मैं फिर कभी अपनी मंजिल को तरजीह नहीं दूँगा
पिछली बार जो किरदार निभाया था, उसकी भावनात्मक स्थिति पर मैंने पूरा काम नहीं किया था या उसके व्यक्तित्व को ठीक से पकड़ नहीं पाया था। बस अपनी समझ के मुताबिक निभा दिया। सतही तौर पर तो मैंने निर्देशक की सलाह मान ली, लेकिन अंदर ही अंदर उस पर अपने तरीके से सोचता रहा। नतीजतन, मैं अपने किरदार में जान नहीं डाल पाया और फिल्म अच्छी नहीं बनी। अगुआ ने मेरा काम बदलकर मुझे सुसमाचार प्रचार में लगा दिया। मेरे अहंकार, जिद और अपने काम को अच्छे से न कर पाने की वजह से फिल्मांकन प्रक्रिया ठप पड़ गई। मुझे वाकई बहुत बुरा लगा, इसलिए मैं सुसमाचार प्रचार और अपने अपराधों के प्रायश्चित के लिए अच्छे कर्म करना चाहता था। उसके बाद, मैंने अपने गलत कामों का प्रायश्चित करने के लिए सुसमाचार प्रचार पर बहुत काम किया। मैंने बहुत से लोगों का मत-परिवर्तन किया, इससे मुझे बहुत खुशी हुई, अपने काम में और अपने कर्तव्य के प्रति प्रेरणा मिली।
तो इस बार, जब अगुआ ने मुझसे ऑडिशन देने को कहा, तो मेरे मन में झिझक थी। मुझे लगा मैं अभिनेता नहीं बन सकता। पिछली असफलता को देखते हुए लगा कि शायद इस बार भी असफल हो जाऊँ। यह सुसमाचार प्रचार का एक महत्वपूर्ण समय है और मुझे वहाँ अच्छे परिणाम मिल रहे थे। अगर अभिनय करना पड़ा तो प्रचार नहीं कर पाऊँगा। वैसे भी उस किरदार के बहुत सारे सीन थे। अगर अच्छे से निभा गया तो ठीक है, लेकिन अगर नहीं निभा पाया और पिछली बार की तरह नाकाम हो गया और फिल्मांकन रुक गया, तो यह एक और अपराध होगा। इससे मेरा सुसमाचार कार्य और अच्छे काम भी अटक जाएँगे। मुझे दोहरा नुकसान होगा। मैंने खूब सोचा और आखिरकार फैसला किया कि इस बार ऐसा बिल्कुल नहीं करूँगा। मैं सोच रहा था कि क्या अगुआ निजी पसंद के आधार पर लोगों को चुन रही है। तो मैंने उससे कहा : “मैं यह भूमिका नहीं निभा पाँऊगा। आप किसी और को ले लीजिए।” लेकिन उसने आग्रह किया कि मैं कोशिश करके देखूँ, आखिरकार मुझे सहमत होना पड़ा। फिर भी, जानता था कि यह भूमिका मुझे नहीं मिलेगी। मैंने सोचा कि बेमन से ऑडिशन दे दूँगा, बाकी अगुआ और निर्देशक जानें। फिर वे अपने आप ही हार मान लेंगे। शूटिंग लोकेशन पर मैंने निर्देशक से कहा : “आप सबने देखा था ना कि पिछली बार मैंने गड़बड़ कर दी थी? तो फिर से मुझे क्यों बुला रहे हैं?” उसने जवाब दिया : “जितने भी लोगों ने ऑडिशन दिया है, उनमें से कोई भी इस भूमिका में ठीक नहीं बैठा। हमने इस पर अगुआ के साथ चर्चा करके सभी पहलू सोच लिए हैं। यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है और तुम इस किरदार में बिल्कुल ठीक बैठते हो। मुझे उम्मीद है, तुम पूरे काम पर ठंडे दिमाग से सोचोगे और मन लगाकर ऑडिशन दोगे।” वह इस फिल्म का महत्व जितना अधिक बता रहा था, मैं उसमें अभिनय से उतना ही डरता जा रहा था। मैं पिछली बार असफल जो हो चुका था। अगर मैं किरदार को समझ नहीं पाया या उसे अच्छे से निभा नहीं पाया तो? उनकी तमाम बातों के बावजूद, मैं इसी बात पर अड़ा रहा कि मैं यह किरदार नहीं कर सकता। मैंने सोचा कि मैं जल्दी से एक घटिया-सा ऑडिशन दे दूँगा जिससे निर्देशक समझ जाएगा कि मैं नहीं कर सकता। तब मैं सुसमाचार प्रचार के लिए वापस जा सकता हूँ। इस तरह मन बना लेने पर, मुझे बेचैनी हुई और थोड़ा डर भी लगा। अगर यह परमेश्वर का आदेश हुआ और मैंने नहीं माना, तो यह उसका अपमान होगा। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझकर उसके प्रति समर्पण कर सकूँ और तुमसे विद्रोह न करूँ।”
अगले दिन सभा में, अगुआ ने परमेश्वर के वचन पढ़े जिनका मुझ पर वाकई बहुत असर हुआ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “समर्पण के पाठ सबसे कठिन होते हैं, लेकिन वे सबसे आसान भी होते हैं। वे कठिन किस प्रकार होते हैं? (लोगों के अपने विचार होते हैं।) अपने विचार होना समस्या नहीं है—किस व्यक्ति के अपने विचार नहीं होते? सभी में दिल और दिमाग होता है, सभी के अपने विचार होते हैं। यहाँ समस्या यह नहीं है। तो फिर क्या है? समस्या मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। यदि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट नहीं होता, तो उसके अंदर चाहे जितने विचार होते, वह समर्पण करने में सक्षम होता—वे कोई समस्या नहीं होते। यदि किसी में यह समझ है और वह कहता है, ‘मुझे सभी बातों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैं न तो कोई बहाना बनाऊँगा और न ही अपने विचारों पर जोर दूँगा, मैं इस मामले में अपना कोई निर्णय नहीं दूँगा,’ क्या उसके लिए समर्पित होना आसान नहीं है? यदि कोई व्यक्ति अपने निर्णय पर नहीं पहुँचता है, तो यह इस बात का संकेत है कि वह आत्मतुष्ट नहीं है; यदि वह अपने विचारों पर जोर नहीं देता है, तो यह संकेत है कि उसमें समझ है। यदि वह समर्पण भी कर पाता है, तो इसका अर्थ है कि उसने सत्य का अभ्यास कर लिया है। ... कुछ परेशानी आने पर यदि तुम अपने फैसले खुद लेना चाहते हो, औरों से तर्क करना चाहते हो और अपने विचारों पर अड़े रहना चाहते हो, तो यह चीज काफी परेशानी पैदा करेगी। क्योंकि जिन चीजों पर तुम जोर दे रहे हो, वे सकारात्मक नहीं हैं और ये सभी भ्रष्ट स्वभाव में मौजूद चीजें हैं। ये सभी चीजें भ्रष्ट स्वभाव का बाहर आना हैं, ऐसी परिस्थितियों में, भले ही तुम सत्य खोजना चाहो, तुम उसका अभ्यास नहीं कर पाओगे, भले ही तुम परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहो, लेकिन तुम बेमन से ही प्रार्थना करोगे। यदि कोई तुम्हारे साथ सत्य के बारे में सहभागिता करता है और तुम्हारे इरादे की मिलावट को उजागर करता है, तो तुम कैसे चुनाव करोगे? क्या तुम आसानी से सत्य को स्वीकार कर सकते हो? ऐसे समय में समर्पण करने के लिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी और तुम समर्पण नहीं कर पाओगे। तुम अवज्ञा करोगे और दूसरों के साथ तर्क करने की कोशिश करोगे। तुम कहोगे, ‘मेरे निर्णय परमेश्वर के घर के लिए हैं। वे गलत नहीं हैं। फिर भी तुम क्यों चाहते हो कि मैं समर्पित हो जाऊँ?’ देख रहे हो न कि कैसे तुम समर्पित नहीं हो पाओगे? इसके अलावा, तुम विरोध भी करोगे; यह जानबूझकर किया गया अपराध है! क्या यह बहुत बड़ी परेशानी वाली बात नहीं है? अगर कोई तुम्हारे साथ सत्य पर संगति करे और तुम सत्य स्वीकार न कर पाओ और जानबूझकर अपराध तक करो, परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करो, तो तुम्हारी समस्या बहुत गंभीर है। इसका जोखिम है कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा उजागर कर निष्कासित कर दिया जाए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है)। “भ्रष्ट स्वभाव को कैसे सुधारा जा सकता है? पहले तो यह देखना होता है कि क्या तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम हो और क्या तुम उन सभी परिस्थितियों के प्रति समर्पित हो सकते हो जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है)। तभी मुझे लगा जैसे मैं किसी सपने से जागा हूँ। परमेश्वर के वचनों ने हूबहू मेरी हालत बयाँ कर दी। मैं इस बार अभिनय नहीं करने पर अड़ा हुआ था। झुकने को तैयार नहीं था और बहस किए जा रहा था। मैं पहले नाकाम हो चुका था, मैंने खराब अभिनय किया था, जबकि सुसमाचार प्रचार में मैं अच्छा कर रहा था, तो वे मुझसे फिर से अभिनय करवाने पर क्यों तुले हुए थे? मुझे लगा जैसे अगुआ कोई निजी सनक पूरी कर रहा है। मैं आज्ञा मानने के बजाय विरोध कर, भ्रष्ट स्वभाव में जी रहा था। उस पल मुझे एहसास हुआ, देखने में भले ही कोई इंसान मुझे ऑडिशन के लिए कह रहा है, जबकि हकीकत में, यह परमेश्वर का आयोजन था। अब अपनी बात पर अड़े रहने का अर्थ विद्रोह करना होगा। इस समझ ने मेरी सोच थोड़ी बदल दी। चाहे कुछ भी हो, मुझे समर्पित होकर, इस कर्तव्य को गंभीरता से लेना चाहिए और ऑडिशन में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए। हैरानी की बात है कि ऑडिशन के बाद, मुझे उस भूमिका के लिए चुन लिया गया।
मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। “तुम्हें समर्पण के सत्य को कैसे प्राप्त करना और समझना चाहिए? अधिकांश लोगों का मानना है कि समर्पित होना आज्ञाकारी होना है, कोई बात होने पर विरोध या अवज्ञा नहीं करना है। उनका मानना है कि यही समर्पित होना है। लोग समर्पण की बारीकियों को नहीं समझते : परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग समर्पण करें, समर्पण के मायने और सिद्धांत क्या हैं, इंसान को कैसे समर्पण करना चाहिए, समर्पण का अभ्यास करते समय लोगों को कौन-सी भ्रष्ट चीजों का समाधान करना चाहिए। लोग केवल नियमों का पालन करते हैं और सोचते हैं, ‘समर्पण का अर्थ है कि अगर मुझे खाना बनाना है, तो मैं फर्श पर झाड़ू नहीं लगाऊँगा और अगर मुझे फर्श पर झाड़ू लगानी है, तो मैं कांच नहीं चमकाऊँगा। मैं वही करूँगा जो मुझे करना है; यह इतना आसान है। मेरे मन में क्या है, इस पर मुझे ध्यान नहीं देना है; परमेश्वर उस पर ध्यान नहीं देता है।’ वास्तव में, परमेश्वर लोगों को अपने प्रति समर्पित करवाकर उनके विद्रोह और भ्रष्टता को दूर करता है, ताकि वे उसके प्रति सच्चा समर्पण कर सकें। यही समर्पण का सत्य है। आखिर किस हद तक लोगों को इस बारे में समझाना और सिखाना चाहिए? इस हद तक कि वे समझ जाएँ कि परमेश्वर लोगों से चाहे कोई भी अपेक्षा करे, उन्हें उसे पूरा करना चाहिए, उसमें परमेश्वर की इच्छा निहित है और लोगों को बिना शर्त उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। यदि लोग इस हद तक समझ सकें, तो वे समर्पण के सत्य को समझ जाएँगे और परमेश्वर के प्रति समर्पण का अभ्यास कर उसे संतुष्ट कर सकेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल वे जो सत्य को समझते हैं, आध्यात्मिक बातों को समझते हैं)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं आत्म-चिंतन करने लगा। मेरा शूटिंग में भाग लेना भले ही मेरा समर्पण दिख रहा हो, लेकिन परमेश्वर के वचनों के मद्देनजर, यह बिल्कुल भी सच्चा समर्पण नहीं था। मुझे अभी सत्य खोजना था, अपनी भ्रष्टता दूर करनी थी और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना था। मैंने इस पर थोड़ा विचार किया। शूटिंग के दौरान, मैं बहुत अनमना रहा, मेरा मन बहुत प्रतिरोध से भरा था। कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे चला रहा था?
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिनसे मुझे इस समस्या पर एक अंतर्दृष्टि मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि और हैसियत को अपनी आशीषों की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। इसलिए वे अपना आशीषों का सपना टूटने से बचाने के लिए परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से बचकर रहते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत से चिपके रहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी यही एकमात्र आशा है। मसीह-विरोधी आशीष पाने को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे परमेश्वर द्वारा आशीष पाने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का रास्ता रखते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “वे लोग जो परमेश्वर को लेकर हमेशा शंकालु रहते हैं, हमेशा उसकी जाँच-पड़ताल करते रहते हैं, उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं—क्या वे ईमानदार दिल वाले लोग हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों के दिलों में क्या बसता है? चालबाजी और दुष्टता; वे हमेशा पड़ताल में लगे रहते हैं। वे किस चीज की जाँच-पड़ताल करते हैं? (लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की।) वे हमेशा लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं। यह कैसी समस्या है? वे ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए क्योंकि इनसे उनके अहम हित जुड़े होते हैं। वे अपने दिलों में सोचते हैं, ‘परमेश्वर ने मेरे लिए ये हालात पैदा किए हैं, उसके कारण मेरे साथ ऐसा हुआ। उसने ऐसा क्यों किया? दूसरे लोगों के साथ तो ऐसा नहीं हुआ—तो यह मेरे साथ ही क्यों हुआ? और बाद में इसके परिणाम क्या होंगे?’ वे इन चीजों की पड़ताल करते हैं, अपने लाभ-हानि की, आशीषों और दुर्भाग्य की पड़ताल करते हैं। और यह पड़ताल करते हुए क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? क्या वे परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाते हैं? वे ऐसा नहीं कर पाते। ... यदि लोग केवल अपने हितों पर विचार करते हैं, तो इसका नतीजा क्या होता है? जब वे केवल अपने लिए काम करते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर का आज्ञापालन करना आसान नहीं होता और वे ऐसा करना चाहते हैं, तब भी नहीं कर पाते। और जो हमेशा सिर्फ अपने खुद के हितों के बारे में सोचते हैं, उन लोगों की पड़ताल का अंतिम परिणाम क्या होता है? वे सिर्फ परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विद्रोह करते हैं। वे जब अपने कर्तव्य का निर्वाह करने का आग्रह करते हैं, तो इसे भी लापरवाह और अनमने होकर, और नकारात्मक मनोस्थिति के साथ करते हैं; वे अपने दिल में यह सोचते रहते हैं कि लाभ कैसे उठाएँ, हारने वालों में कैसे न हों। अपना कर्तव्य निभाते हुए उनके यही इरादे होते हैं, और वे इसमें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का प्रयास कर रहे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह चालबाजी है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। यह कोई मामूली भ्रष्ट स्वभाव भी नहीं है, यह दुष्टता तक जा पहुँचा है। और जब दिलों में इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव होता है, तो यह परमेश्वर के खिलाफ संघर्ष है! तुम्हें इस समस्या के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अगर लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं, तो क्या वे इसे ठीक-से निभा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर हमें बताता है कि मसीह-विरोधी कभी भी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि अपनी मनमर्जी चलाते हैं। वे अपने सतही बलिदानों और प्रयासों के बदले एक सुंदर मंजिल चाहते हैं, लेकिन जब वे रुतबा या दौलत पाने में नाकाम हो जाते हैं, तो लापरवाह और अनमने होकर अपने कर्तव्य नकार देते हैं। मेरी हालत भी वैसी ही थी जैसी परमेश्वर ने बयाँ की है। जब मुझे एक किरदार निभाने के लिए कहा गया, तो मैंने केवल अपने भविष्य की सोची। मुझे लगा कि मैं सुसमाचार प्रचार में सफल रहा हूँ, इसलिए अगर इसी काम में लगा रहूँगा तो अपनी पिछली गलतियों को सुधारने के लिए और अच्छे कर्म कर सकता हूँ, इससे मेरी मंजिल पक्की हो जाएगी। लेकिन, बतौर अभिनेता, मैं पहले ही एक बार असफल हो चुका था और नहीं पता था कि इस बार भी सफल हो पाऊंगा या नहीं। अगर मैंने खराब प्रदर्शन किया और शूटिंग अटक गई, तो यह एक और अपराध होगा और मेरे सुसमाचार प्रचार के नेक कार्य में भी देरी होगी। यह काम इतना अहम नहीं लगा। मैंने इसे न करने की दलीलें खोजने की कोशिश की, काम से बचने के लिए मैंने अपनी पिछली नाकामी का बहाना बनाया। मैं बेमन से ऑडिशन के लिए गया और लापरवाही से ऑडिशन देकर इससे पिंड छुड़ाना चाहा। लेकिन निर्देशक का साफ मानना था कि उस भूमिका के लिए मैं ही सबसे उपयुक्त कलाकार हूँ। लेकिन मुझे कलीसिया के काम की जरूरतों की कोई परवाह नहीं थी। मैं बस यही सोच रहा था कि मुझे सबसे ज्यादा फायदा किस काम से होगा, और सारी जोड़तोड़ के बाद, ऐसा लगा कि एक अभिनेता बनने के बजाय सुसमाचार प्रसार करके मैं ज्यादा अच्छे से अपनी मंजिल पक्की कर सकता हूँ। तो अड़ियल बनकर मैंने उस भूमिका को ठुकरा दिया। मैंने अपने काम में नुकसान उठाने के बजाय फायदा देखने की कोशिश की। कलीसिया अपने कार्य की जरूरतों के हिसाब से मेरे काम की व्यवस्था कर रही थी और मुझे उसके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए था। लेकिन मैं एक कारोबारी की तरह पेश आकर सोच रहा था कि फिल्म करने से मुझे फायदा होगा या नहीं। नीच इरादे छुपाने के लिए मैंने ये सब सम्मानजनक-लगते बहाने ढूँढ़ निकाले थे। मैं अपना कपटी और दुष्ट स्वभाव दिखा रहा था, परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर चालें चल रहा था! पहले मुझे लगता था कि मेरा सुसमाचार प्रचार करना परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखना है। लेकिन अब जाना कि मैं अपने गलत कामों के प्रायश्चित के तौर पर लोगों का मत-परिवर्तन करना चाहता था, ताकि शूटिंग संबंधी मेरे अपराधों की भरपाई हो और मुझे शानदार मंजिल मिल जाए। मैं अपने कर्तव्य का इस्तेमाल आशीष पाने के लिए कर रहा था। मैंने विचार किया कि दमिश्क जाते हुए कैसे एक तेज रोशनी के जरिए पौलुस अंधा हो गया था, मैं धार्मिकता के मुकुट के बदले अपने पापों की भरपाई के लिए सुसमाचार फैलाना चाहता था। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मेरे मंसूबे पौलुस से अलग कैसे थे? मैं एकदम गलत था। पौलुस की तरह मैं भी परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रहा था। यह एहसास होने पर लगा कि मैं नीच हूँ। मैंने घृणा भाव से खुद को धिक्कारा। रोते हुए प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं अपने काम में तेरे साथ सौदेबाजी कर रहा हूँ, मैं धोखेबाज और दुष्ट हूँ। बरसों के विश्वास के बाद भी, मैं तेरे साथ अपने रिश्तों में चालें चल रहा हूँ। मुझे शैतान ने इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है कि मेरी इंसानियत मर चुकी है—मुझे बचा ले!” बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम्हारा गंतव्य और तुम्हारी नियति तुम लोगों के लिए बहुत अहम हैं—वे गंभीर चिंता के विषय हैं। तुम मानते हो कि अगर तुम अत्यंत सावधानी से कार्य नहीं करते, तो इसका अर्थ यह होगा कि तुम्हारा कोई गंतव्य नहीं होगा, कि तुमने अपना भाग्य बिगाड़ लिया है। लेकिन क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अगर कोई मात्र अपने गंतव्य के लिए प्रयास करता है, तो वह व्यर्थ ही परिश्रम करता है? ऐसे प्रयास सच्चे नहीं हैं—वे नकली और कपटपूर्ण हैं। यदि ऐसा है, तो जो लोग केवल अपने गंतव्य के लिए कार्य करते हैं, वे अपनी अंतिम पराजय की दहलीज पर हैं, क्योंकि परमेश्वर में व्यक्ति के विश्वास की विफलता धोखे के कारण होती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में)। “अंतत:, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसकी व्यवस्था की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और यही वह मानक है, जिसे वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए इस्तेमाल करता है। यह मानक अपरिवर्तनीय है, और तुम्हें इसे याद रखना चाहिए। इस मानक को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज का अनुसरण करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनीय हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना, अगर तुम केवल अच्छी मंजिल पाने के लिए मेहनत करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया को अपने छिपे मंसूबों और सौदेबाजी से दूषित कर रहे हो। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चे और आज्ञाकारी नहीं हो सकते, तुम्हारा स्वभाव नहीं बदलेगा और तुम परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकोगे। मैंने मन को शांत कर अपने अनुभवों के बारे में सोचा। अपनी फिल्मी नाकामी के बाद, मुझे लगा था कि मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाया, मैंने हमारे काम को लटकाकर अपराध किया है, तो अपनी मंजिल को लेकर मुझे चिंता हुई थी। अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के लिए मैं सुसमाचार प्रचार के काम में जुट गया। कुछ लोगों का मत-परिवर्तन करने के बाद मुझे लगा कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित हूँ और मुझे एक अच्छी मंजिल मिल सकती है। मैंने इस सच्चाई का पता नहीं लगाया या आत्म-चिंतन नहीं किया कि मैं पिछले फिल्मांकन में नाकाम क्यों रहा। मैंने न तो सुसमाचार प्रचार में दिखाई अपनी भ्रष्टता पर, न सिद्धांतों के उल्लंघन पर और न ही अपने गलत विचारों पर कोई आत्म-चिंतन किया। मैं बस थोड़ा-सा काम करके और हर दिन प्रचार करके संतुष्ट था, लेकिन मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला। मैं अपनी छोटी-सी उपलब्धि से ही खुश था। मेरा अहंकार बढ़ता गया और आशीष पाने की इच्छा प्रबल होती गई। मैंने विचार किया कि कैसे पौलुस ने इतने सारे लोगों का मत-परिवर्तन कर दिया था, लेकिन अपने प्रचार के दौरान, उसने कभी प्रभु यीशु या परमेश्वर के वचनों की गवाही नहीं दी। वह अपना ही उत्कर्ष और दिखावा करता रहा, जिससे उसका स्वभाव और भी अहंकारी होता चला गया। वह कभी नहीं समझ पाया कि कैसे उसकी प्रकृति और सार ने परमेश्वर का विरोध किया, उसने अपने काम, कष्टों और मत-परिवर्तन को पूँजी के रूप में और खुले तौर पर परमेश्वर से धार्मिकता का मुकुट माँगने के लिए इस्तेमाल किया। अंत में तो उसने यह भी गवाही दी कि वह स्वयं ही मसीह है, नतीजतन, परमेश्वर ने उसे दंडित किया और धिक्कारा। मैं समझ गया कि मैं भी असफलता के उसी मार्ग हूँ जिस पर पौलुस था जो कि बेहद खतरनाक है। मुझसे दूसरी फिल्म करवाकर, परमेश्वर मुझे एक और अवसर दे रहा था। इस माहौल में, मैं अपने गलत विचारों पर आत्म-चिंतन कर थोड़ी समझ प्राप्त कर सकता था। यह सब घटित होना, मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। लेकिन मैं यह नहीं समझ पाया था। लगा फिल्मांकन मुझे सुसमाचार प्रचार और नेक कर्म करने से रोकेगा। मुझे अच्छे-बुरे का कुछ पता नहीं था। मैं कितना अंधा और मूर्ख था! यह जानने पर मुझे बेहद पछतावा हुआ, साथ ही परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता जागी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर उसे धन्यवाद दिया।
अपनी भक्ति में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े। इनसे मुझे परमेश्वर की इच्छा समझने में मदद मिली और अनुसरण का मार्ग भी मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। “यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। चाहे कोई भी कार्य करो, वह परमेश्वर की व्यवस्था ही होता है, एक जिम्मेदारी होती है जिसे इंसान को पूरा करना चाहिए, एक सृजित प्राणी को पूरा करना चाहिए। इसका आशीष या शाप से कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया ने मुझे चाहे जो काम सौंपा हो, चाहे मैं उसमें अच्छा न हूँ या पहले नाकाम हो चुका हूँ, मुझे उसे स्वीकार कर समर्पित हो जाना चाहिए, फिर पता लगाना चाहिए कि उसे अच्छे से कैसे किया जाए और मुझे कौन से सिद्धांत समझकर उस काम को जी-जान से करना है। फिर अगर मैं कुछ न कर पाऊँ, तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और लोगों को खोजकर उनके साथ संगति करनी चाहिए। इतनी समझ तो मुझमें होनी ही चाहिए। मैं व्यक्तिगत हितों के आधार पर अपना काम नहीं चुन सकता और उसे आशीष पाने से नहीं जोड़ सकता। यह एक बच्चे के अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होने जैसा है—यह एक जिम्मेदारी होती है। जब कलीसिया को लोगों के सहयोग की आवश्यकता थी, तो मैंने उस काम को नकार दिया और अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में नाकाम रहा। मैंने परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानी। शुरू से ही मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जी रहा था। मुझे लगा अपनी गलतियों की भरपाई करने के लिए लोगों का मत-परिवर्तन कराकर मैं सत्य का अभ्यास कर रहा हूँ, मैं जितना अधिक मत-परिवर्तन कराऊँगा मेरे अपराध उतने ही कम होते जाएँगे। लेकिन मैंने परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा। परमेश्वर चाहता है कि लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण करने योग्य बनें, चाहे उन्होंने कुछ गलत किया हो या उनमें कितनी भी भ्रष्टता हो, उन्हें आत्मचिंतन और पश्चात्ताप कर बदलना चाहिए, परमेश्वर के प्रति श्रद्धा से समर्पित होकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यही परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है। अगर हम परमेश्वर के आशीर्वाद के बदले सिर्फ अपनी गलतियों का प्रायश्चित करना चाहते हैं, तो हमारा खुद को खपाना सच्चा नहीं है। हम परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं, ऐसा करके हमें उसका अनुमोदन नहीं मिलेगा। मैंने कुछ भाई-बहनों के अनुभव सुने थे जो सुसमाचार प्रसार करते थे। वे अपने काम में नाकाम हुए, लड़खड़ाए या बर्खास्त ही कर दिए गए। लेकिन बाद में, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़कर अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपनी नाकामियों के मूल का पता लगाया। तब जाकर वे आत्म-चिंतन कर अभ्यास के सिद्धांत खोज पाए, और जब ऐसी ही स्थिति उनके सामने आई, तो वे बदले और सत्य का अभ्यास करने की गवाही दे पाए। जहाँ तक मेरी बात है, हालाँकि मैं हर दिन सुसमाचार का प्रचार करता था, लेकिन मैं इसे एक अच्छी मंजिल पाने की एवज में अपनी गलतियों के प्रायश्चित के लिए कर रहा था। यह एक लेन-देन था, एक सौदेबाजी थी। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं था, मेरे पास सत्य का अभ्यास करने की गवाही नहीं थी। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई।
बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “किसी व्यक्ति का अंत या गंतव्य उसकी अपनी इच्छा से तय नहीं होता, न ही वह उसकी अपनी पसंद या कल्पनाओं से निर्धारित होता है। इसमें सृष्टिकर्ता, परमेश्वर, का निर्णय अंतिम होता है। ऐसे मामलों में लोगों को कैसे सहयोग करना चाहिए? लोगों के पास केवल एक रास्ता है, जिसे वे चुन सकते हैं : अगर वे सत्य खोजते हैं, सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाते हैं और उद्धार प्राप्त करते हैं, केवल तभी अंततः उनके पास अच्छा परिणाम और अच्छा भाग्य होगा। अगर लोग इसके विपरीत करते हैं, तो उनकी संभावनाओं और नियति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। और इसलिए, इस मामले में इस बात पर ध्यान केंद्रित न करो कि परमेश्वर ने मनुष्य से क्या वादा किया है, मानवजाति के लिए परमेश्वर का उद्देश्य क्या है, या परमेश्वर ने मानवजाति के लिए क्या कुछ तैयार किया है। इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, ये परमेश्वर के काम हैं, इन्हें तुम ले या माँग नहीं सकते और न ही इनकी अदला-बदली कर सकते हो। परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, तुमसे जो कार्य अपेक्षित है उसे अपने पूरे दिलो-दिमाग और ताकत के साथ करना चाहिए। बाकी चीजें—संभावनाओं और भाग्य, और मानवजाति के भावी गंतव्य से संबंधित चीजें—ऐसी चीजें नहीं है जिन्हें तुम तय कर सको, वे परमेश्वर के हाथों में हैं, यह सब सृष्टिकर्ता द्वारा आदेशित और व्यवस्थित किया जाता है, और इसका परमेश्वर के किसी भी प्राणी के साथ कुछ लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग नौ))। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि अच्छी नियति और मंजिल पाने के लिए अपने काम में सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के वचन सुनना, उनका पालन करना और पूरे मनोयोग से अपना काम करना ही एकमात्र तरीका है। मेरे पिछले फिल्मांकन की नाकामी की वजह यह थी कि मैं यह नहीं सोच पाया कि किरदार कैसा महसूस करता है। मुझमें अहंकार था, मैंने सिद्धांतों की खोज नहीं की। मैं दूसरों के सुझाव नहीं मानना चाहता था, केवल अपनी समझ के आधार पर अभिनय किया। इतना अहंकारी होकर मैं अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभा पाता? अभ्यास का मार्ग खोजते समय मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “व्यक्ति जो भी काम करता है, उसे दूसरों से उसकी चर्चा करनी चाहिए। पहले बाकी सभी को जो कहना हो, उसे सुनो। अगर बहुमत का दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम जो भी करो, उसमें बडबोलेपन का सहारा मत लो। किसी भी जन-समूह में बडबोलापन कभी अच्छी बात नहीं होती। ... तुम्हें अक्सर दूसरों के साथ सहभागिता करनी चाहिए, सुझाव देने चाहिए और अपने विचार व्यक्त करने चाहिए—यह तुम्हारा कर्तव्य और स्वतंत्रता है। लेकिन अंत में, जब कोई निर्णय लिया जाता है, अगर तुम अकेले ही अंतिम निर्णय लेते हो, सभी से अपना कहा करवाते और अपनी इच्छा मनवाते हो, तो तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हो। बहुमत की इच्छा के आधार पर तुम्हें सही चुनाव करना चाहिए और फिर अंतिम निर्णय लेना चाहिए। अगर बहुमत का सुझाव सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप न हो, तो तुम्हें सत्य पर दृढ़ रहना चाहिए। यही सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए, अपने अहंकार को अलग रखकर, लोगों के साथ चीजों पर अधिक चर्चा करनी और उनके सुझाव सुनने चाहिए, उन विचारों को स्वीकार करना चाहिए जो सत्य के सिद्धांतों का पालन करते हैं और कलीसिया के कार्य के लिए लाभकारी हैं। यह है सत्य स्वीकारने का दृष्टिकोण। इस बात को समझ लेने पर मुझे राहत महसूस हुई और एक मार्ग मिला। उसके बाद फिल्माए गए हर दृश्य में, मैंने किरदार की मानसिकता और भावनाओं का ध्यान रखा और निर्देशक के साथ उन पर चर्चा की। अगर कभी ऐसा कोई सुझाव आता जो मेरी सोच से मेल न खाता हो, और मैं चाहता कि अपनी ही बात पर अड़ा रहूँ, तो मैं अपने मन को शांत कर प्रार्थना करता, अपने अहंकार को दरकिनार करके अगुआ और निर्देशक के साथ सिद्धांत खोजता। फिर मुझे एहसास होता कि सामने वाला सही है। कुछ समय तक इन बातों का अभ्यास करने के बाद यह एहसास होने पर कि मुझमें बहुत सारी कमियाँ है, मैंने अहंकार त्याग दिया। लेकिन फिर भी कभी-कभी मैं जिद्दी हो जाता, लेकिन मैंने अपने अहम को नकारना सीख लिया था और दूसरों के सुझाव मानने लगा था। जब मैं पूरे दिल से काम करता, तो मुझे समझ में आने लगा कि मैं अपनी भूमिका को बेहतर ढंग से निभा सकता हूँ, मेरे मन से खराब प्रदर्शन के लिए दोषी ठहराए जाने की चिंता भी निकल गई। अब मेरी सोच सीध-सपाट हो गई थी। मुझे लगा कि अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना ही सबसे महत्वपूर्ण है, अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने पर मुझे बहुत शांति मिली। उसके बाद मैं अपनी हर भूमिका को पूरी एकाग्रता से करता। कभी-कभी हमें एक ही शॉट कई बार लेना पड़ता। निर्देशक के ओके करने के बावजूद, मुझे लगता कि मैं और अच्छा कर सकता हूँ, तो मैं उसे फिर से करने के लिए पूरी जान लगा देता। पूरा ध्यान केंद्रित करने का यही एकमात्र तरीका था ताकि किसी भी सीन के लिए कोई पछतावा न रहे। पूरी एकाग्रता से करने पर, मुझे धीरे-धीरे पता चला कि भूमिका कैसे निभानी है, पहले जो भावना-प्रधान दृश्य मुश्किल लगते थे, अब एकदम आसान हो गए थे। यह सब परमेश्वर के मार्गदर्शन का परिणाम था। मैं हर शॉट के बाद प्रार्थना करता, परमेश्वर की स्तुति करता और मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद करता।
इस अनुभव से मैंने सीखा कि मेरी स्थिति मेरी धारणाओं के अनुकूल हो या न हो, पर यह सब परमेश्वर की व्यवस्थाओं से ही आता है। यह मेरी धारणाओं के अनुकूल न भी हो, तो भी मुझे उसे स्वीकारना है, परमेश्वर की इच्छा खोजनी है और उसके आयोजनों के प्रति समर्पित हो जाना है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?