मार्ग ... (6)
यह परमेश्वर का कार्य ही है, जिसकी वजह से हम वर्तमान समय में लाए गए हैं, और इस तरह हम परमेश्वर की प्रबंधन-योजना में जीवित बचे लोग हैं। यह परमेश्वर द्वारा किया गया हमारा महान उत्कर्ष है कि हम आज बचे हुए हैं, क्योंकि परमेश्वर की योजना के अनुसार, विशालकाय लाल अजगर वाले देश का विनाश हो जाना चाहिए। लेकिन मैं समझता हूँ कि शायद उसने एक और योजना तैयार की है, या वह अपने कार्य के एक और हिस्से को अंजाम देना चाहता है, इसलिए मैं आज भी इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकता—यह एक ऐसी पहेली की तरह है, जिसे सुलझाया नहीं जा सकता। लेकिन कुल मिलाकर, हमारे इस समूह को परमेश्वर ने पहले से नियत कर रखा है, और इस बात में मेरा विश्वास बना हुआ है कि हमारे भीतर परमेश्वर किसी अन्य कार्य में संलग्न है। हम सब स्वर्ग से यह याचना करें : “तेरी इच्छा पूरी हो, और एक बार फिर तू हमारे सामने प्रकट हो और स्वयं को छिपाए नहीं, ताकि हम तेरी महिमा और चेहरे को और स्पष्टता से देख सकें।” मुझे लगातार यह महसूस होता रहता है कि परमेश्वर हमें राह दिखाता हुआ जिस मार्ग पर ले जाता है, वह कोई सीधा मार्ग नहीं है, बल्कि वह गड्ढों से भरी टेढ़ी-मेढ़ी सड़क है; इसके अतिरिक्त, परमेश्वर कहता है कि मार्ग जितना ही ज़्यादा पथरीला होगा, उतना ही ज़्यादा वह हमारे स्नेहिल हृदयों को प्रकट कर सकता है। लेकिन हममें से कोई भी ऐसा मार्ग उपलब्ध नहीं करा सकता। अपने अनुभव में, मैं बहुत-से पथरीले, जोखिम-भरे मार्गों पर चला हूँ और मैंने भीषण दुख झेले हैं; कभी-कभी मैं इतना शोकग्रस्त रहा हूँ कि मेरा मन रोने को करता था, लेकिन मैं इस मार्ग पर आज तक चलता आया हूँ। मेरा विश्वास है कि यही वह मार्ग है जो परमेश्वर ने दिखाया है, इसलिए मैं सारे कष्टों के संताप सहता हुआ आगे बढ़ता जाता हूँ। चूँकि यह परमेश्वर का विधान है, इसलिए इससे कौन बच सकता है? मैं किसी आशीष के लिए याचना नहीं करता; मैं तो सिर्फ़ इतनी याचना करता हूँ कि मैं उस मार्ग पर चलता रह सकूँ, जिस पर मुझे परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक चलना अनिवार्य है। मैं दूसरों की नकल करते हुए उस मार्ग पर नहीं चलना चाहता, जिस पर वे चलते हैं; मैं तो सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि मैं आखिरी क्षण तक अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की अपनी निष्ठा का निर्वाह कर सकूँ। मैं दूसरों की सहायता की याचना नहीं करता; ईमानदारी से कहूँ तो मैं खुद भी दूसरों की सहायता नहीं कर सकता। ऐसा लगता है कि मैं इस मामले में बेहद संवेदनशील हूँ। मुझे नहीं मालूम कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मेरा हमेशा से यह विश्वास रहा है कि किसी व्यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता। हमारे कुछ ईष्यालु भाई और बहनें कह सकते हैं कि मुझमें प्रेम का अभाव है, लेकिन मेरा तो यही विश्वास है। लोग परमेश्वर के मार्गदर्शन पर भरोसा करते हुए अपने मार्गों पर चलते हैं, और मुझे पक्का विश्वास है कि मेरे भाई और बहनें मेरी भावना को समझेंगे। मुझे यह भी उम्मीद है कि परमेश्वर हमें इस मामले में कहीं अधिक प्रबुद्धता प्रदान करता है, ताकि हमारा प्रेम और अधिक निर्मल और हमारी मैत्री और अधिक मूल्यवान बन सके। हम इस विषय में भ्रमित नहीं हों, बल्कि इसे और भी स्पष्टता से समझें, ताकि हमारे आपसी संबंध परमेश्वर की अगुआई की बुनियाद पर खड़े हो सकें।
परमेश्वर ने चीन के मुख्य भूभाग में कई वर्षों तक कार्य किया है, और हम आज जहाँ हैं, हमें वहाँ लाने की ख़ातिर उसने हम सबके लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है। मैं समझता हूँ कि हर किसी को सच्चे मार्ग पर ले जाने के लिए इस कार्य की शुरुआत उस बिंदु से होनी चाहिए, जहाँ हर व्यक्ति सबसे ज़्यादा कमज़ोर होता है; केवल तभी वे पहले अवरोध तोड़कर बाहर आ सकते हैं और आगे की यात्रा जारी रख सकते हैं। क्या यही बेहतर नहीं है? हज़ारों वर्षों से भ्रष्ट होता रहा चीनी राष्ट्र आज तक जीवित बचा रहा है, जिसमें हर तरह के “विषाणु” निर्बाध गति से बढ़ते रहे और महामारी की तरह हर तरफ़ फैलते रहे; यह जानने के लिए कि लोगों के भीतर कितने “रोगाणु” छिपे हुए हैं, उनके आपसी रिश्तों पर नज़र डालना भर पर्याप्त है। परमेश्वर के लिए इस तरह के अत्यंत अवरुद्ध और विषाणुओं से दूषित क्षेत्र में अपने कार्य को आगे बढ़ाना बेहद मुश्किल है। लोगों के व्यक्तित्व, आदतें, उनका काम करने का ढंग, अपने जीवन में उनकी हर अभिव्यक्ति और उनके पारस्परिक संबंध—वे सब जगह-जगह से इस क़दर कटे-फटे हैं कि मानवीय ज्ञान और संस्कृतियाँ परमेश्वर के हाथों मरने को अभिशप्त हैं। वे अनुभव इसके अतिरिक्त हैं, जो उन्होंने अपने परिवारों तथा समाज से हासिल किए होते हैं—ये सब परमेश्वर की नज़रों में दोषी साबित हो चुके हैं। इसकी वजह यह है कि इस मुल्क में रहने वाले लोगों ने बहुत सारे विषाणु खाए हैं। यह उनके लिए सामान्य-सी बात है, वे इसके बारे में जरा भी नहीं सोचते। इसलिए, जितने ज़्यादा भ्रष्ट लोग किसी जगह होते हैं, उनके आपसी रिश्ते उतने ही ज़्यादा विकृत होते हैं। लोगों के रिश्ते षड्यंत्रों से ओतप्रोत हैं, वे एक-दूसरे के खिलाफ़ कुचक्र रचते रहते हैं और एक-दूसरे की इस तरह हत्या करते रहते हैं, मानो वे नरभक्षियों के किसी दुर्ग में रहने वाले दैत्य हों। आतंक से भरी ऐसी जगह में, जहाँ प्रेत बेलगाम दौड़ते हों, परमेश्वर के कार्य को अंजाम देना बेहद मुश्किल है। मुझे जब लोगों से मिलना होता है, तो मैं परमेश्वर से निरंतर प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि मैं उनसे मिलते हुए बहुत घबराता हूँ, और इस बात से बहुत डरता रहता हूँ कि मैं कहीं अपने स्वभाव से उनकी “गरिमा” को ठेस न पहुँचा दूँ। मेरे हृदय में हमेशा यह भय बना रहता है कि ये अपवित्र आत्माएँ लापरवाही से काम करेंगी, इसलिए मैं हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता रहता हूँ कि वह मेरी रक्षा करे। हमारे बीच हर तरह का असामान्य संबंध साफ़ दिखाई देता है, और यह सब देखते हुए मेरा हृदय नफ़रत से भर उठता है, क्योंकि उनके बीच लोग हमेशा मनुष्य के “धंधे” में लगे रहते हैं और परमेश्वर के बारे में सोचने की उनके पास कभी फुरसत नहीं होती। मुझे उनके आचरण से गहरी नफ़रत होती है। चीन के मुख्य भूभाग के लोगों में भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता, इसलिए इन लोगों के बीच परमेश्वर का कार्य करते हुए इनमें कुछ भी सार्थक खोजना लगभग असंभव है; सारा कार्य पवित्र आत्मा द्वारा किया जाता है, और केवल पवित्र आत्मा ही है जो लोगों को अधिक प्रेरित करता है, और उन पर कार्य करता है। उन लोगों का उपयोग करना लगभग असंभव है; यानी, लोगों को प्रेरित करने का पवित्र आत्मा का कार्य इन लोगों के सहयोग से नहीं किया जा सकता। बस पवित्र आत्मा इन लोगों को प्रेरित करने के लिए कड़ा परिश्रम करता रहता है, लेकिन तब भी, लोग सुन्न और संवेदनशून्य बने रहते हैं, और परमेश्वर क्या कर रहा है, उन्हें कुछ पता नहीं चलता। इसलिए, चीन के मुख्य भूभाग में परमेश्वर का कार्य उसके पृथ्वी और स्वर्ग रचने के कार्य जैसा है। वह सारे लोगों को फिर से जन्म देता है, और उनके अंदर का सब-कुछ बदल देता है, क्योंकि उनके भीतर कुछ भी सार्थक नहीं होता। यह बहुत हृदय-विदारक है। मैं अकसर पीड़ा से भरकर इन लोगों के लिए प्रार्थना करता हूँ : “परमेश्वर, तेरी महान शक्ति इन लोगों के समक्ष प्रकट हो, ताकि तेरा आत्मा इनको अधिक-से-अधिक प्रेरित कर सके, और ये सुन्न और मंदबुद्धि दुखी लोग जाग सकें, अब सुस्ती से और सोए न रहें, और तेरी महिमा का दिन देख सकें।” हम सब परमेश्वर से प्रार्थना करें और कहें : हे परमेश्वर! एक बार फिर हम पर तेरी कृपा हो और हमें तेरा वात्सल्य प्राप्त हो, ताकि हमारे हृदय पूरी तरह से तेरी ओर रुख कर सकें, और हम इस घृणित मुल्क से बचकर निकल सकें, खड़े हो सकें, और तूने जो कार्य हमें सौंपा है, उसे पूरा कर सकें। मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर एक बार फिर हमें उत्प्रेरित करेगा ताकि हम उसकी प्रबुद्धता हासिल कर सकें, और मुझे उम्मीद है कि वह हम पर कृपा करेगा, ताकि हमारे हृदय धीरे-धीरे उसकी ओर मुड़ सकें और वह हमें हासिल कर सके। यही हम सबकी साझी इच्छा है।
हम जिस मार्ग पर चलते हैं, वह पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा नियत है। संक्षेप में, मेरा मानना है कि मैं निश्चित रूप से इस मार्ग पर अंत तक चलता रहूँगा, क्योंकि परमेश्वर हमेशा मुझ पर अपनी मुसकराहट बिखेरता है, और लगता है, जैसे वह हमेशा अपने हाथ से मुझे राह दिखाता है। इस तरह मेरा हृदय किसी भी अन्य चीज़ से बेदाग़ बना रहता है, और इस तरह मैं हमेशा परमेश्वर के कार्य के प्रति सजग बना रहता हूँ। मैं परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सारे आदेश अपने पूरे सामर्थ्य और निष्ठा के साथ करता हूँ, और ऐसे किसी भी काम में दख़लंदाज़ी नहीं करता जो मुझे नहीं सौंपा गया है, न ही मैं खुद को उन दूसरे लोगों में उलझाता हूँ, जो उस काम को करते हैं—क्योंकि मेरा मानना है कि हर व्यक्ति को अपने खुद के मार्ग पर चलना चाहिए, और दूसरों के मार्ग में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए। मैं इसे इसी तरह देखता हूँ। ऐसा शायद मेरे अपने व्यक्तित्व की वजह से है, लेकिन मुझे उम्मीद है कि मेरे भाई और बहनें मुझे समझेंगे और क्षमा करेंगे, क्योंकि मैं अपने पिता के आदेशों के खिलाफ जाने का दुस्साहस कभी नहीं करता। मैं परमेश्वर की इच्छा की अवहेलना करने का दुस्साहस नहीं करता। क्या तुम भूल गए हो कि “परमेश्वर की इच्छा की अवहेलना नहीं की जा सकती”? कुछ लोग मुझे आत्मकेंद्रित समझ सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि मैं खास तौर से परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य का एक हिस्सा पूरा करने के लिए आया हूँ। मैं व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों में उलझने के लिए नहीं आया हूँ; मैं दूसरों के साथ दोस्ताना रिश्ता बनाना कभी नहीं सीखूँगा। लेकिन परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य में मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त है, और मुझमें यह आस्था और दृढ़ निश्चय है कि मैं इस कार्य को पूरा करके ही रहूँगा। शायद मैं बहुत ज़्यादा “आत्मकेंद्रित” हो रहा हूँ, लेकिन मुझे उम्मीद है कि हर कोई खुद ही परमेश्वर के न्यायपूर्ण और निःस्वार्थ प्रेम को महसूस कर सकता है और परमेश्वर के साथ सहयोग करने की कोशिश कर सकता है। परमेश्वर की महिमा के दूसरे आगमन की प्रतीक्षा मत करो; यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है। मैं हमेशा सोचता हूँ कि हमें इस चीज़ पर विचार करना चाहिए : “हमें वह हर संभव काम करना चाहिए, जो परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अनिवार्य है। परमेश्वर ने हममें से हरेक को अलग-अलग कार्य सौंपा है; हम इसे किस तरह पूरा करें?” तुम्हें यह समझना ज़रूरी है कि जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो, वह क्या है—तुम्हारे मन में यह बात स्पष्ट होनी अनिवार्य है। चूँकि तुम सब परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हो, इसलिए क्यों नहीं तुम स्वयं को उसके प्रति समर्पित कर देते? जब मैंने पहली बार परमेश्वर से प्रार्थना की थी, तो मैंने अपना समूचा हृदय उसे सौंप दिया था। मेरे आसपास के लोग—माता-पिता, बहनें, भाई और सहकर्मी—सब-के-सब मेरे संकल्प द्वारा मेरे मन के पीछे धकेल दिए गए थे, यह कुछ ऐसा था, जैसे मेरे लिए उनका अस्तित्व ही नहीं था। क्योंकि मेरा मन तो हमेशा परमेश्वर, या परमेश्वर के वचनों, या उसकी बुद्धिमत्ता में ही लगा रहता था; ये चीजें हमेशा मेरे हृदय में होती थीं, और उन्होंने मेरे हृदय में सबसे कीमती जगह ली हुई थी। इस तरह, जो लोग सांसारिक आचरण के फलसफ़ों से लबालब भरे होते हैं, उनके लिए मैं एक नितांत निर्मम और भाव-शून्य व्यक्ति हूँ। मेरे व्यवहार करने के ढंग से, मेरे काम करने के ढंग से, मेरी हर गतिविधि से उनके दिल दुखते हैं। वे मुझे विचित्र निगाहों से देखते हैं, जैसे मैं जो व्यक्ति हूँ वो कोई अबूझ पहेली है। वे अपने मन में, गुपचुप मैं जो व्यक्ति हूँ उसे आँकने की कोशिश करते हैं, उन्हें समझ में नहीं आता कि मेरा अगला कदम क्या होगा। उनका कोई भी कृत्य मेरे आड़े कैसे आ सकता है? हो सकता है कि वे ईष्यालु हों, या घृणा करते हों, या हँसी उड़ाते हों; मुझे इसकी परवाह नहीं, मैं तो मानो ज़बरदस्त भूख और प्यास से भरकर हर वक्त परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता रहता हूँ, मानो केवल मैं और वह ही इस दुनिया में रहते हों, कोई दूसरा नहीं। बाहरी दुनिया की ताक़तें हमेशा मेरे इर्द-गिर्द भीड़ लगाए रहती हैं—लेकिन उसी तरह, परमेश्वर से उत्प्रेरित होने की भावना भी मेरे भीतर उमड़ती रहती है। इस दुविधा में फँसने पर मैं परमेश्वर के सामने नतमस्तक हो गया : “हे परमेश्वर! मैं तेरी इच्छा के विरुद्ध कैसे हो सकता था? तू मुझे सम्मानजनक निगाहों से, गढ़े गए सोने की तरह देखता है, तब भी मैं अंधकार की शक्तियों से बच निकलने में अक्षम हूँ। तेरी ख़ातिर मैं आजीवन दुख झेलूँगा, तेरे कार्य को मैं अपनी आजीविका बना लूँगा, और मैं तुझसे याचना करता हूँ कि मुझे विश्राम की कोई ऐसी उपयुक्त जगह उपलब्ध करा, जहाँ मैं स्वयं को तेरे प्रति समर्पित कर सकूँ। हे परमेश्वर! मैं खुद को तुझे प्रस्तुत करना चाहता हूँ। तू मनुष्य की कमज़ोरियों को अच्छी तरह से जानता है, तब तू स्वयं को मुझसे क्यों छिपाता है?” ठीक उसी वक़्त, मानो मैं किसी पहाड़ी कुमुदनी जैसा हो गया, जिसकी खुशबू मंद समीर बहा ले चला, जिसका पता किसी को नहीं चला। लेकिन स्वर्ग रोया, और मेरा हृदय आर्तनाद करता रहा; ऐसा लगा, जैसे मेरा हृदय और भी अधिक पीड़ा से भर उठा हो। मनुष्य की सारी शक्तियाँ और घेराबंदियाँ—वे बादलों से रहित साफ दिन में बिजली की गर्जना की तरह थीं। कौन समझ सकता था मेरे हृदय को? और इसलिए मैं एक बार फिर से परमेश्वर के समक्ष आया, और बोला, “हे परमेश्वर! क्या गंदगी से भरे इस मुल्क में तेरे कार्य को पूरा करने का कोई उपाय नहीं है? ऐसा क्यों है कि दूसरे लोग उत्पीड़न से मुक्त एक सुखद, सहयोगपूर्ण वातावरण में तेरे हृदय के प्रति सजग नहीं हो पाते? मैं अपने पंख फैलाना चाहता हूँ, लेकिन उड़ पाना इतना मुश्किल क्यों है? क्या तू सहमत नहीं है?” मैं कई दिनों तक इसे लेकर रोता रहा, लेकिन मुझे हमेशा इस बात का भरोसा बना रहा कि परमेश्वर मेरे दुखी हृदय को सांत्वना पहुँचाएगा। मेरी बेचैनी को कभी किसी ने नहीं समझा। यह शायद सीधा परमेश्वर से प्राप्त बोध है—मेरे भीतर उसके कार्य को लेकर हमेशा एक प्रबल उत्साह रहा है, और मुझे साँस लेने का वक़्त भी शायद ही कभी मिला हो। मैं आज के दिन तक प्रार्थना करता हूँ और कहता हूँ, “हे परमेश्वर! अगर यह तेरी इच्छा है, तो तू मुझे अपना और भी बड़ा कार्य करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर, ताकि यह कार्य सारे विश्व में फैल जाए, और यह हर राष्ट्र तथा संप्रदाय को उपलब्ध हो जाए, ताकि मेरे हृदय को थोड़ी-सी शांति मिले, और इस तरह मैं तेरे लिए एक विश्रांति-स्थल में रह सकूँ, और बिना किसी विघ्न के तेरे लिए कार्य कर सकूँ, और शांत चित्त से आजीवन तेरी सेवा कर सकूँ।” यह मेरी हार्दिक आकांक्षा है। हो सकता है, भाई और बहन कहें कि मैं अहंकारी और दंभी हूँ; मैं भी इसे स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यह तथ्य है—अभिमानी नहीं तो युवा कुछ भी नहीं हैं। इसीलिए मैं तथ्यों की अवहेलना किए बिना इस बात को उसी तरह कहता हूँ, जैसी वह वास्तव में है। तुम मुझमें वे सारे लक्षण देख सकते हो, जो एक नौजवान के व्यक्तित्व में होते हैं, लेकिन तुम यह भी देख सकते हो कि मैं अन्य नौजवानों से कहाँ पर अलग हूँ : अपने धैर्यवान और शांत-चित्त होने में। मैं बात का बतंगड़ नहीं बना रहा हूँ; मैं जानता हूँ कि परमेश्वर मुझे मुझसे भी बेहतर जानता है। ये मेरे हृदय के उद्गार हैं, और मुझे उम्मीद है कि भाई और बहनें इससे नाराज़ नहीं होंगे। हम वही शब्द बोलें जो हमारे हृदय में हैं, उस चीज़ पर ध्यान दें जिसकी हममें से हर किसी को तलाश है, अपने परमेश्वर-प्रेमी हृदयों की तुलना करें, उन शब्दों को सुनें जो हम परमेश्वर के समक्ष फुसफुसाते हैं, अपने हृदय में सुंदरतम गीत गाएँ, और अपने हृदय के स्वाभिमान को स्वर दें, ताकि हमारे जीवन और अधिक सुंदर बन सकें। अतीत को भूल जाओ और भविष्य की ओर देखो। परमेश्वर हमारे लिए मार्ग प्रशस्त करेगा!