अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है

अपने कर्तव्य के संतोषजनक निर्वहन के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात सत्य के लिए बड़ा प्रयास करना है। केवल सत्य सिद्धांतों को समझकर ही लोग इन सिद्धांतों के अनुसार काम कर सकते हैं। इसके अलावा, लोगों को अपने कर्तव्यों से संबंधित विशेषज्ञता के विभिन्न क्षेत्रों और विशेष कौशल के बारे में सीखना होता है, और कुछ सरल और व्यावहारिक तकनीकों को सीखना अनिवार्य है। कुछ लोगों के पास थोड़ी तकनीकी विशेषज्ञता होती है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि अपने कर्तव्यों में उन्हें कैसे लागू किया जाए। जब वे कुछ काम करते हैं, तब भी उस मामले के बारे में उनके मन में कभी स्पष्टता नहीं होती। वे नहीं जानते कि काम करने का कौन-सा तरीका सही है, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, और दूसरों को लाभ पहुंचा सकता है, या कौन-सा तरीका गलत है और सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। उनका दिमाग भ्रमित रहता है। उन्हें लगता है कि यह रास्ता तो सही है, लेकिन दूसरे रास्ते भी संभव हैं। वे कभी भी निश्चित नहीं कर पाते कि उचित तरीके से काम कैसे किया जाए और न ही यह जानते हैं कि ऐसा अभ्यास कैसे किया जाए ताकि सही मार्ग पर चला जा सके। इससे क्या सिद्ध होता है? (वे सत्य को नहीं समझते।) ये लोग सत्य को नहीं समझते, और अपनी आंतरिक स्थिति और बहुत-सी चीजों के बारे में अपनी समझ और मूल्यांकन मानकों के संबंध में अस्पष्टता की स्थिति में होते हैं। जब वे कोई काम नहीं कर रहे होते, तो उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं और उनके लिए सब कुछ आसान है। लेकिन जब उन्हें सच में किसी वास्तविक जीवन स्थिति का सामना करना पड़ता है, तो वे नहीं जानते कि इसे किस रूप में लें, इससे कैसे निपटें, या आगे बढ़ने का सही तरीका क्या है। सिर्फ तभी उन्हें लगता है कि उनके पास कुछ भी नहीं है और वे सत्य को जरा भी नहीं समझते हैं। जिन धर्मसिद्धांतों पर वे पहले चर्चा करते आए हैं, वे बेकार हैं। ऐसे में उनके पास दूसरों से पूछने और उनके साथ स्थिति पर बात करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। जब सत्य को न समझने वाले लोग किसी स्थिति का सामना करते हैं, तो यही होता है—उन्हें कुछ समझ नहीं आता, वे बेचैनी से भरे होते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करना गलत होगा और वैसा करना भी सही नहीं होगा, और वे सही रास्ता नहीं खोज पाते। ऐसी स्थिति में ही वे देख पाते हैं कि सत्य के बिना एक भी कदम चल पाना वास्तव में कठिन है! इस वक्त ऐसे लोगों को सबसे ज्यादा किसकी जरूरत होती है? शैतानी फलसफे और ज्ञान की, या सत्य की समझ की? सबसे अहम बात है सत्य को समझना। यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो भले ही तुम कोई काम पूरा कर लो, तुम इसके बारे में अनिश्चित महसूस करोगे। तुम्हें पता नहीं होगा कि उस काम को तुमने ठीक से किया है या नहीं और काम पूरा होने के बाद उसका परिणाम क्या होगा। तुम ये चीजें माप नहीं सकते। तुम उन्हें माप क्यों नहीं पाते? तुम्हारा हृदय सदैव अनिश्चितता से क्यों भरा रहता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब तुम कुछ करते हो, तो तुम निश्चित नहीं होते कि तुम उसे ऐसे तरीके से कर रहे हो जो वास्तव में और सचमुच सिद्धांतों के अनुरूप है, कि तुम जिसका अभ्यास कर रहे हो वह सिद्धांत है या नहीं, और तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप है या नहीं। तुम इसे सत्यापित नहीं कर सकते। यदि अपना कर्तव्य निभाने से तुम्हें कोई छोटा-मोटा परिणाम प्राप्त होता है, तो तुम्हें लगता है कि तुम बहुत काबिल हो और तुमने कुछ पूंजी अर्जित कर ली है, और आत्मसंतुष्ट हो जाते हो। परंतु, यदि कोई स्पष्ट परिणाम नहीं मिलता या वह सिद्धांतों के मानकों पर खरा नहीं उतरता, तो तुम तुरंत निराश हो जाओगे और सोचोगे, “परमेश्वर मुझे कब प्रबुद्ध करेगा? परमेश्वर हमेशा दूसरों को प्रबुद्ध क्यों करता है, जबकि मुझे कोई प्रेरणा, कोई प्रबोधन और कोई रोशनी नहीं मिलती?” कभी-कभी तुम महसूस कर सकते हो कि तुमने सही इरादों के साथ काम किया है और बहुत अधिक मेहनत की है, इसलिए तुम आशा करते हो कि परमेश्वर तुम्हारे प्रयास को खुशी-खुशी स्वीकृत करेगा, अनुमोदित करेगा और उसकी पुष्टि करेगा। पर, साथ-ही-साथ, तुम डरते भी हो कि परमेश्वर कहेगा कि तुमने गलत तरीके से काम किया है और वह उसका अनुमोदन नहीं करेगा। क्या इससे लाभ-हानि की चिंता प्रदर्शित नहीं होती? जब तुम देखते हो कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, तुम बहुत विद्रोही और अहंकारी हो, और जब तुम छोटी-सी चीज भी हासिल कर लेते हो, तो तुम लापरवाह हो जाते हो, तो तुम्हें लगेगा कि तुम बहुत भ्रष्ट हो, तुम दानव और शैतान हो, और परमेश्वर के उद्धार के लायक नहीं हो। फिर, कुछ और छोटी उपलब्धियाँ हासिल करने के बाद तुम सोचोगे कि आखिर तुम इतने बुरे भी नहीं, तुममें कुछ योग्यता तो है, तुम कुछ परिणाम हासिल कर सकते हो, और इसलिए तुमको पुरस्कृत किया जाना चाहिए। क्या इसमें लाभ और हानि की चिंता दिखती है? लाभ और हानि की चिंता की यह स्थिति किस कारण उत्पन्न होती है? इसका सीधा संबंध सत्य की समझ न होने से है। जब लोग सत्य को नहीं समझते हैं, तो उससे अनेक अवस्थाएँ और अनेक अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। मुख्य बात यह है कि लोग अक्सर लाभ-हानि को लेकर चिंता में जीते हैं। यह उनकी सामान्य स्थिति है। चूँकि तुम सत्य को नहीं समझते, इसलिए तुम अपनी काबिलियतों को माप नहीं सकते; तुम नहीं जानते कि तुम क्या कर सकते हो और क्या नहीं। चूँकि तुम सत्य को नहीं समझते, इसलिए यह नहीं जानते कि अपना कर्तव्य निभाते समय किन सिद्धांतों और मानकों का पालन करना है, या किस परिणाम का लक्ष्य रखना है। तुम यह भी नहीं जानते कि जीवन का लक्ष्य और दिशा क्या है। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर तुमसे नाराज क्यों है, परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन क्यों करता है, या परमेश्वर तुम्हारे प्रति उदार क्यों हैं—तुम इनमें से कुछ भी नहीं जानते। तुम नहीं जानते कि तुम्हे कहाँ खड़े होना चाहिए, और तुम यह नहीं माप सकते कि तुमने जो किया है उससे एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा कर्तव्य पूरा हुआ या नहीं, और क्या तुमने संतोषजनक ढंग से काम किया है। कभी-कभी तुम डरे-डरे से काम करते हो, और कभी-कभी तुम निर्भीक और उन्मादी होते हो। तुम्हारी स्थिति सदैव अस्थिर रहती है। किसी व्यक्ति की स्थिति अस्थिर कैसे हो जाती है? अंततः इसका संबंध सत्य की समझ न होने से है। जब लोग सत्य को नहीं समझते, तो वे बिना सिद्धांतों के चीजें संभालते हैं। जब वे काम करते हैं तो अत्यधिक अस्थिर होते हैं, और किसी-न-किसी तरीके से हमेशा अचूक ढंग से भटकते रहते हैं। जब वे कुछ नहीं कर रहे होते, तो उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं और वे धर्मसिद्धांतों की बातें बखूबी करते हैं—लेकिन जब कुछ हो जाता है और उनसे उसे सुलझाने को कहा जाता है, अपनी समझ के सभी सत्यों को वास्तविक जीवन में लागू करने को कहा जाता है, तो उनके पास कोई राह नहीं होती, उन्हें पता नहीं होता कि किस सिद्धांत का उपयोग करें, और वे अपने आप से कहते हैं, “मैं समझता हूँ कि मुझे अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना चाहिए, मुझे ईमानदार होना चाहिए, मुझे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या गलतफहमियाँ नहीं पालनी चाहिए, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए—लेकिन मैं इस काम को वास्तव में कैसे संभालूँ?” वे इस पर विचार करते रहते हैं और विनियमों को लागू करने का प्रयास करते रहते हैं, और अंत तक उन्हें पता ही नहीं चलता कि किन विनियमों को लागू करना चाहिए। क्या तुम लोग सोचते हो कि जिस व्यक्ति को उसके साथ कुछ घटित होने पर परमेश्वर के वचनों की पुस्तक में खोजना पड़ता हो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसे सत्य की समझ है? यह सत्य को वास्तव में समझना नहीं है। ऐसे लोग केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक इन सत्यों की वास्तविकता को नहीं समझा है। इससे पता चलता है कि वे लोग आम तौर पर जो कहते हैं, और जिसके बारे में समझ होने का विश्वास करते हैं, वे धर्म-सिद्धांतों के सिवाय और कुछ नहीं हैं। यदि तुम सत्य को समझते हो, यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, तो जब तुम्हारे साथ कुछ घटित हो, तो तुम जान जाओगे कि परमेश्वर के इरादे के अनुसार कैसे कार्य करना है, और सिद्धांत की सीमा के भीतर कैसे कार्य करना है। यदि तुम जो भी समझते हो वह केवल धर्मसिद्धांत है—सत्य नहीं है—तो जब वास्तव में तुम्हारे साथ कुछ घटित हो जाए, तो यदि तुम धर्मसिद्धांत के सहारे रहते हो और विनियमों का पालन करते हो, तो तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं होगा। तुम सिद्धांत नहीं खोज पाओगे और अभ्यास का मार्ग नहीं ढूँढ़ पाओगे। कहने का मतलब यह है कि, ऐसा प्रतीत हो सकता है जैसे तुम सत्य के एक पक्ष को समझते हो, जैसे तुम उन सत्य वचनों का अर्थ समझते हो, और जैसे तुम परमेश्वर के इरादों को और परमेश्वर जो कहता है उसे थोड़ा-बहुत समझते हो—जैसे कि तुम यह सब जानते हो—लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम सत्य को अभ्यास में लाने में असमर्थ होते हो, तुम आँख मूँद कर विनियमों को लागू करते हो और चीजों को गड़बड़ कर देते हो। क्या यह शर्मनाक नहीं है? जब वास्तव में सत्य को समझने वाले लोगों के साथ कुछ घटित होता है, तो वे अभ्यास के लिए सिद्धांतों को ढूँढ़ने में सक्षम होते हैं, उनके पास अभ्यास का एक मार्ग होता है, और वे सत्य सिद्धांतों को अभ्यास में ला सकते हैं। केवल वचन और धर्मसिद्धांत बोल सकने वाले लोगों की बात करें, तो ऐसा लगता है जैसे कि वे सत्य को समझते हैं, लेकिन कार्य करने का समय आने पर वे पूरे संभ्रमित हो जाते हैं। इससे साबित होता है कि जो लोग वचन और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, वे सत्य को बिल्कुल नहीं समझते। जो लोग वचन और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, वे दूसरों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं, वे धोखेबाज हैं। वे खुद को और दूसरों को, दोनों को धोखा दे रहे हैं—जिसका मतलब है कि वे खुद के साथ-साथ दूसरों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं!

तुम लोग अब जो समझते हो, वे अधिक सत्य हैं, या अधिक धर्मसिद्धांत? (अधिक धर्मसिद्धांत हैं।) इसका कारण क्या है? (यह सत्य का अनुसरण न करने का परिणाम है।) (जा कर सत्य पर विचार करने के प्रयास की कमी का परिणाम है।) इसका इन सभी चीजों से कुछ-न-कुछ संबंध है, लेकिन तुम लोगों ने जो कारण दिए हैं वे सभी व्यक्तिपरक हैं। इसका एक वस्तुनिष्ठ कारण भी है, जिसका संबंध लोगों की काबिलियत से है। कुछ लोगों ने एक दशक से भी अधिक समय से धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन वे सत्य और धर्मसिद्धांत में भेद नहीं कर सकते, न ही वे विनियमों का पालन करने और सत्य का अभ्यास करने के बीच के अंतर को समझ सकते हैं। वे धर्मोपदेशों को गंभीरता से सुनते हैं और अंतर पहचानने के लिए सावधानी से काम करते हैं, लेकिन वे अंतर बता ही नहीं पाते हैं। उन्हें लगता है कि सभी लोगों की संगतियाँ लगभग एक जैसी होती हैं, यानी, वे सभी बहुत अच्छी होती हैं, सभी काफी व्यावहारिक होती हैं। उन्हें सुनने के बाद, वे यह नहीं बता सकते कि धर्मसिद्धांत क्या है और सत्य क्या है। क्या यह काबिलियत संबंधी समस्या है? (हाँ।) क्या तुम लोगों की काबिलियत सत्य वास्तविकता के स्तर तक बढ़ सकती है? हर बार जब अगुआ और कार्यकर्ता सभाओं में संगति करते हैं या अन्य अवसरों पर तुम्हारे साथ मिल-जुल कर बातचीत करते हैं, तो क्या तुम लोग बता सकते हो कि उनकी कही हुई बातों में कितनी सत्य वास्तविकता है और कितना धर्मसिद्धांत? (हाँ।) यदि तुम बता सकते हो, तो साबित होता है कि तुम लोगों में कुछ समझ-बूझ है, और तुम भेद करने में पूरी तरह से अक्षम नहीं हो। यदि तुम अंतर बता सकते हो, तो साबित होता है कि तुम लोगों की काबिलियत खराब नहीं है। लोगों की काबिलियत को कई श्रेणियों में विभाजित किया जाता है : खराब, औसत, अच्छा और असाधारण रूप से अच्छा। मूलतः ये चार श्रेणियाँ हैं। जिनकी काबिलियत खराब से भी बदतर है, वे सत्य का बोध नहीं कर सकते; उनमें जरा भी काबिलियत नहीं है। वे जो कुछ भी सुनते हैं, उसे समझ नहीं सकते और जो कुछ भी करते हैं उसमें कहीं भी विचार, तर्क या सिद्धांत नहीं होते। उनके दिमाग में यह सब एक उलझन भरी गुत्थी जैसा होता है। वे अपने आप में उलझे हुए लोग हैं, जिन्हें हम आम बोलचाल में वहशी कह सकते हैं। यदि उनकी काबिलियत बेहद खराब है, तो वे बौद्धिक रूप से पंगु हैं। उनमें सामान्य लोगों में पाया जाने वाला विवेक नहीं होता। ये वे लोग हैं जिन्हें हम मूर्ख, अधपगला, या अधकचरा कह सकते हैं।

बेहद खराब काबिलियत वाले लोग बौद्धिक रूप से पंगु होते हैं—हमें उनके बारे में और चर्चा करने की जरूरत नहीं है। आओ इस बारे में बात करें कि खराब काबिलियत किस तरह से प्रदर्शित होती है। कुछ लोगों ने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी वे सत्य को नहीं समझते। वे सुसमाचार फैलाने का मूल कर्तव्य भी नहीं निभा सकते, वे सत्य पर संगति नहीं कर सकते, और वे गवाही भी नहीं दे सकते। ये खराब काबिलियत की अभिव्यक्तियाँ हैं। खराब काबिलियत की दूसरी अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद खराब काबिलियत वाले लोगों को लगता है कि वे सभी एक जैसे हैं—वे सभी एक ही चीज के बारे में हैं। वे विभिन्न सत्यों के विवरणों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं कर सकते, सत्य और धर्मसिद्धांत के बीच अंतर बताना तो बहुत दूर की बात है। सत्य को समझना तो दूर, वे सबसे आसान वचन और धर्मसिद्धांत भी नहीं बोल सकते। क्या ऐसे लोगों की काबिलियत सबसे खराब होती है? ऐसे लोग, चाहे जिस तरह से भी धर्मोपदेश सुनें या उन्होंने चाहे जितने वर्षों तक भी धर्मोपदेश सुने हों, वे उनका अर्थ नहीं समझ पाते, और वे यह नहीं समझते कि सत्य क्या है या खुद को जानने का अर्थ क्या है। भले ही उन्होंने जितने भी समय तक परमेश्वर में विश्वास रखा हो या उन्होंने जितने भी धर्मोपदेश सुने हों, अंतिम बात यह है कि वे अभी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते। वे केवल कुछ विनियमों का पालन कर सकते हैं और उन कुछ चीजों को याद रख सकते हैं जिन्हें वे महत्वपूर्ण मानते हैं—उससे कुछ भी ज्यादा हो तो वे याद नहीं रख सकते। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनकी काबिलियत खराब है, वे सत्य तक नहीं पहुँच पाते, और बहुत ज्यादा चीजें नहीं समझ पाते हैं। अधिक-से-अधिक, वे कुछ सतही धर्मसिद्धांत समझ सकते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा वे यहाँ तक पहुँच सकते हैं। ऐसे लोग अक्सर काफी अहंकारी होते हैं और शेखी बघारते हैं। कुछ लोग कहेंगे, “मैं जब अपनी माँ के गर्भ में था तभी से मैंने प्रभु में विश्वास रखा था। मैं तो बहुत पहले ही पवित्र हो गया था, और बहुत पहले ही मेरा बपतिस्मा और शुद्धिकरण हो चुका है।” उनमें से कुछ लोग तीन, पाँच, या दस वर्ष पहले परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार चुके हैं, फिर भी वे अब तक वही बात दोहराते हैं। क्या यह खराब काबिलियत का संकेत नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि मैं खुद को नहीं जानता—तुम्हीं लोग खुद को नहीं जानते। मैं तो बहुत पहले ही पवित्र हो गया था।” जो लोग ऐसा कहते हैं उनमें आध्यात्मिक समझ की सबसे अधिक कमी है, वे सबसे खराब काबिलियत वाले हैं। क्या तुम अब भी ऐसे लोगों के साथ सत्य पर संगति कर सकते हो? नहीं कर सकते। तुम चाहे जितनी बात करो, वे नहीं समझेंगे कि सत्य क्या है, सत्य का अभ्यास करना क्या होता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण क्या होता है, जीवन प्रवेश क्या है, और किसी का स्वभाव बदलना क्या होता है। वे इन चीजों को समझ नहीं सकते या इस स्तर तक नहीं पहुँच सकते। परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में, वे कुछ विनियमों का पालन करने पर ध्यान देते हैं, जैसे सांसारिक मामलों से अलग हो जाना, दुनिया से मुँह मोड़ लेना, दानवों के साथ कोई संबंध न रखना, बुरे काम न करना, कम पाप करना, परमेश्वर के नाम पर दृढ़ता से टिके रहना, परमेश्वर को धोखा न देना, और सभी चीजों के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और उस पर भरोसा करना—उनके लिए बस यही सब महत्वपूर्ण है। मूलतः वे धार्मिक विश्वास की औपचारिकताओं तक ही सीमित रहते हैं। परमेश्वर के इतने सारे वचनों और सत्य के बारे में धर्मोपदेशों को सुनने के बाद, वे जो सुनते हैं उसे समझ नहीं पाते। वे जितना अधिक सुनते हैं, उतना अधिक उलझा हुआ महसूस करते हैं, इसलिए वे इस ओर से कान बंद कर लेते हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि कार्य के इस चरण में परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है, तो वे कुछ नहीं बता सकते। वे केवल धर्मसिद्धांतों के बारे में कुछ सरल बातें ही कह सकते हैं। इसका मतलब यह है कि उनकी काबिलियत बेहद खराब है और वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ सकते।

औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उनमें परमेश्वर के वचनों को समझने की योग्यता नहीं होती। धर्मोपदेश सुनने के बाद, वे केवल कुछ वचनों और धर्मसिद्धांतों को समझते हैं, लेकिन वे उनमें किसी नए प्रकाश की खोज नहीं कर पाते। जब कोई चीज उन पर आ पड़ती है, तब भी वे उसे संभाल नहीं पाते, और न ही सत्य का अभ्यास कर पाते हैं। वे बिना रुके केवल कुछ खोखले धर्मसिद्धांत बोल सकते हैं और विनियमों का पालन कर सकते हैं। धर्मोपदेश सुनते समय लगता है कि वे समझ रहे हैं, लेकिन उन पर कोई कठिनाई आ पड़ने पर भी वे विनियमों का पालन करेंगे और अपनी ही इच्छा के अनुसार कार्य करेंगे। और, वे हमेशा वचन और धर्मसिद्धांत बलबलाते हुए उलाहना दे कर दूसरों में खोट निकालते रहते हैं। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, वे अनेक धर्मसिद्धांत समझते हैं, और दूसरों के साथ संगति करते समय वे अपने ज्ञान के बारे में कुछ ज्यादा बात कर सकते हैं। वे अपना तात्पर्य पूर्ण और ठोस तरीके से व्यक्त कर सकते हैं और लोगों के साथ सामान्य बातचीत कर सकते हैं। परंतु, वे अब भी नहीं समझते कि सत्य क्या है या वास्तविकता क्या है। वे सोचते हैं कि जिन धर्मसिद्धांतों के बारे में वे बात करते हैं वे सत्य वास्तविकता हैं, और सत्य वास्तविकता से संबंधित अनुभवों, समझ या अभ्यास के मार्गों के बारे में दूसरे लोग जो कुछ बताते हैं उसे वे समझ नहीं पाते। औसत काबिलियत के इन लोगों को लगता है कि सत्य और धर्मसिद्धांत के बीच कोई अंतर नहीं होता। वे चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुनें, उन सत्यों को नहीं समझ पाते जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए और बचाए जाने के लिए जो सत्य उनके पास होने चाहिए। वे स्वयं को समझना भी नहीं जानते, और यह भी नहीं जानते कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए उन्हें किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए। अपने वास्तविक जीवन में, वे केवल विनियमों और धार्मिक अनुष्ठानों का पालन कर सकते हैं, सभाओं में लगातार भागीदारी कर सकते हैं, लगातार दूसरों को धर्मसिद्धांतों का उपदेश दे सकते हैं, और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए लगातार कुछ प्रयास कर सकते हैं। परंतु, जिन सत्यों से स्वभाव में परिवर्तन, अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान, या जीवन प्रवेश जुड़े हों, वे उनमें प्रवेश नहीं करते या गहराई में नहीं उतरते। औसत काबिलियत रखने का यही मतलब है। औसत काबिलियत के लोग केवल इसी स्तर तक पहुँच सकते हैं। ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने 20 या 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और अभी भी केवल धर्मसिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। क्या तुम लोग कभी ऐसे लोगों के संपर्क में आए हो जिन्होंने एक दशक से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी उनके मुँह से केवल धर्मसिद्धांत ही निकलते हैं? (हाँ।) इस तरह के लोग औसत काबिलियत वाले होते हैं।

अच्छी काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं? भले ही उन्होंने जितने भी समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, धर्मोपदेश सुनने के बाद वे यह बताने में सक्षम होंगे कि यह बाइबल में कही गई बातों से अलग है और यह धर्म में सिखाई जाने वाली बातों से भी बिल्कुल अलग है। वे बता सकते हैं कि यह अधिक गहराई तक पहुँचने वाली बात है, अधिक विस्तृत है, और बिल्कुल व्यावहारिक है। इसलिए, परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने के बाद वे सत्य का अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू करते हैं। अपने वास्तविक जीवन में, वे स्वयं को इस बारे में प्रशिक्षित करते हैं कि परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कैसे करें। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “तुम लोगों को ईमानदार होना चाहिए।” शुरुआत में ये लोग इसे केवल विनियम के रूप में देखते हैं और जो भी उनके मन में आता है, बोल देते हैं। धीरे-धीरे, धर्मोपदेश सुनने की प्रक्रिया में और अपने वास्तविक अनुभव में, वे सीखी गई बातों को लगातार सारांशित करते हैं और अंत में वे इस बात का अनुभव कर समझ लेते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य वास्तव में क्या है और जीवन वास्तव में क्या है। उनमें परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों और धर्मोपदेशों को सुनने से समझ में आए सत्यों को अपने वास्तविक जीवन में लागू करने और उन्हें अपनी वास्तविकता बना लेने की काबिलियत होती है। वास्तविक अनुभव के साथ, उनका जीवन अनुभव धीरे-धीरे गहराता जाता है। ये लोग जब धर्मोपदेश सुनते हैं या परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उनमें निहित सत्य को समझ सकते हैं। यहाँ सत्य का क्या अर्थ है? यह कोई खोखला धर्मसिद्धांत नहीं है, कोई मुहावरा नहीं है, और किसी विशेष चीज के बारे में कोई सिद्धांत भी नहीं है। बल्कि, इसका संबंध वास्तविक जीवन में आने वाली कठिनाइयों और किसी के द्वारा प्रकट की गई विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं से है। अच्छी काबिलियत वाले लोग इन अवस्थाओं की पहचान कर सकते हैं और उनकी तुलना परमेश्वर के कहे वचनों और उजागर की गई बातों से कर सकते हैं। ऐसा होने पर उन्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कैसे करना है। अच्छी काबिलियत का यही मतलब है। अच्छी काबिलियत मुख्य रूप से कहाँ परिलक्षित होती है? धर्मोपदेशों में जो कहा जा रहा है उसे समझने की योग्यता, उन वचनों और अपनी वास्तविक अवस्था के बीच के संबंध को समझ पाना, यह समझ पाना कि उन वचनों का स्वयं पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और उन वचनों को स्वयं से जोड़ पाना—यह अच्छी काबिलियत है। इन वचनों को समझ पाने और इन वचनों को खुद से जोड़ने में सक्षम होने के अलावा, अच्छी काबिलियत वाले लोग वास्तविक जीवन में अभ्यास के सिद्धांतों को भी समझ सकते हैं और इन सिद्धांतों को अपने वास्तविक जीवन में आने वाली हर कठिनाई या स्थिति पर लागू कर सकते हैं। अंतर्दृष्टि रखने का यही अर्थ है। जिनके पास ऐसी अंतर्दृष्टि होती है, केवल वे ही सचमुच अच्छी काबिलियत वाले लोग होते हैं।

जब औसत काबिलियत वाले लोग अपना थोड़ा-बहुत भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, तो वे अपनी स्थिति या समस्या के सार को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते हैं। वे केवल उन धर्मसिद्धांतों के साथ तुलना करके उनका मूल्यांकन करते हैं जिन्हें वे समझते हैं। वे समस्या के सार को नहीं देख पाते या इस सार के मूल और उस पहलू को नहीं पहचान पाते जिससे सत्य जुड़ा होता है। काट-छाँट के बाद, जब वे किसी स्थिति का सामना कर रहे होते हैं, तो उसका सूक्ष्म परीक्षण और विश्लेषण करने के बाद वे स्थिति की गहरी छाप और कुछ समझ हासिल करते हैं। परंतु, किसी भिन्न स्थिति या परिस्थिति का सामना करने पर वे एक बार फिर उसे नहीं समझेंगे, नहीं जान पाएँगे कि क्या करें, और उन सिद्धांतों को नहीं ढूँढ पाएँगे जिनका पालन करना है। औसत काबिलियत होने का यही मतलब है। अच्छी काबिलियत वाले लोगों की बात करें, तो हम यह क्यों कहते हैं कि उनकी काबिलियत अच्छी है? किसी स्थिति का सामना करते हुए संभव है कि अच्छी काबिलियत वाले लोगों के पास भी तुरंत अभ्यास का कोई मार्ग न हो, लेकिन वे धर्मोपदेश सुनकर या परमेश्वर के वचनों को खोज कर मार्ग पा सकते हैं। फिर, वे जान जाएँगे कि स्थिति से कैसे पेश आना है। अगली बार ऐसी ही स्थिति का सामना होने पर क्या वे जान पाएँगे कि क्या करना चाहिए? (हाँ।) ऐसा क्यों है? (वे केवल विनियमों का पालन नहीं करते। वे मार्ग खोजने के लिए किसी स्थिति पर विचार कर सकते हैं, और फिर उन्होंने जो सीखा हो उसे समान स्थितियों में लागू कर सकते हैं।) ठीक, उन्होंने सिद्धांत पा लिया है और वे सत्य के इस पहलू को समझते हैं। एक बार जब वे सत्य को समझ लेते हैं, तो सत्य का यह पक्ष लोगों की जिन स्थितियों, प्रकटनों और भ्रष्ट स्वभावों को संदर्भित करता है उन्हें जान जाते हैं, साथ ही वे अपने जीवन में आने वाली परिस्थितियों और मामलों वगैरह जैसी इससे जुड़ी बातों को भी जान लेते हैं। इस तरह के काम करने के सिद्धांतों के बारे में वे स्पष्ट होते हैं, और भविष्य में जब वे इसी तरह की चीज़ों का सामना करते हैं, तो वे जानते हैं कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। सत्य को सही मायने में समझना यही होता है। इसलिए, क्योंकि कुछ लोग सत्य को समझ सकते हैं, क्योंकि उनमें सत्य को समझने की काबिलियत होती है, वे टीम के अगुआ या कलीसिया के अगुआ बनने में सक्षम होते हैं। बहरहाल, कुछ अन्य लोग केवल सिद्धांत के स्तर पर ही समझ सकते हैं, इसलिए वे टीम के अगुआ नहीं बन सकते, क्योंकि वे सिद्धांतों को ग्रहण करने या निगरानी की जिम्मेदारी लेने में असमर्थ होते हैं। तुम्हें टीम के अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए कहने का अर्थ है तुमसे नेतृत्व ग्रहण करने और निरीक्षण की जिम्मेदारी संभालने के लिए कहना। निरीक्षण संभालने के लिए तुम्हें किस चीज का उपयोग करना चाहिए? सिद्धांतों, नारों, जानकारी या धारणाओं का नहीं। इसका अर्थ है तुमसे यह कहना कि निरीक्षण का कार्य सँभालने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करो। परमेश्वर के घर में कुछ भी करने का यह सबसे बुनियादी और सर्वोच्च सिद्धांत होता है। यदि तुम्हारी क्षमता औसत या खराब है, और तुम सत्य को नहीं समझ पाते हो, तो तुम निगरानी का काम कैसे कर सकोगे? तुम इस जिम्मेदारी को कैसे निभा सकोगे? तुम इस काम के, इस कर्तव्य के लायक नहीं हो। कुछ लोगों को टीम के अगुआ के रूप में चुन लिया जाता है, लेकिन वे सत्य को नहीं समझते और कुछ भी कतई हासिल नहीं कर सकते। वे टीम अगुआ कहे जाने लायक नहीं होते और उन्हें बदल दिया जाना चाहिए। कुछ लोगों को टीम अगुआ इसलिए चुना जाता है कि वे सत्य सिद्धांतों को थोड़ा-बहुत समझते हैं, वे काम का प्रभार ले सकते हैं और कुछ व्यावहारिक समस्याएँ हल कर सकते हैं। यही वह चीज होती है जो किसी को किसी काम के योग्य और टीम अगुआ बनने के लिए उपयुक्त बनाती है। कुछ लोग काम की जिम्मेदारी अपने कंधों पर नहीं उठा सकते या अपने कर्तव्य का ठीक ढंग से निर्वाह नहीं कर सकते। इसका मुख्य कारण क्या है? ऐसे लोगों में कुछ लोग ऐसा इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि वे हीन मानवता के होते हैं। लेकिन, अधिकतर लोगों के मामले में इसका कारण उनकी कम काबिलियत है। यही वह कारण है जिससे वे अपने काम करने के योग्य नहीं होते या कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह करने योग्य नहीं होते। बात चाहे सत्य की गहरी समझ की हो या किसी पेशे को सीखने की या किसी विशिष्ट कौशल की, अच्छी काबिलियत वाले लोग उनके भीतर के सिद्धांतों को समझने में, चीज़ों की जड़ तक पहुँचने में, और उनकी वास्तविकता और सार की पहचान करने में सक्षम होते हैं। इस तरह से वे जो कुछ भी करते हैं, जिस भी काम में वे लगे होते हैं, उसमें सही निर्णय लेते हैं, और सही मानकों और सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं। अच्छी काबिलियत यही होती है। अच्छी काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों की निगरानी करने में सक्षम होते हैं। साधारण या खराब काबिलियत वाले लोग ऐसे काम करने में असमर्थ होते हैं। यह किसी भी तरह से परमेश्वर के घर के द्वारा कुछ लोगों का पक्ष लेना या कुछ लोगों को नीची निगाह से देखना या भेदभाव करना नहीं है—बात केवल इतनी है कि बहुत से लोग अपनी काबिलियत के कारण निगरानी का काम नहीं सँभाल सकते। और, वे निगरानी का काम क्यों नहीं सँभाल सकते? इसका मूल कारण क्या है? वह यह है कि वे सत्य को नहीं समझते। और, वे सत्य को क्यों नहीं समझते? ऐसा इसलिए कि उनकी काबिलियत औसत या बहुत खराब होती है। यही कारण है कि सत्य उनकी पहुँच से बाहर होता है और वे सुनने पर भी सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। कुछ लोग सत्य को समझने में इसलिए असमर्थ होते हैं कि वे ध्यान से नहीं सुनते हैं, या हो सकता है कि वे अभी युवा हों और अभी तक परमेश्वर में आस्था के बारे में उनकी कोई संकल्पना नहीं है, और इसमें उनकी कोई बहुत रुचि नहीं होती। परंतु ये मुख्य कारण नहीं होते। मुख्य कारण होता है कि उनकी काबिलियत अपर्याप्त होती है। निम्न श्रेणी की काबिलियत वाले लोगों का चाहे जो कर्तव्य हो, या चाहे जितने लंबे समय से कोई काम कर रहे हों, उन्होंने चाहे जितने धर्मोपदेश सुने हों या तुम उनके साथ सत्य पर कैसी भी संगति करो, उनकी बुद्धि में कोई बात घुसती नहीं। वे अपने कर्तव्य निर्वाह की गाड़ी किसी तरह खींचते रहते हैं, चीजों को पूरी तरह उलट-पुलट कर देते हैं, और कुछ भी हासिल नहीं कर पाते। कुछ लोग जो टीम अगुआ के रूप में सेवा करते हैं और कुछ कामों की निगरानी का जिम्मा सँभालते हैं, पहली बार काम की जिम्मेदारी लेने पर सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं। कई असफलताओं के बाद, वे खोजने तथा प्रश्न पूछने के माध्यम से सत्य को समझ लेते हैं और उन्हें सिद्धांतों का बोध हो जाता है। फिर, इन सिद्धांतों के आधार पर वे निगरानी का काम सँभाल सकते हैं और अपने कंधों पर काम की जिम्मेदारी उठा सकते हैं। काबिलियत होने का यही मतलब है। अन्य लोगों के मामले में, तुम उन्हें सभी सिद्धांत बता दो और उन्हें लागू करने के तरीकों की भी विस्तार से जानकारी दे दो, और उस समय ऐसा प्रतीत होगा कि वे तुम्हारी बात को समझ रहे हैं, लेकिन फिर भी काम करते समय उन्हें सिद्धांतों का बोध नहीं होता। इसके बजाय, वे अपने ही विचारों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, और इन्हें ही सही भी मानते हैं। किंतु, वे स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते और वास्तव में नहीं जानते कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहे हैं या नहीं। अगर ऊपर वाले उनसे सवाल पूछें, तो वे घबरा जाते हैं और नहीं जानते कि क्या कहें। वे केवल तभी आश्वस्त महसूस करते हैं जब ऊपर वाले निगरानी का काम सँभालें और मार्गदर्शन प्रदान करें। इससे पता चलता है कि उनकी काबिलियत बहुत खराब है। ऐसी खराब काबिलियत के साथ अपने कर्तव्यों को संतोषजनक तरीके से पूरा करना तो दूर, वे न तो परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं, न ही सत्य सिद्धांतों पर खरे उतर सकते हैं।

अभी क्षण भर पहले मैंने बताया था कि अच्छी काबिलियत से ऊपर एक और स्तर है, जिसे बहुत अच्छी काबिलियत कहते हैं। जब बहुत अच्छी काबिलियत वाले लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, तो वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अनुभवात्मक स्तर पर धीरे-धीरे उससे गुजरते हैं, महसूस करते हैं और उन चीजों को समझते हैं जिन्हें परमेश्वर के वचनों में वर्णित विभिन्न अवस्थाएँ संदर्भित करती हैं। बहुत कम साधन या सहायता पाने पर भी वे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग खोज सकते हैं, परमेश्वर के वचनों द्वारा बताए गए सिद्धांतों, निर्देशों और मानकों के अनुसार अपने लिए अपेक्षाएं निर्धारित कर सकते हैं, और भटकावों तथा विकृतियों से बच सकते हैं। वे सत्य को समझ सकते हैं और खुद परमेश्वर के वचनों को खा-पी कर स्वयं को और परमेश्वर को जान सकते हैं। यह सर्वोच्च काबिलियत है, और ऐसे लोगों के पास गहरी अंतर्दृष्टि होती है। मुझे बताओ कि क्या मनुष्यों में भी ऐसे लोग हैं? हो सकता है कि तुम लोगों को आज के मनुष्यों में ऐसे लोग न मिलें, लेकिन क्या तुम लोग बाइबल में ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में सोच सकते हो? (हाँ, अय्यूब और पतरस।) अय्यूब और पतरस दोनों इसी श्रेणी के हैं। वे सर्वोच्च काबिलियत वाले मनुष्यों में से हैं। उनकी मानवता, चरित्र और परमेश्वर में आस्था को एक तरफ छोड़ दें, तो काबिलियत के मामले में वे उच्चतम क्षमता वाले दो लोग हैं। ऐसा कहने का क्या आधार है? (अय्यूब ने कभी परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ा, फिर भी वह परमेश्वर को जान गया, परमेश्वर का भय मानता रहा और बुराई से दूर रहा।) परमेश्वर ने तो कभी अय्यूब से बात नहीं की, फिर उसका अनुभव और ज्ञान कहाँ से आया? अय्यूब ने अपने जीवन में निरीक्षण किए और खोजें कीं, फिर उनका सावधानी से आस्वादन किया, जिससे उसके हृदय में कुछ निश्चित छवियाँ बनीं, और उसे कुछ प्रबोधन और रोशनी मिली। उसने थोड़ा-थोड़ा करके सत्य को पूरी तरह से समझा, और उसे पूरी तरह से समझने के बाद उसने सत्य के बारे में अपनी गहरी समझ और समझ के अनुसार अभ्यास करते हुए धीरे-धीरे परमेश्वर का भय माना और बुराई से दूर रहने लगा। “परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना” वह बात है जिसका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। यह वह उच्चतम मार्ग है जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। बाद की पीढ़ियों की दृष्टि में, लगता है कि अय्यूब इस उक्ति को बहुत आसानी से अभ्यास में ला सका। तुम सोचते हो कि यह सरल और आसान था क्योंकि तुम इन वचनों के व्यावहारिक पक्ष को नहीं जानते या तुमने इसका अनुभव नहीं किया है। अय्यूब इस उक्ति तक कैसे पहुँचा? उसने इसे अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त किया। लोगों की नजर में, “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” वचन को एक सूत्रवाक्य बनना चाहिए; उन्हें इसका एक सत्य सिद्धांत के रूप में पालन और अभ्यास करना चाहिए—यह सही है। लेकिन अय्यूब ने इस बात पर ध्यान केंद्रित नहीं किया कि इसे कैसे कहा जाए; उसने केवल इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि यह काम कैसे किया जाए। तो वह उस सिद्धांत तक कैसे पहुंचा जिसे उसने क्रियान्वित किया? (अपने रोजमर्रा के जीवन के अनुभव के माध्यम से।) वह अपने कार्यों में इस सिद्धांत का पालन कैसे कर सका? (जीवन के अपने अनुभवों के माध्यम से उसे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त हुआ।) उसने अपने सामान्य जीवन में परमेश्वर के कृत्यों और परमेश्वर द्वारा लोगों पर किए गए कार्यों को देखा। इन अनुभवों के माध्यम से उसमें परमेश्वर का भय, परमेश्वर में सच्ची आस्था, सच्चा प्रशंसा भाव और सच्चा समर्पण एवं विश्वास विकसित हुए। इसी प्रकार से उसमें परमेश्वर के प्रति भय उत्पन्न हुआ। वह परमेश्वर का भय मानने के ज्ञान के साथ पैदा नहीं हुआ था। परमेश्वर में विश्वास रखने और कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बाद उसके अभ्यासों और व्यवहार का सारांश परमेश्वर का भय है। हम कह सकते हैं कि यह उसके व्यवहार, ज्ञान और कार्य के सिद्धांतों का सार था। उसके आचरण, उसके प्रकटनों, और परमेश्वर के सामने किए हुए उसके व्यवहार, साथ ही उसके मन की गहराई में बैठे इरादों और कार्य के सिद्धांतों आदि सभी अभिव्यक्तियों का सार यह था कि वह परमेश्वर का भय मानता था। परमेश्वर ने उसे इसी तरह से परिभाषित किया। अय्यूब ये चीजें कर सका, लेकिन इसलिए नहीं कि परमेश्वर ने उससे बहुत सारे वचन कहे थे या उसे बहुत सारे सत्य बताए थे, जिसके बाद उसने धीरे-धीरे अपनी ही गहरी समझ के माध्यम से परमेश्वर का भय हासिल किया। उस युग में परमेश्वर ने उससे कोई स्पष्ट वचन नहीं कहे थे। अय्यूब ज्यादा-से-ज्यादा परमेश्वर के दूतों को ही देख सकता था; और वह अधिक-से-अधिक जो सुन सकता था वे सब परमेश्वर के बारे में उसके पूर्वजों के समय से चली आ रही किंवदंतियाँ या कहानियाँ थीं। वह बस इतना ही जान सका था। परंतु, केवल इसी जानकारी पर भरोसा करके, अय्यूब ने धीरे-धीरे अपना जीवन जीने से ज्यादा चीजें और ज्यादा व्यावहारिक चीजें सीखीं। धीरे-धीरे, परमेश्वर में उसकी आस्था और भी दृढ़ होती गई और उसमें परमेश्वर के प्रति सच्चा भय भी उत्पन्न हो गया। उसमें इन दो चीजों के उत्पन्न होने के बाद अय्यूब का असली आध्यात्मिक कद और उसकी असली काबिलियत स्पष्ट हो गई। अय्यूब के उदाहरण से हम क्या देख सकते हैं? हम देख सकते हैं कि कई सत्य हैं—परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर को जानने, मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानवजाति के उद्धार से संबंधित सत्य—जिन्हें सामान्य मानवीय सोच और काबिलियत वाले लोग वास्तव में अपने रोजमर्रा के जीवन में थोड़ा-थोड़ा कर गहराई से समझ सकते हैं। अय्यूब इस बात का उदाहरण है। वह कुछ व्यावहारिक बातों को गहराई से समझने में सक्षम था। उसने गहराई से क्या समझा? उसका सर्वोच्च सूत्रवाक्य ही उसकी सर्वोच्च समझ भी थी—जिसकी पुष्टि तब हुई जब उसने परीक्षणों का अनुभव किया। यह सूत्रवाक्य, यह उच्चतम समझ क्या है? (“यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)।) इस संदर्भ में, क्या वर्तमान मानवजाति में अय्यूब के समान सच्ची समझ वाला कोई है? क्या कोई है जो अय्यूब जैसी समझ हासिल कर सकता है? (नहीं।) लोग अब जो समझते हैं वह केवल एक धर्मसिद्धांत है। ये वचन अय्यूब के अनुभव से निकले थे। बाद की पीढ़ियाँ इन वचनों का उच्चारण कर सकती हैं, लेकिन उनके दिलों में इसकी समझ नहीं है। अय्यूब के पास भी पहले यह समझ नहीं थी, लेकिन ये उसके ही वचन थे जो उसके प्रत्यक्ष अनुभव से उत्पन्न हुए थे। अय्यूब के पास यह वास्तविकता थी। बाद की पीढ़ियों ने अय्यूब की बात को चाहे जितना रट कर बोला हो, उसकी नकल की हो, वे केवल एक धर्मसिद्धांत को समझती हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूं कि यह केवल एक धर्मसिद्धांत है? सबसे पहले इसलिए कि लोग इसे अभ्यास में नहीं ला सकते। दूसरे, लोगों के पास वे अनुभव ही नहीं हैं जो अय्यूब के पास थे, और लोगों के पास इन अनुभवों से प्राप्त ज्ञान नहीं है, इसलिए उनका ज्ञान खोखला है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुम इसे कितनी बार बोलते हो या कितनी ऊँची आवाज में चिल्लाते हो—“यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है। मैं स्वेच्छा से परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करता हूँ”—जब तुम्हारे जीवन में मुश्किलें आती हैं, तो क्या तुम अपने हृदय से स्वीकार सकते हो कि यह परमेश्वर का कार्य है? यदि परमेश्वर वंचित कर नष्ट कर देता है, तब भी क्या तुम अपने हृदय में परमेश्वर के नाम को धन्य कह सकोगे? यह तुम्हारे लिए कठिन है। ऐसा करना तुम्हारे लिए इतना कठिन क्यों है? इसलिए कि तुम ऐसा करने के पीछे परमेश्वर के मूल इरादे को नहीं जानते, और उसकी संप्रभुता को भी नहीं पहचानते। ये दो बातें तुम नहीं समझ सकते। तुम परमेश्वर के इरादों का ठीक अनुमान नहीं लगा सकते, न ही समझ सकते हो कि वह स्थिति क्या है जो किसी सृजित प्राणी को धारण करनी चाहिए, वह समर्पण क्या है जो किसी सृजित प्राणी में होना चाहिए, या वे कार्य क्या हैं जो किसी सृजित प्राणी को करने चाहिए। तुम इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते। ऐसे में, जब तुम अय्यूब के वचनों का पाठ करते हो, तो वे अगोचर रूप से खोखले हो जाते हैं, सजावटी और बनावटी बातों से अधिक कुछ नहीं रह जाते। यही कारण है कि यद्यपि तुमने और अय्यूब ने, दोनों ने, एक ही वचन बोले थे, पर अय्यूब के दिल में इन शब्दों की समझ और गहरी समझ तुमसे अलग थी, और उसने ये वचन तुमसे अलग भावनात्मक संदर्भ में बोले थे। ये दो बिल्कुल अलग मनोदशाएँ हैं। अय्यूब ने ये वचन साधारण तरीके से नहीं कहे थे। बल्कि, जब परमेश्वर ने उसे सभी चीजों से वंचित कर दिया, तो उसने जमीन पर दंडवत हो कर परमेश्वर के कार्यों की प्रशंसा की। परंतु, तुम अक्सर इन वचनों का प्रचार करते हो, लेकिन परमेश्वर द्वारा तुम्हें वंचित किए जाने की स्थिति में तुम कैसा व्यवहार करोगे? क्या तुम घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना कर पाओगे? तुम समर्पण नहीं कर पाओगे। भले ही बाहर से तुम कहो कि “मुझे समर्पण करना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा किया गया था और हम मनुष्यों में कोई काबिलियत नहीं है और हम प्रतिरोध नहीं कर सकते, इसलिए मैं चीजों को जैसे होना है, वैसे होने दूँगा,” क्या यह सच्चा समर्पण है? तुम्हारी नकारात्मक, विद्रोही और प्रतिरोधी भावनाओं की प्रकृति को एक तरफ कर दें, तो क्या तुम्हारे और अय्यूब के रवैए में कोई अंतर है? (हाँ, है।) बहुत बड़ा अंतर है। सत्य वास्तविकता के होने और न होने के बीच यही अंतर है। यह उन चीजों के बीच का स्पष्ट अंतर है जो किसी ने अनुभव किए हों और गहराई से समझ कर अपने जीवन का स्वाभाविक प्रकटन बना लिए हों, और जो वास्तविकता प्राप्त हुए बिना केवल धर्मसिद्धांतों की समझ वाली हों। किसी चीज का सामना न होने पर लोग अय्यूब के वचनों का उपदेश देंगे, लेकिन उनके साथ कुछ घटित होने पर बहुत-से लोग अय्यूब के वचन नहीं बोल पाते। इससे पता चलता है कि वे केवल धर्मसिद्धांतों को समझते हैं। ये वचन उनका जीवन नहीं बने हैं और जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो ये वचन उनके विचारों और रवैयों का मार्गदर्शन नहीं करते हैं। परंतु, जिन लोगों ने इन वचनों को अपना जीवन बना लिया है जब उनके सामने कोई मुश्किल आती है, तो साफ देखा जा सकता है कि ये वचन केवल ऐसे सूत्रवाक्य नहीं हैं जिनका वे रोजमर्रा की जिंदगी में उपदेश देते हैं, बल्कि लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनका सच्चा रवैया भी यही है। इससे भी अधिक, यह परमेश्वर के प्रति उनका सच्चा रवैया है। ये वचन उनके जीवन का मूर्त रूप हैं, न कि केवल कोई नारा जो वे चिल्ला कर लगाते हैं। इससे सत्य को समझने और न समझने के बीच का अंतर रेखांकित होता है।

आओ, अब पतरस पर विचार करते हैं। हम यह क्यों कहते हैं कि पतरस अच्छी काबिलियत वाला है? ऐसा इसलिए है क्योंकि पतरस प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त सत्य को गहराई से समझ सकता था और प्रभु यीशु के वचनों को समझ सकता था। पतरस जिस युग में था, वह अनुग्रह का युग था। अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा सिखाया गया छुटकारे का मार्ग व्यवस्था के युग के मार्ग से ऊँचा था। इससे मनुष्य के जीवन प्रवेश के बारे में कुछ बुनियादी सत्य और मानव स्वभाव में बदलाव से संबंधित कुछ प्रारंभिक सत्य जुड़े थे। उदाहरण के लिए, इसमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के प्रति समर्पण करना और साथ-ही-साथ जब लोग अपने कुछ भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करें तो उन्हें कैसी प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए आदि शामिल हैं। हालाँकि इन विषयों पर व्यापक और क्रमबद्ध ढंग से चर्चा नहीं की गई थी, फिर भी इनका उल्लेख किया गया था। बेशक, अय्यूब के समय की तुलना में उन पर बहुत अधिक चर्चा हुई थी, लेकिन वह आज की तुलना में काफी कम थी। यद्यपि बाइबल में सत्य के ऐसे पहलुओं के बारे में कोई वचन दर्ज नहीं हैं जैसे कि मनुष्य के स्वभाव में बदलाव, परमेश्वर के प्रति मनुष्यों का रवैया, लोगों के दिलों में गहरे पैठे भ्रष्टाचार का सार, या किसी के भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटन आदि, फिर भी प्रभु यीशु ने निश्चित रूप से इन चीजों के बारे में कुछ हद तक बात की थी। बात सिर्फ इतनी है कि लोग इस स्तर तक नहीं पहुंच सके थे, और इसलिए ये वचन दर्ज नहीं किए गए। उदाहरण के लिए, प्रभु यीशु ने पतरस से यह कहा था : “मैं तुझ से सच कहता हूँ कि आज ही रात को मुर्ग़ के बाँग देने से पहले, तू तीन बार मुझ से मुकर जाएगा” (मत्ती 26:34)। इस पर, पतरस ने उत्तर दिया : “यदि मुझे तेरे साथ मरना भी पड़े, तौभी मैं तुझसे कभी न मुकरूँगा” (मत्ती 26:35)। ये किस प्रकार के वचन हैं? (ये अहंकारपूर्ण वचन हैं जो आत्म-ज्ञान के अभाव का संकेत देते हैं।) वे किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा बोले गए अहंकारी वचन हैं जो स्वयं को नहीं जानता। तो इसका संबंध स्वयं को जानने से है। मुर्गे के बाँग देने के बाद पतरस को क्या एहसास हुआ? (कि उसने अपने बारे में शेखी बघारी थी।) जब उसे यह एहसास हुआ, तो क्या उसे अपने दिल में कुछ महसूस हुआ था? (हाँ।) ऐसा होने के बाद, उसकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी? (ग्लानि, उसका हृदय अपराध-बोध से भरा हुआ था।) उसकी पहली प्रतिक्रिया अपराध-बोध और पश्चात्ताप थी। उसने कहा, “प्रभु ने जो कहा वह सत्य था। प्रभु से प्रेम करने के बारे में मैंने जो कहा वह केवल एक इच्छा, एक आदर्श और एक तरह का नारा था। मेरे पास ऐसा आध्यात्मिक कद नहीं है।” प्रभु यीशु की गिरफ्तारी की परिस्थिति का सामना करते हुए पतरस का व्यवहार कायरतापूर्ण और भयग्रस्त था। किसी ने उससे पूछा, “क्या वह तुम्हारा प्रभु है? तुम उसे नहीं जानते?” और, तब पतरस अपने मन में क्या सोच रहा था? “हाँ, मैं उसे जानता हूं, लेकिन अगर मैंने यह बात स्वीकारी, तो वे मुझे भी गिरफ्तार कर लेंगे।” अपनी कायरता और कष्ट झेलने के डर से, और क्योंकि वह प्रभु यीशु के साथ गिरफ्तार होने से भयभीत था, उसने प्रभु यीशु को जानने की बात स्वीकार नहीं की। उसकी कायरता उसकी आस्था पर भारी पड़ी। तो फिर, उसकी आस्था सच्ची थी या झूठी? (झूठी।) इसी समय उसे एहसास हुआ कि जब उसने पहले कहा था “हे प्रभु, मैं तेरे साथ बन्दीगृह जाने, वरन् मरने को भी तैयार हूँ,” ये वचन खयाली पुलाव पकाना भर थे। वे वचन उसकी वास्तविक आस्था नहीं थे, बल्कि केवल खोखले शब्द, एक नारा और सिद्धांत भर थे। उसके पास कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं था। उसे कब एहसास हुआ कि उसके पास कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है? (जब तथ्यों का खुलासा हुआ।) जब उसके सामने तथ्य रखे गए और जब उसने ग्लानि और पश्चात्ताप महसूस किया, तभी उसे एहसास हुआ, “यह अब पता चला है कि प्रभु के कहने के अनुरूप ही मेरी आस्था और आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। प्रभु ने जो कहा वह सही था। मैंने जो कुछ भी प्रभु से कहा था, वह केवल शेखी थी। वह सच्ची आस्था नहीं थी, बल्कि एक क्षणिक आवेग था। किसी चीज का सामना होने पर मैं कायर था, कष्ट सहने को तैयार नहीं था, अपने स्वार्थी विचारों से ग्रस्त था, मैंने अपनी पसंद का विकल्प चुना, समर्पण नहीं किया, और मेरा हृदय ऐसा नहीं था जो वास्तव में प्रभु से प्यार करता हो। मेरी आस्था इतनी तुच्छ थी, मेरा आध्यात्मिक कद इतना छोटा था।” उसके पश्चात्ताप ने ही उसके मन में ये विचार उत्पन्न किए थे, है कि नहीं? उसके पश्चात्ताप से पता चलता है कि उसे पहले से ही अपने बारे में ज्ञान था और उसके पास अपने आध्यात्मिक कद, अवस्था और आस्था की सटीक माप भी थी। नया नियम में केवल यह दर्ज है कि पतरस तीन बार प्रभु को नकारा, लेकिन उसमें पतरस की अनुभवजन्य गवाही दर्ज नहीं है कि उसे किस प्रकार पश्चात्ताप हुआ, कैसे उसने अपनी दिशा बदली और बदल गया। वास्तव में, पतरस ने इस बारे में पत्र लिखे थे, लेकिन बाइबल के संपादकों ने उन्हें शामिल करने का विकल्प नहीं चुना। यह एक स्पष्ट समस्या है, जो दर्शाती है कि उस समय कलीसिया के सभी अगुआओं का ध्यान इस बात पर था कि उपदेश कैसे दिए जाएँ और गवाही कैसे दी जाए, लेकिन उनमें से किसी ने भी जीवन अनुभव को नहीं समझा था। यह न जानते हुए कि सबसे अहम चीजें जीवन प्रवेश, लोगों में सत्य की समझ तथा परमेश्वर का ज्ञान हैं, उन सभी ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि उन प्रेरितों ने कैसे उपदेश दिए और काम किए, और उन्होंने कैसे कष्ट उठाए। बाइबल का संपादन करने वालों ने पतरस के साथ जो कुछ हुआ उसे अत्यधिक सरलीकृत और सामान्य ढंग से दर्ज किया, लेकिन उन्होंने पौलुस के जीवन की घटनाओं को विशेष विवरण के साथ व्यापक रूप से दर्ज किया। इससे पता चलता है कि वे लोग पक्षपाती थे। वे नहीं समझते थे कि सत्य क्या है, न ही यह समझते थे कि परमेश्वर के लिए गवाही देने का क्या मतलब है। वे पौलुस की पूजा करते थे, इसलिए उन्होंने पौलुस के अधिक पत्रों को और पतरस के थोड़े-से पत्रों को ही चुना। बाइबल का इस तरह से संपादन करके उन्होंने सैद्धांतिक त्रुटि की, जिसके कारण जो लोग प्रभु में विश्वास करते थे वे दो हजार वर्षों तक पौलुस की पूजा करते रहे और उसका अनुकरण करते रहे। इस स्थिति ने पूरे धार्मिक जगत को परमेश्वर का प्रतिरोध करने के रास्ते पर आगे बढाया जिससे वह मसीह-विरोधियों द्वारा नियंत्रित एक धार्मिक साम्राज्य बन गया। उन्होंने पतरस की उत्कृष्ट गवाही को नजरअंदाज करते हुए उसके केवल दो पत्रों को दर्ज किया—पतरस का पहला और दूसरा पत्र। लेकिन पतरस के साथ जो हुआ उसका उसने वास्तव में कैसे अनुभव किया, कैसे परमेश्वर ने उसे प्रबुद्ध किया, उसके सामने प्रकट होने पर यीशु ने उससे क्या कहा, पतरस ने परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षणों और शोधनों को कैसे स्वीकार किया, कैसे उसे अंततः स्वेच्छा से क्रूस पर उल्टा लटका दिया गया, पतरस इस मुकाम तक कैसे पहुंचा, उसने अपने जीवन स्वभाव में इतना परिवर्तन कैसे हासिल किया, और उसने इतनी आस्था और समर्पण कैसे प्राप्त किया—अनुभव प्राप्ति की इस प्रक्रिया का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा किसी हाल में नहीं होना चाहिए। बहुत दुख की बात है कि इन अत्यधिक मूल्यवान चीजों को दर्ज नहीं किया गया!

चार सुसमाचारों में दर्ज पतरस द्वारा प्रभु के तीन नकारों से लेकर अंत में परमेश्वर के लिए क्रूस पर उसके उल्टा लटकने तक, जब लोग इन घटनाक्रमों को एक साथ रखते हैं, तो वे क्या देखते हैं? पतरस तीन बार प्रभु को नकारने से लेकर अंततः परमेश्वर के लिए क्रूस पर उल्टा लटकने तक चला गया। क्या इसमें कोई कठिन प्रक्रिया, कोई खोजबीन के योग्य प्रक्रिया नहीं थी? यह प्रक्रिया क्या थी? (मनुष्य के जीवन प्रवेश और स्वभाव में परिवर्तन की प्रक्रिया।) सही है, मानव स्वभाव में परिवर्तन परमेश्वर के लिए खुद को त्यागने और खपाने तथा परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति स्वेच्छा से समर्पण कर पाने की जीवन यात्रा है। जीवन अनुभव ठीक यही प्रक्रिया है। इसमें जरा भी नाटकीयता नहीं है। एकदम प्रारंभ में जब पतरस प्रभु यीशु का अनुयायी होने की बात स्वीकारने की हिम्मत नहीं कर सका था से लेकर अंत में जब वह साहस और आस्था के साथ इस स्तर पर पहुँच गया था कि परमेश्वर के लिए क्रूस पर उल्टा लटकने को तैयार हो गया था। वह अपनी आस्था, अपने स्वभाव और समर्पण में परिवर्तन की कैसी प्रक्रिया से गुजरा! इसमें निश्चित रूप से विकास की प्रक्रिया शामिल थी। आधुनिक लोगों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि यह विकास प्रक्रिया वास्तव में किस प्रकार की थी, क्योंकि आज बोले गए शब्द ऐसे सत्य हैं जिन्हें परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने वालों को अवश्य समझना चाहिए। आज, परमेश्वर ने पहले से ही लोगों को ये बातें स्पष्ट कर दी हैं और उन्हें ये सत्य प्रदान कर दिए हैं। तो पतरस का अनुभव कैसा था? प्रभु यीशु के चले जाने के बाद किसी ने भी उसे स्पष्ट शब्दों में नहीं बताया था कि उसे परमेश्वर के प्रति समर्पण की स्थिति प्राप्त करने के लिए क्या अनुभव करना चाहिए। उस युग में जब उसे परमेश्वर के स्पष्ट वचन भी उपलब्ध नहीं थे, उसने बिना किसी शिकायत या व्यक्तिगत पसंद के आध्यात्मिक कद और स्वैच्छिक समर्पण की आस्था अर्जित की। मुझे बताओ कि अंत में उसे कौन से सत्य प्राप्त हुए? और, उसने उन्हें कैसे हासिल किया? उसने यह सब प्रार्थना, खोज और फिर धीरे-धीरे अनुभव करने और टटोलने के माध्यम से हासिल किया था। निश्चय ही, इस दौरान पतरस को परमेश्वर से प्रबोधन और प्रकाश मिला, परमेश्वर का विशेष अनुग्रह और मार्गदर्शन मिला। इन बातों के अलावा, वह केवल अपने प्रयासों से ही अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सका। इस प्रक्रिया के दौरान, पतरस का स्वयं अपने बारे में, परमेश्वर के इरादों के बारे में, और सत्य के जिन सभी पहलुओं के बारे में लोगों को प्रवेश करना चाहिए उनके संबंध में ज्ञान धीरे-धीरे अस्पष्टता से स्पष्टता, फिर सटीकता तक गया और फिर अभ्यास के एक व्यावहारिक और निश्चित मार्ग के रूप में बदल गया। यह प्रक्रिया उस अंतिम समय तक चलती रही जब वह बिना किसी भटकाव के पूरी तरह से समर्पण करने योग्य हो गया। अपने मन में पुष्टि कर लेने के बाद ही उसने इस प्रकार अभ्यास करने का साहस किया। यह पुष्टि कहां से हुई? अँधेरे में टटोलने, साथ ही प्रार्थना और खोज से भी। उसने पवित्र आत्मा और परमेश्वर को उनका कार्य करने दिया। इसमें कोई रुकावट या अनुशासन नहीं था। पवित्र आत्मा से मिली प्रबुद्धता, शांति और आनंद होने के साथ-साथ उसके पास परमेश्वर का समर्थन, आशीष और मार्गदर्शन भी था। इस तरीके से उसे पुष्टि प्राप्त हुई। पुष्टि प्राप्त करने के बाद वह साहस के साथ खोजने, टटोलने और अभ्यास करने की दिशा में आगे बढ़ता रहा। इतनी जटिल प्रक्रिया से गुजरने के बाद पतरस को धीरे-धीरे मानव प्रकृति, आत्म-ज्ञान और स्वभाव के पहलुओं के साथ-साथ विभिन्न परिवेशों में मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव द्वारा उत्पन्न होने वाली विभिन्न अवस्थाओं की सटीक समझ पैदा हुई। इन्हें समझने के बाद उसने इन चीजों पर काम शुरू किया ताकि अभ्यास के संगत मार्गों को खोजा जा सके। अंत में उसने विभिन्न परिवेशों में अलग-अलग तरह के भ्रष्ट स्वभावों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई प्रत्येक स्थिति का समाधान किया। उसने इनका समाधान कैसे किया? उसने परमेश्वर द्वारा प्रबोधित सत्यों और सिद्धांतों का उपयोग करते हुए थोड़ा-थोड़ा करके उनका समाधान किया। निस्संदेह, इस दौरान उसे कई परीक्षणों और शोधनों का अनुभव हुआ। परमेश्वर ने उसकी किस हद तक परीक्षा ली और उसका शोधन किया? अंत में, वह परमेश्वर का इरादा को जान कर समझ गया कि परमेश्वर चाहता है कि लोग समर्पण का पाठ सीखें। तो फिर, परमेश्वर ने पतरस पर किस हद तक कार्य करके उसे यह बोध कराया कि लोगों को समर्पण का अभ्यास करना चाहिए? हमने पतरस की कही एक बात का पहले जिक्र किया था। क्या तुम्हें याद है कि वह बात क्या थी? (“अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?”) सही है, यही वह बात है। परमेश्वर के कार्य या मार्गदर्शन का अनुभव करने और उससे गुजरने की प्रक्रिया में पतरस के मन में अनजाने ही यह भावना पैदा हो गई : “क्या परमेश्वर लोगों के साथ खिलौनों की तरह व्यवहार नहीं करता?” लेकिन निश्चित रूप से यह वह बात नहीं है जिससे परमेश्वर के कार्य अभिप्रेरित होते हैं। लोग इस बात का आकलन करने के लिए अपने इंसानी नजरिए, सोच और ज्ञान पर भरोसा करते हैं और महसूस करते हैं कि परमेश्वर लोगों के साथ ऐसी बेपरवाही से खेलता है मानो वे खिलौने हों। वह एक दिन कहता है यह करो, तो अगले दिन कहता है, वह करो। अनजाने ही तुम महसूस करने लगते हो, “ओह, परमेश्वर ने तो बहुत-सी बातें कही हैं। आखिर वह क्या करने की कोशिश कर रहा है?” लोग भ्रमित और थोड़ा अभिभूत भी होने लगते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि कौन-से विकल्प चुने जाएँ। परमेश्वर ने पतरस की परीक्षा लेने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था। इस परीक्षा का अंतिम परिणाम क्या रहा? (पतरस ने मृत्युपर्यंत समर्पण हासिल किया।) उसने समर्पण हासिल किया। यही वह परिणाम था जो परमेश्वर चाहता था, और परमेश्वर ने इसे देखा। पतरस द्वारा कहे गए कौन-से शब्द दिखाते हैं कि वह आज्ञाकारी हो गया था और उसका आध्यात्मिक कद बड़ा हो गया था? पतरस ने क्या कहा? परमेश्वर ने जो कुछ भी किया था और मनुष्य को खिलौना समझने के उसके रवैये को पतरस ने कैसे स्वीकार किया और किस रूप में देखा? पतरस का रवैया क्या था? (उसने कहा : “तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?”) हाँ, यही पतरस का रवैया था। उसके शब्द बिल्कुल यही थे। जिन लोगों को परमेश्वर के परीक्षणों और शोधनों का कोई अनुभव नहीं है, वे ये वचन कभी नहीं बोलेंगे क्योंकि वे इस कथा के कथ्य को नहीं समझते और उन्होंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। चूँकि उन्होंने इसका अनुभव नहीं किया है, वे इस बारे में निश्चित ही स्पष्ट नहीं हैं। यदि वे इस मामले में स्पष्ट नहीं हैं, तो यह बात इतनी लापरवाही से कैसे बोल सकते हैं? ये वचन कुछ ऐसे हैं जिनके बारे में कोई मनुष्य कभी सोच तक नहीं सकता। पतरस यह सब कहने में सक्षम था क्योंकि उसने बहुत सारे परीक्षणों और शोधनों का अनुभव किया था। परमेश्वर ने उसे बहुत-सी चीजों से वंचित किया, लेकिन साथ ही उसे बहुत कुछ दिया भी। और, देने के बाद, एक बार फिर सब-कुछ वापस ले लिया। उससे चीजें वापस ले लेने के बाद, परमेश्वर ने पतरस को समर्पण करना सिखाया और फिर एक बार उसे दे दिया। मनुष्य के दृष्टिकोण से, परमेश्वर द्वारा की गई बहुत-सी चीजें मनमौजी लगती हैं, जिससे लोगों को भ्रम होता है कि परमेश्वर लोगों से खिलौनों की तरह पेश आता है, लोगों का सम्मान नहीं करता, और लोगों के साथ इंसानों जैसा व्यवहार नहीं करता। लोग सोचते हैं कि खिलौनों की ही तरह वे सम्मानहीन जीवन जी रहे हैं; वे सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें स्वतंत्र चयन का अधिकार नहीं देता, और परमेश्वर जो चाहे कह सकता है। जब वह तुम्हें कुछ देता है, तो कहता है, “तुमने जो किया है उसके लिए तुम इस पुरस्कार के पात्र हो। यह परमेश्वर का आशीष है।” जब वह चीजें छीन लेता है, तो उसके पास कहने के लिए कुछ और होता है। इस प्रक्रिया में लोगों को क्या करना चाहिए? परमेश्वर को सही या गलत के रूप में आँकना तुम्हारा काम नहीं है, परमेश्वर के कार्यों की प्रकृति की पहचान करना भी तुम्हारा काम नहीं है, और इस प्रक्रिया में अपने जीवन को अधिक सम्मान देना निश्चित रूप से तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हें इस विकल्प का चयन नहीं करना चाहिए। यह भूमिका तुम्हारी नहीं है। तो, तुम्हारी भूमिका क्या है? तुम्हें अनुभव के माध्यम से परमेश्वर के इरादों को समझना सीखना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकते और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास एकमात्र विकल्प समर्पण करने का होगा। ऐसी परिस्थितियों में, क्या तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान होगा? (नहीं।) समर्पण करना आसान नहीं है। यह वह सबक है जो तुम्हें सीखना चाहिए। यदि तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान होता, तो तुम्हें सबक सीखने की जरूरत नहीं होती, तुम्हें काट-छाँट और परीक्षणों तथा शोधनों से गुजरने की जरूरत नहीं होती। चूँकि तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन है, इसीलिए वह लगातार परीक्षा लेता है, तुम्हारे साथ जानबूझकर खेलता है मानो तुम कोई खिलौना हो। जिस दिन तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा, जब तुम बिना किसी कठिनाई या बाधा के परमेश्वर के प्रति समर्पण करने लगोगे, जब तुम अपनी पसंद, इरादों या प्राथमिकताओं के बिना, स्वेच्छा और प्रसन्नता से समर्पण कर सकोगे, तब परमेश्वर तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार नहीं करेगा और तुम बिल्कुल वैसा ही करोगे जैसा तुम्हें करना चाहिए। यदि किसी दिन तुम कहो, “परमेश्वर मुझसे खिलौने की तरह पेश आता है और मैं गरिमाहीन जीवन जी रहा हूँ। मैं इससे सहमत नहीं हूँ और मैं समर्पण नहीं करूँगा,” तो शायद उसी दिन परमेश्वर तुम्हारा त्याग कर दे। तब क्या होगा यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद इस स्तर तक पहुंच जाए जहाँ तुम कहो कि “यद्यपि परमेश्वर के इरादों को जान पाना आसान नहीं है और परमेश्वर हमेशा मुझसे छिपता है, फिर भी परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर चाहे जो करे, मैं स्वेच्छा से समर्पण करूँगा। भले ही मैं समर्पण न कर सकूँ, फिर भी मुझे यह रवैया अपनाना चाहिए और कोई शिकायत या अपने स्वयं के विकल्प नहीं बनाने चाहिए। ऐसा इसलिए कि मैं सृजित प्राणी हूँ। समर्पण करना मेरा कर्तव्य है, और यह एक स्पष्ट दायित्व है जिससे मैं बच नहीं सकता। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर जो करता है, उसके बारे में मुझे कोई कल्पना या धारणा नहीं बनानी चाहिए। ऐसा करना किसी सृजित प्राणी के लिए उचित नहीं है। परमेश्वर ने मुझे जो भी दिया है, उसके लिए मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ। परमेश्वर ने मुझे जो नहीं दिया या देकर वापस ले लिया, उसके लिए भी मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ। परमेश्वर के सभी कार्य मेरे लिए लाभदायक हैं; भले ही मैं वे लाभ न देख सकूँ, फिर भी मुझे जो करना चाहिए वह है समर्पण।” क्या इन बातों का प्रभाव पतरस के उन वचनों जैसा नहीं है जब उसने कहा था, “तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता”? केवल ऐसे आध्यात्मिक कद वाले लोग ही सत्य को सचमुच समझते हैं।

इसके बाद, अब लोगों की काबिलियत के बारे में संगति की जाए। यह मापते समय कि किसी व्यक्ति में कोई काबिलियत है या नहीं, देखो कि जब दैनिक जीवन में चीजें घटित होती हैं, तो वह परमेश्वर के इरादों और रवैये को समझने में सक्षम है या नहीं। साथ ही यह भी देखो कि उन्हें कौन सा पद लेना चाहिए, कौन से सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और कौन सा रवैया अपनाना चाहिए। यदि तुम इन सभी चीज़ों को समझने में सक्षम हो, तो तुम्हारे पास क्षमता है। यदि तुम जो समझते हो उसका परमेश्वर द्वारा तुम्हारे वास्तविक जीवन में तुम्हारे लिए किए गए आयोजनों से कोई सरोकार नहीं है, तो तुम्हारे पास या तो कोई काबिलयत नहीं है या तुम खराब काबिलियत वाले हो। पतरस और अय्यूब का असली आध्यात्मिक क़द कैसे विकसित हुआ था, और उन्होंने आख़िर परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था में वह सब कैसे हासिल किया जो उन्हें हासिल हुआ और वह सब परिणाम कैसे पाया जो उन्हें मिला था? उनके पास वे सुविधाएं नहीं थीं जो आज तुम लोगों के पास हैं; तुम्हारे पास तुम्हारे लिए प्रावधानों की व्यवस्था करने को, तुम्हें समर्थन देने के लिए और सहायता देने के लिए हमेशा कोई न कोई होता है। चीजों की जाँच में मदद करने के लिए भी हमेशा कोई न कोई होता है। उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था। उनके द्वारा समझे गए अधिकांश सत्य वे थे जिन्हें उन्होंने महसूस किया था, जिनका उन्होंने अनुभव किया, जिन्हें उन्होंने धीरे—धीरे समझा-बूझा था और जिन्हें उन्होंने अपने दैनिक जीवन में भोगा था। उच्च क्षमता वाला होने का यही मतलब होता है। जब लोगों के पास इस तरह की काबिलियत नहीं होती, और उनके पास सत्य और उद्धार के प्रति यह रवैया नहीं होता, तो वे सत्य की खोज नहीं करेंगे, न ही हर चीज में सत्य का अभ्यास करने का ध्यान रखेंगे। इसके परिणामस्वरूप वे सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। अय्यूब और पतरस की कहानियाँ सुनने के बाद ज्यादातर लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं। परंतु, कुछ समय तक उनसे ईर्ष्या करने के बाद वे मामले को गंभीरता से नहीं लेते। उन्हें लगता है कि जब उनके साथ कुछ घटित होगा तो वे भी अय्यूब और पतरस जैसे शास्त्रीय वचन कह सकेंगे, इसलिए उन्हें लगता है कि ये चीजें आसान हैं। इन पर अभी विचार करते समय हम पाते हैं कि ये चीजें सरल नहीं हैं।

नए नियम में, चार सुसमाचारों के अलावा सबसे अधिक स्थान पौलुस के पत्रों ने लिया है। उसी अवधि के दौरान पौलुस और पतरस ने संभवतः एक ही तरह का काम किया था, लेकिन पौलुस की प्रतिष्ठा पतरस की तुलना में बहुत अधिक थी। इन दो स्थितियों से हम क्या देख सकते हैं? हम इन दोनों व्यक्तियों के मार्गों को देख सकते हैं। पौलुस के पत्रों की कई पंक्तियों को बाद की पीढ़ियों द्वारा सूत्रवाक्य के रूप में अपनाया गया और सभी ने खुद को अभिप्रेरित करने के लिए पौलुस की प्रसिद्ध कहावतों का इस्तेमाल किया। इसके परिणामस्वरूप, वे सभी गलत रास्ते पर चले गए, और कई तो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर भी चले गए। इसके विपरीत, पतरस ने शायद ही कभी अपना सार्वजनिक प्रदर्शन किया हो। मूलतः, उसने किताबें नहीं लिखीं, किन्हीं गहन और रहस्यमय धर्मसिद्धांतों का प्रतिपादन नहीं किया, तत्कालीन भाई-बहनों को सिखाने और उनकी मदद करने के लिए उनके सामने कोई ऊँचे-ऊँचे नारे नहीं रखे और न कोई सिद्धांत दिए। उसने भावी पीढ़ियों को प्रभावित करने के कोई ऊंचे सिद्धांत भी नहीं दिए। उसने केवल व्यावहारिक और जमीनी तरीके से परमेश्वर से प्रेम करना और उसे संतुष्ट करना चाहा। उन दो लोगों द्वारा अपनाए गए मार्गों में यही अंतर है। पौलुस ने अंत में मसीह-विरोधियों का मार्ग अपनाया और नष्ट हो गया, जबकि पतरस ने सत्य की खोज और परमेश्वर से प्रेम करने का मार्ग अपनाया और उसे पूर्ण बनाया गया। उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों पर विचार करके तुम देख सकते हो कि परमेश्वर कैसे लोग चाहता है, किस तरह के लोगों को नापसंद करता है, परमेश्वर को नापसंद लोगों के खुलासे और अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं, वे लोग किस तरह के रास्ते पर चलते हैं, परमेश्वर के साथ उनका संबंध कैसा होता है, और वे किन चीजों के बारे में सजग रहते हैं। क्या तुम लोग कहोगे कि पौलुस में काबिलियत थी? पौलुस की काबिलियत किस श्रेणी की थी? (वह बहुत अच्छी थी।) तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, लेकिन फिर भी तुम उन्हें नहीं समझते। क्या पौलुस की काबिलियत को बहुत अच्छा माना जा सकता है? (नहीं, वह खराब थी।) पौलुस की क्षमता खराब क्यों थी? (वह खुद को नहीं जानता था और उसमें परमेश्वर के वचनों की समझ नहीं थी।) ऐसा इसलिए था क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता था। उसने भी प्रभु यीशु द्वारा दिए गए उपदेश सुने थे, और उस अवधि के दौरान जब उसने काम किया, निश्चित रूप से वहाँ पवित्र आत्मा का कार्य भी था। तो ऐसा कैसे हुआ कि जब उसने वह सब काम किया, उन सभी धर्मपत्रों को लिखा, और वह उन सभी कलीसियाओं में गया, फिर भी सत्य को ज़रा भी नहीं समझ सका केवल धर्म-सिद्धांतों का उपदेश करता रहा। वह कैसी काबिलियत थी। तुच्छ श्रेणी की काबिलियत। इससे भी बड़ी बात यह, पौलुस ने प्रभु यीशु को सताया और उसके शिष्यों को गिरफ्तार किया जिसके बाद प्रभु यीशु ने स्वर्ग से एक तेज प्रकाश के प्रहार से उसे नीचे गिरा दिया। पौलुस ने अपने साथ घटित हुए इस बड़े घटनाक्रम को किस तरह से देखा और कैसे समझा? उसकी समझ का तरीका पतरस से अलग था। उसने सोचा, “प्रभु यीशु ने मुझे नीचे गिरा दिया है, मैंने पाप किया है, इसलिए मुझे इसकी भरपाई करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, और एक बार जब मेरे गुण मेरे अवगुणों को संतुलित कर लेंगे, तो मुझे पुरस्कृत किया जाएगा।” क्या वह खुद को जानता था? वह नहीं जानता था। उसने यह नहीं कहा कि “मैं अपने दुर्भावनापूर्ण, मसीह-विरोधी स्वभाव के कारण प्रभु यीशु का विरोध करता था। मैं प्रभु यीशु का विरोध करता था और मुझमें कुछ भी अच्छा नहीं है!” क्या उसके पास अपने बारे में ऐसा ज्ञान था? (नहीं।) और इस घटना को उसने अपने धर्मपत्रों में कैसे लिपिबद्ध किया? उसका क्या नज़रिया था? (उसे लगा कि उसे परमेश्वर ने काम करने के लिए बुलाया है।) उसका विश्वास था कि परमेश्वर ने उस पर महान प्रकाश चमका कर उसका आह्वान किया है और यह कि परमेश्वर उसका बड़ा उपयोग करना शुरू करेगा। खुद का थोड़ा-सा भी ज्ञान न होने के कारण, उसका मानना था कि यह सबसे शक्तिशाली प्रमाण था कि उसे पुरस्कृत किया जाएगा और उसे ताज पहनाया जाएगा, साथ ही यह सबसे बड़ी पूँजी थी जिसका उपयोग वह पुरस्कारों और ताज को हासिल करने के लिए कर सकता था। इसके साथ ही, दिल की गहराइयों में वह एक काँटे की चुभन-सी महसूस करता था। यह काँटा क्या था? यह एक बीमारी थी जो परमेश्वर ने उसे प्रभु यीशु के प्रति उसके पागलपन भरे प्रतिरोध के दंड के रूप में दिया था। वह इस मामले से कैसे निपटा? उसके मन में हमेशा से एक बीमारी थी और वह सोचता था, “यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर इसे माफ करेगा या नहीं। सौभाग्य से, प्रभु यीशु ने मेरी जान बचाई और मुझे सुसमाचार फैलाने का काम सौंपा। यह खुद को पुनर्स्थापित करने का बढ़िया मौका है। मुझे अपनी पूरी ताकत से सुसमाचार फैलाना चाहिए, और हो सकता है कि न केवल मेरे पाप माफ कर दिए जाएँ, बल्कि मुझे ताज और पुरस्कार भी मिल जाए। यह तो बड़ा शानदार रहेगा!” हालाँकि, वह कभी भी इस कांटे से छुटकारा नहीं पा सका, जिससे उसके दिल में एक संत्रास पैदा हो गया था। वह हमेशा इसके बारे में असहज महसूस करता था। “मैं कैसे इस गंभीर गलती की क्षतिपूर्ति कर सकता हूँ? मैं इसे कैसे रद्द कर सकता हूँ, जिससे यह मेरी संभावनाओं को या जिस ताज को पाने की मैं उम्मीद करता हूँ उसे प्रभावित न करे? मुझे प्रभु के लिए और अधिक काम करना चाहिए, अधिक कीमत चुकानी चाहिए, और अधिक धर्मपत्रों को लिखना चाहिए, और भाग-दौड़ में, शैतान से जूझने और एक सुंदर गवाही देने में अधिक समय बिताना चाहिए।” उसने इसके प्रति इस तरह का रुख़ अपनाया था। क्या उसे तनिक भी अफसोस था? (नहीं।) उसे जरा भी अफसोस नहीं था और उससे भी कम अपने बारे में ज्ञान था। उसके पास इन दोनों में से कुछ भी नहीं था। यह दिखाता है कि पौलुस की काबिलियत के साथ यह समस्या थी कि उसमें सत्य को समझने की योग्यता नहीं थी। आंशिक रूप से अपनी मानवता और उन चीज़ों के कारण जिनका उसने अनुसरण किया, और आंशिक रूप से अपनी क्षमता के कारण, वह इन चीज़ों को समझ नहीं सका, और न ही उसने यह महसूस किया कि, “शैतान ने मनुष्य को बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। मनुष्य की प्रकृति बहुत बुरी होती है, बहुत ही दुष्ट होती है। मनुष्य की प्रकृति शैतान और मसीह-विरोधियों की सी होती है। यह परमेश्वर द्वारा मानवजाति के मुक्ति के मूल में है। मनुष्य को परमेश्वर की मुक्ति की आवश्यकता है। तो मनुष्य को अपनी मुक्ति को स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने कैसे आना चाहिए?” उसने कभी ऐसी बातें नहीं कहीं। उसे बिल्कुल भी समझ नहीं आया कि उसने यीशु का विरोध और निंदा क्यों की थी। हालाँकि उसने स्वीकार किया कि वह मुख्य अपराधी था, लेकिन उसने इस मामले पर बिल्कुल भी चिंतन नहीं किया। उसने बस इस बात पर विचार किया कि वह ऐसे गंभीर पापों को कैसे खत्म करे, अपने पापों का प्रायश्चित्त कैसे करे, गुण-संपन्न कामों से अपने पापों की भरपाई कैसे करे, और अंततः वह ताज और पुरस्कार कैसे प्राप्त करे जिसकी उसे उम्मीद थी। उसके साथ जो भी घटित हुआ हो, उसके बाद भी वह उन चीजों से सत्य या परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सका। उसने परमेश्वर के इरादों को बिल्कुल भी नहीं समझा। जहां तक सत्य को गहराई से समझने की बात है, पौलुस सबसे खराब व्यक्ति था, इसलिए हम कह सकते हैं कि पौलुस की काबिलियत सबसे खराब थी।

क्या बहुत कमजोर काबिलियत वाले लोग सत्य को समझ सकते हैं? (नहीं।) क्या सत्य को न समझने वाले लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) जो लोग बचाये जाने के इच्छुक हैं, उन्हें संतोषजनक काबिलियत वाला होना चाहिए। उन्हें कम-से-कम औसत काबिलियत का होना चाहिए, न कि बहुत खराब काबिलियत वाला। उन्हें सत्य की समझ प्राप्त करनी होगी। वे सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझ सकते हैं इसकी चिंता किए बिना, उन्हें कम-से-कम सत्य की अपनी समझ के आधार पर स्वयं को जानना चाहिए और यह जानना चाहिए कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। इस तरह से वे बचाए जा सकते हैं। मैं यह क्यों कहता हूं कि वे इस तरह से बचाए जा सकते हैं? जब तुम अपने दैनिक जीवन में आने वाली चीजों को सत्य से जोड़ सकोगे और परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को देख सकोगे और उनका उपयोग कर सकोगे, तो तुम परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में उतारने में सक्षम होगे और इस नींव पर तुम परमेश्वर के वचनों में दिए निर्णयों, उसके वचनों द्वारा की जाने वाली काट-छाँट, और उसके वचनों में व्यक्त परीक्षणों और शोधनों को स्वीकार कर सकोगे। अन्यथा, यदि तुम सत्य को नहीं समझोगे, तो तुम उसके वचनों में दिए निर्णयों, परीक्षणों और शोधनों को स्वीकार करने के योग्य भी नहीं हो सकोगे। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने से पहले कम-से-कम कुछ सत्यों को तुम्हें समझना होगा, परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया रखना होगा और कुछ तरीकों से बदलना होगा। तुम्हें यह भी अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हें परमेश्वर के कार्यों से किस रवैए, मानसिकता और परिप्रेक्ष्य के साथ निपटना चाहिए। ये सभी चीजें सत्य से जुड़ी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि इससे सामान्यतः निपटने और सत्य से संबंध स्थापित करने के लिए लोग सादे धार्मिक नारों, धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों का उपयोग कर सकते हों। न ही यह ऐसा मामला है कि केवल कुछ अच्छे कर्म करना सत्य के अभ्यास से जुड़ा होता है। यह इतना आसान नहीं है। तुम जो जानते हो, जो अनुभव करते हो और तुम्हारे आसपास जो घटित होता है, उनके बारे में तुम्हें अपने हृदय में उन सिद्धांतों को जानना चाहिए जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम सत्य से जुड़ते हो। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर तुमसे जो काम करवाता है उनके प्रति तुम जिस तरह से पेश आते हो, परमेश्वर द्वारा अपने साथ किए जाने वाले व्यवहार के ढंग और रवैये के साथ तुम जिस तरह से पेश आते हो, साथ ही तुम जो रवैया और दृष्टिकोण अपनाते हो, वह सत्य से जुड़ा होना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम्हें जीवन प्रवेश मिल सकता है। अन्यथा, परमेश्वर तुम पर कोई काम नहीं कर सकेगा। क्या तुम समझ रहे हो? (हम समझते हैं।) धर्मों में प्रवृत्त उन लोगों को देखो जो विनियमों का पालन करते हैं, धर्मसिद्धांतों की बात करते हैं, और अच्छे होने का दिखावा करते हैं। उनके काम बाहर से अच्छे दिखते हैं, लेकिन परमेश्वर उन पर कभी काम क्यों नहीं करता? इसलिए कि वे जो कुछ करते हैं और उनके सभी सुकर्म सत्य से जुड़े नहीं होते। उन लोगों ने केवल अपना व्यवहार बदला है, लेकिन इससे उनके स्वभाव में बदलाव नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों पर खरे नहीं उतरते। यह ऐसा है जैसे अभी-अभी प्राथमिक विद्यालय से उत्तीर्ण हुआ कोई बच्चा सीधे विश्वविद्यालय जाना चाहता हो। क्या ऐसा संभव है? यह बिल्कुल असंभव है क्योंकि वह इस योग्य नहीं है। इसलिए, चाहे हम उस रास्ते के बारे में बात कर रहे हों जिस पर लोग चलते हैं या उनकी मानवता और काबिलियत के बारे में बात कर रहे हों, लोगों को कम-से-कम उद्धार की आवश्यक शर्तों को पूरा करना चाहिए। विशेष रूप से, उन्हें सत्य को समझना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना चाहिए और परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए।

हम लोगों की काबिलियत कैसे मापते हैं? यह काम करने का उचित तरीका सत्य के प्रति उनके रवैए को देखना और यह जानना है कि वे सत्य को अच्छी तरह से समझ सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कुछ विशेषज्ञताएँ बहुत तेजी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन जब वे सत्य को सुनते हैं, तो भ्रमित हो जाते हैं और उनका ध्यान भटक जाता है। अपने मन में वे उलझे हुए होते हैं, वे जो कुछ भी सुनते हैं वह उनके अंदर नहीं जाता, न ही वे जो सुन रहे हैं उसे समझ पाते हैं—यही खराब काबिलियत होती है। कुछ लोगों को जब आप बताते हैं कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे सहमत नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि ऊँची शिक्षा प्राप्त और जानकार होने का मतलब है कि वे अच्छी काबिलियत वाले हैं। क्या अच्छी शिक्षा ऊँचे दर्जे की काबिलियत दर्शाती है? ऐसा नहीं है। लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को संभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा वचन और सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं। तो, क्या ऐसे लोग परमेश्वर के घर के काम करने में सक्षम हैं? (नहीं।) क्यों? (उनके पास सत्य सिद्धांत नहीं होते।) सही है, यह कुछ ऐसी बात है जिसे तुम लोगों को अब तक समझ जाना चाहिए। परमेश्वर के घर के लिए काम करने के बारे में कहने का एक और तरीका अपना कर्तव्य निभाना है। जब किसी के कर्तव्य निर्वहन की बात आती है, तो उससे सत्य, परमेश्वर के कार्य, आचरण के सिद्धांत और सभी प्रकार के लोगों के साथ पेश आने की विधियाँ और तरीके जुड़े होते हैं। ये सभी मुद्दे इस बात को प्रभावित करते हैं कि लोग अपने कर्तव्यों को प्रभावी और संतोषजनक तरीके से निभा सकते हैं या नहीं। क्या कर्तव्य निर्वहन से जुड़े इन मुद्दों से सत्य जुड़ा होता है? यदि उनसे सत्य जुड़ा हुआ है, फिर भी तुम सत्य को नहीं समझते और केवल अपनी तुच्छ चतुराई पर भरोसा करते हो, तो क्या तुम उचित ढंग से समस्याएँ हल कर सकोगे और अपना कर्तव्य निभा सकोगे? (नहीं।) नहीं। कुछ मामलों में कुछ भी गड़बड़ न हो तब भी संभव है कि उन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना न हो, और वे विशुद्ध बाहरी चीजें हों। परंतु, बाहरी चीजें करते समय भी तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए, और तुम्हें उन्हें यूँ संभालना चाहिए कि सभी को सही लगे। मान लो कि तुमसे अपने ही दम पर किसी चीज को सिद्धांतों के अनुसार सँभालने को कहा जाए, और तुम्हारे ऐसा करते समय कोई अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न हो जाए, और तुम्हें पता न हो कि उससे कैसे निपटना है। तुम सोचते हो कि तुम्हें अपने अनुभव के अनुसार आगे बढ़ना चाहिए, लेकिन ठीक अपने अनुभव की सीख के आधार पर काम करने से उस काम में बाधा-व्यवधान पड़ते हैं और सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। क्या यह त्रुटि नहीं है? इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास विशुद्ध गहरी समझ नहीं है, तुम सत्य को नहीं समझते, और सिद्धांतों पर तुम्हारी पकड़ नहीं है। जब भी तुम्हारा सामना ऐसे मामलों से होता है जिनसे सत्य और सिद्धांत जुड़े होते हैं, तो तुम उनसे निपट नहीं पाते हो, और तुम्हारी अपनी इच्छा बाहर उफन जाती है। परिणामस्वरूप, तुम कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हो, और खुद को शर्मिंदा करते हो। क्या मानवीय अनुभव और तरीकों के आधार पर समस्याओं से निपटना प्रभावी होता है? (नहीं।) यह प्रभावी क्यों नहीं है? इसलिए कि मानवीय अनुभव और तरीके सत्य नहीं हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। यदि तुम हमेशा मानवीय अनुभव और तरीकों का उपयोग करके समस्याओं को संभालते हो, तो क्या इसका सिर्फ यह मतलब नहीं है कि तुम अपने आपको, वास्तव में जितने हो, उससे अधिक चतुर समझते हो? क्या यह अहंकार और आत्मतुष्टि नहीं है? कुछ लोग तर्क भी देते हैं कि “ऐसा नहीं है कि मैं इस मामले के सत्य को नहीं समझता हूँ—मैं अपने दिल में इसे समझता हूँ। बात केवल इतनी है कि मैंने इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया। अगर मैं और अधिक प्रयास करूँ और मामले पर अधिक सावधानी से विचार करूँ तो मैं इसे अच्छी तरह से संभाल सकता हूँ। अतीत में, गैर-विश्वासियों के साथ संवाद करने और चीजों को संभालने में मुझे कुछ खास तरीकों और साधनों का उपयोग करना पड़ता था। परंतु, परमेश्वर का घर उन तरीकों की अनुमति नहीं देता, इसलिए मुझे नहीं पता था कि क्या किया जाना चाहिए। मैंने मामले को बस अपने तरीके से निपटाया, इसलिए कोई अचरज नहीं है कि मुझसे छोटी-सी गलती हुई।” क्या ये लोग खुद को जानते हैं? (नहीं।) वे खुद को क्यों नहीं जानते? क्या इसका सत्य से कोई संबंध नहीं है? वे इस मामले में सत्य को नहीं खोजते, बल्कि अपनी गलती को छिपाने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे सोचते हैं कि उनसे केवल गलती हुई है और वे अपने व्यवहार के बारे में लापरवाह रहे हैं। वे यह नहीं सोचते कि उनकी त्रुटि से सत्य जुड़ा हुआ है, या वह इसलिए उत्पन्न हुई है कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है और इस तथ्य के कारण कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर कार्य करते हैं। खराब काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। कुछ घटित होने पर ये लोग हमेशा कारण और बहाने ढूँढ़ते रहते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने तो बस एक गलती की है। अपनी पहली प्रतिक्रिया में, उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें सत्य को खोजना चाहिए। अपनी दूसरी प्रतिक्रिया में भी वे नहीं जानते कि उन्हें सत्य को खोजना ही चाहिए। और अपनी तीसरी प्रतिक्रिया में भी उन्हें पता नहीं होता कि उनको सत्य को खोजने और खुद को जानने की आवश्यकता है। बहुत खराब काबिलियत होने का यही मतलब है। तुम उनका चाहे जैसे मार्गदर्शन करो, उन्हें उजागर करो और उनके साथ संगति करो, फिर भी उन्हें इस बात का एहसास नहीं होगा कि उन्होंने किन सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और उन्हें किन सत्यों को अभ्यास में लाना चाहिए। तुम चाहे जैसे उनका मार्गदर्शन करो, वे इन चीजों के बारे में कभी जागरूक नहीं होंगे। उनमें सत्य को गहराई से समझने की थोड़ी-सी भी काबिलियत नहीं होती। खराब काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। तुम सत्य पर चाहे जितनी स्पष्टता से संगति करो, उन्हें इसका एहसास नहीं होगा कि यह सत्य है। तथ्यों को छुपाने के लिए वे अपने ही कारणों और बहानों का इस्तेमाल करेंगे, या कहेंगे कि यह सिर्फ एक गलती या त्रुटि थी। वे तनिक भी नहीं स्वीकारेंगे कि उन्होंने सत्य का उल्लंघन किया है या अपने भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट किया है। उन्होंने चाहे जो गलतियाँ की हों, चाहे जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हों, या जितनी ही भ्रष्ट स्थितियाँ पैदा की हों, उन्हें कभी एहसास नहीं होगा कि उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में क्या हैं, उनके भ्रष्ट सार की तो बात ही छोड़ो। वे यह भी नहीं जानते हैं कि सत्य को कैसे खोजें या इस मामले में स्वयं को कैसे जानें। वे इन बातों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे आध्यात्मिक रूप से सुन्न हैं और उनमें इन चीजों के बारे में जरा भी भावना नहीं है। यह खराब काबिलियत की एक अभिव्यक्ति है।

आओ, किसी व्यक्ति की काबिलियत मापने के तरीके पर संगति करने के लिए कुछ उदाहरण देखें। उदाहरण के लिए, मैंने कहा कि कुछ लोग आजकल करते रहते हैं और असावधानी से काम करते हैं। इस बात को सुनने के बाद अच्छी काबिलियत वाले लोगों को तुरंत एहसास होगा कि यह कुछ ऐसी मनोदशा है जिसका वे भी अनुभव करते हैं, और वे अक्सर ऐसी मनोदशा और रवैए का अनुभव करते हैं जब वे अस्वस्थ होते हैं या जब वे निराश या आलसी होते हैं। इसके साथ ही, उनके दिमाग में उस समय की कुछ छवियाँ उभरने लगेंगी जब उन्होंने कुछ कामों में टाल-मटोल की थी या बेपरवाही दिखाई थी। वे अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करेंगे और स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर जो उजागर करता है वह मनुष्य के भ्रष्टाचार की वास्तविकता है और इसका संबंध मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से होता है। इसी तरह वे स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और उन्हें गलतफहमी या अपनी धारणाओं के बिना, विशुद्ध तरीके से पूरी तरह से समझेंगे। अच्छी काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। इन वचनों को सुनने के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया उन वचनों से अपनी तुलना करने की होगी। उन्हें एहसास होगा कि यह ऐसी मनोदशा है जिसका वे भी अनुभव करते हैं, और वे परमेश्वर के इन वचनों को अपनी मनोदशा और दैनंदिन जीवन से जोड़ेंगे। फिर, वे आत्म-चिंतन में संलग्न होंगे, अपनी इस मनोदशा पर स्पष्टता से गौर करेंगे और स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर के वचनों को सुनने पर अच्छी काबिलियत वाले लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है। औसत काबिलियत वाले व्यक्ति के लिए तुम केवल “प्रमादी” और “बेपरवाह” शब्द नहीं कह सकते। तुम्हें उनकी अभिव्यक्तियों को उजागर करके उनके मुद्दों को सीधे इंगित करना चाहिए, और उसे उन चीजों के साथ जोड़ना चाहिए जो वे करते हैं, और कहना चाहिए कि “तुम अक्सर भ्रमित रहते हो और चीजों को गंभीरता से नहीं लेते। इस तरह से अपना कर्तव्य निभा कर तुम केवल बेपरवाही दिखा रहे हो। तुम्हें इसका भान क्यों नहीं होता? मैंने तुमसे यह बात कितनी बार कही है? इसे बेपरवाही दिखाना और टालमटोल करना कहा जाता है।” उनकी समस्याओं को ऐसे बताओ। यह सुनने के बाद, वे इस पर विचार करेंगे कि उन्होंने कैसी टाल-मटोल की और बेमन से काम किया। जब वे इस पर सचमुच विचार करेंगे और इसे जान लेंगे, तो वे अपनी गलतियों को स्वीकार करेंगे और उन्हें सुधार पाएँगे। परंतु, वे जिस चीज को पहचानते हैं, वह एक निश्चित चीज है, एक निश्चित मनोदशा है। तुम्हारी कही बातों को वे केवल तभी स्वीकार करेंगे और मानेंगे जब वह उनकी अपनी कल्पनाओं के अनुरूप होगी। इसे ही हम औसत काबिलियत कहते हैं। औसत काबिलियत वाले लोगों पर काम करने के लिए प्रयास की आवश्यकता होती है, और केवल तथ्यों के आधार पर बात करके ही उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है। जिन लोगों की काबिलियत खराब होती है उनकी मनोदशा होती कैसी है? उनसे कैसे पेश आना चाहिए? खराब काबिलियत वाले लोग सरल दिमाग वाले और थोड़े पगलैट होते हैं। वे अपने सामने आने वाली किसी भी स्थिति को अच्छी तरह से समझ नहीं पाते और सत्य को नहीं खोजते। यदि उन्हें स्पष्ट और सीधे तरीके से कोई बात न बताई जाए, तो वे उसे स्वयं समझ नहीं सकते। इसलिए, खराब काबिलियत वाले लोगों से बात करते समय तुम्हें अधिक स्पष्ट और सीधे बात करनी चाहिए, और तुम्हें उदाहरण भी देने चाहिए। तुम्हें तथ्यों के आधार पर बोलना चाहिए और अपनी बात को बार-बार दोहराना चाहिए। तुम्हारी बातों में प्रभाव पैदा करने का यही एकमात्र तरीका है। तुम्हें कुछ इस तरह बोलना होगा : “इस तरह अपना कर्तव्य निभा कर तुम टालमटोल कर रहे हो, बेपरवाही दिखा रहे हो!” इस पर उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी? “क्या मैंने ऐसा किया है? क्या मैंने टालमटोल की है? सुबह आँख खुलते ही मैं अपने कर्तव्य से जुड़ी चीजों के बारे में सोचना शुरू कर देता हूँ और सबसे पहले वही काम पूरे करता हूँ। जब मैं बाहर जाता हूँ, तब भी यही सोचता हूँ कि उन चीजों को अच्छे से कैसे किया जाए। मैं न तो आजकल करता हूँ, न ही बेपरवाही से काम करता हूँ। मैं इन कामों के लिए बहुत प्रयास करता हूँ!” उनकी पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि तुम्हारी बात को नकार दें। उनमें कोई जागरूकता नहीं होती और, बुनियादी तौर पर, उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि वे अपना कर्तव्य निर्वहन बेपरवाही से कर रहे हैं या काम को टाल रहे हैं। फिर तुम्हें उनको समझाना पड़ेगा कि टालमटोल और बेपरवाही कैसे अभिव्यक्त होती है, और अपनी बात यूँ कहनी होगी कि वे वास्तव में आश्वस्त हो जाएं, तभी वे तुम्हारी बातों को स्वीकार करेंगे। उनके लिए यह मान लेना आसान नहीं है कि उन्होंने अच्छा काम नहीं किया है या उनसे बाहरी मामलों में गलतियाँ हुई हैं। यदि किसी चीज से सत्य, अभ्यास के सिद्धांत, या परमेश्वर का स्वभाव जुड़े हों, तो कमजोर काबिलियत वाले लोगों के लिए यह और भी कठिन होता है। वे तुम्हारी कोई भी बात नहीं समझेंगे, तुम जितनी ज्यादा बातें करोगे, वे उतना ही अधिक भ्रमित और अँधेरे में महसूस करेंगे, और वे अब तुम्हारी बात सुनना ही नहीं चाहेंगे। ये बहुत खराब काबिलियत वाले लोग हैं; यह सत्य तक पहुँचने में उनकी असमर्थता की अभिव्यक्ति है। खराब काबिलियत वाले लोगों के साथ तुम सत्य पर चाहे जैसी भी संगति करो, कोई फायदा नहीं है। तुम उनसे जैसे भी बात करने की कोशिश करो, वे समझ नहीं पाते। अधिक से अधिक वे कुछ सिद्धांतों और विनियमों को समझ सकते हैं। इसलिए, बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों के साथ सत्य पर विस्तार से संगति करना आवश्यक नहीं है। उन्हें आसान तरीके से बस इतना बताओ कि क्या करना है, और यदि वे उस पर टिके रह सकते हैं, तो बहुत अच्छी बात है। बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों में किसी बात को पूरी तरह से समझने की काबिलियत इस सीमा तक नहीं होती कि वे कभी भी सत्य को नहीं समझ पाएँगे, और निश्चित रूप से उनसे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के स्तर तक पहुँचने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि इन लोगों के सामने ही कुछ घटित हो और तुम उन्हें इस बारे में सब कुछ बता दो, तब भी वे इससे खुद को जोड़ नहीं पाते। इसे ही हम खराब काबिलियत कहते हैं। उदाहरण के लिए, झूठ बोलने की बात आने पर देखो कि अच्छी काबिलियत वाले लोग कैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं। जब अच्छी काबिलियत वाले लोग दूसरों को झूठ बोलने की स्थितियों के बारे में बोलते हुए और उदाहरण देते हुए, इस बारे में बात करते हए सुनेंगे कि झूठ और धोखे की स्थितियों से वे कैसे निपटे और उन्हें कैसे हल किया, तो वे खुद पर विचार करेंगे और जो कुछ उन्होंने सुना है उसकी तुलना स्वयं अपनी स्थितियों से करेंगे। इसके बाद, वे उन स्थितियों को पहचान पाएँगे जिनमें उन्होंने झूठ बोला था और उस तरह से कार्य करते समय उनके इरादे क्या थे। अपने दैनिक जीवन में उजागर होने वाली बातों के आधार पर, अपने इरादों, मंसूबों और विचारों की जाँच के माध्यम से, अच्छी काबिलियत वाले लोग यह पता लगाने में सक्षम होंगे कि उनकी कौन-सी बातें झूठी थीं और किन वचनों में धोखा था। जब वे अन्य लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनते हैं, तो वे उनसे लाभान्वित हो सकते हैं और कुछ हासिल कर सकते हैं। भले ही तुम केवल कुछ सिद्धांतों के बारे में बात करो, वे समझ जाएँगे और उन्हें लागू करना सीख लेंगे। फिर, वे इन बातों को सत्य सिद्धांतों के रूप में लेंगे, उन्हें अपनी वास्तविकता बना लेंगे और धीरे-धीरे खुद को बदल लेंगे। औसत काबिलियत वाला व्यक्ति अन्य लोगों की अनुभवजन्य गवाही सुनने के बाद यह देख पाएगा कि स्पष्ट मामले उससे कैसे संबंधित हैं, लेकिन वह कम स्पष्ट चीजों या उन लोगों के हृदय की गहराई में मौजूद उन चीजों को अपने से नहीं जोड़ पाएगा जो उनकी बातों में अब तक अव्यक्त हैं। इसके साथ ही, सत्य सिद्धांतों की उसकी गहन समझ भी धर्म-सिद्धांतों की तरह थोड़ी उथली ही होती है। उसकी समझ का स्तर अच्छी काबिलियत वाले लोगों की तुलना में बहुत खराब होता है। जहाँ तक खराब काबिलियत वाले लोगों की बात है, तो वे दूसरों की गवाहियाँ सुनते समय उन बातों को स्वयं से नहीं जोड़ पाते हैं, चाहे उन बातों को बताने वाले ने कितनी ही सावधानी से बारीक विश्लेषण किया हो कि कौन-सी बातें झूठी और खोखली हैं और कौन-सी बातों में धोखे की स्थितियाँ हैं। इन गवाहियों को सुन कर भी वे आत्मचिंतन करने या स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होंगे। ये लोग न केवल अपने झूठ बोलने और धोखा देने की मनोदशा को पहचानने में असफल होते हैं, बल्कि वे खुद को बहुत ईमानदार व्यक्ति भी मानते हैं जो झूठ बोल ही नहीं सकता। भले ही दूसरे लोग उनसे झूठ बोलें और उन्हें धोखा दें, वे इसे समझ नहीं पाते और आसानी से मूर्ख बन जाते हैं। वे दूसरों द्वारा संगति में बताए गए सत्य सिद्धांतों को समझने में तो और भी कम सक्षम होते हैं। उनमें गहराई से समझने की जरा-सी भी योग्यता नहीं होती। यह खराब काबिलियत की अभिव्यक्ति है।

जिन तीन प्रकार की काबिलियत वाले लोगों का हमने अभी उल्लेख किया है, उनमें से किनके स्वभाव में परिवर्तन हो सकता है? किस प्रकार का व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (अच्छी काबिलियत वाले लोग।) अच्छी काबिलियत वाले लोग सत्य वास्तविकता में थोड़ी तेजी से और गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं। औसत काबिलियत वाले लोग अपेक्षाकृत धीरे और सतही ढंग से प्रवेश कर पाते हैं। खराब काबिलियत वाले लोग इसमें बिल्कुल प्रवेश नहीं कर पाते। यही अंतर है। क्या तुम देख पा रहे हो कि लोग एक-दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं? (हाँ।) उनमें अंतर कहाँ है? उनके बीच का अंतर उनकी काबिलियत और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण में है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और अच्छी काबिलियत वाले हैं वे सत्य वास्तविकता में शीघ्र प्रवेश कर लेते हैं और जीवन प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। औसत काबिलियत के लोग जिद्दी और संज्ञाशून्य होते हैं। सत्य में वे धीरे-धीरे प्रवेश करते हैं, और उनके जीवन की प्रगति भी धीमी होती है। खराब काबिलियत वाले लोग न केवल मूर्ख और अहंकारी होते हैं, बल्कि वे मूर्ख भी होते हैं, भावशून्य और निस्तेज चेहरों वाले; वे आत्मा के स्तर पर निश्चेत होते हैं, उनकी प्रतिक्रियाएं धीमी होती हैं, और वे सत्य को समझ पाने में धीमे होते हैं। ऐसे लोग जीवन से रहित हैं, क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते और सिद्धांतों के बारे में बात करने, नारे लगाने और विनियमों का पालन करने के अलावा कुछ नहीं करते। चूँकि वे सत्य को नहीं समझते हैं, इसलिए वे सत्य-वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। क्या सत्य-वास्तविकता में प्रवेश न कर पाने वाले उन लोगों के अंदर जीवन है? वे जीवन से रहित हैं। जब जीवन से वंचित लोगों के साथ कुछ घटित हो रहा होता है, तो वे अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं, आँख मूँद कर काम करते हैं, कभी एक दिशा में तो कभी दूसरी दिशा में भटकते हैं, उनके पास अभ्यास का सटीक मार्ग नहीं होता, और वे हमेशा संकोची और बेसहारा महसूस करते हैं। वे दया के पात्र लगते हैं। वर्षों से, मैंने लगातार कुछ लोगों को यह कहते सुना है कि जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो उन्हें पता नहीं होता कि उन्हें क्या करना चाहिए। इतने सारे उपदेश सुनने के बाद भी ऐसा कैसे हो सकता है? उनके हाव-भाव से लगता है कि उन्हें सचमुच कुछ समझ नहीं आ रहा है। उनके चेहरे भावशून्य और निस्तेज होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे संज्ञाशून्य कैसे कहा जा सकता है? मैं दुनिया में जो भी लोक प्रचलित है उसके प्रति बहुत संवेदनशील हूँ। मैं सभी तरह के कंप्यूटर, सेल फोन और गेम कंसोल का उपयोग करना जानता हूँ। तुम लोग मूर्ख हो और तुम उनका उपयोग करना नहीं जानते। तुम्हारी काबिलियत इतनी तुच्छ कैसे हो सकती है?” लेकिन उनकी यह थोड़ी-सी चतुराई एक कौशल भर है, जरा-सी होशियारी—इसे काबिलियत के रूप में नहीं देखा जाता है। यदि तुम उनसे उपदेश सुनने या सत्य पर संगति करने के लिए कहो, तो ये लोग उजागर हो जाते हैं : आत्मा के स्तर पर वे भयानक रूप से संज्ञाशून्य हैं। वे कितने संज्ञाशून्य हैं? वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन वे अभी भी इस बारे में अनिश्चित हैं कि उन्हें बचाया जाएगा या नहीं, और वे इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते, न ही वे इस बारे में साफ जानते हैं कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि अपनी काबिलियत के बारे में वे क्या सोचते हैं, तो वे कहेंगे, “मेरी काबिलियत अच्छी काबिलियत से थोड़ी कम है, लेकिन औसत काबिलियत से बहुत बेहतर है।” इससे पता चलता है कि उनकी काबिलियत कितनी खराब है। क्या यह थोड़ी मूर्खतापूर्ण बात नहीं है? जो लोग वास्तव में खराब काबिलियत के होते हैं, वे इस प्रकार की मूर्खता प्रकट करते हैं। चाहे जो मामला हो, यदि किसी चीज में सत्य या सिद्धांतों का समावेश है, तो वे उसके बारे में कुछ भी नहीं समझेंगे और उसके स्तर तक पहुँचने में अक्षम रहेंगे। खराब काबिलियत का होने का यही मतलब है।

अब जब हमने इन चीजों पर संगति कर ली है, तो क्या तुम यह माप सकोगे कि अच्छी काबिलियत क्या है और खराब काबिलियत क्या है? यदि तुम समझ सको कि अच्छी काबिलियत क्या है और खराब काबिलियत क्या है, तथा अपनी काबिलियत और अपने प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देख सको, तो इससे तुम्हें खुद को जानने में मदद मिलेगी। एक बार जब तुम्हें अपनी जगह का स्पष्ट अनुमान हो जाएगा, तो तुम्हारे पास थोड़ा विवेक होगा और तुम अपने माप को जान लोगे। तुम्हारे अहंकारी होने का खतरा नहीं होगा और अपना कर्तव्य निभाते समय तुम अधिक दृढ़ और सहज रहोगे। तुम अपनी नजर बहुत ऊंचे नहीं टिकाओगे और अपना उचित काम करने पर ध्यान दे पाओगे। जब लोग खुद को नहीं जानते तो बहुत परेशानी होती है। किस तरह की परेशानी? भले ही उनकी काबिलियत स्पष्ट रूप से औसत हो, वे हमेशा सोचते हैं कि उनकी काबिलियत अच्छी है, दूसरों से बेहतर है। उनके हृदय में हमेशा आवेग रहते हैं और वे हमेशा अगुआ के रूप में सेवा करते हुए दूसरों की अगुआई करना चाहते हैं। उनके हृदय में हमेशा ऐसी बातें रहती हैं, तो क्या इससे उनके कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ेगा? वे इन चीजों से लगातार परेशान रहते हैं, उनके हृदय सहज नहीं रहते, और वे शांत नहीं हो पाते हैं। वे न केवल अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से नहीं निभा सकते हैं, बल्कि वे कुछ मूर्खतापूर्ण, झेंप पैदा करने वाली चीजें और ऐसी विवेकहीन चीजें करते हैं जिनसे परमेश्वर को सख्त घृणा होती है। उन्हें ऐसी गंभीर समस्याएँ रहती हैं—अगर वे अनसुलझी रहें तो क्या यह ठीक होगा? निश्चित रूप से नहीं, इन लोगों को इनका समाधान करने के लिए सत्य को खोजना चाहिए। सबसे पहले, उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और इस पर गहन सोच-विचार करना चाहिए कि उनके मन में ऐसे विचार क्यों हैं, वे इतने महत्वाकांक्षी क्यों हैं, और ये चीजें कहाँ से आती हैं। यदि वे इन बातों पर केवल सरल तरीके से सोचेंगे, तो क्या वे समस्याओं के सार तक पहुँच पाएँगे? बिलकुल नहीं। समस्याओं की जड़ खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों को पढ़ना चाहिए—तभी उनके लिए इसे हल करना आसान होगा। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ तभी खत्म हो सकती हैं जब वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर लें। इस तरह, वे अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से निभाने में सक्षम होंगे और अधिक कर्तव्यनिष्ठ होंगे; वे अब बहुत इठलाएंगे नहीं, यह विश्वास नहीं करेंगे कि वे हर किसी से बेहतर हैं, या बहुत श्रेष्ठ होने का दिखावा नहीं करेंगे, और वे खुद को दूसरों से अलग नहीं मानेंगे। ये भ्रष्ट स्वभाव अब उन्हें परेशान नहीं करेंगे, और वे और अधिक परिपक्व हो जाएँगे। कम-से-कम, उनके पास संतों जैसी गरिमामय और सच्ची शिष्टता होगी। केवल इसी तरह से वे परमेश्वर के समक्ष जीना सुनिश्चित कर सकते हैं। जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर के घर आते हैं, तो उनमें कम-से-कम अंतरात्मा और विवेक होने चाहिए ताकि वे सत्य को स्वीकार कर सकें। यदि वे गैर-विश्वासियों जैसे हैं, जंगली जानवरों के समान हैं, तो वे परमेश्वर के सामने नहीं आ सकेंगे। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के सामने आने को ले कर इतना कठिन क्या है? मैं अक्सर परमेश्वर के सामने आता हूँ।” परमेश्वर के सामने आना कोई साधारण बात नहीं है। परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए तुम्हारे पास एक सही रवैया और परमेश्वर के प्रति समर्पणशील हृदय होना चाहिए। हिंस्र पशुओं जैसे लोग यदि परमेश्वर के सामने आएँगे, तो परमेश्वर निश्चय ही उनसे घृणा करेगा और नापसंद करेगा। इसलिए, परमेश्वर के सामने आना कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग सिर्फ खयाली पुलाव पका कर हासिल कर लें, ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मान लेगा कि तुम उसके सामने सिर्फ इसलिए आए क्योंकि तुम ऐसा करना चाहते हो। इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार परमेश्वर के हाथ में है। परमेश्वर के सामने तुम तभी आ सकोगे जब परमेश्वर तुम्हें अंगीकार करे। केवल जब तुम्हारे इरादे सही होंगे, तुम सत्य को खोजोगे और बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, तभी तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त कर सकोगे। वास्तव में केवल तभी तुम्हारा परमेश्वर के सामने आना होगा। यदि परमेश्वर कहे कि तुम एक अज्ञानी सामान्य व्यक्ति हो, जंगली जानवर हो, तो क्या वह तुम पर कोई ध्यान देगा? (नहीं।) परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा, वह तुम्हें केवल सतही चीजें ही देगा, जैसे थोड़ा-सा अनुग्रह और कुछ आशीष। वास्तविक अर्थों में तुम परमेश्वर के करीब नहीं पहुँच पाओगे या उसके सामने बिलकुल नहीं आ पाओगे। इसलिए, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में पहचाने, तुम्हें उस मुकाम तक पहुँचने के लिए कुछ बदलाव करने होंगे जहाँ परमेश्वर तुम्हें अपने घर के सदस्य के रूप में पहचाने। केवल तभी परमेश्वर तुम्हारे कर्तव्य की परीक्षा करना शुरू करेगा और तुम्हारे हर शब्द और कार्य, तुम्हारी हर सोच और विचार की परीक्षा करेगा, और तभी परमेश्वर तुम पर कार्य करना शुरू करेगा। परमेश्वर के घर की चौखट के भीतर कदम रखने से पहले, कुछ लोगों के व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ, उनकी मानवता के खुलासे, उनके अभ्यास, उनकी सोच और विचार, और परमेश्वर के प्रति उनके रवैए ऐसे होते हैं जिनसे परमेश्वर को सख्त घृणा होती है, और घिन आती है। क्या जो लोग परमेश्वर को घृणास्पद और अप्रिय लगते हैं, वह उन्हें हाथ पकड़ कर अपने घर के द्वार से भीतर ले जाएगा? (वह ऐसा नहीं करेगा।) तो फिर ऐसे कुछ लोग इतने प्रसन्न और खुश क्यों होते हैं? यह भावना कहाँ से आती है? दिखावे से। क्या इसमें विवेक का थोड़ा अभाव नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर—सृष्टिकर्ता—के पास निश्चित ही अपने अनुयायियों को चुनने के मानक हैं। लोगों के लिए सिर्फ विश्वास रखना ही काफी नहीं है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और वह उन लोगों को आशीष देता है जो ईमानदारी से उसके लिए स्वयं को खपाते हैं। परमेश्वर उनका उपयोग करता है जो उसे उत्कार्षित कर उसकी गवाही दे सकते हैं। लोगों के लिए परमेश्वर के मानक मनुष्य के मानकों से भिन्न होते हैं। जब तुम साथ जोड़ने के लिए कोई मित्र चुनते हो, तो तुम्हें उनके चरित्र पर विचार करना होता है कि क्या वे तुम्हारी पसंद के अनुरूप हैं, उनका व्यक्तित्व कैसा है, क्या उनके शौक तुम्हारे शौकों से मेल खाते हैं, और वे देखने में कैसे हैं। तुम्हारे पास भी लोगों को चुनने के मानक हैं, तो फिर परमेश्वर का क्या? कुछ लोग कहते हैं, “लोगों को चुनने के लिए परमेश्वर किस मानक का उपयोग करता है? क्या परमेश्वर के पास जाना इतना कठिन है? क्या लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आना और परमेश्वर के घर के द्वार में प्रवेश करना इतना कठिन है?” वास्तव में, यह मुश्किल नहीं है, मानक स्तर बहुत ऊंचा नहीं है, लेकिन मानक अवश्य हैं। सबसे पहले, लोगों को कम-से-कम पवित्र रवैया रखना चाहिए और अपनी जगह को जानना चाहिए। इसके अलावा, उन्हें ईमानदार और विशुद्ध हृदय से परमेश्वर के पास जाना चाहिए। साथ ही, उन्हें जो कुछ भी करना और कहना हो उसमें संतों जैसी शिष्टता बरतनी चाहिए, और उनके पास कम-से-कम कुछ अच्छे शब्द और कर्म, शिष्टाचार और पालन-पोषण होना चाहिए। यदि तुम इन बुनियादी शर्तों को भी पूरा नहीं करते हो, तो ईमानदारी से कहा जाए, तो परमेश्वर तुम पर जरा भी ध्यान नहीं देगा। क्या तुम जानते हो कि यहाँ क्या हो रहा है? जब परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोगों की बात आती है, तो देखो कि वे क्या करते हैं, वे कैसी अभिव्यक्ति दर्शाते हैं और क्या प्रकट करते हैं। वे परमेश्वर को इतने घृणास्पद और अप्रिय क्यों लगते हैं? इसलिए कि इन लोगों में कोई मानवता नहीं है, जमीर और विवेक नहीं हैं, और उनमें सबसे बुनियादी और मौलिक पवित्र शालीनता भी नहीं है। इस तरह के लोग चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें हाथ पकड़कर अपने घर के दरवाजे से भीतर ले जाए, लेकिन यह असंभव है। केवल मूर्ख ही ऐसे लोगों को सुसमाचार सुनाएँगे जिनमें मानवता की कमी हो। कुछ लोग अपने दैनिक जीवन में भारी मेकअप करते हैं और शरीर दिखाने वाले कपड़े पहनते हैं। वे गैरविश्वासियों के बीच नाचने वाली लड़कियों से भी अधिक लुभावने ढंग से कपड़े पहनते हैं। उनके निजी जीवन और आचरण में, तुम यह नहीं देख सकते कि वे गैर-विश्वासियों से किस प्रकार भिन्न हैं। जब वे भाई-बहनों के बीच होते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की तरह दिखते हैं। ऐसे लोग बाहर से सच्चे आस्तिक लग सकते हैं; हो सकता है कि उन्होंने चीजों का त्याग किया हो, वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम हों और उनमें से कुछ लोग उत्पीड़न और क्लेशों का सामना करने पर पीछे न हटें, लेकिन क्या ऐसे लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकते हैं? वे जिन चीजों के साथ जीवन यापन करते हैं, उनके आधार पर क्या वे प्रतिष्ठित और ईमानदार लोग माने जा सकते हैं? क्या वे ईमानदार लोग हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाते हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को चाहता है? कतई नहीं। ये गैर-विश्वासी हैं जो चोरी-छिपे परमेश्वर के घर तक पहुँच गए हैं। वे परमेश्वर के घर की चौखट के बाहर हैं और अभी तक भीतर नहीं घुस पाए हैं। परमेश्वर के घर के लिए किए उनके काम सहायक और कठोर श्रमसाध्य हैं—ये कलीसिया के मित्र हैं, लेकिन परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं हैं। परमेश्वर गैर-विश्वासियों या जंगली जानवरों को नहीं चाहता। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो परमेश्वर में अपने कई वर्षों के विश्वास, अपनी पूंजी और अतीत में निभाए गए महत्वपूर्ण कर्तव्यों के आधार पर कलीसिया का नियंत्रण और सारे प्राधिकार पाने की चाह में परमेश्वर के घर में रोब जमा कर दबाव डालते रहते हैं। परमेश्वर और सत्य के प्रति इन लोगों का रवैया परमेश्वर के लिए घृणास्पद होता है। उनके सार और उनके हृदय की गहराई में बैठी चीजों के आधार पर, परमेश्वर ऐसे लोगों को अपने घर के सदस्यों के रूप में स्वीकार नहीं करता है। परमेश्वर जब ऐसे लोगों को अपने घर के सदस्य के रूप में स्वीकार नहीं करता, तो उन्हें अपने घर में काम करने की अनुमति क्यों देता है? परमेश्वर उन्हें मदद करने या अस्थायी काम करने की अनुमति देता है। मदद करने और अस्थायी कार्य करने की प्रक्रिया में यदि उनके पास वास्तव में जमीर और विवेक हैं, यदि वे सुन सकते हैं, समर्पण कर सकते हैं और सत्य को स्वीकार सकते हैं, और यदि उनमें संतों जैसी शिष्टता और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तथा वे सच्चे हृदय से काम कर सकते हैं, और यदि वे इन सब परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं, तो परमेश्वर उन्हें अपने घर में ले जाएगा और वे परमेश्वर के घर के सदस्य बन जाएँगे। इस समय, वे जो कार्य करते हैं और जो कार्य परमेश्वर उन्हें सौंपता है, वे उनके कर्तव्य बन जाएँगे। परमेश्वर के घर के बाहर लोग जो कुछ भी करते हैं वह कोई कर्तव्य निभाना नहीं है, वह परमेश्वर के घर के लिए काम करना और उसकी मदद करना है, और ये लोग श्रमिक हैं।

अब, क्या तुम लोग माप सकते हो कि तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो या नहीं? अगर तुम परमेश्वर में अपने विश्वास रखने की अवधि के आधार पर निर्णय लो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर का सदस्य होना चाहिए, लेकिन क्या मापन का यह तरीका बिलकुल सही है? (नहीं।) तुम्हें मापन के लिए किस आधार का उपयोग करना चाहिए? यह मापन इस पर आधारित है कि सत्य सुनने पर क्या तुम्हारे भीतर कोई प्रतिक्रिया होती है, क्या सत्य का उल्लंघन करने पर या परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके विरुद्ध विद्रोह करने पर तुम अपने हृदय की गहराई में में खुद को दोषी, फटकारा गया और अनुशासित किया गया महसूस करते हो। कुछ लोगों को आलोचनात्मक शब्द बोलने के बाद मुँह में छाले हो जाने के रूप में अनुशासित किया जाता है; कुछ दूसरे लोग बेपरवाही से काम करते हैं, चीजों को गंभीरता से नहीं लेते, तो परमेश्वर उन्हें बीमार कर देता है। इन बातों का उल्लेख करने पर यदि ये लोग अंदर से पछतावा महसूस करते हैं और पश्चात्ताप कर सकते हैं—यदि वे ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं—तो वे परमेश्वर के घर के सदस्य हैं। परमेश्वर इन लोगों को अपने घर और अपने ही परिवार का सदस्य मानता है। वह उन्हें ताड़ना देता है, अनुशासित करता है, डाँटता है, और उनकी काट-छाँट करता है—परमेश्वर के घर का सदस्य होने का यही मतलब है। जब परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया बदल जाए और तुम पश्चात्ताप कर सको, तो परमेश्वर भी तुम्हारे प्रति अपना रवैया बदल देगा। जब तुम जीवन में प्रवेश कर लो, चीजों पर तुम्हारी सोच और तुम्हारे जीवन की दिशा में कुछ बदलाव आ चुके हों, और तुम्हारे हृदय की गहराई में परमेश्वर के प्रति आस्था और भय धीरे-धीरे विकसित और रूपांतरित हो चुका हो, तो तुम परमेश्वर के घर का हिस्सा बन जाओगे। कुछ लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हैं, लेकिन उन्होंने परमेश्वर के घर को फायदा पहुँचाने वाला कुछ खास काम नहीं किया है। वास्तव में उन्होंने बहुत से बुरे काम किए हैं। उन्होंने झूठ बोला है, धोखा दिया है, बेपरवाही से काम किया है, मनमाने और एकतरफा ढंग से काम किया है, चढ़ावे चुराए हैं, कलह पैदा की है, विघ्न और बाधाएं पैदा की हैं और कलीसिया का काम नष्ट किया है। उन्होंने बहुत-से गलत काम किए हैं, परन्तु उन्हें कभी भी भर्त्सना का अनुभव नहीं किया है। उनके हृदय में कोई पश्चात्ताप नहीं है, और उनमें अपराधबोध की थोड़ी-सी भी भावना नहीं है। ये वे लोग हैं जो परमेश्वर के घर के द्वार के बाहर खड़े रहते हैं। इस तरह के लोग हमेशा परमेश्वर के घर के द्वार के बाहर जीते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और परमेश्वर के वचनों या सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं होती। वे केवल दिया गया काम करने, दौड़ने-भागने, मेहनत करने, दिखावा करने और निजी पूँजी जमा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कलीसिया के काम और अपने कर्तव्यों की बात हो, तो वे बेपरवाही से काम करते हैं; वे परमेश्वर से झूठ बोलते हैं और उसे धोखा देते हैं, यहाँ तक कि वे भाई-बहनों को भी गुमराह और नियंत्रित करते हैं। वे थोड़ी-सी भी फटकार या पछतावा महसूस नहीं करते, और वे परमेश्वर का अनुशासन भी महसूस नहीं करते। ये लोग परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हैं। इस तरह के लोग बाहर से दौड़-भाग करने और खुद को खपाने में बहुत उत्साह दिखाते हैं; जताते हैं कि उनमें बहुत आस्था है और वे खुद को खपाने को तैयार हैं। ऐसा लगता है जैसे वे सत्य से वाकई प्रेम करते हैं, परमेश्वर से प्रेम करते हैं और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हैं। परंतु, जैसे ही वे धर्मोपदेश सुनते हैं, उन्हें नींद आ जाती है, वे स्थिर नहीं बैठ पाते और प्रतिकर्षित महसूस करते हैं। अपने हृदय में वे सोचते हैं, “क्या इन चीजों पर संगति करना केवल लोगों की स्थिति को इंगित करना नहीं है, लोगों से अपने आप को जानने के लिए कहना, और उन्हें थोड़ा सत्य समझाना और अंततः समर्पण हासिल करवाना नहीं है? मैं ये सब समझता हूँ, तो इस पर फिर से संगति क्यों की जाए?” ये लोग सत्य से जरा भी प्रेम नहीं करते, उसे पसंद नहीं करते, उन्हें कोई भर्त्सना महसूस नहीं होती, कोई अनुशासन प्राप्त नहीं करते, मानो वे बिलकुल हृदयहीन हों। ये सभी लोग परमेश्वर के घर से बाहर हैं। वे गैर-विश्वासी हैं। परमेश्वर के कार्य को पहली बार स्वीकार करने से लेकर आज तक, उन्होंने कभी वास्तव में यह नहीं स्वीकारा कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर उनका सृष्टिकर्ता है। वे सत्य को सुई भर भी स्वीकार नहीं करते और स्वेच्छा से अपने कर्तव्य नहीं निभाते। परंतु, क्योंकि उनमें थोड़ी चालाक समझदारी और कुछ उत्साह के साथ-साथ महत्वाकांक्षा भी होती है, इसलिए वे हर जगह दौड़ने और काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें और वे परमेश्वर के घर में अपने लिए एक स्थान बना सकें। वे सोचते हैं, “इन कार्यों को करके और इस तरह भाग-दौड़ कर, मैंने विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता अर्जित की है। मैंने कलीसिया में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है, और मैं जहाँ भी जाता हूँ, भाई-बहन मुझे आदर की दृष्टि से देखते हैं। भाई-बहनों के बीच इतनी प्रतिष्ठा होना काफी है; इसका अर्थ है कि मेरे पास जीवन है। जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर इसे कैसे परिभाषित करेगा, तो इस ओर बहुत ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है।” ये किस तरह के लोग हैं? खरी बात कहें, तो वे छद्म-विश्वासी लोग हैं। ऐसा कहने का आधार क्या है? इसका आधार है सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया। उन्होंने कभी पश्चात्ताप नहीं किया, कभी स्वयं को नहीं जाना, और कभी नहीं जान पाए कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना क्या है। इसके बजाय, वे जो जी में आए वही करते हैं, अपने कर्तव्य निर्वहन के नाम पर निजी प्रबंधन में लगे रहते हैं और अपनी इच्छाओं तथा प्राथमिकताओं को पूरा करते हैं। उन्होंने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन उनके मन में सत्य की कोई संकल्पना नहीं है, और उनके मन में यह संकल्पना भी नहीं है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए सत्य का अभ्यास करना आवश्यक है। इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे अब तक नहीं समझ पाए हैं कि वास्तव में रास्ता किस चीज के बारे में है। अपने दिल की गहराइयों में वे नहीं महसूस करते कि मनुष्य अत्यंत भ्रष्ट है और उसे परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। उनके हृदय की गहराई में सत्य और परमेश्वर के लिए सच्ची इच्छा और तड़प भी नहीं होती। क्या यह समस्याजनक बात नहीं है? (हाँ, है।) यह बहुत समस्याजनक बात है। उनके लिए परमेश्वर, सत्य और उद्धार केवल शब्दों के खेल हैं, एक तरीके के तर्क या नारे मात्र हैं। यह बहुत समस्याजनक स्थिति है।

तुम लोग पौलुस और पतरस के बीच सबसे स्पष्ट अंतर क्या देखते हो? पौलुस ने कई वर्षों तक काम किया, यात्राएं कीं, खुद को खपाया, योगदान दिया और बहुत सारी पीड़ाएं सहन कीं, लेकिन जिस मार्ग पर वह चला उसमें सत्य शामिल नहीं था, परमेश्वर के प्रति समर्पण शामिल नहीं था, स्वभाव में बदलाव शामिल नहीं था और बचाया जाना भी निश्चित रूप से शामिल नहीं था। इसलिए, पौलुस की प्रतिष्ठा चाहे जितनी ऊंची हो, उसके लेखन ने बाद की पीढ़ियों को चाहे जितना प्रभावित किया हो, वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने वास्तव में प्रभु यीशु से प्यार किया हो। उसे प्रभु यीशु की सच्ची समझ नहीं थी, उसने प्रभु यीशु को सच्चे परमेश्वर के रूप में स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे केवल परमेश्वर के पुत्र के रूप में, एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, स्वीकार किया। परिणामस्वरूप, वह प्रभु यीशु के प्रति सच्चा समर्पण रखने वाला नहीं था; उसने सुसमाचार फैलाने और लोगों को अपने पक्ष में करने, और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने की आशा में कलीसियाओं की स्थापना करने और व्यक्तिगत रूप से उनकी देखभाल करने के क्रम में वह सब कुछ किया जो वह कर सकता था, लेकिन परमेश्वर ने पौलुस के हृदय की सूक्ष्म जांच की और उसे अस्वीकार कर दिया। इसके विपरीत, पतरस ने चुपचाप काम किया और उसका हृदय हमेशा उन बातों से भरा रहा जो प्रभु यीशु ने उससे कही थीं। उसने प्रभु यीशु की अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर से प्रेम करने और उसे समझने का प्रयास किया। इस दौरान, उसने परमेश्वर की झिड़कियाँ, काट-छाँट और यहाँ तक कि डाँट-फटकार भी स्वीकार की। पतरस को डाँटने के लिए परमेश्वर ने किन वचनों का प्रयोग किया था? (“शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” (मत्ती 16:23)।) बिलकुल ठीक, “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” परमेश्वर ने ऐसे वचन बोले, लेकिन इन वचनों ने पतरस के परिणाम का निर्धारण नहीं किया, वे केवल फटकार के वचन थे। क्या परमेश्वर ने पौलुस को उसके काम के दौरान डाँटा था? (नहीं।) व्यक्तिपरक कारकों को देखें तो, एक लिहाज से, परमेश्वर ने उसे नहीं डाँटा। दूसरे लिहाज से, वस्तुनिष्ठ कारकों के दृष्टिकोण से, पौलुस ने सत्य को स्वीकार नहीं किया, सत्य को नहीं खोजा, और उद्धार का मार्ग तो बिल्कुल भी नहीं खोजा, इसलिए वह इन चीजों को नहीं पा सका या इनका अनुभव नहीं कर सका। परमेश्वर ने उस पर जो कार्य किया, वह था उसकी सेवाओं का उपयोग करना—यदि कोई भी बड़ी बुराई किए बिना वह अंत तक श्रम कर पाता, तो वह श्रमिक बना रह सकता था; किंतु, यदि वह कोई बड़ा बुरा काम करता, तो परिणाम अलग होता। यही अंतर है। दूसरी ओर, पतरस को परमेश्वर से बहुत अनुशासन, ताड़ना और फटकार मिली। बाहर से ऐसा लगेगा कि पतरस परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था, वह परमेश्वर को नाखुश करता था, लेकिन परमेश्वर के इरादों के परिप्रेक्ष्य से, ऐसा व्यक्ति बिलकुल वैसा ही था जिसे परमेश्वर चाहता था और जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता था। इसीलिए परमेश्वर उसे लगातार ताड़ना देता था और उसकी काट-छाँट करता था, ताकि धीरे-धीरे वह बड़ा हो, सत्य में प्रवेश करे, और परमेश्वर के इरादों को समझे, और अंततः सच्चा समर्पण और सच्चा परिवर्तन प्राप्त कर सके। यह परमेश्वर का प्रेम और परमेश्वर का उद्धार था।

क्या अब तुम लोगों के हृदय में स्पष्ट हुआ कि तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो या नहीं? क्या तुमने सचमुच परमेश्वर के घर में प्रवेश किया है? मैंने अभी जो संगति की, उसके आधार पर क्या तुम लोग इसे माप सकते हो? क्या तुम आश्वस्त हो सकते हो कि तुम परमेश्वर के घर के द्वार से भीतर आ गए हो और परमेश्वर के घर के सदस्य हो? (हमें यकीन है।) यह अच्छी बात है कि तुम सुनिश्चित हो सकते हो। यह इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर में तुम लोगों के विश्वास की एक नींव पहले से ही है, और तुमने परमेश्वर के घर में जड़ें जमा ली हैं। जिनके पास नींव नहीं है वे परमेश्वर के घर के बाहर हैं, और परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता। तब क्या होगा जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही दो और दूसरों को बताओ कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के सदस्य हो, लेकिन परमेश्वर कहे कि वह तुम्हें नहीं जानता? यह एक समस्या होगी, है ना? यह लोगों के लिए वरदान होगा या अभिशाप? यह अच्छा संकेत नहीं है। इसलिए, यदि तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हो और कहते हो कि तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखते हो, तो तुम्हें कुछ ऐसे काम करने होंगे जिनसे परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ हो, कुछ अच्छे कर्म तैयार करो, अपने हृदय को परमेश्वर की ओर निर्देशित करो, और ऐसा हृदय विकसित करो जो परमेश्वर को महान मान कर उसका सम्मान करता हो। केवल तभी परमेश्वर तुम्हें स्वीकार करेगा। पहले तुम्हें परमेश्वर और सत्य के संबंध में अपने विचारों, रवैयों और अभ्यासों में त्रुटियों को दूर करना होगा, साथ ही तुमने जो गलत रास्ता अपनाया है उसे बदलना होगा। इन चीजों को बदलना ही होगा। यही नींव है। फिर तुम्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार करना होगा और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करना होगा। जब ये चीजें हासिल हो जाएँगी, तो परमेश्वर संतुष्ट हो जाएगा और वह तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकार करेगा। दूसरी बात यह कि, तुम्हें चाहिए कि परमेश्वर को धीरे-धीरे तुम्हें मानक पर खरे उतरने वाले सच्चे सृजित प्राणी के रूप में स्वीकार करने दो। यदि तुम अभी भी परमेश्वर के घर से बाहर हो और परमेश्वर ने अभी तक तुम्हें अपने घर के सदस्य के रूप में स्वीकार नहीं किया है, लेकिन तुम कहते हो कि तुम्हारी चाह बचाए जाने की है, तो क्या यह किसी मूर्ख का सपना भर नहीं है? अब तुम लोगों ने थोड़ी ताड़ना और अनुशासन का अनुभव कर लिया है, परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पा लिया है और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था की नींव तैयार हो चुकी है। यह अच्छी बात है। अगला कदम सत्य की समझ के आधार पर जीवन प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम होना, इन सत्यों को अपने जीवन में लाना और उन्हें जीना और अपने कर्तव्य निर्वाह में और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपी गई सभी चीजों में उन्हें लागू करना है। तब तुम उद्धार की आशा कर सकोगे। तुममें से ज्यादातर लोग खराब काबिलियत वाले नहीं हैं, तुम सभी को औसत काबिलियत वाला माना जा सकता है। तुम्हारे उद्धार की आशा है, लेकिन तुम सभी की मानवता में कुछ कमियाँ और दोष हैं। तुममें से कुछ आलसी हैं, कुछ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, कुछ अहंकारी हैं, और कुछ थोड़े सुस्त, सुन्न और अड़ियल हैं। ये स्वभाव के मामले हैं। मानवता और स्वभाव की कुछ समस्याओं के लिए तुम्हें अनुभव के माध्यम से सत्य की खोज करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, और उत्तरोत्तर परिवर्तन का अनुभव करने और सत्य की अपनी गहन समझ और समझ के संबंध में अनुभव और गहराई लाने के लिए काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह तुम धीरे-धीरे जीवन में आगे बढ़ते जाओगे। जीवन से मनुष्य को आशा होती है। जीवन के बिना कोई आशा नहीं होती। क्या अब तुम लोगों के पास जीवन है? क्या तुम्हारे हृदय में सत्य की समझ और अनुभव है? तुम परमेश्वर के प्रति कितना और किस हद तक समर्पण करते हो? तुम लोगों को अपने हृदय में इन चीजों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम स्पष्ट नहीं, बल्कि भ्रमित हो, तो जीवन विकास पाने में कठिनाई होगी।

कलीसिया में ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि बड़ा प्रयास करने या कुछ जोखिम भरे काम करने का मतलब है कि उन्होंने योग्यता अर्जित कर ली है। तथ्यतः, अपने कार्यों के अनुसार वे वास्तव में प्रशंसा के योग्य हैं, लेकिन सत्य के प्रति उनका स्वभाव और रवैया घृणित और बिलकुल अस्वीकार्य है। उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, बल्कि वे सत्य से विमुख हैं। यही बात उन्हें घृणास्पद बना देती है। ऐसे लोग बेकार होते हैं। जब परमेश्वर देखता है कि लोग तुच्छ क्षमता के हैं, कि उनमें कुछ कमियाँ हैं, और उनमें भ्रष्ट स्वभाव या एक ऐसा सार है जो परमेश्वर का विरोध करता है, तो उसे उनसे कोई विकर्षण नही होता, और वह उन्हें अपने से दूर नहीं रखता। परमेश्वर का ऐसा इरादा नहीं है, और न ही यह इंसान के प्रति उसका दृष्टिकोण है। परमेश्वर लोगों की तुच्छ क्षमता को नापसंद नहीं करता, वह उनकी मूर्खता को नापसंद नहीं करता, और वह इस बात को भी नापसंद नहीं करता कि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। लोगों में वह क्या चीज है, जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नापसंद करता है? वह है उनका सत्य से विमुख होना। अगर तुम सत्य से विमुख हो, तो केवल इसी एक कारण से, परमेश्वर कभी भी तुमसे खुश नहीं होगा। यह बात पत्थर की लकीर है। अगर तुम सत्य से विमुख हो, अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया परवाह न करने वाला, तिरस्कारपूर्ण और अहंकारी, यहाँ तक कि ठुकराने, प्रतिरोध करने और नकारने का है—अगर तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो परमेश्वर तुमसे बिलकुल निराश है, और तुम मृतप्राय हो और बचाए नहीं जाओगे। अगर तुम वास्तव में अपने दिल में सत्य से प्रेम करते हो, लेकिन कुछ हद तक कम क्षमता वाले हो और तुममें अंतर्दृष्टि की कमी है, और तुम थोड़े मूर्ख हो; अगर तुम अक्सर गलतियाँ करते हो, लेकिन बुराई करने का इरादा नहीं रखते, और तुमने बस कुछ मूर्खतापूर्ण काम किए हैं; अगर तुम सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनने के दिल से इच्छुक हो, और तुम सत्य के लिए दिल से लालायित हो; अगर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदारी और ललक भरा रवैया अपनाते हो, और तुम परमेश्वर के वचन बहुमूल्य समझकर सँजो सकते हो—तो यह काफी है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। भले ही तुम कभी-कभी थोड़ी मूर्खता करते हो, परमेश्वर तुम्हें फिर भी पसंद करता है। परमेश्वर तुम्हारे दिल से प्रेम करता है, जो सत्य के लिए तरसता है, और वह सत्य के प्रति तुम्हारे ईमानदार रवैये से प्रेम करता है। तो, तुम पर परमेश्वर की दया है और वह तुम पर हमेशा अनुग्रह कर रहा है। वह तुम्हारी खराब क्षमता या तुम्हारी मूर्खता पर विचार नहीं करता, न ही वह तुम्हारे अपराधों पर विचार करता है। चूँकि सत्य के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण सच्चा और उत्सुकता भरा है, और तुम्हारा हृदय सच्चा है, इसलिए तुम्हारे हृदय की सच्चाई और इस रवैये का ध्यान रखते हुए वह हमेशा तुम्हारे प्रति दयालु रहेगा—और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और तुम्हें उद्धार की आशा होगी। दूसरी ओर, यदि तुम दिल के कठोर और विलासी हो, अगर तुम सत्य से विमुख हो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य से जुड़ी किसी भी चीज पर कभी ध्यान नहीं देते, और अपने दिल की गहराइयों से प्रतिपक्षी और तिरस्कारपूर्ण हो, तो फिर तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा होगा? सख्त नापसंदगी, विकर्षण, और निरंतर क्रोध का। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में कौन-सी दो विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं? प्रचुर दया और गहरा क्रोध। “प्रचुर दया” में “प्रचुर” का अर्थ यह होता है कि परमेश्वर की दया सहिष्णु, धैर्यवान, सहनशील है, और यही सबसे बड़ा प्रेम है—“प्रचुर” का यही अर्थ होता है। चूँकि लोग मूर्ख और तुच्छ क्षमता के होते हैं, परमेश्वर को इसी तरह कार्य करना पड़ता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, लेकिन मूर्ख और खराब काबिलियत के हो, तो परमेश्वर का रवैया तुम्हारे प्रति अगाध दया का होता है। दया में क्या शामिल है? धैर्य और सहनशीलता : परमेश्वर तुम्हारी अज्ञानता के प्रति सहनशील और धैर्यवान है, वह तुम्हारे समर्थन के लिए, तुम्हारा भरण-पोषण करने के लिए और तुम्हारी मदद करने के लिए पर्याप्त आस्था और सहनशीलता देता है, ताकि तुम थोड़ा-थोड़ा करके सत्य को समझ सको और धीरे-धीरे परिपक्व हो सको। यह किस आधार पर बना है? यह किसी के प्रेम और सत्य के लिए तड़प, तथा परमेश्वर, उनके शब्दों और सत्य के प्रति उनके ईमानदार रवैये के आधार पर बना है। ये बुनियादी व्यवहार हैं जो लोगों में अभिव्यक्त होने चाहिए। लेकिन अगर कोई हृदय में सत्य से विमुख है, उससे दूर भागता है, या यहां तक कि सत्य से घृणा करता है, अगर वह सत्य को कभी गंभीरता से नहीं लेता, और हमेशा अपनी उपलब्धियों के बारे में बात करता है, कि उसने कैसे काम किया है, उसके पास कितना अनुभव है, वह किन-किन स्थितियों से गुजर चुका है, कि परमेश्वर उसे कितना महत्व देता है और उसे कितने बड़े काम सौंपे हैं—यदि वह केवल इन चीजों, अपनी योग्यताओं, उपलब्धियों और अपनी प्रतिभाओं के बारे में ही बात करता है, दिखावा करता है, और कभी भी सत्य पर संगति नहीं करता, परमेश्वर की गवाही नहीं देता, या परमेश्वर के कार्य के अनुभव या परमेश्वर के बारे में उसके ज्ञान पर संगति नहीं करता, तो क्या वह सत्य से विमुख नहीं हैं? सत्य से विमुख होना और सत्य से प्रेम न करना इसी प्रकार अभिव्यक्त होता है। कुछ लोग कहते हैं, “यदि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता तो धर्मोपदेश कैसे सुनता?” क्या हर कोई जो उपदेश सुनता है वह सत्य से प्रेम करता है? कुछ लोग सिर्फ दिखावा करते हैं। वे दूसरों के सामने नाटक करने के लिए मजबूर होते हैं, इस डर से कि अगर वे कलीसिया के जीवन में भाग नहीं लेंगे, तो परमेश्वर का घर उनकी आस्था को स्वीकार नहीं करेगा। सत्य के प्रति इस दृष्टिकोण को परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं। उनके स्वभाव में एक चीज है जो सबसे घातक है, अहंकार और धोखे से भी अधिक घातक है, और वह है सत्य से विमुख होना। परमेश्वर यह देखता है। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हुए, वह ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? वह उनसे क्रुद्ध होता है। यदि परमेश्वर किसी से क्रुद्ध है, तो कभी-कभी वह उन्हें डाँटता है, या उन्हें अनुशासित और दंडित करता है। यदि वे जानबूझकर परमेश्वर का विरोध नहीं करते हैं, तो वह सहिष्णु होगा, प्रतीक्षा करेगा और प्रेक्षण करेगा। स्थिति या अन्य वस्तुनिष्ठ कारणों से परमेश्वर इस छद्म-विश्वासी का उपयोग सेवा करने वाले के रूप में कर सकता है। लेकिन जैसे ही परिवेश अनुमति देगा और समय सही आएगा, वैसे ही इन लोगों को परमेश्वर के घर से बाहर निकाल दिया जाएगा, क्योंकि वे सेवा प्रदान करने के योग्य भी नहीं हैं। परमेश्वर का प्रकोप ऐसा होता है। परमेश्वर इतना प्रचंड क्रोध क्यों करता है? यह सत्य से विमुख लोगों के प्रति परमेश्वर की अत्यधिक घृणा को व्यक्त करता है। परमेश्वर का प्रचंड क्रोध इसका संकेत है कि उसने सत्य से विमुख ऐसे लोगों का परिणाम और गंतव्य परिभाषित कर दिया है। परमेश्वर इन लोगों को कहाँ वर्गीकृत करता है? परमेश्वर उन्हें शैतान के खेमे में रखता है। क्योंकि वह उन पर क्रोधित है और उनसे चिढ़ा हुआ है, इसलिए परमेश्वर उनके लिए दरवाजे बंद कर देता है, वह उन्हें परमेश्वर के घर में पैर रखने की अनुमति नहीं देता है, और उन्हें बचाए जाने का मौका नहीं देता है। यह परमेश्वर के क्रोध की एक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर उन्हें शैतान, घिनौने राक्षसों और बुरी आत्माओं के स्तर पर, छद्म-विश्वासियों के स्तर पर रखता है और जब समय सही होगा, तो वह उन्हें निकाल देगा। क्या यह उनसे निपटने का एक तरीका नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर का क्रोध ऐसा ही है। और, एक बार जब उन्हें निकाल दिया जाएगा तो उनका क्या होगा? क्या उन्हें फिर कभी परमेश्वर की कृपा और आशीष, और परमेश्वर के उद्धार का आनंद मिल सकेगा? (नहीं।) अनुग्रह के युग में लोग अक्सर कुछ इस तरह की बात करते थे कि “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” अधिकांश लोग इन वचनों का अर्थ समझ सकते हैं। भ्रष्ट मानवजाति को बचाने में यह परमेश्वर की भावना और रवैया है। लेकिन परमेश्वर मानवजाति को कैसे बचाता है? क्या वह पूरी मानवजाति को बचाता है या उसके केवल एक हिस्से को? परमेश्वर किस भाग को बचाता है और किन लोगों को त्याग देता है? अधिकांश लोग इस मामले की तह तक नहीं पहुंच पाते। लोगों से वे केवल धर्मसिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं। “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” ऐसे बहुत-से लोग हैं जो यह बात कहते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के इरादों को बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। वास्तव में, परमेश्वर केवल उन्हीं को बचाने का इरादा रखता है जो सत्य से प्रेम करते हैं और जो उसके उद्धार को स्वीकार कर सकते हैं। जो लोग सत्य से विमुख हैं और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, वे परमेश्वर को नकारने वाले और उसका प्रतिरोध करने वाले लोग हैं। न केवल परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा, बल्कि वह अंततः इन लोगों को नष्ट भी कर देगा। यद्यपि जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे जानते हैं कि उसका प्रेम अनंत, अतुलनीय रूप से विशाल और शक्तिशाली है, किंतु परमेश्वर उन लोगों को यह अनुग्रह और प्रेम देने को तैयार नहीं हैं जो सत्य से विमुख हैं। परमेश्वर इन लोगों को अपना प्रेम और उद्धार ऐसे ही नहीं देगा। यह परमेश्वर का रवैया है। जो लोग सत्य से विमुख हैं और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार नहीं करते, वे भोजन की तलाश में निकले भिखारी की तरह हैं—वे चाहे जिससे भी भोजन की भीख मांगें, उनके दिल में न केवल दानदाताओं के प्रति सम्मान का अभाव होता है, बल्कि उपहास और घृणा भी होती है। वे तो अपने पर उपकार करने वालों की संपत्तियाँ भी छीन लें। क्या कोई दानदाता ऐसे भिखारी को भोजन देने को तैयार होगा? निश्चय ही नहीं, क्योंकि वे वास्तव में दया के पात्र नहीं हैं, बल्कि अत्यधिक घृणास्पद हैं। ऐसे किसी व्यक्ति के प्रति दानदाता का रवैया क्या होता है? वे ऐसे किसी भिखारी को खाना देने की बजाय कुत्ते को खाना देना पसंद करेंगे। वास्तव में वे ऐसा ही महसूस करते हैं। तुम लोगों के विचार में किस तरह के लोग सत्य से विमुख होते हैं? क्या वे वो लोग होते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करते हैं? हो सकता है कि वे खुलकर परमेश्वर का विरोध न करें, लेकिन उनका प्रकृति-सार परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाला होता है, जो परमेश्वर से खुले तौर पर यह कहने के समान है, “मुझे तुम्हारी बातें सुनना पसंद नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करता, और चूँकि मैं नहीं मानता कि तुम्हारे वचन सत्य हैं, इसलिए मैं तुम पर विश्वास नहीं करता। मैं उस पर विश्वास करता हूँ, जो मेरे लिए फायदेमंद और लाभकारी है।” क्या यह गैर-विश्वासियों का रवैया है? यदि सत्य के प्रति तुम्हारा यह रवैया है, तो क्या तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता नहीं रखते? और यदि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? नहीं बचाएगा। परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले सभी लोगों के प्रति परमेश्वर के कोप का यही कारण है। सत्य से विमुख ऐसे लोगों का सार परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखने का सार है। परमेश्वर ऐसे सार वाले लोगों को मनुष्य नहीं समझता। उसकी नजर में वे दुश्मन और दानव हैं। वह उन्हें कभी नहीं बचाएगा। अंत में, वे महाविपत्ति में डुबो दिए जाएँगे और नष्ट कर दिए जाएँगे। तुम लोग क्या कहते हो—यदि कोई भिखारी किसी दानदाता का दिया खाना खाता है और उसे ही डाँटता है, उसका उपहास करता है, खिल्ली उड़ाता है और यहां तक कि उस पर हमला भी करता है, तो क्या दानदाता उस भिखारी से नफरत करेगा? निश्चित रूप से। इस नफरत का कारण क्या है? (न केवल वह भिखारी उसे भोजन देने के लिए दानदाता के प्रति आभार नहीं महसूस करता, बल्कि इसके बजाय वह दानदाता का मजाक उड़ाता है, उपहास करता है और उस पर हमला करता है। ऐसे व्यक्ति के पास बिल्कुल कोई जमीर या विवेक, और कोई मानवता भी नहीं होती।) ऐसे भिखारी के प्रति दानदाता का रवैया क्या होना चाहिए? उसे चाहिए कि वह भिखारी को शुरू में दी गई चीजें वापस ले ले और फिर उसे बाहर निकाल दे। उसे इन चीजों को उस भिखारी को देने के बजाय कुत्तों या जंगली जानवरों को खिला देना चाहिए। यह वह परिणाम है जिसके लिए भिखारी खुद जिम्मेदार है। परमेश्वर के किसी व्यक्ति या किसी एक प्रकार के व्यक्तियों के प्रति इतना कुपित होने का एक कारण है। यह कारण परमेश्वर की प्राथमिकता से नहीं, बल्कि सत्य के प्रति उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से निर्धारित होता है। जब कोई व्यक्ति सत्य से विमुख हो जाता है, तो यह निस्संदेह उसकी उद्धार प्राप्ति के लिए घातक बात है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे माफ किया या नहीं किया जा सकता, यह व्यवहार का एक रूप या कुछ ऐसा नहीं है जो उनमें क्षणिक रूप से अभिव्यक्त हुआ हो। यह किसी व्यक्ति का स्वभाव सार है, और परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे अधिक चिढ़ता है। यदि तुम कभी-कभी सत्य से विमुख होने का भ्रष्टाचार प्रकट करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर जांच करनी चाहिए कि ये प्रकाशन सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी के कारण हैं या सत्य की समझ की कमी के कारण। इसकी खोज करने की आवश्यकता है, और उसके लिए परमेश्वर की प्रबुद्धता और सहायता की आवश्यकता है। यदि तुम्हारा स्वभाव सार ऐसा है कि तुम सत्य से विमुख हो, और तुम सत्य को कभी स्वीकार नहीं करते, और विशेष रूप से इससे घृणा करते हो और इसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो, तो परेशानी की बात है। निश्चय ही तुम दुष्ट हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा।

गैर-विश्वासियों और परमेश्वर में विश्वास रखने वालों में क्या अंतर है? क्या यह सिर्फ धार्मिक मान्यता का अंतर है? नहीं। गैर-विश्वासी परमेश्वर का अस्तित्व नहीं स्वीकारते, और विशेष रूप से, परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य को वे नहीं स्वीकार सकते। इससे सिद्ध होता है कि सभी गैर-विश्वासी सत्य से विमुख हैं और वे सत्य से घृणा करते हैं। उदाहरणार्थ, क्या यह तथ्य है कि मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया। क्या यही सत्य है? (हाँ।) तो, परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोग जब यह सुनते हैं, तो उनका क्या रवैया होता है? वे इसे स्वीकार करते हैं और इस पर पूर्ण रूप से विश्वास करते हैं। वे इस तथ्य, इस सत्य को परमेश्वर में अपनी आस्था की बुनियाद के रूप में स्वीकार करते हैं—यही सत्य को स्वीकार करना है। इसका अर्थ है, हमारे हृदय की गहराई से परमेश्वर द्वारा मनुष्य की रचना के तथ्य को स्वीकार करना, प्रसन्नतापूर्वक सृजित प्राणी होना, स्वेच्छा से परमेश्वर के मार्गदर्शन और संप्रभुता को स्वीकार करना, और यह स्वीकार करना कि परमेश्वर ही हमारा परमेश्वर है। और वे लोग जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, जब यह सुनते हैं कि “मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया” तो उनका क्या रवैया रहता है? (वे इसे नहीं स्वीकारते या मानते।) इसे न पहचानने के अलावा उनकी और क्या प्रतिक्रिया होती है? वे तुम्हारी नकल तक करेंगे, इसे तुम्हारे खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश में वे जो कुछ भी कर सकते हैं, वह सब करेंगे, खिल्ली उड़ाएंगे, मजाक बनाएंगे, तुम्हें अवमानित करेंगे और इन शब्दों तथा इस तथ्य पर तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। वे इन शब्दों को स्वीकार करने वाले सभी लोगों के प्रति उपहास, कटाक्ष, अवमानना और शत्रुता का रवैया भी अपना सकते हैं। क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है। (हाँ, है।) जब तुम ऐसे लोगों को देखते हो तो क्या उनसे घृणा करते हो? तुम क्या सोचते हो? तुम विचार करते हो, “मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया। यह तथ्य है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है। तुम इसे नहीं स्वीकार करते, तो तुम अपना उद्गम नहीं पहचानते, तुम वास्तव में कृतघ्न हो, तुम निर्लज्ज और विश्वासघाती हो। तुम सच में शैतान की किस्म के हो!” क्या तुम ऐसा सोचते हो? (हाँ।) और तुम ऐसा क्यों सोचते हो? क्या तुम इस तरह से सिर्फ इसलिए सोचते हो कि उन लोगों को यह कथन पसंद नहीं है? (नहीं।) और किस चीज से तुममें ऐसी प्रतिकूल मानसिकता पैदा होती है? (ऐसा सत्य के प्रति उनके रवैये के कारण है।) यदि वे सामान्य शब्दों या धार्मिक विश्वास के एक सिद्धांत के रूप में इन शब्दों का सम्मान करते तो तुम्हें इतना ज्यादा गुस्सा नहीं आता। लेकिन जब तुम उनमें विकर्षण, शत्रुता और तिरस्कार के भाव देखते हो, जब तुम सत्य के इस कथन का अपमान करने वाले उनके शब्दों, रवैयों, और स्वभावों को देखते हो, तो तुम्हें गुस्सा आ जाता है। क्या यह ऐसा ही है? यद्यपि कुछ ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, फिर भी वे दूसरे लोगों की आस्था का सम्मान करते हैं, और दूसरों के कहे धार्मिक आस्था संबंधी मामलों की आलोचना करने की कोशिश नहीं करते हैं। तुम्हें उनके प्रति कोई अरुचि या नफरत नहीं होती; तुम उनके साथ मैत्री कर सकते हो और उनके साथ शांतिपूर्वक रह सकते हो। तुम्हारी उनसे दुश्मनी नहीं होगी। वास्तव में, ऐसे गैर-विश्वासियों की संख्या बहुत कम है जिनके साथ तुम निभा सकते हो। यद्यपि वे सच्चे मार्ग को स्वीकार कर परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं बन सकते, फिर भी तुम उनके साथ निभा सकते हो और उनके साथ आदान-प्रदान कर सकते हो। कम-से-कम उनमें जमीर और विवेक तो है। वे तम्हारे विरुद्ध षड्यंत्र नहीं रचते और तुम्हारी पीठ में छुरा नहीं घोंपेंगे, इसलिए तुम उन्हें अपने साथ जोड़ सकते हो। उन लोगों की प्रति, जो सत्य को बदनाम करने की कोशिश करते हैं—जो सत्य से विमुख हैं—तुम अपने हृदय में उनके लिए क्रोध अनुभव करते हो। क्या तुम उनसे मित्रता कर सकते हो? (नहीं।) उनसे मित्रता न करने के अतिरिक्त, तुम उनके बारे में और क्या सोचते हो? अगर तुमसे उनसे व्यवहार करने का तरीका चुनने को कहा जाता तो तुम उनके साथ कैसा व्यवहार करते? तुम कहोगे, “मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया। यह तथ्य है, जो सत्य है और कितनी महान और पवित्र बात है यह। न सिर्फ तुम इसे अस्वीकार करते हो, बल्कि इसका खंडन करने की कोशिश भी करते हो—तुममें वास्तव में कोई अंतश्चेतना नहीं है! यदि परमेश्वर मुझे शक्ति दे, तो मैं तुम्हें श्राप दूंगा, मैं तुम पर वार करूंगा, मैं तुम्हें राख में बदल दूंगा!” क्या यह तुम्हारी भावना है? (हाँ।) यह न्याय की भावना है। लेकिन जब तुम देखते हो कि वे शैतान हैं, तो समझदारी की बात यह होगी कि उन्हें अनदेखा किया जाये, उनसे दूर रहा जाए। जब वे तुमसे बात करें तो उनसे सहमत होने का दिखावा किया जाये—यह करना समझदारी होगी। हालाँकि, हृदय की गहराई में तुम जानते हो कि तुम्हारा रास्ता ऐसे लोगों से अलग है। वे कभी भी परमेश्वर में आस्था नहीं रख सकते, वे सत्य को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास रखते, तो भी वह उन्हें नहीं चाहेगा। वे परमेश्वर को नकारते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं, वे जंगली जानवर हैं, वे दानव हैं, वे हमारे जैसे रास्ते पर नहीं चलते हैं। जो लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं दानवों के संपर्क में आने को तैयार नहीं होते। जब उन्हें कोई दानव नहीं दिखता तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन जब उन्हें दिखता है, तो वे तुरंत उसका विरोध करते हैं। उनके हृदय को तभी शांति महसूस होगी जब वे कभी कोई दानव न देखें। कुछ लोग हमेशा गैर-विश्वासी दानवों से परमेश्वर के घर के मामलों की बात करते हैं। ये सबसे मूर्ख लोग हैं। वे भीतरी और बाहरी लोगों के बीच अंतर नहीं करते, वे बकबक करने वाले मूर्ख हैं जो कुछ भी नहीं समझते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है जो ऐसी बेतुकी हरकतें करते हैं? कदापि नहीं। जो लोग हमेशा दानवों के साथ लेन-देन रखते हैं वे छद्म-विश्वासी होते हैं। वे निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं, और देर-सबेर उन्हें शैतान के पास लौटना होगा। कुछ लोग यह नहीं पहचान पाते कि कौन भाई-बहन है और कौन गैर-विश्वासी। वे सबसे अधिक भ्रमित लोग हैं। वे छद्म-विश्वासियों और दानवों से परमेश्वर के घर के मामलों की बात करते हैं। यह ऐसी बात है जैसे सूअरों के आगे मोती फेंके जाएं और कुत्तों को पवित्र वस्तु दी जाए। वे छद्म-विश्वासी और दानव सूअरों और कुत्तों की तरह हैं, उन्हें वहशियों की श्रेणी में रखा गया है। यदि तुम उनके साथ परमेश्वर के घर के मामलों पर चर्चा करोगे, तो मूर्ख लगोगे। इसे सुनने के बाद, वे लापरवाही से परमेश्वर के घर और सत्य की निंदा करेंगे। यदि तुम ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरोगे और परमेश्वर के ऋणी हो जाओगे। परमेश्वर के घर के मामलों पर कभी भी छद्म-विश्वासियों और दानवों के साथ चर्चा नहीं की जानी चाहिए। लोग सत्य को पसंद न करने वालों से नाराज रहते हैं, उनका प्रतिरोध करते हैं, और उनके संपर्क में आने को तैयार नहीं होते, सत्य से विमुख होते हैं, या सत्य की निंदा करते हैं, तो तुम्हारे ख्याल से परमेश्वर कैसा महसूस करता है? परमेश्वर का स्वभाव, परमेश्वर का सार, परमेश्वर के पास क्या है और वह क्या है, परमेश्वर का जीवन, और उसके द्वारा प्रकट किया गया परमेश्वर का सार सभी सत्य हैं। कोई व्यक्ति जो सत्य से विमुख है, वह निस्संदेह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर का विरोध करता है और परमेश्वर का शत्रु है। यह परमेश्वर के साथ असंगति से भी बड़ा मामला है। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का क्रोध बहुत अधिक होता है।

तुम सभी के पास अब एक प्रकार की नींव है, तुम्हारी गिनती परमेश्वर के घर के सदस्यों के रूप में की जा सकती है। तुम्हें मेहनत से सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में लगातार अपनी बातों और कार्य-कलापों की जांच करनी चाहिए, अपनी विभिन्न अवस्थाओं की जांच करनी चाहिए, और अपने स्वभाव में कुछ बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए। यह मूल्यवान चीज है। तब, तुम वास्तव में परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होगे। कम-से-कम तुम्हें परमेश्वर को तुम्हें स्वीकार करने के लिए तैयार करना चाहिए। यदि तुम अय्यूब के स्तर तक नहीं पहुंच सकते और तुममें उन योग्यताओं की कमी है जो परमेश्वर को तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए शैतान के साथ दाँव लगाने के लिए प्रेरित करे, तो कम-से-कम तुम अपने कार्यों और आचरण से परमेश्वर के प्रकाश में जी सकते हो, और परमेश्वर तुम्हारी देखभाल करेगा, तुम्हारी रक्षा करेगा, और तुम्हें अपने अनुयायियों में से एक और अपने घर के सदस्य के रूप में स्वीकार करेगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि जब से तुमने परमेश्वर को स्वीकार किया है और उस पर विश्वास किया है, तुमने लगातार जानने की कोशिश की है कि परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलें। क्योंकि परमेश्वर तुम्हारे व्यवहार और तुम्हारी नेकनीयती से संतुष्ट है, वह तुम्हें प्रशिक्षण प्राप्त करने, तुम्हारी जरूरी काट-छाँट करने और अपना उद्धार स्वीकार करने के लिए अपने घर में ले गया है। कितना महान आशीष है यह! परमेश्वर या सत्य के बारे में कुछ भी न जानने वाले, परमेश्वर के घर से बाहर के एक व्यक्ति के रूप में शुरू करते हुए तुमने परमेश्वर की पहली परीक्षा स्वीकार की और उसमें उत्तीर्ण होने के बाद परमेश्वर तुम्हें व्यक्तिगत रूप से अपने घर के अंदर ले गया, तुम्हें अपने सामने लाया, तुम्हें एक कार्यभार सौंपा, तुम्हारे निर्वहन के लिए कर्तव्यों की व्यवस्था की, और तुम्हें अपनी प्रबंधन योजना के तहत कुछ मानवीय कर्तव्यों को पूरा करने दिया। यद्यपि, यह काम थोड़ा अस्पष्ट है, पर अंततः तुम परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में हो और परमेश्वर ने तुमसे एक वादा किया है। यह आशीष काफी बड़ा है। हम अगले जीवन में ताज पहनने और पुरस्कृत होने की आकांक्षाएं छोड़ देंगे, और केवल इस बारे में बात करेंगे कि लोग इस जीवन में किन चीजों का आनंद ले सकते हैं—वे सत्य जो तुम सुनते हो, परमेश्वर का अनुग्रह, दया, देखभाल और सुरक्षा जो तुम लोगों को मिली है, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनुशासन और ताड़नाएँ भी, तथा परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए जाने वाले इन सभी सत्यों का प्रावधान भी—मुझे बताओ, तुम्हें कितना मिल रहा है? इन सच्चाइयों को तो तुम समझ ही सकोगे, अंत में परमेश्वर शैतान के शिविर से भी तुम्हारी पूरी तरह से रक्षा करेगा ताकि तुम बदल कर ऐसे व्यक्ति बन सको जो परमेश्वर को जानता है, सत्य को अपने जीवन के रूप में धारण करता है, और परमेश्वर के घर में उपयोगी है। क्या यह आशीष बहुत बड़ा नहीं है? (जरूर बड़ा है।) यह परमेश्वर का वादा है। तुमको अपने घर में लाने के बाद परमेश्वर तुमसे कहता है, “तुम धन्य हो। कलीसिया में प्रवेश करने से तुम्हें बचाए जाने की आशा है।” शायद तुम्हें नहीं पता कि क्या चल रहा है, लेकिन वास्तव में, परमेश्वर तुमसे पहले ही वादा कर चुका है। साथ ही, परमेश्वर इस वादे को पूरा करने के लिए ये सभी चीजें कर रहा है—सत्य की आपूर्ति कर रहा है, तुम्हारी काट-छाँट कर रहा है, तुम्हें कर्तव्य दे रहा है, और तुम्हें कुछ काम सौंप रहा है—ताकि तुम्हारा जीवन धीरे-धीरे उन्नति करता जाए और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी आराधना करने वाला व्यक्ति बन सको। क्या अब लोग यह वादा पा चुके हैं? इसके हासिल होने और पूरे होने के दिन से पहले अब भी थोड़ी दूरी बाकी है। वास्तव में, तुममें से कुछ लोगों ने इसे पहले ही पा लिया है, और तुममें से कुछ के पास दृढ़ संकल्प तो है, लेकिन अभी तक यह प्राप्त नहीं हुआ है। यह इस पर निर्भर है कि तुम लोगों में इस वादे को अच्छी तरह से समझने का दृढ़ संकल्प है या नहीं और तुम इसे पूरा करने में सक्षम हो या नहीं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों को कदम-दर-कदम, उचित समय पर और उचित मात्रा में दिया जाता है। इसमें कभी भी कोई गलती नहीं होती, इसलिए तुम्हें मूर्ख होने, कम काबिलियत वाला होने, कमउम्र होने या केवल थोड़े समय से परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। इन वस्तुनिष्ठ कारणों को अपने जीवन प्रवेश पर प्रभाव न डालने दो। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, इससे सबसे पहले लोगों को उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद और काबिलियत को सटीक रूप से जानने और मापने को मिलता है ताकि वे अपना आकलन कर सकें। इसका दूसरा और सकारात्मक पहलू यह है कि इससे लोगों को सत्य की गहरी समझ मिलती है और उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने को मिलता है ताकि वे परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकें। ये परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य हैं। इन चीजों को हासिल करना वास्तव में बहुत आसान है। यदि तुम्हारे पास सत्य से प्रेम करने वाला हृदय है, तो कोई कठिनाई नहीं है। इंसानों की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? वह यह है कि तुम सत्य से विमुख हो और सत्य से तनिक भी प्रेम नहीं करते। यही सबसे बड़ी कठिनाई है। इससे प्रकृति की समस्या जुड़ी हुई है। यदि तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, तो इससे मुश्किल हो सकती है। यदि तुम सत्य से विमुख हो, हमेशा सत्य की निंदा करते हो और उसे अवमानित करते हो, यदि तुम्हारी प्रकृति इस प्रकार की है, तो तुम आसानी से नहीं बदलोगे। तुम बदल भी जाओ, तो यह देखना बाकी होगा कि क्या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल गया है। यदि तुम जो करते हो, उससे परमेश्वर का रवैया बदला जा सकता है, तो अब भी तुम्हारे बचाए जाने की उम्मीद है। यदि तुम परमेश्वर का रवैया नहीं बदल सकते, और अपने हृदय की गहराई में परमेश्वर लंबे समय से तुम्हारे सार से विमुख है, तो तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए, तुम लोगों को अपनी जाँच करनी है। यदि तुम ऐसी स्थिति में हो जिसमें तुम सत्य से विमुख हो और सत्य का प्रतिरोध करते हो, तो यह बहुत खतरनाक है। यदि तुम अक्सर ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हो, अक्सर ऐसी स्थिति में पड़ते हो, या यदि तुम मूल रूप से इसी तरह के व्यक्ति हो, तो यह और भी बड़ी समस्या है। यदि तुम कभी-कभी सत्य से विमुख होने की स्थिति में होते हो, तो पहली बात यह है कि ऐसा तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद के कारण हो सकता है; दूसरे, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में ही इस प्रकार का सार निहित होता है, जो अनिवार्य रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर देता है। परंतु, यह अवस्था तुम्हारे सार का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। कभी-कभी, कोई क्षणिक भावना ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है जिसके कारण तुम सत्य से विमुख हो जाओ। यह अस्थायी होता है। यह सत्य से विमुख तुम्हारे स्वभाव सार के कारण नहीं होता है। यदि यह अस्थायी स्थिति है, तो इसे उलटा जा सकता है, लेकिन तुम इसे कैसे उलटोगे? तुम्हें इस संबंध में सत्य की खोज करने के लिए तुरंत परमेश्वर के सामने आना होगा और सत्य को स्वीकार करने, सत्य तथा परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम बनना होगा। तब इस स्थिति का समाधान हो जाएगा। यदि तुम इसका समाधान नहीं करते हो और इसे ऐसे ही चलते रहने देते हो, तो तुम खतरे में हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : “बहरहाल, मेरी काबिलियत खराब है और मैं सत्य को नहीं समझ पाता, इसलिए मैं इसका अनुसरण करना बंद कर दूँगा, और मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण भी नहीं करना पड़ेगा। परमेश्वर मुझे ऐसी काबिलियत कैसे दे सका? परमेश्वर धार्मिक नहीं है!” तुम परमेश्वर की धार्मिकता से इनकार करते हो। क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का रवैया है और सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति के घटित होने का एक संदर्भ है, इसलिए इस स्थिति के संदर्भ और मूल कारण का समाधान करना आवश्यक है। एक बार मूल कारण का समाधान हो जाने पर इसी के साथ तुम्हारी सत्य से विमुखता की स्थिति भी गायब हो जाएगी। कुछ स्थितियाँ लक्षणों जैसी होती हैं, जैसे कि खाँसी, जो सर्दी या निमोनिया के कारण हो सकती है। यदि तुम सर्दी या निमोनिया का इलाज कर लेते हो, तो खाँसी भी ठीक हो जाएगी। जब मूल कारण का समाधान हो जाता है, तो लक्षण गायब हो जाते हैं। लेकिन सत्य से विमुख होने की कुछ स्थितियाँ लक्षण नहीं, बल्कि गाँठ होती हैं। रोग का मूल कारण अंदर है। संभव है कि बाहर से देखने पर तुम्हें कोई लक्षण न दिखे, लेकिन एक बार यह बीमारी हो जाए तो यह घातक होती है। यह बहुत गंभीर समस्या है। ऐसे लोग कभी सत्य को नहीं स्वीकारते या मानते, या गैर-विश्वासियों की तरह लगातार सत्य की निंदा तक करते रहते हैं। उनके होंठों से ऐसे शब्द न निकलते हों, फिर भी वे अपने हृदय में सत्य की निंदा, अस्वीकार और खंडन करते रहते हैं। भले ही सत्य कोई भी हो—चाहे वह स्वयं को जानना हो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को मानना हो, सत्य को स्वीकार करना हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करना हो, बेपरवाही से काम न करना हो, या ईमानदार व्यक्ति होना हो—वे सत्य के किसी भी पहलू को न तो स्वीकार करते हैं, न ग्रहण करते हैं और न उस पर ध्यान नहीं देते हैं, या यहां तक कि सत्य के सभी पहलुओं का खंडन और निंदा करते रहते हैं। यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है, एक प्रकार का सार है। ऐसा सार किस तरह के अंतिम परिणाम की ओर ले जाता है? परमेश्वर द्वारा ठुकराए जाने, निकाल दिए जाने, और फिर नष्ट हो जाने की ओर। ये बहुत गंभीर परिणाम हैं।

क्या इन चीजों पर आज की संगति से तुम लोगों को मदद मिली? (हाँ। मैं जान गया हूँ कि अच्छी और बुरी काबिलियत क्या है, मुझे अपनी काबिलियत के बारे में थोड़ी वास्तविक समझ प्राप्त हुई है, और जब मेरे साथ कुछ घटित होगा तो मैं अपना सटीक आकलन कर सकूँगा। मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं बनूंगा, बल्कि अपना कर्तव्य व्यावहारिक ढंग से निभाऊंगा।) हम सत्य के चाहे जिस पहलू पर संगति करें, यह तुम लोगों के जीवन प्रवेश में सहायक होगा। यदि तुम लोग इन बातों को ग्रहण कर सको और उन्हें अपने दैनिक जीवन में शामिल कर सको, तो मैंने जो कुछ कहा वह व्यर्थ नहीं जाएगा। तुम लोग जब-जब सत्य को थोड़ा-सा समझ सकोगे, तो काम करने में तुम ज्यादा सटीक हो जाओगे, और तुम्हारा रास्ता थोड़ा चौड़ा हो जाएगा। यदि तुम कुछ ही सत्य जानो और तुम्हें अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद और काबिलियत की साफ समझ न हो, तो तुम चीजों को करने में हमेशा गलती करोगे, हमेशा अपने आप को क्षमता से अधिक आँकोगे और अपना मूल्यांकन बहुत बढ़ा कर करोगे, और काम करते समय अनजाने ही अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को आधार बनाओगे और सोचोगे कि तुम सत्य के आधार पर कार्य कर रहे हो। तुम इन धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य सिद्धांत मानोगे। तुम्हारे द्वारा किये जाने वाले कार्यों में बहुत अधिक भटकाव होगा। यदि ये मानवीय धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान और सीख लोगों के हृदय में हावी होंगे, तो वे सत्य को नहीं खोजेंगे। यदि तुम्हारे हृदय में सत्य का स्थान दूसरा, तीसरा या आखिरी हो गया है, तो तुम पर किस चीज का प्रभाव है? यह तुम्हारा शैतानी स्वभाव, मानवीय धारणाएँ, फलसफे, ज्ञान और सीखी हुई बातें हैं। तुम पर इन्हीं चीजों की संप्रभुता है, इसलिए परमेश्वर तुम पर जो कार्य करेगा वह प्रभावी नहीं होगा। यदि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारे भीतर तुम्हारा जीवन नहीं बने हैं, तो तुम अभी भी बचाए जाने से बहुत दूर हो। तुमने उद्धार के रास्ते पर कदम नहीं रखा है। क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर का हृदय बेचैन नहीं है? तुम्हें उद्धार के रास्ते पर लाने के लिए परमेश्वर को कितनी दया दिखानी होगी? यदि तुम पारंपरिक संस्कृति, ज्ञान और शैतानी फलसफे से बच सकते हो, इन सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित सत्य से मापना सीख सकते हो, चीजों की निगरानी के लिए मानकों के रूप में सत्य सिद्धांतों का उपयोग कर सकते हो, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो, तो तुम लोग सही मायनों में सत्य वास्तविकता वाले व्यक्ति बन जाओगे, जो स्वतंत्र रूप से जीने की क्षमता रखता हो। वर्तमान में, तुम लोग इस स्तर पर नहीं हो, तुम्हें अभी और दूर तक जाना है। तुम्हारे पास बस छोटा-सा जीवन है, और तुम्हें अब भी परमेश्वर की दया, प्रेम और सहनशीलता के सहारे जीना है। इसका मतलब है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। यदि तुम्हें कोई काम दिया जाए तो क्या तुम उसे स्वतंत्र रूप से पूरा कर सकोगे? क्या तुम अच्छे ढंग से काम कर सकोगे? यदि तुम चीजों में घालमेल कर देते हो, तो यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना और उसका अनादर करना है। यदि तुम अपना काम अधूरा छोड़ कर मौज-मस्ती करने चले जाते हो, तो क्या यह तुम्हारी अस्थिरता प्रदर्शित नहीं करता? इससे पता चलता है कि तुम विश्वसनीय कार्यकर्ता नहीं हो और तुम अपना काम ठीक से नहीं करते। अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें हमेशा अपनी निगरानी और पर्यवेक्षण करने वाले लोगों की जरूरत होगी। उम्र के तीसरे और चौथे दशक के कुछ लोगों का चरित्र अभी ऐसा ही है। उनके लिए सब कुछ खत्म हो चुका है। वे अपने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर पाएँगे। यदि तुम उम्र के तीसरे दशक में हो, और तुमने केवल दो या तीन वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, तो तुम्हें छोटे आध्यात्मिक कद का व्यक्ति होने के लिए माफ किया जा सकता है। अस्थिर, अविश्वसनीय व्यक्ति, जिसे हमेशा देखभाल की, सुरक्षित रखे जाने की, याद दिलाने की, प्रेरित किए जाने की और परमेश्वर के मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, जिसे हमेशा परमेश्वर के इन अनुग्रहों की आवश्यकता हो, जो इन अनुग्रहों के भरोसे जीता हो, और जिसका इनमें से किसी भी चीज के बिना काम न चले, उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है। तुम लोग अभी इसी स्थिति में हो। यदि तुम लोगों को सभी चीजें पूरी तरह से न बताई जाएँ, तो कभी-कभी तुम गलती करोगे और अपना काम बिगाड़ लोगे। अगर कोई छोटी-सी भी बात तुम्हें न समझाई जाए तो तुम भटक जाओगे, और यह दूसरों के लिए निरंतर चिंता का विषय होती है। बाहर से देखने पर तुम सभी वयस्क हो, लेकिन वास्तव में तुम्हारी आत्माओं में ज्यादा जीवन नहीं है। यद्यपि तुममें अपने कर्तव्य निभाने की इच्छाशक्ति और नेकनीयती है, और तुममें कुछ सच्ची आस्था भी है, फिर भी तुम सत्य के बारे में बहुत कम समझते हो। अपना कर्तव्य निभाते समय, आगे बढ़ने के लिए तुम पूरी तरह से परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष, मार्गदर्शन और याद दिलाने पर निर्भर हो। इनमें से कुछ भी कम हो तो सही काम नहीं होगा। तो, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कौन-सा पहलू तुम्हारे भीतर अभिव्यक्त होता है? उसकी अगाध दया, और निस्संदेह यही परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत है। तुम लोगों ने अभी तक परमेश्वर के परीक्षणों और शोधनों का आनंद क्यों नहीं लिया है? इसलिए कि तुम्हारे पास वैसा आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, सत्य की तुम्हारी समझ बहुत कम है, तुम किसी भी चीज की तह तक नहीं जा सकते, मुश्किलों का सामना होने पर तुम भ्रमित हो जाते हो, तुम नहीं जानते कि कोई काम कहाँ से शुरू करें, तुम्हारे कारण लोग हमेशा चिंतित रहते हैं, और, भले ही तुम कोई भी कर्तव्य निभाओ, दूसरे लोगों को तुम्हें वह कदम-दर-कदम सिखाना होता है, जिसमें दूसरों को बहुत अधिक प्रयास करना पड़ता है। तुम्हारे लिए हर चीज को स्पष्ट रूप से बताना और एक से अधिक बार दोहराना पड़ता है, अन्यथा, वह काम ठीक नहीं होगा। सामान्य बातें भी दो-तीन बार कहनी पड़ती हैं, थोड़ी देर बाद तुम भूल जाते हो, और उसे कई-कई बार दोहराना पड़ता है। यह किस प्रकार का व्यक्ति है? यह ऐसा उलझा हुआ व्यक्ति है जो जो कुछ भी काम करे उसमें अपना दिल या दिमाग नहीं लगाता है, और जो कोई भी श्रम करने के योग्य नहीं है। क्या ऐसे लोग सत्य को समझ सकते हैं? उनके लिए सत्य को समझना निश्चित रूप से आसान नहीं है क्योंकि उनकी काबिलियत इतनी खराब है कि वे सत्य के स्तर तक नहीं पहुँच सकते। कुछ लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा होता है, लेकिन वे किसी काम को एक, दो या तीन बार करके कुछ सीख सकते हैं। यदि वे सत्य पर संगति सुनने के बाद सत्य को आत्मसात कर सकते हैं, समझ सकते हैं और पकड़ सकते हैं, तो वे काबिल लोग हैं। काबिलियत हो कर भी छोटे आध्यात्मिक कद का होना कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसका संबंध केवल ऐसे लोगों के अनुभव की गहराई से होता है, इसका सीधा संबंध सत्य की उनकी समझ की गहराई से होता है। और अधिक अनुभव और सत्य की अधिक गहरी समझ के बाद उनका आध्यात्मिक कद स्वाभाविक रूप से बढ़ जाएगा।

2 मार्च 2019

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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