरंतर यह कामना और ये योजनाएँ थीं, तो क्या उसके दिल में परमेश्वर था? (नहीं।) तो एक तरह से, उसके तमाम संघर्षों से आने वाली पीड़ा का कारण क्या था? (इनकी वजह उसकी कामना थी।) यह बिल्कुल सच है। तो फिर उसकी कामना कैसे अस्तित्व में आई? (परमेश्वर की संप्रभुता या उसके आयोजन और व्यवस्थाओं में विश्वास न रखने के कारण।) सही है। वह नहीं समझती थी कि लोगों की नियति का स्रोत क्या है, न ही वह यह समझती थी कि परमेश्वर की संप्रभुता कैसे कार्य करती है। यही समस्या की जड़ है।

चलो, कहानी को आगे बढ़ाते हैं। जब इस महिला के बच्चे बड़े हो गए, तो कुछ को काम मिला और दूसरों ने शादी कर ली और परिवार बसा लिया, और जाहिर है उन्हें अपने माता-पिता को छोड़ कर स्वतंत्र जीवन जीना था, और वे अपने माता-पिता से अक्सर मिल नहीं कर पाते थे। तो, इस महिला को किस दूसरी समस्या का सामना करना पड़ा? अपने बच्चों पर भरोसा करने की उसकी कामना फिर एक बार चूर-चूर होने के कगार पर आ गई। उसके जीवन अनुभव की यह एक और दुखदाई त्रासदी थी, एक और झटका। तमाम कारणों से उसके बच्चे उसके साथ नहीं रह सकते थे, उसका साथ नहीं दे सकते थे, या अक्सर उससे मिलने नहीं आ पाते थे और उसकी देखभाल नहीं कर पाते थे। इसलिए, उसकी यह उम्मीद कि उसके बच्चे उसके प्रति संतानोचित होने और उसकी देखभाल करने के लिए उसके साथ रहेंगे, और उसकी यह कामना कि वह अपने बच्चों के भरोसे रह सकेगी जिससे चीजें सुगम होंगी और वह ज्यादा आरामदेह और खुशहाल जीवन जी सकेगी—ये सब उसकी पहुँच से और दूर फिसलते जा रहे थे। इस तरह, अपने बच्चों के लिए उसकी परवाह और चिंता बढ़ती गई और वह उनके लिए और तरसने लगी। क्या यह एक और प्रकार की पीड़ा नहीं थी? जैसे-जैसे वह बूढ़ी होती गई, और धीरे-धीरे उम्र उस पर भारी होने लगी, तो उसकी पीड़ा और अपने बच्चों के लिए उसकी तड़प और ज्यादा गहरी होती गई। कई वर्ष गुजर गए, और अपने जीवन के हर पड़ाव में जिन लोगों पर उसने भरोसा किया, भले ही वे अलग थे, उन सभी ने तय समय पर उसे छोड़ दिया, पूरी तरह से उसकी कामनाओं या भ्रम को चूर-चूर कर दिया, जिससे वह गहराई से बेहद संतप्त और व्यथित हो गई। इससे उसे क्या मिला? क्या इस कारण से उसने जीवन पर सोच-विचार किया? या इस बात पर चिंतन किया कि सृष्टिकर्ता किस तरह से लोगों की नियति की व्यवस्था करता है? अगर लोगों की सामान्य सोच को मद्देनजर रखें, तो कुछ धर्मोपदेशों को सुनने और कुछ सत्य समझने के बाद, उन्हें सृष्टिकर्ता, जीवन और लोगों की नियति के बारे में कुछ चीजें जान लेनी चाहिए। लेकिन विभिन्न कारणों से और इस कहानी की नायिका की अपनी समस्या के कारण, इस मुकाम तक भी वह समझ नहीं पाई और उसे कुछ अंदाजा ही नहीं था कि उसने अपने जीवन के प्रत्येक चरण में किसका अनुभव और सामना किया, या उसकी समस्या क्या थी, और अपने दिल की गहराई में वह अभी भी भरोसा करने को किसी व्यक्ति के लिए तरस रही थी। तो उसे ठीक किस पर भरोसा करना चाहिए? यह सच है कि परमेश्वर ही वह है जिस पर लोग भरोसा करते हैं, लेकिन परमेश्वर सिर्फ लोगों के भरोसे के लिए नहीं है, वह सिर्फ इसी काम के लिए नहीं है। लोगों के लिए यह जानना ज्यादा अहम है कि सृष्टिकर्ता के साथ मिलकर कैसे रहें, परमेश्वर को कैसे जानें, और उसको समर्पित कैसे हों—यह महज भरोसा करने और भरोसा किए जाने का रिश्ता नहीं है।

इस महिला के अपने बच्चों पर भरोसा खो देने और उसके उम्रदराज हो जाने के बाद, उसने अपनी उम्मीदें अपने पति पर डाल दीं, जो उसके लिए वैसा था जैसे डूबते को तिनके का सहारा। उसे अपनी बुनियादी जरूरतों और जीते रहने के लिए उस पर भरोसा करना पड़ा। उसे ऐसे तरीके ढूँढ़ने पड़े जिससे उसका पति कुछ और वर्ष जी सके, ताकि वह अपने लिए कुछ लाभ पा सके। उसने उसी पर भरोसा किया। इतने लंबे समय तक जीने के बाद, उस बुढ़िया के सिर के बाल पूरे सफ़ेद हो चुके थे, उसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, और उसके सारे दांत लगभग गिर चुके थे। हालाँकि उसका रंग-रूप बदल गया था, फिर भी एक चीज बरकरार थी और वह यह थी कि अपने जीवन के हर चरण में उसने ठोकर खाई थी, और कई बार ठोकर खाने के बावजूद उसकी कामना निरंतर वही थी—ऐसा कोई साथ हो जिस पर वह भरोसा कर सके। एक और चीज जो नहीं बदली वह लोगों से किए गए परमेश्वर के वादों के बारे में उसका भ्रम, और साथ ही अपने, मानवजाति और अपनी नियति और संभावनाओं के बारे में कुछ भ्रम भी नहीं बदले थे। हालाँकि गहराई में ये भ्रम काफी धुंधले और दूर होते जा रहे थे, फिर भी शायद उसके दिल की गहराई में उम्मीद की एक किरण बाकी थी : “अगर अपने बचे-कुचे वर्षों में मैं किसी ऐसे के साथ खुशी-खुशी जी सकूँ जिस पर मैं भरोसा कर सकूँ, या वह दिन देख सकूँ, जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो और वह महिमान्वित हो, तो यह जीवन व्यर्थ नहीं होगा।” इस महिला का जीवन ऐसा था। और यह कहानी का अंत है। इस कहानी का शीर्षक क्या होना चाहिए? (“मैं किस पर भरोसा करूँ?”) यह बहुत अच्छा और विचारोत्तेजक शीर्षक है।

अपनी संगति के विषय पर लौटें तो इस कहानी का परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाओं से क्या लेना-देना है? इसके किस अंश का संबंध परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाओं से है? इसका संबंध किन धारणाओं से है? तुम सब अपने विचार बताओ। (लोगों को लगता है कि परमेश्वर को उनकी अपेक्षाओं और योजनाओं के अनुसार चीजों को पूरा करना चाहिए। लोगों के मन में ऐसी ही धारणा होती है।) अपनी धारणाओं में, लोग सोचते हैं कि अगर उनकी आकांक्षाएँ अच्छी, सकारात्मक और अग्रसक्रिय हैं, तो सृष्टिकर्ता को उन्हें प्रदान करना चाहिए और उन्हें एक सुंदर जीवन हेतु प्रयास करने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। यह एक धारणा है। क्या सृष्टिकर्ता की संतुष्टि इंसान की इच्छाओं, उम्मीदों और कल्पनाओं से मेल खाती है? (नहीं खाती।) तो फिर सृष्टिकर्ता किस तरह से बर्ताव करता है? तुम कौन हो, तुमने चाहे जो भी योजना बनाई हो, तुम्हारी कल्पनाएँ चाहे जितनी पूर्ण और प्रतिष्ठित हों या चाहे वे तुम्हारे जीवन की वास्तविकता से जिस हद तक भी मेल खाती हों, परमेश्वर ये सब नहीं देखता, न ही वह इन पर ध्यान देता है; बल्कि चीजें परमेश्वर द्वारा नियत तरीकों और व्यवस्थाओं के अनुसार पूरी होती हैं, आयोजित और व्यवस्थित होती हैं। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैंने अपने जीवन में अनगिनत मुसीबतें झेली हैं, क्या मुझे एक अच्छे जीवन का भी हक नहीं है? जब मैं सृष्टिकर्ता के सामने आऊँगा, तो क्या मैं एक अच्छे जीवन और सुंदर गंतव्य का निवेदन और आकांक्षा करने के योग्य भी नहीं रहूँगा?” क्या यह मानवीय धारणा नहीं है? परमेश्वर के लिए ऐसी धारणाएँ और मानव-जनित विचार क्या हैं? ये अनुचित माँगें हैं। ये अनुचित माँगें कैसे पैदा होती हैं? (लोग परमेश्वर के अधिकार को नहीं जानते हैं।) यह वस्तुपरक कारण है। व्यक्तिपरक कारण क्या है? वह यह है कि उनका स्वभाव विद्रोही है, और वे सत्य खोजने या सृष्टिकर्ता की संप्रभुता या व्यवस्थाओं को समर्पित होने को तैयार नहीं हैं। सृष्टिकर्ता ज्यादातर लोगों के लिए जिस जीवन की व्यवस्था करता है, वो कष्टप्रद है या खुशी और बेफिक्री का जीवन है? (कष्टप्रद है।) अधिकतर लोग मुश्किलों का जीवन जीते हैं जिसमें अनेक कठिनाइयाँ और बहुत पीड़ा होती है। लोगों के लिए जीवन भर मुसीबतों की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का क्या प्रयोजन है? इसकी महत्ता क्या है? एक अर्थ में तो ये व्यवस्थाएं लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और अधिकार का अनुभव करने और उन्हें जानने देने के लिए हैं; दूसरे अर्थ में, परमेश्वर का मूल उद्देश्य यह है कि लोग इस बात का अनुभव करें कि जीवन दरअसल है क्या, ताकि लोगों को अहसास हो कि इंसान की नियति परमेश्वर के हाथों में है, इसे न तो कोई इंसान तय करता है और न ही यह लोगों की व्यक्तिपरक इच्छा के बदलने से बदलती है। सृष्टिकर्ता जो भी करता है और उसने लोगों के जीवन या नियति की जैसी भी व्यवस्था की है, वह उन्हें जीवन पर और जो इंसान की वास्तव में नियति है, उस पर चिंतन करने देता है और जब वे इन तमाम चीज़ों पर चिंतन करते हैं, तो वह उन्हें परमेश्वर के सामने ले आता है। जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करके बताता है कि ये सब क्या है, तो वह लोगों को अपने सामने लाता है, उनसे परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करवाता है, परमेश्वर के वचनों का अनुभव करवाता है, लोगों को समझाता है कि परमेश्वर जो कुछ कहता है और लोग अपने असली जीवन में जिन तमाम चीज़ों का अनुभव करते हैं, उनमें दरअसल क्या संबंध है। वह लोगों को व्यावहारिकता, सत्यता और इन सत्यों की वैधता का सत्यापन करने देता है, जिसके बाद वे इन्हें हासिल करते हैं और इस बात को मानते हैं कि मनुष्य का नियंत्रण सृष्टिकर्ता के हाथ में है और मनुष्य की नियति पर परमेश्वर का शासन और उसी की व्यवस्था है। एक बार लोग इन तमाम बातों को समझ लें, तो अपने जीवन के लिए उनके पास अव्यावहारिक योजनाएँ नहीं होंगी और वे ऐसी योजनाएँ नहीं बनाएँगे जो सृष्टिकर्ता की इच्छाओं के विरुद्ध हों, या उन चीजों के विरुद्ध हों जो सृष्टिकर्ता ने नियत और व्यवस्थित कर दी हों; बल्कि उनका आकलन और समझ, या ग्राह्यता और योजना सटीक होती जाएगी कि उन्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए और किस मार्ग पर चलना चाहिए। यही है उन कई मुश्किलों का प्रयोजन और महत्त्व जिनकी व्यवस्था सृष्टिकर्ता लोगों के जीवन में करता है।

कहानी में वापस लौटें, तो नायिका के कई मुश्किलें झेलने के बाद, इस जीवन में उसके मुश्किलें और पीड़ा झेलने के कारणों और सृष्टिकर्ता द्वारा इस प्रकार से चीजों का आयोजन और व्यवस्था करने के कारणों के बारे में उसकी समझ क्या थी? क्या कहानी से तुम यह समझ सकते हो? क्या उसने इन चीजों की समझ हासिल की? (नहीं।) उसने यह क्यों हासिल नहीं की? (क्योंकि अपने जीवन के हर मुकाम पर और अपने जीवन के हर मोड़ पर, जब उसकी कामनाएँ बार-बार चूर-चूर हो गईं, तो उसने कभी यह सोच-विचार नहीं किया या इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँची कि उसका जीवन भर का सपना कभी सच क्यों नहीं हुआ। अगर उसने सोच-विचार किया होता और सत्य खोजा होता, तो वह बदल गई होती। मगर वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को समझ नहीं पाई, और सिर्फ दृढ़ता से अपने सपने को लेकर हठ करती रही और उम्मीद करती रही कि एक दिन उसकी नियति एकाएक बदल जाएगी, जो कि नामुमकिन था। इस प्रक्रिया के दौरान, वह निरंतर प्रतिरोध और संघर्ष कर रही थी, जो उसकी तीव्र व्यथा का कारण था।) मामला ऐसा ही था। इसलिए कि उसने गलत रास्ता चुना, मगर वह यह जानती नहीं थी। उसने मान लिया कि यह सही रास्ता है, उसका उचित अनुसरण और उचित कामना है, और फिर उसने उस दिशा में कड़ी मेहनत से काम किया, लड़ी और संघर्ष करती रही। उसने कभी संदेह नहीं किया कि उसकी कामना वास्तविक है या नहीं, न ही उसने उसकी शुद्धता पर संदेह किया। इसके बजाय, वह जिद्दी होकर इस दिशा में अनुसरण करती रही, कभी दिशा नहीं बदली या वापस नहीं मुड़ी। तो फिर उसे जीवन में इतनी तकलीफें देने का परमेश्वर का प्रयोजन क्या था? परमेश्वर ने यह सब महज संयोग से नहीं किया। किसी भी व्यक्ति के जीवन में, परमेश्वर कुछ विशिष्ट अनुभवों और कुछ पीड़ादाई अनुभवों की व्यवस्था करता है। असल में, सृष्टिकर्ता ये तरीके और ये तथ्य तुम्हें यह बताने के लिए प्रयोग करता है कि इस तरह आगे मत बढ़ते रहो, यह रास्ता कहीं नहीं जाएगा, और यह वह रास्ता नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। अमूर्त रूप से इसमें तुम्हें क्या दिखाई देता है? यह परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए एक पथ चुनना है, और यह परमेश्वर का लोगों से बात करने का तरीका भी है, लोगों को बचाने और लोगों को गलत धारणाओं और जिद्दी तरीकों से उबारने की उसकी विधि है। यह परमेश्वर का तुम्हें बताने का तरीका भी है : तुमने जो रास्ता चुना वह दलदल है, अग्निकुंड है, वापस न आ सकने वाली राह है, और तुम्हें उस पर नहीं चलना चाहिए। अगर तुम इस तरह चलते रहे, तो दुख झेलते रहोगे। यह जीवन का सही पथ नहीं है, और यह वह पथ नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और यह वह पथ नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पूर्वनियत किया है। अगर तुम अक्लमंद हो, तो मुश्किलें झेलने के बाद सोच-विचार करोगे : “मैंने ऐसी तकलीफ क्यों झेली? मैंने ठोकर क्यों खाई? क्या यह पथ मेरे लिए उपयुक्त नहीं है? तो मुझे जीवन में किस पथ पर चलना चाहिए, कौन-सी दिशा में जाना चाहिए?” तुम्हारे चिंतन करते समय, परमेश्वर तुम्हें कुछ प्रेरणा और मार्गदर्शन देगा, या सही दिशा की ओर इशारा करेगा जिसमें तुम्हें अपना अगला कदम रखना चाहिए। परमेश्वर निरंतर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है, ताकि तुम ज्यादा व्यावहारिक और सटीक ढंग से आगे का रास्ता पकड़ सको, जो उसने तुम्हारे असल जीवन के लिए नियोजित किया है। मैंने तुम्हें अभी जो कहानी बताई, क्या उसकी नायिका ने यह किया? (नहीं, उसने कभी चिंतन नहीं किया।) उसका स्वभाव किस प्रकार का था? (हठ।) हठ—यह बहुत परेशानी की बात है। बचपन से ले कर सफेद बालों वाली बुढ़िया होने तक भरोसा करने के लिए किसी के होने की उसकी कामना कभी नहीं बदली। उसके परमेश्वर के सुसमाचार सुनने और सृष्टिकर्ता ने स्वर्ग और पृथ्वी और तमाम चीजें कैसे रचीं इसकी अंतर्दृष्टि प्राप्त करने से पहले या जब परमेश्वर का सुसमाचार उसे मिला और परमेश्वर ने इन सबका सत्य उसे बताया, उसकी कामना आरंभ से अंत तक कभी नहीं बदली—यह सबसे खेद योग्य पहलू है। लोगों के पास सोच और विचार होते हैं। लोगों के लिए ये सब रचने के पीछे परमेश्वर का प्रयोजन क्या था? यह था कि लोग परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों को समझ-बूझ सकें। विवेक और जमीर से युक्त सामान्य व्यक्ति के रूप में, प्रत्येक सृजित मनुष्य परमेश्वर द्वारा आयोजित इन सभी चीजों को अपने दिल से महसूस करने और जानने के बाद किसी-न-किसी हद तक सृष्टिकर्ता की इच्छाओं की कम या ज्यादा गहरी समझ प्राप्त कर लेगा। यह एक तरीका है जिससे परमेश्वर कार्य करता है, जो खास तौर से व्यावहारिक और वास्तविक है। लेकिन चूँकि लोग बहुत अहंकारी और हठी होते हैं और आसानी से सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, इसलिए उनके लिए सृष्टिकर्ता के इरादे समझ पाना मुश्किल होता है। लोगों का हठ किस रूप में दिखाई देता है? परमेश्वर चाहे जो भी कहे या करे, लोग तब भी अपनी ही चीजों से चिपके रहते हैं। उनकी मानसिकता यह है : “मैं अपना जीवन सुनियोजित करना चाहता हूँ। मेरे पास विचार हैं, मेरे पास दिमाग है, मैं शिक्षित हूँ, और अपने जीवन पर नियंत्रण रख सकता हूँ। मैं अपने जीवन की सभी चीजों का स्रोत समझ सकता हूँ, और मैं ये तमाम चीजें आयोजित कर सकता हूँ, इसलिए मैं अपनी खुशी, अपना भविष्य और अपनी संभावनाएँ नियोजित कर सकता हूँ।” ठोकर खाने पर वे कहते हैं, “इस बार मैं नाकामयाब रहा, मैं अगली बार दोबारा कोशिश करूँगा।” वे मानते हैं कि लोगों को इसी तरह जीना चाहिए, और अगर किसी इंसान में प्रतिस्पर्धी भावना न हो, तो वे जीवन में बिल्कुल बेकार और कमजोर होंगे। उनकी दृढ़ता के मूल में क्या है? इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए क्योंकि वे मानते हैं कि उन्हें एक कमजोर इंसान बनने के बजाय पूर्ण रूप से सशक्त इंसान होना चाहिए, उन्हें जीवन से हार नहीं माननी चाहिए, दूसरों की नजरों में हीन होना तो दूर की बात है, और लोगों को स्वतंत्र और प्रतिस्पर्धी होना चाहिए, उनमें दृढ़ संकल्प होना चाहिए, और दूसरों की नजरों में उनका ऊँचा सम्मान होना चाहिए। ये स्वभाव, ये विचार और सोच उनके व्यवहार पर हावी रहते हैं, जिससे हर बार परमेश्वर द्वारा उनके लिए आयोजित मुश्किलें, कठिन हालात या पीड़ा झेलने पर, वे पहले जैसा ही रास्ता चुनते हैं : अपनी ही सोच पर दृढ़ रहने, पीछे न मुड़ने, और वे जिसे भी अच्छा, सही और अपने लिए लाभकारी मानते हैं उस पर डटे रहने, और एक प्रतिस्पर्धी व्यक्ति बने रहने का रास्ता। ठीक यही वह हठी स्वभाव है जो उन्हें अज्ञानी और अव्यावहारिक फैसले करने की ओर आगे बढ़ाता है, और अनेक अव्यावहारिक समझ और अनुभवों को जन्म देता है।

मैंने अभी-अभी लोगों के स्वभाव के एक पहलू के बारे में चर्चा की—हठ। सृष्टिकर्ता लोगों को जिन पीड़ादाई परिस्थितियों और कठिन हालात में रखता है, उन्हें झेलते समय, हठ के कारण लोगों का रवैया समर्पण का नहीं बल्कि अपनी हर लाभकारी चीज को पकड़े रखने और उसे न त्यागने का होता है। ऐसे बर्ताव से परमेश्वर कैसे निपटता है? परमेश्वर का कार्य लोगों की इच्छा से स्वतंत्र होता है, तो फिर परमेश्वर लोगों के ऐसे कार्यों से कैसे निपटता है? परमेश्वर यकीनन यह नहीं कहेगा, “तुम इस बार नाकामयाब रहे, इसलिए तुम तबाह हो जाओगे। तुम जैसे लोग बेकार हैं, और मुझे अब तुम्हारी जरूरत नहीं है।” परमेश्वर ने लोगों का त्याग नहीं किया है। वह वही तरीका इस्तेमाल करता रहता है, विभिन्न माहौल, विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता रहता है, ताकि लोग वही पीड़ा और वही कठिन हालात अनुभव कर सकें। इसका प्रयोजन क्या है? (यह लोगों को होश में लाता है।) इससे लोग सोचते-विचारते हैं, होश में आते हैं, और अपनी जिद्दी सोच को त्याग देते हैं। इंसानों से इस प्रकार बातचीत करने, और इंसानों से इस प्रकार की पारस्परिक क्रिया करने के लिए परमेश्वर बार-बार अपने अनूठे तरीकों का इस्तेमाल करता है। आखिरकार, इस कार्यपद्धति के जरिए परमेश्वर कौन-सा नतीजा हासिल करना चाहता है? लोगों को विभिन्न कठिन हालात, व्यथा, यहाँ तक कि रोगों और परिवार की बदकिस्मतियों से गुजरने को मजबूर करने के द्वारा परमेश्वर लोगों का जीवन भर मार्गदर्शन करता है। लोगों को इस दुख का अनुभव करवाने का प्रयोजन यह है कि वे निरंतर चिंतन कर अपनी अंतरात्मा में समझें और गहराई से सत्यापन करें : “क्या यह परमेश्वर की व्यवस्था है? मुझे अपने भविष्य के पथ पर कैसे चलना चाहिए? क्या मुझे दिशा बदलनी चाहिए? क्या मुझे सत्य का मार्ग चुनना चाहिए? क्या मुझे अपने जीने का ढंग बदलना चाहिए?” परमेश्वर लोगों को हर तरह की पीड़ा, क्लेश, दुर्भाग्य और कठिन हालात अनुभव करवाता है ताकि बाद में उनके दिलों की गहराई में यह पुष्टि हो सके कि एक संप्रभु है जो लोगों की नियति पर शासन करता है, और लोग मनमाने, अहंकारी और जिद्दी नहीं हो सकते बल्कि उन्हें समर्पित होना सीखना चाहिए—माहौल, नियति, और उनके आसपास होने वाली हर चीज को समर्पित होना। इससे पहले कि तुम परमेश्वर के स्पष्ट वचन सुनो, परमेश्वर इन तरीकों और तथ्यों का इस्तेमाल करता है ताकि तुम हर तरह के माहौल, लोगों, घटनाओं और चीजों का अनुभव करो, और अपने दिल की गहराई में निरंतर पुष्टि कर सको कि लोगों की नियति परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित होती है, और किसी भी व्यक्ति की इस पर संप्रभुता नहीं होती, और लोग अपनी ही नियति पर संप्रभुता नहीं रख सकते। तुम्हारे दिल की गहराई में निरंतर ऐसी समझ होती है या ऐसी आवाज आती है, और तुम निरंतर पुष्टि करते रहते हो कि तुम्हारे द्वारा अनुभव की गई हर चीज किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं होती, न यह संयोग से होती है, न ही वस्तुपरक कारणों या हालात से होती है, बल्कि यह परमेश्वर है जो अदृश्य रूप से हर चीज पर संप्रभुता रखता है। एक व्यक्ति का दूसरे से मिलना और कुछ हो जाना संयोग नहीं होता, या ऐसे माहौल से उसका सामना होना जो उसका जीवन बदल दे, संयोग नहीं होता। यह संयोग नहीं है कि कोई व्यक्ति बीमार पड़े और बाद में बड़े आशीष प्राप्त कर ले। यह परमेश्वर ही है जो अपने अनूठे ढंग से प्रत्येक व्यक्ति को बताता है : लोगों की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है, परमेश्वर प्रति दिन लोगों की निगरानी कर उनका मार्गदर्शन करता है, और वह जीवन भर हर दिन उनका मार्गदर्शन करता रहता है। लोगों को यह जानने देने के अलावा कि मानवजाति की नियति, लोगों के जीवन की सभी चीजों, मानवजाति की मंजिल और मानवजाति से जुड़ी हर चीज पर उसकी संप्रभुता है, परमेश्वर और क्या हासिल करना चाहता है? यह कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्रति लोगों की अव्यावहारिक धारणाओं, कल्पनाओं और माँगों को धीरे-धीरे धूमिल कर, गायब कर दे और उन्हें निकाल फेंके, और फिर लोगधीरे-धीरे उस मुकाम पर पहुँच जाएँ जहाँ वे उन तरीकों को स्पष्ट रूप से पहचान कर समझ सकें जिनसे सृष्टिकर्ता मानवजाति का मार्गदर्शन करता है, और जिन तरीकों से सृष्टिकर्ता लोगों के पूरे जीवन की नियति की व्यवस्था करता है। तब इन चीजों से, लोग यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर का अपना स्वभाव है और परमेश्वर जीवंत और जीवन-सदृश है। वह मिट्टी का पुतला नहीं है, रोबोट नहीं है, न ही लोगों द्वारा कल्पित निर्जीव प्राणी है, बल्कि इसके बजाय उसमें जीवन और स्वभाव है। एक अर्थ में, इससे लोग उन तरीकों को समझ लेते हैं जिनसे सृष्टिकर्ता कार्य करता है और यह लोगों से हर तरह की धारणाओं, कल्पनाओं, और वास्तविकता के विपरीत खोखले विचारों और तर्कों का त्याग करवाता है। संक्षेप में कहें, तो यह लोगों को इस लायक बनाता है कि वे परमेश्वर के कार्य से जुड़ी तमाम खोखली धारणाओं और कल्पनाओं को जाने दे सकें। एक दूसरे अर्थ में, जब वे इन धारणाओं और कल्पनाओं को जाने देते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य और उसकी संप्रभुता को स्वीकार कर उसे समर्पित हो सकते हैं। एक अर्थ में यह एक छोटा-सा नतीजा है, लेकिन एक दूसरे अर्थ में, यह एक ऐसा परिणाम है जो तुमने नहीं देखा है, और यही सबसे बड़ा और सबसे गूढ़ परिणाम है। यह परिणाम क्या है? यह है कि परमेश्वर इन तरीकों का प्रयोग लोगों को बताने के लिए करता है कि वह लोगों पर जो भी करता है और हासिल करता है वह खास तौर पर व्यावहारिक और वास्तविक स्थिति में करता है। एक बार यह समझ लेने के बाद, लोग कुछ खोखली और भ्रमपूर्ण चीजों को त्याग देंगे, सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का वास्तव में पालन कर उसे समर्पित होंगे, और फिर सृष्टिकर्ता द्वारा वास्तविक जीवन में व्यवस्थित हर चीज का वास्तव में सामना करेंगे, बजाय इसके कि सृष्टिकर्ता की कल्पना करने के लिए या जीवन की कुछ चीजों से निपटने के लिए कुछ खोखले सिद्धांतों या धार्मिक संकल्पनाओं या धर्मसैद्धांतिक ज्ञान का प्रयोग करें। यही है वह परिणाम जो परमेश्वर देखना चाहता है, और जो वह लोगों में हासिल करना चाहता है। इसलिए, पहले चरण में, सृष्टिकर्ता की वाणी सुनने और विभिन्न सत्यों के बारे में सृष्टिकर्ता के स्पष्ट वचनों को समझने से पहले, परमेश्वर का लोगों पर कार्य करने का तरीका यह है कि वह तुम्हारे अनुभव करने और उससे होकर गुजरने के लिए विभिन्न माहौल की व्यवस्था करता है। जब तुम्हें कुछ पुष्टि प्राप्त होती है, और तुम्हारे दिल की गहराई में इन चीजों के बारे में कुछ भावनाएँ पैदा होती हैं, और ये तुम्हारे दिल को छू जाती हैं और तुम उन्हें समझ लेते हो, तब परमेश्वर तुम्हें स्पष्ट वचनों से बताएगा कि जीवन किस बारे में है, परमेश्वर किस बारे में है, इंसान कैसे अस्तित्व में आए, और लोगों को किस प्रकार के पथ पर चलना चाहिए। इस प्रकार, इस मान्यता के आधार पर कि मनुष्य परमेश्वर से आए, और उन्हें परमेश्वर ने रचा, और इस मान्यता के आधार पर कि स्वर्ग, पृथ्वी, और तमाम चीजों के बीच एक संप्रभु है, लोग परमेश्वर में आस्था के पथ पर चलते हैं, फिर परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर लेते हैं, और परमेश्वर के उद्धार और पूर्णता को स्वीकार कर लेते हैं—इसकी प्रभावशीलता और भी बेहतर होती है। अब, परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने वाले सभी लोग कौन हैं? कम-से-कम वे परमेश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और मानते हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। वे यह भी मानते हैं कि नियति होती है, और मानव जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है, और इसके अलावा वे आध्यात्मिक क्षेत्र के अस्तित्व को और स्वर्ग और नरक के अस्तित्व को मानते हैं, और यह कि लोगों की नियति पूर्वनिर्धारित है। इन लोगों में से, परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों को चुना है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, और जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। वे परमेश्वर की वाणी को समझ सकते हैं, और परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर सकते हैं। यही वह एक तरीका और एक सिद्धांत है जिससे परमेश्वर कार्य करता है।

परमेश्वर लोगों पर कार्य कैसे और किन विधियों से करता है, इस पर हमने अभी-अभी चर्चा की। हमने सिर्फ इन मुद्दों को ही छुआ, इस पर कुछ नहीं कहा कि लोगों की धारणाएँ क्या हैं और लोग परमेश्वर के समक्ष कौन-सी माँगें रखते हैं। आओ, अब हम इनसे जुड़े मसलों पर संगति करें। चूँकि हमने इस संगति में जिक्र किया कि लोगों के मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में कुछ खोखले और अस्पष्ट विचार और समझ हैं, तो आओ इसे साबित करने के लिए हम कुछ मिसालें ढूँढ़ें, और सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की मिसालों के बारे में थोड़ी चर्चा करें। इस बुनियाद पर, क्या तब लोग समझ नहीं पाएँगे कि कौन-सी कल्पनाएँ काफी खोखली और काफी अस्पष्ट हैं और ये परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ हैं? पहले जो कहानी मैंने तुम्हें सुनाई थी, उससे शुरू करूँ, तो कहानी की नायिका जीवन में बहुत सारे दर्दनाक अनुभवों से गुजरी। हर दर्दनाक अनुभव के बाद, परमेश्वर अपने ही तरीकों से उसकी नियति की व्यवस्था और आयोजन करता रहा और आगे के मार्ग पर उसका मार्गदर्शन करता रहा। हालाँकि वह नहीं समझी, नहीं जान पाई, और उसने चिंतन नहीं किया, फिर भी परमेश्वर ने यह वैसे ही किया जैसे उसने हमेशा किया था। इस मुकाम पर, क्या उस महिला ने सृष्टिकर्ता की इस कार्यविधि के बारे में कुछ विचार प्रदर्शित किए? क्या उन विचारों को एक किस्म की धारणा कहा जा सकता है? ये विचार और ऐसी धारणा वास्तव में क्या हैं? सबसे पहले, अगर नायिका की ही बात करें, तो उसकी एक कामना थी। उसने जीवन में अमीर या दौलतमंद होने की अपेक्षा नहीं की थी, वह बस इतना चाहती थी कि कोई ऐसा हो जिस पर वह भरोसा कर सके। विस्तारित जाँच और विश्लेषण के जरिये हम समझ सकते हैं कि यह कामना गलत थी। एक अर्थ में, यह उस नियति के विपरीत थी जो परमेश्वर लोगों के लिए आयोजित और व्यवस्थित करता है, और एक दूसरे अर्थ में यह व्यावहारिक भी नहीं थी। तो क्या परमेश्वर ने उसकी इस कामना के बारे में कोई परिभाषा या वक्तव्य दिया है? लोगों की कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के लिए किसी व्यक्ति को थोड़ा धर्म-सिद्धांत समझाना बहुत आसान है, है कि नहीं? अगर वह उन्हें समझाना चाहे, तो क्या वे समझेंगे नहीं? इस महिला की एक आकांक्षा थी कि कोई ऐसा हो जिस पर वह भरोसा कर सके—परमेश्वर उसे ऐसा बना सकता था कि वह ऐसी आकांक्षा न रखे, या वह उससे इस आकांक्षा को बदलवा सकता था—क्या परमेश्वर ने यह किया? (नहीं।) नहीं, परमेश्वर ने यह नहीं किया। क्या उसकी आकांक्षा एक प्रकार की धारणा थी? क्या यह अलौकिक थी? क्या यह खोखली थी? लोगों के मन में ऐसे विचारों का उठना स्वाभाविक है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह स्वाभाविक है? परमेश्वर ने इंसान को स्वतंत्र इच्छा वाला बनाया। इंसान के पास दिमाग है, सोच और विचार हैं। शैतान के हाथों भ्रष्ट होने के बाद, इंसान संसार की ध्वनियों और दृश्यों में खो गया, और अपने माँ-बाप से शिक्षा पाकर, अपने परिजनों से प्रभावित होकर और समाज से शिक्षा ग्रहण करके, इंसान के विचारों में अनेक चीजें उभरती हैं—ऐसी चीजें जो इंसान के दिल से पैदा होती हैं, जो सहज रूप से बाहर आ जाती हैं। जो चीजें इंसान के अंदर से सहज रूप से बाहर आ जाती हैं, वे आकार कैसे लेती हैं? पहली बात तो, इंसान में यह सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह समस्या पर विचार कर सके—यही वह आधार है जो इन चीजों को उभारने की सामर्थ्य रखने के लिए किसी में होना चाहिए। फिर, परिवेश-संबंधी अनुकूलन के जरिये—जैसे अपने परिवार और समाज से शिक्षा प्राप्त करने—साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभावों, महत्वाकांक्षाओं और अभिलाषाओं के द्वारा आगे बढ़ाए जाने से, ये विचार धीरे-धीरे आकार लेने लगते हैं। जब बात इस तरह से आकार लेने वाली सोच और विचारों की हो, तो चाहे ये वास्तविकता से मेल खाते हों या फिर खोखले हों, या वे चाहे जैसे भी हों, हम अभी उन पर फैसला नहीं सुनाएँगे। इसके बजाय, हम सिर्फ इस बारे में बात करेंगे कि परमेश्वर ऐसे विचारों को कैसे संभालता है। क्या परमेश्वर उनकी निंदा करता है? वह उनकी निंदा नहीं करता। तो वह उन्हें किस दृष्टि से देखता है? वह ऐसे विचारों को लोगों के मन से नहीं निकालता। लोगों के मन में एक धारणा और कल्पना होती है, वे सोचते हैं कि परमेश्वर के महान, निराकार हाथ का सौम्य स्पर्श पाकर, उनकी सोच बदल जाएगी। क्या यह धारणा अस्पष्ट, अलौकिक और खोखली नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर के कार्य के तरीके को लेकर लोगों के मन में यह एक धारणा है। लोग अपने दिल की गहराइयों में, अक्सर परमेश्वर के कार्य और उसकी कार्यविधि को लेकर कोरी कल्पनाएँ गढ़ लेते हैं, हालाँकि वे इस बारे में कुछ कहते नहीं हैं। लोग कल्पना कर लेते हैं कि सृष्टिकर्ता दबे पाँव आकर इंसान की बगल में खड़ा हो जाएगा और फिर उसके महान हाथ के इशारे, उसकी श्वास के झोंके से या फिर उसके किसी विचार के फेर से, इंसान के अंदर की तमाम नकारात्मक चीजें पलभर में छूमंतर हो जाएँगी, जैसे तूफानी हवा के झोंके की निःशब्द खामोशी किसी बादल को उड़ा ले जाती है। परमेश्वर इंसान के इन विचारों को, इंसान के मन से उपजने वाली इन चीजों से कैसे पेश आता है? परमेश्वर उन्हें अलौकिक और खोखले तरीकों से नहीं, बल्कि इंसान के लिए परिवेश की व्यवस्था करके उन्हें दूर करता है। वह कैसा परिवेश तैयार करता है? यह कोई खोखली चीज नहीं है—परमेश्वर सारे नियमों को तोड़कर कोई अलौकिक कार्य नहीं करता। बल्कि वह ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जो इंसान को मामले को समझकर, उस पर निरंतर चिंतन करने को बाध्य करता है, जिसके बाद परमेश्वर इंसान का मार्ग रोशन करने के लिए हर तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है, जिससे इंसान को एक समझ हासिल हो जाती है। परमेश्वर उनकी नियति नहीं बदलता; वह उनकी नियति के क्रम में कुछ घटनाएँ जोड़ देता है, और इस तरह उन्हें ये चीजें समझने योग्य बना देता है। इंसान की तमाम धारणाएँ अलौकिक, खोखली, अस्पष्ट और वास्तविकता से असंगत—यानी वास्तविकता से दूर होती हैं। मान लो, मिसाल के तौर पर, कोई व्यक्ति भूखा है और खाना खाना चाहता है। कुछ लोग कहेंगे, “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, उसे बस इतना करना है कि वह मेरे ऊपर अपनी श्वास छोड़े और मेरा पेट भर जाएगा। क्या सचमुच मुझे खाना पकाने की जरूरत है? बड़ा अच्छा होगा अगर परमेश्वर एक छोटा-सा चमत्कार कर दे ताकि मुझे भूख न लगे।” क्या यह वास्तविकता से परे नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम परमेश्वर से कहो कि तुम भूखे हो, तो परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर तुमसे कहेगा कि कुछ खाना तलाशो और उसे पकाओ। अगर तुमने कहा कि तुम्हारे पास खाना नहीं है और तुम खाना नहीं बना सकते, तो परमेश्वर क्या करेगा? वह तुम्हें खाना बनाना सीखने के लिए कहेगा। यह परमेश्वर के कार्य का व्यावहारिक पक्ष है। अगर तुम लोगों का सामना किसी अनजानी चीज से हो जाए, और तुम अब खोखली प्रार्थना न करो या आत्म-विश्वासी ढंग से परमेश्वर पर अस्पष्ट ढंग से निर्भर न रहो, या परमेश्वर के बारे में अपनी इन धारणाओं और कल्पनाओं पर अपनी उम्मीदें न टिकाओ, तो तुम्हें समझ आ जाएगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए—तुम्हें अपना कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारी और अपना दायित्व समझ में आ जाएगा।

मैंने अभी एक पहलू के बारे में चर्चा की, वह यह है कि जब लोग परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए परिवेश को नहीं समझते तो परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर परिवेश तैयार करता रहता है। वह यह इसलिए करता है ताकि लोग सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को समझते रहें, और जीवन अनुभव के जरिये समझते रहें कि उनकी नियति क्या है, भीतर गहरे जान लें कि उनकी कामनाएँ उनकी नियति से भिन्न हैं, सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि लोग तब धीरे-धीरे अपनी कामनाओं को जाने देना और सृष्टिकर्ता द्वारा आयोजित हर चीज के प्रति समर्पित होना सीख लें। यह समझना काफी आसान है। दूसरा पहलू यह है कि जब परमेश्वर के स्पष्ट वचन लोगों तक पहुँचते हैं, तो वे कुछ धारणाएँ और कल्पनाएँ बना लेते हैं। कैसी धारणाएँ? “परमेश्वर के वचन जीवन की रोटी और सत्य हैं। परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर हैं। जब मैं परमेश्वर के वचन सुनता हूँ, तो मैं चाहे जितना भी मूर्ख क्यों न हूँ, तुरंत अक्लमंद बन जाता हूँ। अगर मैं परमेश्वर के अधिक वचन पढ़ता रहूँगा, तो मेरी काबिलियत बढ़ेगी और मेरे कौशल बढ़ेंगे।” लोगों के ये विचार क्या हैं? ये उनकी धारणाएँ हैं। तो क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है? (नहीं।) चूँकि ये मनुष्य की धारणाएँ हैं, इसलिए ये यकीनन परमेश्वर के कार्य के विपरीत हैं और उसके विरोध में हैं। इसी में एक तथ्य निहित है। परमेश्वर मनुष्य से आमने-सामने होकर बात करता है, और उसे बताता है कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए, किस मार्ग पर चलना चाहिए, परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना चाहिए, और वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनमें उसे कार्य के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश करना चाहिए। परमेश्वर ये तमाम चीजें स्पष्ट रूप से मनुष्य को बताता है, फिर भी मनुष्य अक्सर इस उम्मीद में रुका रहता है कि परमेश्वर उसे अपने वचनों के बजाय किन्हीं दूसरे साधनों से बताएगा कि वास्तव में उसके इरादे क्या हैं, और आशा करता है कि वह ऐसे नतीजे हासिल कर सकेगा जो पहले अकल्पनीय थे, और कुछ चमत्कार देख पाएगा। क्या यह मनुष्य की धारणा नहीं है? (बिल्कुल है।) असल में परमेश्वर क्या करता है? (अपने वचनों से गुजरने और उनका अनुभव करने हेतु परमेश्वर लोगों के लिए व्यावहारिक परिवेश तैयार करता है।) उनके लिए व्यावहारिक परिवेश तैयार करने पर भी लोग जब उसके इरादे नहीं समझ पाते तो परमेश्वर क्या करता है? (वह लोगों को प्रबुद्ध कर उनका मार्गदर्शन करता है।) अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध कर तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं करता तो तुम्हें क्या करना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना और उसका कहा करना चाहिए।) सही है। अपना कार्य शुरू करने से लेकर आज तक परमेश्वर ने लोगों से आमने-सामने होकर कितने वचन बोले हैं? इतने सारे हैं कि तुम सालोंसाल उन्हें पढ़ते रहो, तो भी अंत तक नहीं पहुँच पाओगे। लेकिन लोग कितने वचन प्राप्त करते हैं? अगर कोई व्यक्ति बहुत कम वचन प्राप्त करता है, तो इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि उसने परमेश्वर के वचनों पर ज्यादा मेहनत नहीं की, और उसने उन्हें नहीं सुना है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने सुने हैं”—लेकिन क्या तुमने परमेश्वर के वचनों को आत्मसात किया था? क्या तुमने उन्हें समझा था? क्या तुमने उन पर ध्यान दिया था? तुमने उन पर ध्यान नहीं लगाया, इसलिए परमेश्वर के वचन पहले ही तुम्हें छूकर निकल गए हैं। इसलिए जब परमेश्वर मनुष्य को यह बताने के लिए स्पष्ट भाषा का प्रयोग करता है कि कर्म कैसे करें, कैसे जिएँ, उसके प्रति समर्पण कैसे करें और हर घटना का अनुभव कैसे करें, फिर भी मनुष्य न समझे, तो परमेश्वर उसके लिए परिवेश तैयार करने, उसे कुछ विशेष प्रबुद्धता देने या उसे कुछ विशेष अनुभवों से गुजारने के सिवाय कुछ नहीं करता। यही इस बात का अंत है कि परमेश्वर क्या कर सकता है, उसे क्या करना चाहिए और वह क्या करने को तैयार है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पूछते हैं, “क्या परमेश्वर नहीं चाहता कि हर व्यक्ति बचाया जाए, और किसी का भी विनाश न हो? अगर परमेश्वर ऐसी कार्यविधि अपनाएगा तो कितने लोग बचाए जा सकेंगे?” जवाब में परमेश्वर पूछेगा, “कितने लोग मेरे वचनों पर ध्यान देते हैं और मेरे मार्ग पर चलते हैं?” जितने हैं, बस उतने ही हैं—यह परमेश्वर का नजरिया और उसके कार्य का तरीका है। परमेश्वर इससे ज्यादा कुछ नहीं करता। इस मामले में मनुष्य की धारणा क्या है? “परमेश्वर इस मानवजाति पर दया दिखाता है, उसे इस मानवजाति की चिंता है, तो उसे अंत तक जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए। अगर मनुष्य अंत तक उसका अनुसरण करता है, तो वह अवश्य बचाया जाएगा।” यह धारणा सही है या गलत? क्या यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? अनुग्रह के युग में लोगों के लिए ऐसी धारणाएँ रखना सामान्य था, क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते थे। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने लोगों को ये तमाम सत्य बताए हैं, और परमेश्वर ने लोगों को बचाने के अपने सिद्धांत भी उन्हें समझा दिए हैं, इसलिए अगर लोग अपने दिलों में अभी भी ये धारणाएँ रखते हैं तो यह बड़ी अनर्थक बात है। परमेश्वर ने तुम्हें ये तमाम सत्य बता दिए हैं, तो अगर अंत में, तुम अभी भी कहते हो कि तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझते और अभ्यास करना नहीं जानते, और तुम अभी भी ऐसी विद्रोही और विश्वासघाती बातें कहते हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकेगा? ऐसे कुछ लोग हैं जो हमेशा सोचते हैं, “परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, उसे दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी प्राप्त हो जानी चाहिए और उसे परमेश्वर के महिमामंडन की गवाही देने के लिए ढेर सारे लोगों, शक्तिशाली ताकतों और काफी संख्या में उच्च क्रम के व्यक्तित्वों का प्रयोग करना चाहिए। यह कितना अद्भुत होगा!” यही मनुष्य की धारणा है। बाइबल में, पुराने और नए दोनों नियमों में, ऐसे कुल कितने लोग थे जिन्हें बचाया और पूर्ण किया गया था? अंत में वे कौन थे जो परमेश्वर का भय मान कर बुराई से दूर रह पाए? (अय्यूब और पतरस।) बस ये दो लोग ही थे। परमेश्वर की नजर में, उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना, दरअसल, उसे जानने, सृष्टिकर्ता को जानने का मानक है। परमेश्वर की नजर में, इब्राहिम और नूह धार्मिक थे, लेकिन फिर भी वे अय्यूब और पतरस से एक पायदान नीचे थे। बेशक, उस समय परमेश्वर ने इतना अधिक कार्य नहीं किया था। उसने लोगों को उतना पोषण नहीं दिया था जितना वह उन्हें अब देता है, न ही उसने इतने स्पष्ट वचन बोले थे, न ही उसने इतने बड़े पैमाने पर उद्धार का कार्य किया था। शायद उसे बड़ी संख्या में लोग प्राप्त नहीं हुए थे, लेकिन यह अभी भी उसके पूर्व-निर्धारण में है। इसमें सृष्टिकर्ता के स्वभाव के किस पहलू को देखा जा सकता है? परमेश्वर को और अधिक लोग प्राप्त होने की उम्मीद है, लेकिन असल में अगर अधिक लोग प्राप्त न हो सके—अगर परमेश्वर को अपने उद्धार के कार्य के दौरान अधिक लोग प्राप्त न हो पाए—तो परमेश्वर उन्हें त्यागना और निकाल देना चाहेगा। यही है सृष्टिकर्ता की आंतरिक वाणी और नजरिया। इस बारे में, परमेश्वर को ले कर इंसान की क्या अपेक्षाएँ या धारणाएँ हैं? “चूँकि तुम मुझे बचाना चाहते हो, इसलिए तुम्हें अंत तक जिम्मेदार होना चाहिए और तुमने मुझे आशीष देने का वादा किया था, इसलिए तुम्हें मुझे आशीष देने चाहिए और मुझे पाने देना चाहिए।” इंसान के अंदर बहुत-सी “अपेक्षाएँ” हैं—अनेक माँगें हैं—और यह उसकी एक धारणा है। अन्य लोग कहते हैं, “परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है—छह हजार वर्षीय योजना—अगर अंत में वह केवल दो ही लोगों को प्राप्त करे, तो यह कैसी शर्मिंदगी की बात होगी। क्या तब उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ नहीं हो जाएँगे?” इंसान सोचता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन परमेश्वर दो लोगों को प्राप्त करके भी खुश है। परमेश्वर का असली उद्देश्य मात्र उन दो लोगों को प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि अधिक लोगों को प्राप्त करना है, लेकिन अगर लोग जागते नहीं और नहीं समझते और वे परमेश्वर को गलत समझ कर उसका प्रतिरोध करते हैं, और वे सभी बेकार और निकम्मे हैं, तो परमेश्वर उन्हें प्राप्त नहीं करना चाहेगा। यही परमेश्वर का स्वभाव है। कुछ लोग कहते हैं, “इससे बात नहीं बनेगी। तब क्या शैतान हँसी नहीं उड़ाएगा?” शायद शैतान हँसी उड़ाए, मगर इसके बावजूद क्या वह परमेश्वर का परास्त शत्रु नहीं है? फिर भी परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त किया है—उनमें से अनेक ऐसे हैं जो शैतान का त्याग कर सकते हैं और उसके नियंत्रण से मुक्त हो सकते हैं। परमेश्वर ने सच्चे सृजित प्राणियों को प्राप्त किया है। जो लोग परमेश्वर को प्राप्त नहीं हुए हैं, क्या उन्हें शैतान ने बंदी बना लिया है? तुम लोगों को पूर्ण नहीं बनाया गया है, क्या तुम लोग शैतान का अनुसरण करने में सक्षम हो? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “अगर परमेश्वर को मेरी आवश्यकता नहीं है, तो भी मैं शैतान का अनुसरण नहीं करूँगा। अगर वो मुझे आशीष देगा, तो भी मैं नहीं लूँगा।” जो लोग परमेश्वर को प्राप्त नहीं हुए हैं, वे भी शैतान का अनुसरण नहीं करते—क्या इस प्रकार परमेश्वर महिमामंडित नहीं होता? परमेश्वर द्वरा प्राप्त लोगों की संख्या, और जिस पैमाने पर वह उन्हें प्राप्त करता है, उस बारे में लोगों के मन में एक धारणा होती है; वे मानते हैं कि परमेश्वर को उन थोड़े-से लोगों को ही प्राप्त नहीं करना चाहिए। इंसान के मन में ऐसी धारणा इसलिए पैदा होती है, क्योंकि एक ओर वह परमेश्वर के मन की थाह नहीं पा सकता और यह नहीं समझ सकता कि वह किस प्रकार के व्यक्ति को प्राप्त करना चाहता है—इंसान और परमेश्वर के बीच हमेशा दूरी होती है; दूसरी ओर, इंसान के लिए ऐसी धारणाएँ रखना वह तरीका है जिससे वह अपनी नियति और भविष्य के मामले में, खुद को दिलासा दे कर अपने आपको मुक्त रख सकता है। इंसान मानता है, “परमेश्वर ने बहुत कम लोग प्राप्त किए हैं—हम सबको प्राप्त कर लेना उसके लिए कितना गौरवशाली होगा! अगर परमेश्वर किसी को न निकाले, बल्कि हर एक को जीत ले और अंततः हर कोई पूर्ण बन जाए और परमेश्वर द्वारा लोगों को चुने जाने और बचाए जाने की बात बेकार न जाए, न ही उसके प्रबंधन का कार्य बेकार हो, तो क्या शैतान और ज्यादा शर्मिंदा न होगा? क्या परमेश्वर और अधिक महिमामंडित नहीं होगा?” वह ऐसा इसलिए कह सकता है क्योंकि कुछ तो वह सृष्टिकर्ता को नहीं जानता और कुछ उसकी अपनी स्वार्थपूर्ण मंशा है : उसे अपने भविष्य की चिंता है, इसलिए वह इसे सृष्टिकर्ता की महिमा से जोड़ देता है, इस तरह यह सोचकर कि चित भी मेरी, पट भी मेरी, उसके दिल को चैन मिलता है। इसके अलावा, उसे यह भी लगता है कि “परमेश्वर का लोगों को प्राप्त कर शैतान को अपमानित करना शैतान की हार का मजबूत साक्ष्य है। यह एक पत्थर से तीन चिड़िया मारना है!” लोग अपना फायदा करवाने के तरीके ढूँढ़ने में माहिर होते हैं। यह बड़ी चतुरतापूर्ण धारणा है, है कि नहीं? लोगों में स्वार्थी मंसूबे होते हैं, और क्या इन मंसूबों में विद्रोहशीलता नहीं झलकती है? क्या इसमें परमेश्वर से माँग नहीं की जाती है? इसके भीतर परमेश्वर के विरुद्ध एक अनकहा प्रतिरोध है, जो कहता है, “तुमने हमें चुना है, हमारी अगुआई की है, हम पर इतनी मेहनत की है, हमें अपना जीवन और अपनी संपूर्णता दी है, अपने वचन और सत्य दिए हैं, और हमसे इतने वर्ष अपना अनुसरण करवाया है। अगर अंत में तुम हमें प्राप्त नहीं कर पाए तो यह कैसी बड़ी क्षति होगी।” ऐसा बहाना परमेश्वर को ब्लैकमेल करने, और उन्हें प्राप्त करने को बाध्य करने का प्रयास है। यह कहना है कि अगर परमेश्वर ने उन्हें प्राप्त नहीं किया तो वे कुछ नहीं खोएँगे, इससे परमेश्वर को ही नुकसान होगा—क्या यह वक्तव्य सही है? इसमें मनुष्य की माँगें, उसकी कल्पनाएँ और धारणाएँ शामिल हैं : परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, तो उसे ज्यादा-से-ज्यादा लोग अवश्य प्राप्त करने चाहिए। यह “अवश्य” कहाँ से आता है? यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं, उसकी अनुचित माँगों और उसके घमंड, और साथ ही उसके हठी और खूंख्वार स्वभाव के मिश्रण से आता है।

मनुष्य की ऐसी धारणाओं के बारे में एक और नजरिये से संगति की जानी चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं, “चूँकि सृष्टिकर्ता को परवाह नहीं कि उसे कितने लोग प्राप्त होते हैं और वह सोचता है कि जितने भी मिलें उतने ही प्राप्त कर लेगा, चूँकि यह सृष्टिकर्ता का रवैया है, तो हमें उसके साथ कैसे सहयोग करना चाहिए? क्या यूँ ही विश्वास रखना और उसे इतनी गंभीरता से न लेना ठीक है? किसी भी स्थिति में, परमेश्वर भी इसे गंभीरता से नहीं लेता, इसलिए हमें परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में उतना गंभीर नहीं होना चाहिए, न ही हमें इसे अपना मुख्य काम या जीवन भर का अनुसरण मानना चाहिए। अब चूँकि हम परमेश्वर के विचार जानते हैं, तो क्या हमें अपने जीने का तरीका नहीं बदलना चाहिए?” यह नजरिया सही है या गलत? (यह गलत है।) चूँकि परमेश्वर का रवैया लोगों को स्पष्ट समझा दिया गया है, और वे उसे समझते हैं, तो उन्हें अपनी धारणाओं को जाने देना चाहिए। अपनी धारणाओं को जाने देने के बाद लोगों को क्या करना चाहिए और उन्हें कैसे चुनना चाहिए, उन्हें इस मामले को कैसे समझना और उससे कैसे निपटना चाहिए, ताकि उनका नजरिया और रवैया वही हो जो होना ही चाहिए? सबसे पहले अपने नजरियों के संदर्भ में लोगों को उन पर चिंतन करने की कोशिश करनी चाहिए। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, लोगों के मन में उसके प्रति श्रद्धा और आदर की अस्पष्ट कल्पना होती है। वे सोचते हैं कि “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और चूँकि उसने इस भ्रष्ट मानवजाति में से लोगों के एक समूह को चुना है, इसलिए वह निश्चित रूप से उन्हें पूर्ण कर पाएगा। इसलिए हमें निश्चित तौर पर आशीष तो प्राप्त होंगे ही।” क्या ऐसी “निश्चितता” के पीछे अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता नहीं है? सत्य का अनुसरण किए बिना या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरे बिना आशीष और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने की कामना करना एक ऐसा रवैया है जो मनुष्य को नहीं अपनाना चाहिए। अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता मत अपनाओ—भाग्य बहुत बड़ा शत्रु है। अपना भाग्य आजमाना किस प्रकार की मानसिकता है? तुम्हारी किन दशाओं, सोच, विचारों, रवैयों, धारणाओं और नजरियों के पीछे तुम्हारी भाग्य आजमाने की मानसिकता होती है? क्या तुम इसका पता लगा सकते हो? अगर तुम इसका पता लगा लेते हो, और आशीष पाने के पीछे अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता की मौजूदगी को देख लेते हो, तो तुम्हें उसे किस तरह से बदलना चाहिए? तुम्हें इसे कैसे सुलझाना चाहिए? ये व्यावहारिक समस्याएँ हैं। तुम्हें अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता को गहराई से समझना चाहिए। तुम्हें इसे जरूर दूर करना चाहिए। अगर तुम इसे दूर नहीं करते, तो संभव है यह तुम्हें डगमगा दे, और तुम कष्ट सहोगे। तो अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता में कौन-सी चीजें शामिल होती हैं? कुछ लोग सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैंने अपना परिवार और अपनी नौकरी भी छोड़ दी है। कुछ भी हो, भले ही मैंने सराहनीय सेवा न की हो, मैंने कड़ी मेहनत की है, और भले ही मैंने कड़ी मेहनत न की हो, मैंने खुद को थका लिया है, और अगर मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँ तो संभव है मैं विजेताओं में से एक, बचाए जाने वालों में से एक, आशीष प्राप्त लोगों में से एक, परमेश्वर के राज्य का एक व्यक्ति बन जाऊँ।” यह अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता है। क्या सभी लोगों में यह मानसिकता नहीं होती? कम-से-कम परमेश्वर का अनुसरण करने और पूरे समय अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ छोड़ देने वाले ज्यादातर लोगों की मानसिकता ऐसी ही होती है। क्या भाग्य आजमाने की मानसिकता एक तरह की धारणा नहीं है? (बिल्कुल है।) मैं इसे एक प्रकार की धारणा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तक तुम इस मामले के प्रति सृष्टिकर्ता के इरादे और रवैये को समझ या ग्रहण नहीं कर लेते, तो तुम मात्र आत्मपरक रूप से ही अच्छा सोचते हो और सिर्फ व्यक्तिपरक रूप से एक अच्छे परिणाम की अपेक्षा करके व्यक्तिपरक रूप से अनुसरण करते हो, और उसके प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण ऐसा ही होता है। यह एक प्रकार की धारणा है। सृष्टिकर्ता के प्रति इस तरह की धारणा क्या एक प्रकार का ब्लैकमेल नहीं है? क्या यह एक अनुचित माँग नहीं है? यह ऐसा कहने जैसा ही है, “चूँकि मैंने तुम्हारा अनुसरण किया है, चूँकि मैं सब-कुछ छोड़कर परमेश्वर के घर में पूरे समय अपना कर्तव्य निर्वहन करने के लिए आ गया हूँ, इसलिए मेरी गिनती उन लोगों में होनी चाहिए जो सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो चुके हैं, है न? तो क्या अब मेरा भविष्य उज्ज्वल हो सकता है? मेरा भविष्य अज्ञात नहीं होना चाहिए—प्रत्यक्ष होना चाहिए।” यह अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता है। ऐसी मानसिकता कैसे दूर हो सकती है? इंसान को परमेश्वर का स्वभाव पता होना चाहिए। अब चूँकि मैंने इस तरह संगति की है, इसलिए सभी को मूलतः यह समझ लेना चाहिए : “तो परमेश्वर यह सोचता है। यह परमेश्वर का दृष्टिकोण और रवैया है। तो हमें क्या करना चाहिए?” लोगों को अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता छोड़ देनी चाहिए। भाग्य आजमाने की मानसिकता छोड़ने के लिए क्या इतना कहना काफी है, “मैंने इसे छोड़ दिया है और अब ऐसे विचार नहीं रखूँगा। मैं अपने कर्तव्य को गंभीरता से लूँगा, जिम्मेदारी उठाऊँगा और मेहनत करूँगा”? यह इतना आसान नहीं है—जब किसी के अंदर अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता बन जाती है, तो उसमें कुछ विचार और अभ्यास उभर आते हैं, उससे भी ज्यादा, कुछ स्वभाव भी प्रकट हो जाते हैं। सत्य खोज कर इन्हें दूर करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैंने परमेश्वर के इरादों और रवैयों को समझ लिया है, तो क्या मैं भाग्य आजमाने की मानसिकता से मुक्त नहीं हो चुका हूँ?” यह कैसी बात हुई? यह आध्यात्मिक समझ का अभाव है; यह खोखली बात है। फिर समस्या दूर कहाँ हुई? तुम्हें विचार करना चाहिए, “अगर परमेश्वर मुझसे सब-कुछ ले ले, तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं परमेश्वर को जो कुछ देता हूँ और स्वयं को खपाता हूँ, वह स्वेच्छा से करता हूँ या ये उससे सौदेबाजी की कोशिशें हैं? अगर मेरी नीयत सौदेबाजी की है, तो यह ठीक नहीं है। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी पड़ेगी और इसे दूर करने के लिए सत्य को खोजना पड़ेगा।” इसके अलावा, अभ्यास करते और अपने कर्तव्य निभाते समय, तुम्हें समझ लेना चाहिए कि वे कौन-से सत्य-सिद्धांत हैं जिनकी समझ तुम्हें नहीं है, तुम ऐसा क्या करते हो जो परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके इरादों के विरुद्ध है, किस तरह का मार्ग गलत और विपदा का मार्ग है और वह किस तरह का मार्ग है जिसे परमेश्वर स्वीकार कर सकता है। भाग्य आजमाने की मानसिकता में और कौन-सी चीजें होती हैं? ऐसे लोग भी हैं, जो गंभीर रोगों से ग्रस्त होने पर परमेश्वर द्वारा बचा लिए गए हैं और अब वे बीमार नहीं हैं। वे सोचते हैं, “तुम लोग आशीषों के पीछे भागने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हो। मैं अलग हूँ। परमेश्वर का महान प्रेम ही मुझे यहाँ ले आया है; उसने मेरे लिए विशेष परिस्थितियों और अनुभवों की व्यवस्था की जिसके कारण मैं उसमें विश्वास रखने की दिशा में आगे बढ़ा, इसलिए वह मुझे तुम लोगों से अधिक प्रेम करता है, वह मुझसे विशेष अनुग्रह से पेश आता है, और अंत में, मेरे पास तुम लोगों की अपेक्षा जीवित रहने की ज्यादा संभावना होगी।” वे सोचते हैं कि परमेश्वर से उनका संबंध असाधारण और विशेष है—उसके साथ उनका सबंध आम लोगों से अलग हैं। अपने विशेष अनुभव की वजह से, वे खुद को असाधारण और अनोखा समझते हैं और इसीलिए उन्हें इस बात का यकीन है कि वे सफल होंगे। वे खुद को पूरे विश्वास के साथ दूसरों से अलग बताते हैं, उन्हें अपने जीवित रहने की क्षमता पर पूरा भरोसा है—यह भी अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उठा रखी है और उनकी हैसियत ऊँची है। वे दूसरों से ज्यादा कष्ट झेलते हैं, उनकी काट-छाँट और निपटान दूसरों से थोड़ा ज्यादा होते हैं, वे खुद को दूसरों से अधिक व्यस्त रखते हैं और दूसरों से थोड़ा ज्यादा बोलते हैं। वे सोचते हैं, “परमेश्वर और उसके घर ने मुझे महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठाया है और भाई-बहन मुझे तरजीह देते हैं। यह कितने सम्मान की बात है। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे दूसरों से पहले आशीष मिलेगा?” यह भी अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता है और यह एक तरह की धारणा है।

मैंने अभी-अभी अपना भाग्य आजमाने की कुछ व्यावहारिक अभिव्यक्तियों और दशाओं के बारे में चर्चा की है। भाग्य आजमाने से जुड़ी और कौन-सी दशाएँ, अभिव्यक्तियाँ या चीजें हैं जो लोगों के मन में अक्सर उठती हैं और आदतन मौजूद रहती हैं? जिन्हें कुछ विशेष अनुभव होते हैं, जिनकी हैसियत ऊँची होती है, और जिन्होंने परमेश्वर के लिए पूरा समय खपने हेतु सब-कुछ पीछे छोड़ दिया है, उनके अलावा कुछ ऐसे लोग भी हैं जो योग्यता-प्राप्त हैं, जो कुछ विशेष कर्तव्य करते हैं, और जिनमें कुछ विशेष प्रतिभाएँ हैं—इन लोगों की मानसिकता भाग्य आजमाने की होती है। “योग्यता-प्राप्त,” इस शब्द का संदर्भ किससे है? मिसाल के तौर पर, सुसमाचार का प्रचार करने वाले लोग मानते हैं कि अगर वे दस लोगों को जीत लें, तो उन्होंने दस फल पैदा किए हैं, और उनके आशीष प्राप्त करने का मौका 10 प्रतिशत होगा, और अगर वे 50 फल पैदा करेंगे, तो उनका मौका 50 प्रतिशत होगा, और अगर वे 100 फल पैदा करेंगे, तो उनका मौका 100 प्रतिशत होगा। यह एक किस्म की धारणा है, एक किस्म की लेन-देन है, और सबसे ज्यादा यह अपना भाग्य आजमाना है। अगर वे इन धारणाओं और अपना भाग्य आजमाने की मानसिकता को पकड़े हुए परमेश्वर का कार्य माप सकें, तो क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखना है? वे कौन-से पथ पर चल रहे हैं? क्या उनके अनुसरण के साथ कुछ गलत नहीं है? उनके भीतर ऐसी चीजें क्यों पैदा होती हैं? वे उन्हें क्यों थामे रहते हैं और जाने देने से मना करते हैं? कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए है कि वे परमेश्वर को नहीं जानते। क्या यह सही है? ये खोखली बातें हैं। तो फिर वास्तव में कारण क्या है? जो लोग हमेशा ऐसे नजरिये और रवैये पकड़े रहते हैं, जिनके मन में ये धारणाएँ होती हैं और जो उनसे चिपके रहने पर अड़े रहते हैं—क्या वे गंभीर रूप से परमेश्वर के वचनों में मेहनत लगा रहे हैं? (नहीं।) परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया हमेशा बेपरवाही का होता है, यानी किसी ऐसे व्यक्ति का रवैया और नजरिया जो धुंधलके में से देख रहा हो। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में अपने विश्वास में, उन्हें बस इतना जानने की जरूरत है कि उन्होंने परमेश्वर के लिए कितने कष्ट सहे हैं, कितनी कीमत चुकाई है, कितने गुण अर्जित किए हैं, उनमें कौन-सी विशेष प्रतिभाएँ हैं, वे कितने कौशल-युक्त हैं, उनकी हैसियत कितनी ऊँची है, उन्होंने परमेश्वर के साथ किस प्रकार के “विपदा में सहचारिता के पल” अनुभव किए हैं, उन्हें कौन-से विशेष अनुभव हुए हैं, और परमेश्वर ने उन्हें कौन-सी विशेष चीजें दी हैं, या उसने कैसा अनुग्रह और आशीष दिए हैं जो दूसरे लोगों द्वारा प्रदत्त अनुग्रह और आशीषों से अलग हैं—उन्हें लगता है कि यह काफी है। वे इन नजरियों से भले ही जितना भी कस कर चिपके रहें, उन्होंने कभी चिंतन नहीं किया है कि उनके ये नजरिये सही हैं या नहीं, या परमेश्वर के किन वचनों और कार्य के किन सिद्धांतों के विपरीत हैं, या ये नजरिये परमेश्वर द्वारा सत्यापित किए गए हैं या नहीं, या क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है या चीजें इस तरह से पूरी करता है। उन्होंने कभी भी इन मसलों की परवाह नहीं की है। अब तक, उन्होंने सिर्फ चिंतन किया है, गहराई से विचार किया है और अपने ही मन में सपना देखा है। तो फिर सत्य उनके लिए क्या बन गया है? यह एक सजावट बन गया है। हालाँकि ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, मगर उनके विश्वास का परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। तो फिर उनके विश्वास का किससे लेना-देना है? इसका सरोकार सिर्फ धारणाओं, कल्पनाओं और उनकी अपनी आकांक्षाओं और साथ ही उनके भविष्य के आशीषों और मंजिलों से है। उन्होंने सत्य पर कोई मेहनत नहीं की है, इसलिए उन्हें ये परिणाम मिलते हैं।

आज की संगति के जरिये, अब चूँकि तुमने परमेश्वर के कार्य करने के तरीके या परमेश्वर के नजरियों और रवैये की थोड़ी समझ हासिल कर ली है, तो क्या परमेश्वर को जानने के तुम्हारे अनुसरण, सत्य के अनुसरण और जीवन प्रवेश के तुम्हारे अनुसरण पर इसका कोई असर होगा और क्या तुम कुछ नतीजे हासिल कर सकोगे? क्या यह तुम्हारे गलत नजरियों को पलट सकेगा, ताकि तुम अपनी धारणाओं को जाने दे सको। (बिल्कुल।) इसके लिए लोगों से क्या अपेक्षित होता है? (अपनी धारणाओं को जाने देना और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों के अनुसार कार्य करना।) तुम्हें समझना चाहिए कि चूँकि परमेश्वर ने ऐसी अपेक्षाएँ और निर्धारण रखे हैं, इसलिए वह यकीनन उन्हें होने देगा। अंत में, तथ्य यह है कि परमेश्वर के वचन बेकार नहीं होंगे—सबके-सब पूरे और साकार किए जाएँगे। अगर तुम सोचते हो कि जरूरी नहीं कि परमेश्वर अपनी कही हुई बातें कार्यान्वित करे, तो यह मनुष्य की धारणा और कल्पना है, और यह परमेश्वर पर संदेह करना और उसकी आलोचना करना है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने ऐसा कैसे कर दिया? वह जितने लोगों को बचाता है उतनों को ही बचा कर कैसे संतुष्ट रह सकता है? क्या परमेश्वर का प्रेम महान और अनंत नहीं है? परमेश्वर का धैर्य अनंत है और उसकी सहिष्णुता और कृपा भी अनंत है।” वे सत्य का अनुसरण न करने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं, वे अपने लिए एक आसान रास्ता रख लेते हैं ताकि वे अपने पथ पर चल सकें, और परमेश्वर के वचनों और कार्य, और सृष्टिकर्ता के प्रकटन की अनदेखी कर सकें। वे अपने दिल से यह अच्छी तरह जानते हैं कि यही सत्य है, और फिर भी उम्मीद करते हैं कि ऐसा न हो। उनकी करनी में थोड़ा अविश्वास होता है, साथ ही सृष्टिकर्ता के विरुद्ध थोड़ी स्पर्धा, और सृष्टिकर्ता के प्रति थोड़ा विरोध और ब्लैकमेल। ये बातें कहने के पीछे मेरा उद्देश्य क्या है? कुछ लोग कहते हैं, “यह हमें जगाने के लिए है, डराने या यह समझाने के लिए है कि जो लोग पीछे हटना चाहते हैं वे बस पीछे हट सकते हैं, जो लोग कमजोर और निराश हो जाते हैं वे कमजोर और निराश बने रह सकते हैं, और जो अपना जीवन अपनी तरह से जीना चाहते हैं वे वैसे ही जी सकते हैं। परमेश्वर के कार्य में ज्यादा समय नहीं लगेगा और इसके अलावा परमेश्वर को इतने लोगों की जरूरत नहीं है, तो चलो हम अपने अलग रास्ते चलें!” क्या चीजें ऐसी हैं? (नहीं।) परमेश्वर चाहे जो और जैसे भी कहे, परमेश्वर लोगों को जो समझाता है वे उसके इरादे हैं और वह लोगों को जो बूझने देता है वह सत्य है। तो लोगों को किस मार्ग पर चलना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के मार्ग पर चलना चाहिए। लोगों को किन बातों पर चिंतन कर उन्हें सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए? सभी धारणाएँ, कल्पनाएँ और माँगें जो परमेश्वर की विरोधी हैं। ये तमाम चीजें सत्य के विपरीत हैं। तुम्हें इन चीजों को छोड़ देना चाहिए, अपने दिलों में से निकाल देना चाहिए और अब उनसे प्रभावित या नियंत्रित नहीं होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आने और परमेश्वर के वचनों का न्याय, ताड़ना, काट-छाँट स्वीकार करने में सचमुच समर्थ होना चाहिए, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों से स्वच्छ हो जाना चाहिए, और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें अपने भीतर की उन चीजों पर निरंतर चिंतन करना चाहिए जो परमेश्वर से असंगत हैं, सत्य के विपरीत हैं, और अपने भ्रष्ट स्वभावों, विभिन्न मामलों पर अपने गलत नजरियों और मनुष्य की विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं पर चिंतन करना चाहिए। जब एक बार तुम इन चीजों पर चिंतन कर उन्हें स्पष्ट रूप से समझ लेते हो, और उन्हें हमेशा के लिए दूर करने की खातिर सत्य को खोज लेते हो, तो तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर कदम रख चुके होगे, और तभी तुम परमेश्वर की आज्ञा मान पाओगे और उसके आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो पाओगे।

अभी-अभी हमने “मैं किस पर भरोसा करूँ?” नामक शीर्षक वाली कहानी पर चर्चा की, पर हम उसके अंतिम अंश का विश्लेषण अब तक पूरा नहीं कर पाए हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू कर देता है, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करने, उसके इरादे खोजने, उसकी प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन को स्वीकार करने और उसके अपने मुख से कहे गए प्रत्येक वचन को सुनने के लिए परमेश्वर के समक्ष आता है। इस दौरान, परमेश्वर स्पष्ट वचनों का प्रयोग कर लोगों को अपने इरादे और वह हर जरूरी चीज बताता है जो उन्हें समझनी चाहिए। परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम धर्म-सिद्धांतों और वचनों को समझो, न ही वह चाहता है कि तुम धर्मशास्त्र सीखो। परमेश्वर इन वचनों का प्रयोग तुम्हें एक शिष्ट व्यक्ति, नेक इंसान या ललक और आकांक्षाओं वाला कोई व्यक्ति बनने की शिक्षा देने के लिए नहीं करता—परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम ऐसे व्यक्ति बनो। परमेश्वर अपने वचनों का प्रयोग तुम्हें यह समझाने के लिए करना चाहता है कि लोग कहाँ से आते हैं, उन्हें कैसे जीना चाहिए और उन्हें किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए। लेकिन ये वचन सुनने के बाद, लोग उन्हें कुछ नहीं समझते, और अभी भी अपने नजरियों, अपनी कामनाओं, और आचरण के अपने ही सिद्धांतों से कस कर चिपके रहते हैं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं : “मैं इस चाह के साथ पैदा हुआ था कि एक नेक इंसान बनूँ, और मुझे नहीं लगता कि मैं एक नेक इंसान बनने से बहुत दूर हूँ। मैं कोई बुरे काम नहीं करता, मैं लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाता, उन्हें धोखा नहीं देता, या उनका फायदा नहीं उठाता, और परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से बेहतर इंसान भी बन गया हूँ। मैं हमेशा सत्य बोलता हूँ, दूसरों के साथ सच्चे ढंग से बर्ताव करता हूँ, और अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर की आज्ञा और कलीसिया व्यवस्थाओं का पालन करता हूँ—क्या यह काफी नहीं है?” क्या बहुत-से लोगों की सोच ऐसी है? क्या विश्वासी इस प्रकार की सोच के भरोसे वास्तव में परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं? परमेश्वर लोगों से बहुत-से सत्यों को समझने और बहुत-से सबक सीखने की अपेक्षा रखता है। खास तौर से, दृष्टि से सबंधित सत्य, वे सत्य हैं जो परमेश्वर के विश्वासियों के पास होने ही चाहिए, और यही वे चीजें हैं जो एक आधार बनाती हैं। अगर वे ये सत्य भी न समझें, तो क्या वे उद्धार प्राप्त कर सकेंगे? अगर वे सिर्फ कल्पनाओं पर भरोसा करें, अपने बारे में अच्छा महसूस करते रहें, और सत्य का अनुसरण न करें, तो क्या वे अभी भी परमेश्वर का न्याय और ताड़ना या उसके परीक्षणों और शोधन को स्वीकार करने योग्य हैं? क्या वे परमेश्वर से शोधन पा सकेंगे और उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकेंगे? (नहीं।) यकीनन नहीं किए जा सकेंगे। कलीसिया में सत्य का अनुसरण न करने वालों की संख्या आधे से ज्यादा या और भी ज्यादा हो सकती है। इस स्थिति पर विचार करने पर, क्या तुम सब ऐसा सोचोगे : “परमेश्वर के इतना कुछ कहने के बाद भी लोग नहीं समझते हैं, तो वह इन अज्ञानी मूर्खों को प्रबुद्ध क्यों नहीं करता है? परमेश्वर कुछ और ज्यादा क्यों नहीं कहता, कुछ और ज्यादा कार्य क्यों नहीं करता, और इनमें ज्यादा मेहनत क्यों नहीं लगाता? पवित्र आत्मा उनके दिलों को छूकर उन्हें अनुशासित क्यों नहीं करता ताकि ये अज्ञानी लोग मूर्ख न बने रहें? परमेश्वर यह क्यों नहीं करता?” यह गलत है। क्या परमेश्वर पर्याप्त नहीं कह चुका है? बहुत-से लोग कहते हैं कि परमेश्वर बहुत कहता है, बहुत विस्तार से बोलता है, और यह तक बोलते हैं कि वह उन्हीं बातों को दोहराता रहता है। तो क्या कोई जानता है कि परमेश्वर को ऐसा क्यों बोलना चाहिए? इसलिए कि लोग बहुत हठी और विद्रोही हैं, कभी परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और सत्य पर मेहनत नहीं करते—परमेश्वर ऐसे लोगों से जबरदस्ती नहीं करता। अगर लोग परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं करते, तो वह उनसे कैसे पेश आता है? परमेश्वर कभी जोर-जबरदस्ती नहीं करता, वह इसी तरह कार्य करता है। परमेश्वर पहले ही इतने अधिक वचन बोल चुका है कि लोग उन सबको पढ़ भी नहीं सकते, तो वह उन्हें मजबूर कैसे कर सकता है? लोग परमेश्वर के मेहनतकश इरादों को क्यों नहीं समझते? कहानी की नायिका, जो जीवन भर पीड़ा सहती रही, उसने भी परमेश्वर के वचन पढ़े, उसके धर्मोपदेश सुने और अपना पूरा समय भी कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने में लगाया, लेकिन अंत में, वह नहीं समझ सकी कि वास्तव में वह किस पर भरोसा कर सकती है, या उसकी कामना कैसे उपजी, और वह सच हो सकती थी या नहीं—तो इस स्थिति में जरूर कोई समस्या होगी। दरअसल, परमेश्वर के दृष्टिकोण से यह एक बहुत सरल समस्या है। तुम्हें बस अपनी दिशा बदलकर परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई दिशा और उसके द्वारा बताए पथ में आगे बढ़ने, और बिना किसी शंका या गलतफहमी के दृढ़ता से विश्वास रखने, स्वीकारने, समर्पण और अभ्यास करने की जरूरत है। लेकिन लोग यह नहीं कर सकते। वे अपनी ही धारणाओं, कल्पनाओं और उम्मीदों और अपने दिलों में छुपे भ्रमों को कसकर पकड़े रहते हैं। वे इन चीजों को डूबते को तिनके का सहारा भी मानते हैं, या और भी बुरा, परमेश्वर के वचनों और उसके द्वारा उन्हें दी गई दिशा को अलग रखकर, उसकी अनदेखी कर, इन्हीं चीजों को वह बुनियाद मानते हैं जिनके भरोसे वे जीवित रहते हैं। तो परमेश्वर इससे कैसे निपटता है? अगर तुम्हें दी गई अच्छी चीजों को तुम नहीं पहचानते और स्वीकार नहीं करते, तो परमेश्वर उन्हें वापस ले लेता है। ये चीजें छिन जाने के बाद इंसान को क्या हासिल होता है? कुछ भी नहीं। इसलिए, अपने दिल की गहराई में यह नायिका अब इन सवालों के जवाब नहीं जानती थी, “क्या परमेश्वर ही सचमुच वह है जिस पर मैं भरोसा कर सकती हूँ? मैं वास्तव में किस पर भरोसा कर सकती हूँ? मैं जीवित रहने, आशीष प्राप्त करने और अपने भविष्य की मंजिल पाने के लिए किस पर भरोसा कर सकती हूँ?” इन सवालों को लेकर पहले ही उसकी उलझन बढ़ी हुई थी। अंत में वह कौन-सा पछतावा था जो उसके दिल की गहराई में दबा हुआ था? यह कि उसके पास भरोसा करने के लिए, विश्वास रखने के लिए कोई नहीं था। उसका जीवन कितना त्रासद और दुखद था! उसके मन में इस बात को ले कर उलझन थी कि इस जीवन में लोगों के लिए सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं की महत्ता क्या है, उसे यह मालूम नहीं था। इस तरह जिंदगी गुजारने, उम्रदराज हो जाने और अभी भी ये सब न समझ पाने, सही निष्कर्ष पर न पहुँच पाने या जीवन में सही दिशा और लक्ष्य न ढूँढ़ सकने के बाद—जब वह इनमें से कुछ भी हासिल नहीं कर सकी, तो परमेश्वर ने इस बारे में क्या किया? उसने इस व्यक्ति के जीवन के नीचे एक लकीर खींच दी। परमेश्वर पहले ही वह सब कर चुका था जो किया जा सकता था। परमेश्वर ने परिवेशों की व्यवस्था की थी, उसे प्रबुद्ध कर मार्गदर्शन दिया था, और उसके अत्यधिक पीड़ा में होने या असहाय हालात का सामना करने पर उसे जीते रहने की अभिप्रेरणा दी थी। परमेश्वर ने अत्यंत प्रेम और समर्थन के साथ उसे इस मुकाम तक जीने में समर्थ बनाया था। और किस उद्देश्य के लिए? ताकि वह अपने आपको बदल सके। अपने आपको बदलने का प्रयोजन क्या है? यह समझने के लिए कि ऐसा कोई नहीं है जिसके भरोसे तुम रह सको, और तुम्हें किसी के भरोसे नहीं रहना चाहिए, और तुम्हें अपने ही बूते पर खुशहाल जीवन रचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, तुम्हें कोई कामना नहीं करनी चाहिए, और सृष्टिकर्ता के सिवाय, कोई भी तुम्हारी नियति को आयोजित या उस पर नियंत्रण नहीं कर सकता, तुम खुद भी नहीं। तुम्हें कौन-सा विकल्प चुनना चाहिए? शिकायतों या शर्तों के बिना सृष्टिकर्ता के समक्ष आना, उसका कहा सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना। चाहे पीड़ा हो या रोग, ये सब मानव जीवन का हिस्सा हैं, जिन्हें भुगतना ही चाहिए। जब किसी इंसान के जीवन के नीचे एक लकीर खींची जाने वाली हो, और वे ये सब न समझें, तो परमेश्वर और क्या करता है? वह अब कुछ भी नहीं करता, जो यह भी दर्शाता है कि परमेश्वर ने उन्हें छोड़ दिया है। अब परमेश्वर कुछ भी क्यों नहीं करता है? क्योंकि यह व्यक्ति हमेशा अपनी ही धारणाओं में जीता रहा है, अपनी ही आकांक्षाओं और जिद में जीता रहा है, और वह परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज से एक हठी और जिद्दी रवैए, आत्मतुष्ट और प्रतिस्पर्धी रवैए के साथ पेश आता रहा है। इसलिए, जब किसी इंसान का जीवन खत्म होने को हो, और वह परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए परिवेशों और प्रक्रियाओं से कदम-दर-कदम गुजर चुका हो, मगर सृष्टिकर्ता के बारे में उसका ज्ञान बिल्कुल न बदला हो, और उसे मानव जीवन की नियति की जरा भी समझ न हो, तो यह खुद ही स्पष्ट है कि उसके जीवन का क्या मोल है, और सृष्टिकर्ता अब कोई दखल नहीं देगा या कुछ नहीं करेगा। यही वह तरीका है जिससे परमेश्वर कार्य करता है।

परमेश्वर की कार्यविधि के परिणामस्वरूप लोगों के मन में कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ जन्म लेती हैं? जब कुछ लोग परमेश्वर को दूसरे लोगों को निकालते हुए देखते हैं, तो उनमें कुछ धारणाएँ उभरती हैं, और वे कहते हैं : “इस व्यक्ति ने अपने जीवन में इतनी पीड़ा झेली है, क्या सृष्टिकर्ता इस पर तरस नहीं खाता?” तरस खाना क्या दर्शाता है? (अनुग्रह देना।) क्या अनुग्रह करने से इंसान की नियति का निर्धारण होता है? क्या यह उनकी नियति को बदल सकता है? क्या यह उनके नजरियों को बदल सकता है? (नहीं।) इसलिए, सृष्टिकर्ता किसी इंसान को चाहे जितने भी आशीष, अनुग्रह और भौतिक सुख प्रदान करे, अगर ये चीजें उस इंसान को परमेश्वर के इरादे समझने या जीवन में सही पथ पर चलने, और आखिरकार परमेश्वर द्वारा लोगों को दिखाए पथ पर चलने, और लोगों द्वारा अपने जीवन में अनुभव की गई तमाम चीजों को समझने के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं या इसमें उसकी मदद नहीं कर सकतीं, तो फिर उस व्यक्ति पर परमेश्वर का किया हुआ पूरा कार्य बेकार हो जाएगा, और जिस अवधि में उस व्यक्ति ने परमेश्वर में विश्वास रखा, उसके नीचे स्पष्ट रूप से एक लकीर खींच दी जाएगी। लोगों में कैसी धारणाएँ उपजती हैं? “परमेश्वर सहिष्णु और धैर्यवान है, और उसका प्रेम सामर्थ्यवान और अपार है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम क्यों नहीं कर सकता?” परमेश्वर का प्रेम किस तरह अभिव्यक्त होता है? क्या परमेश्वर उस व्यक्ति से सचमुच प्रेम करता है या नहीं? क्या परमेश्वर के प्रेम से उस व्यक्ति को कोई परिणाम मिले हैं? कोई परिणाम न मिलने पर परमेश्वर का प्रेम कैसे अभिव्यक्त होता है? परमेश्वर का स्वभाव कैसे अभिव्यक्त होता है? परमेश्वर अपना कार्य कैसे करता है? असल में, परमेश्वर कुछ भी करने से पहले, उस व्यक्ति को चुनकर उस पर काम कर चुका होता है, और उसके पूरे जीवन को पूर्व-नियत करने और उसे अपने तरीके से आयोजित करने पर विचार कर चुका होता है। इन सबके पीछे परमेश्वर के इरादे हैं। क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? (बिल्कुल है।) यह पहले ही परमेश्वर का प्रेम है। उस व्यक्ति के अपने जीवन की हर प्रक्रिया से गुजरते समय परमेश्वर उसे अपनी कृपा और देखभाल दिखाता है, उसकी रक्षा करता है, उसे अभिप्रेरणा देता है, कुछ परिवेश तैयार करता है, और इस जीवन का उद्देश्य पूरा करने में निरंतर उसकी रक्षा करता है। इस प्रक्रिया के दौरान, वह व्यक्ति चाहे जितना भी दृढ़, जिद्दी, घमंडी या हठी क्यों न हो, परमेश्वर अपने तरीके के अनुसार जीवन गुजारने में लगातार उसकी मदद करता है, वह सृष्टिकर्ता के प्रेम और उदारता और परमेश्वर की जिम्मेदारी के साथ यह करता है। भले ही वह जीवन में जितनी भी आपदाओं और प्रलोभनों का सामना करे, या वह जितनी भी बार बेसहारा महसूस कर आत्महत्या करना चाहे, परमेश्वर अपनी विधि से जीवन भर उसका मार्गदर्शन करता है। परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, उसका जीवन यकीनन आसानी से नहीं गुजरेगा, क्योंकि वह हर तरह के बहकावों, प्रलोभनों और आपदाओं से घिरा रहेगा। तो यह सब परमेश्वर का प्रेम है। अपनी धारणाओं में लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का प्रेम ऐसी पीड़ा, मुसीबतों और ऐसी चीजों से मुक्त होना चाहिए, जो उनकी भावनाओं के विपरीत हैं। असल में, परमेश्वर लोगों पर प्यार और सहिष्णुता के साथ निरंतर कृपा, अनुग्रह और आशीष बरसाता है। अंत में, वह सत्य भी अत्यंत धैर्य और प्रेम के साथ व्यक्त करता है, ताकि लोग सत्य समझें और जीवन प्राप्त करें। परिणाम प्राप्त करने के लिए परमेश्वर विभिन्न तरीकों का प्रयोग करता है, कदम-दर-कदम लोगों का मार्गदर्शन करता है ताकि वे मानव जीवन को समझें और सार्थक ढंग से जीना सीखें। इस तरीके से अपना कार्य करने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य क्या है? उथले स्तर पर बोलें, तो उसका उद्देश्य यह है कि लोग उन पीड़ाओं को त्यागने में समर्थ हों जो जीवन में उन पर आती हैं और साथ ही उन पीड़ाओं को भी त्याग सकें जिनका कारण वे खुद हैं; और अधिक गूढ़ स्तर पर बोलें, तो परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को खुशहाल जीवन जीने लायक बनाना है, उन्हें सामान्य लोगों, वास्तविक लोगों की तरह सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन के अधीन जीने देना है। हालाँकि, आजादी सभी को है। परमेश्वर ने लोगों के लिए स्वतंत्र इच्छा और विचारशक्ति रची। बाद में, लोगों ने इस दुनिया और इस समाज से बहुत-सी चीजें स्वीकार कीं, जैसे कि ज्ञान, पारंपरिक संस्कृति, सामाजिक चलन, पारिवारिक शिक्षा, वगैरह-वगैरह। परमेश्वर ने शैतान से आने वाली इन चीजों से हमेशा घृणा की है, और वह उन्हें उजागर करता है, ताकि लोग इन चीजों का बेतुकेपन और पाखंड जान लें और यह भी कि वे सत्य से पूरी तरह असंगत हैं। लेकिन परमेश्वर कभी लोगों को इन शैतानी चीजों से अलग नहीं करता है, न ही उन्हें उनसे दूर रखता है। इसके बजाय, वह लोगों को, इनके वास्तविक रूप का अनुभव करने और इन्हें पहचानने देता है, और इस तरह जीवन के सही अनुभवों और सही समझ को हासिल करने देता है। जब संपूर्ण प्रक्रिया पूरी हो जाती है और परमेश्वर वह कर चुका होता है जो उसे करना चाहिए, तब लोग जितना हो सके उतना हासिल कर लेते हैं। तो इस अंतिम चरण में, लोगों के मन में कौन-सी धारणाएँ उभरती हैं? ऐसी धारणा कि परमेश्वर ने किसी को त्याग दिया है, जिससे लोगों को लगता है कि परमेश्वर उनकी भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं है। इस मुकाम पर, लोगों को लगता है कि जो छोटी-सी मीठी उम्मीद इंसान परमेश्वर से लगा पाया था, वह चूर-चूर हो गई है, और लोगों को लगता है कि यह कुछ हद तक क्रूर है। जब लोगों को क्रूरता की यह भावना महसूस होती है, तो उनकी धारणाएँ भी उजागर हो जाती हैं। तुम एक नेक इंसान बनाना चाहते हो, और बचाए जाने में उस व्यक्ति की मदद करना चाहते हो। क्या यह उपयोगी है? उस व्यक्ति ने सत्य का जरा भी अनुसरण किए बिना इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है और उसने कुछ भी हासिल नहीं किया है। तुम उस पर तरस खाकर उसकी मदद करना चाहते हो, मगर क्या तुम उसे सत्य दे सकते हो? क्या तुम उसे जीवन दे सकते हो? तुम ऐसा कर ही नहीं सकते, तो फिर तुम परमेश्वर के बारे में धारणाएँ क्यों पाले हुए हो? परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य सभी के लिए उचित और तर्कसंगत होता है। अगर वे व्यक्तिगत रूप से सत्य को स्वीकार नहीं करते और परमेश्वर के कार्य को समर्पित नहीं होते, तो तुम यह शिकायत कैसे कर सकते हो कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है? यहाँ निश्चित रूप से लोगों की बहुत-सी धारणाएँ हैं। लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में बहुत-सी धारणाएँ रखते हैं, जैसे कि : “चूँकि परमेश्वर ने इतना कुछ किया है, फिर इस अंतिम चरण को वह पूर्ण रूप से पूरा क्यों नहीं करता है? ऐसा नहीं लगता कि परमेश्वर यह करना चाहता है, न ही यह परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए। चूँकि परमेश्वर ने ऐसा महान कार्य किया है, उसे उन सबको बचा लेना चाहिए जो उसमें विश्वास रखते हैं। केवल ऐसी उपलब्धि ही परमेश्वर के कार्य का उत्तम परिणाम हो सकती है। परमेश्वर ने इस व्यक्ति को क्यों निकाल दिया है? यह लोगों के प्रति परमेश्वर के प्रेम और कृपा के विपरीत है, और संभव है लोग इसे गलत समझ लें! परमेश्वर चीजें इस तरह से क्यों करेगा? क्या यह लोगों की भावनाओं के प्रति थोड़ी विचारहीनता नहीं है?” परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। बस इसका अनुभव करो और एक-न-एक दिन तुम लोग समझ जाओगे।

अभी हमने जो चर्चा की उसका संबंध परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से है। इनमें से कुछ लोगों की कल्पनाएँ हैं, और कुछ परमेश्वर से लोगों की माँगें हैं, यानी लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को अमुक चीज करनी चाहिए और अमुक चीज नहीं करनी चाहिए। जब परमेश्वर का कार्य तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, तुम्हारी माँगों या कल्पनाओं के विपरीत होता है, तो तुम परेशान और दुखी महसूस करोगे और सोचोगे कि “तुम मेरे परमेश्वर नहीं हो, मेरा परमेश्वर तुम जैसा नहीं होगा।” अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो फिर तुम्हारा परमेश्वर कौन है? जब इन चीजों का समाधान नहीं होता, तो लोग अक्सर इन दशाओं और धारणाओं में जीते हैं, और अपने मन में अक्सर इन धारणाओं और माँगों को अपना लेते हैं ताकि इससे परमेश्वर के कार्य को मापें, परखें कि वे चीजें सही ढंग से कर रहे हैं या गलत ढंग से, और जिस पथ पर वे चल रहे हैं उसकी सत्यता भी इनसे परखें—इससे मुसीबत खड़ी होगी। तुम उस पथ पर चल रहे हो जिसका परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए भले ही तुम जाहिर तौर पर परमेश्वर का अनुसरण करो और उसके धर्मोपदेशों और वचनों को सुनो, क्या अंतिम परिणाम उद्धार प्राप्त करने का होगा? नहीं। इसलिए परमेश्वर में विश्वास रखने के जरिए उद्धार प्राप्त करने के लिए ऐसा नहीं है कि परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करके और कलीसियाई जीवन में प्रवेश करके तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में शामिल एक व्यक्ति बन जाओगे और तुम वह व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर बचाकर पूर्ण कर देगा, और इसका अर्थ यह है कि तुम पहले ही बचाए जा चुके हो, या तुम यकीनन बचा लिए जाओगे। बात ऐसी नहीं है। ये महज इंसानी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, इंसानी तर्क और मत हैं।

तुम लोग इसका सारांश तैयार करो—अभी जो कहानी मैंने सुनाई, उससे जुड़ी हुई इंसानी धारणाएँ कौन-सी हैं? इनका सारांश बना लेने के बाद, तुम उन्हें पढ़कर सुनाओ। (परमेश्वर, हमने चार धारणाओं का सारांश तैयार किया है : पहली धारणा यह है कि लोगों को लगता है कि अगर उनकी कोई कामना या अनुसरण है, जो उचित है और हद के बाहर नहीं है, तो परमेश्वर को उसे पूरा करना चाहिए। दूसरी धारणा यह है कि लोगों को लगता है कि अगर परमेश्वर ने उन पर कार्य करने के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है और वे फिर भी नहीं समझते हैं, तो परमेश्वर को उन्हें तुरंत प्रबुद्ध कर जीवन में सही पथ को जानने देने के लिए कोई अलौकिक कार्य करना चाहिए, बजाय इसके कि वह उन्हें जीवन में इतनी तकलीफें झेलने, और उन्हें अपने दम पर टटोलते हुए रास्ता तलाशने को मजबूर करे और इन चीजों का उनसे अनुभव करवाए और भुगतने दे। तीसरी धारणा यह है कि लोगों के मन में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में धारणाएँ हैं। उन्हें लगता है कि अगर परमेश्वर ने उन पर कार्य करने के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है, तो आखिरकार कोई अंतिम परिणाम होना चाहिए जो कि यह है कि परमेश्वर द्वारा उन्हें अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए। चौथी धारणा यह है कि लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के पीछे अपना भाग्य आजमाने के जैसी मानसिकता है।) क्या और भी कुछ है? मुझे कौन बता सकता है? (एक और धारणा यह है कि चूँकि परमेश्वर इतने वर्षों से कार्य करता रहा है, और उसने इतना महान कार्य किया है, तो उसे और ज्यादा लोगों को प्राप्त करना चाहिए, और अगर वह सिर्फ थोड़े-से लोगों को प्राप्त करता है तो यह परमेश्वर का कार्य नहीं है।) तो कुल पाँच धारणाएँ हुईं। क्या और भी कुछ है? (मैंने एक धारणा के बारे में सोचा है, जो यह है कि जब लोगों को कुछ विशेष अनुभव होते हैं, जैसे कि गिरफ्तार होना और सताया जाना और उस प्रक्रिया में उनकी परमेश्वर से सच्ची बातचीत होती है और उनके पास सच्ची गवाही होती है, तो वे इसे एक किस्म की पूँजी मानते हैं और सोचते हैं कि चूँकि उनके पास ऐसी अनुभवजन्य गवाही है, इसलिए वे परमेश्वर की स्वीकृति पा सकेंगे और उनके जीवित रहने की संभावना ज्यादा होगी।) (साथ ही, लोग सोचते हैं कि वे जितना ज्यादा कार्य करेंगे और जितनी ज्यादा कीमत चुकाएँगे, उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति उतनी ही ज्यादा मिलेगी और उनके बचाए जाने की संभावना उतनी ही ज्यादा होगी।) दूसरे शब्दों में, लोग सोचते हैं कि उनके परमेश्वर की स्वीकृति पाने की संभावना इस बात पर आधारित है कि वे कितनी कीमत चुकाते हैं और ये दोनों एक-दूसरे से सीधे जुड़े हैं, वे एक-दूसरे पर विपरीत प्रभाव नहीं डालते या परस्पर असंबद्ध नहीं हैं, और इन्हें एक-दूसरे से जुड़ा होना ही चाहिए—यह एक धारणा है। तो कुल सात हो गईं। और कुछ है? (एक और पहलू यह है कि लोग सोचते हैं कि अगर परमेश्वर चाहता है कि वे सत्य को समझें तो वह उन्हें प्रबुद्ध कर सकता है ताकि वे समझ लें और उसे लोगों की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए, उन्हें वंचित नहीं करना चाहिए, या उन्हें तकलीफें नहीं झेलने देना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है और उन्हें दुख सहने देना प्रेम नहीं है।) यह परमेश्वर के प्रेम के बारे में एक धारणा है। और कौन-सी धारणाएँ हैं? (लोग सोचते हैं कि अगर परमेश्वर सभी को प्राप्त कर ले तो बेहतर होगा। शैतान अपमानित होगा और परमेश्वर भी मानवजाति को प्राप्त कर चुका होगा। लेकिन असल में, लोगों का इस तरह सोचना एक स्वार्थी और घिनौना तरीका है, और यह उनके अपने ही लिए है।) वे परमेश्वर के कार्य के परिणामों को लेकर उत्तम कल्पना करते हैं। यह एक धारणा है। अपने इस स्वार्थी और घिनौने लक्ष्य के अलावा, लोग मानते हैं कि परमेश्वर के इस पूरे कार्य का एक आरंभ और एक अंत होना चाहिए, और परिणाम उत्तम होना चाहिए, उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए, उनकी कल्पनाओं के अनुसार होना चाहिए, और बढ़िया चीजों की उनकी लालसा के अनुसार होना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने पर, तथ्य अक्सर लोगों की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होते, और शायद इन सबका परिणाम लोगों की कल्पना जैसा उत्तम न हो। बेशक, वे परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर यह नहीं देखना चाहते कि ज्यादा लोग बचे न रहें, जैसा कि व्यवस्था के युग में अय्यूब जैसे कुछ ही ऐसे विश्वासी थे जो परमेश्वर का भय मानते थे और बुराई से दूर रहते थे। लोगों को लगता है कि परमेश्वर के कार्य के परिणाम ऐसे नहीं होने चाहिए, क्योंकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को इसी तरह परिभाषित करते हैं। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की परिभाषा अपने आप में एक धारणा है, लोगों द्वारा कल्पित पूर्णता की परिकल्पना, और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि परमेश्वर क्या करना चाहता है और वे सिद्धांत क्या हैं जिनसे वह अपना कार्य करता है। और कौन-सी धारणाएँ हैं? (जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो वे यह चिंतन नहीं करते कि वे किस पथ पर चल रहे हैं, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि भ्रष्टता को त्याग कर उद्धार कैसे प्राप्त करें। इसके बजाय, वे सोचते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और अगर वह कहता है कि वह लोगों को बदल देगा तो वे बदल जाएँगे।) परमेश्वर लोगों को बताता है कि कैसे बदलें, लेकिन लोग उसके वचनों का अभ्यास नहीं करते, खुद को नहीं बदलते, लगातार कोशिश करते हैं कि वे मुसीबत में न पड़ें और चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें बदल दे। यह एक प्रकार की खोखली कल्पना है, एक प्रकार की धारणा। क्या और भी कुछ है? (लोग सोचते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन में बहुत दुख सहे हैं और बड़ी ठोकरें खाई हैं, अंत में उसका परिणाम अच्छा होना चाहिए, और परमेश्वर को उसे छोड़ नहीं देना चाहिए। अंत में, जब परमेश्वर इस व्यक्ति को प्राप्त नहीं करता, और उसे छोड़ देना चाहता है, तो लोग परमेश्वर द्वारा किए गए इन तमाम कार्यों पर गौर करने के लिए एक “नेक इंसान” का नजरिया अपना लेंगे और उन्हें लगेगा कि परमेश्वर के कार्य उनकी भावनाओं के प्रति अत्यंत विचारहीन और क्रूर हैं।) इसमें समस्या क्या है? तुम लोगों ने सिर्फ कुछ मामलों और अपनी अवधारणात्मक समझ को बयान किया है, यह जिक्र नहीं किया कि यह धारणाओं की समस्या है। इसमें लोगों की मुख्य धारणा क्या है? लोग सोचते हैं कि परमेश्वर इस आधार पर किसी व्यक्ति को बचाता है कि वह कितना दयनीय है, और उसने कितने दुख सहे हैं। लोग सोचते हैं कि जब परमेश्वर अंततः व्यक्ति के परिणाम का फैसला करता है, तो उसे अपना दयालु हृदय, अपनी उदारता, सहिष्णुता, प्रेम और तरस दिखानी चाहिए, क्योंकि इस व्यक्ति ने बहुत दुख सहे हैं और उसका जीवन बहुत दयनीय है। चाहे वह व्यक्ति सत्य समझता हो या नहीं, चाहे वह परमेश्वर के प्रति कितना भी समर्पण करे, लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को इन चीजों पर ध्यान न देकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह व्यक्ति कितना दयनीय है, उसने बहुत पीड़ा सही है, और विचार करना चाहिए कि वह अपने सपने को इतना कसकर पकड़े हुए है, और एक अपवाद के रूप में उसे बचाने देना चाहिए—यह लोगों की धारणा है। लोगों के मन में ऐसे बहुत-से “चाहिए” हैं और वे इन सब “चाहिए” का इस्तेमाल यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि परमेश्वर को क्या करना चाहिए और इनके द्वारा वे परमेश्वर के कार्यों को परिभाषित करते हैं। जब तथ्य यह प्रकट करते हैं कि परमेश्वर ने चीजें इस तरह से नहीं की हैं, तो लोगों और परमेश्वर में अनबन पैदा हो जाती है, और लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं। तो क्या यह सिर्फ गलतफहमी है? इससे लोगों की विद्रोहीपन भी पैदा होता है। ये वे बुराइयाँ और नतीजे हैं जो धारणाएँ लोगों के लिए लाती हैं।

हमारी चर्चा के केंद्र में हैं धारणाएँ। जिस कहानी के बारे में हमने अभी बात की, उसके जरिए लोग देख सकते हैं कि नायिका ने परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज को मापने के लिए अनेक धारणाओं का इस्तेमाल किया, और जो कुछ भी नायिका के साथ हुआ और परमेश्वर ने उसके साथ जैसा बर्ताव किया उसके परिणामस्वरूप लोग परमेश्वर के बारे में अनेक विचार और उससे अपेक्षाएँ विकसित करते हैं—जो सारी-की-सारी धारणाएँ हैं। मुझे बताओ, लोगों के मन में और कौन-सी धारणाएँ हैं। (लोग सोचते हैं कि चूँकि परमेश्वर ने इतना बड़ा काम किया है, उसे और ज्यादा लोगों को प्राप्त करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर कहता है कि अगर वह कुछ ही लोगों को प्राप्त कर सकता है, तो वह बस उतने ही प्राप्त करेगा, इसलिए लोगों को लगता है कि परमेश्वर उतने ज्यादा लोगों को प्राप्त करना पसंद नहीं करता, और इसलिए वे अनुसरण करना बंद कर देते हैं।) धारणाएँ लोगों के अनुसरण को प्रभावित करती हैं। यहाँ एक सुधार करना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उतने ज्यादा लोगों को प्राप्त करना पसंद नहीं करता, उसे अवश्य पसंद है। यहाँ एक प्रश्न है। जब परमेश्वर आखिरकार लोगों का परिणाम तय करता है, तो वह किस आधार पर कहता है कि अब उन पर कार्य नहीं करेगा, और इसके बजाय उन्हें छोड़ देगा? परमेश्वर के पास इस बारे में एक मानक है, जोकि एक सिद्धांत और एक आधाररेखा भी है। अगर तुम्हारे मन में इस मानक, सिद्धांत या आधाररेखा के बारे में धारणाएँ हैं, या तुम इन्हें स्पष्ट नहीं समझ सकते, तो तुम्हारे मन में परमेश्वर को लेकर कुछ विरोध या कल्पनाएँ पैदा हो जाएँगी। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने उस पर इतनी मेहनत की, फिर भी वह नहीं बदली, और उसने अपनी कामना को जाने नहीं दिया, बल्कि उसे कस कर पकड़े रही, और परमेश्वर के समक्ष नहीं आई, इसलिए परमेश्वर ने उसे छोड़ दिया।” क्या यही वह मुख्य कारण था कि परमेश्वर ने उसे छोड़ दिया? (नहीं।) तो फिर मुख्य कारण क्या था? कहानी के अंत में जब नायिका बूढ़ी हो गई, तो हालाँकि उसका रंग-रूप बदल गया, और वर्ष बीतने और समय बदलने के साथ वह बूढ़ी हो गई, तो जो चीज नहीं बदली वह थी उसकी कामना और ये लगभग धुंधले पड़ गए भ्रम। तो किस चीज ने उसे अपनी कामना को पकड़े रहने पर मजबूर किया? (एक हठी और विद्रोही स्वभाव ने।) सही है, इस परिणाम का कारण यह तथ्य था कि वह सत्य से प्रेम नहीं करती थी, सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करती थी, और सत्य का अभ्यास नहीं करती थी। घमंड, हठ, जिद के भ्रष्ट स्वभावों के कारण वह अपनी कामना और आदर्शों को पकड़े रही और इन्हीं ने उसे अपने आदर्शों को जाने देने से रोका। ऐसा किस कारण से हुआ? यह उसके भ्रष्ट स्वभावों के कारण हुआ। इसलिए जब भी परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को बंद गली के छोर पर पहुँचते हुए देखता है, जिसका स्वभाव अभी भी हठी, घमंडी और जिद्दी हो, तो इसका क्या अर्थ होता है? परमेश्वर के कार्य के दौरान, हालाँकि यह व्यक्ति बाहर से परमेश्वर का अनुसरण करता हुआ और अपने कर्तव्य निभाता हुआ-सा दिखता है, वह अपने हर काम में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करता, और सार रूप में उसे जीवन प्रवेश प्राप्त ही नहीं होता। तो क्या ऐसे लोग सच में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर उसे समर्पित होते हैं? (नहीं।) सही है। इसका परिणाम यह होता है कि वे परमेश्वर द्वारा अंततः त्याग दिए जाते हैं। वे अपने जीवन के पूरे पथ से होकर गुजरे, और हालाँकि जीवन के दौरान वे परमेश्वर के समक्ष आए और समझा कि वह सृष्टिकर्ता ही था जिसने इन सबको आयोजित किया और यह सृष्टिकर्ता ही है जो लोगों की नियति की व्यवस्था करता है, फिर भी जिस दौरान उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया और परमेश्वर के वचन सुने, तब उनका हठी, घमंडी और जिद्दी स्वभाव, अंत तक भी जरा भी नहीं बदला, तो यह परिणाम स्वतः स्पष्ट है। यह किसी को छोड़ देने के लिए परमेश्वर का अंतिम मानक—परमेश्वर का सिद्धांत—है। लोगों के चाहे जो भी नजरिये हों, और वे इस सिद्धांत और परमेश्वर के इस मानक के बारे में जो भी आकलन करें, वह लोगों से प्रभावित नहीं होगा और वह वही करेगा जो उसे करना चाहिए। अगर तुम इस व्यक्ति से बातचीत नहीं करते और नहीं समझते कि इस व्यक्ति के अंतर्मन का सार क्या है, उसका स्वभाव क्या है, बल्कि सिर्फ उसके रंग-रूप पर ध्यान देते हो, तो तुम कभी भी परमेश्वर के कार्यकलापों के सिद्धांत और मूल को नहीं समझोगे, और तुम इस व्यक्ति को लेकर परमेश्वर के कार्यकलापों और उसके फैसलों पर राय बनाओगे। मैं तुम लोगों से पूछता हूँ, ऐसे दयनीय व्यक्ति के साथ जिसने जीवन में तरह-तरह की पीड़ा सही है, जिसने जीवन भर दुख ही सहे हैं, उसके साथ परमेश्वर ऐसा बर्ताव क्यों करेगा? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को क्यों छोड़ देगा? यह परिणाम ऐसा है जो कोई नहीं देखना चाहता, मगर यह सचमुच एक सच्चाई है और यह वास्तव में मौजूद है। क्या कारण है कि परमेश्वर उसके साथ ऐसा बर्ताव करता है? उस व्यक्ति के अनुसरण, स्वभाव और वह जिस पथ पर चलता है उसे देखें, तो अगर परमेश्वर ऐसे व्यक्ति पर दस वर्ष और कार्य करे, तो क्या वह व्यक्ति बदल जाएगा? (नहीं।) अगर वह उस पर 50 वर्ष और काम करे और उसे थोड़ा और लंबा जीवन दे दे, तो क्या वह बदल जाएगा? (नहीं।) वह क्यों नहीं बदलेगा? (उसका प्रकृति सार तय करता है कि वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है, तो चाहे वह कितने वर्ष भी परमेश्वर में विश्वास रखे, वह नहीं बदलेगा।) इस बात को और अधिक विशिष्ट रूप से कौन कह सकता है? (वह जिस पथ पर चल रहा है वह गलत है, यह सत्य के अनुसरण का पथ नहीं है। इसका अर्थ है कि वह चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रख ले, यह निरर्थक होगा। अगर वह परमेश्वर में 10-20 वर्ष और विश्वास रख ले, फिर भी वह जिस पथ पर चलता है और उसके जीवन की दिशा नहीं बदलेगी।) बात ठीक ऐसी ही है। उसके मन में धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। वह सत्य या सत्य की समझ, या सत्य में प्रवेश का अनुसरण नहीं करता है। उसका अनुसरण सिर्फ निरंतर अनुसरण का दिखावा होता है, मगर सार बिल्कुल अपरिवर्तित रहता है। वह 10-20 वर्ष वैसे ही सत्य का अनुसरण किए बिना परमेश्वर में विश्वास रखता है, या 30 या 50 वर्ष तक विश्वास रखता है फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करता, और आखिरकार वह जो प्रकट करता है और जीता है वह कभी नहीं बदलता है। यह उसके प्रकृति सार से तय होता है, और उसका स्वभाव ठीक ऐसा ही होता है। यह कभी नहीं बदला है, और परमेश्वर के बारे में उसकी धारणाएँ और कल्पनाएँ कभी नहीं बदली हैं। तो क्या परमेश्वर के पास ऐसे व्यक्ति से व्यवहार के सिद्धांत हैं? बिल्कुल हैं। लोग यह सोचकर कि वे बहुत सहिष्णु और महान हैं, हमेशा नेक होने का दिखावा करते हैं। लेकिन क्या तुम्हारी सहिष्णुता परमेश्वर की सहिष्णुता जैसी अपार है? क्या तुम्हारा प्रेम परमेश्वर के प्रेम जैसा अपार है? (नहीं।) तो परमेश्वर की सहिष्णुता क्या है? तुम कैसे बता सकते हो कि परमेश्वर सहिष्णु और प्रेमपूर्ण है? परमेश्वर लोगों के लिए विभिन्न लाभकारी विधियों का प्रयोग करता है ताकि उन्हें अपने समक्ष लाए, अपने वचनों को सुनने और समझने दे और अपने द्वारा अपेक्षित विधि से जीवन गुजारने और अभ्यास करने दे। लेकिन वह व्यक्ति स्वीकार नहीं करता और बिल्कुल अंत तक अपने ही नजरियों को कस कर पकड़े रहता है। तो क्या परमेश्वर जीवन के उसके अनुभव के दौरान उसे छोड़ देता है? (नहीं।) परमेश्वर नहीं छोड़ता। उसके जीवन के हर चरण में, वह जो कुछ भी उसके लिए करता है, और वह उससे जो भी अनुभव करने की अपेक्षा रखता है, परमेश्वर इन सबमें अपनी जिम्मेदारी को अंत तक गंभीरता से लेता है। बिल्कुल अंत तक जिम्मेदारी निभाने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य क्या है? एक अच्छा परिणाम देख पाना, एक ऐसा परिणाम देख पाना जो उस व्यक्ति के लिए संतोषजनक और स्वीकार्य हो, ताकि वह अपनी चाही हुई सच्ची खुशी का आनंद ले सके—यह परमेश्वर की सहिष्णुता है। लेकिन अंत में परमेश्वर कैसा परिणाम देखता है? क्या उसे अंत में वह परिणाम दिखाई देता है जो वह देखना चाहता है? (नहीं।) नहीं दिखाई देता, कोई उम्मीद दिख ही नहीं रही है। जब परमेश्वर को कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती तो यह क्या दर्शाता है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर को अब इस व्यक्ति से कोई उम्मीद नहीं रही। मानवजाति के शब्दों में कहें, तो वह मायूस है। अगर आशा की कोई किरण हो, तो परमेश्वर नहीं छोड़ेगा। यही परमेश्वर की सहिष्णुता और उसका प्रेम है। परमेश्वर सिर्फ खोखली बातें कहने के बजाय व्यावहारिक ढंग से लोगों पर अपनी सहिष्णुता और प्रेम बरसाता है। अंत में, परमेश्वर इस व्यक्ति में जो देखता है वह यह है कि उसका भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला है, उनकी जिद अभी भी वैसी ही है, और उसके दिल की गहराई में उसकी कामना कायम है। हालाँकि वह व्यक्ति आशीष पाना चाहता है, लेकिन जब वह परमेश्वर के समक्ष आता है, तो किसी भी चीज को जाने नहीं देता। इसके बजाय, वह जीवन भर इस तुच्छ कामना को थामे रहता है, पूरी जिंदगी उससे चिपका रहता है, और जीवन भर उसे कसकर पकड़े रहता है। ऊपर से वह व्यक्ति खुद को परमेश्वर को सौंप देता है, और अपना जीवन और सभी रिश्तेदार परमेश्वर को सौंप देता है। लेकिन वास्तविकता क्या है? वह खुद प्रभारी बनना चाहता है, अपने आसपास के लोगों का प्रभारी, अपने रिश्तेदारों का प्रभारी, और अपने आप का प्रभारी, और इसके अलावा, वह चाहता है कि उसके सभी लोग एक-दूसरे पर भरोसा करें—वह ये तमाम चीजें परमेश्वर को बिल्कुल नहीं सौंपता। तुम इसे किसी भी दृष्टि से देखो, यह व्यक्ति जिस पथ पर चलता है वह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने का नहीं है, न ही यह सचेत होकर परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का है। वह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के पथ पर बिल्कुल नहीं चलता। उसने जीवन में बहुत दुख सहे हैं और बहुत-सी असाधारण चीजों का अनुभव किया है, फिर भी इस कारण से उसने अपने द्वारा खींची गई सुंदर और सुहानी तस्वीर का त्याग नहीं किया है, न ही उसने इसने उसे किसी भी तरह से चिंतन करने को मजबूर किया है। यह किस प्रकार का व्यक्ति है? ऐसे लोग बड़े हठी होते हैं। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जीवन में सही पथ पर नहीं चलते, तो अंतिम परिणाम यही होता है। अंत में, परमेश्वर ने जो किया वह संभवतः उतना ही कर सकता था। यह पहले ही लोगों की कल्पनाओं को पार कर चुका है और उनकी पहुँच से दूर जा चुका है। परमेश्वर ने लोगों को बहुत दिया है। लोगों की भ्रष्टता, उनके स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये के अनुसार, वे इन चीजों और इन आशीषों के लायक नहीं हैं। लेकिन क्या परमेश्वर छोड़ देता है? छोड़ने से पहले परमेश्वर बहुत-सा कार्य करता है। परमेश्वर उन पर उदारता से अपना प्रेम, कृपा, अनुग्रह और आशीष बरसाता है। लेकिन परमेश्वर से ये चीजें पा लेने के बाद, बदले में उनका रवैया क्या होता है? वे अभी भी उससे बचते हैं, उससे दूर रहते हैं, और अक्सर मन-ही-मन उस पर शक करते हैं, उससे सतर्क रहते हैं, उसके विपरीत चलते हैं और हार मान लेते हैं। खुशहाल जीवन रचने के लिए इंसान निरंतर दूसरों पर क्यों भरोसा करना चाहता है? वह खुद को परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तैयार नहीं कर पाता। वह नहीं मानता कि परमेश्वर लोगों को सही पथ पर आगे बढ़ा सकता है और उन्हें खुशहाल बना सकता है। उसे हमेशा लगता है कि उसका अपना पथ ही सही है। अगर परमेश्वर उसके अपने पथ के अनुसार और उसकी अपनी अपेक्षाओं के अनुसार उसकी मदद करता और उसके लक्ष्य हासिल करने की ओर आगे बढ़ाता, तो वह उसे स्वीकार कर समर्पित हो गया होता। मगर परमेश्वर लोगों को अपने पास वापस लौटाने के लिए सत्य व्यक्त करता है, ताकि वे सत्य को स्वीकार कर सकें और एक सार्थक जीवन जी सकें, और यह इंसान की धारणाओं के विपरीत है। इसलिए, लोग अपने ही रास्ते चलकर अपना जीवन जीना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें खुद पर और दूसरों पर भरोसा करना चाहिए, और वे परमेश्वर के भरोसे अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं। चूँकि लोग परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हैं, और सिर्फ अपनी धारणाओं को पकड़े रहते हैं, वे परमेश्वर से ज्यादा-से-ज्यादा दूर भटक जाते हैं। सिर्फ वही लोग जो समझ पाते हैं कि परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है, और जो समझते हैं कि लोग अत्यधिक भ्रष्ट हैं और उन्हें परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है, और जो समझते हैं कि सिर्फ परमेश्वर द्वारा किए गए सभी कार्य ही सत्य हैं, और ये मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचाने और मानवजाति को एक खूबसूरत मंजिल तक लाने की खातिर हैं—ऐसे ही लोग परमेश्वर को आदर भाव से देख सकते हैं, उस पर भरोसा कर सकते हैं, अंत तक उसका अनुसरण कर सकते हैं, और उसे कभी नहीं छोड़ सकते हैं।

अभी हमने जिस विषय पर संगति की वह इंसान के प्रति परमेश्वर का रवैया और वे तमाम तरीके थे जिनसे परमेश्वर लोगों के बीच और उन पर कार्य करता है। अगर लोग इन चीजों के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं, तो उन्हें अक्सर जाँच व चिंतन करना और समझना चाहिए और फिर खुद को पूरी तरह बदल लेना चाहिए। खुद को पूरी तरह बदलने का उद्देश्य क्या है? अगर लोगों को यह एहसास हो जाए कि ये धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और वे यह जान लें कि परमेश्वर वास्तव में कार्य कैसे करता है, तो क्या वे तब भी परमेश्वर के बारे में संभवतः कुछ और ज्यादा गलत और विकृत धारणाएँ विकसित कर लेंगे? यह अभी भी संभव है, क्योंकि लोग विद्रोही और सक्रिय विचारों वाले होते हैं, तो संभावना है कि वे परमेश्वर के बारे में तरह-तरह की धारणाएँ विकसित कर लेंगे। एक धारणा किसी दूसरी को जन्म देती है, जो फिर दूसरी धारणाओं को जन्म देती है, और तरह-तरह की धारणाएँ निरंतर उपजती हैं। जब लोग परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित कर रहे होते हैं, तभी वे निरंतर उसे गलत समझ रहे होते हैं, और साथ ही चिंतन कर लगातार सत्य को समझ रहे होते हैं, और इस प्रक्रिया में वे धीरे-धीरे परमेश्वर को जान लेते हैं। वह क्या कारण है कि लोग परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते? वे नहीं जानते कि धारणाएँ क्या हैं, और अपने भीतर की धारणाओं को खुद नहीं पहचानते, न ही वे अपनी धारणाओं पर चिंतन करते हैं, या कभी उन्हें जाने देते हैं। वे सिर्फ उन्हें पकड़े रहने पर ध्यान देते हैं, और कभी यह जानने-समझने का प्रयास नहीं करते कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, या परमेश्वर के कार्य का सार क्या है। इस प्रकार, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के अलावा एक और चीज परमेश्वर और लोगों के बीच आ जाती है जो लोगों के उद्धार को प्रभावित करती है। इसलिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों से निपटते समय, लोगों को इंसानी धारणाओं की ज्यादा बारीकी और विस्तार से समझ हासिल करनी होगी। इंसानी धारणाओं को समझने और दूर करने का उद्देश्य क्या है? क्या यह उन्हें जाने देने के लिए है? यह इसलिए है कि लोग जितनी जल्दी हो सके सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें और समझ लें कि परमेश्वर लोगों को ठीक किसमें प्रवेश करवाना चाहता है और समझ लें कि परमेश्वर कार्य कैसे करता है। अगर परमेश्वर तुम्हारी कल्पना के अनुसार कार्य करता, तो क्या परमेश्वर का तुम पर किया गया कार्य असरदार हो सकता था? नहीं, नहीं हो सकता था। मिसाल के तौर पर, कुछ ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में परमेश्वर तुम्हें कभी प्रबुद्ध नहीं करता। इसके बजाय, वह स्पष्ट शब्दों में तय करता है कि उन्हें कैसे किया जाए, और तुम्हें बस उठकर उन्हें कर देना है। लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के तुम्हें प्रेरित करने और प्रबुद्ध करने की प्रतीक्षा करते हो, और नतीजतन यह प्रतीक्षा कार्य को विलंबित कर देती है, तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभाते, और आखिर तुम्हें बदल दिया जाता है। किनके कारण ऐसा हुआ? (धारणाओं के कारण।) अब इस पर गौर करें, तो क्या लोगों की धारणाएँ उनके प्रवेश को प्रभावित करती हैं? (बिल्कुल।) वे उसे किस हद तक प्रभावित करती हैं? कम-से-कम वे लोगों की सत्य की समझ और वास्तविकता में उनके प्रवेश को प्रभावित करती हैं, और सबसे बुरी स्थिति में, वे लोगों के सही चुनावों को प्रभावित करती हैं, और उन्हें आसानी से गलत पथ पर ले जाती हैं। लोग जब मन में धारणाएँ रखते हैं, तो बहुत संभव है कि वे परमेश्वर को गलत समझ लें। मिसाल के तौर पर, सकारात्मक परिणाम पाने के लिए परमेश्वर लोगों की पूरी तरह काट-छाँट करता है उनका न्याय करता और ताड़ना देता है ताकि लोग अपने बारे में बेहतर समझ हासिल करें और सच में प्रायश्चित्त करें। मगर लोग सोचते हैं कि परमेश्वर जानबूझकर उनके विरुद्ध खड़ा है, और वह जानबूझकर उन्हें प्रकट करके निकाल देना चाहता है। चाहे परमेश्वर जो भी कहे या करे, वे उसके बारे में बहुत बुरा ही सोचते हैं, और मानते हैं कि परमेश्वर के मन में उनके प्रति प्रेम नहीं है, और वे सत्य का अभ्यास करने वालों से यूँ पेश आते हैं मानो वे मूर्ख हों। परमेश्वर लोगों को सही पथ दिखाता है, और उन्हें सत्य का अभ्यास करने और प्रकाश में जीने देता है, मगर इसके बजाय वे शैतानी फलसफों और शैतानी तर्क के अनुसार अंधकार में जीने को चुनते हैं। इस तरह जिस पथ पर वे चल रहे हैं वह उद्धार का पथ नहीं है। अगर तुम परमेश्वर के विरुद्ध चलने पर जोर देते हो, तो क्या तुम परमेश्वर के कार्य से ज्यादा-से-ज्यादा दूर नहीं भटक रहे हो? जैसे-जैसे तुम उद्धार के पथ से ज्यादा-से-ज्यादा दूर भटकते हो, तुम्हें पूरी तरह से निकाल दिया जाएगा। बाइबल में एक कहावत है : “मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं” (नीतिवचन 10:21)। क्या मृत्यु गंभीर है? अंत के दिनों के संदर्भ में, मृत्यु गंभीर नहीं है, मगर नष्ट होना गंभीर है। मृत्यु का अर्थ नष्ट होना नहीं है, जबकि नष्ट होने का अवश्य यह अर्थ है कि कोई परिणाम न होना—सदा के लिए मर जाना। पहले यह कहा गया था कि लोग मूर्खता से मर सकते हैं। लेकिन आजकल मूर्खता कोई बड़ी बात नहीं है। मूर्खतापूर्ण काम कौन नहीं करता है? मृत्यु भी कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि मृत्यु का अर्थ आवश्यक रूप से नष्ट होना नहीं है। तो लोग नष्ट क्यों होते हैं? लोग अपनी जिद और अड़ियलपन के कारण नष्ट होते हैं, जोकि बेवकूफी से मरने से ज्यादा गंभीर है, क्योंकि इसका कोई परिणाम नहीं होता। मैं क्यों कहता हूँ कि जिद और अड़ियलपन लोगों को नष्ट होने की ओर ले जा सकता है? इसका संबंध उस पथ से है जिस पर लोग चलते हैं। जिद किस प्रकार का स्वभाव है? हठ। हठी स्वभाव का होना काफी परेशानी की बात है। कभी-कभी लोग समझे बिना इस तरह से काम करना चाहते हैं, जबकि कभी-कभी वे समझ कर भी परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन किए बिना इसी तरह काम करना चाहते हैं। इसके अलावा, अड़ियलपन भी एक प्रकार का स्वभाव है—यानी तर्क ग्रहण न कर पाना—और इसमें शामिल होता है अहंकार और क्रूरता। अगर ये दो स्वभाव नहीं बदले, तो आखिरकार ये इंसान के नष्ट होने का कारण बन सकते हैं। क्या यह एक सरल मामला है? क्या तुम इसे खुद पर लागू कर सकते हो? तुम्हें समझना चाहिए कि अहंकारी और क्रूर स्वभाव लोगों से क्या करवा सकते हैं। लोग भले ही जो भी हों, उनका हर काम सृष्टिकर्ता परमेश्वर के समक्ष किया जाता है, और परमेश्वर अपने धार्मिक स्वभाव के अनुसार लोगों पर फैसला सुनाएगा। तो, अहंकारी और क्रूर स्वभाव वाले लोगों के लिए, उनके किए कामों के क्या नतीजे होते हैं? ऐसा क्यों कहा जा सकता है कि ये ऐसे नतीजे हैं जिन्हें पलटा नहीं जा सकता? तुम सभी को यह समझना चाहिए, है न? फिर ठीक है, हम इस कहानी की धारणाओं के बारे में अब और ज्यादा नहीं बोलेंगे।

परमेश्वर के कार्य पर लोगों की धारणाओं के विषय में, क्या तुम कुछ ऐसी अन्य धारणाओं के बारे में सोच सकते हो जिन पर हमने बात नहीं की है? जो धारणाएँ आज तुम लोगों ने सुनी हैं, क्या सिर्फ यही हैं जो लोगों के मन में परमेश्वर के कार्य को लेकर हैं? अगर हम न्याय, ताड़ना, परीक्षणों, शोधन, काट-छाँट और साथ ही लोगों का खुलासा करने या पूर्ण करने की बात करें, तो यह किस विषयवस्तु से संबंधित है? परमेश्वर किस प्रकार के लोगों की काट-छाँट व न्याय करता और ताड़ना देता है? किस प्रकार के लोगों को परीक्षणों और शोधन का सामना करना पड़ता है? परमेश्वर के पास ये काम करने और लोगों पर कार्य करने के लिए इन तरीकों का प्रयोग करने के पीछे एक सिद्धांत और एक दायरा है, जो लोगों के आध्यात्मिक कद, उनके अनुसरण, उनकी मानवता, और जिस सीमा तक वे सत्य समझते हैं, उस पर आधारित होता है—मैं आज इस बारे में विस्तार से बात नहीं करूँगा। सारांश में कहें, तो परमेश्वर लोगों की काट-छाँट कर उन्हें अनुशासित करता है, उनका न्याय कर उन्हें ताड़ना देता है, और उन्हें परीक्षणों और शोधन से गुजारता है—परमेश्वर लोगों पर इन कई कदमों के अनुसार कार्य करता है। लोगों पर परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत और जिस कदम तक यह किया जाता है यह व्यक्ति के आध्यात्मिक कद पर आधारित होता है। “आध्यात्मिक कद” शब्द तुम सबको खोखला लग सकता है। इसे मुख्य रूप से इस आधार पर मापा जाता है कि व्यक्ति किस सीमा तक सत्य समझता है, क्या व्यक्ति और परमेश्वर के बीच का रिश्ता सामान्य है, और इस आधार पर भी कि व्यक्ति किस हद तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। अगर हम इस आधार पर इनमें भेद करें, तो क्या अब तक ज्यादातर लोगों ने न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का सामना कर लिया है? कुछ लोगों के लिए अभी इन कदमों का समय नहीं आया है, वे उन्हें देख सकते हैं मगर पा नहीं सकते, जबकि दूसरे लोगों के लिए ऐसा दृश्य थोड़ा डरावना है। संक्षेप में कहें, तो यही विधियाँ वे कदम हैं जो परमेश्वर लोगों को बचाने और उन्हें पूर्ण करने के लिए उठाता है, और परमेश्वर व्यक्ति के विभिन्न पहलुओं की सही परिभाषाओं के आधार पर ये तमाम कदम तय करता है। परमेश्वर द्वारा लोगों पर किए गए किसी भी कार्य में मनमानी नहीं होती। परमेश्वर अपना कार्य कदम-दर-कदम और सिद्धांतपूर्ण ढंग से करता है। वह तुम्हारे अनुसरण और मानवता और साथ ही तुम्हारी बोधगम्यता और अपने दैनिक जीवन में तुम जिस रवैये से लोगों, घटनाओं और चीजों से पेश आते हो, वगैरह पर गौर करता है। इन चीजों के आधार पर, वह तय करता है कि लोगों पर कैसे कार्य किया जाए, और उनका मार्गदर्शन कैसे किया जाए। किसी व्यक्ति का निरीक्षण करने के लिए परमेश्वर को कुछ समय चाहिए होता है। वह एक या दो चीजों के आधार पर जल्दबाजी में फैसला नहीं करता—किसी व्यक्ति पर किए गए हर एक काम में परमेश्वर कभी जल्दबाजी नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उस विधि से डर लगता है जिससे परमेश्वर ने अय्यूब की परीक्षा ली थी। अगर कभी मेरे साथ ऐसा हुआ, तो मैं परमेश्वर की गवाही नहीं दे पाऊँगा। क्या होगा अगर परमेश्वर मुझे हर चीज से उस तरह वंचित कर दे? मैं क्या करूँगा?” फिक्र मत करो, परमेश्वर तुम पर कभी भी ऐसी मनमानी से कार्य नहीं करेगा, तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। तुम्हें क्यों डरने की जरूरत नहीं है? डरने से पहले, तुम्हें पहले खुद को एक तथ्य से आश्वस्त कर लेना चाहिए और अपने आध्यात्मिक कद पर विचार करना चाहिए। क्या तुम्हारे पास अय्यूब जैसी आस्था है, अय्यूब का समर्पण है, और वैसा भय है जैसे अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने की अय्यूब जैसी वफादारी और पूर्णता है? इन चीजों को मापो और अगर तुम्हारे पास इनमें से कुछ भी नहीं है, तो तुम आश्वस्त हो सकते हो कि परमेश्वर तुम्हें परीक्षणों और शोधन से नहीं गुजारेगा, क्योंकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद उस स्तर का नहीं है और वह बहुत छोटा है। लोगों के मन में परमेश्वर के परीक्षणों और शोधन को लेकर कुछ धारणाएँ और कल्पनाएँ भी हैं—और साथ ही आशंकाएँ, डर, या बचने और सतर्क रहने की भावना भी है। एक बार जब लोग इन चीजों और परमेश्वर की कार्यविधि को पूरी समझ लेंगे, तो परमेश्वर के कार्य को लेकर उनकी धारणाएँ धीरे-धीरे गायब हो जाएँगी, और फिर वे सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर ज्यादा मेहनत करने पर ध्यान देंगे। ये वचन बोलने के पीछे उसका उद्देश्य यह लक्ष्य प्राप्त करना है। परमेश्वर के अनुसरण में, तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है और लोगों को बचाता है। अगर तुम सचमुच सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो चलो, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करो। परमेश्वर को रंगीन चश्मे से न देखो, और परमेश्वर के मन की थाह पाने के लिए अपने क्षुद्र दिमाग का इस्तेमाल न करो। तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत वास्तव में क्या हैं, किन सिद्धांतों से परमेश्वर लोगों से पेश आता है, परमेश्वर किसी व्यक्ति पर किस हद तक कार्य करता है, और परमेश्वर के मापन का मानक क्या है। एक बार इन चीजों को समझ लेने के बाद, तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? परमेश्वर यह नहीं देखना चाहता है कि तुम सत्य का अनुसरण करना छोड़ दो, और न ही वह ऐसे किसी व्यक्ति का रवैया देखना चाहता है जिसने खुद से उम्मीद छोड़ दी हो। वह देखना चाहता है कि एक बार ये सभी सच्चे तथ्य समझ लेने के बाद, तुम स्पष्ट रूप से पहचान कर कि परमेश्वर धार्मिक है, आगे बढ़ो और अधिक दृढ़ता, साहस और आश्वस्त ढंग से सत्य का अनुसरण करो। जब तुम मार्ग के अंतिम सिरे पर आ जाओगे, तो अगर तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय मानक तक पहुँच जाओ, और तुम उद्धार के मार्ग पर हो, तो परमेश्वर तुम्हें नहीं छोड़ेगा। न्याय, ताड़ना, परीक्षणों, शोधन और काट-छाँट के संबंध में लोगों की धारणाओं के बारे में फिलहाल बस इतना ही। अभी भी बहुत सारे विस्तृत पहलू हैं, इतने सारे हैं कि इस छोटी-सी वार्ता में स्पष्ट रूप से समझाना मुश्किल है। यह जरूरी होगा कि कुछ मिसालें दी जाएँ कि लोग दैनिक जीवन में इन धारणाओं को कैसे दर्शाते और प्रकट करते हैं, और यह भी जरूरी होगा कि कुछ संक्षिप्त कहानियाँ बताई जाएँ और कुछ सरल किरदारों और कथानकों को शामिल किया जाए, ताकि तुम असल जीवन की मिसालों के जरिये लोगों की धारणाओं को समझ सको या उनकी व्याख्या कर सको, ताकि तुम्हें यह एहसास हो सके कि ये चीजें वास्तविकता से असंगत धारणाएँ हैं और परमेश्वर के सिद्धांतों और मानकों के बिल्कुल विपरीत हैं। परमेश्वर ऐसा करता ही नहीं, तो तुम क्यों आँखें बाद करके सोचते और कयास लगाते रहते हो? अगर तुम निरंतर अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जियोगे, तो तुम कभी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य के पथ का अनुसरण नहीं करोगे, और हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर रहोगे। अगर तुम यूँ ही चलते रहे, तो तुम्हारे पास अभ्यास का कोई पथ नहीं होगा, और तुम हमेशा बाध्यताओं के अधीन रहोगे। तुम जहाँ भी जाओगे, हर मोड़ पर ठोकरें खाओगे, नहीं समझ पाओगे कि क्या करें, और कुछ भी आसानी से नहीं होगा। नतीजतन, अंत में, तुम परमेश्वर का न्याय और ताड़ना पाने के भी पात्र नहीं रहोगे। यह कितने खेद की बात होगी!

परमेश्वर में विश्वास रखने की बात पर, पहले तुम लोगों के साथ कोई भी ईमानदार नहीं रहा है। अब ईमानदार होने का समय है, क्योंकि यह नाजुक मोड़ है! समय खत्म हो रहा है, तो परमेश्वर में आस्था के साथ ऐसा बर्ताव न करो मानो वह कोई खेलने की चीज हो। परमेश्वर ने लोगों को पूर्ण करने और उन्हें बचाने का संकल्प लिया है, और वह अपना कार्य पूरी तरह से करना चाहता है। इसे पूरी तरह से करने के लिए वह क्या करता है? लोगों को सत्य के सभी पहलू बता कर, ताकि वे इसे स्पष्ट रूप से समझ सकें, और न भटकें। जब तुम भटकोगे तो परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करेगा। अगर तुम अक्सर अपने ही पथ से भटकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें तब तक अनुशासित करता रहेगा जब तक तुम सही पथ पर वापस न आ जाओ। अंत में, अगर परमेश्वर ने वह सब-कुछ कर दिया जो वह कर सकता है और तुम अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाए हो, तो दोष देने के लिए और कौन है? तुम सिर्फ खुद को दोष दे सकते हो। उस वक्त लोगों के करने के लिए जो बच जाता है, वह छाती पीटना और बुरी तरह रोना है। लोगों की सत्य की समझ को लेकर सबसे अहम चीज क्या है? उन्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए, और उसे स्वीकारने के बाद, उसे खोज कर उसे अपने दैनिक जीवन से जोड़ने में समर्थ होना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से लोग धीरे-धीरे सत्य की सच्ची समझ प्राप्त कर सकते हैं। जब तुम धर्मोपदेश सुनते हो, और उनके शाब्दिक अर्थ की समझ हासिल करते हो, तो तुम सोचते हो कि तुमने समझ लिया है—यह वास्तव में सत्य समझना नहीं है। यह महज धर्म-सिद्धांत समझना है। जब तुम सुनते समय इसे समझ लो तब तुम्हें इसे असल जीवन में अपनी दशा और अपने प्रवेश से जोड़ना चाहिए, ताकि तुम खुद को जान सको और सत्य का अभ्यास कर सको। सिर्फ इसी का अर्थ है यह है कि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो। अगर तुम इस तरह अभ्यास नहीं करते, तो सत्य का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, परमेश्वर के वचनों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, और इसलिए परमेश्वर का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करोगे, तो कुछ भी हासिल नहीं करोगे!

11 अक्तूबर 2018

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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