रुतबे के पीछे भागने का दुख
2017 में मुझे कलीसिया का अगुआ चुना गया, मुझे दो बहनों के साथ कई कलीसियाओं के काम पर नज़र रखने की जिम्मेदारी दी गई। जब मेरी बहनों ने देखा कि मैं उनसे तेज़ काम करती हूँ और काम पर चर्चा करते समय अच्छे सुझाव भी देती हूँ, तो उन्हें जलन हुई, कहने लगीं कि मुझमें काम करने की काबिलियत और गुण है। अपनी बहनों की बात सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने सोचा, "पहले, मेरे बॉस कंपनी में मेरी अहमियत समझते थे, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, मेरे भाई-बहनों ने मेरा समर्थन किया। अब अगुआ के मेरे काम में सहकर्मी भी मेरे बारे में ऊँचा सोचती हैं। लगता है मुझमें वाकई काबिलियत है। बड़े अगुआ भी मेरी काबिलियत देखकर मुझे मेरे सहकर्मियों से बेहतर समझेंगे।" ऐसा सोचकर मुझे अपने काम में और भी प्रेरणा मिलती। समय के साथ, कलीसिया के काम के बारे में ज़्यादातर फैसले मैं ही लेने लगी। मेरी बहनें मेरी व्यवस्था के हिसाब से ही काम करती थीं, उस एहसास से मुझे बड़ी खुशी मिलती थी।
फिर अगुआओं ने बहन चेन को हमारे साथ काम करने भेजा। सभा में, मैंने देखा कि उनकी सहभागिता बहुत व्यावहारिक थी। मुझे लगा उनके साथ काम करने से मेरा फायदा ही होगा, तो मैं बहुत खुश थी। मगर उसके बाद, हर सभा में जब मैंने बहन चेन की व्यावहारिक और उजली संगति देखी, भाई-बहनों को उसकी बातें ध्यान से सुनते और सहमति में सिर हिलाते देखा, तो मुझे चिंता होने लगी। मैंने सोचा, "पहले सभाओं और सहभागिता में मेरा बोलबाला था, पर अब हर कोई उसकी सहभागिता सुनना चाहता है, तो अब मेरे बारे में ऊँचा कौन सोचेगा?" मैं उससे जलने लगी क्योंकि मुझे डर था वो मुझसे आगे निकल जाएगी। उसके बाद, मैंने देखा कि जब भाई-बहनों को अपने काम में कोई परेशानी आती थी तो बहन चेन फौरन उनकी मदद करने के लिए सहभागिता करती थी और काम को बहुत तेज़ी से पूरा करती थी। पहले कोई समूह नहीं बनाया गया था क्योंकि इसके लिए सही लोग नहीं मिले थे, मगर उसे समूह बनाने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। जब हमारे अगुआ सभाओं में आते, तो वो कलीसिया के काम के बारे में अच्छे सुझाव भी देती। इससे मुझे जलन के साथ-साथ ईर्ष्या भी होने लगी। मैं चाहती थी कि मुझमें भी वैसी ही काबिलियत हो, ताकि भाई-बहन उससे ज़्यादा मेरे बारे में ऊँचा सोचें। मैं तो यह भी चाहती थी कि हमारे अगुआ उसे दूसरी जगह ट्रांसफर कर दें, ताकि कोई मेरी चमक न चुरा सके और भाई-बहन मुझे सबसे अच्छी मानें। फिर, कई कलीसियाओं में चुनाव हुए और इसके लिए अगुआओं ने हमेशा बहन चेन से मदद माँगी। इससे मुझे लगा जैसे मेरा कुछ छिन गया है। जिन्हें चुनावों का काम देखने के लिए कहा जाता है वो दूसरों को पहचानने वाले काबिल लोग होते हैं। पहले, अगुआ हमेशा मुझसे मदद करने को कहते थे। अब, वे बहन चेन को कहते हैं। लगता है जैसे वो अगुआओं के लिए बहुत अहम है, और मैं अगुआओं के लिए कोई अहमियत नहीं रखती। खास तौर पर बाद में हमारे अगुआओं ने कलीसिया के कई अहम कामों की जिम्मेदारी बहन चेन को दी जिससे मुझे और भी बुरा लगा।
एक बार, जब किसी कलीसिया को अपने अगुआओं और उपयाजकों को चुनना था, तो बहन चेन को उस कलीसिया के लोगों के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, सिंचन कार्य के लिए चुनी गई उपयाजक बुरी हालत में थी, अपने कामों में उदासीन और लापरवाह थी। मैं ठीक से जानती थी ये बहन सिंचन कार्य की उपयाजक बनने लायक नहीं, पर मैं बहन चेन से जलती थी, इसलिए इस मामले में कुछ नहीं कहना चाहती थी। मैंने सोचा, "तुमने इस बहन को चुना है, तो यह गलत चुनाव तुम्हारी गलती है। देखते हैं, जिसे तुमने चुना है वो असल में काम कर पाती है या नहीं।" उसने कुछ महीनों तक सिंचन कार्य देखा, फिर काबिलियत न होने का आरोप लगने पर इस्तीफा दे दिया। बाद में, बहन चेन ने मेरे खुशामदी इंसान होने और समस्याओं के बारे में जान कर भी चुप रहने को लेकर दो बार मेरी आलोचना की। हालांकि मैंने बहस नहीं की, मगर मन-ही-मन सोचा, "इस काम की ज़िम्मेदारी तुम्हें मिली है, काम अच्छा होगा तो उसका श्रेय भी तुम्हें ही मिलेगा। मैं ज़्यादा कुछ क्यों कहूँ?" उस दौरान बहन चेन मेरी परेशानी का सबब बनी हुई थी, मैं उससे बहुत चिढ़ती थी। मुझे उससे नफ़रत थी क्योंकि उसने मेरी चमक चुरा ली थी और मैं बहुत ज्यादा दुखी थी। बाद में, बहन चेन को काम में समस्या आई और उसने मेरी राय माँगी, तो मैंने बेपरवाही से जवाब दिया। उस तरह, कहने को तो मैं उसके साथ अपने कर्तव्य निभा रही थी, मगर काम के बारे में हमारे बीच कोई भी संवाद या मैत्रीपूर्ण सहयोग नहीं था। एक बार, जिस काम की जिम्मेदारी बहन चेन की थी उसमें कुछ समस्याएं आईं, इस पर हमारे अगुआ ने एक सभा में उसकी आलोचना की। आरोप लगने पर बहन चेन रोने लगी, मगर मैं खुश होते हुए मन-ही-मन कहने लगी, "अब भाई-बहन तुम्हारी असली काबिलियत देखेंगे। अब तुम उतनी अच्छी नहीं दिख रही, लगता है मुझे काबिलियत दिखाने का मौका मिल गया।" बाद में, अगुआओं को अब भी बहन चेन को अहमियत देते देख मुझे हैरानी हुई। उसके पास अब भी कलीसिया के कई अहम कामों की ज़िम्मेदारी थी, इससे मुझे बहुत निराशा हुई। अपने कामों में मेरी रुचि बिल्कुल खत्म हो गई। मैं उससे परेशान भी होने लगी। एक बार, वीडियो टीम को काम में कुछ मुश्किलें आ रही थीं, बहन चेन ने मुझे उन्हें हल करने के लिए कहा। मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थी। मैंने सोचा, "अगर मैं ऐसा करती हूँ, तो सारा श्रेय तुम्हें ही मिलेगा, मेरा तो नाम भी नहीं लिया जाएगा। जब से आई हो, तभी से इस काम की जिम्मेदारी तुम्हारे पास है, अब खुद जाकर इसे हल करो।" मेरे मन में एक बुरा विचार भी आया, "काश, तुम अपना काम न कर पाओ, ताकि कोई तुम्हारे बारे में ऊँचा न सोचे।" मैंने बड़ी ढिठाई से कहा, "मैं नहीं जा रही।" उस समय, मैंने बहन चेन को वहां बेबस और मौन बैठे देखा, मुझे भी कुछ अच्छा नहीं लगा, मैं जानती थी कि कलीसिया का काम हमारी साझा जिम्मेदारी है, मुझे यह करना चाहिए, इसलिए मैं बेमन से जाने को तैयार हो गई। मगर मेरी मंशाएं गलत थीं, मैं यह साबित करना चाहती थी कि मैं बहन चेन से बेहतर हूँ, इसलिए मेरे काम में परमेश्वर की सुरक्षा और मार्गदर्शन नहीं था, वीडियो टीम की समस्याएं भी हल नहीं हुईं। तब मैं दौलत और शोहरत के पीछे भागने की हालत में जी रही थी, मेरी आत्मा में अंधकार बढ़ता गया और मेरे कामों में रुकावटें आती रहीं। मैं इस डर से कुछ नहीं बोली कि लोग मुझे नीची नज़र से देखेंगे। जिन कामों को मैं देखती थी, वे सभी निष्प्रभावी थे। तब मैं खास तौर पर बहुत दुखी थी। मैंने सोचा, "मैं अपने काम कितने अच्छे से पूरे करती थी, मेरे भाई-बहन मेरी मदद करते थे, मेरे सहकर्मी भी मेरी बात सुनते थे, मगर अब, मैं बहुत दयनीय महसूस करती हूँ। बहन चेन के कारण ही मुझे लगता है कि मैं कोई काम ठीक से नहीं कर पाती।" उस समय, बहन चेन को देखते ही मैं चिढ़ जाती। मैं किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहां मुझे उसे देखना न पड़े।
उसके बाद, जिन कलीसियाओं के काम मैं देखती थी उनमें कई समस्याएं आने लगीं। कलीसिया के काम का हर पहलू निष्प्रभावी था, सब कुछ जैसे ठहर सा गया, इससे मुझे अपराध बोध होने लगा, मगर मैंने अपनी हालत ठीक करने के लिए कभी सत्य नहीं खोजा। हमारे अगुआ ने हमें विचार करने को कहा कि हमारा काम असरदार क्यों नहीं है, मगर मुझे तो खुद की समझ ही नहीं थी, तो मैंने बहन चेन पर उंगली उठाई। मैंने सोचा कि उसके आने से पहले, जब मैं प्रभारी थी, तब हमारा काम इतना खराब नहीं था, मगर अब जिम्मेदारी उसके पास है, सब उसका किया-धरा है। एक बार, किसी बहन के साथ इन बातों पर चर्चा करते हुए, मैंने बहन चेन के प्रति अपना असंतोष ज़ाहिर किया, बहन चेन के अच्छी न होने को लेकर बहुत-सी बातें कही। फिर, मैंने खुद को दोषी महसूस किया : क्या मैं पीठ पीछे उसकी आलोचना नहीं कर रही? इससे तो परमेश्वर को नफ़रत है! मगर उस समय, यह विचार बस यूं ही आकर चला गया, मैंने गंभीरता से आत्मचिंतन नहीं किया। सच कहूँ, तो मैं बहुत अड़ियल और कठोर हूँ। जब तक मुझे बर्खास्त नहीं किया गया, मेरा मन नहीं बदला। हमारे अगुआ ने हमसे कहा कि कलीसिया के काम की प्रभावशीलता गिरती जा रही है, साथ ही, बहन चेन और मैं ठीक से सहयोग नहीं कर रहे। मुझे थोड़ा असहज लगा, मगर चूंकि मुझे खुद की समझ ही नहीं थी, इसलिए मेरी नज़र अब भी बहन चेन पर ही टिकी थी। मैं सोचती थी कि उसके आने के बाद से ही हमारा काम इतना खराब हुआ है। यह देखकर कि मुझे खुद की समझ नहीं है, हमारे अगुआ मुझसे निपटे, कहा कि मैं सिर्फ दौलत और शोहरत के लिए लड़ती हूँ, मेरा काम असरदार न होने पर भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, ऐसे में मेरी हालत को देखते हुए, मैं एक अगुआ बनने लायक नहीं हूँ, मुझे कुछ समय आध्यात्मिक चिंतन करने की ज़रूरत है।
बर्खास्त होना मेरे लिए बहुत तकलीफ़देह था। मैं नहीं जानती थी कि मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे, जितना सोचती आत्मा का अँधेरा उतना ही बढ़ता। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए मैं ऊंघने लगती, उसके सामने दिल को शांत नहीं रख पाती, मैंने अगली अवधि इस उलझन भरी हालत में ही गुजार दी। फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत में कुछ तो गलत है, तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद को जानने में उसका मार्गदर्शन माँगा। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ये लोग कुटिल, धूर्त और दुष्ट ही नहीं, बल्कि प्रकृति से विद्वेषपूर्ण भी होते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी हैसियत खतरे में है, या जब वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देते हैं, जब वे लोगों का समर्थन और स्नेह खो देते हैं, जब लोग उनका आदर-सम्मान नहीं करते, और वे बदनामी के गर्त में गिर जाते हैं, तो वे क्या करते हैं? वे अचानक बदल जाते हैं। जैसे ही वे अपनी हैसियत खो देते हैं, वे कुछ नहीं करना चाहते, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह घटिया होता है। कर्तव्य-पालन में उनकी कोई रुचि नहीं होती। लेकिन यह सबसे खराब अभिव्यक्ति नहीं होती। सबसे खराब अभिव्यक्ति क्या होती है? जैसे ही ये लोग अपनी हैसियत खो देते हैं और कोई उनका सम्मान नहीं करता, कोई उनके बहकावे में नहीं आता, तो उनकी ईर्ष्या और प्रतिशोध बाहर आ जाता है, घृणा बाहर आ जाती है। उन्हें न केवल परमेश्वर का कोई भय नहीं रहता, बल्कि उनमें आज्ञाकारिता का कोई अंश भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, उनके दिलों में कलीसिया, परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से घृणा करने की संभावना होती है; वे दिल से चाहते हैं कि कलीसिया के कार्य में समस्याएँ आ जाएँ या वह ठप हो जाए; वे परमेश्वर के घर और भाई-बहनों पर हँसना चाहते हैं। वे उस व्यक्ति से भी घृणा करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर का भय मानता है। वे उस व्यक्ति पर हमला करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और कीमत चुकाने का इच्छुक होता है। यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है—और क्या यह विद्वेषपूर्ण नहीं है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। "अगर कुछ लोग किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। वे इसी तरह का जीवन जीते हैं और फिर भी यह सोचते हैं कि वे महान हैं और वे नेक हैं। लेकिन, क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के लोग कैसे परिणाम भुगतते हैं? वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, ठीक है? हल्के-फुल्के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो मूल समस्या यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और बिलकुल महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। क्या उन लोगों ने सत्य में प्रवेश पा लिया है जिनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जो परमेश्वर में श्रद्धा नहीं रखते? (नहीं।) इसलिए, जब वे सामान्यत: मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्यस्त बनाये रखते हैं, तब वे क्या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए खपाने की ख़ातिर सब कुछ त्याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्तव में उनके सारे कृत्यों के पीछे निहित प्रयोजन, सिद्धान्त और लक्ष्य, सभी खुद को लाभान्वित करने के लिए हैं; वे केवल अपने सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों को कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय नहीं होता? वे लोग, जो अहंकारी होते हैं। और किनमें परमेश्वर का भय सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, दुष्टों, मसीह-विरोधियों, दानवों और शैतान में। उनमें परमेश्वर से लड़ने की धृष्टता होती है; वे परमेश्वर के भय से रहित होते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। इन वचनों ने मेरे दिल को भेद दिया। मसीह-विरोधी पद और रुतबे को सबसे ऊपर रखते हैं। दूसरों को सत्य का अनुसरण करते देख उन्हें ईर्ष्या होती है, वे उन पर हमला कर उन्हें अलग करते हैं इस डर से कि वे उनसे आगे निकल जाएंगे। वे अपने रुतबे को बनाये रखने के लिए कोई भी दुष्टता कर सकते हैं, वे ये तक चाहते हैं कि भाई-बहन कर्तव्यों में असफल हो जाएँ और अकुशलता से काम करें। परमेश्वर के घर का जितना भला होता है उतना ही उन्हें बुरा लगता है। उनका स्वभाव उग्र होता है और वे शैतान होते हैं। इस दौरान मेरा बर्ताव भी एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। जब मैंने देखा कि बहन चेन में अच्छी काबिलियत है, वो अपना काम अच्छे से करती है, सत्य पर मुझसे बेहतर सहभागिता करती है और हर किसी की प्रशंसा पाती है, तो मुझे जलन होने लगी कि उसने मेरी चमक चुरा ली और मनाने लगी कि अगुआ उसका ट्रांसफर कर दें, ताकि मैं अब भी कलीसिया में सबसे अलग दिख सकूँ। जब मैंने देखा कि अगुआ अब भी उसे ही अहमियत देते और उसे बढ़ाते हैं, तो मेरी ईर्ष्या और बेचैनी बढ़ गई। मैं जानती थी वो अभी आई है, कलीसिया के लोगों को नहीं जानती, और सिंचन कार्य की उपयाजक भी सही नहीं है, मगर मैं चुप रही। मैं बस चुपचाप उसके असफल होने का इंतज़ार करती रही। जब उसने मेरे साथ काम पर चर्चा करने की कोशिश की, तो मैंने उसे अनदेखा कर दिया। मैं मनाती रही कि उसका काम खराब हो, ताकि उसे बर्खास्त कर दिया जाये और कोई उसकी प्रशंसा न करे। मैंने पीठ पीछे उसकी आलोचना की, उसे गिराया, नीचा दिखाया और खुद को ऊँचा उठाया, ताकि अलग दिखने की अपनी इच्छा पूरी कर सकूँ। बरसों आस्था रखने के बाद भी, मैंने जीवन प्रवेश को अनदेखा कर दिया, मैंने परमेश्वर के घर के काम को सबसे आगे नहीं रखा, मैंने अपना सारा वक्त इज़्ज़त और रुतबे के लिए लड़ने में गँवा दिया। जब मुझे वो सब नहीं मिला, तो लगा जैसे मेरी जिंदगी छिन गई। जलन से भरकर मैं अपनी बहन के ख़िलाफ़ हो गई और कलीसिया के काम को अनदेखा कर दिया। बहन चेन को अच्छा काम करते देख मुझे इतना डर लगा कि मैं अपने फायदे के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुंचाना चाहती थी। मुझे परमेश्वर का ज़रा-सा भी भय नहीं था, उसके लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं थी। मैंने तो बस शैतान के सेवक की तरह काम करते हुए परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ दिया, कलीसिया के काम में ऐसी रुकावट डाली कि सब ठप्प पड़ गया। मैं अपना कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभा रही थी! मैं अंगूर के बाग में लोमड़ी थी जो अंगूर चुराने के साथ ही बेलों को कुचल रही थी। मेरी प्रकृति परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए मसीह-विरोधियों जैसी ही थी! मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें निकाल दिया गया था। वे लोगों के दिलों को जीतने और उनका समर्थन पाने की खोखली उम्मीद में दिखावा करने और खुद को ऊँचा उठाने के लिए, अपने कर्तव्यों का लाभ उठाते हैं। किसी भाई या बहन को खुद से आगे निकलते और अपने रुतबे पर खतरा मंडराते देख, वे हमला करके बदला लेते और बेपरवाही से परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ते हैं, आखिर में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हैं और उजागर करके हटा दिया जाते हैं। आखिर में मैंने जाना कि रुतबे के पीछे भागना कितना खतरनाक है! इसका एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा। मैंने परमेश्वर से राह दिखाने के लिए प्रार्थना की ताकि मैं खुद को जानूँ, पश्चाताप करूँ और बदल जाऊँ। प्रार्थना के बाद मैंने खुद से पूछा, "मैं हमेशा रुतबे के लिए क्यों लड़ती हूँ, अपने पद से क्यों चिपक जाती हूँ? मेरे रुतबे के पीछे भागने की असली वजह क्या है?"
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा, "एक अपरिवर्तित स्वभाव का होना परमेश्वर के साथ शत्रुता में होना है" से। "परमेश्वर के विरुद्ध मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान के द्वारा उसकी भ्रष्टता है। क्योंकि वह शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिये मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान के द्वारा भ्रष्ट होने से पहले, मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का अनुसरण करता था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनका पालन करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और सामान्य मानवता थी। शैतान के द्वारा भ्रष्ट होने के बाद, उसकी मूल समझ, विवेक, और मानवता मंद पड़ गई और शैतान के द्वारा दूषित हो गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता और प्रेम को खो दिया है। मनुष्य की समझ पथ से हट गई है, उसका स्वभाव एक जानवर के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन फिर भी, मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, और केवल आँख बंद करके विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य के स्वभाव का प्रकाशन उसकी समझ, अंतर्दृष्टि, और अंत:करण का प्रकटीकरण है; और क्योंकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंत:करण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है" (वचन देह में प्रकट होता है)। वचनों से मुझे समस्या की जड़ का पता चल गया। शैतान द्वारा भ्रष्ट होकर मैं नहीं जानती थी कि कैसे जीना और कैसा बर्ताव करना है। मैं सिर्फ दौलत और शोहरत के पीछे भागना जानती थी, "भीड़ से ऊपर उठो," "सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," "सिर्फ़ एक अल्फा पुरुष हो सकता है," और "लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए," जैसे शैतानी फलसफों को जीवन जीने के नियम मान बैठी थी। जब मैंने देखा कि बहन चेन हर मामले में मुझसे बढ़कर है, भाई-बहन और अगुआ, सभी उसके बारे में ऊँचा सोचते, उसे अहमियत देते हैं, तो मुझे लगा उसने मेरी चमक चुरा ली है, मुझे वो आँखों और शरीर में चुभने वाले काँटे जैसी लगती। जब बहन ने काम पर चर्चा करने के लिए कहती, तो मैं उसे अनदेखा करना चाहती थी। मैंने उसकी आलोचना की, उसे गिराया और जानबूझकर नीचा दिखाया, मनाया कि कर्तव्य में गोलमाल करने के लिए बर्खास्त हो जाए, परमेश्वर के घर के काम को कितना नुकसान पहुँचेगा, मैंने इसकी परवाह नहीं की। मैंने देखा कि इन शैतानी विचारों और नज़रियों के अनुसार जीकर, मैं अहंकारी, स्वार्थी और दुष्ट बन गई थी, मेरी इंसानियत विकृत हो गई थी। बड़े लाल अजगर के अधिकारियों की तरह, मैं इज़्ज़त और रुतबे के लिए कुछ भी कर सकती थी। उनसे आगे निकलने या उनके रुतबे के लिए खतरा बनने वालों को वे राजनीतिक शत्रु बताकर बर्बाद कर देंगे। सर्वोच्च परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण कर सत्य व्यक्त कर रहा है, मगर सीसीपी को डर है कि अगर लोग सच्चे मार्ग को स्वीकार करेंगे और सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करेंगे, तो न कोई उसकी बात मानेगा, न ही कोई उसे पूजेगा, इसलिए वे पागलों की तरह मसीह का पीछा करते हैं और बेरहमी से ईसाइयों को सताते हैं, ताकि अपना एक नास्तिक क्षेत्र बना सकें, जहां लोग सिर्फ सीसीपी की पूजा करें और उसकी बात मानें। बड़े लाल अजगर की दुष्टता, निरंकुशता, क्रूरता और हिंसा से अपनी तुलना कर, मुझे काफी डर लगा। क्या मेरे और बड़े लाल अजगर के स्वभाव में कोई फ़र्क था? रुतबे के लिए, मैंने विरोधी मत वालों को अलग कर दिया, अपनी समझ और विवेक खो दिया। परमेश्वर ने अगुआ का कर्तव्य देकर मुझे ऊँचा उठाया था। कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए मुझे अपनी बहन के साथ सहयोग करना चाहिए था, मगर मैं अपने रुतबे के मोह में पड़ी थी, मैंने अपनी बहन के साथ खुद की तुलना की। जब उससे आगे नहीं निकल पाई, दौलत, शोहरत और रुतबा नहीं मिला, तो मैं निराश और लापरवाह हो गई, मैंने परमेश्वर के घर के काम को गंभीर नुकसान पहुंचाया। कर्तव्य में लापरवाह होकर मैं गलत मार्ग पर चल रही थी!
आत्मचिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच भी गलत थी। मैं हमेशा यही सोचती थी कि परमेश्वर के घर में रुतबा पाकर मैं उपयोगी इंसान बन जाऊँगी और मुझे बचाकर पूर्ण किया जाएगा, मगर मैं नहीं जानती थी कि परमेश्वर यह नहीं देखता कि कलीसिया में तुम्हारा रुतबा क्या है या लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे दिल को और कर्तव्यों के प्रति तुम्हारे रवैये को देखता है। परमेश्वर के घर में, अगर तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तुम्हारी मंशाएं सही हैं और सिद्धांत अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर का आज्ञापालन कर उसके प्रति वफ़ादार हो, तभी तुम्हें उसकी मंज़ूरी हासिल होगी। मैं बहुत नासमझ थी। मैंने परमेश्वर की इच्छा की खोज नहीं की, बस शैतानी फलसफों और विचारों के अनुसार जीती रही, दौलत और शोहरत के पीछे भागती रही, मैं बस ऊँचा रुतबा चाहती थी। मगर उन चीज़ों की चाह रखना एक गलती थी। मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी, अगर मैं परमेश्वर की ओर वापस नहीं मुड़ती, तो वह मुझे हटाकर नष्ट कर देता। परमेश्वर की धार्मिकता के कारण ही मुझे बर्खास्त किया गया, यह मेरे लिए उसकी सुरक्षा थी। उसने मेरे सुन्न पड़े हृदय को जगाने और मेरी भ्रष्टता की सच्चाई दिखाने के लिए बार-बार अपने वचनों का इस्तेमाल किया। तब जाकर मुझे परमेश्वर के नेक इरादों का एहसास हुआ। परमेश्वर जो भी करता है वह मुझे सही मार्ग पर लाने के लिए करता है। मैंने पश्चाताप करते हुए तहेदिल से परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने रवैये को बदलने के लिए मुझे राह दिखाने की विनती की।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा। "रुतबा और प्रतिष्ठा आसानी से दरकिनार नहीं किए जाते। उन लोगों के लिए तो इन चीजों को अलग रखना और भी मुश्किल है, जो कुछ हद तक प्रतिभाशाली होते हैं, जिनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है या जो कुछ कार्य-अनुभव रखते हैं। ... जब उनका कोई रुतबा नहीं होता, तो उनकी प्रतिस्पर्धात्मक इच्छा प्रारंभिक अवस्था में होती है; लेकिन जब वे रुतबा पा लेते हैं, जब परमेश्वर का घर उन्हें कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंप देता है, और विशेष रूप से जब वे बरसों तक काम कर चुके होते हैं और उनके पास बहुत अनुभव और पूँजी होती है, और उनकी प्रतिस्पर्धात्मक इच्छा आरंभिक अवस्था में नहीं होती, बल्कि गहरे जड़ जमा चुकी होती है, खिल चुकी होती है, और उस पर फल लगने वाले होते हैं। जब किसी में महान कार्य करने, प्रसिद्ध होने, कोई महान व्यक्ति बनने की निरंतर इच्छा और महत्वाकांक्षा रहती है, तो वह समाप्त हो जाता है। इसलिए, इससे पहले कि यह विपदा की ओर ले जाए, तुम्हें जल्दी से स्थिति को उलट देना चाहिए और इन चीजों को एक तरफ रख देना चाहिए। जब भी तुम कुछ करते हो—चाहे उसका जो भी संदर्भ हो—तुम्हें सत्य की खोज के लिए खुद को प्रशिक्षित करने का अभ्यास करना चाहिए, ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी हो, और उन चीजों के लिए लड़ना बंद करने के साथ ही उन्हें अलग भी रख दे। तुम्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि तुममें प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर इच्छा है। इसका समाधान न करने पर, प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा का नतीजा केवल बुरी चीजें ही हो सकती हैं, इसलिए समय बर्बाद न करो और सत्य खोजो, अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता को शुरुआत में ही नष्ट कर दो, और इस प्रतिस्पर्धी व्यवहार को सत्य का अभ्यास करने से बदल दो। सत्य का अभ्यास करने पर तुम्हारी प्रतिस्पर्धात्मकता, अदम्य आकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी तरह से घट जाएँगी, और फिर वे परमेश्वर के घर के काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगी। इस तरह, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे कार्यों को याद रखा जाएगा और उनकी प्रशंसा की जाएगी। तो मैं इस बात पर जोर दूँगा कि इससे पहले कि तुम्हारी प्रतिस्पर्धात्मक इच्छा और महत्वाकांक्षा पुष्पित-पल्लवित हो जाए और उस पर फल लग जाएँ, तुम्हें उन्हें जड़ से उखाड़ देना चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, 'मैं उन्हें जड़ से कैसे उखाड़ सकता हूँ? क्या मैं उन्हें आरंभिक अवस्था में ही रखूँ?' यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कैसे अनुभव करते हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम इस बारे में कैसा महसूस करते हो, तुम कितने दृढ़-निश्चयी हो। कुछ लोग कहते हैं, 'मैं तो उन्हें सिर ही नहीं उठाने दूँगा।' यह अच्छी बात है। तुम रुतबे और प्रतिष्ठा वाले सम्माननीय व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करते, बल्कि साधारण व्यक्ति रहते हो; भले ही परमेश्वर तुम्हें निकम्मा कहे, तो भी कोई बात नहीं, तुम परमेश्वर की नजर में तुच्छ बनकर, एक छोटे और नगण्य अनुयायी बनकर भी खुश हो, मगर ऐसे व्यक्ति हो जिसे अंततः परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य प्राणी कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति अच्छा होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों ने समझाया कि मुझे सबसे ऊँचा या सबसे अच्छा बनने के पीछे नहीं भागना चाहिए। "भीड़ से ऊपर उठो" और "सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ" जैसी बातें शैतानी छलावे हैं। अगर चीज़ें सचमुच उस मुकाम तक पहुंचती हैं, तो मैं इंसान नहीं शैतान बन जाऊँगी। परमेश्वर हमसे साधारण इंसान और सबसे छोटे अनुयायी बनने की अपेक्षा करता है, वह चाहता है कि उसकी मंज़ूरी पाने के लिए हम सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करें। यही सबसे अहम बात है। साथ ही साथ, मैंने यह भी समझा कि कोई बात होने पर हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, अपनी इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास करना चाहिए, ऐसे हमारी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं शांत हो जाएंगी। पहले, मैं खुद को नहीं जानती थी, सत्य भी नहीं खोजती थी। मुझे हमेशा यही लगता था कि मैं प्रतिभाशाली हूँ, मुझे दूसरों की प्रशंसा और अहमियत चाहिए थी। मेरी महत्वाकांक्षा मुझे इस कदर बहा ले गई कि हर जगह दौलत और शोहरत के लिए लड़ती रही। मैं साफ तौर पर दूसरों से कमतर थी, पर दूसरों को आगे निकलते नहीं देख सकती थी। मैं इतनी अहंकारी हो गई कि समझ खो बैठी। परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, अब मैं दौलत और शोहरत नहीं चाहती, बस एक साधारण इंसान बनना चाहती हूँ, अपने कर्तव्यों में सहकर्मियों के साथ सहयोग करना चाहती हूँ। मैं जानती थी कि मेरी सहकर्मियों को परमेश्वर की संप्रभुता ने ही चुना है और इसमें मेरे सीखने के लिए सबक भी है। बहन चेन में अच्छी काबिलयत और अनुभव था, वह समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता कर सकती थी, जो परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए मददगार था। मुझे उसकी खूबियों से सीखकर अपनी कमियों की भरपाई करनी चाहिए थी, उसके साथ मिलकर कलीसिया का काम पूरा करना चाहिए था।
जल्दी ही, अगुआ ने मेरे लिए सिंचन कार्य की उपयाजक की जिम्मेदारी तय कर दी। सहकर्मियों की एक सभा में, मैंने बहन चेन को उस समय की अपनी भ्रष्टता के बारे में खुल कर बता दिया। उसने मुझे नीची नज़र से नहीं देखा और परमेश्वर के वचनों पर मेरे साथ सहभागिता भी की। उसके प्रति मेरा मनमुटाव खत्म हो गया और मुझे काफी राहत महसूस हुई। फिर, मैंने काम के दौरान उसके साथ कई बातों पर चर्चा की और हर मुमकिन तरीके से उसकी मदद की। जब मैंने अपने कर्तव्य पर ध्यान दिया, तो मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस हुआ। अपने काम में मुझे बेहतर नतीजे मिलने लगे और मैंने खुद को परमेश्वर की आभारी माना।
बर्खास्त किये जाने के बाद, मैंने जाना कि मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम बहुत व्यावहारिक है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना ने मुझे मेरी भ्रष्टता से अवगत कराया। इनकी वजह से ही मैं दौलत और शोहरत के पीछे भागने के सार और नतीजों को देख पाई। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सही मार्ग पर चलने की राह दिखाई और इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास करने दिया। इनके बिना, मैं अब भी खुद को नहीं समझ पाती, बस दौलत और शोहरत के लिए दूसरों से लड़ती रहती, मैं दुष्टता और परमेश्वर का विरोध करते हुए शैतान का खिलौना बन जाती। मैं परमेश्वर की आभारी हूँ कि उसने मुझे बचा लिया!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?