डींगें मारने से सीखे सबक

27 फ़रवरी, 2022

मई 2021 में, जिन कलीसियाओं का दायित्व मुझ पर था, उनमें चुनाव थे। सभाओं में, भाई-बहनों ने चुनाव से जुड़े कई मुद्दे उठाए, और परमेश्वर के सहारे मैंने उन सबका समाधान किया। चुनाव सुचारू रूप से संपन्न हो गए। अकेले अपने दम पर चुनाव करवाने पर मुझे बहुत खुशी हुई। मुझे लगा मेरे अंदर काफी क्षमता और कार्य-कौशल है।

मेरी एक साथी बहन ने एक सभा के दौरान कहा कि ली नाम की एक कलीसिया अगुआ कलीसिया में अराजकता फैला रही है। वे उसके सार के बारे में अनिश्चित थे, और उसे यूँ ही हटा देना ठीक नहीं समझ रहे थे। मुझे भी नहीं पता था कि वो किस तरह की इंसान है, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके प्रबोधन और मार्गदर्शन मांगा। फिर एक दूसरी बहन बोली कि ली ने अपनी पार्टनर, बहन लियु को उसका काम तक नहीं करने दिया था, ली ने कहा कि उसे नहीं पता कि बहन लियु को क्या काम करना है। यह सुनकर मैंने सोचा ली को साफ बताया गया था कि बहन लियु को ली के साथ मिलकर कलीसिया का काम संभालना है। वो ऐसा कैसे कह सकती है कि वो नहीं जानती? वो बहन लियु को काम में शामिल नहीं कर रही थी। क्या इसका मतलब ये नहीं है कि वो सत्ता में साझेदारी नहीं चाहती? मुझे याद आया कि एक बार एक बहन उस कलीसिया में एक प्रोजेक्ट करने गई थी। ली ने सहयोग करने से इनकार कर दिया था और उसे कठपुतली बना दिया था। मुझे परमेश्वर की यह बात याद आई कि मसीह-विरोधियों में अपना साम्राज्य स्थापित करने की प्रवृत्ति होती है, बार-बार सोचने पर मुझे लगा कि ली का बर्ताव भी कुछ वैसा ही है। तो मैंने परमेश्वर के वचनों से इन दोनों बहनों के साथ ली की मँशाओं, चालों और उसकी प्रकृति और परिणामों पर सहभागिता की। मैंने यह भी कहा कि ली की पहचान एक मसीह-विरोधी के रूप में की जानी चाहिए, और कुछ संबंद्ध सत्यों पर संगति की। इससे उन्हें भी ली को समझने में मदद मिली। पहले तो मुझे लगा कि ये सब परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन है, लेकिन फिर मैंने सोचा इस मुश्किल समस्या को सुलझाने का श्रेय मुझे है, मैंने ही इन बहनों को आगे का मार्ग दिखाया है। अगर मुझे सत्य की समझ न होती, तो परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध न कर पाता। घर आकर मैंने प्रसन्नता से दूसरी बहन को बताया कि कैसे मैंने परमेश्वर पर निर्भर रहकर पहचाना कि ली एक मसीह-विरोधी है और किस तरह दूसरों को भी मसीह-विरोधी की पहचान करने के गुर सिखाए। वो बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रही थी। मुझे लगा अब मैं अपनी संगति से मुश्किल से मुश्किल समस्या भी हल कर सकती हूँ। वाकई मेरे अंदर विवेक और अच्छी क्षमता है। मैं सीना तानकर चलने लगी, मुझे लगने लगा कि मैं औरों से बेहतर हूँ, मेरे अंदर अंतर्दृष्टि है। मैं अक्सर अपने बारे में डींगें मारने लगी। फिर तो जब भी पहचान करने संबंधी कोई मामला होता जो उसे समझ न आता, तो वो मुझे ढूंढती, और सत्य की समझ को लेकर मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया, लगा कि मेरे बिना काम न चलेगा। मैं हवा में उड़ने लगी थी। फिर मुझे एक और चुनावी प्रबंधन की व्यवस्था सौंपी गई। एक सभा में, बहन लुओ ने किसी मुद्दे पर एक प्रश्न पूछा जिसे न तो कोई समझ पा रहा था और न ही सुलझा पा रहा था। तब एक बहन की संगति ने मुझे अंतर्दृष्टि दी, और मैंने उसी के आधार पर बहन लुओ को आत्म-चिंतन करने के लिए कहा, और अंततः समस्या सुलझ गई। मुझे लगा समस्या समझने की मुझ जैसी अंतर्दृष्टि किसी और में नहीं है। मैं संगति से समस्या हल कर सकती थी जो कोई नहीं कर सकता था, मुझमें वाकई काबिलियत होगी। चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही कुछ बहनों ने कहा कि प्रत्याशियों को संबोधित करना नहीं आता। मुझे लगा मेरे अलावा इस समस्या को कोई नहीं सुलझा सकता, तो मुझे ही बताना होगा कि कैसे संबोधित करते हैं। मैं एक-एक कर उन बहनों की समस्या पर बात करने लगी, और उन्हें बताने लगी कि क्या करना चाहिए। एक बहन ने प्रशंसा करते हुए कहा, "हममें से किसी को नहीं पता था कि क्या करना है। आपने ये कैसे किया?" मुझे यह सुनकर खुशी हुई और मैंने कहा, "मुझे काफी अनुभव है तो मैं इन बातों को समझ सकती हूँ।" इसके बाद भाई-बहन जब भी कोई मुद्दा उठाते, तो मैं ऐसे दिखाती कि जैसे मैं प्रत्याशियों से ही उसे हल करवाना चाहती हूँ, लेकिन उन्हें परमेश्वर के सही वचनों को खोजने के लिए जूझते देख, मुझे लगता कि यह उनके बस की बात नहीं है। मैं दिखाना चाहती थी कि मैं परमेश्वर के वचनों से कितनी अच्छी तरह मामले सुलझा सकती हूँ। बाद की संगतियों में, मैं उसी पर ध्यान देती थी जो मुझे कहना होता था और दूसरों को बोलने नहीं देती थी। धीरे-धीरे सभी प्रत्याशियों ने बोलना ही बंद कर दिया और केवल मैं ही बोला करती थी। वो मेरा निजी मंच बन गया। फिर मुझे लगा कुछ तो अजीब है, अधिकांश अवसर प्रत्याशियों को देना चाहिए, ताकि लोग देख सकें कि उनमें समझ और क्षमता है या नहीं, वे व्यावहारिक समस्याओं को संभाल भी सकते हैं या नहीं, फिर तय करें कि वोट किसे देना है। चूँकि प्रत्याशी बोल ही नहीं रहे थे, तो कोई समझ ही नहीं पाया कि वे सत्य की संगति कर समस्याएँ सुलझा सकते हैं या नहीं। तो वे मतदान कैसे करेंगे? क्या इससे चुनाव विफल नहीं हो जाएगा? मैंने जानने की कोशिश की कि ऐसा क्यों हो रहा है, और लोगों से फीडबैक मांगा। कुछ प्रत्याशियों ने कहा कि मैं कितना सत्य समझती हूँ इसका दिखावा कर रही हूँ जिससे उन्हें लग रहा है कि वो अयोग्य हैं, इसलिए वे कुछ भी बोलने से कतरा रहे थे। यह सुनकर मैंने सोचा कि मैं उनकी मदद नहीं बल्कि दिखावा कर डींगें मार रही हूँ। मुझे ग्लानि महसूस हुई। मैंने अपने मुंह पर ताला लगा लिया, ताकि किसी की राय को नकारकर उसे विवश न कर दूँ, चुनाव प्रक्रिया में दखलंदाज़ी न कर दूँ।

सभा के बाद, मैंने तुरंत अपनी समस्या से संबंधित सत्य खोजा और परमेश्वर के वचनों में यह देखा : "जो लोग सत्य नहीं समझते, उनकी अपने बारे में ऊँची राय रखने की संभावना होती है—और जब वे अपने बारे में बहुत ऊँची राय रखने लगते हैं, तो क्या उन्हें फिर से नीचे लाना आसान होता है? (नहीं।) थोड़ी-सी भी समझ रखने वाले सामान्य लोग अपने बारे में अकारण ऊँची राय नहीं रखते। जब उन्होंने अभी कुछ हासिल नहीं किया होता, लोगों को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता, और समूह में कोई उन पर ध्यान नहीं देता, तो वे अपने बारे में ऊँची राय नहीं रखते। वे थोड़े अहंकारी और आत्ममुग्ध हो सकते हैं, या वे खुद को कुछ हद तक प्रतिभाशाली और दूसरों से बेहतर महसूस कर सकते हैं, लेकिन उनकी अपने बारे में ऊँची राय रखने की संभावना नहीं होती; वे ज्यादातर लोगों की तुलना में अधिक व्यावहारिक होते हैं। लोग किन परिस्थितियों में अपने बारे में ऊँची राय रखते हैं? जब दूसरे लोग किसी छोटी-सी उपलब्धि के लिए उनकी तारीफ करते हैं। वे सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि अन्य लोग साधारण और मामूली हैं, जबकि वे हैसियत वाले हैं और अन्य लोगों के समान वर्ग या स्तर के नहीं हैं, कि वे उनसे ऊँचे हैं। और इस तरह वे अहंकारी हो जाते हैं। और वे अपने बारे में अपनी ऊँची राय को उचित मानते हैं। वे खुद को कैसे आँकते हैं? वे यह मानते हैं, 'मेरे पास ताकत, क्षमता और दिमाग है, और मैं सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हूँ। अब मैंने कुछ हासिल भी कर लिया है—मैंने अपना नाम कर लिया है, मेरी प्रतिष्ठा और मूल्य अन्य लोगों से अधिक हैं, इसलिए मैं जरुर भीड़ से अलग दिखता हूँ, मैं वह हूँ जिसका हर कोई सम्मान करता है, और इसलिए यह सही है कि मैं अपने बारे में ऊँची राय रखता हूँ।' वे अपने मन में यही सोचते हैं, और यह अंततः निश्चित—प्रत्याशित—हो जाता है कि उन्हें अपने बारे में ऊँची राय रखनी चाहिए। वे यह मानते हैं कि यह तर्कसंगत है। अगर वे अपने बारे में ऊँची राय नहीं रखते, तो वे असंतुलित महसूस करते हैं, जैसे वे अपनी पहचान और अन्य लोगों के अनुमोदन के योग्य न हों; और इसलिए यह स्वाभाविक है कि वे अपने बारे में ऊँची राय रखते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि भ्रष्ट लोग कुछ हासिल करते ही हवा में उड़ने लगते हैं, खुद को औरों से बेहतर समझते हैं, सोचते हैं कि उनके पास हैसियत है और वे औरों से ऊपर हैं। वे दिखावा कर शेखी बघारते हैं—ये बहुत खोखला व्यवहार है। मैं इसी तरह की थी। मैंने थोड़ी-बहुत चीज़ें हासिल कर लीं, मसीह-विरोधियों की पहचान कर ली, तो मैं खुद को अद्भुत समझने लगी, लगा कि मुझमें अंतर्दृष्टि और क्षमता है, कि मैं एक महत्वपूर्ण प्रतिभा हूँ। जब चुनाव के समय प्रत्याशी समस्याएँ सुलझा नहीं पाए, मैंने उन्हें हिकारत से देखा। मैं उनकी संगति में पवित्र आत्मा का प्रबोधन नहीं सुन रही थी। मैं अपना मुंह बंद रख ही नहीं पाई, दिखावा किया कि मैं सत्य समझती हूँ और समस्या हल कर सकती हूँ। यह चुनाव प्रक्रिया को बाधित करना था। मेरी भूमिका चुनाव की अगुआई कर दूसरों को अपने विचार व्यक्त करने में मार्गदर्शन करना था, ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें, फिर सिद्धांतों के आधार पर एक अच्छे अगुआ का चुनाव कर सकें। ये मेरा कर्तव्य था। लेकिन मैंने अहंकारी बनकर अपना विवेक गँवा दिया, दिखावा कर डींगे मारती रही। ये कर्तव्य निभाना कैसे हुआ क्या मैं चुनाव प्रक्रिया बाधित नहीं कर रही थी? मैं अहंकार से भरी थी, मुझे थोड़ी सफलता क्या मिल गई, मैं हवा में उड़ने लगी और खुद को बाकियों से बेहतर समझने लगी।

जब मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा तो मेरी आँखें खुल गईं। "ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है, हर मनुष्य परमेश्वर के लिए कार्य करने के योग्य है, अर्थात्, हर एक के पास पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर है। किंतु एक बात का तुम लोगों को अवश्य एहसास होना चाहिए : जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा आदेशित कार्य करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर दिया गया होता है, किंतु मनुष्य द्वारा जो कहा और जाना जाता है, वह पूर्णतः मनुष्य का आध्यात्मिक कद नहीं होता। तुम लोग बस यही कर सकते हो, कि अपने कार्य के दौरान बेहतर ढंग से अपनी कमियों के बारे में जानो, और पवित्र आत्मा से अधिक प्रबुद्धता प्राप्त करो। इस प्रकार, तुम लोग अपने कार्य के दौरान बेहतर प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम होगे। यदि मनुष्य परमेश्वर से प्राप्त मार्गदर्शन को अपना स्वयं का प्रवेश और अपने में अंतर्निहित चीज़ समझता है, तो मनुष्य के आध्यात्मिक कद के विकसित होने की कोई संभावना नहीं है। पवित्र आत्मा मनुष्य में जो प्रबुद्धता गढ़ता है, वह तब घटित होता है जब मनुष्य एक सामान्य स्थिति में होता है; ऐसे समय पर, मनुष्य प्रायः स्वयं को प्राप्त होने वाली प्रबुद्धता को अपना वास्तविक अध्यात्मिक कद समझने की ग़लती कर बैठता है, क्योंकि जिस रूप में पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है, वह अत्यंत सामान्य होता है, और वह मनुष्य के भीतर जो अंतर्निहित है, उसका उपयोग करता है। जब लोग कार्य करते और बोलते हैं, या जब वे प्रार्थना या अपनी आध्यात्मिक भक्ति कर रहे होते हैं, तो एक सत्य अचानक उन पर स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन वास्तव में, मनुष्य जो देखता है, वह केवल पवित्र आत्मा द्वारा प्रदान की जाने वाली प्रबुद्धता होती है (स्वाभाविक रूप से यह प्रबुद्धता मनुष्य के सहयोग से जुड़ी है) और वह मनुष्य का सच्चा आध्यात्मिक कद प्रस्तुत नहीं करती। अनुभव की एक अवधि के बाद, जिसमें मनुष्य कुछ कठिनाइयों और परीक्षणों का सामना करता है, ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य का वास्तविक आध्यात्मिक कद प्रत्यक्ष हो जाता है। केवल तभी मनुष्य को पता चलता है कि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत बड़ा नहीं है, और मनुष्य का स्वार्थ, व्यक्तिगत हित और लालच सब उभर आते हैं। केवल इस तरह के अनुभवों के कई चक्रों के बाद ही कई ऐसे लोग, जो अपनी आत्माओं के भीतर जाग गए होते हैं, महसूस करते हैं कि अतीत में जो उन्होंने अनुभव किया था, वह उनकी अपनी वास्तविकता नहीं थी, बल्कि पवित्र आत्मा से प्राप्त एक क्षणिक रोशनी थी, और मनुष्य को केवल यह रोशनी प्राप्त हुई थी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (2))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि अपने काम में थोड़ी-बहुत सफलता पा लेने का मतलब यह नहीं होता कि मैं सत्य समझ गई या मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा हो गया। कोई भी उपलब्धि पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन से ही आती है, इसलिए नहीं कि मैं सत्य समझती हूँ। मसीह-विरोधी ली का मामला याद किया, पहले तो मैंने भी सही तस्वीर नहीं देखी थी, न ही ये जानती थी कि उससे कैसे निपटूँ। एक बहन की टिप्पणी ने सोचने पर मजबूर किया था, तब आत्मा ने मुझे प्रबुद्ध किया। इस तरह मैंने समझा कि वो मसीह-विरोधी है। इसमें मेरे आध्यात्मिक कद या अंतर्दृष्टि का कोई हाथ नहीं था। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि बहन लुओ के साथ क्या हो रहा है, एक और बहन की संगति ने मुझे प्रबुद्ध किया जिससे मैंने उसकी वास्तविक स्थिति को समझकर उसकी समस्याएँ हल कीं। वो भी पवित्र आत्मा से आया था। वो सब परमेश्वर का मार्गदर्शन था। उस बहन की टिप्पणी और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के बिना, मैं न तो कुछ देख पाती और न ही समझ पाती। संपन्न हुए कार्यों का सारा श्रेय बड़ी बेशर्मी से मैंने ले लिया, यह सोचकर कि मुझमें विवेक और सत्य की बहुत समझ है। मुझमें आडंबर भरा हुआ था। मुझे न तो पवित्र आत्मा के कार्य की समझ थी और न ही मैं अपने आध्यात्मिक कद को ठीक से जानती थी। मैं गुमराह होकर सोच रही कि चूंकि मैं थोड़ा-बहुत काम कर सकती हूँ, इसलिए मुझमें सत्य की वास्तविकता है। मैं आत्मतुष्ट होकर आत्म-स्तुति की स्थिति में जी रही थी। मैं पवित्र आत्मा के कार्य, भाई-बहनों की संगति और उपयोगी टिप्पणियों का सारा श्रेय खुद ले रही थी। मुझे हमेशा लगता था कि मैं बहुत अच्छा कर रही हूँ, इस तरह मैं अहंकारी और बेशर्म होती चली गई। भाई-बहनों की प्रशंसा पाने के लिए मैं शेखी बघारती थी। परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चलकर अनजाने में ही उसके स्वभाव का अपमान कर रही थी। मैं बहुत दयनीय और अज्ञानी थी। पवित्र आत्मा के कार्य और इंसान के असल आध्यात्मिक कद में अंतर करना महत्वपूर्ण है। इस तरह मैं आत्मा के कार्य को अपनी सत्य की वास्तविकता समझकर खुश नहीं हूँगी। उसके बाद, मैंने दिखावा बंद कर दिया। सभाओं में जब मेरे पास साझा करने के लिए कोई अंतर्दृष्टि और अभ्यास का मार्ग होता, तो मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद देती। मैंने श्रेय लेना और शेखी बघारना बंद कर दिया।

लेकिन कुछ समय बाद ही, चूँकि मुझे अपनी भ्रष्ट प्रकृति की कोई सच्ची समझ नहीं थी, अनुकूल स्थिति पाते ही मैंने फिर डींगें मारना शुरू कर दिया। सहकर्मियों की एक बैठक में, बहन झांग ने कहा कि एक कलीसिया में चेन नाम की एक अगुआ कुछ अविश्वासियों और कुकर्मियों को हटा नहीं रही, वे लोग चेन के ही रिश्तेदार हैं। बहन झांग चेन के बारे में निश्चित नहीं थी और इसे संभालना नहीं जानती थी। मुझे परमेश्वर का कहना याद आया कि मसीह-विरोधी भाई-भतीजावाद में विश्वास रखते हैं, और चेन यही कर रही थी। तो मैंने परमेश्वर के वचनों के आधार पर चेन के व्यवहार के सार पर भाई-बहनों से संगति की। सभी इस बात से सहमत होकर उत्साह से बोले कि यह बहुत ही अच्छी सभा थी, इससे उन्हें समस्या हल करने के लिए सत्य को समझने में मदद मिली। इस चीज़ ने मेरा दिमाग खराब कर दिया। मैंने यह भी सोचा कि पिछली बार तो मैंने सही समझा था कि ली मसीह-विरोधी है कि उसका सार वैसा है। इस बार मैंने चेन की समस्याओं को पहचाना, तो मुझे लगा कि मैं सही मायने में सत्य समझती हूँ। मैंने सोचा अगर मैं हर कलीसिया में जाकर संगति करूं, तो शायद भाई-बहनों को कुछ समझ प्राप्त हो। यह ख्याल आते ही मैं फिर हवा में उड़ने लगी। अगले दिन की एक सभा में, मैंने हाल ही में लोगों के बारे में जो समझ हासिल की थी, उसके बारे में बताना शुरू किया, यह भी कहा कि कलीसिया में एक अच्छे अगुआ का होना महत्वपूर्ण है, और जब अगुआ व्यावहारिक कार्य करते हैं तभी बाधा पहुँचाने वालों को निकालना संभव होता है। उस समय मुझे लगा कि इस तरह बोलने से शायद लोगों को लगे कि मैं अपनी समझ और व्यावहारिक काम कर पाने का दिखावा कर रही हूँ। इसलिए मैंने तुरंत ही जोड़ा कि इस मसीह-विरोधी को समझना परमेश्वर का मार्गदर्शन था। एक भाई ने कहा, "वो वास्तव में परमेश्वर का मार्गदर्शन था, आपका कार्य नहीं।" यह सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा, मैं उससे पूरी तरह सहमत नहीं थी। मैंने सोचा: यह मेरा काम कैसे नहीं था? ठीक है यह परमेश्वर का मार्गदर्शन था, लेकिन मेरी भी तो भूमिका थी। वरना, चेन की समस्याओं को समझने वाली मैं अकेली क्यों थी? भार वहन करने और काबिलियत रखने वाली मैं अकेली थी, इसलिए परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध किया। उस सभा के बाद, मेरे पेट में दर्द के कारण मैं कुछ खा नहीं पाई और रात को मुझे तेज बुखार आ गया। मुझे एहसास हुआ कि यह मेरे लिए परमेश्वर का अनुशासन है। पिछले कुछ दिनों से मैं फिर से डीं‌गें मार थी, अपनी ही प्रशंसा कर रही थी। आत्म-चिंतन के लिए मैं तुरंत परमेश्वर के सामने आई।

तब मैंने उसके वचनों में यह पढ़ा : "अपना कर्तव्य निभाने के दौरान क्या तुम परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो और अभी भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यहाँ क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को बेहद बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव न होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य, तुम्हारी जिम्मेदारी है? (कर्तव्य और जिम्मेदारी।) जब तुम मानते हो कि यह कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो यह सही मन:स्थिति है, और तुम श्रेय लेने की कोशिश करने का विचार नहीं करोगे। अगर तुम हमेशा यह मानते हो, 'यह मेरी पूँजी है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? उसके लिए लोगों के सहयोग की जरूरत होती है; वह मुख्य रूप से लोगों के सहयोग की बदौलत होता है,' तो यह गलत है। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर परमेश्वर ने कुछ न किया होता, और किसी ने तुम्हारे साथ सत्य के सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? न तो तुम यह जान पाते कि परमेश्वर को क्या अपेक्षित है; न तुम्हें अभ्यास के मार्ग का ही पता होता। अगर तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन और परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह 'सहयोग' खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? (नहीं।) नहीं, और यह एक समस्या का संकेत देता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसका अनुमोदन प्राप्त करने के लिए परिणाम प्राप्त करना और अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से निभाना परमेश्वर के कार्यों पर निर्भर करता है। अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य करते हो, किंतु परमेश्वर कार्य नहीं करता और तुम्हें यह नहीं बताता कि तुम्हें क्या करना है, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंतत: इसका क्या परिणाम होता है? यह प्रयास निरर्थक होगा, तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। इस प्रकार, अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से करना और परमेश्वर के घर के भीतर मजबूती से खड़े रह पाना, भाइयों और बहनों को सुशिक्षा उपलब्ध कराना और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंतत: तुम्हारे कर्तव्य से प्राप्त होने वाले परिणाम परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन से निर्धारित होते हैं, जिनसे तुम परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया मार्ग, लक्ष्य, दिशा और सिद्धांत समझ पाते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। "जब तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए जाते हो, तो तुम्हारे पास न केवल पवित्र आत्मा का कार्य होता है; बल्कि मुख्य रूप से तुम व्यावहारिक परमेश्वर की अपेक्षाओं को जी पाते हो। केवल पवित्र आत्मा के कार्य को पा लेने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे पास जीवन है। महत्वपूर्ण यह है कि तुम व्यावहारिक परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम हो या नहीं, जिसका संबंध इस बात से है कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा सकते हो या नहीं। देह में व्यावहारिक परमेश्वर के कार्य के ये महानतम अर्थ हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें पता होना चाहिए कि व्यावहारिक परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है)। इसे पढ़ने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में हम जो भी हासिल करते हैं, उसका कारण परमेश्वर का मार्गदर्शन होता है। उसके प्रबोधन, उसके द्वारा व्यक्त सत्यों के बिना, हम कितनी भी मेहनत कर लें, हम कुछ नहीं कर सकते। दूसरे, कार्य में आने वाली समस्याओं का समाधान करना एक अगुआ का कर्तव्य है, उसका दायित्व है। ऐसा न करना नाकामी है और इसे पूरा करना सिर्फ तुम्हारा कर्तव्य है। इसमें शेखी बघारने जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन भ्रमवश मैंने उसे अपनी उपलब्धि मान लिया, इसलिए मैं दिखावा कर डींगें मार रही थी। मैं कितनी गलत थी। क्या मसीह-विरोधी को पहचान पाना पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के कारण नहीं है? अगर परमेश्वर सत्य व्यक्त न करे, उनके सार और व्यवहार को प्रकट न करे, मैं चाहे कितनी भी मेहनत कर लूँ या अपना दिमाग दौड़ा लूँ, मैं किसी को नहीं पहचान पाऊँगी। मुझे एहसास हुआ कि इसमें मेरे पास डींगें मारने जैसा कुछ नहीं है। परमेश्वर के मार्गदर्शन और वचनों ने ही मुझे अभ्यास का मार्ग और सिद्धांत सिखाए, जिससे मुझे पता चला कि मुझे क्या करना चाहिए। वरना मैं न तो कभी सत्य समझ पाती और न कुछ हासिल कर पाती। मैं तो अंधी और मूर्ख थी, परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलने के बजाय उसकी महिमा चुराना चाहती थी, भाई-बहनों से प्रशंसा पाने के लिए डींगें हांकी। इससे भी बदतर, जब एक भाई ने कहा कि यह परमेश्वर का मार्गदर्शन है, मेरा अपना काम नहीं, तो मुझे बुरा लगा, लगा कि मेरा काम बहुत महत्वपूर्ण था। मैं बेहद घमंडी और अनुचित थी! मैं परमेश्वर के विरुद्ध एक मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रही थी। मैंने यह भी गलतफहमी पाल ली थी कि चूँकि मैंने सत्य समझ लिया है, इसलिए मुझे पवित्र आत्मा का कार्य मिल गया है, लेकिन अब जानती हूँ कि आत्मा का कार्य पाने का अर्थ सत्य या जीवन पाना नहीं होता, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर पाना ही अहम है। परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना और उनके अनुसार जीना ही वास्तव में सत्य समझना और उसकी वास्तविकता को पाना है। मैं कब से अपनी ही पीठ थपथपा रही थी, यही सोचती थी कि अगर मैंने सहयोग नहीं किया होता, तो पवित्र आत्मा मुझमें काम नहीं करता, और मैं आधे श्रेय की हकदार हूँ। मैं बेशर्मी से परमेश्वर की महिमा चुरा रही थी, मुझ जैसे अहंकारी और नासमझ इंसान में सत्य की वास्तविकता कैसे हो सकती है? मुझे लगता था कि मैं मसीह-विरोधियों की पहचान कर सकती हूँ, लेकिन मसीह-विरोधी बनने की ओर जा रहे अपने ही मार्ग से अनजान थी। मैं बेहद अहंकारी और अज्ञानी थी। तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं खुद को नहीं जानती और तुम्हारी महिमा चुरा रही हूँ। मैं तुम्हारे विरोधी मार्ग पर चल रही हूँ। परमेश्वर, मुझे बचाओ।"

प्रार्थना के बाद, मैंने उसके वचनों का यह अंश पढ़ा : "'महिमा' शब्द लोगों पर लागू नहीं होता, बल्कि केवल परमेश्वर पर, सृष्टिकर्ता पर लागू होता है; इसका लोगों से कोई संबंध नहीं है। लोग प्रयास कर सकते हैं, और वे सहयोग कर सकते हैं, लेकिन यह फिर भी पवित्र आत्मा के कार्य के मार्गदर्शन में होता है; पवित्र आत्मा के कार्य के बिना वे क्या कर सकते हैं? 'गवाही' शब्द के साथ भी ऐसा ही है : चाहे क्रिया के रूप में 'गवाही' हो या संज्ञा के रूप में 'गवाही', इन दोनों में से किसी का भी सृजित मनुष्यों से कोई संबंध नहीं है। केवल सृष्टिकर्ता ही लोगों की गवाही के योग्य है और केवल उसी की गवाही दी जा सकती है; यह परमेश्वर की पहचान, हैसियत और सार से निर्धारित होता है, और यह परमेश्वर द्वारा किए गए सभी कार्यों के कारण, और उसके द्वारा किए गए सभी बलिदानों के कारण उसका हक है। लोग जो करने में सक्षम हैं, वह बहुत सीमित है और पवित्र आत्मा के प्रबोधन द्वारा निर्देशित होने का फल है और कुछ नहीं। लोगों की प्रकृति ऐसी है कि जब वे थोड़ा-सा सत्य समझ जाते हैं और कुछ काम करने में सक्षम हो जाते हैं, तो वे ढीठ हो जाते हैं। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना कोई भी परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसकी गवाही देने में सक्षम नहीं होता। चूँकि परमेश्वर द्वारा यह पूर्वनिर्धारित है कि लोगों में कुछ गुण या खूबियाँ हों, या वे कुछ पेशे या कौशल सीखें, या थोड़ा चतुर हों, इसलिए वे दंभी हो जाते हैं और परमेश्वर की महिमा और गवाही का एक हिस्सा प्राप्त करने का लगातार प्रयास करते हैं—जो कि अनुचित है, है न? यह पूरी तरह से अनुचित है; यह हद पार करने और खुद को वास्तव में वे जो हैं उससे अलग देखने का एक उदाहरण है। मनुष्यों की दीनता इसलिए नहीं है कि उन्होंने स्वयं को विनम्र बनाया है। मनुष्य हमेशा दीन-हीन रहा है। परमेश्वर की विनम्रता इसलिए है, क्योंकि वह स्वयं को विनम्र बनाता है। किसी व्यक्ति को विनम्र कहना उस व्यक्ति को ऊपर उठाने के बराबर है, जबकि वास्तव में मनुष्य हीन है। लोग हमेशा परमेश्वर से होड़ करना चाहते हैं। यह उन्हें शैतान की भूमिका में डाल देता है; यह शैतान की प्रकृति है। वे सचमुच शैतान के वंशज हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। इसे पढ़ना वाकई प्रबोधनकारी था। सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने ही हम सबको बनाया है। शैतान की ताकत से बचाने के लिए परमेश्वर ने देहधारण कर हमें सब कुछ दिया है। उसने इतना बड़ा काम करके भी कभी दिखावा नहीं किया। कभी यह भी महसूस नहीं किया कि उसने कोई अद्भुत या प्रशंसनीय काम किया है, बल्कि वो दीन और गुप्त रहकर चुपचाप अपना काम कर रहा है। परमेश्वर का सार बेहद प्यारा और उदार है। केवल परमेश्वर ही महिमा, हमारी अनंत स्तुति और आराधना का अधिकारी है। मैं तो बस एक सृजित प्राणी, एक भ्रष्ट इंसान हूँ। परमेश्वर ने मुझे कुछ हुनर, अपने वचनों को समझने की कुछ क्षमता दी है ताकि कुछ अंतर्दृष्टि पाने के लिए सत्य समझ सकूं। यह परमेश्वर की कृपा है। मैंने परमेश्वर से बहुत कुछ पाया था, लेकिन न तो कभी उसकी गवाही दी और न ही उसे महिमा दी। बल्कि मैं बहुत ही अभिमानी थी, मुझे लगता था कि मैं बहुत ऊँची हस्ती हूँ, मैं तो परमेश्वर की महिमा का श्रेय भी लेना चाहती थी, भाई-बहनों को अपने सामने लाना चाहती थी। मैं एकदम निर्लज्ज थी। लेकिन फिर मुझे लगा कि शैतान ने मुझे शैतानी स्वभाव से भर दिया था, और मेरे अंदर कोई सत्य नहीं है। मैंने जो भी उपलब्धियां हासिल की हैं, वो परमेश्वर के मार्गदर्शन का फल हैं, इसलिए सारी महिमा उसकी है, मुझे तो एक सृजित प्राणी के स्थान से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।

उसके बाद, मैंने खुद से पूछा, मैं इतनी अविवेकी क्यों थी? मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिससे मैं ये समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित हो सकते हो, सत्य को प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो" (परमेश्‍वर की संगति)। "तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। परमेश्वर का स्वागत करने के बदले में तुम लोग धन, उपहार और प्रशंसा माँगते हो। एक-दो सिक्के देते हुए भी तुम्हारा दिल दुखता है; जब तुम दस सिक्के देते हो तो तुम आशीष दिए जाने और दूसरों से विशिष्ट माने जाने की अभिलाषा करते हो। तुम लोगों जैसी मानवता के बारे में तो बात करना या सुनना भी अपमानजनक है। क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रशंसा-योग्य है? जो अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो नहीं निभाते; जो अगुआई करते हैं और जो अनुसरण करते हैं; जो परमेश्वर का स्वागत करते और जो नहीं करते; जो दान देते हैं और जो नहीं देते; जो उपदेश देते हैं और जो वचन ग्रहण करते हैं, इत्यादि; ऐसे सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम लोगों को यह हास्यास्पद नहीं लगता? यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिलकुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचन लोगों के अहंकार के मूल को उजागर करते हैं। इसका मूल है अभिमानी प्रकृति, स्वयं को न जानना। थोड़ा-सा काम करते ही, मैं खुद पर गर्व करने और बिना किसी आत्म-ज्ञान के डी‌गें मारने लगी। थोड़ा-बहुत काम करते ही मैंने खुद को भुला दिया, परमेश्वर के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। अपनी उपलब्धियों का सार श्रेय खुद को दिया, बड़ी ही बेशर्मी से परमेश्वर के काम का श्रेय खुद ले लिया ताकि दूसरे मेरी प्रशंसा करें। मुझे लगा कि मेरे अंदर सत्य की वास्तविकता है, और हर कलीसिया में जाकर वहाँ के लोगों को सत्य सिखाने के व्यर्थ के विचार पाल लिए। मैं बेहद अहंकारी हो गई थी। न तो मैं खुद को जानती थी, न मुझे अपने सार का पता था, न ही यह कि मैं कौन हूँ, फिर भी मैंने खुद को सत्य का स्रोत समझा। क्या मैं अपनी बातों और कार्यों में परमेश्वर का स्थान लेने की कोशिश करते हुए स्वयं परमेश्वर की तरह पेश नहीं आ रही थी? मैं जितना आत्म-चिंतन करती, उतना ही डर लगता कि मेरे अंदर क्या-क्या उजागर हो रहा था। इससे परमेश्वर बेहद नाराज़ हो गया था। यह बहुत ही खतरनाक अवस्था है। मैंने शेखी बघारने को पहले कभी इतनी बड़ी बात नहीं माना था, लेकिन अब मैं जान गई हूँ कि यह लोगों को गुमराह करने और नियंत्रित करने का एक तरीका है, एक मसीह-विरोधी मार्ग है। अगर परमेश्वर ने तत्काल अनुशासित न किया होता, तो पता नहीं मेरा अहंकार मुझे कहाँ ले जाता। फिर तो मुझे अपनी दुष्टता पर पश्चाताप करने का भी मौका न मिलता। यह सब जानने के बाद, मुझे अपनी अहंकारी प्रकृति से डर और घृणा होने लगी। मैंने परमेश्वर से गुहार लगाई कि वो मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं सच्चा पश्चाताप और निष्ठापूर्वक व्यवहार करूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "परमेश्वर की नजरों में, तुम हमेशा एक छोटे से जीव बने रहोगे, तुम्हारी क्षमताएं और योग्ताएँ कितनी भी बड़ी क्यों न हों, तुम्हारे पास कितनी भी प्रतिभाएं क्यों न हों, तो भी तुम पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के शासन के अधीन हो। ... जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मैं एक आम इंसान हूँ, परमेश्वर मुझे चाहे जो हुनर दे या मैं अपने काम में कोई भी उपलब्धि हासिल करूँ, मैं परमेश्वर के सामने मात्र एक सृजित प्राणी ही रहूँगी। मेरी पहचान और हैसियत कभी नहीं बदलेगी। मेरे अंदर कोई महत्वाकांक्षा या इच्छा नहीं होनी चाहिए, मुझे अपना स्थान जानकर बस अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। इस एहसास के बाद मुझे बड़ी राहत मिली, मै समझ गई कि मुझे कैसे आगे बढ़ना है।

उसके बाद सभाओं में, अगर मैं लोगों की समस्याओं का समाधान करती, कुछ उपलब्धि हासिल करती, तो मैं उसे अपनी काबिलियत न बताकर, सारी महिमा परमेश्वर को ही देती। एक बार किसी बहन के साथ काम पर चर्चा करते समय, मैंने उसे एक खास सुझाव दिया और देखा कि वो ध्यान से मेरी बात सुन रही है। शायद ये बहन मुझे सराह रही थी कि मैं सत्य समझती हूँ, समस्याएँ हल कर सकती हूँ। फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरा अभ्यास का मार्ग साझा कर पाना परमेश्वर के प्रबोधन का ही परिणाम है। एक अगुआ के नाते यह मेरा कर्तव्य भी था, इसमें डींगें मारने जैसी कोई बात नहीं है। सारी महिमा परमेश्वर को ही मिलनी चाहिए। उसके बाद, मैंने अपनी सोच में सुधार किया और उसका मुद्दे हल करने के लिए उसके साथ संगति करने पर ध्यान दिया, ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकूँ। ऐसा करके मुझे बहुत अच्छा लगा। ऐसी समझ और परिवर्तन हासिल करने का सारा श्रेय परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को जाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर की महिमा हो!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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