30. रुतबे को छोड़ना आसान नहीं था

ली झेंग, चीन

मेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। बचपन में ही मेरे माता-पिता चल बसे, तो मेरे बड़े भाई और मुझे ही एक-दूसरे का सहारा बनाना पड़ा। हम बहुत गरीब थे और लोग हमें नीची नज़र से देखते थे। मैं सोचा करता : "मैं स्कूल जाऊंगा, और एक दिन सबसे श्रेष्ठ बनूंगा।" दुर्भाग्य से मुझे हाई स्कूल के अपने दूसरे ही साल में स्कूल छोड़ना पड़ा, क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं थे। सबसे श्रेष्ठ होने का मेरा सपना चूर हो गया, मैं पूरी तरह से टूट गया।

1990 में, प्रभु यीशु में मेरी आस्था बनी। प्रचारक ने कहा कि प्रभु में विश्वास रखने से हमें जीवन में न सिर्फ सुकून मिलेगा, बल्कि आगे की पूरी ज़िंदगी बहुत अच्छी गुज़रेगी। उन्होंने यह भी कहा कि हम सुसमाचार को फैला कर जितने ज़्यादा लोगों का धर्मांतरण करेंगे, उतने ही धन्य होंगे, हमें पुरस्कार और ताज मिलेगा, और हम परमेश्वर के साथ-साथ राजा की तरह राज करेंगे। करीब-करीब उसी समय मैंने बाइबल में ये वचन पढ़े : "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इसलिए मैंने अपना परिवार छोड़कर परमेश्वर के लिए सुसमाचार को फैलाने का फैसला किया। उन दिनों मुझमें गज़ब का जोश था, एक साल ख़त्म होने से पहले ही मैंने कई सौ लोगों का धर्मांतरण कर दिया। धर्मांतरित लोगों की संख्या बढ़ी, तो 1997 तक हमने 30,000 से भी ज़्यादा लोगों के साथ सैकड़ों कलीसियाओं की स्थापना कर दी। कलीसियाओं के मामले में मेरा ही फैसला अंतिम होता, और मैं चाहे किसी भी कलीसिया में काम करने जाता, वहां भाई-बहन आदर से मेरा अभिवादन करते और मैं जहां भी जाना चाहता अपनी गाड़ी में ले जाया करते। वे मेरे रहने के लिए बढ़िया जगह और लज़ीज़ खाने का इंतज़ाम करते, और मेरी यात्राओं का खर्च भी उठाते। मुझे इन चीज़ों में मज़ा आने लगा।

एक दिन, उच्च श्रेणी की एक अगुआ ने हमें एक सभा में भेजा और कहा कि अब चमकती पूर्वी बिजली नामक एक संप्रदाय प्रचार कर रहा है कि प्रभु यीशु सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में वापस आ चुका है, और यह भी बताया कि उनके धर्मोपदेश बहुत ऊंचे हैं। उन्होंने कहा कि कलीसिया की सभाओं के बहुत-से अच्छे सदस्यों को उन्होंने चुरा लिया है, हमारी कलीसिया के भी दो सहकर्मियों, भाई वांग और भाई वू ने चमकती पूर्वी बिजली को अपना लिया है। अगुआ ने हमें इन दोनों भाइयों को पूरी तरह से ठुकरा देने को कहा, यह भी कहा कि अगर हम किसी और को भी चमकती पूर्वी बिजली के धर्मोपदेशों को सुनते हुए पायें तो उसे तुरंत निष्कासित कर दें। यह सब सुनकर मैं चकरा गया। मैं इन दोनों भाइयों को बहुत अच्छी तरह से जानता था; वे बाइबल के अच्छे जानकार थे और ईमानदारी से प्रभु में विश्वास रखते थे। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाया कि उन्होंने चमकती पूर्वी बिजली को कैसे स्वीकार कर लिया। जब साल ख़त्म होने को आया, तो ये दोनों भाई एक दिन अचानक मेरे घर आ गये। उनके लिए दरवाज़ा खोलने से पहले मैं बहुत देर तक हिचकता रहा, इस डर से कि वे मुझे धोखा देने आये होंगे। मगर फिर मैंने सोचा, "कुछ भी हो, मैं प्रभु में विश्वास रखता हूँ, इन दो भाइयों को मैं अपने दरवाज़े से लौटा नहीं सकता।" इसलिए मैंने स्वागत करते हुए उन्हें अंदर बुलाया। उन्होंने कहा कि प्रभु का स्वागत करने के लिए मुझे परमेश्वर की वाणी को पहचानने पर ध्यान देना होगा, गुमराह किये जाने के डर से मुझे सच्चे मार्ग को खोजने या उसकी जांच-पड़ताल करने से इनकार नहीं करना चाहिए। फिर उन्होंने परमेश्वर की वाणी पहचानने वाली बुद्धिमान कुँवारी बनने के तरीके के बारे में, और सच्चे मार्ग और झूठे मार्गों के बीच अंतर समझने के बारे में विस्तार से संगति की। मुझे लगा कि उन्होंने जो कुछ भी कहा वह नयी स्फूर्ति देनेवाला और प्रबुद्ध करने वाला है। मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गया। जाते समय, उन्होंने मुझे यह कह कर एक किताब दी कि उसमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन हैं, उन्होंने मुझसे इसे पढ़ने और प्रभु के स्वागत का मौक़ा न गँवाने का निवेदन किया। उनके जाने के बाद मुझे फ़िक्र होने लगी कि मुझे गुमराह किया जा रहा है, अगर उच्च श्रेणी की अगुआ को पता चल गया कि मैंने इन भाइयों का अपने घर में स्वागत किया है, तो मुझे कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाएगा। मगर फिर मैंने सोचा, "अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर सच में वापस आया हुआ प्रभु यीशु है और मैं निष्कासित होने के डर से उस पर गौर न करूं, तो क्या इससे मैं वैसा इंसान नहीं बन जाऊंगा जो परमेश्वर को ठुकराता और उसका प्रतिरोध करता है?" यह ख़याल आते ही मैंने उसी पल सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य पर गौर करने का फैसला कर लिया।

फिर मैंने हर दिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़े। इसी बीच दोनों भाइयों ने मेरे साथ यह संगति की कि इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर के तीन चरण कौन-से हैं, परमेश्वर के देहधारण का रहस्य क्या है, परमेश्वर इंसान को शुद्ध कर उसे बचाने के लिए अंत के दिनों में अपना न्याय-कार्य कैसे करता है, परमेश्वर युगों को कैसे समाप्त करता है, पृथ्वी पर मसीह का राज्य कैसे साकार होता है, और बहुत कुछ। प्रभु में विश्वास रखने के अपने इतने वर्षों में मैंने ऐसी संगति पहले कभी नहीं सुनी थी, मैंने जितना ज़्यादा सुना, मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन उतने ही ज़्यादा आधिकारिक और सामर्थ्यवान लगे। मुझे और अधिक लगने लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वाकई वापस आया हुआ प्रभु यीशु हो सकता है, मुझे इसकी जांच-पड़ताल करनी चाहिए। लेकिन मेरे मन में हमेशा दुविधा बनी रही। पादरी और एल्डर वर्षों से चमकती पूर्वी बिजली की निंदा करते रहे हैं, मैंने भी उनके साथ होकर कलीसिया को यथासंभव सीलबंद कर दिया, चमकती पूर्वी बिजली के साथ किसी को भी संपर्क में नहीं आने दिया, और उनके मार्ग को स्वीकार करने वाले किसी भी व्यक्ति को निष्कासित कर दिया। अगर मैंने चमकती पूर्वी बिजली को स्वीकार कर लिया, तो कलीसिया में मेरे नीचे के वे 30,000 से ज़्यादा लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? अगर वे सब भी मेरे पीछे आकर चमकती पूर्वी बिजली को स्वीकार कर लें, तो बहुत अच्छा हो जाएगा, लेकिन अगर वे नहीं आये, तो यकीनन वे मुझे ठुकरा देंगे। मैंने सोचा कि मैं किस तरह मौसम की परवाह किये बिना दिन-रात प्रचार और काम करता रहा, और सीसीपी द्वारा पकड़े जाने का खतरा मोल लेकर, अपने खून-पसीने और आंसुओं से इन तमाम कलीसियाओं को स्थापित करता रहा। यहाँ तक पहुँचने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी तब जाकर मुझे इतने अधिक लोगों का सम्मान मिला—यह सब मैं इतनी आसानी से कैसे छोड़ दूं? इसके अलावा, भले ही कलीसिया में मेरे नीचे के सभी लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर लें, क्या मैं तब भी उनका अगुआ बना रह सकूंगा? लेकिन फिर मैंने सोचा, "अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर सच में वापस आया हुआ प्रभु यीशु है, और मैं उसे स्वीकार न करूँ, तो क्या मैं प्रभु का स्वागत करने का अपना मौक़ा गँवा नहीं दूंगा?" मैंने इस बारे में बार-बार सोचा, मगर फैसला नहीं कर पाया कि क्या करूँ। तभी मेरी पत्नी ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद जोश में तेज़ी से आकर कहा, "मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुने हैं, मुझे विश्वास है कि ये परमेश्वर की वाणी हैं। अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर सच में वापस आया हुआ प्रभु यीशु है, तो हमें उस पर गौर करना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके उसे स्वीकार कर लेना चाहिए!" मैंने झुंझला कर जवाब दिया, "मुझे पता है, मगर यह इतना सरल नहीं है। अगुआओं और सहकर्मियों ने हमारी कलीसिया को सीलबंद कर दिया है, ताकि किसी को भी चमकती पूर्वी बिजली की जांच-पड़ताल न करने दी जाए। अगर मैं उनके मार्ग को स्वीकार लूं, तो ये लोग यकीनन मुझे ठुकरा देंगे।" लेकिन इस बात से परेशान होकर मेरी पत्नी ने झुंझला कर कहा, "हम इतने वर्षों से प्रभु में किसलिए विश्वास रखते रहे हैं? क्या हम प्रभु के आने का इंतज़ार नहीं कर रहे हैं, ताकि हम स्वर्ग के राज्य में आरोहित हो सकें? अब प्रभु वापस आ गया है, आप अगुआ न भी हों, तो भी आपको परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर प्रभु का स्वागत करना होगा!" मैंने कहा कि मैं उससे सहमत हूँ, मगर मन-ही-मन मैं सोच रहा था, "तुम्हारा दिमाग एक महिला का सरल दिमाग है। मुझे 30,000 से भी ज़्यादा लोगों के बारे में सोचना होगा। मुझे सावधानी से आगे बढ़ना होगा। मुझे इस बारे में थोड़ा और सोचना होगा।" कई माह गुज़र गये, मैंने चमकती पूर्वी बिजली को स्वीकार नहीं किया। इस दौरान, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के भाई-बहन अक्सर मुझसे मिलने आते रहे। उन्होंने बड़े सब्र से मेरे साथ संगति की, और मुझे मन ही मन साफ़ तौर पर महसूस होने लगा कि यह वाकई परमेश्वर का कार्य है, मगर अपना पद न छोड़ सकने के कारण मैं उसे स्वीकार करने से बचता रहा। थोड़े समय बाद, भाई-बहनों को मेरा हाल समझ आ गया। एक बार जब मैं भाई बाय और भाई सॉन्ग के साथ सभा में था, तब भाई सॉन्ग ने मुझे अपने अनुभव सुनाये। उन्होंने कहा कि वे भी पहले एक कलीसिया में अगुआ थे, दर्जन भर से भी ज़्यादा कलीसियाओं के प्रभारी थे। फिर जब किसी ने उन्हें सुसमाचार और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ कर सुनाए तो उन्हें यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है। लेकिन जब उसे वास्तव में स्वीकार करने का समय आया, तो उनका मन डोलने लगा, "अगर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर लिया, तो क्या फिर भी मैं अगुआ बना रहूँगा? क्या मैं तब भी इतने सारे लोगों की अगुआई कर पाऊंगा?" फिर उन्होंने प्रभु यीशु की दुष्ट किसानों वाली नीतिकथा को याद किया जो मत्ती अध्याय 21, पद 33 से 41 में दी गयी है : "'एक गृहस्वामी था, जिसने दाख की बारी लगाई, उसके चारों ओर बाड़ा बाँधा, उसमें रस का कुंड खोदा और गुम्मट बनाया, और किसानों को उसका ठेका देकर परदेश चला गया। जब फल का समय निकट आया, तो उसने अपने दासों को उसका फल लेने के लिये किसानों के पास भेजा। पर किसानों ने उसके दासों को पकड़ के, किसी को पीटा, और किसी को मार डाला, और किसी पर पथराव किया। फिर उसने पहलों से अधिक और दासों को भेजा, और उन्होंने उनसे भी वैसा ही किया। अन्त में उसने अपने पुत्र को उनके पास यह सोच कर भेजा कि वे मेरे पुत्र का आदर करेंगे। परन्तु किसानों ने पुत्र को देखकर आपस में कहा, "यह तो वारिस है, आओ, इसे मार डालें और इसकी मीरास ले लें।" अत: उन्होंने उसे पकड़ा और दाख की बारी से बाहर निकालकर मार डाला। इसलिये जब दाख की बारी का स्वामी आएगा, तो उन किसानों के साथ क्या करेगा?' उन्होंने उससे कहा, 'वह उन बुरे लोगों को बुरी रीति से नष्‍ट करेगा; और दाख की बारी का ठेका दूसरे किसानों को देगा, जो समय पर उसे फल दिया करेंगे।'" भाई सॉन्ग ने बताया कि कैसे उन्हें ज़बरदस्त आत्म-ग्लानि का एहसास हुआ। प्रभु ने अपने झुंड को उनके सुपुर्द किया था और अब जबकि प्रभु लौट आया है, तो प्रभु का स्वागत करने के लिए भाई-बहनों की अगुआई करने के बजाय वे प्रभु के झुंड को हड़प कर प्रभु को ठुकराने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे उन दुष्ट किसानों जैसे ही पेश आ रहे थे, वे एक दुष्ट सेवक थे जो प्रभु का प्रतिरोध कर रहे थे। उन्होंने खुद से पूछा, "क्या मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ कि अगुआ बन सकूं? क्या मैं यह काम रुतबे और आजीविका के लिए करता हूँ? क्या मैं सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ?" ये विचार मन में आते ही उन्हें बहुत पछतावा हुआ, इसलिए उन्होंने परमेश्वर के सामने पाप स्वीकार कर प्रायश्चित किया, और फिर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर लिया। फिर उन्होंने अपने मातहत सभी भाई-बहनों तक सुसमाचार को फैलाया। जब मैंने उनकी यह संगति सुनी, तो मैं बहुत शर्मिंदा हुआ और बेचैन हो गया। यह जानकर भी कि यह वास्तव में परमेश्वर का कार्य है, अपने रुतबे की रक्षा करने के लिए, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में आनाकानी की। मैं भाई-बहनों को भी इस पर गौर नहीं करने दे रहा था; मैं परमेश्वर की भेड़ों को उसके सुपुर्द करने से इनकार कर रहा था। मैं एक दुष्ट सेवक था, मैं शापित और दंडित होने लायक था! लेकिन जब मैंने सोचा कि मैंने कलीसिया को कितनी सख्ती से सीलबंद कर दिया, और किस तरह मेरी कलीसिया से किसी ने भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार नहीं किया, तब मुझे लगा, "अगर मैं इसे स्वीकार कर लूंगा, तो क्या मैं अपनी ही टांग पर कुल्हाड़ी नहीं मार लूंगा? क्या मैं कहीं मुंह दिखाने लायक रह पाऊंगा? अगर मेरी कलीसिया के लोग जान गये कि मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया है, तो यकीनन वे मुझसे नफ़रत कर मुझे ठुकरा देंगे, फिर मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा।" इसलिए मैंने फैसला किया कि उसे स्वीकार न करना ही सबसे अच्छा है।

कुछ दिन बाद, उन दोनों भाइयों के साथ एक अन्य सभा में, मैंने उनसे अपनी चिंताओं का ज़िक्र किया। उन दिनों मैं बहुत कपटी था, मैंने घुमा-फिरा कर उनसे पूछा, "मैं जिन लोगों की अगुआई करता हूँ, अगर वे भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने लगें, तब उनकी अगुआई कौन करेगा? क्या आज के अगुआ और सहकर्मी ही उस समय भी बने रहेंगे?" दरअसल मेरा कहने का मतलब था : "तब भी मुझे ही उनकी अगुआई और उनका प्रबंधन करना होगा।" लेकिन भाई बाय ने यह कह कर मुझे चौंका दिया, "जब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लेते हैं, तब खुद परमेश्वर ही हमारी अगुआई करता है, सिंचन करता है और हमें रास्ता दिखाता है। हमारी कलीसिया में मसीह और सत्य का बोलबाला है। कलीसिया के अगुआओं का चुनाव होता है, इसलिए जिसे सत्य की समझ होती है, जिसमें वास्तविकता होती है, जो भाई-बहनों का सिंचन कर सकता है और उनकी व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा सकता है, वही चुन लिया जाता है।" उन्होंने आगे कहा, "अगर आप सत्य का अनुसरण करेंगे, तो आप भी अगुआ के रूप में चुने जा सकेंगे। कलीसिया में कई तरह के काम होते हैं : अगुआ, सुसमाचार प्रचारक—हर किसी का अपना कार्य होता है। काम के मामले में, 'महत्वपूर्ण' और 'मामूली', या 'ऊंचा' और 'निचला' दर्जा जैसा कोई फ़र्क नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर के सामने सब लोग बराबर होते हैं, जो धार्मिक संप्रदायों से बिल्कुल अलग पद्धति है।" मैंने भाई बाय को जितना सुना, उतना ही उदास महसूस किया, आखिरकार मेरा चेहरा उतर गया। मैंने सोचा, "मुझे नहीं लगता कि इसके बाद मैं फिर कभी इतने सारे लोगों का अगुआ बन पाऊँगा।"

भाई सॉन्ग ने मेरी हालत को भांप लिया, उन्होंने नीनवे के राजा के अनुभव के बारे में संगति की। वे बोले, "नीनवे का राजा एक राष्ट्र का शासक था। जब उसने योना को परमेश्वर के इन वचनों का प्रचार करते देखा कि नीनवे नष्ट होने वाला है, तो उसने अपना सिंहासन छोड़ दिया, उसने टाट पहन कर, राख मल कर पूरे शहर की अगुआई की और सबने अपने घुटनों के बल बैठ कर परमेश्वर के सामने पापों को स्वीकार कर प्रायश्चित किया। परमेश्वर को उन सब पर दया आ गयी, और शहर नष्ट होने से बच गया।" उन्होंने आगे कहा, "आज जब प्रभु के आगमन जैसी महान घटना से आपका सामना हो रहा है, तो क्या आपको कलीसिया के अगुआ के रूप में, नीनवे के राजा के कदमों पर चलकर, परमेश्वर के सामने पापों को स्वीकार करने और प्रायश्चित करने में भाई-बहनों की अगुआई नहीं करनी चाहिए?" उनकी बात मेरे दिल को छू गयी। उन्होंने सही कहा; नीनवे के राजा एक राष्ट्र के शासक थे। जब एक ऊंचे पद का कोई इंसान विनम्र होकर परमेश्वर के सामने पाप स्वीकार कर प्रायश्चित कर सकता है, तो फिर मैं अपना रुतबा छोड़ कर परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार क्यों नहीं कर सकता? भाई सॉन्ग ने फिर आगे कहा, "जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया, तब फरीसी अपने पद और आजीविका को बचाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने विश्वासियों को अपने काबू में करके प्रभु यीशु का प्रतिरोध कर उनकी निंदा करने की भरसक कोशिश की। प्रभु यीशु ने उन्हें यह कहकर फटकार लगायी, 'हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो' (मत्ती 23:13)।" फिर भाई बाय ने मुझसे कहा, "परमेश्वर का सत्य व्यक्त करना और अंत के दिनों में न्याय-कार्य करना, स्वर्ग के राज्य के आगमन का सुसमाचार है। शुरुआत में, आपने बताये गये झूठ पर यकीन किया और धार्मिक अगुआओं की बात मान कर कलीसिया को सीलबंद किया, भाई-बहनों को परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने से रोका। ऐसा करके आपने परमेश्वर की अवज्ञा की। अब आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि वही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है। अगर आप अब भी ज़िद पकड़ कर परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने से इनकार करते रहेंगे, भाई-बहनों को प्रभु के वापस आने का समाचार नहीं बतायेंगे, उन्हें स्वर्ग के राज्य से बाहर रखेंगे, तब आप जान-बूझ कर गलत काम करेंगे, एक और गलती करेंगे।" उन्होंने कहा, "यह परमेश्वर के विरुद्ध बहुत बड़ी दुष्टता होगी! अगर हमारे रोकने की वजह से भाई-बहन उद्धार का अपना मौक़ा गँवा दें, तो यह रक्त-ऋण होगा! बार-बार मर कर भी हम इस ऋण को चुका नहीं पायेंगे। लेकिन, अगर आप भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने ले जाएंगे, तो न सिर्फ वे आपसे नफ़रत नहीं करेंगे, बल्कि आपका धन्यवाद करेंगे कि आपने उनके साथ स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार और शाश्वत जीवन का मार्ग साझा किया है।"

भाई बाय ने फिर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़ कर सुनाये। "परमेश्वर जब देहधारण कर इंसानों के बीच काम करने आता है, तो सभी उसे देखते और उसके वचनों को सुनते हैं, और सभी लोग उन कर्मों को देखते हैं जो परमेश्वर देह रूप में करता है। उस क्षण, इंसान की तमाम धारणाएँ साबुन के झाग बन जाती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को देहधारण करते हुए देखा है, यदि वे अपनी इच्छा से उसका आज्ञापालन करेंगे, तो उनका तिरस्कार नहीं किया जाएगा, जबकि जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले माने जाएँगे। ऐसे लोग मसीह-विरोधी और शत्रु हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं)। "ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें विचलित करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे 'मज़बूत देह' वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं)। उन्होंने जब ये वचन पढ़ डाले, तब मैंने बड़ी बेचैनी महसूस की। मुझे लगा जैसे मेरे चेहरे पर जोर का थप्पड़ जड़ दिया गया हो, और मेरा चेहरा सुर्ख लाल हो गया। मेरी इच्छा हुई कि ज़मीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं। मैं अच्छी तरह जानता था कि प्रभु यीशु लौट आया है, वह सत्य व्यक्त कर रहा है और इंसान के न्याय और शुद्धिकरण का कार्य कर रहा है। लेकिन अपने पद और आजीविका को सुरक्षित रखने के लिए, मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, कलीसिया को सीलबंद कर दिया था, ताकि परमेश्वर की भेड़ें उसकी वाणी को सुन कर उसकी तरफ न मुड़ पायें। इतने साल पहले प्रभु यीशु का प्रतिरोध करने वाले फरीसियों से मैं किस तरह अलग था? प्रभु हमारा चरवाहा है, अपनी भेड़ों को अपने पास बुलाने के लिए अब वह लौट आया है; मुझे परमेश्वर की भेड़ें उसके सुपुर्द करनी होंगी। मैं अब भी अपने पद को बचाने की कोशिश कैसे कर सकता हूँ? क्या मैं परमेश्वर से दंड पाने तक का इंतज़ार करूँ? मैंने फैसला कर लिया कि अब मैं परमेश्वर की अवज्ञा नहीं कर सकता। भले ही मैं अगुआ न रहूँ और सब लोग मुझे ठुकरा दें, फिर भी मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करना होगा, परमेश्वर के सामने भाई-बहनों की अगुआई करनी होगी और परमेश्वर के झुंड को उसे लौटाना होगा। मन में यह विचार आते ही मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने, और जिनकी अगुआई कर रहा हूँ उन्हें सुसमाचार सुनाने का मन बना लिया।

कुछ समय बाद, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से, मेरी कलीसिया के 10,000 से भी ज़्यादा लोगों ने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। परमेश्वर का धन्यवाद, आखिरकार मैंने परमेश्वर के सामने उसके झुंड की अगुआई की, मुझे बड़ा आराम और सुकून महसूस हुआ।

छह महीने बाद, एक बड़े इलाके के ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग कलीसिया में शामिल हो गये, इस वजह से कलीसियाओं का क्षेत्रवार विभाजन और अगुआओं और कर्मियों का चुनाव करना पड़ा। फिर भी मैं बड़ा अहंकारी था, सोचता था कि "आप कलीसियाओं का चाहे जैसे विभाजन करें, अपनी कार्य क्षमताओं और अनुभव के कारण अगुआ तो मैं ही बनूँगा। मैं अनेक कलीसियाओं का प्रबंधन कर सकता हूँ, कोई समस्या नहीं।" मगर, कुछ दिन बाद, जब मैं दो भाइयों के साथ एक सभा में था, तब एक कलीसिया के अगुआ ने आकर कहा, "अब राज्य के सुसमाचार को फैलाने का समय आ गया है। हमें दूसरे इलाकों में सुसमाचार को फैलाने के लिए, बाइबल को अच्छी तरह से जाननेवाले, अच्छी काबिलियत वाले भाई-बहनों की ज़रूरत है। यह बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। क्या आप तीनों जाने को तैयार हैं?" दो भाइयों ने खुशी से कहा कि वे तैयार हैं, लेकिन इस बात से मैं ज़्यादा खुश नहीं था, सोच रहा था, "अपने पुराने संप्रदाय में मैंने वर्षों तक कलीसियाओं की अगुआई की, हज़ारों लोगों का प्रबंधन किया। अब मैं फिर से सुसमाचार का प्रचार करूं, जबकि मेरे नीचे के कुछ सहकर्मी अगुआ बन चुके हैं। मैं आगे कभी भी अपना मुंह कैसे दिखा पाऊंगा? बड़े अपमान की बात है!" मैंने अगुआ के रूप में सेवा के अपने तमाम वर्षों को याद किया, मैं जहां कहीं जाता, बड़ा सम्मान मिलता और मुझे पूजा जाता, मुझे वो हर चीज़ मिल जाती जो मैं चाहता। अब मेरे पास कुछ भी नहीं, मुझे फिर से सुसमाचार का प्रचार करने की मुश्किलों से गुज़रना था। मैं यह बात बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। लेकिन दूसरों के सामने इनकार करना बहुत शर्मिंदगी की बात होती, इसलिए मैं बेमन से राज़ी हो गया। मैंने मन-ही-मन सोचा, "मुझे सुसमाचार का अच्छी तरह से प्रचार करना है। अगर मैं बहुत-से लोगों का धर्मांतरण करा सका, तो भाई-बहन अब भी मुझे आदर से देखेंगे।" फिर जब मैंने यह किया, तो सुसमाचार का प्रचार करने का कार्य बखूबी निभाया। जल्दी ही, 400 से ज़्यादा लोगों ने परमेश्वर के नये कार्य को स्वीकार कर लिया। उस वक्त मुझे लगा कि मैं कहीं भी जाऊं, भाई-बहन जोश से मेरा अभिवादन करते हैं और मुझे आदर से देखते हैं। मैं फिर एक बार अपने पद से मिलनेवाले आनंद में जीने लगा, सुसमाचार को फैलाने का मेरा जोश बढ़ता ही गया।

अगस्त 2000 में, मैं सुसमाचार को फैलाने के लिए भाई लियू के साथ शहर से बाहर गया। भाई लियू मुझसे ज़्यादा समय से सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विश्वासी थे और वे सत्य के बारे में स्पष्ट रूप से संगति करते थे। मैं भी यह सोचकर खुश था कि कितनी बढ़िया बात है कि मैं उनकी काबिलियत से सीख कर अपनी खामियों को दूर कर सकता हूँ। एक बार हम दोनों एक धार्मिक समुदाय के लोगों के एक समूह को सुसमाचार का उपदेश देने के लिए गये। वे लोग अपनी कुछ धार्मिक धारणाओं से चिपके हुए थे, और मैं उनके साथ संगति करना चाहता था। लेकिन सत्य के बारे में मेरी समझ बहुत कम होने के कारण, आतुर होने के बावजूद, मैं मदद नहीं कर पा रहा था। अंत में, भाई लियू ने उनकी धारणाओं को काटने के लिए, तथ्यों के साथ वाजिब ढंग से शांति से संगति की। हम जिन लोगों के साथ संगति कर रहे थे, पहले तो वे नहीं माने, लेकिन थोड़ा सुनने के बाद उन्हें यकीन हो गया कि भाई लियू की बातें सच हैं, और आखिर वे सहमति में सिर हिलाने लगे। इस दृश्य को देखकर मेरे मन में भाई लियू के प्रति ईर्ष्या और प्रशंसा दोनों ही भाव पैदा हो गये। मैंने सोचा : "भाई लियू बड़े साफ़ तौर पर संगति करते हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो मेरी एकमात्र भूमिका उन्हें अच्छा दिखाने की रह जाएगी, और दूसरे लोग कहेंगे कि वे मुझसे बेहतर हैं। यह नहीं चलने वाला! मुझे सत्य को समझ कर भाई लियू को पीछे छोड़ना होगा।" घर लौटने के बाद, सुबह से शाम तक मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने लगा, सुसमाचार को फैलाने के सत्य से खुद को तैयार करने लगा। मैं भोजन के समय भी सोचता रहता कि भाई लियू कैसे संगति करते हैं, ताकि मैं जान सकूँ कि अगली बार सुसमाचार सुनने वाले लोगों के साथ संगति कैसे करनी है, ताकि कम-से-कम मैं भाई लियू जितना अच्छा तो लगूं।

मगर मुझे हैरानी हुई, जब अगली बार हम इन लोगों के सामने सुसमाचार का प्रचार करने गये, तो उन्होंने कुछ नये सवाल उठाये और मैं फिर से स्पष्ट संगति नहीं कर पाया। यह देखकर कि वे मेरी बात सच में समझ नहीं रहे हैं, मैंने बहुत शर्मिंदा महसूस किया। उस पल, भाई लियू ने जल्दी से कमान संभाल ली। उन लोगों ने उनकी बातें ध्यान से सुनीं, वे बार-बार हामी भरते रहे, अंत में उन्होंने सारी बातें अच्छी तरह से समझ लीं। मगर मेरी कामयाबी बस खुद को शर्मिंदा करने तक ही सीमित थी, मेरी इच्छा हुई कि ज़मीन फट जाए और मैं उसमें पूरा समा जाऊं। मैंने सोचा : "मैं भाई लियू के साथ आया, लेकिन स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाया, मैं किसी काम का नहीं हूँ। उनके सवालों का समाधान करने के लिए उन्हें भाई लियू की ही ज़रूरत पड़ी। कितने अपमान की बात है!" मुझे याद है कि थोड़ी प्रतिष्ठा वापस पाने के लिए मैंने भाई लियू की संगति में छोटे-से अंतराल का फ़ायदा उठाकर कुछ बातें कह डालीं। एक दिन बाद, उन सबने सुसमाचार को स्वीकार कर लिया। इससे मैं बहुत खुश हुआ, मगर अंदर से मैं थोड़ा निराश भी था। मुझे लगा कि उन्होंने सुसमाचार को मेरी वजह से स्वीकार नहीं किया, मैंने कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था। साथ भोजन करने के बाद उन नये लोगों ने हमसे अपने अनुभवों के बारे में बताने को कहा। मैंने सोचा : "आम तौर पर भाई लियू छा जाते हैं, मगर इस बार मुझे अपने अनुभवों के बारे में बोलने का मौक़ा लेना होगा, ताकि वे ये न सोचें कि मैं किसी काम का नहीं।" इसलिए मैं अपने कामकाज और मैंने जो मुसीबतें झेलीं थीं, उनके बारे में बोलता गया कि किस तरह मैंने परमेश्वर के पास वापस आने में 10,000 से भी ज़्यादा लोगों की अगुआई की। मैंने वाकई बहुत शेखी बघारी। कुछ भाई-बहन चकित हो गये, कुछ ने मुझे प्रशंसा से देखा और कुछ लोगों ने ध्यान से सुना। मुझे बहुत खुशी हुई। मैं सीधा खड़ा होकर आत्मविश्वास के साथ बोला।

उस दिन घर पहुँचने पर मैंने सोचा, "सुसमाचार को फैलाने के मामले में मुझमें सत्य की बहुत कमी है। क्या मुझे इस बारे में भाई लियू से बात करनी चाहिए?" फिर मैंने सोचा, "अगर मैं इस बारे में भाई लियू से बात करूंगा, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि वे मुझसे बेहतर हैं? जाने दो, मैं गोपनीय ढंग से सत्य का ज्ञान जुटाता रहूँगा। मैं उनसे नहीं पूछूंगा।" बाद में, जब हम दोनों फिर से सुसमाचार का प्रचार करने गये, तो भाई-बहनों ने भाई लियू का बड़ी गर्मजोशी से अभिनंदन किया। वे उनके इर्द-गिर्द जमा हो गये, उनसे नाना प्रकार की बातें पूछने लगे। इससे मैं वाकई परेशान हो गया, मैं सिर झुका कर एक ओर खड़ा रहा, सोचता रहा, "मेरे यहाँ रहने की क्या तुक है जब भाई लियू इतनी बढ़िया संगति करते हैं? क्या मैं दूसरों की नज़रों में स्टेपनी जैसा नहीं हूँ? वे ही हमेशा छा जाते हैं, ऐसा ही चलता रहा, तो मेरे बारे में कोई भी ऊंची राय नहीं रखेगा।" मेरे मन में अचानक एक विद्रोही विचार कौंधा कि अब मैं भाई लियू के साथ अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। मन में यह विचार आने के बाद, जब कभी भाई लियू और मैं सुसमाचार का प्रचार करने जाने को होते, मैं यह कहकर बहाने ढूँढ़ने लगता कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं घर पर ही रहना चाहता हूँ। कभी-कभार उनके साथ जाने के बावजूद मैं संगति नहीं करता, किसी के मुझसे सवाल पूछने पर ही मैं थोड़े-से शब्दों में अनमने ढंग से संगति कर देता। दरअसल मैं उनके साथ काम करना ही नहीं चाहता था। फिर भी हम दो महीने साथ काम करते रहे, मैं लगातार शोहरत की होड़ लगाये रहता, अपने निजी हितों के लिए संघर्ष करता रहता। मेरी हालत ज़्यादा से ज़्यादा अंधेरी, बद से बदतर होती गयी, फिर भी मेरे मन में कभी पछतावा नहीं आया। यही समय था जब परमेश्वर ने मुझे ताड़ना दी और अनुशासित किया।

एक दिन, मुझे सुसमाचार को फैलाने के लिए उत्तर-पूर्व चीन जाने को कहा गया। यह सुनकर मैं खुशी से फूला नहीं समाया, मैंने सोचा, "आखिर, मुझे भाई लियू के साथ काम नहीं करना पड़ेगा। यह मेरा समय है चमकने का, जब मैं सुसमाचार का प्रचार करके लोगों को धर्मांतरित करूँगा, तो इसका पूरा श्रेय सिर्फ मुझे ही मिलेगा। भाई-बहन यकीनन मुझे आदर से देखेंगे।" जिस बात का मुझे अंदाजा नहीं था, वह यह थी कि वहां पहुँचने के बाद, जब पुलिस को मैं अपना पहचान पत्र नहीं दिखा पाया, तो उन्होंने मुझे कोई फरार हत्यारा मानकर गिरफ्तार कर लिया। बहुत समझाने पर भी उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी, तीन दिन और तीन रात तक मुझे यातना दी। मुझे कुछ खाने को या सोने नहीं दिया गया, एक घूँट पानी तक पीने नहीं दिया। उन्होंने मुझे इतना पीटा कि मेरे मुंह और नाक से खून बहने लगा, मेरी आँखें इतनी सूज गयीं कि मैं उन्हें खोल नहीं पाया। मुझे पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया। मुझे याद है मैं कई बार बेहोश हुआ; मौत आ जाती तो थोड़ी राहत मिली होती। मैंने दिल में बेहद निराशा महसूस की, इन बेहद दुष्ट दानवों से मुझे नफ़रत हो गयी। उन्होंने विस्तार से जांच-पड़ताल नहीं की, उनके पास कोई सबूत नहीं था, फिर भी उन्होंने क्रूरता से मुझसे पूछताछ की। उस वक्त, मैं बस परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा, मुझे बचाने और रास्ता दिखाने के लिए गिड़गिड़ाता रहा। मैं समझ गया कि मेरे साथ यह सब परमेश्वर की इच्छा से हो रहा है, मुझे सत्य की खोज करनी होगी और जो घट रहा है उससे सबक सीखना होगा। फिर मैंने आत्मचिंतन शुरू किया : "मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?" तभी परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे याद आया : "जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसके साथ निपटा जाएगा और उसे उतने ही बड़े शुद्धिकरण से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनके साथ अच्छी तरह से निपटने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मुझे एहसास हुआ कि रुतबे की मेरी आकांक्षा कितनी बड़ी है। मैंने उस समय को याद किया जो मैंने भाई लियू के साथ सुसमाचार के प्रचार में बिताया था। जब मैं उन्हें अच्छी संगति करते और सबको उन्हें प्रशंसा से निहारते हुए देखता, तो मैं ईर्ष्या करने लगता और उनसे होड़ लगाना चाहता, यह देखने के लिए कि कौन बेहतर है। मैंने नये लोगों के सामने खुद को उन्नत करने और दिखावा करने के लिए अपने अनुभवों का बखान किया, ताकि वे मुझे आदर से देखें और मुझे पूजें। जब भाई-बहनों से मुझे कोई प्रशंसा नहीं मिली, तो मैं निराश और प्रतिरोधी हो गया और भाई लियू के साथ काम न करने का मन बना लिया, और बेरुखी से अपना कर्तव्य निभाने लगा। मैंने समझ लिया कि मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर की गवाही देने के लिए नहीं, बल्कि बदले में शोहरत और रुतबा पाने के लिए निभा रहा हूँ; मैं बहुत घिनौना था! मैंने शोहरत और अपने निजी हितों के पीछे भागने के अलावा कुछ नहीं किया, अंधकार में इतने गहरे डूब जाने के बावजूद मेरे मन में प्रायश्चित का भाव कभी नहीं आया। मैं बहुत विद्रोही था! मैंने इस बारे में जितना सोचा, मुझे खुद से उतनी ही नफरत हुई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, मैं अपने कर्तव्य में हमेशा रुतबे के पीछे भागता रहा, शोहरत और फायदे के लिए होड़ लगाता रहा। तुमने इस बात से कितनी घृणा की होगी! अब तुम मुझे ताड़ना देकर अनुशासित कर रहे हो, मैं ईमानदारी से आत्मचिंतन करना चाहता हूँ, तुम्हारी व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करना चाहता हूँ। अगर मैं इस मुसीबत से पार हो पाया, तो मैं अपने रुतबे को छोड़ कर ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करूंगा।" मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि समर्पण करके कुछ सबक सीख लेने के बाद परमेश्वर ने मुझ पर दया दिखायी। पुलिस को किसी तरह अपने सिस्टम में मेरी पहचान मिल गयी, यह जान लेने के बाद कि मैं कोई हत्यारा नहीं हूँ, उन्होंने मुझे रिहा कर दिया।

घर पहुँचने के बाद, मैं जांच करवाने के लिए अस्पताल पहुंचा। मेरी दाहिनी टांग टूट गयी थी, मेरी एक पसली भी टूट गयी थी। अगले कुछ महीने, घर में तबीयत संभालते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों का खान-पान किया और आत्मचिंतन किया। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। लोगों के हृदय में इन चीज़ों के होने का कारण पूरी तरह से यह है कि शैतान का विष हमेशा लोगों के विचारों को दूषित कर रहा है, और लोग शैतान के इन प्रलोभनों से पीछा छुड़ाने में हमेशा असमर्थ रहे हैं। वे पाप के बीच रह रहे हैं, मगर इसे पाप नहीं मानते, और अभी भी सोचते हैं: 'हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें आशीष प्रदान करना चाहिए और हमारे लिए सब कुछ सही ढंग से व्यवस्थित करना चाहिए। हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए हमें दूसरों से श्रेष्ठतर होना चाहिए, और हमारे पास दूसरों की तुलना में बेहतर हैसियत और बेहतर भविष्य होना चाहिए। चूँकि हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें असीम आशीष देनी चाहिए। अन्यथा, इसे परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं कहा जाएगा।' बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं। क्या तुम लोगों के वर्तमान विचार और दृष्टिकोण ठीक ऐसे ही नहीं हैं? 'चूँकि मैं परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पर आशीषों की वर्षा होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मेरी हैसियत कभी न गिरे, यह अविश्वासियों की तुलना में अधिक बनी रहनी चाहिए।' तुम्हारा यह दृष्टिकोण कोई एक-दो वर्षों से नहीं है; बल्कि बरसों से है। तुम लोगों की लेन-देन संबंधी मानसिकता कुछ ज़्यादा ही विकसित है। यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। लोगों ने सहूलियत की अपनी अभिलाषा का कभी त्याग नहीं किया। ... अपनी संभावनाओं और नियति को दर-किनार करना तुम्हारे लिए मुश्किल है। अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाएँ नहीं होता?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन भी सुना। "मनुष्य शरीर के बीच रहता है, जिसका मतलब है कि वह मानवीय नरक में रहता है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बगैर, मनुष्य शैतान के समान ही अशुद्ध है। परमेश्वर की ताड़ना और उसका न्याय मनुष्य की सबसे बड़ी सुरक्षा और महान अनुग्रह है। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से ही मनुष्य जाग सकता है, और शरीर और शैतान से घृणा कर सकता है। परमेश्वर का कठोर अनुशासन मनुष्य को शैतान के प्रभाव से मुक्त करता है, उसे उसके खुद के छोटे-से संसार से मुक्त करता है, और उसे परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश में जीवन बिताने का अवसर देता है। ताड़ना और न्याय से बेहतर कोई उद्धार नहीं है!"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर की ताड़ना और न्याय है मनुष्य की मुक्ति का प्रकाश')। इस भजन को सुनते हुए मैं बहुत रोया। आखिरकार मैंने जाना कि परमेश्वर इसलिए न्याय करके ताड़ना नहीं देता क्योंकि वह इंसान से घृणा करता है, बल्कि इसलिए कि वह इंसान को बचाना चाहता है। वह शोहरत और रुतबे के पीछे भागने के मेरे गलत नज़रिये को सुधारना चाहता है। बचपन से ही मैं इस शैतानी ज़हर के साथ जी रहा था कि "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।" मैं हर मौके पर भीड़ से ऊपर उठना चाहता था, यही सपना भी देखता था। प्रभु में विश्वास रखना शुरू करने के बाद से, मैंने सिर्फ ऊंचा रुतबा पाने के लिए त्याग किया, खुद को खपाया, ताकि भाई-बहन मुझे आदर से देखें और मुझे पूजें। मैं मसीह के साथ-साथ एक राजा की तरह राज भी करना चाहता था। मेरी महत्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं थी! सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सुसमाचार सुनने के बाद मैं जान गया था कि प्रभु लौट आया है, लेकिन अगुआ का अपना पद न छोड़ पाने के कारण मैंने उसे स्वीकार नहीं करना चाहा, मैं करीब-करीब एक दुष्ट सेवक बन गया, जो विश्वासियों को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश से रोक रहा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद पिछले दो वर्षों में, बाहर से तो लगता था कि मैंने अपना अगुआ वाला पद छोड़ दिया है, लेकिन मेरा दिल अभी भी शोहरत और रुतबे के काबू में था। जब भाई-बहन मेरी प्रशंसा करते और मुझे पूजते, तो मैं खुश होकर अपने कर्तव्य में जोश दिखाने लगता। लेकिन जब वे बेरुखी दिखाते, तो मैं उदास और बेचैन हो जाता, अपना कर्तव्य निभाने में मेरा मन नहीं लगता। मैं समझ गया कि मैं सत्य का अनुसरण करने और अपना स्वभाव बदलने या परमेश्वर द्व्रारा प्रशंसित होने का अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा हूँ, बल्कि भीड़ से ऊपर उठने की कोशिश कर रहा हूँ, ताकि दूसरे मुझे आदर से देखें और मेरी महत्वाकांक्षाएं और आकांक्षाएं पूरी हो जाएं। क्या मैं खुल्लमखुल्ला परमेश्वर का इस्तेमाल कर उसे धोखा देने का प्रयास नहीं कर रहा था? मैं परमेश्वर की अवज्ञा कर रहा था! मैं इस शैतानी ज़हर के साथ जी रहा था, ज़रा भी इंसानियत या समझ के बिना ज़्यादा-से-ज़्यादा अहंकारी होता जा रहा था। अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन, उसकी ताड़ना और उसका अनुशासन नहीं मिला होता, तो मुझे कभी भी यह एहसास नहीं होता कि मैं शैतान द्वारा कितनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया हूँ या रुतबे के लिए मेरी अभिलाषा कितनी तीव्र है। मैं बस रुतबे के लिए आशीष पाने के लालच में ही फँसा रहता, ज़्यादा-से-ज़्यादा पथभ्रष्ट हो गया होता, जब तक कि मुझे परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित नहीं किया गया होता। आखिरकार मैंने यह समझ लिया कि परमेश्वर जो कुछ करता है, चाहे वह न्याय, ताड़ना, शुद्धिकरण या अनुशासन हो, यह सब इंसान के लिए उद्धार और प्रेम है।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर का दृष्टिकोण यह माँग करना है कि मनुष्य अपना मूल कर्तव्य और हैसियत पुनः प्राप्त करे। मनुष्य परमेश्वर का सृजित प्राणी है और इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से कोई भी माँग करके अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से अधिक कुछ नहीं करना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। "मनुष्य को भी, परमेश्वर का सृजित प्राणी होने के नाते, मनुष्य का कर्तव्य निभाना ही चाहिए। वह सभी चीज़ों का चाहे प्रभु हो या देख-रेख करने वाला हो, सभी चीजों के बीच मनुष्य का कद चाहे जितना ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और महत्वहीन मानव, परमेश्वर के सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा। परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं समझ पाया कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, जिसे अपने उचित स्थान पर रहना चाहिए, परमेश्वर से प्रेम करके उसकी आज्ञा मानने की कोशिश करनी चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ देना चाहिए, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाना चाहिए। यही एकमात्र सही प्रयास है। मैं यह भी समझ गया कि किसी इंसान के उद्धार पाने और पूर्ण किये जाने का, रुतबा होने या न होने से कोई संबंध नहीं है। इंसान चाहे कोई भी काम करे, परमेश्वर की नज़र सिर्फ उसकी सच्ची ईमानदारी और आज्ञापालन पर होती है, वह देखता है कि इंसान सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, उसका जीवन स्वभाव बदला है या नहीं। यह समझ लेने के बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "आगे मैं चाहे कोई भी कर्तव्य निभाऊं, मेरा कोई रुतबा हो या न हो, मैं ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाना चाहता हूँ।" मेरे घाव भरने में दो महीने से भी ज़्यादा का समय लगा, अब मैं फिर से सुसमाचार के प्रचार के लिए बाहर जाने के काबिल हो गया। जो बदल गया वह यह था कि अब मुझे नहीं लगता था कि मैं रुतबे वाला नहीं हूँ, और दूसरों के साथ काम करते समय मैं अब सबसे बढ़िया होने की होड़ नहीं लगाता था। मुझे लगा कि सिर्फ अपना कर्तव्य निभाना यह दर्शाता है कि मुझे परमेश्वर ने ऊपर उठाया है।

कई साल गुज़र गये, मैंने सोचा कि मैं रुतबे के बंधनों और बेड़ियों से मुक्त गया हूँ। मगर जब परमेश्वर ने मेरे लिए एक नयी परिस्थिति की व्यवस्था की, तो रुतबे की मेरी आकांक्षा ने फिर से अपना भद्दा सिर उठाया। 2012 के जाड़ों के दिन थे। पुलिस ईसाइयों को पागलों की तरह गिरफ्तार कर रही थी, बहुत बुरा वक्त था। एक दिन, अगुआओं और उपयाजकों ने हमारे गाँव में एक सभा का आयोजन किया। एक अगुआ ने देखा कि मेरे पास खाली वक्त है, इसलिए उन्होंने मुझे गली के एक नुक्कड़ पर खड़े होकर चौकसी करने को कहा। इस काम से मैं वाकई बहुत नाखुश था, लेकिन बाई-बहनों की सुरक्षा का ख्याल करके मैं राजी हो गया। अगुआ के जाने के बाद, मैंने सोचा : "मैं सालों तक अगुआ रहा हूँ, हमेशा बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करता रहा हूँ। बेहतर होगा कि चौकसी के ऐसे निचले दर्जे के काम के लिए दो-चार साधारण विश्वासियों को लगाया जाए। यह काम मैं क्यों करूँ? तुम सब वहाँ सभा करोगे और मैं यहाँ ठिठुरता हुआ ख़तरा मोल लूं। क्या ऐसा इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि मेरा कोई रुतबा नहीं है? अगर मैं अगुआ होता तो मुझे इस तरह संतरी के काम में नहीं लगाया गया होता।" मुझे एकाएक एहसास हुआ कि रुतबे की मेरी आकांक्षा फिर अपना पुराना पैंतरा दिखा रही है, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझे अब यह निचले दर्जे का काम करना है, और रुतबे की मेरी आकांक्षा ने फिर से सिर उठा लिया है। हे परमेश्वर, मैं फिर से रुतबे के बंधन में नहीं बंधना चाहता। मुझे रास्ता दिखाओ, ताकि मैं रुतबे की बेड़ियों को काट कर फेंक सकूं।" फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा ऊंचे पदों के पीछे भागता रहा, हमेशा चाहा कि लोग मुझे आदर से देखें और मुझे पूजें। मैंने दूसरों के दिलों में जगह चाही, सार-रूप में इसका मतलब यह था कि मैं दूसरों के दिलों को हथियाना चाहता था। मैं लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ लगा रहा था! मेरी प्रकृति बहुत घमंडी थी! मैंने याद किया कि किस तरह पौलुस हमेशा खुद को ही उन्नत कर अपनी ही गवाही देता था, जिससे दूसरे उसकी प्रशंसा कर उसकी आराधना करें, इसीलिए उसने कहा, "क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है" (फिलिप्पियों 1:21)। इससे ज़्यादातर लोग उसकी प्रशंसा और आराधना करने लगे, इतना ज़्यादा कि लोगों के दिलों में उसका स्थान प्रभु यीशु से भी ऊंचा हो गया। उन दिनों की मेरी सोच और मेरी कोशिश ने क्या मुझे पौलुस जैसा नहीं बना दिया था? मैं वाकई मसीह-विरोधियों के परमेश्वर-प्रतिरोधी मार्ग पर चल रहा था; मैंने वास्तव में परमेश्वर और लोगों को नाराज़ कर दिया था और दंडित होने लायक था। अंत के दिनों में, परमेश्वर लोगों को शुद्ध करने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है, मगर इतने वर्षों तक आस्था रखने के बावजूद मैंने सत्य का अनुसरण करने का कोई प्रयास नहीं किया, न ही खुद को किसी ऐसे इंसान के रूप में बदलने की कोशिश करने के बारे में सोचा, जो परमेश्वर का आज्ञाकारी होकर उसकी आराधना करता है। इसके बजाय, मैंने अपनी पूरी सोच और ताकत रुतबे के पीछे भागने में इस्तेमाल की। अगर मैं ऐसा ही करता रहा, तो मैं परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित किया जाऊंगा। मैं कैसा बेवकूफ़ था!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "लोग ऐसे सृजित प्राणी हैं जिनके पास गर्व करने के लिए कुछ नहीं है। चूँकि तुम लोग परमेश्वर के प्राणी हो, इसलिए तुम लोगों को एक प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम लोगों से अन्य कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं। तुम लोगों को ऐसे प्रार्थना करनी चाहिए : 'हे परमेश्वर, चाहे मेरी हैसियत हो या न हो, अब मैं स्वयं को समझती हूँ। यदि मेरी हैसियत ऊँची है तो यह तेरे उत्कर्ष के कारण है, और यदि यह निम्न है तो यह तेरे आदेश के कारण है। सब-कुछ तेरे हाथों में है। मेरे पास न तो कोई विकल्प हैं न ही कोई शिकायत है। तूने निश्चित किया कि मुझे इस देश में और इन लोगों के बीच पैदा होना है, और मुझे पूरी तरह से तेरे प्रभुत्व के अधीन आज्ञाकारी होना चाहिए क्योंकि सब-कुछ उसी के भीतर है जो तूने निश्चित किया है। मैं हैसियत पर ध्यान नहीं देती हूँ; आखिरकार, मैं मात्र एक प्राणी ही तो हूँ। यदि तू मुझे अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डालता है, तो मैं एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। यदि तू मेरा उपयोग करता है, तो मैं एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण बनाता है, मैं तब भी एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण नहीं बनाता, तब भी मैं तुझ से प्यार करती हूँ क्योंकि मैं सृष्टि के एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। मैं सृष्टि के परमेश्वर द्वारा रचित एक सूक्ष्म प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ, सृजित मनुष्यों में से सिर्फ एक हूँ। तूने ही मुझे बनाया है, और अब तूने एक बार फिर मुझे अपने हाथों में अपनी दया पर रखा है। मैं तेरा उपकरण और तेरी विषमता होने के लिए तैयार हूँ क्योंकि सब-कुछ वही है जो तूने निश्चित किया है। कोई इसे बदल नहीं सकता। सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं।' जब वह समय आएगा, तब तू हैसियत पर ध्यान नहीं देगी, तब तू इससे छुटकारा पा लेगी। तभी तू आत्मविश्वास से, निर्भीकता से खोज करने में सक्षम होगी, और तभी तेरा हृदय किसी भी बंधन से मुक्त हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं समझ पाया कि अगर किसी के पास ऊंचा रुतबा है तो परमेश्वर ने उसे ऊंचा उठाया है, और अगर कोई कम रुतबे वाला है, तो परमेश्वर ने उसके लिए यही पहले से निर्धारित किया है। परमेश्वर लोगों से कैसे भी पेश आये और वह हमें कहीं भी रखे, हमें हमेशा समर्पण करना चाहिए, अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाना चाहिए, और शिकायत नहीं करनी चाहिए। ऐसा करना ही उचित है, एक सच्चा सृजित प्राणी यही करता है। यह समझ लेने पर, मैं समर्पण करने और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हो गया, इसके बाद से मैंने संतरी का काम पूरी लगन से किया। मैं चौकसी करने पर पूरा ध्यान देता, ताकि अगुआ और उपयाजक शांति से अपनी सभा कर सकें। इसके बाद कुछ और बार अगुआ ने मुझसे सभाओं के लिए चौकसी करने को कहा, लेकिन अब मैंने नहीं सोचा कि यह ऊंचे दर्जे का काम है या निचले दर्जे का; मैंने बस बहुत मुक्त और शांत महसूस किया।

उन वर्षों के दौरान, परमेश्वर ने मुझे उजागर करने के लिए बार-बार हालात तैयार किये और उसने मेरा न्याय कर मुझे ताड़ना देने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल किया, ताकि मैं सच में जान सकूं कि शैतान ने कितनी गहराई से मुझे भ्रष्ट कर दिया है और रुतबे की मेरी चाहत कितनी तीव्र है। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से समझ लिया कि रुतबा ऐसी चीज़ है जो शैतान लोगों को बेड़ियों में बांधने के लिए इस्तेमाल करता है : आप रुतबे के पीछे जितना भागते हैं, शैतान आपको उतना ही नुकसान पहुंचाकर आपके साथ खिलवाड़ करता है, आप उतनी ही परमेश्वर की अवज्ञा और उसका प्रतिरोध करते हैं। मैं यह भी समझ पाया कि बचाये जाने के लिए लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में किन बातों का अनुसरण करना चाहिए। रुतबे की ऐसी तीव्र इच्छा और बहुत बड़ी महत्वाकांक्षाओं के बावजूद, मैं अब जिस तरह बदल गया हूँ, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने लगा हूँ, पूरी आज्ञाकारिता के साथ अपना कर्तव्य निभाने लगा हूँ, यह सब परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के ही कारण है। परमेश्वर ने मेरे लिए कितना कष्ट उठाया है, मुझे बचाने के लिए मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर का तहे-दिल से धन्यवाद करता हूँ!

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