अपना हृदय परमेश्वर को समर्पित करना
जून 2018 में, मैं राज्य गान के समवेत भजन कार्यक्रम की रिहर्सल में शामिल हुई। यह सोचकर कि मैं मंच पर जाकर परमेश्वर की प्रशंसा करने और गवाही देने के लिए भजन गाउंगी, मैं बड़ा सम्मान और गर्व महसूस करती थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना भी की, कहा कि मैं अभ्यास करने की पूरी कोशिश करूंगी और अपना कर्तव्य बखूबी निभाऊंगी। जब मैंने पहली बार अपने चेहरे के भावों और नृत्य की मुद्राओं का अभ्यास करना शुरू किया, तब मैं सच में बड़ी मेहनत कर रही थी और पूरी कोशिश करती थी, लेकिन चूँकि मैं गायन और नृत्य के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी, इसलिए मेरे हाव-भाव बनावटी से दिखाई पड़ते, मेरे और दूसरों की क्षमता में स्पष्ट अंतर दिखाई देता। हमारे प्रशिक्षक हमेशा मेरी गलतियां निकालते रहते थे। कुछ समय बाद, मैं निरुत्साहित होने लगी, महसूस होता था कि मैं चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करूँ, तो भी मैं इससे अच्छा नहीं कर पाऊँगी। जब स्थान निर्धारित किए जाएंगे, तब जो भाई-बहनें गायन और नृत्य में बेहतर हैं, वे निश्चित ही आगे रहेंगे और मैं बस पिछली पंक्ति की भीड़ का हिस्सा बनूँगी। धीरे-धीरे मैं रिहर्सल में कम सक्रिय रहने लगी और जान-बूझकर देरी से पहुँचने लगी। हमारे पहले फिल्मांकन के लिए मुझे सबसे पिछली पंक्ति के एक कोने में रखा गया। मैं यह सोचकर परेशान-सी थी, "मैं यह सब अच्छे से नहीं कर सकती और जो भाई-बहनें नृत्य और गायन में पक्के हैं उनके साथ तो मेरी तुलना हो ही नहीं सकती। मैं चाहे कितना भी अभ्यास क्यों न करूँ, कभी पहली पंक्ति के स्तर तक नहीं पहुँच पाऊँगी और किसी भी हालत में कैमरा मुझे नहीं देख पाएगा। तो मुझे रिहर्सल में इतनी मेहनत करने की क्या ज़रूरत है? थोड़ी मेहनत भी काफी होगी।" उसके बाद से मेरी बेहतर बनने की प्रेरणा लगातार कम होती गई। मैं जानती थी कि मैं मुद्राएं सही ढंग से नहीं कर रही थी लेकिन मैंने उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं की। समय-समय पर प्रशिक्षक हमें बताते थे कि हमें और ज़्यादा मेहनत करनी होगी। अगर एक भी व्यक्ति के हाव-भाव और प्रस्तुति गलत हुई, तो पूरे कार्यक्रम को हानि पहुंचेगी और फिल्मांकन में देरी होगी। यह सुनकर मुझ पर असर हुआ और लगा कि मुझे समूचे परिणाम को ध्यान में रखना होगा। लेकिन फिर कुछ समय के लिए मैं कड़ी मेहनत करती, और एक बार फिर से प्रेरणा खो देती। परमेश्वर से मार्गदर्शन पाए बगैर मैं बस हर रोज बिना उत्साह के गायन और मुद्राओं की रिहर्सल करती। उनमें से कुछ मुद्राओं का मैंने लम्बे समय तक अभ्यास भी किया, लेकिन मैं उन्हें सही ढंग से नहीं कर पायी। जब सभी लोग गीत के बोलों पर अपनी समझ के अनुसार सहभागिता करते, तो मेरी सहभागिता में कोई रोशनी नहीं होती। इसके अलावा, जब मैं गाती थी तो मैं बिलकुल भावविभोर नहीं होती, फिल्म में मेरी आंखें बेजान और मेरे हाव-भाव नीरस मालूम पड़ते। मुझे देखकर किसी को भी आनंद नहीं हो सकता था। मेरे लिए रिहर्सल ज़्यादा से ज़्यादा थकाऊ बनने लगी और मैं उस कार्यक्रम के समाप्त होने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी ताकि मैं आगे कोई और कर्तव्य निभा सकूँ।
जब मंच के स्थानों का चार्ट सामने आया, तो मैंने देखा कि मैं कुछ स्थानों में कैमरे में नहीं दिखूंगी, फिर तो मैं और भी उदास हो गयी। मैंने सोचा, "मैं यह सब बहुत अच्छे से नहीं कर सकती, लेकिन मैं इतनी बुरी भी तो नहीं हूँ। भले ही मैं पहली पंक्ति में नहीं हो सकती, लेकिन क्या मैं इन शॉट्स में कम से कम कैमरे में नहीं दिख सकती? मुझे क्यों बाहर रखा जा रहा है? क्या मैं इतने दिनों से बेमतलब ही रिहर्सल कर रही हूँ? अगर मुझे यह पहले से पता होता, तो मैं इन मुद्राओं का अभ्यास करने का झंझट न मोल लेती।" उसके बाद, जब कभी मैं कैमरे के दृश्य में होती, तो मैं हंसी-खुशी आगे बढ़ती, वरना मेरा दिल वहां ज़रा-भी न लगता और मैं रिहर्सल में सिर्फ खानापूर्ति करती। सारा फिल्मांकन पूरा होने के बाद, एक सभा में जब मैंने सभी लोगों को इस बारे में बातें करते हुए सुना कि उन्होंने क्या पाया है, तो मैं बेचैन हो उठी। मैंने भी वही कर्तव्य निभाया था, लेकिन जब उन सभी ने कुछ न कुछ पाया था, तो मेरा हृदय इस कदर क्यों खाली लग रहा था, जैसे मैंने इससे कुछ भी न पाया हो? मुझे यह सोचकर थोड़ा डर लगा कि कहीं मैंने परमेश्वर को किसी प्रकार से अप्रसन्न तो नहीं कर दिया। उसके बाद मैं खोजने लगी और परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना करने लगी कि वह मेरा मार्गदर्शन करे कि मैं समझ पाऊँ। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर इंसान के दिल के अंदर गहराई से देखता है और हर चीज का निरीक्षण करता है। लेकिन लोग कभी नहीं जान पाते कि कुछ लोग पवित्र आत्मा से प्रबुद्धता क्यों प्राप्त नहीं कर पाते, क्यों वे कभी अनुग्रह हासिल नहीं कर पाते, क्यों कभी आनंदित नहीं होते, क्यों वे हमेशा निराश और उदास रहते हैं, क्यों वे सकारात्मक होने के काबिल नहीं हो पाते? उनके अस्तित्व की दशाओं पर नज़र डालो। मैं तुम्हें गारंटी देता हूँ कि इनमें से हरेक इंसान के पास एक सक्रिय चेतना या ईमानदार दिल नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "किसी व्यक्ति की मानवता के सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण घटक उसके विवेक और सूझ-बूझ हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह एक बुरी मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। यह व्यक्ति भ्रष्ट इंसानियत को किस तरह से व्यक्त करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं। ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। जब कभी वे कोई काम करते हैं तो किस बारे में सोचते हैं? उनका पहला विचार होता है, 'अगर मैं यह काम करूंगा तो क्या परमेश्वर को पता चलेगा? क्या यह दूसरे लोगों को दिखाई देता है? अगर दूसरे लोग नहीं देखते कि मैं इतना ज़्यादा प्रयास करता हूँ और सच्चा व्यवहार करता हूँ, और अगर परमेश्वर भी यह न देखे, तो मेरे इतना ज़्यादा प्रयास करने या इसके लिए कष्ट सहने का कोई फायदा नहीं है।' क्या यह स्वार्थ नहीं है? साथ-ही-साथ, यह एक बहुत नीच किस्म का इरादा है। जब वे ऐसी सोच के साथ कर्म करते हैं, तो क्या अंतरात्मा कोई भूमिका निभाती है? क्या इसमें अंतरात्मा का कोई भाग होता है? यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं। ऐसे इंसान के कर्म और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं: जब भी सम्मान या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका आता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब सम्मान पाने का कोई मौक़ा नहीं होता, या जैसे ही दुख का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में ज़मीर और विवेक होता है? क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के इंसान का ज़मीर किसी काम का नहीं होता, उसे कभी भी आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता। तो, क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे हिला दिया। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्य में नकारात्मक और निष्क्रिय थी और मैं पवित्र आत्मा के कार्य को खासकर इसलिए प्राप्त नहीं कर सकी, क्योंकि मेरा हृदय ईमानदार नहीं था। परमेश्वर के घर के हित और अपनी जिम्मेदारियों के बजाय मैंने अपने कर्तव्य में सिर्फ अपने रुतबे और प्रतिष्ठा के बारे में सोचा। कर्तव्य के प्रति इस प्रकार के रवैये से परमेश्वर घृणा करता है। जब मैंने रिहर्सल के बारे में फिर से सोचा, तो मैंने पाया कि जब मुझे समझ आया कि मेरी क्षमता अन्य भाई-बहनों से कम थी और जब मुझे बिलकुल पीछे रखा गया, जहाँ से मैं खुद को दिखा नहीं सकती थी, तो मैं नकारात्मक और निष्क्रिय बन गई। मैं अपने हाव-भाव और मुद्राओं का अभ्यास करके खुद को थकाना नहीं चाहती थी। मैं "काम चलने लायक" से खुश थी, और उनमें सुधार करने के बारे में बिलकुल नहीं सोच रही थी। जब मैंने देखा कि मैं कुछ दृश्यों में नहीं थी, तो मेरा शिकायत करने और झगड़ने का मन किया, मुझे लगा कि मेरा सारा संघर्ष बेकार हो गया, इसके बाद मैं अधिक अभ्यास नहीं करना चाहती थी। उसके बाद फिल्मांकन के दौरान जब मैं स्क्रीन पर रहती, तब मैं अपनी ज़िम्मेदारी निभाती, लेकिन जब मैं स्क्रीन पर नहीं रहती, तब मैं सुस्त पड़ जाती और जैसे-तैसे काम चला लेती। जब मैं इसके बारे में सोचती तो मैं खुद को कसूरवार ज़रूर मानती। परमेश्वर का घर समवेत गायन की रचनाओं का फिल्मांकन परमेश्वर की गवाही देने के लिए करता है, इसलिए मुझे उसमें हिस्सा लेने का मौका देकर परमेश्वर मुझे उन्नत कर रहा था। मुझे इसमें जी-जान लगा देनी चाहिए थी। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए औरों के साथ मिल-जुलकर काम करना चाहिए था। इसके बजाय, जब रुतबे और प्रतिष्ठा की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, तो मैं लापरवाह, नकारात्मक और आलसी हो गई। मुझमें ज़रा-भी विवेक या समझ नहीं थी। मैं एक स्वार्थी, कपटी, घिनौनी और नीच इंसान थी। परमेश्वर लोगों के हृदय की गहराई में देखता है, तो मेरे लिए उसके आदेश के प्रति ऐसे रवैये से परमेश्वर अप्रसन्न कैसे नहीं होगा? यह जानकर मैं खेद और अपराध-भावना में डूब गई, मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं गलत थी। इस कार्यक्रम में अपनी भूमिका के लिए मुझे खेद है और अब इसे सुधारने का मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। अब से, मैं सचमुच सत्य का अनुसरण करूंगी और खुद के रुतबे और प्रतिष्ठा के बारे में सोचना बंद कर दूंगी। मैं अटल रहकर अपना कर्तव्य बखूबी निभाना चाहती हूँ।"
उस समय, मुझे लगा कि मैं गहरे खेद के साथ उस कार्यक्रम के अपलोड होने की केवल प्रतीक्षा कर सकती थी, लेकिन अचरज की बात यह थी कि हमें कई कारणों से कुछ और फिल्मांकन करने की आवश्यकता हुई। जब मैंने यह सुना तो मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएं उमड़ने लगीं। मुझे लगा यह मेरे लिए पश्चाताप करने का मौका है। मैंने निश्चय कर लिया कि इस बार मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निश्चित ही सही ढंग से निभाऊंगी। मैंने रिहर्सल में अपनी पूरी शक्ति लगानी शुरू कर दी, और थोड़े समय बाद मैंने अपने हाव-भाव और मुद्राओं में कुछ सुधार होते हुए देखा। मुझे लगा कि हम जल्द ही फिल्मांकन शुरू करेंगे, लेकिन फिर अचानक कुछ हालात के कारण उसे आगे बढ़ाना पड़ा। निर्देशक ने हमें चिंता न करने और अभ्यास करते रहने के लिए कहा। शुरू-शुरू में, मैं हर दिन इस पर कड़ी मेहनत कर पाती थी, लेकिन कुछ समय बाद मैं सोचने लगी, "पता नहीं हम फिल्मांकन कब करेंगे या कितने समय तक रिहर्सल करेंगे। पिछली बार मैं कुछ शॉट्स में कैमरे में नहीं थी, तो शायद इस बार भी वही हाल होगा। इसके अलावा, मुझे गीत और मुद्राओं की बुनियादी समझ पहले ही मिल गयी है, इसलिए अगर मैं हर दिन अभ्यास करती रहूंगी, तो यह काफी होना चाहिए।" प्रशिक्षक ने हमें कई बार चेतावनी दी कि हम फिल्मांकन से पहले अभ्यास में ढिलाई नहीं कर सकते और मंच की व्यवस्था कभी भी बदल सकती है। लेकिन मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया, मैंने सोचा, "इस बात की लगभग कोई उम्मीद नहीं है कि मुझे आगे रखा जाएगा, तो भले ही मैं रिहर्सल में कड़ी मेहनत करती रहूं, यह ज़रूरी नहीं है कि मैं फिल्म में दिखाई दूंगी। तो फिर तकलीफ क्यों लूँ?" जब प्रशिक्षक ने रिहर्सल के दौरान मेरी गलतियां निकाली, मैं उन पर वास्तव में मेहनत करने को तैयार नहीं थी, मैं सिर्फ बहाने बनाया करती : "जो भाई-बहनें आगे हैं वे सभी फिल्म में दिखाई देंगे, इसलिए उनसे बहुत सारी रिहर्सल करवाना ठीक बात है। लेकिन मैं पीछे रहूंगी, और कोई मुझे पहचान भी नहीं पाएगा। इसमें बारीकियों में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।" उसके बाद, रिहर्सल के दौरान मैं हमेशा थकी हुई रहती थी, मानो उसमें बहुत ज़्यादा मेहनत करनी पड़ी हो। बहुत बार तो मैं जाना भी नहीं चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी पुरानी समस्या फिर से सिर उठा रही थी। मुझे यह अच्छा नहीं लगा। मुझे खुद से पूछना ही था, "मैं हमेशा अपने कर्तव्य के प्रति इतनी लापरवाह क्यों रहती हूँ? मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने की पूरी कोशिश क्यों नहीं कर सकती?" मैंने अपनी सच्ची स्थिति के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा कि वह खुद को समझने में मेरा मार्गदर्शन करे।
मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं। ... अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाएँ नहीं होता?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। "ऐसे व्यक्ति की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वह किस प्रकार का जीवन जीता है, क्या प्रकट करता है, कर्तव्य निभाते समय उसका रवैया कैसा होता है, साथ ही उसकी अंदरूनी दशा कैसी है और उसे क्या पसंद है। अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के प्रति निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के हितों से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वो परमेश्वर के प्रति दर्शाता है, तो उस इंसान में इंसानियत नहीं है। उसका व्यवहार दूसरों के द्वारा और परमेश्वर द्वारा देखा जा सकता है; इसलिए ऐसे इंसान के लिए सत्य को हासिल करना बहुत कठिन होता है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मर्मभेदी ढंग से मेरे गहरे, घिनौने इरादों को उजागर किया, और मुझे दिखाया कि जब मैं अपना कर्तव्य निभाते समय खुद का दिखावा नहीं कर सकती थी, तब मैं क्यों उसे बस लापरवाही से निभा देती, यह जानने के बावजूद भी कि यह मेरा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, मैं क्यों प्रेरित नहीं होती थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि नाम और रुतबे की मेरी इच्छा बहुत प्रबल थी। हालाँकि यह ज़ाहिर नहीं था कि मैं दिखावे का मौका तलाश रही थी, लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए था क्योंकि मैं इतनी गुणवान ही नहीं थी। ऐसा नहीं था कि मैं यह नहीं चाहती थी। जब मैंने देखा कि मैं चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करूँ, मैं दूसरों से आगे नहीं निकल सकती और मैं पहली पंक्ति में स्थान नहीं पा सकती, तो मैंने इन सब के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर अपने कर्तव्य को निभाने में बहुत कम कोशिश की। अपना काम बखूबी करने की कोशिश किए बिना मैं सिर्फ खानापूर्ति करती रही। मैंने सोचा कि मैं खुद का दिखावा नहीं कर सकती, इसलिए मुझे इतनी तकलीफ उठाने की ज़रूरत भी नहीं, इस तरह कम से कम मुझे कष्ट तो नहीं झेलने पड़ेंगे। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "भीड़ से ऊपर उठो" जैसे शैतान के ज़हर मेरे अंदर जड़ें जमा चुके थे। वे मेरे सिद्धांत बनकर मेरी हर गतिविधि को संचालित कर रहे थे जिससे मैं जो भी करती उसमें मैं बस अपने लाभ के बारे में सोचती थी। मैं कोई भी काम, नाम और लाभ के लिए ही करती, वरना नहीं करती। यही बात मेरे कर्तव्य के बारे में भी सही थी। जब मैं दिखावा कर सकती, तो मैं कड़ी मेहनत करती, लेकिन जब मेरी इच्छाएं पूरी न होती, तो मैं सिर्फ खानापूर्ति करती, मैं परमेश्वर की इच्छा या परमेश्वर के घर के हितों का ज़रा-भी ध्यान न रखती। मैं अपनी कपटी प्रकृति के अनुसार जीकर हमेशा अपने नाम और पद के लिए षड़यंत्र रचती। रत्ती भर भी जिम्मेदारी या विवेक, समझ या मर्यादा के बगैर, मैं अपने कर्तव्य में सुस्त और धोखेबाज़ बनी रही। मैं किसी भी तरह से भरोसेमंद नहीं थी। मैंने सोचा मेरी जानकारी में ऐसे कितने सारे भाई-बहन थे जो बहुत निश्छल और ईमानदार थे, उन्हें चाहे आगे रखा जाए या पीछे, वे परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास करते। समय के साथ उनके नृत्य और गायन में सुधार आया, और वे परमेश्वर की आशीष और मार्गदर्शन को देख सके। इसके अलावा परदे के पीछे भी ऐसे लोग थे जो चुपचाप अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाते, जबकि वे कभी भी परदे पर दिखाई नहीं देने वाले थे। वे कहते कि उस कार्यक्रम को ऑनलाइन होते देखने में ही उन्हें अपनी मेहनत का फल मिलता है। लेकिन जब मैं दिखावा न कर सकी, तो जिस कर्तव्य को निभाना मेरे लिए ज़रूरी था उसे भी मैंने नहीं निभाया। मेरे अंदर ज़रा-सी भी मानवता नहीं थी। परमेश्वर का स्वभाव पवित्र और धार्मिक है, इसलिए वह मेरी जैसी मानवता और अनुसरण से सिर्फ़ घृणा और तिरस्कार कर सकता था। मैं अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं कर सकी, और जीवन में उन्नति नहीं कर सकी। मैं जानती थी कि अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो भले ही मैं अंत तक विश्वास क्यों न करूँ, मैं कभी सत्य हासिल नहीं कर पाऊँगी। परमेश्वर मुझे निश्चित ही हटा देगा! अपने चिंतन में मैं थोड़ी डर गई और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। "हे परमेश्वर, अब जाकर मैं देख पाई हूँ कि मैं कितनी निंदनीय हूँ, मानवता के बगैर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रही हूँ। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना और बदलना चाहती हूँ। अपने शैतानी स्वभाव के बंधन को त्यागने और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने में मेरा मार्गदर्शन करो।"
फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "यदि तुम अपने हर काम में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए समर्पित रहना चाहते हो, तो केवल एक ही कर्तव्य करना काफी नहीं है; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिये गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे यह तुम्हारी पसंदों के अनुसार हो या न हो, और चाहे यह तुम्हारी रूचियों में से एक हो या न हो, या चाहे यह कुछ ऐसा काम हो जो तुम्हें करना अच्छा नहीं लगता हो या तुमने पहले कभी न किया हो, या कुछ मुश्किल काम हो, तुम्हें इसे फिर भी स्वीकार कर इसके प्रति समर्पित होना होगा। न तुम्हें केवल इसे स्वीकार करना होगा, बल्कि अग्रसक्रिय रूप से अपना सहयोग देना होगा, और इसे सीखना होगा, इसमें प्रवेश पाना होगा। यदि तुम कष्ट उठाते हो, यदि तुम इसके लिए वाहवाही तक नहीं पा सके हो, तुम्हें फिर भी समर्पण के लिए प्रतिबद्ध रहना होगा। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए; कर्तव्य जिसे पूरा करना ही है। लोगों को अपने कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए। जब सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—किसी को कोई कार्य सौंपता है, तब उस समय, वह उस व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है। जिन कार्यों और आदेशों को परमेश्वर तुम्हें देता है—वे तुम्हारे कर्तव्य हैं। जब तुम उन्हें अपने लक्ष्य बनाकर उनके पीछे जाते हो, और जब तुम्हारा दिल वास्तव में परमेश्वर-प्रेमी होता है, तब भी क्या तुम इनकार कर सकोगे? तुम्हें इसे इनकार नहीं करना चाहिए। तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। यही अभ्यास का पथ है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल ईमानदार व्यक्ति बनकर ही कोई वास्तव में ख़ुश हो सकता है')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि मेरा काम मेरे लिए परमेश्वर का आदेश था, चाहे इसमें मेरा हुनर हो या न हो या फिर मैं दिखावा कर सकूँ या न कर सकूँ, मुझे अपनी निजी मंशाओं और लक्ष्यों को त्याग देना चाहिए, मुझे अपने काम को अपनी ज़िम्मेदारी समझकर, परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए। वास्तव में, किसी भी व्यवस्था में कुछ लोग आगे होते हैं तो कुछ पीछे, वे चाहे कहीं पर भी हों, वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं। परमेश्वर हमारी मंशाओं और कर्तव्य के प्रति हमारे रवैये को देखता है, वह देखता है कि क्या हम अपना दिल लगाकर ज़िम्मेदारी लेते हैं, क्या हम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करते हैं। मैंने सोचा कि कैसे मैं दूसरे कलाकारों जैसी गुणवान नहीं थी, लेकिन फिर भी परमेश्वर ने मुझे प्रशिक्षण का वह मौका दिया ताकि मैं अपने कौशल और अपने जीवन-प्रवेश, दोनों में प्रगति कर सकूँ। वह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम था! मैं जानती थी कि परमेश्वर के दिल को ठेस पहुंचाकर और उसे निराश करके मैं पहले की तरह स्वार्थी, घिनौनी और निर्दय नहीं हो सकती। चाहे मैं आगे रहूँ या पीछे, चाहे मैं कैमरे में दिखूँ या न दिखूँ, मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से और ईमानदारी से निभाकर परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देना था।
उसके बाद, मैंने निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना की और उस पर भरोसा किया, रिहर्सल चाहे किसी भी चीज़ की हो, मैंने अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाने के लिए कड़ी मेहनत की। जब रिहर्सल के पहले हमारी सभाओं में हमने परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मैंने परमेश्वर की अपेक्षाओं के बारे में खूब सोचा, और रिहर्सल के दौरान उसके वचनों को अभ्यास में लाया। जब प्रशिक्षक ने मेरी ग़लतियाँ बताई तो मैंने ध्यान से सुनकर उसकी सलाह को अपने अभ्यास में शामिल किया। उसके बाद मैं अपनी कमियों का हिसाब लगाती और अपने खाली समय में अधिक अभ्यास करती। मैंने थोड़े में खुश होना बंद कर दिया। जब मैंने रिहर्सल के लिए अपनी मंशाओं को ठीक कर लिया, तो हर दिन पूरी तरह से संतोष भरा लगने लगा। परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता सामान्य हो गया, मैं अपने कर्तव्य में सचमुच उससे मार्गदर्शन पा सकी। मुझे पहले जैसी थकान महसूस नहीं होती थी। कुछ समय बाद, मेरी सभी मुद्राओं और हाव-भावों में सुधार आया। बहनों ने कहा कि मेरे गायन और हाव-भावों में बहुत सुधार हुआ है। मुझे इस बात का गहरा एहसास हुआ कि ईमानदार हृदय से कर्तव्य निभाना कितना महत्वपूर्ण है।
ज़्यादातर फिल्मांकन के दौरान मुझे पीछे ही रखा गया था, और कभी-कभी मैं अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं उस दृश्य में मौजूद नहीं थी। इसलिए मैं निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करके इस बारे में सोचती कि उसकी इच्छा का ध्यान कैसे रखें, खुद को तुरंत काम पर कैसे लगाएं। इसमें थोड़ा समय लगा, लेकिन मेरे रवैये में काफी सुधार हुआ। जब मैं पिछली पंक्ति में रहती, तो मैं आगे खड़े अपने भाई-बहनों के लिए प्रार्थना करती। जब मैं कैमरे के दृश्य में नहीं होती थी, तो मैं अपनी बहनों के पोशाक और बालों को संवारने में उनकी मदद करती। मैं अपने कर्तव्य के लिए जो हो सके वह हर काम करती। जब मैं देखती कि कुछ बहनें बहुत पीछे होने के कारण निराश और कमज़ोर हो रही हैं, तो मैं उनकी मदद के लिए परमेश्वर की इच्छा के बारे में उनसे सहभागिता करती। अपना कर्तव्य इस प्रकार निभाने से मुझे वाकई शांति महसूस हुई और मेरी स्थिति सुधरती चली गई। अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नकारने और सत्य का कुछ अभ्यास करने की यह क्षमता केवल परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से आई। मुझे बचाने के लिए मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?