छल-कपट और शंका सिर्फ तकलीफ लाती है
मैं कलीसिया में निरंतर वीडियो प्रोडक्शन की ट्रेनिंग में थी, फिर जून 2020 में एक दिन, अगुआ ने बताया कि कलीसिया को सामान्य मामले सँभालने वालों की जरूरत थी, और वहाँ मेरा तबादला करना चाहती थीं। खबर सुनकर मैंने सोचा, वह काम कड़ी मशक्कत वाला है, मेरे मौजूदा काम जितना अच्छा नहीं दिखता, जिसमें कौशल की जरूरत है। मगर यह जानकर कि ऐसा लोगों की कमी के कारण था, मुझे थोड़ा सुकून मिला। लेकिन बाद में, मैंने जाना, बहुत-से दूसरे लोगों का उस कर्तव्य में तबादला, बर्खास्त हो जाने के कारण किया गया था, और कुछ तो काफी बुजुर्ग भी थे। तब, मेरे दिल की सारी गलतफहमियाँ और प्रतिरोध सामने आ गए। अगर बिना कौशल के काम की बात थी, तो कोई भी कर सकता था। मैंने अपने आसपास के भाई-बहनों के बारे में भी सोचा जिनकी हमेशा तरक्की होती थी, जिन्हें हमेशा ज्यादा अहम काम मिल जाते थे। लेकिन जब परमेश्वर का कार्य खत्म होने को है, तब मुझे इतना मामूली ओहदा मिला। क्या मुझे उद्धार का मौका मिलेगा? लेकिन तब, मैं यह मान नहीं पाई। बस नकारात्मकता में डूब गई। मन में शंकाएँ घर कर गईं : उन्होंने सच में मेरा काम क्यों बदला? क्या यह काम के लिए जरूरी था? मैंने कभी भी सामान्य मामले नहीं सँभाले थे, मुझमें इसके लिए जरूरी कौशल नहीं थे। शायद अगुआ को लगा हो, मुझमें काबिलियत नहीं थी, मैं वीडियो प्रोडक्शन की ट्रेनिंग के लायक नहीं थी, इसलिए उन्हें मेरे तबादले का बहाना मिल गया। मैंने इसका बार-बार अंदाजा लगाती रही, सच में जानना चाहती थी कि मेरे लिए अगुआ का असली आकलन क्या था। जानना चाहती थी, यह "तरक्की" थी या "नीचे उतारना" था। कुछ दिन मैं बहुत उदास रही। खास तौर से जब मैंने सोचा कि अगुआ ने शायद मुझमें काबिलियत न होने के कारण उस काम में लगाया था, मुझे लगा, मेरी आगे की संभावनाएँ धूमिल थीं, और मैं सचमुच दुखी हो गई। मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारा, "हे परमेश्वर, मैं अपनी इस हालत को नहीं स्वीकार सकती, मन में आपको लेकर गलतफहमियाँ भर गई हैं। नहीं जानती, इसमें से कैसे उबरूं। मुझे खुद को जानने, इस नकारात्मकता से उबरने की राह दिखाओ।"
प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "यदि तुम हमेशा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर से पेश आते हो और उनसे परमेश्वर के सभी कार्य आँकते हो, परमेश्वर के वचन और कार्य मापते हो, तो क्या यह परमेश्वर को सीमित कर देना नहीं है, परमेश्वर का विरोध करना नहीं है? परमेश्वर जो कुछ करता है, क्या वह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होता है? और अगर नहीं होता, तो क्या तुम उसे स्वीकार या उसका आज्ञापालन नहीं करते? ऐसे में तुम्हें सत्य कैसे खोजना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए? यह सत्य से जुड़ा है; परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए लोगों को सृजित प्राणी के स्थान पर टिके रहना चाहिए। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर तुमसे छिपा हो या तुम्हारे सामने प्रकट हुआ हो, तुम उसका प्रेम महसूस कर पाओ या न कर पाओ, तुम्हें अपने दायित्वों, बध्यताओं और कर्तव्यों का पता होना चाहिए—तुम्हें अभ्यास के बारे में इन सत्यों की समझ होनी चाहिए। यदि तुम अभी भी यह कहकर अपनी धारणाओं से चिपके रहोगे, 'यदि मैं स्पष्ट रूप से देख सकूँ कि यह मामला सत्य और मेरी कल्पनाओं के अनुरूप है, तो मैं आज्ञापालन करूँगा; यदि यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है और मैं पुष्टि न कर सकूँ कि ये परमेश्वर के कार्य हैं, तो मैं पहले थोड़ी प्रतीक्षा करूँगा और जब यकीन हो जाएगा कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है, तो मैं उसका पालन करूँगा,' क्या यह परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाला व्यक्ति है? नहीं। ... एक सृजित प्राणी का कर्तव्य क्या है? (सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर परमेश्वर का आदेश मानना और परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करना।) बिल्कुल सही। और अब जबकि तुमने इसका मूल खोज लिया है, तो क्या इस समस्या का समाधान आसान नहीं है? एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर सृष्टिकर्ता का, अपने परमेश्वर का आज्ञापालन करना सबसे महत्वपूर्ण बात है जिसका पालन प्रत्येक सृजित प्राणी को करना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की आज्ञा मानना सत्य को प्राप्त करने का बुनियादी सबक है')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सृजित प्राणी के तौर पर, जो सबसे बुनियादी समझ मुझमें होनी चाहिए वह हर हालत में परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना है। मैं थोड़ी देर के लिए इसे न समझूँ, तो भी मुझे स्वीकृति और समर्पण भाव के साथ प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। अपने बर्ताव से तुलना करने पर मैंने देखा, समर्पण के लिए मेरी बहुत-सी शर्तें थीं। आम तौर पर मेरी धारणाओं के अनुकूल और मेरे हितों से न टकराने वाली हालत में, मैं उसे स्वीकार कर समर्पण कर पाती थी। मगर कर्तव्य में यह बदलाव मेरे भविष्य और भाग्य से जुड़ा था, तो मैं इसके आगे समर्पण नहीं कर पाई, और मैं इस बारे में पूछने को बेताब थी, जानना चाहती थी, सच में क्या हुआ था। बरसों की आस्था के बाद भी, मैं परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पित नहीं थी। कर्तव्य में छोटे-से बदलाव भर से, मेरे मन में खलबली मच गई, मैं बहुत प्रतिरोधी हो गई, बड़ी समस्या सामने आती तो न जाने क्या होता। क्या मेरा कोई आध्यात्मिक कद था? इसका एहसास कर मैं शर्मसार हो गई, समर्पण कर अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने को तैयार हो गई।
जब मैंने खुद को काम में झोंक दिया, तो पाया कि सामान्य मामले सँभालना, सिर्फ लंबे समय तक कड़ी मेहनत करने जितना आसान नहीं था, जैसा मैं सोचती थी। इस प्रक्रिया के हर भाग में प्रवेश के सिद्धांत हैं, मुझे लगा, परमेश्वर के घर का काम चाहे जो भी हो, सीखने के लिए सबक और प्रवेश के लिए सत्य होते हैं। मगर कुछ वक्त बाद, मैंने पाया कि काम संभालने में मैं दूसरे भाई-बहनों जैसी कुशल नहीं थी, मैं उनसे धीमी भी थी। कौशल और दक्षता में तो मैं उनसे बहुत पीछे थी। एक शाम एक अगुआ मुझसे बात करने आईं, बोलीं, इस काम में इतने लोग नहीं चाहिए, और उन्हें एक वीडियो प्रोजेक्ट संभालने के लिए मेरी जरूरत थी। यह सुनकर मेरा दिमाग सुन्न हो गया। मैंने अगुआ से मेरा कर्तव्य बदलने के विशेष कारण पूछने चाहे, लेकिन लगा, बेधड़क यूँ ही पूछ लेना उचित नहीं होगा। मन की बात मैंने मन में ही रोक ली। इसके बाद अपनी इस बातचीत के बारे में सोचती रही, उनकी बातों से अपने तबादले के कारण का अंदाजा लगाने की कोशिश करती रही। क्या मैं अपने काम में दक्ष नहीं थी, क्या वे मुझसे इसी कारण से छुटकारा पाना चाहती थीं? मगर वे वीडियो कार्य में मेरी जरूरत होने के बारे में जरूर बोली थीं, तो शायद यह एक आम तबादला था। लेकिन अगर यह सिर्फ काम की जरूरत को लेकर था, तो शायद कुछ वक्त बाद मैं यहाँ वापस आ जाऊँ, और मुझे निकालने की जरूरत ही न पड़े। वे सोचती होंगी, काबिलियत न होने के कारण मैं यह कर्तव्य नहीं निभा सकती। "सामान्य मामले संभालने के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत न होना" शायद मुझे जाने देने का बहाना था। इस बहन ने शायद मुझे परेशान न करने के लिए नहीं बताया कि मुझमें काबिलियत नहीं थी। उस पल, मैं उदास हो गई। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि इतने वर्षों की आस्था के बाद, मैं सामान्य मामले भी ठीक से नहीं सँभाल पाऊँगी। मैं किस लायक थी? क्या मैं कूड़ा थी? क्या मेरी आस्था में अभी भी उद्धार की उम्मीद बची थी? क्या मुझे उजागर कर त्याग दिया जाएगा? मेरे मन में बहुत-सी गुत्थियों वाले ख्याल थे, उदासी ने मुझे घेर लिया। जब बहन ने वीडियो कार्य के बारे में बताया, तो मैंने ध्यान से नहीं सुना, और जब वे मुझे काम का सारांश बताने वाली बैठक में ले गईं, तो मेरा पूरा ध्यान वहाँ नहीं था। अंत में तो मैं झपकियाँ भी लेने लगी थी। उस दौरान, मैं जरा भी जिम्मेदारी उठाए बिना, कर्तव्य में ढीली और आलसी थी। जब कोई मेरे तबादले के बारे में पूछता, तो मैं न सुनने का नाटक करती और जवाब नहीं देना चाहती। मैं सच में इस तथ्य का सामना नहीं करना चाहती थी कि मैंने कोई भी कर्तव्य ढंग से नहीं निभाया था। मैं अपने-आप से छिपना चाहती थी, किसी से नहीं मिलना चाहती थी। कुछ समय के लिए, मैं पूरी तरह अँधेरे में खो गई थी, परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकी। लगा, आस्था के मेरे मार्ग का अंत आ गया है, मैं बहुत पीड़ा में थी।
एक मुकाम पर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य में बदलाव को कैसे देखते हैं, फिर मैंने अपनी हालत की थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर कहते हैं, "सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति को अपने कर्तव्य में परिवर्तन स्वीकार करने चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। उन्हें आत्म-चिंतन भी करना चाहिए, समस्या का सार पहचानना चाहिए और अपनी कमियाँ माननी चाहिए। यह बहुत फायदेमंद चीज है, और लोगों के लिए इसे हासिल करना बहुत आसान है—यह मुश्किल नहीं है। व्यक्ति के कर्तव्य में परिवर्तन कोई दुर्गम बाधा नहीं होते; वे इतने सरल होते हैं कि कोई भी उनके बारे में स्पष्ट रूप से सोच सकता है और उनके साथ सही तरह से पेश आ सकता है। जब किसी सामान्य व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ होता है, तो कम से कम वह समर्पण कर सकता है, साथ ही आत्मचिंतन से लाभ उठा सकता है, और इस बात का ज्यादा सटीक आकलन कर सकता है कि उसके कर्तव्यों का निष्पादन उपयुक्त है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। वे सामान्य लोगों से अलग होते हैं, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से सहयोग नहीं करते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके प्रति घृणा महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : 'मुझे यह काम क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? मुझे ऐसा काम क्यों दिया जा रहा है जो महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह उजागर करके निकालने का तरीका है?' वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक बुरे होते हैं। यह बुराई कैसे प्रकट होती है? उनके विचार चरम, जटिल और गुप्त होते हैं। जो चीजें किसी सामान्य व्यक्ति, किसी अंत:करण और विवेक वाले व्यक्ति के साथ नहीं होतीं, मसीह-विरोधी के लिए वे आम बात हैं। जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़े विवेक और चेतना के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत तर्क, कुतर्क और प्रतिरोध करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। वे अपने शब्दों और कार्यों से प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि अनैतिक तरीके अपनाकर लोगों को सच बताने और ईमानदारी से बोलने के लिए मजबूर करते और फुसलाते तक हैं। वे इसे हल करने की कोशिश करते हैं : उनका तबादला क्यों किया गया? उन्हें अपना काम क्यों नहीं करने दिया गया? आखिर डोर किसके हाथ में थी? उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कौन कर रहा था? वे मन ही मन पूछते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ, वे यह पता लगाने की कोशिश करते रहते हैं कि वास्तव में चल क्या रहा है, ताकि वे यह जान सकें कि किसके साथ बहस करनी है या हिसाब चुकता करना है। वे आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने आना, अपने भीतर की समस्या को देखना, और अपने भीतर ही कारण खोजना नहीं जानते, वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते और आत्मचिंतन करके यह नहीं कहते, 'मैं जिस ढंग से काम कर रहा हूँ, उसमें क्या समस्या है? क्या मैं अनमना, लापरवाह और सिद्धांतहीन तो हूँ? क्या इसका कोई असर पड़ा है?' अपने आप से ये प्रश्न पूछने के बजाय, वे लगातार परमेश्वर पर संदेह करते रहते हैं : 'मेरा काम क्यों बदला गया? मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है? वे इतने अनुचित क्यों हो रहे हैं? वे मेरे साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? वे मेरी इज्जत के बारे में क्यों नहीं सोचते? वे मुझ पर इस प्रकार आक्रमण कर अलग-थलग क्यों करते हैं?' ये सभी 'क्यों' मसीह-विरोधी के भ्रष्ट स्वभाव और चरित्र का एक स्पष्ट प्रकाशन हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने देखा कि मेरा बर्ताव मसीह-विरोधियों जितना ही बुरा था। कर्तव्य बदलने पर, ऐसा नहीं लगा कि मैंने पलक भी झपकाया था, लेकिन दरअसल मेरे मन में हलचल मची हुई थी। मैं अंदाजा लगा-लगाकर बदलावों के कारणों और दोनों बार अगुआओं के हर शब्द के असली मायने पर गौर कर रही थी। मुझे यह भी शक हुआ कि सामान्य मामले सँभाल सकने की काबिलियत न होने के कारण ही मेरा तबादला किया गया, और मैंने परमेश्वर को गलत समझा कि उसने मेरे इतने तबादले करवाए, बेकार इंसान के रूप में उजागर किया, और मुझे त्यागने के लिए इसका इस्तेमाल किया। मेरी प्रकृति इतनी दुष्ट और चालबाज थी! मैं अपने कर्तव्य में बदलाव को लेकर बहुत ज्यादा सोच रही थी, शोध और विश्लेषण कर रही थी, अगुआ की बातों से पता लगाने की कोशिश कर रही थी कि वे असल में मेरे बारे में क्या सोचती थीं, इससे तय करना चाहती थी कि परमेश्वर के घर में मेरा ओहदा कितना ऊँचा या नीचा था, क्या परमेश्वर के दिल में सचमुच मेरी कोई जगह थी, मेरे लिए उद्धार और आशीष पाने का कितना मौका था। मैं शक्की थी, शंकाओं से सराबोर, प्रतिरोधी और परखने वाली, जो कि मसीह-विरोधी स्वभाव है। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : "मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। ईमानदार लोग सरलता से सोचते हैं। वे शंकाओं और सतर्कता के बिना, परमेश्वर और लोगों के साथ बेबाक और सच्चे होते हैं। वे सत्य को स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के बनाए हालात में उसकी इच्छा को खोजकर मनन करते हैं। परमेश्वर उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा जानने और सत्य हासिल करने देता है। उस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि मेरी चालबाजी और शंकाओं ने मुझे बहुत उदास और दुखी कर दिया था, परमेश्वर से काफी दूर कर दिया था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अब अपने चालबाज स्वभाव के साथ नहीं जीना चाहती। कर्तव्य के ये बदलाव मेरी धारणाओं के अनुकूल नहीं थे, मगर मैं उन्हें स्वीकार कर समर्पण करना चाहती हूँ, तुम्हारी इच्छा जानने के लिए सत्य खोजना चाहती हूँ।"
बाद में, मैं सोचती रही, अपने कर्तव्य में हुए हर बदलाव पर मेरी प्रतिक्रिया इतनी तीखी क्यों होती थी। फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनसे मुझे अपनी आस्था की मिलावटों को समझने में मदद मिली। "अपने काम में बदलाव के प्रति मसीह-विरोधी की प्रवृत्ति और दृष्टिकोण को देखा जाए तो, उनकी समस्या कहाँ है? क्या यहाँ समस्या बड़ी है? (हाँ।) उनकी सबसे बड़ी गलती यह है कि उन्हें काम में बदलाव को आशीष प्राप्त करने से नहीं जोड़ना चाहिए; उन्हें यह हरकत बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। वास्तव में, दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, लेकिन चूँकि मसीह-विरोधी का हृदय आशीषित होने की इच्छाओं से भरा होता है, इसलिए वे कोई भी काम क्यों न करें, वे इसे इस बात से जोड़ ही देते हैं कि वे आशीषित होंगे या नहीं। इस तरह, वे अपना काम ठीक से नहीं कर पाते, इसलिए उन्हें उजागर करके निकाल दिया जाता है; यह उनकी अपनी गलती है, वे खुद ही इस हताशा के रास्ते पर चल पड़े हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। "यह कर्तव्य में पूरी तरह से उचित बदलाव था, लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं कि यह उन्हें तंग करने के लिए किया जा रहा है, उनके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, परमेश्वर के परिवार में प्यार की कमी है, उन्हें मशीन समझा जा रहा है, जब जरूरत हुई, बुला लिया, जब जरूरत नहीं रही, लात मारकर एक तरफ कर दिया। क्या यह तर्क को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है? क्या इस तरह की बात कहने वाले इंसान के पास अंतःकरण या तर्क-शक्ति है? उसमें इंसानियत नहीं है! वह पूरी तरह से उचित मामले को विकृत कर देता है; वह पूरी तरह से उपयुक्त अभ्यास को नकारात्मक चीज में बदल देता है—क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्टता नहीं है? क्या ऐसा दुष्ट इंसान सत्य समझ सकता है? बिलकुल नहीं। यह मसीह-विरोधियों की समस्या है; उनके साथ जो कुछ भी होता है, वे उसके तर्क को तोड़-मरोड़ देंगे। वे विकृत तरीके से क्यों सोचते हैं? क्योंकि वे प्रकृति से अत्यंत दुष्ट होते हैं, सार रूप में दुष्ट होते हैं। मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार मुख्य रूप से दुष्ट होता है, जिसके बाद उसकी दुष्टता आती है, ये उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति उन्हें किसी भी चीज को सही ढंग से समझने से रोकती है, इसके बजाय वे हर चीज को विकृत कर उसकी गलत व्याख्या करते हैं, वे चरम सीमाओं पर चले जाते हैं, वे बाल की खाल निकालते हैं, और वे चीजों को ठीक से नहीं सँभाल पाते या सत्य की खोज नहीं कर पाते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचनों से समझ पाई कि मैं ठीक मसीह-विरोधी जैसा बर्ताव कर रही थी, सोचती थी, कर्तव्य निभाने और आशीष मिलने की बातें पेचीदगी से जुड़ी हुई थीं। मैं सोचती थी, तरक्की पाने और मुझे अहम लगने वाला कर्तव्य निभाने का अर्थ उद्धार का बेहतर मौका होता है। लेकिन बर्खास्त होने, या अपनी नजर में तुच्छ लगने वाला कर्तव्य निभाने से, उद्धार का मेरा मौका कम हो जाएगा। इस गलत नजरिए के कारण, कलीसिया के मेरा कर्तव्य बदलने पर, मैं सचमुच परेशान होकर ज्यादा ही सोचने लगी। मैं इसे सही ढंग से नहीं ले पाई, डरती थी कि सावधान न रही तो उद्धार और आशीष पाने की मेरी सारी उम्मीद जाती रहेगी। मैं अपनी आस्था में आशीषों को सबसे आगे रखती थी, इन तबादलों का सामना करते वक्त, मेरी पहली सोच थी कि यह तरक्की थी या मुझे नीचे गिरा दिया गया था। अगर वह नीचे वाला ओहदा दिखता, तो लगता मुझे नीचे गिरा दिया गया है, अब मुझे उजागर कर त्याग दिया जाएगा। एक छोटी-सी बात के लिए मैंने दुखी होकर अपना नाम काट दिया। मुझे आशीषों की बड़ी ख्वाहिश थी! परमेश्वर के घर के लिए लोगों का कर्तव्य बदलना आम बात है। कभी-कभी यह इंसान के आध्यात्मिक कद, काबिलियत या कौशल पर आधारित होता है, जो परमेश्वर के घर के कार्य और उनके अपने जीवन-प्रवेश को लाभ देता है, कभी-कभी कर्तव्य के प्रति लोगों के रवैये में समस्या होती है, वे भ्रष्टता में जीते हैं, तो कर्तव्य बदलने से, वे परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, परमेश्वर से प्रायश्चित कर सकते हैं, और अब गलत रास्ते पर नहीं चलते। यह परमेश्वर का महान उद्धार है। कभी-कभी, काम के लिए यह जरूरी होता है, और सही समय पर उचित बदलाव करने होते हैं। अगुआ काम की जरूरतों के अनुसार चल रही थीं, सामन्य मामले संभालने में मुझे सच में मुश्किल होते देख, उन्होंने ऐसा कर्तव्य दिया जो मेरे कौशल के अनुकूल था, ताकि मैं काम आ सकूं। यह अच्छी बात थी। लेकिन प्रकृति से मैं बहुत दुष्ट और धूर्त थी, मैं सिर्फ आशीष पाने के बारे में ही सोचती थी, आशीष पाने पर होने वाली बातों को जोड़ती थी, और चीजों को तोड़-मरोड़ कर देखती थी। लगा, मेरा कर्तव्य मुझे उजागर करने और त्याग देने के लिए बदला गया था। कैसी बेतुकी बात है! परमेश्वर के खिलाफ मेरे मन में गलत धारणाएँ और बचाव थे। इस तरह मैं सत्य जानकर उसमें कैसे प्रवेश कर सकती थी? अपना कर्तव्य सही ढंग से कैसे निभा सकती थी? इस ख्याल से मुझे थोड़ा पछतावा हुआ, अंधी होने और सत्य का अनुसरण न करने पर मैंने खुद से घृणा की। अब मैं वैसी नहीं होना चाहती थी। मैं आशीष पाने की अपनी चाह छोड़ने, परमेश्वर के बनाए हर हालात में सत्य खोजने और अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका मुख्य आधार यह है कि उनमें अंतरात्मा और समझ है या नहीं। अगर लोग इस बात को ध्यान में रखते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनमें अंतरात्मा और समझ है। ऐसे लोगों के उद्धार की आशा होती है। अगर वे इस मर्यादा को लांघते हैं, तो उन्हें निकाल दिया जाएगा। तुम लोगों की लाल रेखा कौन-सी है? तुम कहते हो, 'भले ही परमेश्वर मुझे पीटे, डांटे, मुझे नकारे और न बचाए, फिर भी मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मैं बैल या घोड़े की तरह हो जाऊंगा : मैं अंत तक सेवा करके परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल दूँगा।' यह सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? अगर तुम सच में तुम्हारा चरित्र और संकल्प ऐसा है, तो मैं तुम्हें स्पष्टता से कहता हूँ : तुम्हारे उद्धार पाने की आशा है। अगर तुम्हारा चरित्र ऐसा नहीं है, तुममें अंतरात्मा और समझ नहीं है, तो तुम अंत तक सेवा नहीं कर पाओगे। जानते हो परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसे पेश आएगा? नहीं जानते। जानते हो परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा कैसे लेगा? तुम यह भी नहीं जानते। अगर तुम्हारी बुनियाद मजबूत नहीं है, तुम्हारे पास कोई मर्यादा रेखा नहीं है, अनुसरण का उचित साधन नहीं है, तुम्हारी नैतिकता और मूल्य सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो नाकामयाबी, विफलता या परीक्षण और शोधन के समय, तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे—तब तुम खतरे में होगे। अंतरात्मा और समझ की क्या भूमिका होती है? अगर तुम कहते हो, 'मैं ये सब उपदेश सुन चुका हूँ और मुझे सत्य की थोड़ी समझ भी है। लेकिन मैं इन्हें व्यवहार में नहीं लाया, मैंने परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया है, परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करता—अगर अंततः परमेश्वर मुझे त्याग देता है और मुझे नहीं चाहता है, तो यह परमेश्वर की धार्मिकता होगी। भले ही परमेश्वर मुझे दंड दे, धिक्कारे, मैं परमेश्वर को नहीं त्यागूँगा। मैं कहीं भी जाऊँ, लेकिन परमेश्वर का प्राणी ही रहूँगा, हमेशा परमेश्वर में विश्वास रखूँगा और भले ही मुझे बैल या घोड़े की तरह काम करना पड़े, मैं अनुसरण करता रहूँगा और अपने अंत की परवाह नहीं करूँगा'—अगर तुम्हारा संकल्प सच में ऐसा है, तो अच्छी बात है : तुम दृढ़ रह पाओगे। लेकिन अगर तुम लोगों में इस संकल्प की कमी है और इन चीजों के बारे में कभी सोचा नहीं है, तो निस्संदेह तुम लोगों के चरित्र में, तुम्हारी अंतरात्मा और समझ में समस्या है। क्योंकि तुमने कभी परमेश्वर के लिए कुछ करना ही नहीं चाहा। तुम हमेशा बस परमेश्वर से आशीष माँगते रहे हो। तुम मन ही मन गुणा-भाग करते रहे हो कि परमेश्वर के घर में कुछ करने या कष्ट उठाने से तुम्हें क्या आशीष मिलेगा। अगर तुम इन्हीं चीजों का हिसाब-किताब लगाते रहते हो, तो तुम्हारे लिए दृढ़ रहना बहुत मुश्किल होगा। तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुममें अंतरात्मा और समझ है या नहीं। अगर तुममें अंतरात्मा और समझ नहीं है, तो तुम बचाए जाने के योग्य नहीं हो, क्योंकि परमेश्वर राक्षसों और जानवरों को नहीं बचाता। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का मन बनाते हो, पतरस के मार्ग पर चलते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, सत्य समझने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हारे लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करेगा जो तुम्हें अनेक परीक्षणों और शोधन का अनुभव कराकर पूर्ण बनाएँगी। यदि तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग को नहीं चुनते, बल्कि मसीह-विरोधी पौलुस के मार्ग पर चलते हो, तो क्षमा करना—परमेश्वर फिर भी तुम्हारी परीक्षा लेगा और जाँच करेगा। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तुम परमेश्वर की परीक्षा में टिक नहीं पाओगे; अगर तुम्हारे साथ कुछ बुरा होता है, तो तुम परमेश्वर की शिकायत करोगे, और जब तुम्हारी परीक्षा होगी, तो तुम परमेश्वर को त्याग दोगे। उस समय तुम्हारी अंतरात्मा और समझ किसी काम नहीं आएँगी और तुम निकाल दिए जाओगे। जिनमें अंतरात्मा या समझ नहीं होती, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता; यह न्यूनतम मानक है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं सोच में पड़ गई। कर्तव्य बदले जाने के बाद, मुझे लगा, अब उद्धार की कोई उम्मीद नहीं रही। मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया और शिकायत की। मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह और नकारात्मक थी, और मैंने इसका इस्तेमाल अपना असंतोष जाहिर करने के लिए किया। मुझमें वाकई इंसानियत और समझ नहीं थी, मुझमें सबसे बुनियादी जमीर भी नहीं था। मैं उन जैसी थी जो आशीष पाने की उम्मीद चूर हो जाने के बाद अपना कर्तव्य नहीं निभाते। अगर समय पर परमेश्वर ने रास्ता नहीं दिखाया होता, आशीष पाने की मेरी मंशाओं और आकांक्षाओं को नहीं समझने दिया होता, भविष्य की उम्मीदें चूर हो जाने पर अपना बदसूरत, शैतानी चेहरा देखने न दिया होता, तो मैं कितना नीचे गिर गई होती, यह सोचकर भी घिन आती है। परमेश्वर यकीनन कर्तव्य निभाने की मेरी योग्यता छीन चुका होता, मुझे त्याग दिया होता। उस संभावना के बारे में सोचना बड़ा डरावना है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि आस्था में लोगों का आत्मगत अनुसरण कितना अहम होता है। परमेश्वर को सच में खोजने वाले अपने कर्तव्य में सच्चे होते हैं, और अपनी आस्था या कर्तव्य में आशीषों की मांग नहीं करते। वे अच्छे परिणाम और मंजिल न मिलने पर भी खुशी से सेवा करते हैं। इस प्रकार का चरित्र हर माहौल के परीक्षणों का सामना करने के लिए जरूरी होता है। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का एक मार्ग भी मिला। मैं जो भी कर्तव्य निभाऊँ, मुझे समर्पण करना होगा, सत्य के अनुसरण पर ध्यान लगाना होगा, अपनी आस्था में, मिलावटों को शुद्ध कर बदलना होगा।
एक बार मैंने अपने धार्मिक कार्यों में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे उद्धार के लिए परमेश्वर के मानकों की थोड़ी व्यावहारिक समझ मिली। "कुछ लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि जितने अधिक वर्षों से उन्होंने परमेश्वर में विश्वास किया है, उतनी ही अधिक उनके बचाए जाने की संभावना होती है। कुछ लोग सोचते हैं कि जितना अधिक वे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, उतनी ही अधिक उनके बचाए जाने की संभावना होती है, या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, पाप से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य समझकर सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, वह कितना कष्ट सहता है, या उसमें कोई गुण या खूबियाँ हैं या नहीं। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज, तुम वास्तव में कितने सत्य समझते हो? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पाई कि किसी के बचाए जाने का उसके कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं होता। उद्धार इस बात पर होता है कि क्या उसने सत्य हासिल किया है, पाप और शैतानी स्वभाव को त्याग दिया है, और क्या वह सच में परमेश्वर को समर्पित है। सत्य हासिल करना इंसान के अनुसरण और उसके मार्ग के भरोसे होता है। परमेश्वर धार्मिक है, वह कभी भी पक्षपाती नहीं होता। व्यक्ति की काबिलियत या कर्तव्य जो भी हो, अगर वह सत्य का अनुसरण कर अपने स्वभाव में बदलाव पर ध्यान देता है, तो वह धीरे-धीरे सत्य जान सकता है, भ्रष्टता त्याग सकता है और बचाया जा सकता है। मैंने ऐसे कुछ अगुआओं को याद किया जिन्हें मैं पहले जानता था। वे अनुसरण के पक्के लगते थे, सभाओं में उनकी संगति बहुत स्पष्ट होती थी, इसलिए मुझे लगा, वे जरूर बचाए जाएँगे। मैं उनकी चापलूसी और आदर करता था। मुझे हैरानी हुई जब बाद में उन्हें मसीह-विरोधी मार्ग अपनाने के कारण उजागर किया गया। वे अपनी आस्था के पक्के लगते थे, उनकी संगति बढ़िया होती थी, मगर उसमें सिर्फ सिद्धांत भरे होते थे, दूसरों को गुमराह करने के लिए एक झूठी छवि होती थी। असलियत में, वे शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रहे थे, कोई असली काम किए बिना, अपना ही उद्यम तैयार कर रहे थे। नतीजतन, परमेश्वर के घर का कार्य गंभीरता से बाधित हुआ, और उन्हें त्याग दिया गया। मैंने सामान्य काम करने वाले ऐसे भाई-बहनों को भी याद किया, जिनके कर्तव्य बहुत प्रभावी नहीं थे, मगर उनका ध्यान सत्य के अनुसरण पर केंद्रित था। समस्याएँ आने पर वे थोड़ी भ्रष्टता दिखाते, मगर वे आत्मचिंतन कर खुद को जान सके, अपनी भ्रष्टता ठीक करने के लिए सत्य पर अमल कर सके। वे अपना जीवन स्वभाव बदल रहे थे। अपनी बात कहूँ, तो मैं सच में सत्य का अनुसरण किए बिना वर्षों से विश्वासी थी, इसलिए अब भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाई थी। अपने कर्तव्य में थोड़े-से बदलाव के अलावा और कुछ न झेल कर भी, और बिना किसी समर्पण के मुझे बड़ी गलतफहमी और शिकायतें थीं। मैं नकारात्मकता से नहीं बच सकी थी। सत्य के अनुसरण और अभ्यास पर ध्यान दिए बिना, परमेश्वर का कार्य खत्म होने पर, मुझे यकीनन खाली हाथ छोड़ कर त्याग दिया जाता।
अपने कर्तव्य में इन बदलावों से गुजरकर मुझे अपने चालबाज, दुष्ट स्वभाव की थोड़ी समझ मिली। मैं यह भी समझ सकी कि आस्था पर मेरा नजरिया और आशीष पाने की मेरी मंशाएँ नहीं बदली थीं, मुझे एहसास हुआ कि इंसान के उद्धार का उसके कर्तव्य से कोई नाता नहीं होता। अहम बात यह है कि क्या वह सत्य का अनुसरण कर सकता है, क्या उसका जीवन स्वभाव बदल रहा है, क्या वह परमेश्वर को समर्पित होता है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?