एक डॉक्टर का फैसला
जब मैं छोटी थी तो मेरा परिवार बहुत गरीब था। मेरी माँ को लकवा हो गया था, वे बिस्तर पर पड़ी रहती थीं, उनकी दवा पूरे साल चलती रहती थी, और मेरे पिता ने सालों तक गाँव के बाहर काम किया था। गाँव के लोग हमें नीची नजर से देखते थे, और मेरे भाई-बहन को गाँव में अक्सर बदमाश धमकाते रहते थे। जब मैं सात साल की थी, गांव में एक दबंग ने मेरा पीछा कर मुझे पीटा था। मैं इतनी डर गई थी कि मुझे दिल की बीमारी हो गई। चूँकि हमारे पास इलाज के पैसे नहीं थे, तो इसके नतीजे भुगतने पड़े। इसलिए उसी क्षण मैंने तय कर लिया था कि बड़ी होकर मैं एक बेहतरीन डॉक्टर बनूँगी, अपनी माँ और खुद का इलाज करूँगी, और बहुत सारा पैसा कमाऊँगी, ताकि मेरा परिवार अच्छा जीवन जिए और उसे इज्जत मिले।
मेडिकल स्कूल से स्नातक होने के बाद मुझे शहर के एक स्वास्थ्य क्लीनिक में काम करने भेजा गया। मैं छोटे से क्लीनिक में काम करके संतुष्ट नहीं थी, इसलिए मैंने अपना पेशेवर कौशल सुधारने और शहर के अस्पताल में तबादले की पूरी कोशिश की। इसे पक्का करने के इरादे से मैं आगे की पढ़ाई के लिए एक बड़े अस्पताल में गई, और प्रायोगिक अभ्यास की पढ़ाई की। क्लीनिक लौटकर मैंने प्रमोशन पाने के लिए बहुत मेहनत की। मैं दिन-रात काम करती थी, और रोज इतना थक जाती कि पीठ में दर्द होने लगता। घर लौटकर बिस्तर पर गिरने के अलावा कुछ नहीं कर पाती थी। आखिर शहर के एक विशेषज्ञ अस्पताल में मेरा तबादला कर दिया गया। तीन साल बाद मुझे फिर से तरक्की देकर चिकित्सक बना दिया गया। चूँकि मैं कर्तव्यनिष्ठा और जिम्मेदारी से काम करती थी, और मेरा कौशल शानदार था, मैं अस्पताल में काफी लोकप्रिय थी, और बहुत से लोग मुझसे मिलने आते थे। धीरे-धीरे मैंने और पैसा कमाया, और अपने भाई के कारोबार में भी पैसे लगाए। मेरे सास-ससुर अक्सर दूसरों के सामने मेरी तारीफ करते थे और मेरे पति भी मुझसे बहुत प्यार करते थे। इस सबसे मेरे अभिमान को बहुत संतोष मिला, और मुझे लगा कि मैं अद्भुत जीवन जी रही थी।
मगर ये सब चीजें एक कीमत पर मिली थीं। लंबे समय तक काम के दबाव और अनियमित काम और आराम के चलते मुझे अनिद्रा की बीमारी हो गई। यह लगातार बदतर होती गई और इसके इलाज में कोई दवा काम नहीं कर रही थी। उसके बाद मुझे पेट की समस्याएँ और लम्बर स्पॉंडिलोसिस हो गया, जल्दी ही मुझे दिल की समस्याएं भी हो गईं। जैसे ही मैं बच्चे के रोने की आवाज़ सुनती, मेरे सिर में दर्द, दिल में घबराहट होती और मेरे हाथ काँपते थे। प्रांतीय अस्पताल के विशेषज्ञों ने इसे वेंट्रिकुलर फाइब्रिलेशन वाला हृदय रोग कहा, मतलब यह कि मैं थोड़ी सी भी उत्तेजना नहीं झेल सकती थी, और इलाज का कोई दस्तावेजी सुबूत नहीं था। इसे खास कार्डियोवैस्कुलर देखरेख के साथ ही काबू में किया जा सकता था। उनके शब्द पूरी तरह अप्रत्याशित थे। इससे निराशा महसूस हुई। मैंने सोचा कि इतनी छोटी सी उम्र में भी मुझे लाइलाज बीमारी थी। पैसे और शोहरत का क्या फायदा? उन चीजों ने मेरे दर्द को कतई कम नहीं किया। फिर मैंने सोचा, रोज मैंने दूसरों के रोगों का इलाज किया, पर अपना ही इलाज नहीं कर पाई। मुझे खासकर पीड़ा और उदासी महसूस हुई। जब मैं रात को नहीं सो पाती थी, तो बस छत की ओर ताकती और चुपचाप आँसू बहाती रहती थी। मुझे लगा कि इस तरह जीना बहुत कठिन और थका देने वाला था। मुझे बहुत बेबसी भी लगती थी। लगता था कि मेरी जीवन यात्रा तो अभी शुरू हुई थी और मुझे यह बीमारी हो गई, मुझे नहीं पता था कि मैं भविष्य में कैसे जियूँगी। इस तरह जीने का क्या मतलब था?
जब मैं दर्द में और बेबस थी, ठीक तभी प्रभु यीशु का उद्धार मेरे पास आया। प्रभु में आस्था रखने के बाद मेरी वर्षों पुरानी दिल की बीमारी और अनिद्रा चमत्कारिक रूप से ठीक हो गई। मुझ पर अपार अनुग्रह के लिए मैं प्रभु की बहुत आभारी थी। प्रभु के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए मैं सक्रियता से सभाओं में जाती और सुसमाचार का प्रचार करती थी। जुलाई 2006 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर प्रभु की वापसी का स्वागत किया। मैं बेहद उत्साहित थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन खाने-पीने से, मैंने परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का रहस्य और परमेश्वर की प्रबंधन योजना का उद्देश्य जाना, और यह भी कि परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय कार्य करता है, ताकि हम पाप और शैतान के बुरे असर से बच सकें, परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकें, और आखिर में उसके राज्य में प्रवेश कर सकें। परमेश्वर के वचनों में मैंने बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश की उम्मीद देखी, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन मेरी भूखी आत्मा के लिए भोजन की तरह था। एक दिन मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, "क्या तू अपने कधों के बोझ, अपने आदेश और अपने उत्तरदायित्व से अवगत है? ऐतिहासिक मिशन का तेरा बोध कहाँ है? तू अगले युग में प्रधान के रूप में सही ढंग से काम कैसे करेगा? क्या तुझमें प्रधानता का प्रबल बोध है? तू समस्त पृथ्वी के प्रधान का वर्णन कैसे करेगा? क्या वास्तव में संसार के समस्त सजीव प्राणियों और सभी भौतिक वस्तुओं का कोई प्रधान है? कार्य के अगले चरण के विकास हेतु तेरे पास क्या योजनाएं हैं? तुझे चरवाहे के रूप में पाने हेतु कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं? क्या तेरा कार्य काफी कठिन है? वे लोग दीन-दुखी, दयनीय, अंधे, भ्रमित, अंधकार में विलाप कर रहे हैं—मार्ग कहाँ है? उनमें टूटते तारे जैसी रोशनी के लिए कितनी ललक है जो अचानक नीचे आकर उन अंधकार की शक्तियों को तितर-बितर कर दे, जिन्होंने वर्षों से मनुष्यों का दमन किया है। कौन जान सकता है कि वे किस हद तक उत्सुकतापूर्वक आस लगाए बैठे हैं और कैसे दिन-रात इसके लिए लालायित रहते हैं? उस दिन भी जब रोशनी चमकती है, भयंकर कष्ट सहते, रिहाई से नाउम्मीद ये लोग, अंधकार में कैद रहते हैं; वे कब रोना बंद करेंगे? ये दुर्बल आत्माएँ बेहद बदकिस्मत हैं, जिन्हें कभी विश्राम नहीं मिला है। सदियों से ये इसी स्थिति में क्रूर बधंनों और अवरुद्ध इतिहास में जकड़े हुए हैं। उनकी कराहने की आवाज किसने सुनी है? किसने उनकी दयनीय दशा को देखा है? क्या तूने कभी सोचा है कि परमेश्वर का हृदय कितना व्याकुल और चिंतित है? जिस मानवजाति को उसने अपने हाथों से रचा, उस निर्दोष मानवजाति को ऐसी पीड़ा में दु:ख उठाते देखना वह कैसे सह सकता है? आखिरकार मानवजाति को विष देकर पीड़ित किया गया है। यद्यपि मनुष्य आज तक जीवित है, लेकिन कौन यह जान सकता था कि उसे लंबे समय से दुष्टात्मा द्वारा विष दिया गया है? क्या तू भूल चुका है कि शिकार हुए लोगों में से तू भी एक है? परमेश्वर के लिए अपने प्रेम की खातिर, क्या तू उन जीवित बचे लोगों को बचाने का इच्छुक नहीं है? क्या तू उस परमेश्वर को प्रतिफल देने के लिए अपना सारा ज़ोर लगाने को तैयार नहीं है जो मनुष्य को अपने शरीर और लहू के समान प्रेम करता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुझे अपने भविष्य के मिशन पर कैसे ध्यान देना चाहिए?)। परमेश्वर के वचन ने मुझे प्रेरित किया। मैं समझती थी कि परमेश्वर अपने नए कार्य को स्वीकारने वाले हर व्यक्ति से उम्मीद रखता है। उसे आशा है कि हम ऊंचा उठकर परमेश्वर का सुसमाचार उन लोगों तक फैलाएंगे जो अभी भी अंधेरे में हैं और परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरस रहे हैं, ताकि वे परमेश्वर के घर लौटकर उसका उद्धार स्वीकार सकें, और उन्हें शैतान के अनिष्ट न झेलने पड़ें। मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तव में बहुत महान है! जब मैंने सोचा कि मैं कितनी भाग्यशाली थी कि मैंने प्रभु की वाणी सुनी और उसका स्वागत किया, मैं अपनी मूल कलीसिया में लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार करना चाहती थी और उन्हें बताना चाहती थी कि परमेश्वर लौट आया है। इसलिए काम के दौरान मैंने सुसमाचार का प्रचार किया। उस समय पवित्र आत्मा के महान कार्य की वजह से, अगुआओं और सहकर्मियों के साथ-साथ मेरे मूल संप्रदाय की पाँच कलीसियाओं के कुछ विश्वासियों, सभी ने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकार कर एक नई कलीसिया बनाई। मुझे उपयाजिका चुना गया और कलीसिया का काम सौंपा गया। मैंने परमेश्वर की आशीष और मार्गदर्शन देखा, और इससे मुझे बहुत उत्साह मिला। मैंने सोचा, "मुझे और लोगों को परमेश्वर के घर में वापस लाने के लिए कलीसिया के कार्य में परमेश्वर के साथ सहयोग की पूरी कोशिश करनी चाहिए।"
मार्च 2007 में, एक दिन सुपरवाइजर ने कहा कि वे मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में प्रशिक्षित करना चाहती हैं। मैं थोड़ा हिचकिचाई। यह अच्छी बात है, पर कलीसिया अगुआ बनने यानी पूरी कलीसिया के काम के लिए जिम्मेदार होने का मतलब है कि मुझे नौकरी के लिए समय नहीं मिलेगा और मैं उसे बरकरार नहीं रख पाऊँगी। क्या इससे मेरी सालों की मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? इसके अलावा मेरे पति जरूर मेरे लिए परेशानी खड़ी करेंगे। तो यह सोचकर मैंने तब वह कर्तव्य स्वीकार नहीं किया। बाद में मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मुझे हमेशा लगता था कि मैं परमेश्वर की कर्जदार हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, "अगर मैं तुम लोगों के सामने कुछ पैसे रखूँ और तुम्हें चुनने की आजादी दूँ—और अगर मैं तुम्हारी पसंद के लिए तुम्हारी निंदा न करूँ—तो तुममें से ज्यादातर लोग पैसे का चुनाव करेंगे और सत्य को छोड़ देंगे। तुममें से जो बेहतर होंगे, वे पैसे को छोड़ देंगे और अनिच्छा से सत्य को चुन लेंगे, जबकि इन दोनों के बीच वाले एक हाथ से पैसे को पकड़ लेंगे और दूसरे हाथ से सत्य को। इस तरह तुम्हारा असली रंग क्या स्वत: प्रकट नहीं हो जाता? सत्य और किसी ऐसी अन्य चीज के बीच, जिसके प्रति तुम वफादार हो, चुनाव करते समय तुम सभी ऐसा ही निर्णय लोगे, और तुम्हारा रवैया ऐसा ही रहेगा। क्या ऐसा नहीं है? क्या तुम लोगों में बहुतेरे ऐसे नहीं हैं, जो सही और ग़लत के बीच में झूलते रहे हैं? सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफेद के बीच प्रतियोगिता में, तुम लोग निश्चित तौर पर अपने उन चुनावों से परिचित हो, जो तुमने परिवार और परमेश्वर, संतान और परमेश्वर, शांति और विघटन, अमीरी और ग़रीबी, हैसियत और मामूलीपन, समर्थन दिए जाने और दरकिनार किए जाने इत्यादि के बीच किए हैं। ... सालों की लगन और प्रयास से मुझे स्पष्टत: केवल तुम्हारे परित्याग और निराशा से अधिक कुछ नहीं मिला, लेकिन तुम लोगों के प्रति मेरी आशाएँ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जाती हैं, क्योंकि मेरा दिन सबके सामने पूरी तरह से खुला पड़ा रहा है। फिर भी तुम लोग लगातार अँधेरी और बुरी चीजों की तलाश में रहते हो, और उन पर अपनी पकड़ ढीली करने से इनकार करते हो। तो फिर तुम्हारा परिणाम क्या होगा? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर सावधानी से विचार किया है? अगर तुम लोगों को फिर से चुनाव करने को कहा जाए, तो तुम्हारा क्या रुख रहेगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम किसके प्रति वफादार हो?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर, मैं बहुत शर्मिंदा हुई। लगा मानो परमेश्वर मेरे सामने ही मेरा न्याय कर रहा था। मेरा दावा था कि परमेश्वर को संतुष्ट करूँ, पर जब सचमुच चुनाव करना था ताकि डॉक्टर की अहम नौकरी बनाए रख सकूँ, तो मैंने अपना कर्तव्य ठुकरा दिया। मैंने देखा कि जिसे मैंने सबसे अधिक संजोया, वह परमेश्वर नहीं, बल्कि परिवार, प्रतिष्ठा और हैसियत थी। मैं शैतान का अनुसरण कर उसके प्रति वफादार थी, और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रही थी। जब मैंने इस बारे में सोचा तो खुद को विशेष रूप से दोषी माना। मैं असल में दूसरा चुनाव करना चाहती थी, नौकरी छोड़कर परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहती थी। लेकिन मैं यह भी जानती थी कि नौकरी छोड़ने के लिए मेरा परिवार राजी नहीं होगा, और मैं अभी इसे छोड़ नहीं सकती थी। मैं केवल परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना कर सकती थी, उससे अगुआई और मार्गदर्शन करने के लिए कह सकती थी। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन के इस भजन के बारे में सोचा, "सबसे सार्थक जीवन।" "तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। जब मैंने यह भजन गाया, तो दिल से खुद को दोषी महसूस किया। मैं एक सृजित प्राणी हूं, मेरे पास जो कुछ है वह परमेश्वर से आया है, मैंने परमेश्वर के अनंत अनुग्रह का आनंद लिया है, और मुझे परमेश्वर से जीवन के इतने सारे वचन मिले हैं, फिर भी मैं परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाना चाहती थी। अपनी नौकरी और भविष्य की खातिर मैंने असल में अपने कर्तव्य से मना किया। मैं विवेकशील होने का दावा कैसे कर सकती हूँ? मैंने अय्यूब के बारे में सोचा। वह पूरब में मशहूर था और उसके पास काफी धन था, पर उसने शोहरत और धन को नहीं संजोया। सब कुछ खोकर भी वह परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम था, वह अपनी गवाही में दृढ़ रहा और शैतान को नीचा दिखाया। और पतरस, जब उसने प्रभु यीशु की पुकार सुनी, तो वह सब कुछ छोड़कर प्रभु के पीछे हो लिया। उसने हर जगह प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार किया और गवाही दी, उसने परमेश्वर के प्रेम का अनुसरण किया और परमेश्वर को संतुष्ट किया, और अंत में परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया। मैंने सोचा, "मुझे उसका अनुकरण करना चाहिए, कर्तव्य स्वीकारना चाहिए, अपने हितों को त्याग कर, अपनी पसंद चुनने और योजनाएँ बनाने से बचना चाहिए।" इस बारे में सोचकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे आत्मविश्वास और शक्ति देने और कोई रास्ता खोलने के लिए कहा। बाद में, रोगी विभाग में रोगियों के लगातार शोर के चलते मुझे दिल का दौरा पड़ा। मैंने मौका देखकर अस्पताल से छह महीने की छुट्टी मांग ली और पूर्णकालिक रूप से कर्तव्य निभाने लगी।
हालाँकि मेरी छह महीने की छुट्टी जल्द बीत गई, और मेरे अस्पताल के प्रमुख ने मुझे काम पर बुला लिया। तब कलीसिया में सुसमाचार कार्य की काफी व्यस्तता थी, तो मैंने अपने पति से बात की और अगले साल काम पर लौटने का फैसला किया। मगर दो महीने बाद अस्पताल बार-बार मुझे काम पर लौटने को कहने लगा, वरना मेरी नौकरी जा सकती थी। मेरे पति भी मुझसे काम पर लौटने पर जोर देने लगे। यहाँ तक मैं थोड़ा चिंतित थी, "मैं क्या करूँ? अगर मैं काम पर न गई, तो साल के अंत में मुझे निकाल दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो क्या मेरी सालों की मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? पर काम पर गई तो कर्तव्य के लिए मुझे समय कम मिलेगा। अगर मैं उसमें अपना दिल और मन न लगा पाई, तो कलीसिया का काम प्रभावित होगा।" यह सोचकर मैं वापस जाने को तैयार नहीं थी। मेरे पति जब मुझे और नहीं मना सके तो उन्होंने मेरे भाई और भाभी को मुझे मनाने के लिए कहा। मेरे भाई ने कहा, "बस उसे घर पर रखो। बाहर मत जाने दो। अगर तुम काबू नहीं कर सकते, तो उसके पैर तोड़ दो। विकलांग होने पर भी जब तक वह घर पर है, उसकी नौकरी बची रहेगी। अगर उसकी नौकरी गई तो हम सब कुछ खो देंगे।" यह सुनकर मेरा दिल बैठ गया। मैंने सोचा, "परमेश्वर में आस्था रखने और सही रास्ते पर चलने के कारण तुम लोग मुझसे ऐसा व्यवहार कर रहे हो। पहले जब मैं नौकरी में सफल थी, तो तुम सब मेरी कामयाबी का जश्न मनाते थे और मुस्कराकर मेरा स्वागत करते थे। अब तुम्हें पता है कि परमेश्वर में मेरी आस्था होने और कर्तव्य निभाने से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, तो तुम सब मुझे रोक रहे हो और दिल तोड़ने वाली बातें कहते हो।" जितना अधिक मैंने इस पर सोचा, उतनी ही दुखी हुई। पहली बार इंसानी लगाव की बेरुखी समझ में आई। फिर मैंने सोचा, "अगर अस्पताल सच में मुझे निकाल देता है तो मैं क्या करूँगी?" मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की और तब मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया। "मेरे इरादे तेरे समक्ष प्रकट कर दिए गए हैं और तू उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता है। बल्कि, तुझे अपना पूरा ध्यान उन पर लगाना चाहिए और पूरे मनोयोग से उनका पालन करने के लिए शेष सब कुछ छोड़ देना चाहिए। मैं सदैव तुझे अपने हाथों में रखूँगा। सदैव डरपोक मत बन और अपने पति या पत्नी के नियंत्रण के अधीन मत रह; तुझे मेरी इच्छा अवश्य पूरी होने देना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 9)। परमेश्वर के वचन ने मुझे आत्मविश्वास और हिम्मत दी। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और हर चीज पर उसकी संप्रभुता है। मुझे अस्पताल से बर्खास्त किया जाएगा या नहीं, यह परमेश्वर की संप्रभु व्यवस्थाओं पर निर्भर था। मुझे भरोसा था कि परमेश्वर मेरे लिए रास्ता निकालेगा। मैं परमेश्वर से सहयोग करना चाहती थी और पति के काबू में नहीं रहना चाहती थी। चाहे मेरा परिवार मुझे कितना भी सताए, मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अडिग रहना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के प्रेम और निस्वार्थता के बारे में सोचा, मैं और अधिक प्रेरित हो गई। परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर सदा से मानवजाति के अस्तित्व के लिए कष्ट उठा रहा है, लेकिन मनुष्य प्रकाश या धार्मिकता की खातिर कभी कोई योगदान नहीं करता। अगर मनुष्य कुछ समय के लिए प्रयास करता भी है, तो भी वह हलके-से झटके का भी सामना नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का प्रयास केवल अपने लिए होता है, दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर हमेशा निस्स्वार्थ होता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है)। भ्रष्ट मानवजाति हमेशा स्वार्थी होती है, लेकिन परमेश्वर निःस्वार्थ है। चाहे परमेश्वर जैसे या जिस तरीके से कार्य करे, चाहे वह जैसा भी स्वभाव प्रकट करे, वह दया और करुणा हो या धार्मिकता और प्रताप, वह जो कुछ भी करता है, लोगों के जीवन के लिए है, और यह सब हमें सत्य को समझने और जीवन में सही रास्ते पर ले जाने के लिए है ताकि वह हमें बचा सके। परमेश्वर लोगों के लिए चाहे कितना भी करे, वह हमसे कभी कुछ नहीं मांगता। वह हमारे लिए सब कुछ खामोशी से करता है। इस बीच, मैंने सब कुछ अपने लिए और अपने फायदे के लिए किया। मुझे पता था कि कर्तव्य निभाना और ठीक से कलीसिया का काम देखना मेरी जिम्मेदारी और दायित्व था, पर मुझे डर था कि अगर मेरी नौकरी गई तो मैं अपनी शोहरत, पैसा और परिवार में तालमेल गँवा दूँगी, तो मैंने कर्तव्य को ठुकरा दिया। मैं स्वार्थी और नीच थी, और मुझमें कोई मानवता नहीं थी! इसके अलावा अपने परिवार के उत्पीड़न के जरिए, मुझे लोगों के बीच भावनाओं की कुछ समझ भी मिली। पहले मेरा परिवार मुझसे अच्छा व्यवहार करता था क्योंकि मेरे पास अच्छी नौकरी थी। मैं उनकी मदद कर पाती थी और उन्हें अच्छा लगता था, तो वे मुस्कान के साथ मेरा स्वागत करते थे। अब मैं सुसमाचार का प्रचार करके नौकरी खोने के कगार पर थी, उनको इससे क्या मिलता, तो उन्होंने मुझे सताया और मुझ पर रोक लगाई। लोगों के बीच प्यार कहाँ होता है? बस समझौता और लेन-देन ही होता है। परिवार का प्यार भी हितों पर आधारित है। उन्होंने मुझे केवल धन, शोहरत और दैहिक सुख के पीछे भागने के लिए मजबूर किया। यह मेरे लिए प्यार नहीं था। यह मुझे चोट पहुँचाना और बर्बाद करना था। इसे समझने के बाद मैं अब शैतान की सेवा नहीं करना चाहती थी। मैं बस ठीक से कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहती थी।
अचानक मेरे पति ने मेरे घर से निकलने पर रोक लगा दी। उसने मुझे धमकी भी दी, "अगर तुम काम पर जाने को तैयार नहीं हो, तो मैं तुम्हें परमेश्वर में आस्था नहीं रखने दूँगा, और आस्था रखने वालों को घर में नहीं आने दूँगा।" उसने यह भी कहा कि नौकरी जाने पर यदि वह कठोर हुआ तो उसे दोष न दूँ। उसे यह कहते सुनकर मैंने सोचा, "अगर मैंने उसकी माँगें नहीं मानीं, तो वह मुझे घर में बंद कर देगा। मैं कलीसियाई जीवन या अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी।" तो मुझे उससे वादा करना पड़ा कि मैं अस्पताल में काम पर लौटूँगी। लेकिन मेरे अस्पताल प्रमुख को डर था कि मरीजों के शोर से मुझे फिर दिल का दौरा न पड़ जाए, इसलिए उन्होंने मेरा तबादला सामान्य अस्पताल के आउटपेशेंट विभाग में कर दिया। जब काम नहीं होता तब भी मुझे ऑफिस में बैठना पड़ता था और मैं ऐसे ड्यूटी नहीं कर पाती थी। रोज ऑफिस में अकेले बैठे मुझे बेचैनी होती थी। मैंने सोचा कि जब मैं वहाँ फँसी थी तो कलीसिया में कितना जरूरी काम बाकी रहा होगा। मुझे पता था कि कलीसिया के काम में देरी होगी और मेरे भाई-बहनों के जीवन पर असर होगा, और मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए ठीक से कर्तव्य निभाने का दावा किया था, पर जैसे ही मेरे पति ने मुझे सताया और रोका, मैंने हार मान ली। मैं परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी कहाँ थी? जितना इस बारे में सोचा, मुझे उतना ही दुख हुआ और मेरे आँसू बह निकले। तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य निभाकर आपके लिए खुद को खपाना चाहती हूँ, पर मैं अपने पति और माहौल के आगे विवश हूँ। मुझे आत्मविश्वास और हिम्मत दो।" प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, "जब लोगों को परमेश्वर के स्वभाव की वास्तविक समझ होती है, जब वे देख पाते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव वास्तविक है, कि वह वास्तव में पवित्र है, और वास्तव में धार्मिक है, और जब वे परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता की अपने हृदय से स्तुति कर पाते हैं, तब वे वास्तव में परमेश्वर को जान जाते हैं, और उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होता है। जब लोग परमेश्वर को जानते हैं, तभी वे प्रकाश में रहते हैं। और वास्तव में परमेश्वर को जानने का सीधा परिणाम वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करने और वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होना है। जो लोग सत्य समझते हैं, और सत्य प्राप्त करते हैं, उनकी जीवन के प्रति विश्वदृष्टि और नजरिये में एक वास्तविक परिवर्तन होता है, जिसके बाद उनके जीवन-स्वभाव में भी एक वास्तविक परिवर्तन होता है। जब लोगों के सही जीवन-लक्ष्य होते हैं, जब वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं, और सत्य के अनुसार आचरण करते हैं, जब वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और उसके वचनों के अनुसार जीते हैं, जब वे अपनी आत्मा की गहराई तक शांति और रोशनी महसूस करते हैं, जब उनके दिल अँधेरे से मुक्त होते हैं, और जब वे पूरी तरह से स्वतंत्र और बाधामुक्त होकर परमेश्वर की उपस्थिति में जीते हैं, केवल तभी वे एक सच्चा मानव-जीवन व्यतीत करते हैं और केवल तभी उनमें सत्य और मानवता होती है। इसके अलावा, जो भी सत्य तुमने समझे और प्राप्त किए हैं, वे सभी परमेश्वर के वचनों से और स्वयं परमेश्वर से आए हैं। जब तुम सर्वोच्च परमेश्वर—ब्रह्मांड और सभी चीजों के शासक—का अनुमोदन प्राप्त करते हो, और वह कहता है कि तुम वास्तव में इंसान की तरह जीने वाले एक वास्तविक व्यक्ति हो, केवल तभी तुम्हारा जीवन सबसे अधिक सार्थक होगा। परमेश्वर का अनुमोदन पाने का अर्थ है कि तुमने सत्य पा लिया है, और तुम्हारे पास सत्य और इंसानियत है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पर चिंतन करने के बाद मैंने जाना कि हमारे जीवन में केवल सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर को जानना, और सृष्टिकर्ता की स्वीकृति पाना ही गौरवशाली माना जा सकता है। केवल यही असली जीवन है और यही मुझे चुनना चाहिए। मैंने दुनियावी शोहरत और धन के लिए मेडिसिन की जमकर पढ़ाई की थी। सफल होने पर मेरे अगुआ और सहयोगी मेरी तारीफ करते थे, मेरे रिश्तेदार और दोस्त मेरी बहुत इज्जत करते थे, पर उन चीजों के होने से मुझे क्या मिला? मेरे पास चाहे जितनी शोहरत या पैसा था, वह मेरी आत्मा के खालीपन को नहीं भर सका। उसने मेरा शरीर थकाकर बीमार कर डाला, मेरा जीवन अभी भी व्यर्थ और दयनीय था, और मुझे शांति या खुशी महसूस नहीं होती थी। मैंने सोचा कि कैसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, कलीसियाई जीवन जीने और अपना कर्तव्य निभाने के बाद, मैं अनजाने ही सत्य को समझने लगी थी। मुझे पता था कि कैसा आचरण करूँ, कैसे परमेश्वर की आराधना करूँ, और कैसे खुद को भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त कर सामान्य मानवता को जीना है। इन सबसे मुझे खासकर सुकून और राहत का एहसास हुआ। मैं समझ गई कि लोग सृजित प्राणी हैं, और केवल परमेश्वर की मौजूदगी में ही लोगों को शांति और खुशी मिल सकती है। नहीं तो लोग चाहे जैसे जिएं, उनके जीवन हमेशा खालीपन और पीड़ा में रहते हैं। यहाँ तक मैं समझ चुकी थी कि परिवार की ओर से मुझे जो उत्पीड़न झेलना पड़ा, उसमें परमेश्वर के नेक इरादे थे। इस माहौल से मैं परमेश्वर पर आस्था और सत्य की तलाश के लिए उसके सामने आने को मजबूर हुई, इससे मुझे साफ तौर पर परमेश्वर की देखरेख से दूर शैतान के प्रभाव में रहने की पीड़ा देखने को मिली, और इसने मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य के मार्ग पर चलने में सक्षम बनाया। परमेश्वर के नेक इरादों को समझते ही मेरा दिल रोशन हो गया। मैं परिवार के बंधनों से आजाद थी, मैंने अस्पताल छोड़ दिया और कलीसिया में पूरे समय अपना कर्तव्य निभाने लगी।
दिसम्बर 2007 में एक दिन जब मैं अपने काम से घर लौटी तो मेरे पति बहुत गुस्से में थे। उन्होंने बताया, "अस्पताल से फोन आया था। उन्होंने कहा कि अगर तुम काम पर नहीं गई, तो तुम्हें निकाल देंगे। तुम्हें तुरंत नौकरी पर लौट जाना चाहिए। अगर नौकरी गई तो पेंशन और दूसरे सभी लाभ खत्म हो जाएंगे!" यह सुनकर मैं थोड़ा परेशान हो गई। मैंने सोचा, "यह सच है। बचपन से ही मैंने अच्छी डॉक्टर बनने और नाम कमाने का सपना देखा था। काफी मेहनत और संघर्ष के बाद मेरे पास शोहरत और पैसा दोनों हैं। अगर मैं नौकरी छोड़ती हूँ तो मेरे पास कुछ नहीं बचेगा।" इस खयाल से मैं सोच में पड़ गई कि क्या करूँ, तो मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मुझे लगा था कि मैंने प्रतिष्ठा, पैसा और हैसियत छोड़ दी है। पर अभी जब मुझे सच में नौकरी छोड़नी है, तो मैं थोड़ा दुखी हूँ। परमेश्वर, सत्य को समझने और इन चीजों के काबू में न आने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।" प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा। परंतु, धीरे-धीरे तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विकट बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद एहसास हुआ कि शैतान ने मुझे कितना नुकसान पहुंचाया है। शोहरत और फायदा मेरा जीवन बन गया था, और यह सत्य के अभ्यास में मेरे सामने एक बाधा थी। बचपन से मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो", मैंने सोचा कि शोहरत और फायदे का मतलब था कि मेरा जीवन सार्थक और मूल्यवान था। मैंने शोहरत, फायदे और हैसियत को सकारात्मक चीजें माना, और सोचा कि मुझे जीवन में केवल इसी के पीछे जाना चाहिए, इसलिए मैंने शोहरत, फायदा, पैसा और आनंद पाने की भरसक कोशिश की। अंत में मैंने थकावट की हद तक खुद को बुरी तरह कष्ट दिए। प्रतिष्ठा और हैसियत बस शैतान की चालें हैं जिनका इस्तेमाल वह लोगों को भ्रष्ट और बर्बाद करने के लिए करता है। मैंने अपने सहकर्मी के बारे में सोचा, जो शोहरत और पैसे की तलाश में दुखद रूप से मरा था। वह आउटपेशेंट विभाग का निदेशक था, जिसने अपने करियर में कड़ी मेहनत की थी। वह हमेशा देर से घर आता। मरीजों का इलाज करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए रुकता था। अंत में उसको शोहरत और पैसा मिला, पर एक रात वह काफी देर से काम से निकला, बुरी तरह थकान की हालत में वह सड़क पर चल रहा था कि एक कार की टक्कर से उसकी मौत हो गई। मेरी एक और सहकर्मी कम उम्र में ही हेड नर्स बन गई थी। लोगों को उसका भविष्य उज्ज्वल लगता था, पर वह काम में काफी व्यस्त रहती थी। घर के रास्ते में भी वह सहकर्मियों से काम की बात करती रहती थी, इसी दौरान उसने एक ट्रेन की पटरी पार करने की कोशिश की, तभी एक तेज रफ्तार ट्रेन की चपेट में आकर उसकी मौत हो गई, वह सिर्फ बीस साल की थी। जैसे ही मुझे अपने साथियों के अनुभव याद आए, मैं डर से कांपने लगी। ये लोग भी अस्पताल में बहुत सम्मानित और अहम माने जाते थे। लेकिन परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के बिना शोहरत और पैसे की क्या अहमियत? प्रतिष्ठा और हैसियत असल में लोगों को भ्रष्ट करने और नुकसान पहुँचाने के शैतान के साधन हैं। ये शैतान के बुने हुए जाल हैं जिन्हें वह लोगों को जीवन भर शोहरत और पैसे के पीछे भागने के लिए लुभाने को बिछाता है, इसीलिए वो परमेश्वर और सृष्टिकर्ता के उद्धार से बहुत दूर हो जाते हैं। मैं प्रतिष्ठा और हैसियत के बंधन और बाधाएं झेल रही थी, इसलिए मैं कभी भी अपनी नौकरी और कर्तव्य के बीच सही चुनाव नहीं कर पाई। कितनी शर्म की बात थी! लोगों को बचाने के लिए अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य जीवन में एक बार मिलने वाला मौका है, और अब मैंने परमेश्वर के अनुग्रह से सच्चा मार्ग स्वीकार कर लिया था, पर मैंने सत्य पाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने का अवसर संजोया नहीं था। अगर मैं यह मौका चूक जाती, तो क्या मैं खुद को बर्बाद नहीं कर लेती? क्या यह महज मूर्खता न होती?
मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया। "एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो सामान्य है और जो परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करता है, परमेश्वर के जन बनने के लिए राज्य में प्रवेश करना ही तुम सबका असली भविष्य है और यह ऐसा जीवन है, जो अत्यंत मूल्यवान और महत्वपूर्ण है; कोई भी तुम लोगों से अधिक धन्य नहीं है। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, वो देह के लिए जीते हैं और वो शैतान के लिए जीते हैं, लेकिन आज तुम लोग परमेश्वर के लिए जीते हो और परमेश्वर की इच्छा पर चलने के लिए जीवित हो। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारे जीवन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो)। परमेश्वर के वचन ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। आज परमेश्वर के घर में एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का अनुसरण करना जीवन में सही मार्ग चुनना है, और यही सबसे सार्थक जीवन है। मैं पहले शैतान से भ्रष्ट होकर धोखा खा चुकी थी, और शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी। मैं पूरे मन से शोहरत और पैसे के पीछे पड़ी थी, और मुझे शैतान के धोखे और अनिष्ट से जूझना पड़ा। परमेश्वर के वचन ने मुझे शोहरत, पैसे और हैसियत के पीछे भागने के नतीजे और सार दिखाए, और मुझे समझ दी कि यह लोगों को भ्रष्ट और नष्ट करने का शैतान का जरिया है। अब परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य समाप्त होने को है, परमेश्वर की प्रबंधन योजना समाप्त होने वाली है, बड़ी आपदा पहले ही शुरू हो चुकी है। हम सत्य का अनुसरण करके ही इस आपदा से बच सकते हैं। यदि मैंने सत्य का अनुसरण न किया, इस कीमती और थोड़े से समय को शोहरत और पैसे के पीछे भागने में लगाया, तो आखिर मैं परमेश्वर के दिए सत्य और जीवन को कभी नहीं पा सकूँगी, और न ही परमेश्वर मुझे बचाएगा। तब परमेश्वर में मेरी आस्था व्यर्थ हो जाएगी, और मुझे जीवन भर इसका पछतावा रहेगा। जैसे प्रभु यीशु ने कहा, "यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?" (मत्ती 16:26)। मैं जानती थी कि मुझे जीवन में एक बार मिलने वाले इस मौके को संजोना है। मैं अब अपनी देह-सुख की खातिर जल्दबाजी नहीं कर सकती थी। लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य की इस अहम अवधि में मुझे सत्य का अनुसरण करने और सृजित प्राणी होने का कर्तव्य निभाने का अवसर को नहीं चूकना था। यह जीने का सबसे कीमती और सार्थक तरीका है। इस सोच के साथ, मैंने नौकरी छोड़कर पूरी तरह अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया। जब मैंने अपने पति को अपना फैसला सुनाया, तो उसने बेबसी से कहा, "पिछले कुछ साल में मैंने तुम्हें काम पर भेजने और यह नौकरी बचाए रखने की हर मुमकिन कोशिश की है। मैं बस यह चाहता हूँ कि तुम और पैसा कमाओ ताकि हम अच्छी जिंदगी जी सकें। मगर तुम्हारे मन में तो केवल तुम्हारा परमेश्वर है। मैं अब तुम्हें काबू में नहीं कर सकता। अब भविष्य तुम पर निर्भर है।" परमेश्वर मुझे रास्ता दिखा रहा था। उसके बाद मैं इस्तीफा देने की प्रक्रिया पूरी करने अस्पताल गई। अस्पताल प्रमुख ने मुझे बार-बार रोकने की कोशिश की, कहा, "डॉक्टर की नौकरी सुरक्षित होती है और अस्पताल कभी बंद नहीं होगा। अब अस्पताल में नौकरी पाना बहुत कठिन है। इसके अलावा तुम यहाँ एक प्रमुख कर्मचारी हो और तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। अभी पैसे भी बढ़ रहे हैं और कई तरह के नए फायदे मिलेंगे। ठीक से सोच लो!" मैं जानती थी कि यह शैतान का प्रलोभन था, शैतान मुझे परमेश्वर से दूर करने के लिए लुभाने और उसे धोखा देने के लिए अस्पताल प्रमुख का इस्तेमाल करना चाहता था, मैं उसकी चाल में आने वाली नहीं थी। तो मैंने अस्पताल प्रमुख को अपना नजरिया बता दिया, और वह बस मेरे इस्तीफे की प्रक्रिया पूरी कराने में जुट गया। नौकरी छोड़ने के बाद जब मैं कर्तव्य में फिर से जुटी तो मुझे काफी राहत मिली। मैं अब नौकरी के बंधन और काबू में नहीं थी, मेरे पास परमेश्वर के वचन खाने-पीने और कर्तव्य निभाने को अधिक समय था। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन ने मुझे शोहरत और हैसियत के बंधन और बाधाओं से आजाद कर दिया और मुझे जीवन में सही दिशा दी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?