662  इंसान का जीवन पूरी तरह है परमेश्वर की संप्रभुता में

1  यदि कोई व्यक्ति केवल भाग्य पर ही विश्वास करता है—भले ही इसके बारे में गहराई से महसूस भी करता है—किन्तु ऐसा करके भी मानवजाति के भाग्य पर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने और मानने, इसके प्रति समर्पण करने और इसे स्वीकार करने में समर्थ नहीं है, तो उसका जीवन एक त्रासदी होगा; यह व्यर्थ में जिया गया जीवन, एक खालीपन के सिवाय कुछ नहीं होगा। वह तब भी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के आगे आत्मसमर्पण नहीं कर पायेगा, सच्चे अर्थ में एक सृजित मनुष्य नहीं बन पायेगा, और सृष्टिकर्ता की स्वीकृति पाने में असमर्थ होगा। जो व्यक्ति वास्तव में सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानता और अनुभव करता है उसे एक सकारात्मक स्थिति में होना चाहिए, न कि ऐसी स्थिति में जो नकारात्मक या निराशापूर्ण हो। यह स्वीकार करते हुए कि सभी चीजें भाग्य से निर्धारित होती हैं, उसके दिल में जीवन और भाग्य की एक सटीक परिभाषा होगी जो यह है कि मनुष्य का जीवन पूरी तरह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन है।

2  जब वह पीछे मुड़कर उस मार्ग को देखता है जिस पर वह चला है, जब वह अपनी जीवन यात्रा के हर चरण को याद करता है, तो वह देखता है कि चाहे उसकी यात्रा कठिन रही हो या सुगम, हर कदम पर परमेश्वर उसे मार्ग दिखा रहा था, उसके लिए इसे व्यवस्थित कर रहा था। यह परमेश्वर की कुशल योजना होने के साथ ही उसकी सावधानीपूर्ण व्यवस्थाएँ थीं जिन्होंने आज तक अनजाने ही उसकी अगुवाई की है। उसे एहसास होता है कि सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार कर पाना, उसके उद्धार को स्वीकार करने में समर्थ होना—यही व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा आशीष है! जब वह पीछे मुड़कर अपनी यात्रा को देखता है, जब वह सही मायनों में परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव करता है, तो वह और भी अधिक ईमानदारी से हर उस चीज के प्रति समर्पण करना चाहेगा जिसकी परमेश्वर ने व्यवस्था की है, और उसके पास परमेश्वर को उसके भाग्य की योजना बनाने देने और आगे से परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह न करने के लिए और अधिक दृढ़ संकल्प और आस्था होगी।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

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