नए विश्वासियों को ट्रेनिंग देते हुए उजागर हुआ
जैसे-जैसे राज्य का सुसमाचार फैल रहा है, ज्यादा-से-ज्यादा लोग परमेश्वर के के अंत के दिनों के काम की छानबीन कर रहे हैं। सुसमाचार के प्रचार और नए विश्वासियों के सिंचन के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत है। सबसे अहम बात है नए विश्वासियों में अच्छी काबिलियत वालों को ट्रेनिंग देना, ताकि वे सब कर्तव्य निभा सकें। कुछ समय बाद, मुझे एहसास हुआ कि नए विश्वासियों की ट्रेनिंग इतनी आसान नहीं थी, ये लोग कुछ न जानने वाले अबोध बच्चे नहीं थे। उन्हें हाथ पकड़कर उनके कर्तव्य सिखाने की जरूरत थी। मुझे हर रोज सभा से पहले उनके साथ विषय-वस्तु की चर्चा करनी पड़ती थी, उन्हें यह भी सीखना पड़ता था कि सभा की मेजबानी कैसे करें। जब वे सभा की मेजबानी करते थे तो मुझे हालात पर नजर रखनी पड़ती थी। अगर वे जल्दी-जल्दी बोलते तो उन्हें समझाना पड़ता था कि धीरे बोलें, नहीं तो दूसरे लोग समझ नहीं पाएंगे। अगर वे ज्यादा ही धीरे-धीरे बोलते तो भी उन्हें समय का ध्यान दिलाना पड़ता था। इसके अलावा, उन्हें यह भी सिखाना पड़ता था कि अपनी समस्याओं और मुश्किलों को कैसे हल करें, ताकि वे जिन भाई-बहनों का सिंचन कर रहे थे, वे सामान्य ढंग से सभाएं करके परमेश्वर के वचन पढ़ सकें और जल्दी से सच्चे रास्ते की नींव रख सकें। अगर इन नवपोषित विश्वासियों को समस्याएँ आतीं, तो मुझे उनकी हालत का ध्यान रखना पड़ता था और मुश्किलों से निकलने के तरीकों पर उनके साथ संगति करनी पड़ती थी, ताकि उनकी हालत ठीक रहे और वे सामान्य ढंग से अपने कर्तव्य निभा सकें।
कुछ समय बाद, मुझे लगा कि नए विश्वासियों की ट्रेनिंग बहुत बोझिल और थकाऊ काम है। समूह अगुआ होने के नाते, मैं न सिर्फ समूह के पूरे काम के लिए जिम्मेदार था, बल्कि उन लोगों का भी सिंचन करना था जिन्होंने अभी-अभी परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा था। इन सभी कामों के लिए वक्त और मेहनत की जरूरत थी। पर अब मेरा ज्यादातर समय और ऊर्जा नए विश्वासियों की ट्रेनिंग पर ही खर्च हो रही थी, और समय के साथ, मेरे सिंचित किए गए कुछ लोगों ने सभाओं में आना बंद कर दिया, तो मुझे उन्हें खोजकर लाना पड़ा और अलग से उनके साथ संगति करनी पड़ी। इससे मैं चिंता में पड़ गया, मुझे शिकायत थी कि नए विश्वासियों की ट्रेनिंग में बहुत समय जाता है, और मेरे सिंचन के काम पर असर पड़ता है। एक महीने बाद, समूह में मेरा प्रदर्शन सबसे खराब रहा। यह बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। एक बार, एक सभा में, मेरी अगुआ ने बहुत-से लोगों के सामने कहा कि मेरा सिंचन का काम असरदार नहीं था, मुझे इतनी झेंप महसूस हुई कि वहाँ से भागने का मन किया। अगर एक समूह अगुआ होने के नाते, मेरा सिंचन दूसरे समूहों से कम असरदार था तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं इस बात को स्वीकार नहीं पा रहा था और बहुत परेशान था। मैं नए विश्वासियों के पोषण के काम से थक गया था। मैंने सोचा कि अगर मैंने अपनी पूरी ऊर्जा भाई-बहनों के सिंचन में झोंक दी होती तो शायद मैं समूह में सबसे बदतर न होता। हम नए विश्वासियों के पोषण के नतीजे फौरन नहीं देख सकते, अगुआओं, कार्यकर्ताओं और अन्य भाई-बहनों ने मेरे द्वारा चुकाई गई कीमत को नहीं देखा था। इन बातों के बारे में सोचकर मुझे घुटन-सी होने लगी, और मैं अचानक नए विश्वासियों के पोषण की अपनी उमंग खो बैठा। मुझे नए विश्वासियों को ट्रेनिंग देना एक बोझ-सा लगने लगा। उस समय तक, मेरी ट्रेनिंग पाए बहुत-से नए विश्वासी अपने बल पर दूसरों का सिंचन कर सकते थे। अगर उन्हें अभी-अभी परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले कुछ भाई-बहनों के सिंचन का काम मिल गया, तो उनके काम की खोज-खबर रखने के अलावा मुझे सिंचन में भी उनकी मदद करनी पड़ेगी। इससे मेरा काम तो बढ़ जाएगा, पर मुझे इसके नतीजों का श्रेय नहीं मिलेगा। मैं मन-ही-मन हिसाब लगाने लगा, "फिर मैं सिंचन का काम उनके हाथ में नहीं दूँगा। उन्हें सिर्फ अपनी जिम्मेदारी वाले भाई-बहनों के सिंचन में हाथ बँटाने के लिए कहूँगा। इससे मुझे कोई चिंता नहीं होगी, काम में नतीजों में भी सुधार होगा, और मेरी छवि निखरेगी।" पर उस समय मुझे सिर्फ अपने नाम और रुतबे का ख्याल था, और मुझे इस विचार में कुछ गलत नहीं लगता था। फिर एक दिन, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, तब जाकर मुझे अपनी हालत का कुछ ज्ञान हुआ। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए', इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। इसे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद समझ में आया कि परमेश्वर लोगों को इस आधार पर नहीं आँकता कि उन्होंने कितने कष्ट सहे हैं, कितनी कीमत चुकाई है, या अपने कर्तव्य में वे कितने असरदार हैं। परमेश्वर यह देखता है कि अपने कर्तव्य निर्वाह में लोग सत्य का अभ्यास करते हैं या नहीं, उनकी मंशा और पहला कदम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए है या नहीं, वे परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं या नहीं। अगर अपने कर्तव्य में तुम्हारा इरादा विशिष्ट और अच्छा दिखने का है, तो तुम चाहे कितने ही कष्ट झेलो, परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारेगा, वह एक दुराचारी के रूप में तुम्हारी निंदा करेगा। मैं जानता था कि नए विश्वासियों का पोषण परमेश्वर के घर का एक अहम काम था। इससे सिंचनकर्ताओं की कमी दूर हो सकती थी, और नए विश्वासी कुछ कर्तव्य निभा पाते, खुद को सत्य से युक्त कर पाते और परमेश्वर के घर के काम का अनुभव ले पाते। इस तरह वे जीवन में तेजी से प्रगति करते। पर मुझे परमेश्वर की इच्छा का ख्याल नहीं था, मैं नए विश्वासियों के जीवन को लेकर गैर-जिम्मेदार था। मुझे सिर्फ अपने काम के असर, अपनी छवि, और अपने रुतबे की चिंता थी, मैं नए विश्वासियों की ट्रेनिंग के लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहता था। मैं बहुत खुदगर्ज और नीच था। कैसे कह सकता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? मैं सिर्फ इज्जत और रुतबे के पीछे भाग रहा था, दुष्टता कर रहा था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी की जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम को फायदा होता है और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को धक्का लगता है, लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है उनकी प्रकृति और सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि व्यावहारिक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की तिलाँजलि कभी नहीं देंगे। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है। क्या यह स्वार्थ और नीचता नहीं है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों से खुलासा हुआ कि मसीह-विरोधी बहुत स्वार्थी और घिनौने होते हैं। वे अपने हितों को सबसे ऊपर रखते हैं, कलीसिया के काम या दूसरों के जीवन प्रवेश का कोई ख्याल नहीं रखते। वे सिर्फ अपने हितों की सोचते हैं। मैंने अपने किए पर आत्मचिंतन किया तो इसे एक मसीह-विरोधी जैसा पाया। मुझे पता था, सुसमाचार फैलाने के लिए नए विश्वासियों का पोषण करना जरूरी था, पर जब मैंने देखा कि नए विश्वासियों की ट्रेनिंग में बहुत वक्त खपाना और कीमत चुकानी पड़ती है, तो मेरे मन में सिर्फ अपने हितों का ख्याल आया। मुझे लगा कि नए विश्वासियों की ट्रेनिंग बहुत वक्त लेती है, जिससे दूसरे कामों की खोज-खबर लेने में देर हो जाती है और मैं उतना असरदार नहीं हो पाता, इससे मेरी छवि खराब होती है। मुझे यह बेइंसाफी लगती थी, मुझे नए विश्वासियों के पोषण के काम से बहुत शिकायत थी, मैंने अपने दम पर कोई कर्तव्य निभा पाने में सक्षम नए विश्वासियों की भी मदद ली, ताकि अपने काम के नतीजों को बेहतर कर सकूं और खुद को बेहतर दिखा सकूं। परमेश्वर के वचनों के इस खुलासे और विश्लेषण से मुझे अपनी खुदगर्जी और घिनौनापन दिखाई दिया। मैं नए विश्वासियों का पोषण परमेश्वर को संतुष्ट करने या परमेश्वर के घर के काम को कायम रखने के लिए नहीं, बल्कि अपना ओहदा बचाए रखने के लिए करता था। यह परमेश्वर के प्रतिरोध का रास्ता था। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ। इसके बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके प्रायश्चित करते हुए कहा कि मैं उसकी इच्छा का पालन करके नए विश्वासियों को पूरी मेहनत से पोषण करूंगा। इसके बाद, मैंने कुछ नए विश्वासियों को खुद ही सिंचन का काम करने के लिए कहा। वे बहुत खुश थे और परमेश्वर के आभारी थे। उन्होंने कहा, उन्हें पता है कि इस कर्तव्य में कई मुश्किलें आएंगी, पर वे परमेश्वर पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हैं, उन्हें विश्वास है कि परमेश्वर सभी मुश्किलों को हल करने में उनकी मदद करेगा। अपने कर्तव्य को लेकर नए विश्वासियों के उत्साही रवैये से मुझे भी काफी प्रेरणा मिली, अब मैं उन्हें सभाओं की मेजबानी सिखाने भर से ही संतुष्ट नहीं था, बल्कि मैं सिंचन का काम बेहतर करने में भी उनकी मदद करना चाहता था। मैंने सिंचन को लेकर कुछ अच्छी बातें लिखीं और उनके साथ इनकी चर्चा की, ताकि वे सीख सकें कि अभी-अभी परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने वालों का कैसे सिंचन करना है। हर सभा के बाद, मैं सामने दिखी समस्याओं पर संगति करता और उनका सार लिखता। कभी-कभी, जब अपने सिंचन के काम में उन्हें कोई मुश्किल आती, तो मैं इसे सुलझाने में उनकी मदद करता। नए विश्वासियों के पोषण के काम में अब मुझे उतनी झिझक या शिकायत नहीं रही, और अब उनकी मदद करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं रही। मैं इसे अपनी जिम्मेदारी की तरह देखता, और बेहतर काम करने की सोचता।
पर, इन नए विश्वासियों में, एक बहन ऐना भी थी, जो अपने कर्तव्य में शायद ही कभी कोई बोझ उठाती थी। कभी-कभी, जब वह कोई काम करने का वादा करती तो वह इसके लिए जरूरी कीमत न चुकाती। आधे महीने से ज्यादा गुजर गया था, पर उसकी जिम्मेदारी वाले नए विश्वासी अभी तक बुनियादी सत्य भी नहीं समझ पाए थे, जैसे कि परमेश्वर का देहधारण और कार्य के तीन चरण, और कुछ तो अभी तक सभाओं में भी नहीं आए थे, इसलिए मैंने ऐना से उनकी मदद करने के लिए कहा। पर कई बार मैं ऐना से संपर्क तक न कर पाता, और वह काम मुझे खुद ही करना पड़ता। मुझे ऐना पर थोड़ी कोफ्त होने लगी थी। ऐसा लगता था कि वह वास्तविक काम नहीं कर रही थी और मेरी राह में रोड़ा बनी हुई थी। मैं अपने कर्तव्य में पहले ही व्यस्त था, और अब मुझे उसकी समस्याएँ भी सुलझानी पड़ रही थीं। लगता था मैं दो कर्तव्य निभा रहा हूँ, यानी ज्यादा चिंता और ज्यादा काम। अच्छा होता अगर मैंने उसे ट्रेनिंग ही न दी होती या किसी बेहतर व्यक्ति को दी होती। तो मैं इस परेशानी से बच जाता। मैं बहन ऐना का पोषण करना छोड़ने की सोच ही रहा था, कि मुझे कुछ दिन पहले पढ़े परमेश्वर के वचनों का अंश याद आया, "जब तुममें स्वार्थ और अवसरवाद प्रकट हो, और तुम्हें इसका एहसास हो जाए, तो तुम्हें इसे हल करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य को खोजना चाहिए। पहली बात जो तुम्हें पता होनी चाहिए वह यह है कि अपने सार में इस तरह का व्यवहार सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन है, कलीसिया के काम के लिए नुकसानदायक है, यह स्वार्थी और घृणित व्यवहार है, जो सामान्य लोगों को नहीं करना चाहिए। तुम्हें अपने निजी हितों और स्वार्थ को एक तरफ रखकर कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए—परमेश्वर की यही इच्छा है। प्रार्थना के माध्यम से आत्मचिंतन करने के बाद, अगर तुम्हें सच में यह एहसास होता है कि इस तरह का व्यवहार स्वार्थी और घृणित है, तो अपने स्वार्थ को दरकिनार करना आसान हो जाएगा। जब तुम अपने स्वार्थ और अवसरवाद को एक तरफ रख दोगे, तो तुम खुद को स्थिर महसूस करोगे, और तुम्हें सुख-शांति का एहसास होगा, तुम्हें लगेगा कि तुम्हें अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार ही आचरण करना चाहिए, कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए, और अपने निजी हितों पर ध्यान गड़ाए नहीं रहना चाहिए, जो कि स्वार्थी और घृणित है और अंतरात्मा और विवेक से रहित है। निस्वार्थ ढंग से काम करना, कलीसिया के काम के बारे में सोचना, और वही करना जिससे परमेश्वर संतुष्ट होता है, यह धार्मिक और सम्मानजनक है और इससे तुम्हारे अस्तित्व का महत्व होगा। पृथ्वी पर इस तरह का जीवन जीते हुए तुम खुले दिल के और ईमानदार रहते हो, सामान्य मानवता और मनुष्य की सच्ची छवि के साथ जीते हो, और न सिर्फ तुम्हारी अंतरात्मा साफ रहती है बल्कि तुम परमेश्वर की सभी कृपाओं के भी पात्र बन जाते हो। तुम जितना ज्यादा इस तरह जीते हो, खुद को उतना ही स्थिर महसूस करते हो, उतनी ही सुख-शांति और उतना ही उज्जवल महसूस करते हो। इस तरह, क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था के सही रास्ते पर कदम नहीं रख चुके होगे?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने साफ-साफ अभ्यास का रास्ता दिखाया था। परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए हमें अपने निजी हित भूल जाने चाहिए, और अपनी अंतरात्मा के अनुसार चलना चाहिए। बहन ऐना को परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किए अभी दो ही महीने हुए थे, वह सत्य को नहीं समझती थी, और अपने कर्तव्य में कोई बोझ नहीं उठाती थी, तो मुझे प्यार से उसके साथ थोड़ी और संगति करनी चाहिए, ताकि वह अपने कर्तव्य निर्वाह का अर्थ समझ सके और बेहतर सिंचन कर सके। यह मेरी जिम्मेदारी थी। पर जब मैंने उसकी कमियाँ देखीं, तो प्रेम या धीरज दिखाने के बजाय मैंने उसे एक मुसीबत समझकर छोड़ना चाहा। मुझमें कोई इंसानियत नहीं थी। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के संबंधित अंश ढूंढकर ऐना के साथ संगति की, उसने परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद अपनी समझ के बारे में जो कुछ लिखा वह दिल को छू लेने वाला था। उसने कहा, "पहले मैं अपना कर्तव्य बिना कोई बोझ उठाए या जिम्मेदारी समझे करती थी। मुझे उन लोगों को अपना दोस्त समझना होगा जिन्होंने अभी-अभी परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा है, उन्हें प्यार और विनम्रता से परमेश्वर के वचन समझाने होंगे, उन्हें दिखाना होगा कि हम उद्धार पाने के लिए परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारते हैं। मुझे खुद को उनकी जगह रखकर उनकी मुश्किलों को समझना होगा। मुझे जिम्मेदारी और प्यार से अपना कर्तव्य निभाना होगा।" इसके बाद, बहन ऐना अपने कर्तव्य में ज्यादा बोझ उठाने लगी। एक बार, आधी रात के बाद, मैंने उससे पूछा कि वह अब तक सोई क्यों नहीं। उसने कहा, वह जांच कर रही थी कि कौन-कौन सभा में नहीं आया था, ताकि अगले दिन उनके साथ संगति कर सके। उसने मुझे दूसरे भाई-बहनों की हालत के बारे में भी बताया। बातचीत के दौरान मैंने उसके खाँसने और नाक बंद होने की घरघराहट सुनी, तो पूछा कि क्या उसे सर्दी है। उसने कहा कि उसे और उसके परिवार को कोरोनावाइरस है और इलाज अभी चल रहा है। उसे कभी-कभी थोड़ी तकलीफ महसूस होती थी, पर वह इस बीमारी में भी अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ने के बजाय परमेश्वर पर भरोसा कर रही थी। उसने रोते हुए मुझसे कहा, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का भरोसा न होता तो वह हिम्मत हार बैठती। अगर इस कर्तव्य की प्रेरणा न होती तो वह ऐसी तकलीफ से मर ही जाती, पर परमेश्वर ने उसकी रक्षा की। उसकी संगति सुनकर मेरी आँखों में भी आँसू आ गए, और उसके अनुभव ने मेरे दिल को छू लिया। मुझे गहराई से एहसास हुआ कि नए विश्वासियों का पोषण करना कितना सार्थक है। हालांकि बहन ऐना बहुत बीमार थी, पर वह इससे पस्त नहीं हुई। उल्टे उसने बड़े आत्मविश्वास से परमेश्वर पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाया। मैं जानता था कि यह पवित्र आत्मा के कार्य का नतीजा था। एक हफ्ते बाद वह बिल्कुल ठीक हो गई। यह खबर सुनकर मैंने परमेश्वर का आभार व्यक्त किया। साथ ही, मुझे अपनी खुदगर्जी और घिनौनेपन पर शर्म भी आई। हमेशा अपने हितों का ख्याल रखने के कारण मैंने बहन ऐना को उसके कर्तव्य से हटा ही दिया होता।
कुछ समय बाद, कलीसिया ने मुझे दो नए विश्वासियों की ट्रेनिंग का जिम्मा सौंपा। शुरू में, मैं बढ़-चढ़कर उनकी मदद करता रहा, पर फिर मैंने देखा कि जिन कामों की जिम्मेदारी मुझ पर थी, उनमें सुधार नहीं हो रहा था। मैंने यह भी सोचा कि इन दोनों नए विश्वासियों की अच्छी ट्रेनिंग के लिए अभी बहुत काम करना बाकी था, जिसमें बहुत समय और प्रयास लगता, इसलिए मैं यह सोचे बिना नहीं रह सका कि "मैं पहले ही कुछ नए विश्वासियों का पोषण कर चुका हूँ। मुझे अपनी जिम्मेदारी वाले भाई-बहनों के सिंचन पर भी मेहनत करनी है। वरना मेरा काम असरदार नहीं होगा। फिर मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" इसलिए मैंने इन दोनों नए विश्वासियों को ट्रेनिंग के लिए दूसरों के पास भेज दिया। पर दूसरों के पास भेजने के तीन दिन के अंदर ही, कुछ खास कारणों से, ये दोनों अपना कर्तव्य निभाना जारी नहीं रख सके। इससे भी ज्यादा उदास करने वाली बात यह थी कि जिस बहन जेनी का मैं पोषण कर रहा था, जो अपने दम पर सिंचन करने में सक्षम थी, उसने अचानक समूह छोड़कर मुझे ब्लॉक कर दिया। मुझे बाद में पता चला कि बहन जेनी ने घर पर व्यवहारिक मुश्किलों के कारण समूह छोड़ा था। उसका बेटा बीमार था और वह उसे डॉक्टर को दिखाना चाहती थी। वह तब काफी कमजोर हो गई थी, पर न तो मैं उसकी मुश्किल को समझा और न ही उसकी मदद कर पाया। जब उसने मुझसे बात करनी चाही, तो मैंने काम की व्यस्तता की बात कहकर उसकी उपेक्षा कर दी। नतीजतन, उसकी मुश्किलें समय पर हल नहीं हो पाईं, और वह निष्क्रिय होकर पीछे हट गई। यह सब अचानक घट जाने के कारण, मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया और दिल में एक टीस उठने लगी। मैंने खुद को शांत करने की कोशिश करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, उसकी इच्छा को समझने और सबक सीखने के लिए राह दिखाने की विनती की।
इसके बाद, मेरी हालत पर चर्चा करके मेरी अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। जो लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। उनके हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, यह उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह विघटन, रुकावट और हानि है। यह लोगों के प्रसिद्धि और हैसियत के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों का जीवन में प्रवेश बाधित करते हैं, यहाँ तक कि उनका दूसरों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ता है। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि जब लोग अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार और कार्यों को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और उसके चुने हुए लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। वे जानबूझकर परमेश्वर का विरोध और उसके निर्णयों पर विवाद खड़ा करते हैं। यह लोगों के हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की प्रकृति है। अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। जब हम प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो हमारे इरादे और शुरुआती कदम परमेश्वर के शत्रु और शैतान की देन होते हैं, और हम बस कलीसिया के काम में रुकावट और अड़ंगे डालते हैं। यह सब दुष्टता है। मुझे एहसास हुआ मैं बार-बार नए विश्वासियों के पोषण के लिए तिकड़में लड़ाता था, जब भी ज्यादा वक्त और मेहनत खपाने की बात होती, मैं हमेशा ऐसा काम चुनता था जिससे दूसरों से विशिष्ट दिखूँ, और कभी-कभी जिन विश्वासियों का पोषण कर रहा होता उन्हें दूसरों के हवाले कर देता था। मुझे पता था ऐसा करने के कई नुकसान थे। नए विश्वासियों को दूसरों के हवाले करने का मतलब था दूसरे ट्रेनर को उनकी और उनकी हालत के बारे में जानना होगा, और ट्रेनर बदलने पर, शायद नए विश्वासी उसके साथ तालमेल न बिठा सकें, या बदलाव को स्वीकार न करें। पर मैं उनकी वास्तविक हालत और उनकी भावनाओं का कोई ख्याल नहीं रखता था। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए, अपने काम को असरदार बनाने के लिए समय बचाने के इरादे से, मैं नए विश्वासियों को जबरन खदेड़ देता था। मेरा दिल कितना निष्ठुर था! खासकर बहन जेनी के मामले में, जब वह मुसीबत में थी, नकारात्मक और कमजोर थी, और मुझसे मदद चाहती थी, मैंने उसकी जरा भी परवाह नहीं की। मेरे बर्ताव से उस बेचारी का दिल टूट गया। मैं इस बारे में जितना सोचता, उतनी ही मुझे खुद से नफरत होती, मैंने खुद को तमाचा जड़ना चाहा। तथ्यों द्वारा उजागर किए जाने के बाद, मैंने देखा कि मैं हर जगह अपने हित देखता था, प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागता था। मैंने नए विश्वासियों के पोषण के काम में ही देर नहीं की, बल्कि एक को तो छोड़ जाने और उद्धार का अवसर गंवा देने पर मजबूर कर दिया। मैं दुष्टता कर रहा था और यह एक अपराध था! मुझे गहरा अपराध-बोध हुआ। मैं कई दिनों तक उस नई विश्वासी को बार-बार फोन मिलाता और संदेश भेजता रहा। मैं उसे ढूंढकर उससे माफी मांगना चाहता था, पर इस नुकसान की भरपाई नहीं हो पाई। मुझे गहरा पश्चाताप हुआ, अपने अनुसरण पर ग्लानि महसूस हुई।
अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने और पुराने रास्ते पर भटकने से बचने के लिए, मैंने परमेश्वर की वचनों को खाने-पीने के लिए उन प्रासंगिक अंशों की खोज की। परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "हालाँकि ज्यादातर लोग कहते हैं कि वे स्वेच्छा से सत्य का अनुसरण करते हैं, लेकिन जब उसे अमल में लाने या उसके लिए कीमत चुकाने की बात आती है, तो कुछ लोग बस हार मान लेते हैं। यह सार में विश्वासघात करना है। कोई क्षण जितना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उतनी ही ज्यादा तुम्हें दैहिक रुचियाँ छोड़ने और घमंड और अभिमान त्यागने की आवश्यकता होती है; अगर तुम ऐसा करने में असमर्थ हो, तो तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, और यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी नहीं हो। कोई पल जितना ज्यादा संकटकालीन हो, अगर उसी के अनुसार लोग समर्पण करने में सक्षम हों और अपने स्वार्थ, मिथ्याभिमान और दंभ को त्याग सकें, तथा अपने कर्तव्यों को उचित रूप से पूरा कर सकें, केवल तभी वे परमेश्वर द्वारा याद किए जाएँगे। वे सभी अच्छे कर्म हैं! चाहे लोग कोई भी कर्तव्य निभाएँ या कुछ भी करें, ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है—उनका मिथ्याभिमान और दंभ, या परमेश्वर की महिमा? लोगों को किसे चुनना चाहिए? (परमेश्वर की महिमा।) क्या ज्यादा महत्वपूर्ण हैं—तुम्हारे दायित्व, या तुम्हारे स्वार्थ? तुम्हारे दायित्वों को पूरा करना ज्यादा महत्वपूर्ण है, और तुम उनके प्रति कर्तव्यबद्ध हो। ... जब तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो एक सकारात्मक प्रभाव होगा, और तुम परमेश्वर की गवाही दोगे, जो शैतान को शर्मिंदा करने और परमेश्वर की गवाही देने का एक तरीका है। परमेश्वर की गवाही देने और शैतान को त्यागने और ठुकराने का अपना दृढ़ संकल्प उसे दिखाने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करना : यह शैतान को शर्मसार करना और परमेश्वर की गवाही देना है—यह सकारात्मक और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर और सत्य को प्राप्त करना सबसे बड़ा सुख है')। "जब कोई सत्य का अनुसरण करता है, तो वह परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हो पाता है, और परमेश्वर के दायित्व के प्रति सचेत रहता है। जब वह अपने कर्तव्य का पालन करता है, तो हर तरह से कलीसिया के कार्य को बनाए रखता है। वह परमेश्वर को महिमा-मंडित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, उन्हें सहारा देता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है जो शैतान को लज्जित करता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसा प्राणी प्राप्त करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर की इच्छा भी कार्यान्वित हो जाती है, और परमेश्वर का कार्य भी प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, ईमानदार है। ऐसा अनुसरण परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है, और साथ ही कलीसिया के कार्य के लिए पूरी तरह से लाभदायक होने के कारण यह चीजें आगे बढ़ाने में मदद करता है, और परमेश्वर द्वारा इसकी प्रशंसा की जाती है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए मेरे दिल में हलचल मच गई। एक सृजित प्राणी के तौर पर, मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के बजाय अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। कोई घड़ी जितनी ज्यादा विकट हो, मुझे अपने हितों और दंभ का उतना ही परित्याग कर अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए। यह नेक कर्म है। अब राज्य का सुसमाचार फैल रहा है, परमेश्वर को उम्मीद है कि और ज्यादा लोग सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए तैयार होंगे, ताकि अंधकार में रहने वाले परमेश्वर की वाणी सुन सकें, उसके सम्मुख आ सकें, उसके उद्धार को स्वीकार सकें। परमेश्वर यह उम्मीद भी करता है कि और ज्यादा नए विश्वासी अपने दम पर सुसमाचार के प्रसार का कर्तव्य निभा सकेंगे। इसलिए, नए विश्वासियों का पोषण मेरा सबसे महत्वपूर्ण काम था। मैं अब इतना खुदगर्ज और घिनौना बनकर नहीं जी सकता था। मुझे अपने मिथ्या अनुसरण और विचार बदलने थे, और एक निर्मल, ईमानदार दिल के साथ परमेश्वर के सम्मुख जीना था। अगुआ, कार्यकर्ता या मेरे भाई-बहन मेरे बारे में चाहे कुछ भी सोचें, मैं बस नए विश्वासियों को जमीनी तरीके से ट्रेनिंग देना चाहता था, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहता था।
इसके बाद, मैंने अपना दिल खोलकर भाई-बहनों के साथ संगति की, और नए विश्वासियों के पोषण के मामले में दिखी अपनी भ्रष्टता और अनुसरण को लेकर अपने गलत नजरिए का विश्लेषण किया। मैंने पोषण की संभावना वाले कुछ और नए विश्वासियों को भी ट्रेनिंग देनी शुरू की। इन नए विश्वासियों में एक भाई काम में इतना व्यस्त रहता था कि वह हर सभा की मेजबानी नहीं कर पाता था। मुझे पता था कि इस नए विश्वासी के पोषण में कुछ ज्यादा समय और ऊर्जा लगेगी, पर मैं पहले की तरह इस स्थिति से कतराया नहीं। इस बार नए विश्वासियों के पोषण में मैंने ज्यादा धीरज से काम लिया। उनकी कोई भी समस्या क्यों न हो, मैंने उनकी हर संभव मदद की। महीने के आखिर तक, उनके सिंचन के नतीजे मुझसे बेहतर थे, और मैं बहुत खुश था। यह नतीजा देखकर मुझे सुरक्षा और सुकून महसूस हुआ। मैं यह भी समझ गया कि परमेश्वर सिर्फ यह नहीं चाहता कि मैं अपने काम में कितना हासिल करता हूँ, वह इसकी ज्यादा उम्मीद करता है कि मैं अपने कर्तव्य में उसकी इच्छा का ध्यान रखूँ, अपने हितों के लिए तिकड़म न लड़ाऊँ, और अपनी जिम्मेदारियाँ निभाता रहूँ, और नए विश्वासियों को ऐसी ट्रेनिंग दूं कि वे अपने कर्तव्य खुद निभा सकें। भले ही उस महीने मेरे सिंचन के नतीजे समूह के दूसरे लोगों जितने अच्छे नहीं थे, पर मैं पहले की तरह परेशान नहीं हुआ, अब प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा उतनी प्रबल नहीं रही थी, और मैं नए विश्वासियों के पोषण के काम में ज्यादा बोझ भी उठा रहा था। मैं जानता था कि यह मेरे भीतर परमेश्वर के कार्य का नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?