31. कर्तव्य के प्रति निष्ठा
मैं पहले भाई-बहनों को परमेश्वर के गुणगान में मंच पर कलाकारी करते, नाचते-गाते देख कर बड़ी ईर्ष्या किया करती थी। मैं उस दिन का सपना देखती थी जब मैं गाने और परमेश्वर की गवाही देने मंच पर जा सकूंगी। मैं सोचती यह कितना बड़ा सम्मान होगा! वह दिन मेरी कल्पना से पहले ही आ गया।
मई 2018 में, मैं राज्य गान नामक एक समवेत भजन के कार्यक्रम के रिहर्सल में शामिल हो गयी। मैंने कभी भी गायन और नृत्य नहीं सीखा था, इसलिए पहले-पहल मेरे लिए अभ्यास बहुत मुश्किल था। गाते समय मैं बहुत घबरायी हुई थी, मेरे चेहरे पर कोई भाव ही नहीं थे, और मैं ताल पर नहीं नाच पा रही थी। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैं सोचती कि राज्य गान पूरी मानवता के लिए परमेश्वर के आगमन की गवाही है और इससे तुरंत इतनी प्रेरणा मिलती कि मैं निरंतर प्रार्थना करती रहती। मैंने अपनी सारी शक्ति अच्छे ढंग से नाचने-गाने में लगाने की ठान ली। परमेश्वर ने थोड़ा-थोड़ा कर मेरा मार्गदर्शन किया, और कुछ माह बाद मुझे यह सब अधिक सहज लगने लगा। मैं हाव-भाव के अभ्यास में भाई-बहनों की अगुआई भी करने लगी। मैं यह सोच कर स्वयं से प्रसन्न थी कि "मेरे हाव-भाव और लय-ताल अब वाकई अच्छे हो गए हैं। कार्यक्रम के फिल्मांकन में अवश्य मुझे बिल्कुल आगे रखा जाएगा, और जब घर के भाई-बहन मुझे उसमें देखेंगे तो वे बड़े उत्साहित होंगे, बहुत खुश होंगे। मैं शर्त लगाती हूँ कि उन्हें ईर्ष्या भी होगी और वे मेरी इज़्ज़त करेंगे।" मैं जब भी इस बारे में सोचती, मुझे बहुत अच्छा लगता और अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझे असीम ऊर्जा मिलती। रिहर्सल करते वक्त जब मैं पसीने से तर हो जाती, दर्द भी होता, फिर भी मैं आराम नहीं करती थी। मुझे डर था कि धीमी पड़ने पर मुझे आगे नहीं रखा जाएगा और तब मुझे शायद खुद का हुनर दिखाने का मौक़ा न मिले। मुझे मालूम था कि यह कितना भी मुश्किल और थकानेवाला क्यों न हो, मुझे अपना पूरा ज़ोर लगाना ही होगा। फिल्मांकन का समय करीब आने पर निर्देशक ने मंच पर हम लोगों के स्थान तय कर दिये। उत्साहित होकर, मैंने कलाकारों की सूची खोल कर अपना नाम ढूंढ़ा, मैंने देखा मैं सातवीं कतार में हूँ। एक पल को मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। मुझे इतना पीछे क्यों रखा गया? क्या निर्देशक ने कोई गलती कर दी? मेरे हाव-भाव और लय-ताल बिल्कुल सही थे, मैं अभ्यास में भाई-बहनों की मदद भी कर रही थी। मैंने सोचा, मुझे वाकई पहली कुछ पंक्तियों में होना चाहिए। मैं पीछे कैसे हो सकती हूँ? अगर मैं परदे पर दिखाई नहीं पड़ी, अगर मुझे कोई शॉट नहीं मिले, तो दूसरे मुझे देखेंगे ही नहीं। इस ख्याल ने मेरी सारी खुशी छीन ली। इसके बाद के रिहर्सलों में, न मैं आनंद से गा सकी, न उत्साह के साथ नृत्य कर सकी। मैं हमेशा उदास रहती थी, खास तौर से तब जब मैंने देखा कि कुछ बहनों के हाव-भाव और लय-ताल ख़ास नहीं थे, मगर वे पहली तीन पंक्तियों में थीं। मैं बिलकुल समझ नहीं पा रही थी। वे मुझसे बेहतर कैसे हैं? उन लोगों को आगे क्यों रखा गया, जबकि मैं पीछे फंसी हुई हूँ? मैं ईर्ष्या से भर उठी और इसे स्वीकार नहीं कर पायी। मैंने यह भी देखा कि कुछ भाई-बहन जो अभ्यास में मुझसे बेहतर थे, उन्हें और भी पीछे डाल दिया गया था, मगर रिहर्सलों के दौरान वे बड़े आराम से थे, मानो इसका उन पर कोई असर ही नहीं पड़ा हो। मैं उलझन में थी : पहले भी, वे आज्ञाकारी थे और सक्रियता से अपना कर्तव्य निभा रहे थे, तो फिर ये मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों था, मैं क्यों समर्पण नहीं कर पा रही? क्या मैं वाकई नासमझ हो रही थी? उस पल मुझे कुछ अफ़सोस महसूस हुआ, मगर तब भी मैंने न सत्य को खोजा और न ही आत्मचिंतन किया। अब भी मैं मंच की पंक्तियों में अपने स्थान को लेकर परेशान थी।
कुछ दिन बाद निर्देशक ने पंक्तियों में कुछ बदलाव किये। मैंने अंदर-ही-अंदर खुशी की लहरें उठती महसूस की और सोचा कि शायद मुझे आगे की तरफ लाया जायेगा। लेकिन जब मैंने देखा, तो मुझे रोना ही आ गया। मुझे बिल्कुल आखिरी पंक्ति में डाल दिया गया था और एकदम छोर पर जहां मुझे कैमरा शायद ही देख पाता। इससे भी ज़्यादा अविश्वसनीय यह था कि बहुत समय से रिहर्सल न करने वाली कुछ बहनों को मुझसे आगे कर दिया गया था। मैं काफ़ी बेचैन थी और अपना संतुलन खो बैठी थी। मैंने अपने हाव-भाव और लय-ताल के अभ्यास में इतनी मेहनत की थी ताकि मैं फिल्म में आ सकूं, तो मुझे एक अनजान कोने में क्यों धकेल दिया गया, जहां मुझे अपना चेहरा दिखाने का ज़रा-सा भी मौक़ा नहीं है? मैं बस एक प्रॉप बन कर रह जाऊंगी! अब कार्यक्रम में रहने का भी क्या अर्थ रह गया? अगर मुझे पहले पता होता, तो मैं रिहर्सलों में इतनी मेहनत नहीं करती। मुझे लगा मैं टूट रही हूँ। मैं इस सच्चाई को स्वीकार ही नहीं कर पायी। अगले कुछ दिनों के अभ्यास में, मेरे टखने में मोच आ गयी। मैंने सोचा, "टखने में मोच के कारण अब मैं आराम कर सकूंगी और हर दिन मुझे थकी-हारी भागने की कोई ज़रूरत नहीं। मैं पीछे हूँ जहाँ वैसे भी कोई मुझे देख नहीं सकता। भला इतनी मेहनत क्यों करूं?" मैं देर से आने और जल्दी जाने लगी, और जब रिहर्सलों में तेज़ी आती, तो मैं किनारे जाकर आराम करने लगती। यह देख कर कुछ बहनों ने मुझे याद दिलाया, "हम फिल्मांकन करने वाले हैं। अगर इन दिनों आप अभ्यास नहीं करेंगी तो आप बाकी सबके साथ तालमेल नहीं रख पाएंगी। हम सुस्ती नहीं दिखा सकते।" यह सुनकर परेशानी-सी हुई और मुझे बुरा भी लगा। मुझे मालूम था कि सिर्फ 20 दिन में हम फिल्मांकन करने वाले हैं, अगर मैं रिहर्सलों में ठीक से भाग नहीं लूंगी, तो पूरा प्रोजेक्ट पिछड़ जायेगा। मेरी वजह से गड़बड़ी होगी। मेरे मन में अचानक डर पैदा हो गया। मैं इतनी दुष्ट कैसे हो सकती हूँ? सिर्फ आत्मचिंतन से मैं जान पायी कि जब से मुझे पीछे की तरफ डाल दिया गया जहां मुझे खुद को दिखाने का मौक़ा न मिलता, मैं बहाने बना कर विरोध कर रही थी, और अपना कर्तव्य निभाने का उत्साह खो चुकी थी। मैं सिर्फ लापरवाही के साथ कम-से-कम काम कर रही थी। मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी और प्रतिरोधी बन रही थी। मेरी मोच भी बद से बदतर हो रही थी, जो शायद परमेश्वर द्वारा मुझे अनुशासित करने का काम था। अगर मैं इतनी विरोधी बनी रही, तो खुद को दिखाने या न दिखाने की बात तो दूर रही, मैं शायद मंच पर खड़ी भी न हो सकूं, और तब मैं अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाऊँगी। अपने दर्द और अफ़सोस में, उस रात मैं घुटनों के बल बैठकर परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी। "हे परमेश्वर, जबसे मुझे पीछे डाल दिया गया तब से मैं वाकई परेशान हूँ, मैं समर्पण नहीं कर पायी हूँ, शिकायतों से भरी हुई हूँ, काम के वक्त आराम कर, अपना कर्तव्य बहुत बुरे ढंग से कर रही हूँ। मैं जानती हूँ मैं कितनी विद्रोही हूँ, मैंने तुम्हें कितना निराश किया है। हे परमेश्वर, मुझे इस अवस्था से बाहर निकालो।"
तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जैसे ही पद, प्रतिष्ठा या रुतबे की बात आती है, हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा दूसरों से अलग दिखना, मशहूर होना, और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई झुकने को अनिच्छुक रहता है, इसके बजाय हमेशा विरोध करना चाहता है—इसके बावजूद कि विरोध करना शर्मनाक है और परमेश्वर के घर में इसकी अनुमति नहीं है। हालांकि, वाद-विवाद के बिना, तुम अब भी संतुष्ट नहीं होते हो। जब तुम किसी को दूसरों से विशिष्ट देखते हो, तो तुम्हें ईर्ष्या और नफ़रत महसूस होती है, तुम्हें लगता है कि यह अनुचित है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा वही व्यक्ति दूसरों से अलग क्यों दिखता है, और मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती है?' फिर तुम्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो। और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब एक बार फिर तुम्हारा सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो तुम इससे जीत नहीं पाते हो। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? क्या किसी व्यक्ति का इस तरह की स्थिति में गिर जाना एक फंदा नहीं है? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग दिया है, तो क्या वह स्वतंत्र और मुक्त नहीं है? इस पर ग़ौर करें : यदि कोई व्यक्ति इन स्थितियों में फँसने से बचना चाहता है, स्वयं को इनसे बाहर निकालने में सक्षम होना चाहता है, और इन चीज़ों की दिक्कतों और इनके बंधनों से मुक्त होना चाहता है, तो उसे किस प्रकार के परिवर्तन करने चाहिए? उसे वास्तव में स्वतंत्र और मुक्त होने में सक्षम होने से पहले क्या प्राप्त करना चाहिए? एक तरफ़ तो उसे चीज़ों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए : यश, संपत्ति और पद तो केवल वे साधन और पद्धतियाँ हैं, जिन्हें शैतान लोगों को भ्रष्ट करने, जाल में फँसाने, उन्हें नुकसान पहुँचाने और उन्हें चरित्रहीन बनाने के लिए इस्तेमाल करता है। सैद्धांतिक रूप से, पहले तुम्हें इसकी स्पष्ट समझ हासिल करनी चाहिए। इतना ही नहीं, तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ना और अलग रखना सीखना चाहिए। ... अन्यथा, तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, उतना ही अंधेरा तुम्हारे आस-पास छा जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफ़रत महसूस करोगे, और कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम ऐसा कर पाने में उतने ही कम सक्षम होगे, जैसे-जैसे तुम कम चीज़ें प्राप्त करोगे, तुम्हारी नफ़रत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफ़रत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम्हारे अंदर जितना अधिक अंधेरा छाता है, तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उतने ही बुरे ढंग से करोगे; तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन जितने बुरे ढंग से करोगे, तुम उतने ही कम उपयोगी होगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इन वचनों ने मुझे थोड़ा जगाया। परमेश्वर के वचनों ने मेरी अवस्था को सटीक ढंग से उजागर किया। समवेत भजन के समूह में शामिल होने के बाद जब मैं सब अच्छे से समझ गयी और हाव-भाव के अभ्यास में दूसरों की अगुआई करने लगी, तब मुझे यह लगने लगा कि मैं उनसे बेहतर कर रही हूँ और मैं फिल्मांकन में बिल्कुल आगे रहूँगी। अपने फिल्मांकन की बात सोच कर कि मैं खुद को दिखा सकूंगी, अपने कर्तव्य के लिए मुझमें ऊर्जा का जबरदस्त संचार हो रहा था। थकान होने तक कड़ी मेहनत करके भी मैं खुश थी, मैं बस हाव-भाव और लय-ताल के अभ्यास पर ध्यान दे रही थी। लेकिन जब मुझे पीछे, बहुत पीछे डाल दिया गया, तो दिखावे की मेरी उम्मीद पर पानी फिर गया। मैं निर्देशक की व्यवस्था की विरोधी हो गयी और मैंने आगे के लोगों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। मुझे उनसे ईर्ष्या हो गयी। मुझे गलतफहमी हो गयी और मैंने शिकायत की, मुझे लगा यह सही नहीं हो रहा, मैंने परमेश्वर से तर्क कर उससे स्पर्धा करनी चाही, मैं अपने कर्तव्य में नकारात्मक हो गयी, ढीली पड़ गयी। मैं अभ्यास में की गयी अपनी मेहनत पर खेद भी जताने लगी। जब मैंने अपनी मंशाओं और व्यवहार पर आत्मचिंतन किया, तब मैंने जाना कि मैं परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशीलता या उसकी गवाही देने के लिए अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। इसके बजाय मैं सबके बीच चमकने का एक मौक़ा चाह रही थी, ताकि दूसरे लोग मेरी इज़्ज़त करें। क्या मैं सिर्फ़ अपने नाम और रुतबे के लिए नहीं लड़ रही थी? मैं बेहद स्वार्थी और घृणा के लायक थी! गायक मंडली में शामिल होने का वह अवसर परमेश्वर द्वारा मेरा उन्नयन था, मगर, चेतना और तर्क के अभाव में, मैंने नहीं सोचा कि अपना कर्तव्य कैसे ठीक से निभा कर परमेश्वर को संतुष्ट करूं। इसके बजाय मैंने बस अपने दिखावे के लिए संघर्ष किया। जब मैं दिखावा न कर पायी, तो मैंने विचलित होकर शिकायत की। मैं अंधेरों में डूबती गयी। अंत में मैंने अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाया, जिससे परमेश्वर चिढ़ गया। क्या मैं शैतान के मायाजाल में नहीं फंस गयी थी? मैंने परदे के पीछे अपना कर्तव्य निभाने वाले, मंच पर आने का मौक़ा न पाने वाले उन सभी भाई-बहनों के बारे में सोचा, जो बिना शिकायत कड़ी मेहनत करते थे, ज़मीन से जुड़े रह कर अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ते थे। उनके मुकाबले मैं कुछ भी नहीं थी। मुझे लगा मैं अच्छे और बुरे का फ़र्क नहीं जानती, और मैं परमेश्वर की बड़ी ऋणी हूँ। मैं नहीं चाहती थी कि इतनी विद्रोही बनी रहूँ। मैं परमेश्वर के आगे पश्चाताप करना चाहती थी।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आज़माकर देखो! अगर तुम इस तरह की स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होना चाहते हो, तो तुम्हें पहले इन चीज़ों को अलग करना होगा और इन्हें छोड़ना होगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। फिर जब कभी मैं दिखावा करने की सोचती, मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी होती और स्वयं को त्यागना होता, अपनी कामनाओं को छोड़ना होता और यह ज़्यादा सोचना होता कि मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप अपना कर्तव्य कैसे करना चाहिए, अपने लय-ताल को कैसे सही रखना चाहिए, गानों को सुंदर तरीके से कैसे गाना चाहिए। मुझे यही करने की ज़रूरत थी। मैंने जान लिया कि राज्य गान में भाग लेने का जो मौका मुझे मिला है, वह मेरा एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए है, फिर मैं आगे रहूँ या पीछे। लोग कर्तव्यनिष्ठ हैं या नहीं, इसका फैसला परमेश्वर इस आधार पर नहीं करता कि वे पंक्तियों में कहाँ खड़े हैं, बल्कि उनकी ईमानदारी, और इस बात के भरोसे होता है कि वे सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को समर्पण करते हैं या नहीं। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद मुझे बड़ा सुकून मिला और मैंने यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं अब तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह नहीं करना चाहती। मेरा स्थान चाहे जहाँ हो, भले ही वह बिल्कुल अंत में क्यों न हो, जहाँ मुझे कोई न देख सके, मैं तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाना चाहती हूँ!"
इसके बाद के रिहर्सलों में, मैं हमेशा अंतिम दो पंक्तियों में रही। कभी-कभी मुझे यह ज़रूर लगा कि इस तरह मैं किसी शॉट में कभी नहीं आऊँगी, कभी भी कोई मेरी तारीफ़ नहीं करेगा, और तब मुझे थोड़ी निराशा होती। लेकिन ऐसे वक्त में, मैं जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना करती और उससे मेरे हृदय को शांत करने को कहती, और विचार करती कि अपने गाये हर बोल में परमेश्वर की अपेक्षा को कैसे अभिव्यक्त करूं, और नृत्यकला के अनुसार स्फूर्ति के साथ कैसे नृत्य करूं। जब मैंने इन बातों में अपना दिल लगाना शुरू किया, तो मैंने खुद को परमेश्वर के बहुत करीब पाया और मैंने परवाह नहीं की कि मुझे कहाँ रखा गया है। अविश्वसनीय रूप से, जैसे-जैसे हम फिल्मांकन के करीब आ रहे थे, मुझे आगे की ओर लाया जा रहा था और मुझे फिल्म में कुछ छोटे दृश्य भी दिये गये। मैंने अभ्यास का यह मौका देने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दिया। दृश्यों की शूटिंग के उन कई दिनों के दौरान मैंने आभार की अपनी भावना को बनाए रखा। प्रत्येक टेक के बाद उसमें लगन से काम करने पर ध्यान दिया, ताकि मुझे अपने कर्तव्य को लेकर कोई खेद न हो। अंतिम टेक के लिए, मुझे पहली पंक्ति में कैमरे के बहुत पास रखा गया। मुझे ज़रा भी यकीन नहीं हुआ। मुझे लगा यह बहुत बड़ा सम्मान है। मैंने बारम्बार परमेश्वर को धन्यवाद दिया और अच्छा काम करने का दृढ़ निश्चय किया। जब मैं खुशी-खुशी प्रथम पंक्ति तक चल कर जा रही थी, तमाम रोशनियाँ मुझ पर चमक रही थीं और कैमरे मेरी ओर थे। एक बहन मेरे वस्त्र ठीक करने, मेरे मेकअप को निखारने और बाल संवारने दौड़ी। मुझे अचानक महसूस हुआ कि मैं सबके ध्यान का केंद्र हूँ, हर कोई मुझे देख रहा है, और मैं अपने उत्साह को दबा नहीं पायी। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं पहली पंक्ति में रहूंगी। मैंने सोचा, अगर शॉट अच्छा रहा तो बहुत-से लोग मुझे देखेंगे और वाकई मेरा बड़ा नाम होगा। यह ख्याल मुझमें घर कर रहा था। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता था। यह विचार आते ही अचानक मैंने जान लिया कि मैं सही अवस्था में नहीं हूँ और फिर से दिखावा करना चाह रही हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करने और देह-सुख की इच्छा को त्यागने में ज़रा भी समय नहीं गंवाया, मगर मैं अभी भी अपनी गलत सोच को दबा नहीं पा रही थी और शांत नहीं हो पा रही थी। हमने एक के बाद एक करके दो-तीन टेक लिये, लेकिन मैं उसमें रम नहीं पा रही थी। तब निर्देशक ने हमें सही मनोदशा में आने के लिए टोका। मुझे चिंता होने लगी कि निर्देशक ने देख लिया है कि मेरे हाव-भाव ठीक नहीं है, वे मुझे फिर पीछे भेज देंगे। मुझे फिक्र थी कि मैं खुद का दिखावा करने का यह मौका खो दूंगी। लेकिन मैंने महसूस किया कि मुझे हमेशा खुद के हित के बारे में नहीं सोचना चाहिए, मुझे अपनी मनोदशा को ठीक करने के बारे में सोचना होगा, ताकि मैं अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभा सकूं। मेरे अंदर अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाने और दिखावा करने का मौका खो देने की चिंता के बीच संघर्ष चल रहा था। इससे मैं बुरी तरह घबरा गयी। हमने एक के बाद एक करके पांच टेक लिये, मगर मैं अब भी उनमें रम नहीं पायी, मैं वाकई भावहीन लग रही थी। मैंने दूसरी बहनों को उत्साह से शूट के बाद की सीख के बारे में चर्चा करते देखा, कुछ तो बहुत भावुक होकर रो रही थीं, लेकिन मैं अपना हौसला नहीं बढ़ा पा रही थी। मैं बहुत हताश होकर तेजी से बाहर चली गयी।
लौटते हुए, मैं फिल्मांकन में इतना बुरा काम करने के लिए बहुत दोषी महसूस कर रही थी। बाकी सबने परमेश्वर को अपने ईमानदार दिल के साथ मासूम मुस्कान दी थी मगर मुझ पर दिखावा करने का जूनून सवार था। मेरी कलाकारी परमेश्वर की गवाही के लिए बिल्कुल भी काफी नहीं थी, परमेश्वर मेरे कर्तव्य की स्वीकृति दे ही नहीं सकते थे। उस पल मैंने वाकई जी भर के रोना चाहा। मैंने परमेश्वर से कहा, "हे परमेश्वर, मुझे इस अंतिम शूट पर खेद है। अब मैं वाकई दिखावा नहीं करना चाहती, और मंच पर पीछे एक कोने में रहना चहती हूँ, जहाँ कोई भी इंसान, यहां तक कि कैमरा भी मुझे देख न सके। अगर मेरे पास तुम्हारी सच्ची स्तुति के लिए एक सरल, ईमानदार दिल होगा, तो मैं सुखी और शांत महसूस करूंगी, और दोबारा कभी दोषी महसूस नहीं करूंगी। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है, और अब मैं अपना संकल्प पूरा नहीं कर पाऊंगी।" इस बारे में मैंने जितना सोचा उतनी ही अधिक परेशान हो गयी, अपना कर्तव्य निभाने को लेकर बेहद खेद में डूब गयी।
मैंने अपने दिल को शांत कर चिंतन शुरू किया। दिखावा करने और सबसे अलग दिखने की मेरी आकांक्षा इतनी प्रबल क्यों थी कि देह-सुख का त्याग कर सत्य का अभ्यास करना इतना कठिन हो गया? मैंने परमेश्वर के वचनों में से यह अंश पढ़ा : "तुम क्या पसंद करते हो, तुम किस पर ध्यान केंद्रित करते हो, तुम किसकी आराधना करते हो, तुम किसकी ईर्ष्या करते हो, और रोज तुम अपने दिल में क्या सोचते हो, ये सब तुम्हारी अपनी प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह इसे साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम्हारी प्रकृति अधार्मिकता की शौकीन है, और गंभीर परिस्थितियों में, तुम्हारी प्रकृति बुरी और असाध्य है। तुम्हें इस तरह अपनी प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए; अर्थात्, यह जाँचो कि तुम क्या पसंद करते हो और तुम अपने जीवन में क्या त्यागते हो। शायद तुम कुछ समय के लिए किसी के प्रति अच्छे हो, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि तुम उन के चाहने वाले हो। जिसके तुम वाकई शौकीन हो, वह ठीक वो है जो तुम्हारी प्रकृति में है; भले ही तुम्हारी हड्डियाँ टूट गयी हों, तुम फिर भी उसका आनंद लोगे और कभी भी इसे त्याग नहीं पाओगे। इसे बदलना आसान नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए')। "अपनी प्रकृति में लोग जिन चीज़ों को पसंद करते हैं, उन्हें उजागर करने के अलावा, उनकी प्रकृति से संबंधित अन्य पहलुओं को भी उजागर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चीज़ों पर लोगों के दृष्टिकोण, लोगों के तरीके और जीवन के लक्ष्य, लोगों के जीवन के मूल्य और जीवन पर दृष्टिकोण, साथ ही सच्चाई से संबंधित सभी चीजों पर उनकी राय। ये सभी चीजें लोगों की आत्मा के भीतर गहरी समाई हुई हैं और स्वभाव में परिवर्तन के साथ उनका एक सीधा संबंध है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझने में मदद की कि इंसानी सोच, प्राथमिकताएं, और निरंतर प्रयास, ये सभी हमारी प्रकृति की उपज हैं, और हमारी प्रकृति के ही काबू में हैं। तब मैंने खुद से पूछा, मेरा ध्यान किस पर केंद्रित था और मैं अपने कर्तव्य में पूरे समय किसकी तलाश कर रही थी? जब मेरा स्थान मंच पर आगे और आगे आता गया और मैं ज़्यादा-से-ज़्यादा शॉट्स में आ गयी, तब मेरा ध्यान सबसे ज़्यादा इस बात पर था कि मुझे अंतत: सबसे आगे होने का मौका मिलेगा, ताकि मैं खुद को दिखा सकूं, और दूसरों की ईर्ष्या और सम्मान का केंद्र बन जाऊं। खास तौर पर अंतिम दृश्य के लिए जब मुझे सबसे आगे रखा गया, तो मुझे लगा मैं कोई सितारा हूँ। लगा मैंने कुछ ऐसा हासिल कर लिया है जिसे दिखाने की, कैमरे में अपना सुंदर रूप दिखाने की, मुझे जानने वाले भाई-बहनों को सुखद रूप से चौंकाने की, और अपने-आपको एक सदाबहार, अद्भुत याद देने की अपनी आकांक्षा पर मैं काबू नहीं कर पा रही थी। मैंने जाना कि मुझे नाम और रुतबा कितने प्रिय हैं, और ये मेरे दिल में बहुत गहरे पैठ गये हैं।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों में बहुत गहराई तक जड़ जमाए हुए है; यह उनका जीवन बन जाता है। लोग ठीक-ठीक क्या खोजते और पाना चाहते हैं? भ्रष्ट शैतानी स्वभाव की संचालक शक्ति के प्रभाव में लोगों के आदर्श, आशाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, जीवन-लक्ष्य और दिशाएँ क्या हैं? क्या वे सकारात्मक चीज़ों के विपरीत नहीं चलते? अव्वल तो लोग हमेशा प्रसिद्धि पाना चाहते हैं या मशहूर हस्तियाँ बनना चाहते हैं; वे बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना चाहते हैं। क्या ये सकारात्मक चीज़ें हैं? ये सकारात्मक चीज़ों के अनुरूप बिलकुल भी नहीं हैं; यही नहीं, ये मनुष्यजाति की नियति पर परमेश्वर का प्रभुत्व रखने वाली व्यवस्था के विरुद्ध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? उसे ऐसा व्यक्ति चाहिए, जिसके पैर दृढ़ता से ज़मीन पर रखे हों, जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी बनना चाहता हो, जो एक प्राणी का कर्तव्य निभा सकता हो, और जो इंसान बना रह सकता हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य की खोज करके और परमेश्वर पर निर्भर रहकर ही भ्रष्ट स्वभावों से मुक्त हुआ जा सकता है')। "तुम हमेशा महानता, कुलीनता और प्रतिष्ठा ढूँढ़ रहे हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। ऐसे व्यक्ति न बनो, जो परमेश्वर को घिनौना लगता हो! तो इसे कैसे हासिल किया जा सकता है? इंसान की स्थिति में रहकर ज़मीनी तौर पर काम करके। बेकार के सपने न देखो, प्रसिद्धि के पीछे न भागो, अपने संगी-साथियों से अलग दिखने की कोशिश न करो, और यही नहीं, इतने महान बनने की कोशिश न करो, जो बाकी सबको पीछे छोड़ दे, जो लोगों से श्रेष्ठ हो और जो दूसरों से अपनी पूजा करवाए। यह वो रास्ता है, जिस पर शैतान चलता है; परमेश्वर इस प्रकार के सृजित प्राणी नहीं चाहता। अगर अंत में, परमेश्वर का समस्त कार्य पूरा हो जाने पर भी, इन चीज़ों के पीछे भागने वाले लोग बाक़ी रहे, तो उनका एक ही परिणाम होगा : विनाश"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों ने जैसे मुझे वाकई जगा दिया था। मैंने आत्मचिंतन किया कि मुझे दिखावा करना क्यों इतना प्रिय है, मैं इतनी घमंडी क्यों हूँ। यह सब शैतान द्वारा शिक्षित और भ्रष्ट होने के कारण है। उसके इस प्रकार के ज़हर जैसे "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो" और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है" वाकई मुझमें समाहित हो गये थे, जिससे मेरे मन में जीवन के बारे में गलत विचार आ गये थे। मैं नाम, रुतबे और दूसरों से बेहतर ज़िंदगी बसर करने की कोशिश को सकारात्मक मानती थी। मैंने इन्हें जीवन का लक्ष्य मान लिया था। मैं चाहे कुछ भी करूं, मैं बस दिखावा करना चाहती थी, ताकि दूसरे मेरी इज़्ज़त करें और मुझसे ईर्ष्या करें। मुझे लगा कि दूसरों से बेहतर ज़िंदगी जीने से ज़्यादा इज़्ज़त मिलेगी। नाम और रुतबे से मुझे बेहद प्यार था। मैंने सोचा कि पहले स्कूल में और दूसरों के साथ बातचीत में, मैं किस तरह हमेशा सबसे आगे रहना चहती थी। मैं दूसरे सभी लोगों से आगे रहना चाहती थी, शोहरत पाना चाहती थी। जब कभी किसी का मुझ पर ध्यान जाता, मुझे बेहद खुशी मिलती। जब मुझे कोई न देखता या किसी लोक-समूह में मेरे होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, तो मैं सह नहीं पाती। मैं स्थान पाने के लिए संघर्ष करना चाहती थी, और इसमें नाकामयाबी मुझे परेशान कर रही थी। मैं हमेशा से इस शैतानी ज़हर में जी रही थी, हमेशा चाहती थी कि लोग मेरी इज़्ज़त करें। ये चीज़ें मुझे बांधने वाली बेड़ियों जैसी थीं, मेरी सोच पर काबू किये हुए थीं, जिसमें परमेश्वर की गवाही वाली फिल्म में होने को मैं खुद के दिखावे के निजी मंच के रूप में देख रही थी। मैं अपने कर्तव्य को अपनी खुद की आकांक्षाओं को संतुष्ट करने का साधन मान रही थी। मेरे दिल में, सबसे आगे कैसे रहूँ, कैसे चमकूँ, की सोच के अलावा कुछ नहीं था। मैंने इस बात पर विचार नहीं किया कि अपने कर्तव्य को कैसे अच्छी तरह निभाऊं या परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करूं। मैंने जाना कि अपने शैतानी ज़हर और स्वभाव से निजात पाये बिना, मेरे लिए न केवल अपने कर्तव्य को ठीक ढंग से निभाना और परमेश्वर को संतुष्ट करना नामुमकिन था, बल्कि अंतत: मैं परमेश्वर द्वारा निकाल दी जाऊंगी, क्योंकि मैंने उसके खिलाफ़ विद्रोह कर उसका विरोध किया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता कि उनमें एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने का सामर्थ्य हो या वे कोई महान उपक्रम संपन्न करें, न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का प्रवर्तन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चहता है कि तुम उसके वचनों को सुनो, और सुन लेने के बाद उन्हें दिल में बसा लो और ज़मीनी तौर पर अभ्यास करते समय उनका पालन करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम्हारी जीवन-शैली और तुम्हारा जीवन बन जाएँ। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। मैंने जान लिया कि परमेश्वर की इच्छा यह है कि हम सत्य का अनुसरण करें और पूरी तरह ईमानदार रहें, उसके शासन और व्यवस्थाओं के अधीन रहें और अपने कर्तव्यों को पूरे दिल से निभायें। इन लक्ष्यों के लिए काम करने पर उसे संतोष मिलेगा। मैंने पहले कभी भी परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा, बस दिल से नाम और रुतबा पाने की कोशिश करती रही। नतीज़ा यह हुआ कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, जिससे परमेश्वर को निराशा हुई। मैं बहुत भ्रष्ट थी, फिर भी उसने मुझे छोड़ नहीं दिया। उसने बार-बार मंच पर मेरे स्थान को आगे-पीछे कर, अनुसरण के मेरे गलत नज़रिये को उजागर किया, ताकि मैं अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को जान सकूं, अपना तौर-तरीका बदल कर परिवर्तित हो सकूं। परमेश्वर के प्रेम ने मुझे वाकई प्रेरित किया। मैंने उससे यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं अब सबसे आगे रहने या इज़्ज़त पाने की कोशिश नहीं करना चाहती। ऐसे प्रयास मुझे सिर्फ दुख देते हैं और अपने कर्तव्य से तुम्हें संतुष्ट नहीं करने देते, जिससे मैं बड़ी अपराधी महसूस करती हूँ। अब से मैं तुम्हारे वचनों के अनुसार ही अभ्यास करना चाहती हूँ। मुझे कोई भी स्थान मिले, मैं खुद को दिखा पाऊँ या नहीं, मुझे बस इतना चाहिए कि मैं समर्पण वाले सच्चे दिल से तुम्हारा स्तुति गान करूं, अपना कर्तव्य निभा कर तुम्हें संतुष्ट करूं।" इसके बाद के हमारे रीटेक में, कभी मुझे पीछे खिसका दिया गया, और कभी आगे, कभी-कभार रिहर्सल में मेरी ज़रूरत पड़ी, फिल्मांकन में नहीं। मैं भावनात्मक रूप से ज़रूर प्रभावित हुई, मगर परमेश्वर से प्रार्थना करके और अपनी मनोदशा को सही करने के लिए उसके वचन पढ़ कर, मैं अपनी आकांक्षाओं को छोड़ पायी। कभी-कभी मैंने देखा कि कुछ बहनें उनका स्थान बदलने से दुखी थीं और वे अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभा रही थीं। उस पल मैं उनकी मदद के लिए परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचनों को ध्यान में लाकर उनको अपने अनुभव से जोड़ पायी। इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से मुझे सुकून मिला और यह बहुत सार्थक था! निर्देशक ने मुझे दोबारा आगे की पंक्ति में स्थान दिया, मगर मैं पहले की तरह दिखावा करने की कोशिश नहीं कर रही थी। मैंने महसूस किया कि मुझे अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए हर दृश्य में गवाही देनी चाहिए। मैंने अच्छा गाने और सही ढंग से अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान दिया। मुझे याद है, एक दृश्य में मैं बिल्कुल पीछे थी, हमने परमेश्वर के वचनों में से यह गाया था : "परमेश्वर का जश्न मनाने के लिए अपनी विजयी-पताका उठाओ! जीत का अपना विजय-गीत गाओ और परमेश्वरका पवित्र नाम फैलाओ!" मैंने सोचा कि मुझे शैतान ने कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर डाला है, नाम और रुतबे की खोज में, मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, मैंने उसे वाकई बहुत तकलीफ दी है। उस दिन मुझे लगा मुझे दिल से परमेश्वर का गुणगान करना चहिए, मेरा सर्वोत्तम आराधना-गीत उसे पेश करना चाहिए, ताकि शैतान शर्मिंदा हो और परास्त हो जाये! जब मैं मंच पर ऐसे मनोभाव के साथ परमेश्वर की स्तुति कर रही थी, तब मुझे ऐसी शांति और आनंद का अनुभव हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ। मैंने गर्व और न्याय की तीव्र भावना का भी अनुभव किया!
जल्दी ही एक बड़े पैमाने पर आयोजित समवेत भजन कार्यक्रम, राज्य गान ऑनलाइन हो गया। हम सभी भाई-बहनों ने उत्साह से यह वीडियो देखा। ओलिव पर्वत के सामने परमेश्वर के चुने हुए इतने सारे लोगों को गर्व से गाते देख कर, "लोग परमेश्वर की जय-जयकार करते हैं, लोग परमेश्वर की स्तुति करते हैं" मैं वाकई हिल गयी और इतनी भावुक हो गयी कि आभार के आंसू बहाये बिना नहीं रह सकी। पहले जो कुछ हुआ था उसके बारे में सोच कर, अपने स्थान से बेहद विचलित होकर कर्तव्य में दिल न लगा पाने से लेकर, अंतत: मेरा स्थान आगे हो या पीछे, इसकी परवाह किये बिना, नाम और रुतबे से बिल्कुल भी प्रभावित हुए बिना, एक सृजित प्राणी का स्थान लेकर, उन्मुक्त होकर गाने और परमेश्वर की गवाही देने तक, यह सब मुझमें परमेश्वर के कार्य का फल था। परमेश्वर का धन्यवाद!