किसी का दिल दुखे तो भी सत्य पर अमल करो
मई 2020 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। मैं बड़े जोश से खोज करती और बड़ी सक्रियता से अपने कर्तव्य निभाती। दस महीने बाद, मुझे कलीसिया की एक अगुआ चुन लिया गया। उस समय मुझ पर बहुत ज्यादा दबाव था। मुझे लगता था कि अभी मैं बहुत छोटी हूँ और सत्य की मेरी समझ बहुत हल्की है, इसलिए मुझे डर था कि मैं यह कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकूँगी। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और बाद में परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर विचार किया : “तुम्हें विश्वास होना चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और लोग बस सहयोग कर रहे हैं। यदि तुम ईमानदार हो, तो परमेश्वर जान जाएगा, और वह हर हालात में तुम्हारे लिए रास्ता खोलेगा। किसी भी कठिनाई को पार करना मुश्किल नहीं है; तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए। इसलिए, अपने कर्तव्य निभाते हुए, तुम लोगों को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए। यदि तुम इसमें अपना सब कुछ लगाकर पूरे दिल से काम करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें कठिनाइयाँ नहीं देगा, और न ही वह तुम्हें तुम्हारी क्षमता से अधिक कोई जिम्मेदारी देगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे आस्था मिली और मेरी समझ में आया कि परमेश्वर लोगों का दिल देखता है। जब तक मैं परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखती रहूँगी और अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करती रहूँगी, तब तक परमेश्वर मुझे रास्ता दिखाता रहेगा। यह जान लेने के बाद, मैंने बाधाओं को महसूस करना छोड़ दिया और खुद को पूरी तरह अपने कर्तव्य में झोंक दिया।
बाद में, हमारी कलीसिया को दो सुसमाचार उपयाजकों को जल्द-से-जल्द प्रशिक्षण देना था। मैंने देखा कि भाई केविन में अच्छी काबिलियत थी, वे सभाओं में जोश से भाग लेते थे, और सुसमाचार फैलाने के सिद्धांतों पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। वहीं बहन जेनेल भी थीं, जो जोश से अपने कर्तव्य निभाती थीं और कुछ परिणाम भी हासिल किए थे। दूसरों के मुकाबले, इस कर्तव्य के लिए ये दोनों मुझे सही लगे, और मेरे अगुआ भी मेरे सुझावों से सहमत थे। इसलिए मैंने दोनों को सुसमाचार उपयाजक बना दिया। कुछ समय बाद, दोनों ने इस भूमिका को अच्छी तरह समझ लिया, तो मैंने दोनों को स्वतंत्र रूप से अपने कर्तव्य निभाने की इजाजत दे दी, और मैं खुद पूरे जोश से अपने सिंचन कार्य में जुट गई। कुछ हफ्ते बाद, पता चला कि हाल में सुसमाचार सुनने वाले कुछ लोगों ने सभा के समूह को छोड़ दिया है, सुसमाचार फैलाने वाले कुछ लोगों के सामने अपने कर्तव्य को लेकर ऐसी मुश्किलें आईं जिन्हें सुलझाना उन्हें नहीं आता था। सुसमाचार कार्य की इन दिक्कतों को देखकर मैं सोचने लगी, “क्या ये दो सुसमाचार उपयाजक व्यावहारिक कार्य कर रहे हैं?” मैंने उनके कार्य की बारीकी से जांच की, तो पाया कि वे सिर्फ चीजों की व्यवस्था करते थे, खुद वह कार्य नहीं करते थे। वे इन कामों से जुड़ा आगे का काम भी नहीं करते थे और न ही सभाओं में व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाते थे, बल्कि दूसरे भाई-बहनों को अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलाते हुए उनसे इसे अच्छी तरह से करने का आग्रह करते रहते थे। इस कारण भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझ नहीं पा रही थीं। हालात समझने के बाद, मुझे बड़ी निराशा हुई। मैंने मन-ही-मन सोचा : “कलीसिया उपयाजक के रूप में, व्यावहारिक समस्याएँ न सुलझाना क्या उनकी तरफ से अपने कर्तव्य की अवहेलना नहीं थी?” मैंने यह भी देखा कि भाई केविन ढंग से काम नहीं कर रहे थे, गेम खेलते रहते थे, जबकि बहन जेनेल अपने कर्तव्यों में आलस और गैर-जिम्मेदारी से काम ले रही थीं। मैंने पहले तो यह सोचा कि उनके साथ संगति करके उनके कर्तव्यों से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करूँ, लेकिन हमारे बीच हमेशा से ही अच्छा तालमेल रहा था और मुझे डर था कि कहीं मैं इस रिश्ते को खराब न कर बैठूँ। अगर मैं उनकी समस्याओं पर उंगली उठाऊँगी तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं उनके प्रयासों को न देखकर सिर्फ उनकी कमियाँ देखती हूँ, मेरा दिल स्नेही नहीं है? मुझे उम्मीद थी कि भाई-बहन मुझे एक अच्छा इंसान समझते हैं, जो दूसरों को समझता है और उनका ख्याल रखता है। मैं इस घटना के कारण अपनी प्रतिष्ठा खराब नहीं करना चाहती थी। और अगर वे दोनों उपयाजक मेरी बात को स्वीकार न कर सके, और अपने कर्तव्यों में नकारात्मक और अनिच्छुक हो गये, तो क्या मेरे भाई-बहन सोचेंगे कि मैं अगुआ का कार्य करने लायक नहीं हूँ? मैं एक बुरी अगुआ हूँ? मेरी अगुआ को इस बारे में पता चला तो शायद वह मेरी काट-छाँट करें। पर मैं सोचती थी कि कलीसिया के कार्य की प्रभारी होने के नाते, उनकी समस्याओं के बारे में बताना मेरी जिम्मेदारी थी, ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें और कुछ ज्ञान हासिल कर सकें। मैं उलझन में पड़ी रही और आखिर में मैं उनसे कुछ नहीं कह पाई। इसके बजाय, मैंने उन्हें परमेश्वर के हिम्मत और सुकून देनेवाले कुछ वचन भेजे, और उनके साथ विनम्रता से संगति करते हुए यह चर्चा की कि अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे करना चाहिए। बाद में, मुझे अपराध बोध हुआ। मैं एक बेईमान और कपटी इंसान की तरह महसूस करती रही।
एक रात, मैं सो नहीं पाई, और यह सोचती रही कि “सुसमाचार कार्य का प्रभावी होना किस तरह सीधे-सीधे मुझसे जुड़ा हुआ है। मैंने देखा था कि दो सुसमाचार उपयाजक अपने कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार हैं, वे व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझा रहे हैं, जिससे भाई-बहन अपने कर्तव्यों में निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं, कुछ भाई-बहन नकारात्मक मनोदशा में चले गये हैं और कुछ नये सदस्य सभा का समूह छोड़कर जाने लगे हैं, फिर भी मैंने इन दो उपयाजकों की समस्याएँ उजागर नहीं की थीं।” मैं दिल-ही-दिल में बहुत ज्यादा अपराध-बोध महसूस कर रही थी, मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं क्या करूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना करते हुए मुझे प्रबुद्धता प्रदान करने की और इस इस समस्या को सुलझाने के लिए रास्ता दिखाने की याचना की। प्रार्थना के बाद, मैंने अनुभवजन्य गवाही का एक वीडियो देखा, जिसमें शामिल परमेश्वर के वचनों से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और निकृष्ट होते हैं।) स्वार्थी और निकृष्ट लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं जो सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और बहुत उदास हो गई। मैं हमेशा यह सोचती थी कि मेरी इंसानियत अच्छी है, मैंने बहुत धैर्य के साथ अपने भाई-बहनों की मदद की थी, और यह कि काम करते समय, मैं हमेशा दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखती थी, और उनका दिल नहीं दुखाना चाहती थी। मैं सोचती थी कि यही परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना है और मैं एक अच्छी इंसान हूँ। लेकिन जब मैंने देखा कि दोनों उपयाजक अपने कर्तव्यों के प्रति गैर-जिम्मेदार हैं और कलीसिया के के काम में विलंब पैदा कर रहे हैं, तो मैंने कलीसिया के हितों का ध्यान नहीं रखा और उन्हें उनकी समस्याएँ नहीं बताईं। इसके बजाय, मैंने उन्हें पुचकारा, क्योंकि मुझे डर था कि समस्याएँ बताने से हमारा रिश्ता टूट जाएगा। मुझे यह भी फिक्र थी कि मैंने उन्हें नकारात्मक बना दिया, तो अगुआ मेरी आलोचना करेगी, और मेरे भाई-बहन मुझे गलत समझेंगे। अपनी छवि और निजी हितों के लिए मैंने कलीसिया के कार्यमें विलंब होने दिया। यह परमेश्वर की इच्छा का मान रखना नहीं हुआ, और मैं एक अच्छी इंसान नहीं थी। दरअसल, अच्छी इंसानियत वाले लोग सच्चे होते हैं, सत्य पर अमल करके, कलीसिया के हितों की रक्षा कर पाते हैं, और जब वे दूसरों की समस्याएँ देखते हैं तो वे संगति करके उनकी समस्याएँ उजागर करने और उन्हें बदलने में मदद करने की हिम्मत रखते हैं। वे अपने भाई-बहनों से सच्चे दिल से पेश आते हैं। लेकिन मैंने उपयाजकों की समस्याएँ देखकर भी कुछ नहीं कहा, या उन्हें उजागर नहीं किया, और अपने निजी हितों को बचाने के लिए कलीसिया के कार्य को नुकसान होने दिया। मेरी इंसानियत इतनी ज्यादा बुरी थी! मुझे अपने में अंतरात्मा और सामान्य मानवता की कमी पर शर्म आ रही थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और खुद के बारे में थोड़ी और समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “कलीसिया के कुछ अगुआ अपने भाई-बहनों को अपने कर्तव्य लापरवाही और मशीनी ढंग से निभाते देख फटकार नहीं लगाते, हालाँकि उन्हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। पर असल में वे दूसरों की कमजोरियों का लिहाज नहीं करते हैं, बल्कि उनका इरादा दूसरों को अपने पक्ष में करना होता है। वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं और सोचते हैं : ‘अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्छी, ऊँची राय होगी। वे मुझे मान्यता देंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक बाधित हो, ऐसे अगुआ अपने शैतानी फलसफ़े पर अड़े रहते हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; अगर वे किसी को विघ्न-बाधा पैदा करते देखें तो ज्यादा-से-ज्यादा वे बातों-बातों में इस मुद्दे का हल्का-सा उल्लेख कर सकते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्य पर संगति नहीं करते, न ही वे उस व्यक्ति को समस्या का सार बताते हैं, उनकी दशाओं का विश्लेषण करना तो दूर की बात है। वे कभी नहीं बतलाते कि परमेश्वर की इच्छा क्या है। झूठे अगुआ कभी भी उजागर या विश्लेषित नहीं करते कि लोग अकसर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग अक्सर किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे कोई असली समस्या हल नहीं करते, बल्कि लोगों के बुरे आचरण और भ्रष्टता के प्रदर्शन को बर्दाश्त करते रहते हैं। लोग चाहे कितने भी नकारात्मक या कमजोर हों, वे कोई परवाह नहीं करते, सिर्फ कुछ शब्द और सिद्धांत बघार देते हैं, अनमने ढंग से कुछ उपदेश दे देते हैं, और टकराव से बचने की कोशिश करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं जानते कि आत्मचिंतन करके खुद को जानना कैसे है, उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों का कोई समाधान नहीं मिलता, और वे बिना किसी जीवन-प्रवेश के शब्दों, सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं। वे दिल-ही-दिल में यह भी विश्वास करते हैं कि, ‘हमारे अगुआ को हमारी कमजोरियों की परमेश्वर से भी ज़्यादा समझ है। हमारा आध्यात्मिक कद परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन हमें केवल अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की आवश्यकता है; अपने अगुआ का आज्ञापालन करके हम परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं। अगर कोई दिन ऐसा आए जब उच्च हमारे अगुआ को बदल दे, तो हम जोर-जोर से बोलेंगे; अपने अगुआ को रखने और उसे उच्च द्वारा बदले जाने से रोकने के लिए उच्च से बातचीत करेंगे और उसे अपनी माँगों पर सहमत होने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के मन में ऐसे विचार होते हैं, जब उनका अगुआ के साथ इस तरह का संबंध होता है, और अपने दिलों में वे अपने अगुआ के प्रति निर्भरता, प्रशंसा, और सम्मान की भावना महसूस करते हैं, तो वे इस अगुआ में और भी ज्यादा आस्था रखने लगेंगे, वे अगुआ की बातें सुनना चाहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना बंद कर देते हैं। इस तरह का अगुआ लोगों के दिलों में लगभग परमेश्वर की जगह ले चुका होता है। अगर अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसे रिश्ते को बनाए रखने का इच्छुक होता है, अगर अगुआ के दिल में इससे आनंद की भावना उत्पन्न होती है, और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो उसके और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं रहता, और वह पहले ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम रख चुका होता है। परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह-विरोधियों द्वारा पहले ही धोखा खा चुके हैं और उनमें कोई विवेक नहीं है। ... मसीह-विरोधी वास्तविक कार्य नहीं करते, वे सत्य की संगति और समस्याओं का समाधान नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं करते। वे केवल हैसियत और प्रसिद्धि के लिए काम करते हैं, वे केवल खुद को स्थापित करने की परवाह करते हैं, लोगों के दिलों में अपने स्थान की रक्षा करते हैं, और सबसे अपनी आराधना करवाते हैं, अपना सम्मान करवाते हैं, और अपना अनुसरण करवाते हैं; यही वे लक्ष्य होते हैं जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं। मसीह-विरोधी इसी तरह लोगों को जीतने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। क्या काम करने का यह तरीका दुष्टता नहीं है? अत्यंत घृणित है!” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ने के बाद, मैंने घोर शर्मिंदगी महसूस की, क्योंकि परमेश्वर के वचन बिलकुल मेरी हालत को ही बयान करते थे। मैं समझ गई कि दोनों उपयाजक वास्तविक काम नहीं कर रहे थे, और समस्या बहुत गंभीर थी। मुझे संगति के लिए उन वचनों को चुनना चाहिए था जो लोगों का न्याय करके भ्रष्ट उनके स्वभाव को सामने लाते हैं, ताकि वे अपनी समस्याएँ समझ सकें और अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदल सकें। समय के साथ उनके द्वारा कलीसिया के कार्य में निरंतर विलंब करवाना भी बंद हो जाता। लेकिन उन पर अपनी अच्छी छाप छोड़ने के लिए और इसलिए कि वे कहें कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ, मैंने उनकी समस्याओं का सार उजागर नहीं किया, बल्कि परमेश्वर के सुकून-भरे वचनों से उनका हौसला बढ़ाया। इसका अर्थ यह था कि समय रहते उनकी समस्याएँ हल नहीं हो पाईं। इससे कलीसिया का काम प्रभावित हुआ और हाल ही में सुसमाचार प्राप्त करने वाले कुछ लोग सभा का समूह छोड़ कर चले गए। मुझे एहसास हुआ कि मैं ही इसका मूल कारण थी। एक अगुआ का कर्तव्य कलीसिया के उपयाजकों और समूह अगुआओं के काम की निगरानी और जाँच करना और समय रहते समस्याएँ सुलझाना है। हमें अपने भाई-बहनों के हालात को जानना चाहिए, और जब हमें पता चले कि कोई अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों का उल्लंघन करने या कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने वाले काम कर रहा है, तो हमें प्रेम से संगति करके उनकी मदद करनी चाहिए। अगर बार-बार संगति से भी चीजें न बदलें, तो हमें उनकी काट-छाँट करनी चाहिए या फिर उन्हें बर्खास्त करना चाहिए। कलीसिया के कार्य की रक्षा करने का बस यही एक रास्ता है। लेकिन एक कलीसिया अगुआ होने के नाते, मैं अपने कर्तव्य को लेकर बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं थी, और मैंने एक अगुआ की भूमिका नहीं निभाई थी। मैं उन झूठे अगुआओं से कैसे अलग थी जो कोई वास्तविक काम नहीं करते? मुझे बहुत शर्मिंदगी और निराशा महसूस हो रही थी। अगर मैंने संगति करके उनकी समस्याओं को उजागर किया होता, तो मैंने कलीसिया के कार्य को ये नुकसान नहीं पहुँचाए होते, ये मौजूदा समस्याएँ सिर्फ मेरी अवहेलना के कारण पैदा हुई थीं। मैंने सत्य को समझने में भाई-बहनों की मदद नहीं की, उन्हें परमेश्वर के सामने नहीं ला सकी। मैंने हमेशा सिर्फ यही चाहा कि वे मुझे स्वीकार करके मेरा बचाव करें, ताकि उनके मन में मेरी अच्छी छवि रहे, और उनके दिलों में मेरा रुतबा बना रहे। मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रही थी। परमेश्वर के वचन के न्याय और ताड़ना के बिना, मैं पता नहीं और कौन-कौनसे कुकर्म कर डालती।
यह जानकर, मुझे अपने कर्मों पर बड़ा पछतावा हुआ, मैंने सच्चे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं जान नहीं पाई कि मेरा स्वार्थ कलीसिया के कार्य को ऐसा नुकसान पहुँचाएगा, मेरे भाई-बहनों के जीवन को खतरे में डाल देगा। मैं ऐसा अहम कार्य करने लायक नहीं हूँ। परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ। कृपया मुझे आत्मचिंतन करने का रास्ता दिखाओ। मैं वे गलतियाँ फिर से न दोहराना नहीं चाहती।” प्रार्थना करने से मेरी हालत में थोड़ा सुधार हुआ, पर अभी भी मैं बहुत दोषी महसूस कर रही थी। मैं एक पापी की तरह महसूस कर रही थी, मानो मेरा हर काम शैतान का प्रतिनिधित्व करता हो, कि मुझे बचाया नहीं जा सकता, कि मेरे लिए कोई उम्मीद ही नहीं बची थी। उस वक्त, एक बहन ने चैट समूह में परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : “असफलता, कमजोरी और नकारात्मकता के समय के तुम्हारे समस्त अनुभव परमेश्वर द्वारा तुम्हारे परीक्षण कहे जा सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हर चीज परमेश्वर से आती है, और सभी चीजें और घटनाएँ उसके हाथों में हैं। तुम असफल होते हो या कमजोर होते और ठोकर खा जाते हो, यह सब परमेश्वर पर निर्भर करता है और उसकी मुट्ठी में है। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, यह तुम्हारा परीक्षण है, और अगर तुम इसे नहीं पहचान सकते, तो यह प्रलोभन बन जाएगा। दो प्रकार की अवस्थाएँ हैं, जिन्हें लोगों को पहचानना चाहिए : एक पवित्र आत्मा से आती है, और दूसरी का संभावित स्रोत शैतान है। एक अवस्था वह है, जिसमें पवित्र आत्मा तुम्हें रोशन करता है और तुम्हें स्वयं को जानने, अपना तिरस्कार करने, खुद पर पछताने, परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम रखने में समर्थ होने और अपना दिल उसे संतुष्ट करने पर लगाने देता है। दूसरी अवस्था वह है, जिसमें तुम स्वयं को जानते हो, लेकिन तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो। कहा जा सकता है कि यह अवस्था परमेश्वर द्वारा शोधन है, और यह भी कि यह शैतान का प्रलोभन है। अगर तुम यह जानते हो कि यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उद्धार है और अनुभव करते हो कि अब तुम गहराई से उसके ऋणी हो, और अगर अब से तुम उसका कर्ज चुकाने का प्रयास करते हो और इस तरह की भ्रष्टता में अब और नहीं पड़ते, अगर तुम उसके वचनों को खाने-पीने का प्रयास करते हो, और अगर तुम हमेशा यह महसूस करते हो कि तुम में कमी है, और लालसा भरा हृदय रखते हो, तो यह परमेश्वर द्वारा परीक्षण है। जब कष्ट समाप्त हो जाता है और और तुम एक बार फिर से आगे बढ़ने लगते हो, तो परमेश्वर तब भी तुम्हारी अगुआई करेगा, तुम्हें रोशन करेगा, तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा पोषण करेगा। लेकिन अगर तुम इसे नहीं पहचानते और नकारात्मक होते हो, स्वयं को निराशा में छोड़ देते हो, अगर तुम इस तरह से सोचते हो, तो तुम्हारे ऊपर शैतान का प्रलोभन आ चुका होगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर, मुझे सुकून मिला, और मुझे अभ्यास का एक रास्ता भी मिला। जब पहले मैंने परमेश्वर के कठोर वचन पढ़े थे, जिनमें मेरे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा हुआ था, तो मुझे लगा था मानो मेरी निंदा की गई है, मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए मैं नकारात्मक और कमजोर हो गई थी। लेकिन जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, तो मैंने उसकी इच्छा समझ ली। अगर लोग अपने कर्तव्यों में कलीसिया के हितों की रक्षा न करें, उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट की जाए, तो उनका नकारात्मक और कमजोर महसूस करना आम बात है। अगर मैं अपनी नाकामी में सत्य खोजकर आत्मचिंतन कर सकूँ, तो यह मेरे लिए सबक सीखने का मौका होगा। लेकिन अगर मैं नकारात्मक हो जाऊँ, पीछे हट जाऊँ, हिम्मत हार जाऊँ या खुद को बेकार समझ लूँ, तो मैं शैतान की चाल में फँस जाऊँगी और प्रलोभन की शिकार हो जाऊंगी। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचन लोगों को शुद्ध करने और बचाने के लिए हैं। परमेश्वर चाहता था कि मैं खुद को जानूँ, अपनी नाकामियों से सीखूँ, और शैतानी स्वभाव के काबू में न रहूँ। यह अच्छी बात थी, मेरी ज़िंदगी के लिए बढ़ने का एक मौका था। अब मैंने न तो नकारात्मक महसूस किया, न ही परमेश्वर को गलत समझा। मैं परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी। अब मैं अपना नाम, शोहरत और रुतबा नहीं बचाऊंगी।
फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अतः उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के इन वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर कपटी लोगों से घृणा और सच्चे लोगों से प्रेम करता है। ईमानदार लोग कलीसिया के हितों और अपने भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश की रक्षा करने में सक्षम होते हैं, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हैं। मुझे अपना घमंड और रुतबा एक तरफ रखकर कलीसिया के हितों को आगे रखना था, संगति में सत्य का अभ्यास करके दोनों उपयाजकों की समस्याओं को उजागर करना था, ताकि वे अपनी समस्याओं की गंभीरता को समझें, सच्चाई से प्रायश्चित करें, और फिर से जिम्मेदारी से काम करने लगें। अगर वे मेरी संगति के बाद भी नहीं बदल सके, तो कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए उन्हें बर्खास्त करना मेरी ज़िम्मेदारी है।
फिर, मुझे परमेश्वर के कुछ वचन मिले, मैंने भाई केविन के साथ संगति करके उन्हें बताया कि बुरे सामाजिक चलन शैतान के प्रलोभन हैं, और उन्हें अपने दैहिक सुखों को छोड़कर खुद को अपने कर्तव्य में झोंक देना होगा, और सिर्फ ऐसा करना ही परमेश्वर की इच्छा का पालन करना होगा। फिर मैंने बहन जेनेल के साथ संगति की, और अपने कर्तव्यों की तात्कालिक जरूरत को समझने और जिम्मेदारी उठाने को लेकर उनकी कमियों के बारे में बताया, और उन्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने के लिए कहा। मुझे अचरज हुआ कि मेरी संगति के बाद, दोनों ही कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए तैयार हो गए। बाद में, भाई केविन ने कुछ बदलाव भी किए, इसलिए जब उन्हें दोबारा प्रलोभन दिया गया, तो उन्होंने सचेत होकर अपने देह-सुख का त्याग किया, जबकि बहन जेनेल अपना कर्तव्य पहले से अधिक जोश से संभालने लगीं। यह परिणाम देखने के बाद, मैंने उनकी समस्याओं के बारे में पहले न बताने के लिए खुद को दोष दिया। मैंने यह भी देखा कि परमेश्वर के वचन लोगों को नकारात्मक नहीं बनाते, और जो लोग सत्य को स्वीकार कर पाते हैं, वे वे खुद को जान पाते हैं, सच में प्रायश्चित करते हैं, और अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा पाते हैं। यह अनुभव पाकर मैं बहुत खुश हूँ। परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से मुझे अपनी भ्रष्टता के बारे में थोड़ी समझ मिली। मैंने यह भी अनुभव किया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन ही सत्य हैं, ये लोगों को सचमुच ही बदल कर उन्हें बचा सकते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?