सत्य से अपनी ऊब को समझना

19 जुलाई, 2022

ली क्षीयंग, अमेरिका

इस साल की शुरुआत में एक दिन, मैंने देखा कि हाल ही में कलीसिया से जुड़ी एक नई सदस्य दो सभाओं में नहीं आई, तो मैंने समूह अगुआ से इसकी वजह पूछी, पर समूह अगुआ ने कोई जवाब नहीं दिया। बाद में, वह सदस्य फिर से बैठकों में आने लगी, तो मैंने समूह अगुआ से इसकी वजह नहीं पूछी। मैंने सोचा, "अगर वह सामान्य रूप से बैठकों में हिस्सा ले रही है तो ठीक है। मैं अपने कामों में बहुत व्यस्त हूँ, पूरी खोज-खबर रखने में काफी समय और मेहनत लगती है। समय मिला तो दोबारा इस बारे में पूछ लूंगा।" हालांकि बाद में, मैं भूल गया। एक अन्य बैठक में, मैंने देखा कि वह सदस्य बीच में ही चली गई। समूह अगुआ से पूछा तो उसने फिर से जवाब नहीं दिया, और मैं मामले की तह में नहीं गया। न ही नई सदस्य से पूछा कि उसे कोई समस्या या परेशानी तो नहीं है। कुछ समय बाद, मैंने अचानक देखा कि वह लगातार कई बैठकों में शामिल नहीं हुई। तब मुझे फिक्र होने लगी। मैंने फौरन उस सदस्य से संपर्क किया, पर उसने जवाब नहीं दिया। मुझे चिंता हुई कि वह कलीसिया छोड़ देगी, तो मैंने समूह अगुआ से पूछा कि क्या वह उस सदस्य से बात कर सकती है, पर समूह अगुआ ने कहा, "उसने मेरा फ्रेंड रिक्वेस्ट ही स्वीकार नहीं किया, तो मैं उससे बात नहीं कर सकती।" मुझे थोड़ा अफसोस हुआ। अगर मैंने पहले इस मामले पर ध्यान दिया होता, तो समस्या हल करने के तरीके ढूंढ सकता था, पर अब देर हो चुकी है। खोज-खबर न रखना मेरी गलती थी। जल्दी ही, मैंने नई सदस्य के साथ हुई चैट के रिकॉर्ड पढ़े, इस उम्मीद में कि उसके हालात को जान पाऊँगा। रिकॉर्ड से पता चला कि इस नई सदस्य को अभिवादन के कुछ शब्द कहने के बाद, मैंने कभी उससे कोई बात ही नहीं की। मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता था। मैं समझ गया कि उसे वापस ला पाने की उम्मीद बहुत कम है। इसकी वजह यही थी कि मैंने इस मामले में लापरवाही की। उस वक्त, मैंने इस मामले पर गंभीरता से आत्मचिंतन नहीं किया। बस थोड़ा सोचा और मान लिया कि मैं थोड़ा लापरवाह था, बस इतना ही।

कुछ ही दिनों में, सुपरवाइजर ने इस नई सदस्य के बारे में मुझसे पूछा कि वह कलीसिया छोड़कर क्यों गई। मैं काफी घबरा गया। मैंने सोचा, "ओह, अब मैं उजागर होने वाला हूँ।" सुपरवाइजर यकीनन यही कहेगी कि मैं लापरवाह हूँ, भरोसे के लायक नहीं हूँ। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया तो मैं क्या करूंगा? बेशक, सुपरवाइजर ने चैट रिकॉर्ड देखने के बाद मेरी समस्या बताई कहा कि मैंने काम में लापरवाही की, नई सदस्य की हालत की परवाह या उसे जानने की कोशिश नहीं की। जब मैंने यह सुना, तो फौरन खुद को सही ठहराने की कोशिश की, "नई सदस्य ने मेरे अभिवादन का जवाब नहीं दिया, तो मैं बातचीत आगे नहीं बढ़ा पाया।" सुपरवाइजर ने यह कहकर मेरा निपटान किया, "ऐसा नहीं है कि तुम बात नहीं कर पाये, दरअसल तुम्हें उस की परवाह ही नहीं थी।" मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने लापरवाही की बात मान ली, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, तो मैंने फौरन समझाया, "उस सदस्य के लिए मुख्य रूप से समूह अगुआ जिम्मेदार थी। मैंने सोचा वह नई सदस्य के संपर्क में होगी, इसलिए समय रहते नई सदस्य की हालत के बारे में नहीं पूछा। मैंने समूह अगुआ से पूछा था, उसी ने समय पर जवाब नहीं दिया।" मैंने सुपरवाइजर को समूह अगुआ को भेजे मैसेज दिखाए, ताकि साबित कर सकूं कि मुझे नई सदस्य की परवाह थी। मैंने वो मैसेज भी दिखाये जो मैंने नई सदस्य को बाद में भेजे थे, ताकि साबित कर सकूं कि मैंने ही उसके बैठकों में न आने का पता लगाया था, समय पर उससे संपर्क करने की भी कोशिश की थी, पर उसने जवाब नहीं दिया। फोन पर उससे बात न कर पाने की वजह भी खोज ली, कहा कि सुसमाचार प्रचारक ने मुझे उसका फोन नंबर नहीं दिया था। उस वक्त, मैं सिर्फ ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाने की सोच रहा था। मैंने कई सामान्य वजहें गिनाई, इस उम्मीद में कि सुपरवाइजर को समस्या की वजह दिख जाए, और मेरी गलती साबित न हो, कम से कम इसका दोष दूसरों पर भी जाये, सारा दोष मेरा न हो। उसने देखा कि मैं अपनी समस्या स्वीकार न करके जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहा था, तो उसने यह कहकर मेरा निपटान किया, "यह नई सदस्य कई बैठकों में हिस्सा ले चुकी थी, जिससे साफ पता चलता है कि उसे सत्य की लालसा है, पर तुमने समय रहते उसकी हालत और परेशानियों के बारे में नहीं पूछा, अब यह कहकर पल्ला झाड़ रहे हो कि तुम्हारे पास नंबर नहीं है। यह बात थोड़ी बेतुकी है!" मुझे एहसास हुआ कि सुपरवाइजर ने मेरी समस्याएं समझ ली थी, मैं जिम्मेदारी लेने से बच नहीं सकता। इस चिंता में मैंने सोचा, "सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वो कहेगी कि मैं कोई व्यावहारिक काम नहीं करता? क्या मुझे बर्खास्त किया जाएगा?" मैं बहुत फिक्रमंद था, खुद को शांत नहीं कर पाया। उसके बाद, मैंने उस सारी बातों पर गौर किया जो मेरी इस हालत की वजह थी, मुझे एहसास हुआ कि इस मामले में, मैं एक ईमानदार नहीं था, मैंने काट-छाँट और निपटान को नहीं स्वीकारा। मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया, मैंने लापरवाही से काम किया, बल्कि खुद को सही ठहराने के लिए अभी भी चालें चल रहा था, बहाने बना रहा था। फोन नंबर न देने के लिए सुसमाचार प्रचारक को भी दोषी ठहरा दिया। मैं इस सच को स्वीकारने से मना करता रहा कि मैंने अपने काम में लापरवाही की, मैंने आत्मचिंतन भी नहीं किया। अपने व्यवहार पर गौर करके मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई। हालांकि मैं हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ता था, पर वास्तविक हालात का सामना होने पर, निपटान किए जाने पर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता रहा, सत्य को नहीं स्वीकारा। मुझे अपनी गहरी भ्रष्टता एहसास हुआ, यह मानकर कि इसे बदलना बहुत मुश्किल है, मैं थोड़ा नकारात्मक महसूस करने लगा।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "सत्य का अनुसरण स्वैच्छिक होता है; यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो पवित्र आत्मा कार्य करता है। जब सत्य से प्रेम तुम्हारा आधार होता है, तो मुसीबत आने पर खुद की जांच करना और खुद को जानना, सक्रिय रूप से सत्य के सिद्धांतों की खोज करना और अंतत: सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में समर्थ हो जाना—ये सारे व्यवहार और प्रविष्टियाँ स्वैच्छिक होती हैं; ये सब करने के लिए तुम्हें कोई मजबूर नहीं कर रहा और इससे कोई अतिरिक्त शर्त भी जुड़ी नहीं है। ये सब करके, अंतत: तुम्हें सत्य की प्राप्ति होती है और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करते हो। ... तुम्हारे जो भी कारण हों या वे पर्याप्त हों, न हों या वे दिन के उजाले में व्यवहार्य हों, न हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता—यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि परमेश्वर तुम्हारे साथ इस आधार पर व्यवहार करेगा कि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया। तुम्हारे कारण अमान्य हैं; परमेश्वर स्पष्ट रूप से उनकी अवहेलना करता है। वह उनकी 'अवहेलना' करता है, इसका क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि वह तुम्हारे कारणों की परवाह नहीं करता। तुम चाहे जितना बेचैन हो जाओ; जैसे चाहे तर्क देने का प्रयास करो—क्या परमेश्वर परवाह करता है? क्या ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा कारण चाहे जितना भी मजबूत हो, अमान्य है। लोगों को यह सोचकर परमेश्वर की इच्छा को गलत नहीं समझना चाहिए कि वे सत्य का अनुसरण न करने के लिए हजारों कारण और बहाने बना सकते हैं। परमेश्वर तुमसे हर तरह के परिवेश में और तुम्हारे सामने आने वाले हर मामले में तुमसे सत्य की खोज करवाएगा, ताकि अंततः तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन विशिष्ट परिस्थितियों की व्यवस्था की है, जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना होता है और जिस परिवेश में तुम खुद को पाते हो, ये वे सबक हैं जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। समाधान ढूँढ़ने के लिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए। यदि तुम हमेशा बहाने खोजोगे, टालमटोल करोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तुम्हारे लिए अड़ियल, या टेढ़ा होना या तर्क देना बेकार है; परमेश्वर तुमसे कोई सरोकार नहीं रखेगा" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि भ्रष्टता दूर करना और सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश करना मुश्किल नहीं है। अहम बात यह है कि लोग क्या विकल्प चुनते हैं, वे सत्य की खोज और उसका अभ्यास करते हैं या नहीं। हालात चाहे जैसे भी हों, काट-छाँट और निपटान या विफलताओं और नाकामियों का सामना भी करना पड़े, तो भी लोगों को आत्मचिंतन करके सत्य खोजना चाहिए। थोड़ा सत्य समझने के बाद उस पर अमल कर, उसके सिद्धांतों पर काम करना चाहिए। ऐसा करते ही प्रगति और बदलाव दिखने लगेगा। हालांकि, काट-छाँट और निपटान होने पर, अगर आप हमेशा बच निकलने, इनकार करने और बहाने बनाने की कोशिश करते हैं, तो आपको सत्य हासिल नहीं होगा, परमेश्वर भी ठुकरा देगा। अपनी हालत पर गौर किया, तो काट-छाँट और निपटान होने पर, मैंने उसे नहीं स्वीकारा, ईमानदारी से गलती मानकर समस्या पर विचार नहीं किया, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सक्रिय होकर सत्य नहीं खोजा। नकारात्मक होकर विरोध किया, तय कर लिया कि इसे बदलना मुश्किल है। मैं विवेकहीन बनकर परमेश्वर के बनाये माहौल को ठुकरा रहा था! यह सत्य को स्वीकार करने वाला रवैया नहीं था। जब समझ गया तो नकारात्मक हालत में जीने और खुद को सीमित करने के बजाय मैं अपनी समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजना चाहता था। मैं मनन करने लगा, सोचा कि क्यों मैं वैसे तो मीठा बोलता हूँ, मगर निपटान किये जाने पर इसे नहीं स्वीकारा, नकारात्मक होकर इसका विरोध किया। यह कैसे स्वभाव को दर्शाता है?

अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े। "ऐसे लोग होते हैं जो इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि वे राक्षस हैं, शैतान हैं, बड़े लाल अजगर की संतान हैं, जो अपने ज्ञान के बारे में बहुत सुंदर ढंग से बोलते हैं, लेकिन जब वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और जब कोई उन्हें उजागर कर देता है, उनसे निपटता है, उनकी काट-छाँट करता है, तो वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराने की कोशिश करते हैं और जरा भी सत्य स्वीकार नहीं करते। यहाँ क्या मुद्दा है? इसमें व्यक्ति पूरी तरह उजागर हो जाता है। जब वे खुद को जानने की बात करते हैं तो बहुत ही सुंदर ढंग से बात करते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है, उनसे निपटा जाता है, तो वे सत्य स्वीकार नहीं पाते? यहाँ एक समस्या है। क्या इस तरह की बात बिल्कुल सामान्य नहीं है? क्या इसे पहचानना आसान है? हाँ, वास्तव में आसान है। काफी लोग ऐसे होते हैं जो आत्मज्ञान की बात करते समय यह मानते हैं कि वे राक्षस और शैतान हैं, लेकिन उसके बावजूद वे बाद में न तो पश्चात्ताप करते हैं और न ही उनमें कोई बदलाव आता है। तो यह आत्मज्ञान की बात सच है या झूठ? क्या उनका ज्ञान सच्चा है या यह दूसरों को बरगलाने के लिए एक चाल है? उत्तर स्वतः स्पष्ट है। तो यह समझने के लिए कि क्या कोई व्यक्ति खुद को ईमानदारी से जानता है, तुम्हें केवल उस ज्ञान के बारे में उसकी बात नहीं सुननी चाहिए—तुम्हें उसका रवैया देखना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि जब उसकी काट-छाँट होती है और उससे निपटा जाता है, तो उस समय वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। यह बेहद महत्वपूर्ण बात है। जो व्यक्ति निपटाए जाने और काट-छाँट को स्वीकार नहीं करता, उसमें सत्य न स्वीकारने और उसे स्वीकार करने से इंकार करने का सार होता है। उसका स्वभाव सत्य से उकता जाने का होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ लोगों ने चाहे कितनी भी भ्रष्टता दिखाई हो, वे दूसरों को अपने साथ निपटने की अनुमति नहीं देते। कोई भी उनकी काट-छाँट नहीं कर सकता या उनके साथ निपट नहीं सकता। वे अपने ज्ञान के बारे में खूब बोलते हैं और कुछ भी कह देंगे, लेकिन यदि कोई और उन्हें उजागर करे, उनकी आलोचना करे या उनके साथ निपटे, चाहे वह कितना भी निष्पक्ष हो या बात कितनी भी सही हो, वे उसे स्वीकार नहीं करते। उनके प्रकट हुए स्वभाव का चाहे कोई भी भ्रष्ट पहलू उजागर हुआ हो, वे अत्यंत विरोधी होते हैं और बिना किसी सच्चे समर्पण के, अपने लिए तर्क देते हैं ताकि वे अच्छे दिखें। अगर ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे संकट में पड़ जाएँगे" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "सत्य से उकता जाना जिन मुख्य तरीकों से अभिव्यक्त होता है, वे मात्र सत्य सुनकर उसके प्रति घृणा की भावनाएँ नहीं होतीं; उनमें सत्य का अभ्यास करने की अनिच्छा भी शामिल होती है। जब सत्य को व्यवहार में लाने का समय आता है, तो ऐसा व्यक्ति पीछे हट जाता है और सत्य का उससे कोई लेना-देना नहीं होता। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे लोगों का दिल जीतने के लिए सिद्धांत के शब्द दोहराते रहते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं; इससे वे अच्छे दिखते हैं और अच्छा महसूस करते हैं, उनके बोलने का सिलसिला खत्म ही नहीं होता। फिर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दिनभर विश्वास से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं : परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, भजन सुनना, नोट्स लेना, मानो वे पलभर के लिए भी परमेश्वर से अलग नहीं रह सकते। सुबह से लेकर देर रात तक अपने काम में लगे रहते हैं। तो क्या इन लोगों को सच में सत्य से प्रेम होता है? क्या उनके स्वभाव को इससे कभी ऊब नहीं होती? उनकी वास्तविक स्थिति कब दिखाई देती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे इससे पीछे हट जाते हैं, जब उनके साथ निपटा जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे इसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) कहीं ऐसा तो नहीं कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं, उसे समझ नहीं पाते या चूँकि उन्हें सत्य समझ नहीं आता इसलिए वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते? दोनों ही बातें सही नहीं हैं—वे अपनी प्रकृति के वश में होते हैं, यह एक स्वभावगत समस्या है। मन ही मन तो वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और सकारात्मक बातें हैं, वे जानते हैं कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव आ सकता है जिससे वह परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकता है, लेकिन वे बस इसे स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते। इसी को सत्य से उकता जाना कहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'स्‍वभाव में परिवर्तन के लिए भ्रष्‍ट स्‍वभाव के छह पक्षों को समझना अनिवार्य है')

परमेश्वर के वचन से, मैंने जाना कि लोगों में सत्य से ऊबने का स्वभाव होता है। यह सत्य, काट-छाँट और निपटान को न स्वीकारने और सत्य का अभ्यास न करने के रूप में व्यक्त होता है। मैं हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ता और अपना कर्तव्य निभाता था, बैठकों में, परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्वीकार कर पाता था कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है, मेरा संबंध शैतान से है, मैं बड़े लाल अजगर की संतान हूँ, वगैरह वगैरह। ऊपर-ऊपर से लगता था कि मैं सत्य स्वीकारता हूँ, पर अपने कर्तव्य में लापरवाह होने को लेकर काट-छाँट और निपटान किये जाने पर, मुझे लगा कि मैं सत्य स्वीकारने या उस पर अमल करने वाला इंसान नहीं हूँ, मैंने हर चीज में सत्य से ऊबने का स्वभाव दिखाया। मैं जानता था कि एक सिंचन कर्मी के लिए जिम्मेदार और धैर्यवान होना बुनियादी है। नये सदस्य नवजात शिशुओं जैसे होते हैं। उन्होंने सही मार्ग पर अपने कदम नहीं जमाये हैं, वे जीवन में बहुत कमजोर होते हैं। अगर वे बैठकों में नहीं आते, तो फौरन उनके सिंचन और मदद का तरीका ढूंढना चाहिए। मैं इन सिद्धांतों को समझता था, पर जब इन पर अमल करने, कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की बारी आई, तो ऐसा नहीं करना चाहा। मैं अच्छी तरह सत्य जानता था मगर उस पर अमल नहीं किया। मुझे याद आया कि इस सदस्य का कुछ बार अभिवादन करने के सिवाय मैंने कोई सिंचन या सहयोग नहीं दिया। जब वह नियमित रूप से सभाओं में नहीं आई, तो मुझे न फिक्र हुई, न मैंने सोचा कि कैसे उससे फौरन संपर्क करूँ उसकी समस्याओं और परेशानियों को समझूँ। एक नई सदस्य के सिंचन के पहले अहम चरण में, मैं लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रहा, जिस कारण से वह छोड़कर चली गई। फिर भी, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। जब सुपरवाइजर ने मेरी समस्याएँ बताईं, तो मैंने अपनी लापरवाही के लिए बहाने बनाने का हर तरीका आजमाया, इस उम्मीद में कि सारी जिम्मेदारी समूह अगुआ और सुसमाचार प्रचारक पर डाल दूँ। यह सत्य को स्वीकारने और उसका पालन करने वाला रवैया कैसे था? मैंने सिर्फ सत्य से ऊबने वाला स्वभाव ही दिखाया!

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा। "जिन परिस्थितियों के कारण किसी के साथ निपटा जाता या उसकी काट-छाँट की जाती है, उनके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? सबसे पहले तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमसे कौन निपट रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और तुमसे निपटा जाता है, तो सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। क्या मसीह-विरोधियों का रवैया ऐसा होता है? नहीं; शुरू से अंत तक, उनका रवैया प्रतिरोध और घृणा का होता है। क्या ऐसे रवैये के साथ, वे परमेश्वर के सामने आकर खुद को शांत कर, ध्यान से सुन सकते हैं और नम्रता से ग्रहणशील हो सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। तो फिर वे क्या करेंगे? सबसे पहले तो वे लोगों की समझ और क्षमा पाने की आशा में, जोरदार बहस करेंगे और तर्क देंगे, अपनी गलतियों और उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभावों का बचाव करेंगे, उसके पक्ष में बहस करेंगे ताकि उन्हें कोई जिम्मेदारी न लेनी पड़े या उन वचनों को स्वीकार न करना पड़े जो उनके साथ निपटते और उनकी काट-छाँट करते हैं। जब उनसे निपटा जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनका क्या रवैया होता है? 'मैंने पाप नहीं किया है। मैंने कुछ गलत नहीं किया है। अगर मुझसे कोई भूल हुई है, तो उसका कारण था; अगर मैंने कोई गलती की है, तो मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया; अगर मैंने कोई चूक की है, तो मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। थोड़ी-बहुत गलतियाँ कौन नहीं करता?' वे इन कथनों और वाक्यांशों को पकड़ लेते हैं, उनसे कसकर चिपके रहते हैं और जाने नहीं देते, लेकिन वे सत्य नहीं खोजते, न ही वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारते हैं जो उन्होंने अपराध करते समय प्रकट किया था—और वे यह तो बिल्कुल नहीं स्वीकारते कि उनका सार ऐसा है। ... तथ्य किसी भी प्रकार से उनके भ्रष्ट स्वभाव को बाहर ले आएँ, वे उसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि अपना बचाव और प्रतिरोध करते रहते हैं। लोग कुछ भी कहें, वे उसे स्वीकारते या मानते नहीं, बल्कि सोचते हैं, 'देखते हैं कौन किसको बातों में हरा सकता है; देखते हैं किसकी जबान ज्यादा तेज चलती है।' यह एक प्रकार का रवैया है जिसे मसीह-विरोधी निपटे जाने और काट-छाँट के प्रति अपनाते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ)')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि जब सामान्य लोगों की काट-छाँट और निपटान होता है, तो वे इसे परमेश्वर से आया मानते हैं, इसे स्वीकार कर इसका पालन करते हैं, आत्मचिंतन करते हैं, और सच्चा पश्चाताप करते हैं। अगर उस समय इसे स्वीकार नहीं पाते, तो बाद में, निरंतर सत्य की खोज और चिंतन करके काट-छाँट और निपटान से सबक सीख पाते हैं। मगर एक मसीह-विरोधी की प्रकृति सत्य से ऊबने और नफरत करने की होती है। काट-छाँट और निपटान किये जाने पर, वे कभी आत्मचिंतन नहीं करते। वे केवल प्रतिरोध, अस्वीकार और नफरत का रवैया दिखाते हैं। फिर मैंने अपने व्यवहार पर विचार किया। मैंने लापरवाही की, समय रहते नई सदस्य की खोज-खबर नहीं ली, जिस कारण से वह चली गई। यह एक अपराध था। जिसके पास विवेक और समझ होगी, उसे दुःख और अपराध-बोध होगा, वह अपनी समस्याओं पर चिंतन करेगा और सत्य स्वीकारेगा। मगर मुझे न तो अपराध-बोध हुआ, न ही मैंने अपनी समस्याओं को स्वीकारा। मैंने ऐसे प्रत्यक्ष सच का सामना किया फिर भी मैंने जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की, पहले तो कहा कि उस सदस्य ने मुझे जवाब नहीं दिया, फिर कहा कि समूह अगुआ गैर-जिम्मेदार थी, आखिर में, मैंने सुसमाचार प्रचारक पर दोष मढ़ दिया, ताकि मुझे जिम्मेदारी से छुटकारा मिल जाये और मैं सुपरवाइजर का भरोसा जीत सकूं। परमेश्वर के प्रकाशन और काट-छाँट और निपटान का सामना होने पर, मैंने ज़रा-भी आत्मचिंतन नहीं किया। इसके बजाय, प्रतिरोध किया, खुद को बचाने और सही ठहराने के लिए कई बहाने बनाये, क्योंकि मैं जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था। मुझमें ज़रा-भी इंसानियत या विवेक नहीं था। मैंने देखा कि मैंने अड़ियल और सत्य से ऊबने वाला स्वभाव दिखाया। मैंने परमेश्वर का भय नहीं माना। मैंने देखा कि इतने बरस परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मेरा स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था, मुझे बहुत दुःख हुआ।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मैं काट-छाँट और निपटान न स्वीकारने की अपनी समस्या बेहतर समझ पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "व्यवहार और काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाया हो, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिलकुल नहीं। उन्होंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाई है, कलीसिया के कार्य को ऐसी क्षति पहुँचाई है—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और उन्होंने एक के बाद एक, मसीह-विरोधियों के कुकर्म देखे हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते, वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से परेशान हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक परेशान रहते हैं, और चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी उसे मानने इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करता है कि मसीह-विरोधियों ने कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लिया है या सत्य स्वीकार नहीं किया है। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए नहीं आए हैं—वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अव्यवस्थित और बाधित करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ नाम और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे 'मरने तक नकारते रहो' के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं, और लोग चाहे जो उजागर या विश्लेषण करें, वे उन्हें नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर यह मसीह-विरोधियों की सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने वाली प्रकृति और सार को उजागर करता है। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और जिम्मेदारी से इनकार करने का होता है। उनमें अंत:करण और विवेक की पूर्णत: कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने के उनके सार और प्रकृति को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें अंत:करण, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनके हस्तक्षेप और कुकर्म कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और समझ का होना माना जाएगा—लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? मसीह-विरोधियों का सार शैतान का सार होता है। उन्होंने परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाया हो, उन्हें यह दिखाई नहीं देता; वे अपने दिल में जरा भी परेशान नहीं होते, और न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिलकुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिलकुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। यह शैतान है, और शैतान में कोई जमीर या समझ नहीं होती" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी काट-छाँट और निपटान नहीं स्वीकारते, क्योंकि उनकी प्रकृति सत्य से थक जाने और इससे नफरत करने की होती है, क्योंकि वे अपने हितों से बहुत ज़्यादा प्रेम करते हैं। जब उनकी इज्जत को खतरा होता है या उनके रुतबे को नुकसान पहुंचता है, तो वे खुद को सही ठहराने और जिम्मेदारी से बचने के बहाने ढूँढने की भरसक कोशिश करते हैं। उनके कर्मों से परमेश्वर के घर के हितों या अन्य लोगों के जीवन को नुकसान पहुंचे, तब भी उन्हें कोई पछतावा या अफ़सोस नहीं होता है। दोषी पाये जाने पर भी, वे अड़ियल बनकर इसे नहीं स्वीकारते, इस डर से कि जिम्मेदारी मान लेने से उनका रुतबा खराब होगा। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी स्वार्थी और नीच होते हैं, उनमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं होती, वे असल में दानव हैं। जब मैंने "दानव" शब्द देखा, तो मेरा दिल टूट गया, मैंने जो व्यवहार और स्वभाव दिखाया, वह एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैंने स्पष्ट गलती की, कलीसिया के काम की हानि की, फिर भी इसे नहीं स्वीकारा। काट-छाँट और निपटान किये जाने पर, मैंने खुद को सही ठहराया, दूसरों पर जिम्मेदारी डालने की कोशिश की। नए सदस्यों के लिए सुसमाचार को स्वीकारना कितना मुश्किल होता है। परमेश्वर के उपयुक्त माहौल बनाने, उनका प्रबोधन और मार्गदर्शन करने के कारण वे इसे स्वीकारते हैं, इसमें भाई-बहनों द्वारा दिये गए समय और प्रयास की भी अहम भूमिका होती है। परमेश्वर खास तौर पर सभी के लिए जिम्मेदार होता है। अगर वह सौ भेड़ों में से एक भी भेड़ खो देता है, तो बाकी निन्यानबे भेड़ों को छोड़ अपनी खोई हुई भेड़ खोजेगा, वह हर इंसान के जीवन को गहराई से संजोता है। मगर जब मैं नये सदस्यों के सिंचन के लिए जिम्मेदार था, तो मैंने लापरवाह रवैया अपनाया। नई सदस्य को बैठकों में शामिल न होते देख मुझे कोई चिंता नहीं हुई। कभी-कभार मैं बस यूं ही पूछ लेता, समूह अगुआ के कामकाज की खोज-खबर रखने में भी लापरवाही की और गैर-जिम्मेदार बन गया। जब उसने कई बार मुझे जवाब नहीं दिया, तो मैंने फौरन इसकी वजह नहीं पूछी, यह भी नहीं जाँचा कि उसे कोई समस्या और परेशानी तो नहीं थी। मैंने उसके साथ लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैया अपनाया, उसके जीवन को ज़रा-भी गंभीरता से नहीं लिया। फिर भी, मुझे कोई पछतावा या अपराध-बोध नहीं हुआ, मैंने इसे सुधारने की कोशिश भी नहीं की। सुपरवाइजर ने बताया कि मैंने लापरवाही की, गैर-जिम्मेदार था, तो मैंने तर्क देकर खुद को सही ठहराने की भरसक कोशिश की, जिम्मेदारी से बचने के बहाने ढूंढे, क्योंकि मुझे डर था कि समस्या स्वीकारी तो जिम्मेदारी लेनी होगी, इससे सुपरवाइजर के मन में मेरी खराब छवि होगी, मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। शुरू से अंत तक, मैंने कलीसिया के काम की परवाह नहीं की, यह नहीं सोचा कि कहीं मैं नई सदस्य के जीवन को नुकसान तो नहीं पहुंचाऊँगा। सिर्फ यह सोचा कि मेरे हितों को नुकसान न पहुंचे, मैं अपनी छवि और रुतबा बनाये रख पाऊं। मैंने देखा कि मैं बहुत स्वार्थी था, मैंने सिर्फ अपने निजी हितों की रक्षा की। मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी, परमेश्वर को मुझसे नफरत थी। फिर मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, कहा, "परमेश्वर, मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही की, जिसके गंभीर परिणाम हुए, पर मैंने इसे नहीं स्वीकारा। मैंने नई सदस्य के जीवन की नहीं, बल्कि अपनी इज्जत और रुतबे के बारे में सोचा। मुझमें सचमुच इंसानियत नहीं थी! परमेश्वर, मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, जिससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सत्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, न ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, लेकिन अगर लोग हमेशा सत्य से ऊबते रहें, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे? नहीं। तो तुम्हें हमेशा परमेश्वर के सामने आना चाहिए, सत्य से ऊबने की अपनी आंतरिक अवस्थाओं की जांच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए तुममें सत्य से ऊबने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं और किस प्रकार से कार्य करना सत्य से ऊबना है, और किन बातों में तुम सत्य से ऊबने की मनोवृत्ति रखते हो—तुम्हें इन बातों पर अक्सर आत्म-चिंतन करते रहना चाहिए" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो तुम्हें आवेश में नहीं आना चाहिए। शांत होकर परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही समस्याओं का बेहतर समाधान निकाला जा सकता है। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और उससे खोजने में समर्थ हो, और समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की कितनी अभिव्यक्तियाँ हैं, न ही तुम्हारे पिछले अपराधों से कोई फर्क पड़ता है—तुम सत्य की खोज करके उसे हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, सत्य स्वीकारते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसका आज्ञापालन करते हो, तब तुम सत्य पर पूरी तरह अमल कर सकोगे। यद्यपि तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक तर्क भी देते हो और समर्पण नहीं कर पाते, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी ठोकरें खाने और गिरकर उठने के बाद, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने लगोगे, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। और फिर तुम्हारे अंदर सत्य का राज जाएगा और वह तुम्हारा जीवन बन जाएगा। उसके बाद, तुम्हारे सत्य के अभ्यास में कोई और बाधा नहीं आएगी। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य की वास्तविकता को जिओगे" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन से मैंने समझा कि सत्य से ऊबने के स्वभाव को ठीक करने के लिए, मुझे हमेशा आत्मचिंतन करना चाहिए, यह जांचना चाहिए कि क्या मेरे बयानों, अभ्यासों, इरादों, रवैयों और रायों में सत्य से ऊबने की झलक दिखती है। कोई बात हो जाए, तो वह मेरी इच्छा के अनुरूप हो या न हो, मुझे पहले खुद को शांत कर प्रतिरोध नहीं करना है। अगर मैं दूसरों की बातें स्वीकार न सकूं और खुद को सही ठहराने के बहाने ढूंढने लगूं, तो परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी होगी, और खोजना होगा, परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना होगा, उनका इस्तेमाल कर आत्मचिंतन करना होगा, या उन भाई-बहनों से संगति लेनी होगी जो सत्य समझते हैं। इस तरह, धीरे-धीरे सत्य स्वीकार कर, इसकी वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकता हूँ, फिर थोड़ा-थोड़ा करके अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकता हूँ। अभ्यास का मार्ग समझ आने पर, मैंने बदलने का संकल्प लिया।

यह जानकर कि इस सदस्य की हालत पर गौर नहीं करना पहले से ही एक अपराध था, मैंने फौरन चीजों को बदलने की कोशिश की। मैंने देखा कि क्या मैं किसी नये सदस्य के बारे में जानने या उसकी खोज-खबर रखने में नाकाम रहा। एक नई सदस्य के साथ चैट करते हुए, मुझे पता चला कि वह प्रभु की वापसी से जुड़े सत्य को और परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को ठीक से नहीं समझती थी। मैंने अपनी अगुआ से पूछा कि क्या सुसमाचार प्रचारक को उसके साथ संगति करनी चाहिए, पर अगुआ ने मुझे उसके साथ संगति करने को कहा। हालांकि मैं जानता था कि नई सदस्यों की समस्याओं को फौरन हल करना मेरी जिम्मेदारी थी, फिर भी मैंने प्रतिरोध किया। मैं अगुआ की बात मानने के बजाय बहस करना चाहता था। मुझे लगा कि सुसमाचार प्रचारक ने अच्छे से संगति नहीं की इसलिए ये हुआ, तो फिर खोज-खबर रखने की जिम्मेदारी मेरी क्यों है? अब इतने सारे नये सदस्य हैं, तो मेरे पास ज़्यादा समय नहीं था, यह काम तो सुसमाचार प्रचारक को करना चाहिए। फिर एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं थी। मेरी अगुआ ने जो कहा वो उचित था। सुझाव सही था, तो मैं इसे क्यों नहीं स्वीकार पाया? मैं अभी भी बहस क्यों करना चाहता था? मैंने बात क्यों नहीं मानी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, राह दिखाने को कहा ताकि मैं समर्पण कर सकूं, अपने शारीरिक सुख की न सोचूँ और नये सदस्य के लिए जिम्मेदार बनूँ। हर किसी की समझने की क्षमता अलग-अलग होती है। कुछ लोग सुसमाचार प्रचारक की संगति सुनकर उसी समय बात को समझ जाते हैं, पर बाद में वे उलझ जाते हैं। सिंचन कर्मियों को उनकी खोज-खबर लेकर कमियों की भरपाई करनी होती है। यह मिलजुलकर किया जाने वाला सहयोग है। एक सिंचन कर्मी के नाते, समस्या होने पर उसे हल करना मेरा काम है। मुझे चुनकर आसान समस्याएं हल करना और मुश्किल समस्याएं दूसरों पर छोड़ना नहीं चाहिए, परेशानी से बचने और आराम पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने कर्तव्य में मुझे शर्तें रखना या बहाने बनाना नहीं चाहिए। अगर किसी नये सदस्य को मुझे सौंपा जाता है, तो उसका अच्छे से सिंचन करना मेरी जिम्मेदारी है, ताकि वह पक्के से सत्य समझ जाए और सच्चे मार्ग पर उसकी नींव मजबूत हो। यह परमेश्वर का आदेश है, मेरा कर्तव्य है। यही सचमुच सत्य का अभ्यास और वास्तविक बदलाव है। तब, मेरा दिल रोशन हो गया। बैठक के बाद, मैं इस सदस्य की समस्या के बारे में उससे संगति करने निकल गया। इस तरह अभ्यास करने पर, मेरा प्रतिरोध ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि मुझे बहुत खुशी भी मिली। मैं समझ गया कि सत्य का अभ्यास करना कोई दिखावे का काम नहीं है। यह परमेश्वर के वचन को दिल से स्वीकारना, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम करना, लोगों और चीजों को देखने और व्यवहार करने के मानदंड के रूप में परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल करना है। इस तरह, अनायास परमेश्वर के वचन और सत्य, हमारे गलत इरादों, गलत सोच और भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेंगे।

मैंने जितना सोचा उतना ही लगा कि काट-छाँट, निपटान और उजागर किया जाना बेहद जरूरी है। परमेश्वर कहता है, हमारे सत्य का अनुसरण न करने की मुख्य वजह यही है कि हममें अड़ियल बनने और सत्य से ऊबने का स्वभाव होता है। पहले मुझे नहीं पता था कि मुझमें ऐसा स्वभाव है। अगर परमेश्वर हालात बनाकर मुझे उजागर न करता, अपने वचन से मेरा न्याय और खुलासा न करता, तो मैं सत्य से ऊबने के अपने स्वभाव की कभी पहचान न पाता, कभी पश्चाताप करके खुद को बदल नहीं पाता। इस तरह काम करते रहने से मेरे सत्य के अनुसरण और जीवन की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा आ जाती। परमेश्वर के वचन का न्याय और प्रकाशन मेरे लिए बहुत अच्छा था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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