दिखावा करने के बाद सीखा एक कठिन सबक
मैंने 2009 में अगुआ की भूमिका संभाली। जब कभी वरिष्ठ अगुआ किसी सभा का संचालन करने आतीं, सभी लोग उनसे समस्याओं पर संगति करने को कहते। मुझे बहुत ईर्ष्या होती। जाने कब मैं परमेश्वर के वचनों पर उतनी अच्छी संगति कर सकूंगी, और जाने कब सभी लोग मुझे घेरे मेरा समर्थन करेंगे। मुझे लगता यह बहुत शानदार होगा। उसी साल, कम्युनिस्ट पार्टी ने एक और बड़ा गिरफ्तारी अभियान शुरू किया, और खतरा बहुत बढ़ गया। हमारे अगुआ हमारे लिए सभाएं करने नहीं आ पा रहे थे। मैं सोचने लगी कि उच्च श्रेणी के अगुआ अक्सर हमारा सिंचन करते थे, तो मैं कितनी भी अच्छी संगति करूँ, दूसरों को तो बस यही लगेगा कि मैं उनकी बातें दोहरा रही हूँ। लेकिन वो नहीं आ पा रहे थे, इसलिए मुझे असली कौशल दिखाने का मौका मिल गया। मुझे परमेश्वर के और ज्यादा वचन सीखने थे, ताकि मैं सबको दिखा सकूँ कि मैं बिल्कुल उन्हीं की तरह संगति करके समस्याएँ सुलझा सकती हूँ, उनकी मदद के बिना, उन्हीं की तरह सब-कुछ संभाल सकती हूँ। फिर मैं सब लोगों का समर्थन और स्वीकृति पा लूँगी। इसलिए मैं जल्दी उठने लगी ताकि परमेश्वर के वचन पढ़ूँ, सार समझने के लिए दिमाग लगाऊँ और इस नई समझ की संगति करके सबकी मदद कर सकूँ। सभाओं में, मैं हमेशा सोचती कि क्या कहूं जिससे लोगों को प्रबुद्धता मिले, ताकि उन्हें लगे कि मुझमें काबिलियत है, मैं बातें समझती हूँ, और मेरी संगति प्रेरणादायक है, और फिर वे मुझे नई नज़र से देखें। मैं हमेशा दूसरों की संगतियाँ पहले करवा देती, फिर मैं अपनी समझ साझा करती, ताकि मेरी संगति सबसे व्यापक और प्रबुद्ध करनेवाली हो।
सहकर्मियों की एक सभा में, मैंने पाया कि कुछ टीम-अगुआ अपने काम में आलसी, गैर-जिम्मेदार, और अपने काम में पीछे थे। इससे मैं बेचैन हो गई, मैंने सोचा, कि मुझे परमेश्वर के कार्य की प्रवृत्ति दिखाने वाले वचन ढूँढ़ने होंगे और उनसे काम करने का आग्रह करना होगा, तब वे जान जाएंगे कि मेरी संगति ने उनकी मदद की है। मैंने उन्हें परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को समझने के बारे में परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए, फिर अपना गला साफ करके कहा, "परमेश्वर प्रकट होकर सत्य व्यक्त कर रहा है। यह पूर्ण होने का अनमोल मौका है, जिसे गंवा नहीं सकते। अगर हम चीजों को हल्के में लेंगे, अपना समय नष्ट करेंगे, काम में ढीले रहेंगे, तो हम विजेता बनने का अपना मौक़ा गँवा देंगे, फिर रोते और दांत पीसते हुए, विपत्तियों में डूब जाएंगे!" जैसे-जैसे मेरा जोश बढ़ता गया, वे और ज्यादा ध्यान लगाकर सुनने लगे, और बोले, कि वे अपने काम में ढील नहीं देंगे, और अपना काम अच्छी तरह करेंगे। एक बहन ने भावुक होकर कहा, कि उसने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को कई बार पढ़ा है, मगर उसे अच्छी तरह से समझ नहीं पाई। मेरी संगति ने उसमें शीघ्रता की भावना पैदा की है, वह अपने काम को बेपरवाही से करते हुए, आराम तलाशना बंद कर देगी, बल्कि दिल लगाकर अपना काम करेगी। मैं नहीं चाहती थी कि सब सोचें कि मैं दूसरी अगुआओं की बातें दोहराती हूँ, इसलिए मैंने कहा कि हमें परमेश्वर के वचनों पर मनन करना चाहिए, और ऐसे मुश्किल हालात में, जब उच्च अगुआ हमारे साथ सभा नहीं कर पा रहे और हमारा सिंचन करने वाला कोई नहीं, तो हमें परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके वचनों पर गंभीरता से मनन करना होगा। फिर वह हमारा मार्गदर्शन कर हमें प्रबुद्ध करेगा। फिर एक बहन ने सराहना करते हुए कहा, "आपमें वाकई काबिलियत है और आपको परमेश्वर के वचनों की समझ है। मुझमें आप जैसी अंतर्दृष्टि नहीं है।" मैंने कहा, परमेश्वर पक्षपात नहीं करता, हम सभी को सिर्फ कीमत चुकाने की जरूरत है, मगर मैं मन-ही-मन खुद से खुश थी। लगा जैसे मेरी कोशिश बेकार नहीं गई, मैं वास्तविक समस्याएँ सुलझा सकती हूँ। मैं काम करते रहना चाहती थी, ताकि सब लोग मेरी और ज्यादा सराहना करें।
बाद में एक बहन ने बताया कि उसका परिवार कम्युनिस्ट पार्टी के झूठ के फेर में पड़ गया है, और वे गिरफ्तारी के डर से उसे सभाओं में या कर्तव्य निभाने जाने नहीं देते। वह मुश्किल वक्त से गुजर रही थी, उसे पता नहीं था इससे कैसे पार लगे। मैंने बताया कि कैसे मैंने से बड़े लाल अजगर की चालों को पहचान कर, अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ दी, साथ ही कैसे कर्तव्य निर्वहन में परिवार द्वारा खड़ी की गई बाधाओं से निपटी। मैंने बड़ी भावुकता के साथ उन्हें बताया कि मैंने कैसे कष्ट झेले थे। फिर मैंने बताया कि उस मुकाम पर अगुआओं के लिए मैं मूल्यवान थी और वे मुझे बढ़ावा देते थे, और मैंने क्या सीखा और कैसे अपना विकास किया। मैं समझ गई थी कि परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं लेता, लेकिन अगर हम बस सच्चाई से खुद को खपाएं, तो परमेश्वर हमें आशीष देगा। इन बातों के बाद, वहाँ उपस्थित कुछ लोगों ने कहा कि इतनी छोटी उम्र में अपने कर्तव्य के लिए इतना सब-कुछ त्यागना आसान नहीं रहा होगा, और मेरी तुलना में, उनके संघर्ष तो गिनती में ही नहीं आते, और वे पर्याप्त खोज भी नहीं कर रहे हैं। हालांकि मैंने कहा कि परमेश्वर के वचनों से ही मुझे उसके लिए सब-कुछ छोड़ने की शक्ति मिली, पर मुझे तो यही लगता था कि मैं बेहतर खोजी हूँ। इसलिए, इस सभा के बाद, भाई-बहन मेरी और ज्यादा सराहना करने लगे। मैं भी उनकी इस श्रद्धा का आनंद ले रही थी। मैं परमेश्वर के वचनों पर और ज्यादा मेहनत से काम करने, और उन लोगों की अधिक सराहना पाने के लिए संगति करने को बेताब थी। सभाओं में, जब कभी कोई भाई-बहन किसी मुश्किल का जिक्र करते, मैं तुरंत परमेश्वर के संबंधित वचनों को ढूँढ़ने में लग जाती, फिर सभी लोग मेरी संगति और व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने की काबिलियत की प्रशंसा करते, और मैं हवा में उड़ने लगती। मुझे लगता जैसे मुझमें बड़ी ऊंची काबिलियत है, और मैं बढ़िया संगति कर सकती हूँ, अगुआओं की मदद के बिना भी, मैं लोगों की समस्याएँ सुलझा सकती हूँ। कलीसियाओं का एक दौरा करने के बाद, मुझे सच में खुद पर गर्व महसूस हुआ। लगा, मैंने बहुत-सी समस्याएँ हल कर दी हैं, और सबको मेरी संगति सुनना अच्छा लगता है। मुझे लगा मैं वास्तव में व्यावहारिक कार्य कर सकती हूँ, मैं अपनी अच्छी छवि बनाना चाहती थी, ताकि वे समझ सकें कि मेरी संगति कितनी असरदार थी। इसलिए, मैंने खुशी-खुशी उन्हें बताया कि सबकी समस्याएँ सुलझाने के लिए मैंने परमेश्वर के वचनों पर कैसे संगति की, मानो यह कोई अनमोल चीज हो। मैं और ज्यादा जोश में आ गई, दूसरे लोग पूरी तरह से रमे हुए, सुनकर नोट्स लिखते जा रहे थे, मुझसे पूछते कि मैंने परमेश्वर के वचनों के किन अंशों के बारे में बात की है, ताकि कोई बात छूट न जाए। बहन ली ने कहा, "आपमें बहुत अच्छी काबिलियत है, आपकी संगति बढ़िया है। अगुआ आ नहीं पा रहे पर आपने अब भी हमारी सभाएँ जारी रखीं, आपकी संगति में भी सुधार आया है। आपकी नियमित सभाओं के बिना, हम नहीं जान पाते कि दूसरों के साथ कैसे संगति करें।" उसने मेरी भरपूर सराहना की। उसकी बातें सुनकर मैं और ज्यादा खुश हो गई, लगा सभी आखिरकार समझ गए कि मैं कितनी सक्षम हूँ। दूसरों की बातें दोहराने का कोई अर्थ नहीं है—मैं समस्याएं सुलझा सकती हूँ, यही असली कौशल है। इसके बाद, मेरे सहकर्मी अपने सभी सवाल और समस्याएँ लेकर मेरे साथ खोजने मेरे पास आने लगे। मैं उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करती, उनकी आँखों में प्रशंसा देखकर, यूं महसूस होता जैसे दुनिया मेरे चारों ओर घूमती है।
सभी लोग मुझसे बड़ी गर्मजोशी से पेश आते। अगली सभा में, एक बहन ने मुझे बाइक पर आते देखा, तो तुरंत उसे पार्क करने में मेरी मदद करने दौड़ी चली आई, और जब मैं अंदर पहुँची, तो सब लोगों ने मुझे घेर लिया, किसी-न-किसी काम को संभालने में मेरी मदद माँगने लगे, किसी समस्या का हल पूछने लगे। मैंने बिना थके सभी की मदद की। चीजें यूं ही चलती रहीं, और कुछ भाई-बहन प्रार्थना करना और अपनी समस्याओं के बारे में सत्य खोजना बंद करके, सलाह के लिए सीधे मेरे पास आने लगे। कोई काम संभालने या किसी भी चीज से पहले, मेरे साथी और दूसरे सहकर्मी भी मेरी सलाह और संगति की प्रतीक्षा करते। फिर भी मैं खुद से बहुत खुश थी। मुझे लगा मैं बहुत ही अच्छी हूँ, कलीसिया की सबसे प्रमुख व्यक्ति हूँ। एक बार, एक सहकर्मी ने कहा कि किसी कलीसिया के सुसमाचार उपयाजक बहुत घमंडी हैं, वे सिद्धांतों का पालन नहीं करते और किसी की नहीं सुनते। मैंने सोचा, परमेश्वर के वचन इतने अधिकारपूर्ण हैं, वे कितने भी घमंडी क्यों न हों, उन्हें सुनना ही पड़ेगा। मुझे लगा उनकी संगति अच्छी नहीं थी, कलीसिया का कार्य करने के लिए किसी ज्यादा कुशल व्यक्ति की जरूरत है। मैंने खुद जाने का फैसला किया, ताकि वे मुझसे सीख सकें कि समस्या कैसे सुलझाई जाए। इसलिए मैंने उपयाजकों की एक बैठक बुलाई, और मसीह-विरोधियों के अहंकार और अड़ियलपन के बारे में, परमेश्वर के वचन सख्ती से पढ़े। वे सुसमाचार उपयाजक, सजा पाने वाले किसी अपराधी की तरह, सिर झुकाए हुए एक ओर बैठे रहे। यह देखने के बाद, निशाने पर लगने वाले परमेश्वर के वचन ढूंढ़ने की अपनी क्षमता पर मैं बहुत खुश हुई। फिर मैंने उनके कामों की प्रकृति और ऐसे ही काम करते रहने के परिणामों का विश्लेषण किया। उन्होंने दब्बू की तरह अपनी गलतियाँ मान लीं, और कहा कि वे सिद्धांतों का पालन करना चाहते हैं। मैं सोचने लगी कि इन जैसे लोगों से परमेश्वर के बेहद कठोर वचनों द्वारा निपटना चाहिए। वापस जाकर जब मैंने सबसे मुलाकात की, तो मैंने समय गँवाए बिना सबको बताया कि मेरी संगति से सुसमाचार उपयाजक आश्वस्त हो गए थे, और उस पूरे दृश्य का बड़े विस्तार से बयान किया। सही अंश ढूँढ़ने की मेरी क्षमता से सभी लोग और ज्यादा प्रभावित हुए, मैं खुश थी, लगा जैसे मुझमें सत्य की वास्तविकता है, कोई भी चीज मुझे उलझन में नहीं डाल सकती। लेकिन हमारी बैठक के बाद, एक टीम अगुआ को यह कहते हुए सुनकर मुझे झटका लगा, कि हमारी पिछली सभा के बाद, एक नई बहन ने उन्हें बताया कि मसीह कलीसियाओं में लोगों का सिंचन और अगुआई कर रहा है, मेरी संगति इतनी अच्छी थी कि उसे लगा कि कहीं मैं ही तो परमेश्वर नहीं हूँ। मुझे झटका लगा। वह इतनी अंधी कैसे हो सकती है? मैं तो बस एक भ्रष्ट इंसान हूँ! मैंने मसीह के सार और भ्रष्ट इंसान के बीच के फर्क के बारे में तुरंत संगति की, मगर मैंने बहुत अशांत महसूस किया। क्या मैं लोगों को परमेश्वर के सामने ले जाने के बजाय अपने सामने ला रही थी? ऐसा कैसे हो गया जबकि मेरी संगति परमेश्वर के वचनों के बारे में थी? लेकिन फिर मैंने सोचा, शायद इसलिए हुआ क्योंकि वह कलीसिया में नई थी, सत्य नहीं समझती थी। बाकी ज्यादातर लोगों ने इसलिए मेरा समर्थन किया, और मेरी संगति पसंद की क्योंकि इससे उन्हें मदद मिली। इस बारे में इस तरह सोचकर, मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया और आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि सबकी प्रशंसा और सराहना के आनंद में, पूरे जोश के साथ उसी राह पर चलती रही।
मार्च 2010 में एक दिन जब मैं एक मेजबान के घर के पास पहुँची, तो वहां कुछ सादी पोशाक में तैनात अफसरों ने मुझे ड्रग्स की लेन-देन के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। जब पता चला कि मैं वो नहीं जिसकी उन्हें तलाश है, तो उन्होंने मुझे छोड़ दिया, मगर उन्हें मुझ पर थोड़ा शक जरूर था। दूसरे सदस्यों की रक्षा करने के लिए, कलीसिया ने मुझे काम से निलंबित कर दिया, और अस्थाई रूप से दूसरों से संपर्क कटवा दिया। शुरुआत में, जिस बहन के साथ मेरी जोड़ी बनी थी, वह हर रात मुझसे कलीसिया की तमाम समस्याओं के बारे में पूछने आती। उसने कहा कि दूसरों के साथ संगति करते समय, वे उसे नीची नजर से देखते, और उसे जरा-भी वक्त नहीं देते हैं। वह निराश थी, उसे लगा जैसे वो सारा काम खुद नहीं संभाल सकती। मैंने अब भी आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि उसके साथ परमेश्वर की इच्छा के बारे में, शोहरत की फिक्र न करने, बल्कि परमेश्वर के भरोसे रहने पर संगति करती रही, साथ ही उसे बताया कि इन समस्याओं को सुलझाने के लिए संगति कैसे करें। मैं सोच रही थी कि क्या मुझे अपनी अगुआ को बताना चाहिए कि मेरी सुरक्षा की समस्या उतनी गंभीर नहीं है, तो मैं अपना काम फिर से शुरू कर सकती हूँ, क्योंकि कलीसिया को मेरी जरूरत है। लेकिन कुछ दिन बाद, उस बहन ने बताया कि मेरी चापलूसी करने, मुझसे हर बात पूछने, सत्य के सिद्धांतों को न खोजने, और दिल में परमेश्वर को रखने के लिए अगुआ उससे निपटी। अगुआ ने इसकी प्रकृति और परिणामों के बारे में बात की, और जोर दिया कि शायद पुलिस मेरी निगरानी कर रही है इसलिए किसी को मुझसे संपर्क नहीं करना चाहिए। उस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि मुझे यूं ही काम से निलंबित नहीं किया गया था, बल्कि यह मुझ पर बरसा परमेश्वर का क्रोध था, उसने मुझसे मेरी सेवा ले लेने की व्यवस्था की थी। मैं परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन किया, दूसरों के मेरी प्रशंसा करने और मेरी संगति के लिए लालायित होने के वे सारे पल मेरी आँखों के सामने आ गए। मैंने अपने दिल को टटोला, खुद से पूछा कि क्या भाई-बहनों का समर्थन वास्तव में मेरी संगति की गुणवत्ता के कारण था। अगर यह सच होता, तो इतना समय बीत जाने के बावजूद, वे सत्य को क्यों नहीं समझ पाए या सिद्धांतों के अनुसार काम क्यों नहीं कर पाए? मुश्किल घड़ियों में परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके सहारे रहने के बजाय वे मेरे भरोसे क्यों रहे? क्या मैं परमेश्वर का स्थान नहीं ले रही थी? तब जाकर मेरे मन में डर पैदा होने लगा। इस बारे में आत्मचिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "जहाँ तक तुम सभी का प्रश्न है, यदि कलीसिया तुम लोगों को सौंप दी जाए, और छह महीनों तक कोई भी तुम्हारा निरीक्षण न करे, तो तुम लोग भटकना शुरू कर दोगे। अगर कोई तुम्हारी एक वर्ष के लिए देख-रेख न करे, तो तुम उसे दूर ले जाओगे और गुमराह कर दोगे। दो साल गुजरने पर, अब भी अगर कोई तुम्हारी निगरानी न करे, तो तुम उसके सदस्यों को अपने सामने ले आओगे। ऐसा क्यों है? क्या तुम लोगों ने पहले कभी इस प्रश्न पर विचार किया है? मुझे बताओ, क्या तुम लोग इस तरह के हो सकते हो? तुम लोगों का ज्ञान केवल कुछ समय के लिए लोगों को पोषित कर सकता है। जैसे-जैसे समय बीतता है, यदि तुम वही एक बात कहते रहे, तो कुछ लोग इसे जान लेंगे; वे कहेंगे कि तुम अत्यधिक सतही हो, तुममें गहराई की कमी है। तुम्हारे पास सिद्धांतों की बात कहकर लोगों को धोखा देने की कोशिश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। अगर तुम इसे हमेशा इस तरह से जारी रखोगे, तो तुम्हारे नीचे के लोग तुम्हारे तरीकों, कदमों, और परमेश्वर में विश्वास करने और अनुभव करने के तुम्हारे प्रतिमान का अनुसरण करेंगे, वे उन शब्दों और सिद्धांतों को व्यवहार में रखेंगे। अंततः, तुम जिस तरह उपदेश पर उपदेश देते चले जाते हो, वे तुम्हारा एक प्रतिमान के रूप में इस्तेमाल करेंगे। तुम सिद्धांतों की बात करने के लिए अगुवाई करते हो, इसलिए तुम्हारे नीचे के लोग तुम से सिद्धांतों को सीखेंगे, और जैसे-जैसे बात आगे बढ़ेगी, तुम एक गलत रास्ता अपना चुके होगे। तुम्हारे नीचे के लोग उसी मार्ग पर चलेंगे जिसे तुम चुनोगे; वे तुमसे सीखेंगे और तुम्हारा अनुसरण करेंगे, इसलिए तुम महसूस करते हो: 'मैं अब शक्तिशाली हूँ; इतने सारे लोग मेरी बात सुनते हैं, और कलीसिया मेरे इशारे पर चलती है।' मनुष्य के अंदर का यह विश्वासघात की यह प्रकृति अचेतन रूप से तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को एक नाम मात्र में बदल देती है, और तब तुम स्वयं कोई एक पंथ, कोई संप्रदाय बना लेते हो। पंथ और संप्रदाय कैसे उत्पन्न होते हैं? वे इसी तरह से बनते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य का अनुसरण करना ही परमेश्वर में सच्चे अर्थ में विश्वास करना है')। "वे सभी जो अधोगति पर होते हैं स्वयं का उत्कर्ष करते हैं और स्वयं की गवाही देते हैं। वे स्वयं के बारे में शेखी बघारते हैं और आत्म-प्रशंसा करते हैं, और उन्होंने परमेश्वर को हृदय में तो बिल्कुल नहीं लिया है। मैं जिस बारे में बात कर रहा हूँ, क्या तुम लोगों को उसका कोई अनुभव है? बहुत से लोग लगातार खुद के लिए गवाही दे रहे हैं : 'मैं इस तरह से या उस तरह से पीड़ित रहा हूँ; मैंने फलाँ-फलाँ कार्य किया है और परमेश्वर ने मेरे साथ फलाँ-फलाँ ढंग से व्यवहार किया है; उसने मुझे ऐसा-ऐसा करने के लिए कहा; वह विशेष रूप से मेरे बारे में ऊँचा सोचता है; अब मैं फलाँ-फलाँ हूँ।' वे जानबूझकर एक निश्चित लहजे में बोलते हैं, और निश्चित मुद्राएँ अपनाते हैं। अंतत: कुछ लोग इस विचार पर पहुँचते हैं कि ये लोग परमेश्वर हैं। एक बार जब वे उस बिंदु पर पहुँच जायेंगे, तो पवित्र आत्मा उन्हें लंबे समय पहले ही छोड़ चुका होगा। यद्यपि, इस बीच, उन्हें नजरअंदाज किया जाता है, और निष्कासित नहीं किया जाता है, उनका भाग्य निर्धारित किया जाता है, और वे केवल अपने दण्ड की प्रतीक्षा कर सकते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। परमेश्वर के न्याय के प्रत्येक वचन ने मेरे दिल को भेद दिया, डर की तीव्र भावना ने मुझे जकड़ लिया। मैं ठीक वैसी हूँ जैसा परमेश्वर के वचनों ने बयान किया है। परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करते समय मेरे खास हाव-भाव, एक खास प्रस्तुति होती थी, मैं दूसरों को परमेश्वर के वचनों का अपना शाब्दिक ज्ञान और अपनी सैद्धांतिक समझ देती थी, उन्हें बताती थी कि चीजें कैसे की जाएं, किसका अभ्यास किया जाए। वे सभी परमेश्वर का मार्गदर्शन खोजे बिना मेरी संगति का मानक के रूप में इस्तेमाल करते, और मेरी संगति की प्रतीक्षा करते। मैं हमेशा अपना अनुभव साझा करती, अपने त्याग और कष्टों के बारे में लगातार बोलते रहने के हर मौके का फायदा उठाती, ताकि सब लोग मेरी सराहना करें। क्या मैं लोगों को अपने सामने लाकर, खुद की बड़ाई कर दिखावा नहीं कर रही थी? परमेश्वर ने मुझे अगुआ के रूप में उन्नत किया था, ताकि मैं समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोज सकूँ, परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही दूं, और लोगों को उसके सामने लाऊँ। मगर मैं लोगों के दिलों में जगह चाहती थी, इसलिए मैं हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, न कि अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य को खोजने और उसका अभ्यास करने के लिए, इससे मैं खुद को शाब्दिक ज्ञान से लैस करती, ताकि दूसरों के सामने दिखावा कर सकूँ। मैं अनोखी समझ दिखाने के लिए अपना दिमाग के घोड़े दौड़ाती, और रणनीति बनाकर आखिरी में संगति करते हुए सबकी बातों का सार पेश कर देती, ताकि मैं सबसे चतुर लगूं। अपने रुतबे का आनंद उठाते हुए, मैंने समस्या सुलझाने का प्रयोग, दिखावा करने और दूसरों से सराहना पाने के लिए किया। दूसरों पर गुस्सा करते हुए उनकी आलोचना के लिए परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करती, अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए दूसरों को परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के आदेश देती। मैं बस एक सृजित प्राणी थी, एक भ्रष्ट इंसान, लेकिन लोगों की सराहना पाने के लिए, मैं परमेश्वर के वचनों को ऐसे हाव-भाव से पढ़ती मानो मैं खुद परमेश्वर हूँ, परमेश्वर के कठोर वचनों द्वारा लोगों की आलोचना करती, ताकि वे मेरे अधिकार के सामने सिर झुकाएं। मैं खुद को परमेश्वर जैसा पेश कर रही थी। मैं इंसान जैसा नहीं, बल्कि एक दानव जैसा, शैतान जैसा बर्ताव कर रही थी। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी ज्यादा दुष्ट और बेशर्म थी। मैं कोई आम भ्रष्ट इंसान नहीं, बल्कि एक जिंदा शैतान थी, जिसे नरक में फेंक देना चाहिए! लेकिन मैं अभी भी संगति करने की अपनी क्षमता का खुल्लमखुल्ला दिखावा कर रही थी, तो जब दूसरे किसी मुश्किल में घिर जाते, तो प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बजाय वे उसे सुलझाने के लिए मेरी प्रतीक्षा करते, और जब मुझे काम से निलंबित कर दिया गया, तब भी मेरी सहकर्मी बहन, हर दिन खतरा मोल लेकर कलीसिया के कार्य के बारे में मुझसे सलाह लेने मेरे पास आती। उसके पास किसी भी चीज के लिए सत्य के सिद्धांत नहीं थे। भाई-बहन मेरी संगति को बेहतर समझकर उसे नीची नजरों से देखते, और वे उसकी अगुआई को स्वीकार नहीं करते। मैं सब लोगों को अपने सामने ला रही थी। यह एहसास होने पर मैं और ज्यादा डर गई, कि मैं ठीक किसी मसीह-विरोधी की तरह लोगों को गुमराह कर अपने सामने ला रही थी, अपना खुद का राज्य बना रही थी। मैंने अच्छी तरह समझ लिया कि मेरी समस्या कितनी गंभीर थी।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो 'खज़ाना' होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे 'अदम्य नायक' हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने 'पवित्र और अलंघनीय' कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में 'राजा' बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा आज्ञापालन करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ी-सी भी आज्ञाकारिता नहीं है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे)। परमेश्वर के न्याय के ये कठोर वचन मुझे यूं लगे मानो परमेश्वर ठीक वहीं है, मेरा अंतिम परिणाम घोषित कर रहा है, और मैं निढाल होकर जमीन पर गिर पड़ी। परमेश्वर के वचनों की अपनी शाब्दिक समझ के बारे में मैं हमेशा ज़ोर-ज़ोर से बोलती, संगति से लोगों की समस्याएँ सुलझाते हुए इस का प्रयोग, उन्हें गुमराह करने के मौके के रूप में करती, हर मोड़ पर सत्य के बारे में संगति करने के लिए खुद को और अपनी काबिलियत को उन्नत करती, ताकि लोग मुझे आदर से देखें, मुझ पर भरोसा करें, और मेरी अगुआई पर निर्भर रहें। किसी ने तो गलती से मुझे परमेश्वर तक मान लिया। क्या मैं एक मसीह-विरोधी की तरह लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान नहीं ले रही थी? मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर का देहधारी होना एक शानदार मौका है, और सभी भाग्यशाली हैं कि सच्चा परमेश्वर मिला। लेकिन कर्तव्य निभाने के मौके का इस्तेमाल कर मैं खुद को स्थापित कर रही थी, अनजाने ही लोगों को परमेश्वर से चुरा रही थी, और लोगों के दिलों में उसका स्थान ले रही थी। उन्होंने परमेश्वर के पोषण, मार्गदर्शन और आशीषों को भूलकर मुझे अपना मालिक मान लिया। मैं भाई-बहनों के उद्धार के मौके को छीन रही थी। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मैं किसी पर्वतराज की तरह पेश आऊँगी कि मैं इतना गिर सकती हूँ। फिर मैं आत्मग्लानि और पछतावे से भर उठी, और सच में खुद से घृणा करने लगी। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर स्वीकारते हुए कहा, "हे परमेश्वर, मुझे अभिशप्त होने योग्य हूँ! मैं खुद की बड़ाई कर रही थी, दिखावा कर रही थी, तुम्हारे लोगों को अपने सामने ला रही थी। अगर मुझे काम से निलंबित करने में तुम्हारी धार्मिकता प्रस्तुत नहीं हुई होती, तो कौन जाने मैं और कितनी दुष्टता कर जाती। मैं एक साल से भी ज्यादा से कलीसिया की अगुआ हूँ, और न सिर्फ मैं तुम्हें समझने में दूसरों की मदद नहीं कर पाई, बल्कि मैंने उन्हें तुमसे दूर रखा है, और राह का रोड़ा बन गई हूँ, मैंने उन्हें गुमराह किया है। मैंने उनका अपकार ही नहीं, बल्कि बहुत बुरा किया है, मैं तुम्हारे उद्धार के लायक नहीं हूँ। मैं जीने लायक भी नहीं हूँ, और तुम्हें मुझे हर तरह से दंड देना चाहिए। ..." इसके बाद थोड़ी देर तक मेरे आंसू बिल्कुल रुके ही नहीं। मुझे लगा मानो मैंने नरक का दरवाजा खोल दिया हो, और परमेश्वर मुझे उजागर कर हटा देगा, मैं यह भी उम्मीद कर रही थी कि वह जल्द-से-जल्द मुझे ख़त्म कर देगा, ताकि मैं उसके विरुद्ध यह जीवन न जियूँ।
इस दुख के बीच में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "फिलहाल, जब तक तुम लोगों के पास आशा की एक किरण है, तब तक, परमेश्वर अतीत के अपराधों को स्मरण रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाये रखनी चाहिए? 'मुझे अपने स्वभाव में परिवर्तन की चेष्टा, परमेश्वर को जानने, शैतान के द्वारा फिर कभी मूर्ख नहीं बनने, और ऐसा कुछ भी जिससे परमेश्वर का नाम लज्जित होता हो, नहीं करने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिए।' कौन-से मुख्य क्षेत्र निर्धारित करते हैं कि लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं और उनके लिए कोई आशा है या नहीं? बात का मर्म यह है कि धर्मोपदेश सुनकर, तुम सत्य को समझ सकते हो या नहीं, तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो या नहीं, और तुम बदल सकते हो या नहीं। यही वे मुख्य क्षेत्र हैं। यदि तुम केवल पछतावा महसूस करते हो, और जब कुछ करते हो तब बस वही करते हो जो तुम करना चाहते हो, उन्हीं पुराने तौर-तरीक़ों से करते हो, न केवल सत्य की तलाश नहीं करते, अब भी पुराने विचारों और पुराने अभ्यासों से चिपके रहते हो, और न केवल समझ से पूर्णतः रहित होते हो, बल्कि इसकी बजाय और बद से बदतर होते जाते हैं, तो तुम आशा से रहित होगे, और तुम्हें बट्टे खाते में डाल दिया जाना चाहिए। जब तुम्हारे पास परमेश्वर का अधिक ज्ञान और अपने बारे में गहन जानकारी होगी, तो अपने ऊपर तुम्हारा अधिक नियंत्रण होगा। अपनी प्रकृति के बारे में तुम्हारी अधिक जानकारी के कारण, तुम अधिक सुरक्षित हो पाओगे। और अपने अनुभवों के निचोड़ और जो सबक तुमने सीखा है, उनसे फिर तुम कभी असफल नहीं होगे। वास्तविक तथ्य यह है कि हर किसी में दोष हैं, बस उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जाता। सभी में वे हैं—कुछ में छोटे दोष हैं, और कुछ में बड़े दोष हैं; कुछ मुँहफट हैं, और कुछ घुन्ने हैं। कुछ लोग ऐसी चीज़ें करते हैं जिनके विषय में अन्य लोग जानते हैं, जबकि कुछ लोग दूसरों के इसके बारे में जाने बिना चीज़ें करते हैं। सभी के ऊपर दाग़-धब्बे हैं, और वे सभी कुछ निश्चित भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, जैसे अहंकार या मिथ्याभिमान; उन सभी ने अपराध किया है, सभी अपने काम में भटके हैं या कभी-कभी विद्रोही हुए हैं। और यह सब क्षम्य है, और भ्रष्ट लोगों द्वारा अपरिहार्य है। लेकिन जब लोग सत्य समझ लेते हैं, तो इससे बचा जा सकता है, आगे अपराध न करना संभव हो जाता है, और पिछले अपराधों से कभी भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं होती। मुख्य बात यह है कि क्या लोग पश्चात्ताप करते हैं, क्या वे वास्तव में बदल गए हैं : जो पश्चात्ताप करते हैं और बदल जाते हैं, वही बचाए जाते हैं, और जो लोग पश्चात्ताप नहीं करते और पूरे समय अपरिवर्तित रहते हैं, उन्हें हटा दिया जाता है। यदि सत्य समझ लेने के बाद भी लोग जानबूझकर अपराध करते हैं, बिलकुल भी पश्चात्ताप नहीं करते, पूरी तरह से अपरिवर्तित रहते हैं, तो फिर चाहे किसी भी तरह से उनकी काट-छाँट की जाए, उनके साथ निपटा जाए, या उन्हें चेतावनी दी जाए, कोई चीज काम नहीं आती, ऐसे लोगों का कभी उद्धार नहीं होता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की सेवा करने के लिए पतरस के मार्ग पर चलना चाहिए')। यह अंश मेरे दिल को छूने वाला था और इसने मुझे आत्मग्लानि से भर दिया। मैंने अपनी तमाम बुराइयों के बारे में सोचा। मैंने सही मायनों में प्रायश्चित नहीं किया था और अभी भी परमेश्वर को गलत समझ रही थी। यह मेरा बहुत अविवेकपूर्ण और अतर्कसंगत काम था। परमेश्वर परवाह नहीं करता कि हम कितनी भ्रष्टता दिखाते हैं। अहम बात यह है कि क्या हम सत्य स्वीकार सकते हैं, क्या हम सही मायनों में प्रायश्चित करके बदलते हैं। मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर को गलत समझना बंद कर देना चाहिए, बल्कि खुद को संवार कर सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और सच में आत्मचिंतन करना चाहिए। दिखावा करना और खुद की बड़ाई करना बंद करने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर ने मेरा जो भी अंत निर्धारित किया हो, मुझे सत्य का अनुसरण कर उसमें प्रवेश करना चाहिए, बदलने का प्रयास करना चाहिए, और परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे दुख देना छोड़ देना चाहिए। इन सब बातों का एहसास होने के बाद मैंने उतना उदास महसूस नहीं किया, और मैंने परमेश्वर के उपयुक्त वचनों की तलाश शुरू कर दी।
दो-चार अंश ऐसे थे, जिनसे मुझे अपने घमंड को बेहतर समझने में मदद मिली। परमेश्वर कहते हैं, "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। इसे पढ़कर मैं यह साफ़ तौर पर समझ गई कि मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर चलकर वो सारी दुष्टता इसलिए कर रही थी, क्योंकि मुझ पर मेरी अहंकारी प्रकृति का राज्य था। ये विचार जैसे "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," "लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए" मेरी जीवनशक्ति थे। मेरा ख्याल था कि दूसरों से ऊपर होना, मेरे चारों ओर लोगों का जमावड़ा होना ही गौरवशाली जीवन जीने का एकमात्र रास्ता है। ये जहर मेरी हड्डियों में उकेरे हुए थे, मेरी नसों में बह रहे थे, इन्होंने मेरी प्रकृति बनकर मुझे बेहद घमंडी बना दिया था। मैं हमेशा दूसरों पर रौब जमाना चाहती थी और सबके ध्यान का केंद्र बनना चाहती थी। मैंने दिखावा करने के कुछ सिद्धांत सीख लिए, ताकि सब लोग मेरी प्रशंसा करें, मेरे चारों तरफ जमा हो जाएं, और मेरी बातें सुनें। मैं बहुत आत्मतुष्ट थी, दूसरों द्वारा ऊंचा उठाए जाने का आनंद लेते हुए खुद की पीठ थपथपाती रहती। यह घिनौना था। मुझे जरा-भी आत्मज्ञान नहीं था और नहीं जानती थी कि सच में मैं क्या हूँ। जो संगति और दूसरों की समस्याओं में जो थोड़ी-बहुत मदद मैं कर पाई, वह पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से हुआ। मैं पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानती थी, इसलिए सोचती कि मैं जरूर काबिल हूँ, मुझे सत्य की वास्तविकता हासिल है, और मैंने बेशर्मी से खुद का दिखावा किया। सच तो ये है कि जिन लोगों को सत्य की वास्तविकता हासिल होती है, वे सिद्धांतों की बातें नहीं करते, बल्कि उन्हें अपने भ्रष्ट सार और परमेश्वर की धार्मिकता की सच्ची समझ होती है। वे सामान्य इंसानियत और समझ वाले होते हैं, और वे पवित्र आत्मा के कार्य और अपने कद में अंतर कर सकते हैं। वे परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही देते हैं, और हमेशा परमेश्वर के सामने जीते हैं, अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य को खोजते हैं। वे मेरी तरह कभी भी बेशर्मी से दिखावा नहीं करते। मैंने सोचा कि पौलुस को सराहना कितनी अच्छी लगती थी, वह हमेशा ऊँचे सिद्धांतों, बाइबल ज्ञान और धर्मशास्त्र का प्रचार करने पर ध्यान लगाए रहता था। जब उसे सराहना करने वाले लोग मिले, तो वह इतना घमंडी हो गया, कि उसने यह भी कहा, "क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है" (फिलिप्पियों 1:21)। यह कहना खुल्लमखुल्ला इस तरह पेश आना था मानो वह परमेश्वर हो, उसने मसीह के रूप में खुद की गवाही दी और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया। परमेश्वर उसे अभी तक दंड दे रहा है। मेरी लालसा, मेरे प्रयास, और मेरी राह भी पौलुस जैसे ही थे न? यह विचार कौंधने पर मैं और भी ज्यादा डर गई, मुझे और ज्यादा पछतावा हुआ, मैं परमेश्वर की धार्मिकता को महसूस कर सकी जो अपमान नहीं सहता। मैंने परमेश्वर के प्रति थोड़ी सच्ची श्रद्धा महसूस की, मुझे एहसास हुआ कि दूसरों की सराहना के पीछे भागना एक शैतानी स्वभाव है, और परमेश्वर के विरुद्ध होना है।
मैंने परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उसकी गवाही देने के बारे में उसके बहुत सारे वचन इकट्ठा किए, और दिल लगाकर उन्हें पढ़ा। दो-चार अंश ऐसे थे, जिन्होंने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्क हीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता होने के नाते, अगर तुम लोग परमेश्वर के चुने लोगों का नेतृत्व वास्तविकता में करना चाहते हो और परमेश्वर के गवाहों के रूप में सेवा करना चाहते हो, तो सबसे ज़रूरी है कि लोगों को बचाने में परमेश्वर के उद्देश्य और उसके कार्य के उद्देश्य की समझ तुम में होनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और लोगों से उनकी विभिन्न अपेक्षाओं को समझना चाहिए। तुम्हें अपने प्रयासों में व्यावहारिक होना चाहिए; केवल उतना ही अभ्यास करना चाहिए जितना तुम समझते हो और केवल उस पर ही बात करनी चाहिए जो तुम जानते हो। डींगें न मारें, बढ़ा चढ़ा कर नहीं बोलें, और गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियाँ न करें। अगर तुम बढ़ा चढ़ा कर बोलोगे, तो लोग तुमसे घृणा करेंगे और तुम बाद में अपमानित महसूस करोगे; यह बहुत अधिक अनुचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल वे ही अगुआई कर सकते हैं जिनके पास सत्य वास्तविकता है')। इनको पढ़ने पर मुझे अभ्यास की एक सच्ची राह मिली। मैं समझ गई कि परमेश्वर की गवाही देना सिर्फ लोगों के सामने परमेश्वर के वचन पढ़ना और उनका अभ्यास करने को कहना, या लोगों को सिखाने के लिए कुछ ऊँचे लगने वाले सिद्धांतों को साझा करना ही नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर की इच्छा और उसकी अपेक्षाओं के बारे में संगति करना है, परमेश्वर के वचनों का अपना निजी अनुभव साझा करना है, जैसे कि उसके वचनों ने आपका न्याय कैसे किया, ताड़ना कैसे दी, आपने कैसी भ्रष्टता दिखाई, परमेश्वर के वचनों ने आपको कैसे उजागर किया और आपने उन्हें कैसे समझा, इसके बाद आपने उन पर कैसे अमल किया, आपने परमेश्वर के कार्य और स्वभाव के बारे में क्या सीखा। मैं असली जीवन में अभ्यास के बारे में सोचे बिना परमेश्वर के वचनों के बारे खोखली बातें किया करती थी। इन तमाम वर्षों में मैं बेहतर नहीं हुई, बल्कि और ज्यादा घमंडी हो गई थी। मैं खुद को नुकसान पहुँचा रही थी और दूसरों को गुमराह कर रही थी। उस मुकाम पर मैंने समझ लिया कि मुझे अपने अभ्यास और प्रवेश पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा को ज्यादा खोजना, और अपनी भ्रष्टता और खामियों पर ज्यादा आत्मचिंतन करना चाहिए। मुझे अपने स्थान को जानकर परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और अनुभव द्वारा उसकी गवाही देनी चाहिए।
इसके बाद, परमेश्वर के वचनों पर संगति करते समय मैंने अपने मन में और ज्यादा श्रद्धा महसूस की, मैंने अपनी शाब्दिक समझ को साझा करने की हिम्मत नहीं की, बल्कि बस अपने अनुभव को ही साझा किया। मैंने सिर्फ उतनी ही बात की जितनी मैंने समझी, और दूसरों की सराहना के बारे में नहीं सोचा। मैं सिर्फ वही बातें करना चाहती थी, जो सही मायनों में परमेश्वर की गवाही देतीं। अपनी समझ को साझा करते समय, मैं बताती यह मेरी समझ मेरे कद के कारण नहीं बल्कि पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से आई है, मैंने सुनिश्चित किया कि सारा गौरव परमेश्वर को ही दूं। मैं सराहना पाने से डरने लगी। अपनी प्रशंसा से मैं घबरा जाती, और तुरंत परमेश्वर की गवाही देती, ताकि दूसरे जान सकें कि यह परमेश्वर के कार्य के कारण है। मैं पहले की तरह दंभी और खुद से खुश महसूस नहीं कर रही थी। ऐसा करने से मुझे सुकून मिला, और मैं परमेश्वर के बहुत करीब हो गई। इसने मुझे यह भी सिखाया कि अपने कर्तव्य में किसी की सराहना नहीं, बल्कि सत्य और परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चाहिए, मैं चापलूसी की अपनी पुरानी चाहत से घृणा करने लगी, इससे मुझे शर्मिंदगी होती। अब मैं सच्चाई से समझती हूँ कि जो भी थोड़ी-बहुत समझ और बदलाव मैं हासिल करती हूँ, वह पूरी तरह से मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?