सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (16)

हम मुख्य रूप से नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतों के सार पर संगति कर उनका विश्लेषण करते रहे हैं और लोगों पर विभिन्न कहावतों के प्रभाव का विश्लेषण करते रहे हैं। नैतिक आचरण से संबंधित ये विभिन्न कहावतें मुख्य रूप से पारंपरिक चीनी संस्कृति के लोगों पर विभिन्न मात्राओं में पड़ने वाले ऐसे प्रभावों को दर्शाती हैं जो आज भी कायम हैं। अपनी पिछली सभा में हमने नैतिक आचरण से संबंधित किस कहावत पर संगति कर उसे उजागर किया था? (पिछली बार, परमेश्वर ने संगति कर इस कहावत को उजागर किया था, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।”) जब हम नैतिक आचरण से संबंधित कहावतों पर संगति करते हैं, तो हम सामान्य परिवेश के मुद्दे पर विचार-विमर्श करते हैं : चाहे समय कैसे भी बदले, या हमारा सामाजिक परिवेश या किसी देश में राजनीतिक स्थिति कैसे भी बदले, परंपरागत संस्कृति में पाए जाने वाले, नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों के माध्यम से शैतान लोगों के विचारों और नैतिक आचरण में और उनके हृदयों के अंतरतम में और मानवजाति में जो भ्रष्टता पैदा करता है, वह उत्तरोत्तर स्पष्ट होती जाती है। मानवजाति पर परंपरागत संस्कृति का घातक प्रभाव बदलते समय और जीवन-परिवेश में आए बदलावों के कारण कम नहीं हुआ है, और कई लोग अभी भी परंपरागत संस्कृति से प्राप्त विभिन्न कहावतें उद्धृत करते हैं, उन्हें बढ़ावा देते हैं, उन्हें चीन के परंपरागत अध्ययन और शास्त्र जैसा आदर देते हैं। यह स्पष्ट है कि शैतान ने नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतें लोगों के दिलों में गहराई से रोप दी हैं और लोगों को चरम सीमा तक भ्रष्ट कर दिया है। शैतान लोगों को भ्रष्ट क्यों करता है? लोगों को भ्रष्ट करने में उसका अंतिम लक्ष्य क्या है? उसका लक्ष्य मनुष्य है या परमेश्वर? (परमेश्वर।) यह ऐसी चीज है, जिसे तुम्हें शैतान का सार और उसके द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने का मूल कारण और प्रक्रिया जानने के लिए समझना चाहिए। शैतान लोगों के विचार कैसे भ्रष्ट करता है? लोग ऐसी परमेश्वर-विरोधी चीजों को अपने अंतरतम हृदय में क्यों प्रश्रय देते हैं? लोग इन चीजों को प्रश्रय क्यों देते हैं, जो सत्य के विपरीत हैं? लोग ऐसे कैसे हो गए? मानवजाति परमेश्वर ने रची थी, तो फिर लोग शैतान की तरह हर मोड़ पर परमेश्वर का विरोध और उससे विद्रोह क्यों करते हैं? इसका मूल कारण क्या है? क्या इन प्रश्नों का उत्तर उससे दिया जा सकता है, जिसकी हमने पहले चर्चा की थी? (हाँ।) याद करो और सोचो कि पिछली बार हमने किस बारे में संगति की थी। (परमेश्वर ने पहले हमारी वर्तमान स्थितियों पर संगति की। भले ही हम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हों, लेकिन जब पाखंडों और भ्रांतियों, और शैतान द्वारा हमारे मन में बैठाए गए विचारों और दृष्टिकोणों को पहचानने की बात आती है, तो हमें मूल रूप से इसकी कोई समझ नहीं होती, और हम कभी भी और कहीं भी शैतान के प्रवक्ता और अनुचर बन सकते हैं। परमेश्वर ने इस पर भी संगति की कि शैतान लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए इन पाखंडों और भ्रांतियों का उपयोग क्यों करता है। हालाँकि वह लोगों को भ्रष्ट कर नुकसान पहुँचाता है, फिर भी शैतान का असली उद्देश्य परमेश्वर को निशाना बनाना है। वह परमेश्वर की प्रबंधन-योजना को नीचा दिखाना और नष्ट करना चाहता है। चूँकि परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का उद्देश्य अंततः लोगों के एक समूह को बचाना और पूर्ण करना है, ताकि वे परमेश्वर के साथ एक दिल और दिमाग के हो सकें, इसलिए शैतान इन लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर द्वारा संपूर्ण बनाए जाने और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने से रोकने की और उसमें अड़चन डालने की कोशिश करता है। परमेश्वर शैतान की चालाक योजनाएँ समझता है, लेकिन उसे रोकता नहीं। बल्कि परमेश्वर शैतान का सेवा की एक वस्तु और एक विषमता के रूप में इस्तेमाल करता है, क्योंकि परमेश्वर की बुद्धि शैतान की शातिर योजनाओं पर निर्मित होती है और वह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए इन लोगों पर शुद्धिकरण और उद्धार का कार्य करता है। परमेश्वर परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों को प्रकट कर उनका विश्लेषण इसलिए करता है, ताकि हम स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान इन पाखंडों और भ्रांतियों का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए करता है। परमेश्वर ऐसा इसलिए करता है, ताकि हम पहचान करना सीखकर न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से समझ सकें कि ये पाखंड और भ्रांतियाँ नकारात्मक हैं, बल्कि स्पष्ट रूप से यह समझ सकें कि इन कहावतों के भीतर शैतान की क्या शातिर योजनाएँ हैं। जब हम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं, तब हम उनसे अपनी तुलना कर सकते हैं, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में आत्मचिंतन कर सकते हैं, जाँच सकते हैं कि हमारे भीतर कौन-से शैतानी विचार और भाव हैं, हमारे कार्यों के उद्देश्य में शैतान की कौन-सी शातिर योजनाएँ हैं और हम कौन-से शैतानी स्वभाव प्रकट करते हैं। वास्तव में खुद को जानना यही है, न कि सिर्फ सैद्धांतिक समझ और सरल पहचान के स्तर पर बने रहना।) जिन तरीकों से शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, उनमें से एक है उनके विचारों और दिलों को भ्रष्ट करना; वह लोगों के दिलो-दिमाग में हर तरह के शैतानी विचार, भाव, पाखंड और भ्रांतियाँ डाल देता है। इन्हीं में शामिल हैं नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतें, जो परंपरागत चीनी संस्कृति की सर्वोत्तम चीजों को दर्शाती हैं—वे परंपरागत चीनी संस्कृति की उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ हैं। परंपरागत संस्कृति के ये विचार और दृष्टिकोण मूलतः शैतान के विचार, शैतान का सार दर्शाते हैं, और वे शैतान की प्रकृति की उन चीजों को दर्शाते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करती हैं। लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान द्वारा इन चीजों का इस्तेमाल करने का अंतिम परिणाम क्या होता है? (वह लोगों को परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा कर देता है।) इसका परिणाम यह होता है कि लोग परमेश्वर के विरुद्ध हो जाते हैं। और लोग क्या बन जाते हैं? (वे शैतान के प्रवक्ता और अनुचर बन जाते हैं। वे जीवित शैतान बन जाते हैं।) लोग शैतान के प्रवक्ता, शैतान के मूर्त रूप बन जाते हैं, और भ्रष्ट मनुष्य शैतान का प्रतिनिधित्व करने लगता है। भ्रष्ट मनुष्य जो बोलता और जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, उसमें निहित इरादे, उद्देश्य, विचार और भाव वे ही होते हैं, जो शैतान द्वारा व्यक्त और प्रकट किए जाते हैं। यह पूरी तरह से सत्यापित करता है कि मनुष्य के जीने के नियम और उसके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण, जिनके द्वारा वह आचरण और दूसरों के साथ मेलजोल करता है, वे सब शैतान से आते हैं और सभी शैतान का प्रकृति सार दर्शाते हैं; यह पूरी तरह से सत्यापित करता है कि जीवित भ्रष्ट मनुष्य शैतान का मूर्त रूप है, शैतान की संतान है, और शैतान जैसा ही है; यह पूरी तरह से पुष्टि करता है कि भ्रष्ट मनुष्य जीवित शैतान है, जीवित दानव है, और मनुष्य, जो शैतान का मूर्त रूप बन गया है, शैतान का प्रतिनिधि है। मनुष्य चाहे शैतान की संतान हो या शैतान का मूर्त रूप, वह हर हाल में शैतान के समान है, और परमेश्वर के अनुसार वह ऐसा मनुष्य है जो परमेश्वर को नकारता और धोखा देता है, वह परमेश्वर का दुश्मन और परमेश्वर की विरोधी शक्ति है। इस तरह का मनुष्य अब वैसा कोरी स्लेट जैसे दिमाग वाला, नादान सृजित मनुष्य नहीं है, जैसा वह शुरुआत में था। मनुष्य शैतान के प्रभाव में रहता है और शैतानी भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ है, और ऐसी अवस्था और स्थिति में रहने वाले मनुष्य को क्या चाहिए? उसे परमेश्वर का उद्धार चाहिए। अभी वह समय है जब परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है। वह कौन-सी परिस्थिति है, जिसमें परमेश्वर लोगों को बचाता है? वह यह है कि शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता सबसे गहन-गंभीर स्तर तक पहुँच गई है; उसने लोगों को पूरी तरह से शैतान का मूर्त रूप और प्रवक्ता बना दिया है, और लोग परमेश्वर के दुश्मन बनकर उसके विरोधी बन गए हैं। इस परिस्थिति में, परमेश्वर ने मनुष्य को बचाने के लिए अपना कार्य शुरू कर दिया है। यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने से संबंधित वास्तविक स्थिति है, और यह परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर न्याय का कार्य करने की वास्तविक परिस्थिति है। इन वास्तविकताओं को जानने के क्या लाभ हैं? यह लोगों को अपना सार जानने, शैतान का सार जानने, शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने के साधनों को जानने और शैतान की दुष्टता जानने में सक्षम बनाता है; यह लोगों को परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का उद्देश्य जानने के साथ-साथ परमेश्वर की उस सर्वशक्तिमत्ता, अधिकार, बुद्धि और शक्ति को जानने में भी सक्षम बनाता है, जिसे वह मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में प्रकट करता है। यह पहचानने के अलावा कि शैतान का सार और दुष्टता और भ्रष्ट मनुष्य का प्रकृति सार कैसा है, जो चीज महत्वपूर्ण है, वह यह है कि लोग परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर का सार जानें। परमेश्वर का सार जानने में मुख्य रूप से परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, अधिकार, बुद्धि और शक्ति जानना शामिल है—इसमें मुख्य रूप से उसके सार के ये पहलू जानना शामिल है।

परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करने के संदर्भ के परिप्रेक्ष्य से, वह मनुष्य जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है, वह मनुष्य नहीं है जिसे उसने अभी-अभी सृजित किया है, बल्कि वह मनुष्य है जिसे शैतान कई हजार वर्षों से भ्रष्ट करता रहा है। मनुष्य का अंतरतम हृदय कोरी स्लेट नहीं है, न ही मनुष्य के विचार या स्वभाव कोरी स्लेट हैं, बल्कि वे लंबे समय से शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं। जिन्हें परमेश्वर बचाता है, वे वो सृजित प्राणी हैं, जिन्हें शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया, बहकाया गया, नियंत्रित किया गया, प्रभावित किया गया और कुचला गया है। जहाँ तक लोगों का संबंध है, इन सृजित मनुष्यों के भीतर से शैतान की चीजों और शैतानी स्वभावों को हटाना या बदलना बेहद कठिन, यहाँ तक कि असंभव है। कहने का तात्पर्य यह है कि, जहाँ तक लोगों का संबंध है, उनके लिए अपने विचार और दृष्टिकोण बदलना, अपने दिलों की गहराई से शैतान की चीजें साफ करना, और अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलना सब असंभव कार्य हैं; यह बिल्कुल उस कहावत की तरह है, “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।” फिर भी, ठीक इसी परिस्थिति में और इसी सृजित मनुष्य के साथ परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य करना चाहता है। अपने कार्य में परमेश्वर कोई चिह्न और चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, न ही वह खुले तौर पर अपना वास्तविक व्यक्तित्व दिखाता है, और ऐसा कोई कार्य तो बिल्कुल नहीं करता जो लोगों को अधिकारपूर्ण और शक्तिशाली लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि अंत के दिनों में, जिस दौरान देहधारी परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, परमेश्वर कोई चिह्न और चमत्कार नहीं दिखाता, वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता जो व्यावहारिकता या वास्तविकता की सीमाओं से परे जाता हो, और वह ऐसे कर्म नहीं करता जो दैहिक मानवता से बढ़कर हों। परमेश्वर ऐसे अलौकिक कार्य नहीं करता, बल्कि वह लोगों के जीवन को पोषण प्रदान करने और लोगों को उजागर कर उनकी भ्रष्टता साफ करने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है। चूँकि वह इस कार्य को करने के लिए सिर्फ वचनों का इस्तेमाल कर रहा है, इसलिए मनुष्य को यह और भी असंभव कार्य जैसा लगता है, और ज्यादातर लोगों को यह खेलकूद का मामला लगता है। लोग मानते हैं कि विभिन्न तरीकों से, विभिन्न दृष्टिकोणों से और विभिन्न चीजों के बारे में कहे गए कथनों का इस्तेमाल करके परमेश्वर का लोगों को पोषण प्रदान कर उन्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना एक असंभव कार्य है। खासकर शैतान तो इस बात से बिलकुल भी आश्वस्त नहीं है कि यह कोई ऐसी चीज है जिसे करने में परमेश्वर पूरी तरह से सक्षम है, कि परमेश्वर के पास इस कार्य को करने की शक्ति, अधिकार और बुद्धि है। स्पष्ट है कि सृजित मनुष्यों की नजर में, परमेश्वर का अपने कथन कहना और मनुष्य को बचाने के लिए अपना काम करना एक असंभव कार्य है। लेकिन, चाहे भविष्य में चीजें कैसी भी हों, अभी, परमेश्वर के इन वचनों में जो कहा गया है, “परमेश्वर जो कहता है उसके मायने हैं, वह जो कहता है उसे पूरा करेगा, और जो वह करता है वह हमेशा के लिए बना रहेगा,” वह उन लोगों में पहले ही पूरा हो चुका है जो उसका अनुसरण करते हैं, अर्थात्, ज्यादातर लोगों को पहले ही इसका पूर्वानुभव हो चुका है। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके को देखते हुए, परमेश्वर द्वारा सिर्फ वचनों के पोषण, वचनों के भोजन, वचनों के प्रकाशन, वचनों की ताड़ना और न्याय, वचनों की मार, वचनों की चेतावनी और प्रोत्साहन और अन्य तरीकों से मनुष्य को बचाने का कार्य करने को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों में सिर्फ वचनों के सरल अर्थ नहीं हैं, जिन्हें इंसानी धारणाओं द्वारा समझा जा सकता है। इस मूलभूत कहावत के अलावा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, जिस चीज को लोग और भी ज्यादा देख पाते हैं और जो तथ्यात्मक रूप से स्पष्ट है, वह यह है कि परमेश्वर के वचनों में जीवन है और परमेश्वर के वचन जीवन हैं, कि वे भ्रष्ट मनुष्य के जीवन को पोषण प्रदान कर सकते हैं और भ्रष्ट मनुष्य को जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें प्रदान कर सकते हैं। शक्ति और अधिकार के संदर्भ में, परमेश्वर के वचन मनुष्य की जीवन-स्थितियाँ बदल सकते हैं, मनुष्य के विचार और दृष्टिकोण बदल सकते हैं, मनुष्य का हृदय बदल सकते हैं जिसे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और, इससे भी बढ़कर, वे मनुष्य द्वारा चुना गया मार्ग और जीवन-दिशा बदल सकते हैं, यहाँ तक कि जीवन और मूल्यों के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण भी बदल सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उन्हें समर्पित होते हो, और, हम यह भी कह सकते हैं कि, अगर तुम परमेश्वर के वचनों से प्रेम करते हो और उनका अनुसरण करते हो, तो चाहे तुम्हारी क्षमता जैसी भी हो, या तुम्हारे अनुसरण का लक्ष्य जो भी हो, या अनुसरण करने का तुम्हारा दृढ़ संकल्प जितना भी बड़ा हो, या तुम्हारी आस्था जितनी भी बड़ी हो, परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से तुम्हें बदल सकते हैं, जीवन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण और मूल्यों को बदलने में सक्षम बना सकते हैं, लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को बदलने में सक्षम बना सकते हैं, और अंततः तुम्हारे जीवन-स्वभाव को बदलने में सक्षम बना सकते हैं। हालाँकि ज्यादातर लोगों की क्षमता कमजोर है और उनमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प नहीं है, यहाँ तक कि वे सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक भी नहीं हैं, फिर भी, चाहे उनकी परिस्थितियाँ कैसी भी हों, अगर उन्होंने परमेश्वर के वचन सुने हैं, तो उनके अवचेतन में शैतान, दुनिया और मनुष्य के संबंध में परमेश्वर की शिक्षाओं से कुछ हद तक सही विचार और धारणाएँ आ ही जाती हैं। उनके अवचेतन में सकारात्मक चीजों के संबंध में, सत्य सिद्धांतों और जीवन में सही दिशा और लक्ष्यों के संबंध में अलग-अलग मात्रा में वह लालसा और प्यास आ जाती है, जो परमेश्वर लोगों में चाहता है। ये घटनाएँ, जो लोगों में और उनके बीच घटित होती हैं—चाहे वे लोगों की इच्छानुसार हों य न हों, चाहे वे लोगों की धारणाओं के अनुरूप हों या नहीं, चाहे वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके मानक पूरे करती हों या नहीं, इत्यादि—लोगों पर ये सभी प्रभाव और ये सभी घटनाएँ दर्शाती हैं कि परमेश्वर के वचन न सिर्फ लोगों के जीवन को पोषण प्रदान कर सकते हैं और उन्हें वह प्रदान कर सकते हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है, बल्कि, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर के वचन किसी भी शक्ति द्वारा बदले नहीं जा सकते। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि परमेश्वर के वचनों में अधिकार होता है, और कोई भी सांसारिक सिद्धांत, दर्शन या ज्ञान, या कोई भी तर्क, विचार या दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के अधिकार से बढ़कर नहीं हो सकता—यह परमेश्वर के वचनों में अधिकार होने का व्यावहारिक अर्थ है, और यह उन सभी में स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर के वचनों में अधिकार होता है और वे मनुष्य के हृदय और विचार बदल सकते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे उन भ्रष्ट स्वभावों को साफ और दूर कर सकते हैं, जिन्हें शैतान ने लोगों के अंतरतम हृदय में रोप दिया है—यह परमेश्वर के वचनों की शक्ति है। निस्संदेह, कुछ और भी है, जो यह है कि लोगों को परमेश्वर की बुद्धि जाननी चाहिए। परमेश्वर की बुद्धि उसके कार्य के हर अंश में प्रकट होती है। परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के भीतर और उनके निहितार्थ में ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के बोलने के तरीके में भी वह प्रकट होती है, जो चीजें वह कहता है, अपने कथनों में जो दृष्टिकोण वह अपनाता है, यहाँ तक कि उसकी बातचीत के लहजे में भी, परमेश्वर की बुद्धि सबमें देखी जा सकती है। परमेश्वर की बुद्धि किन पहलुओं में अभिव्यक्त होती है? एक पहलू तो यह है कि परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन में उसकी बुद्धि देखी जा सकती है, और जिन अनेक तरीकों से वह बोलता है, उनमें उसकी बुद्धि प्रदर्शित होती है; दूसरा पहलू यह है कि जिन विभिन्न तरीकों से परमेश्वर लोगों में कार्य करता है, उन सभी में उसकी बुद्धि देखी जा सकती है, और वह उन लोगों में भी देखी जा सकती है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, जिनकी वह अगुआई करता है। तो निस्संदेह, हम कह सकते हैं कि परमेश्वर की बुद्धि उसके वचनों में प्रकट होती है, और वह उसके कार्य में भी प्रकट होती है। परमेश्वर की बुद्धि उसके वचनों में देख सकने के अलावा लोग अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं के विभिन्न परिवेशों और स्थितियों में भी उसकी गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन लोगों को किसी भी समय और स्थान पर तदनुरूप पोषण प्राप्त करने देते हैं। परमेश्वर किसी भी समय और स्थान पर तुम्हारी मदद कर सकता है, किसी भी समय और स्थान पर तुम्हें समर्थन और पोषण प्रदान कर सकता है, तुम्हें किसी भी समय और स्थान पर अपनी नकारात्मक स्थिति पीछे छोड़ने में सक्षम बना सकता है, और तुम्हें मजबूत बना सकता है कि तुम फिर कमजोर न रहो। किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर तुम्हारे विचार और सोचने का तरीका बदल सकता है, जिन चीजों को तुम सही मानते हो उन्हें और शैतान की चीजों को छोड़ने, अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने, परमेश्वर के प्रति पश्चात्ताप करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और अभ्यास करने में सक्षम बना सकता है। यह एक पहलू है। इसके अलावा, परमेश्वर उन सभी लोगों में कई विभिन्न तरीकों से काम करता है, जो उसका अनुसरण करते हैं, जो उसके वचनों और सत्य से प्रेम करते हैं। कभी-कभी वह अनुग्रह प्रदान करता है, और कभी-कभी वह रोशनी और प्रकाशन प्रदान करता है। निस्संदेह, कभी-कभी परमेश्वर लोगों को दंडित और अनुशासित भी करता है, ताकि वे अपने तौर-तरीके सुधार सकें, अपने अंतरतम हृदयों में खुद को धिक्कारें, परमेश्वर के प्रति सच में कृतज्ञ महसूस कर सकें, पछतावा महसूस कर सकें, पश्चात्ताप कर सकें, और इस प्रकार बुराई का त्याग कर सकें और अब परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह न करें, मनमाने ढंग से कार्य न करें या शैतान का अनुसरण न करें, बल्कि परमेश्वर ने उन्हें जो मार्ग दिखाया है, उसके अनुसार अभ्यास करें। परमेश्वर का कार्य मनुष्य में पूरा किया जाता है। सटीक रूप से कहें तो, पवित्र आत्मा का कार्य मनुष्य में पूरा किया जाता है, और पवित्र आत्मा ज्यादातर लोगों में अलग-अलग तरीकों से कार्य करता है। निस्संदेह, पवित्र आत्मा चाहे जिस भी तरह से कार्य करे, हर व्यक्ति पवित्र आत्मा के कार्य करने के विभिन्न तरीकों का कमोबेश अनुभव कर सकता है। इससे हम देख सकते हैं कि पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर का कार्य, चाहे वे कई तरीकों से किए जाएँ या एक ही तरीके से, दोनों ही लोगों को यह समझने में सक्षम बना सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य की मदद के लिए है और वह चीज है जिसकी मनुष्य को हर समय और स्थान पर आवश्यकता होती है। पवित्र आत्मा हर समय और स्थान पर कार्य कर सकता है और लोगों को पोषण प्रदान कर सकता है। वह स्थान, भौगोलिक स्थिति या समय से प्रतिबंधित नहीं होता, न ही वह लोगों के सामान्य जीवन की दिनचर्या अस्त-व्यस्त करता है या उनके विचार बाधित करता है, और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित किसी नियम को तो वह बिल्कुल भी नष्ट नहीं करता। पवित्र आत्मा हर व्यक्ति पर चुपचाप काम करता है, उन्हें स्पष्ट रूप से सूचित, शिक्षित, प्रबुद्ध करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है, साथ ही उन पर काम करने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें स्वाभाविक रूप से और अनजाने ही परमेश्वर के वचनों के पोषण के तहत रहने में सक्षम बनाता है। निस्संदेह, परमेश्वर के कार्य और पवित्र आत्मा के कार्य के परिणामस्वरूप लोगों के स्वभाव और उनके विचार उन्हें पता चले बिना ही बदल जाते हैं, और धीरे-धीरे परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़ जाती है। यह कहा जाना चाहिए कि लोगों में प्राप्त होने वाले ये सभी परिणाम परमेश्वर के वचनों की शक्ति और परमेश्वर के कार्य की बुद्धि द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। जहाँ तक उन लोगों का संबंध है जो अब परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर उनके लिए कार्य करने और उनकी अगुआई कर उन्हें पोषण प्रदान करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल करता है, और इन चीजों का आनंद लेने का अधिकार और अवसर सभी के पास है। अगर परमेश्वर का अनुसरण करने वाले अब उसका अनुसरण करने वालों की संख्या से दस गुना, बीस गुना, यहाँ तक कि सौ गुना ज्यादा भी हो जाएँ, तो भी परमेश्वर उनकी इसी तरह देखभाल करने में सक्षम होगा, और वह तब भी यह कार्य पूरा करने में सक्षम होगा। प्राप्त होने वाले परिणाम कभी बदले नहीं जा सकते, और यही परमेश्वर की बुद्धि है।

परमेश्वर के वचन सत्य के तमाम पहलू व्यक्त करते हैं और वह चीज प्रदान करते हैं, जिसकी पूरी मानवजाति को आवश्यकता है। परमेश्वर विभिन्न दृष्टिकोणों से, विभिन्न समयों और परिवेशों में लोगों पर तमाम तरह की विभिन्न कार्य-पद्धतियों का इस्तेमाल करता है, ताकि उनके इसके बारे में जाने बिना उनका मार्गदर्शन किया जा सके और प्रत्येक व्यक्ति पर विभिन्न परिणाम हासिल किए जा सकें। भले ही अब तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर के कार्य के बारे में ज्यादा नहीं समझता और मैं अब भी बहुत कमजोर हूँ। मुझे अभी भी परमेश्वर पर बहुत कम विश्वास है और परमेश्वर के बारे में मेरा ज्ञान नहीं बढ़ा है। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मेरा वर्तमान रवैया पहले की तरह ही बेपरवाह प्रतीत होता है, और मुझे लगता है कि मैं बहुत आगे नहीं बढ़ पाया हूँ,” फिर भी एक बात निश्चित है : तुम चाहे कितने भी कमजोर हो, या परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने से कितने भी दूर महसूस करो, परमेश्वर के वचन और उसका कार्य पहले ही तुम्हारे दिल पर कब्जा कर चुके हैं। भले ही तुम सत्य का अनुसरण करने में बहुत रुचि न रखो, भले ही तुम अभी भी उद्धार प्राप्त करने के अर्थ को बहुत महत्वपूर्ण न मानो, फिर भी परमेश्वर के वचनों का सत्य और परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों की विषयवस्तु तुम्हें आशा देती है, और अपने अंतरतम हृदय में तुम परमेश्वर के कार्य और उन तथ्यों के बारे में अपेक्षाएँ रखते हो, जिन्हें परमेश्वर पूरा करना चाहता है। चाहे तुम्हारी आस्था अभी कितनी भी बड़ी हो, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना भी हो, तुम्हारे पास आशा तो निश्चित रूप से है। यह क्या दर्शाता है? परमेश्वर के वचन वह चीज हैं जिसकी मनुष्य को आवश्यकता है, वे वह चीज प्रदान करते हैं जिसकी मनुष्य को आवश्यकता है, वे पहले ही तुम्हारे हृदय पर कब्जा कर चुके हैं, और अपने अंतरतम हृदय में तुम अनजाने ही परमेश्वर के वचनों को एक निश्चित स्वीकृति दे चुके हो। बेशक, ये तथ्य उन लोगों की ओर निर्देशित हैं जो सत्य में बहुत रुचि नहीं रखते, और जिन्हें परमेश्वर के कार्य और उद्धार की अपेक्षाकृत धुँधली और अस्पष्ट समझ है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, वे यही एकमात्र परिणाम प्राप्त नहीं करते, बल्कि वे परमेश्वर को जान भी सकते हैं और परमेश्वर के लिए गवाही भी दे सकते हैं। इन तथ्यों और संकेतों से हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के कथनों और कार्य में परमेश्वर की शक्ति, अधिकार और बुद्धि व्याप्त है। यह किसी और चीज को भी सत्यापित करता है : मानवजाति परमेश्वर द्वारा सृजित की गई थी, और हालाँकि मनुष्य सूरज की रोशनी, पानी और हवा के बिना जी सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के बिना नहीं जी सकते, वे परमेश्वर के वचनों के बिना नहीं जी सकते, और वे परमेश्वर के पोषण के बिना नहीं जी सकते। सिर्फ परमेश्वर का मार्गदर्शन, पोषण और चरवाही और परमेश्वर द्वारा व्यक्त समस्त सत्य ही मनुष्य को आशा और रोशनी, और साथ ही उसके अस्तित्व के लिए लक्ष्य और दिशा दे सकते हैं—ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों ने देखा है। नैतिक आचरण के संदर्भ में शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने की वास्तविक स्थिति को उजागर और उसका विश्लेषण करके लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर किस तरह के संदर्भ में काम करता है। यह पहचानने के अलावा कि जिस संदर्भ में परमेश्वर कार्य करता है उसकी वास्तविक स्थिति कैसी है, लोगों को और भी ज्यादा यह समझना चाहिए कि मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना कठिन है, और यह समझकर कि वह कितना कठिन है, उन्हें परमेश्वर की शक्ति, अधिकार और बुद्धि जाननी चाहिए। मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में परमेश्वर ने उसे तब बचाने की जल्दबाजी नहीं की, जब शैतान ने पहली बार मनुष्य को भ्रष्ट करना शुरू किया। उसने चार हजार साल पहले या छह हजार साल पहले मनुष्य को बचाने की जल्दबाजी नहीं की। बल्कि, उसने चीजें तभी कीं, जब वे की जानी चाहिए थीं : सर्प द्वारा बहकाए जाने और शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से मानवजाति पाप में डूब गई और पृथ्वी बाढ़ से नष्ट हो गई। तब परमेश्वर ने धीरे-धीरे मानवजाति की अगुआई करने के लिए व्यवस्था का इस्तेमाल किया और जैसे-जैसे शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता गहरी होती गई, परमेश्वर ने पापी देह के समान होकर और क्रूस पर चढ़कर मानवजाति को छुटकारा दिलाने का कार्य किया। अब, अंत के दिनों में, जब मानवजाति शैतान द्वारा इतनी ज्यादा भ्रष्ट कर दी गई है कि लोग इससे बुरी तरह से तबाह हो गए हैं और पूरी तरह से शैतान के प्रतिरूप बन गए हैं, तो परमेश्वर औपचारिक रूप से और खुले तौर पर मानवजाति के लिए अपने वचन व्यक्त करता है, और वह अपने दिल की बातें, तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संबंध में अपने विचार और रवैये, और वे तमाम सत्य व्यक्त करता है जिनकी मानवजाति को आवश्यकता है। ऐसी पृष्ठभूमि में, परमेश्वर औपचारिक रूप से वह प्रदान करना शुरू करता है, जिसकी मानवजाति को आवश्यकता है—वह मानवजाति को उस स्थिति में समस्त सत्य प्रदान नहीं करता, जहाँ मानवजाति पूरी तरह से अबोध होती है। जब मानवजाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दी गई होती है और लोग मानते हैं कि उन्हें बचाए जा सकने का कोई रास्ता नहीं है, ठीक तभी परमेश्वर आता है, अपने वचन बोलता है, अपना कार्य करता है, मनुष्यों के बीच चलता है और वे वचन व्यक्त करता है जिन्हें वह व्यक्त करना चाहता है, और जो तथ्य वह पूरे करना चाहता है उन्हें पूरा करने के लिए सिर्फ वचनों का पोषण इस्तेमाल करता है। सृजित मानवजाति के बीच कोई भी अपेक्षाकृत सक्षम व्यक्ति यह कार्य करने की चुनौती स्वीकारने की हिम्मत नहीं करता, क्योंकि लोग इसे काफी कठिन कार्य मानते हैं, ऐसा कार्य जिसे करना असंभव है। फिर भी बिल्कुल इसी संदर्भ में परमेश्वर ने अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन-योजना का यह कार्य शुरू किया है, ऐसा कार्य जिसमें तमाम चीजें पूरी करने के लिए वचनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक बहुत बड़ा उपक्रम है, एक अभूतपूर्व कार्य, और तो और, यह एक युग का निर्माण करने और लंबे समय तक चलने वाला कार्य है। चाहे कोई कितना भी कहे या कुछ भी कहे या उसके कहने का कुछ भी सार हो, कोई भी वे कर्म करने में सक्षम नहीं है जिन्हें उसके शब्द हासिल करना चाहते हैं। सिर्फ परमेश्वर के वचन ही पूरे हो सकते हैं, और सिर्फ परमेश्वर के वचन ही परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके विचार की योजनाओं के अनुसार पूरे हो सकते हैं—यह भी परमेश्वर का अधिकार है। क्या लोगों को ये चीजें समझनी नहीं चाहिए? (हाँ, उन्हें समझनी चाहिए।) तो, इन चीजों को समझने का क्या महत्व है? कौन बोलेगा? (एक पहलू तो यह है कि लोगों को परमेश्वर के कार्य की बुद्धि की कुछ समझ आ सकती है और वे समझ सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य उन अबोध लोगों पर नहीं किया जाता, जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट नहीं किया है। इसके बजाय, परमेश्वर शैतान को अपनी सेवा में इस्तेमाल करता है और उन लोगों पर उद्धार का कार्य करता है जिन्हें शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। लोग इस कार्य को बहुत कठिन मानते हैं, फिर भी परमेश्वर के वचनों का प्रभाव लोगों पर अवश्य पड़ता है। इसके अलावा, सामान्यतः अपने अनुभवों के दौरान, हम अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों से विवश होते हैं और भ्रष्टता प्रकट किए बिना नहीं रह पाते, हम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो जाते हैं, और कभी-कभी हम इतने नकारात्मक हो सकते हैं कि हम अपनी आस्था खो देते हैं। लेकिन, परमेश्वर की संगति सुनने के बाद हम परमेश्वर के वचनों में विश्वास करने लगते हैं और समझ जाते हैं कि अगर हम सत्य से प्रेम करें और उसे स्वीकार लें, तो हमारे भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं और हमारे भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तनीय नहीं हैं। अगर व्यक्ति अपने सार में सत्य से प्रेम नहीं करता या उसे स्वीकारता नहीं, तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव बदलने में असमर्थ होगा।) तुम्हारा कहना पूरी तरह से उचित और सही है।

परमेश्वर के वचन सभी चीजें पूरी कर सकते हैं और सभी चीजें बदल सकते हैं। साथ ही, लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों का उन पर एक और प्रभाव पड़ता है—सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। इससे हम क्या देखते हैं? (हम परमेश्वर का अधिकार देखते हैं।) हम परमेश्वर का अधिकार, परमेश्वर की बुद्धि देखते हैं, और हम उसके वचनों में प्रदर्शित शक्ति देखते हैं। चूँकि परमेश्वर के वचन उसका जीवन, सार और स्वभाव दर्शाते हैं, इसलिए वे ठीक परमेश्वर की ही तरह हमेशा रहेंगे। यह तुम्हें क्या बताता है? यह तुम्हें बताता है कि परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। चाहे तुम्हें कुछ भी मिल जाए, वह कोई वास्तविक खजाना नहीं है। तुम्हें सोने की सिल्लियाँ मिल जाएँ या दुनिया का कोई दुर्लभ और कीमती रत्न, वे असली खजाने नहीं हैं। अगर तुम्हें अमृत भी मिल जाए, तो उसका भी मोल एक दमड़ी भी नहीं है। यहाँ तक कि अगर तुम आत्म-विकास का अभ्यास कर स्वर्ग तक उड़ने में भी सफल हो जाओ, तो भी जरूरी नहीं कि तुम हमेशा के लिए जीवित रहो, और वह इसलिए कि तुम एक सृजित प्राणी हो, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और परमेश्वर की संप्रभुता से कोई नहीं बच सकता। सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। इन वचनों को जानने का क्या उपयोग है? अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुम्हें सत्य या परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम नहीं है, तो शायद तुम्हें इन वचनों या इस तथ्य में रुचि न हो। लेकिन, अगर तुम परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करते हो, सत्य से प्रेम करते हो, और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हो, तो तुम्हारी इन वचनों में गहरी रुचि विकसित हो जाएगी और तुम इस तथ्य और इन वचनों को अपने दिल में गहरे उकेर लोगे। वे कौन-से वचन हैं? सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। तुम लोगों को ये वचन अपने दिल में रख लेने चाहिए और अपने खाली समय में इन पर विचार करना चाहिए। ये वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं। मुझे बताओ, तुम लोगों को इनसे क्या मिलता है? (परमेश्वर, मैं कुछ समझता हूँ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे।” कभी-कभी बाहरी दुनिया में चीजें बदल जाती हैं, और जब हम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो हमारी अवस्था बदल जाती है और परमेश्वर का अनुसरण करने का हमारा दृढ़ संकल्प भी बदल जाता है। हमारे लिए यह मुश्किल हो जाता है कि हम नकारात्मक और कमजोर महसूस न करें, लेकिन जब हम परमेश्वर के इन वचनों और परमेश्वर द्वारा हमसे शुरुआत में किए गए वादों के बारे में सोचते हैं, और इस बारे में भी कि परमेश्वर ने कहा था कि वह ऐसे लोगों का एक समूह हासिल करना चाहता है जो उसके साथ एक दिल और दिमाग के हों, तो हमारे दिलों में शक्ति और आस्था की बाढ़ आ जाती है। अब हम बाहरी दुनिया की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते, और हममें परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने की आस्था उत्पन्न हो जाती है।) ये वचन तुम लोगों को अभ्यास का एक मार्ग देते हैं—कैसा अभ्यास का मार्ग? यह भौतिक संसार में किसी चीज का अनुसरण करना या उसे सँजोना नहीं है; ये चीजें तो खोखली हैं। तुम्हारी आँखों के सामने प्रसिद्धि, लाभ, पद, भौतिक सुख, स्त्री-सौंदर्य, और पुरुषों की पहचान और हैसियत जैसी सभी चीजें क्षणभंगुर हैं, पलक झपकते ही खत्म हो जाती हैं, और इन चीजों को सँजोना व्यर्थ है। इसे व्यर्थ कहने से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि ये चीजें सिर्फ तुम्हारी देह की क्षणिक जरूरतों, अभिरुचियों और इच्छाओं, या तुम्हारी मनोदशा और स्नेह आदि की ही पूर्ति कर सकती हैं, तुम्हारी आध्यात्मिक जरूरतों की नहीं। जब तुम्हारी आत्मा भूख, प्यास और खोखलापन महसूस करती है, तो भौतिक संसार की कोई भी चीज तुम्हारी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकती या तुम्हारे अंतरतम हृदय का खोखलापन नहीं भर सकती, इसीलिए इन चीजों का अनुसरण करना व्यर्थ है। तो, कौन-सी चीज तुम्हें संतुष्ट कर सकती है और तुम्हारे अंतरतम हृदय का खोखलापन भर सकती है? जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो और सत्य समझते हो, तो तुम्हारा अंतरतम हृदय पुनः भर जाता है और शांति और आनंद प्राप्त करता है, और तुम्हारा हृदय संतुष्ट और सहज महसूस करता है। अगर तुम इसी तरह से अनुसरण करना जारी रखते हो, तो जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाते हैं, तो कोई तुमसे तुम्हारा जीवन नहीं छीन सकता, न उसे नष्ट कर सकता है। जब कोई तुमसे तुम्हारा जीवन नहीं छीन सकता या उसे नष्ट नहीं कर सकता, तब तुम क्या महसूस करोगे? तुम अब खोखलापन महसूस नहीं करोगे, तुम इस दुनिया में रहते हुए खोया हुआ, भयभीत या असहज महसूस नहीं करोगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर परमेश्वर के वचन होंगे जो तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे, तुम्हें पोषण प्रदान करेंगे, तुम्हें उद्देश्य और दिशा के साथ जीने में सक्षम बनाएँगे। तुम हर दिन अर्थ और मूल्य की भावना के साथ जियोगे। लोग वास्तव में ऐसा ही महसूस करते हैं। तो यह सकारात्मक परिणाम, जिसे लोग वास्तव में महसूस करते हैं, कैसे प्राप्त होता हैं? (यह लोगों में परमेश्वर के वचनों से तब प्राप्त होता है, जब वे उन्हें अभ्यास में लाते हैं।) यह सही है, जब लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो उनमें यह परिणाम प्राप्त होता है; उनका जीवन बदल जाता है, उनके जीने का तरीका बदल जाता है, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार अलग हो जाते हैं, लोगों और चीजों को देखने का उनका तरीका अलग हो जाता है, और इसलिए उनका अनुसरण भी अलग हो जाता है। वे अब उन दैहिक सुखों, भौतिक पुरस्कारों, या प्रसिद्धि, लाभ और पद का अनुसरण नहीं करते। अपनी दैहिक अभिरुचियों की चीजों का अनुसरण करने से व्यक्ति सिर्फ अधिकाधिक नीरस, खोखला, असहज और पीड़ित महसूस कर सकता है। लेकिन, जब परमेश्वर के वचन व्यक्ति के दिल में घर कर लेते हैं, तो सत्य उनके भीतर का जीवन बन जाता है, उनका आंतरिक सार और जीवन बदल जाता है, और इसलिए वे बिल्कुल अलग महसूस करते हैं। उनकी भावनाएँ और अभिरुचियाँ, उनके विभिन्न भाव, जीवन में उनके लक्ष्य, उनके अनुसरण की दिशा और जीने के उनके नियम सब पूरी तरह से अलग हो जाते हैं। उनका अनुसरण बदल जाता है, वे सत्य का अनुसरण और परमेश्वर को जानने की कोशिश कर पाते हैं, और वे उस तरीके के अनुसार जीने में सक्षम हो जाते हैं जिस तरीके से परमेश्वर उनसे जीने की अपेक्षा करता है। जो लोग इसे प्राप्त कर लेते हैं, वे क्षय, मृत्यु और विनाश का सामना नहीं करते, बल्कि उन्हें वास्तविक जीवन प्राप्त हो जाता है, ऐसा जीवन जिसका क्षय नहीं होता। जब मैं कहता हूँ कि इसका क्षय नहीं होता, तो इससे मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि इन लोगों के भीतर का यह जीवन लुप्त नहीं होगा, नष्ट नहीं होगा, क्षीण नहीं होगा, खराब नहीं होगा, और उन्हें पहले की तरह विनाश का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस तरह, क्या उनके अस्तित्व की वर्तमान दशा और उनके जीवित रहने की संभावनाएँ नहीं बदलतीं? स्पष्ट है कि उनकी जीवित रहने की संभावनाओं में बदलाव आता है। क्या कारण है कि मनुष्य का जीवन क्षीण पड़ जाता है, मुरझा जाता है, सड़ने लग जाता है, समाप्त हो जाता है और नष्ट हो जाता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोग परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन नहीं बनाते, और चाहे कोई सौ साल जिए, या दो सौ साल, या तीन सौ साल, या एक हजार साल, उसके जीने के नियम, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, और उसके जीवन का अर्थ नहीं बदलता। तो, जो लोग इस तरह जीते हैं, वे वास्तव में किसके लिए जीते हैं? वे पूरी तरह से अपने दैहिक सुखों की पूर्ति के उद्देश्य से जीते हैं। मनुष्य की देह किस चीज का अनुसरण करती है? धन, प्रसिद्धि, लाभ और भौतिक सुखों जैसी चीजों का, और ठीक यही वे चीजें हैं जो परमेश्वर की नजर में सत्य के विपरीत हैं, और जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। इसलिए परमेश्वर द्वारा लोगों को इन चीजों का अनुसरण करने देने और इनका आनंद लेने देने की एक समय-सीमा है। मनुष्य का एक जीवन लगभग साठ या सत्तर, अस्सी या नब्बे वर्ष तक चल सकता है और फिर समाप्त हो जाता है, और हर समाप्ति पर पुनर्जन्म का एक नया दौर चलता है, और इस तरह मनुष्य का जीवनकाल पूरा होता है। अगर परमेश्वर ने यह समय-सीमा पूर्वनिर्धारित न की होती, तो क्या लोग लंबे समय तक जीवित रहने के बाद जीने से ऊब न जाते? जब लोग लगभग बीस वर्ष के होते हैं, तो वे रोज महसूस करते हैं कि चीजें ताजा, सुंदर और सुखद हैं; जब वे लगभग चालीस की उम्र में पहुँचते हैं, तो उन्हें लगता है कि दिन में तीन बार भोजन करना और रात में सो जाना जीने का एक उबाऊ तरीका है; जब वे साठ की उम्र में पहुँचते हैं, तो उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे सब-कुछ समझते हैं, और उन्होंने कुछ आशीष पाए हैं, कुछ कष्ट उठाए हैं, और उन्हें लगता है कि अब कुछ भी दिलचस्प नहीं है। वे रोज सूरज निकलने पर अपना काम शुरू कर देते हैं और सूरज ढलने पर आराम करते हैं, और पलक झपकते ही दिन खत्म हो जाता है। उनकी हर शारीरिक गतिविधि में गिरावट आने लगती है, जो तब से बिल्कुल अलग होती है जब वे लगभग बीस की उम्र के थे—यह तब होता है जब उनका अंत निकट होता है। जब व्यक्ति का अंत निकट होता है, तो इसका यह मतलब नहीं होता कि उसकी आत्मा समाप्त हो जाएगी। इसका मतलब यह है कि उसकी देह जल्दी ही समाप्त हो जाएगी। आम तौर पर लोग लगभग साठ, सत्तर या अस्सी की उम्र में पहुँचने पर मर जाते हैं, और लंबी उम्र वाले लोग ज्यादा से ज्यादा सौ साल से ऊपर जीवित रह सकते हैं। एक कहावत इस प्रकार है, “बहुत लंबे समय तक जीवित रहने वाला व्यक्ति जीने से थक जाता है—वह जीवन से ऊब चुका होता है।” जब व्यक्ति बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहता है, तो वह जीवन से ऊब जाता है, वह और नहीं जीना चाहता, और जीवन उसके लिए निरर्थक हो जाता है। उसे ऐसा क्यों लगता है कि जीवन निरर्थक है? यहाँ एक वास्तविक स्थिति है, और वह यह है कि लोग अपनी देह में दिन में तीन बार भोजन करते हुए और अपने दैनिक काम करते हुए जीते हैं, उनका हर दिन बिल्कुल पिछले दिन की ही तरह, वही काम करते हुए, वही जीवन जीते हुए बीतता है, और जब वे एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाते हैं, तो वे इन चीजों को पूरी तरह से जान जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने हर वह चीज देख ली है जो उन्हें देखनी चाहिए थी, हर उस चीज का स्वाद ले लिया है जिसका स्वाद उन्हें लेना चाहिए था और वह सब अनुभव कर लिया है जो उन्हें अनुभव करना चाहिए था। उन्हें लगता है कि जीवन बस ऐसा ही है, और उनके पास आशा करने के लिए कुछ नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है जिसका वे इंतजार करें, और उनका जीवन खोखला है और जल्दी ही उनका अंत हो जाएगा। क्या यही मामला नही है? (यही मामला है।) चीजें ऐसी ही हैं।

हमने अभी इन वचनों के बारे में बात की, “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे।” ये वचन लोगों को यह तथ्य बताते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं, और ये लोगों को उनके लक्ष्य और अभ्यास की दिशा भी बताते हैं, और यह बताते हैं कि किसी भी चीज का कोई भी अनुसरण मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति भी प्राप्त करने का विकल्प नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सभी चीजें समय के साथ कुम्हला, मुरझा और कमजोर हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन ही कभी नष्ट नहीं होंगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के वचन प्राप्त कर उनकी वास्तविकता में प्रवेश करते हो, जिसका अर्थ है कि तुम सत्य समझते हो और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य के कारण मूल्य प्राप्त होता है, और तुम्हारा सार पहले से भिन्न हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा सार भिन्न हुआ तो क्या हुआ?” मेरा अभिप्राय सामान्य अर्थों में भिन्न होने से नहीं है, बल्कि तुम्हारा सार अत्यधिक भिन्न हो जाता है, क्योंकि तुम परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में अपना लेते हो, और परमेश्वर के वचनों की ही तरह तुम भी नष्ट नहीं होगे, परमेश्वर की ही तरह तुम्हारे पास शाश्वत जीवन होगा, और तुम्हारे पास शाश्वत भूत, भविष्य और गंतव्य होगा। तो अब, यह देखते हुए कि भविष्य में क्या होगा, क्या परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं? (हाँ, वे महत्वपूर्ण हैं।) वे निर्णायक हैं! यह समझ लेने के बाद कि परमेश्वर के वचन महत्वपूर्ण हैं, तुम्हें किस तरह अनुसरण करना चाहिए? तुम्हें ऐसी किस चीज का अनुसरण करना चाहिए, जिसका मूल्य और अर्थ हो? क्या तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में ज्यादा प्रयास करने, ज्यादा कष्ट सहने, ज्यादा कीमत चुकाने और ज्यादा भागदौड़ करने का अनुसरण करना चाहिए? या तुम्हें पेशेवर कौशलों का ज्यादा अध्ययन करना चाहिए, खुद को ज्यादा सिद्धांतों से सुसज्जित करना और ज्यादा प्रवचन देना चाहिए? (इनमें से कुछ नहीं करना चाहिए।) तो फिर तुम्हारे लिए किस चीज का अनुसरण करना सबसे उपयोगी है? तुम सभी लोग उत्तर जानते हो, यह तुम्हारे लिए शीशे की तरह साफ है : परमेश्वर के वचनों की प्राप्ति ही सबसे मूल्यवान और सार्थक अनुसरण है। “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे।” ये वचन अपने दिल में याद रखो और तुम्हें इन्हें कभी नहीं भूलना या त्यागना चाहिए। जब तुम नकारात्मक और कमजोर महसूस करते हो, जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, जब तुम्हारे सामने क्लेश आते हैं, जब तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य से हटा दिया जाता है, जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, जब तुम्हें विघ्नों और असफलताओं का सामना करना पड़ता है, और जब तुम्हें डाँटा जाता है और तुम्हारी निंदा की जाती है; या फिर जब तुम अपनी सफलता के शिखर पर होते हो, जब तुम जहाँ भी जाते हो लोग तुम्हें खूब आदर-मान देते हैं और तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, इत्यादि; किसी भी समय और किसी भी स्थिति में, तुम्हें हमेशा इन वचनों के बारे में सोचना चाहिए और उन्हें तुम्हें परमेश्वर के सामने लाने देना चाहिए और उस क्षण में तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचनों का पोषण खोजने देना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को तुम्हें तुम्हारे कष्टों से मुक्त करने में मदद करने देना चाहिए, तुम्हारी कठिनाइयाँ हल करने देनी चाहिए, तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद भ्रम दूर करने देना चाहिए, तुम्हें उस गलत रास्ते से वापस लाने देना चाहिए जिस पर तुम चल रहे हो, और तुम्हारे अपराधों, तुम्हारी हठधर्मिता, तुम्हारी विद्रोहशीलता इत्यादि का समाधान करने देना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे सामने आने वाली हर समस्या हल करने देनी चाहिए। ये वचन तुम लोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं! जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हारी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य क्या हैं, जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हें कौन-सा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य अपनाना चाहिए और तुम्हारी पहचान और हैसियत क्या है, तो इन वचनों को याद करो। ये वचन तुम्हें परमेश्वर के सामने लाएँगे, ये तुम्हें परमेश्वर के वचनों में लाएँगे, ये तुम्हें यह समझ दिलाएँगे कि इस क्षण परमेश्वर का क्या इरादा है, और ये तुम्हें खुद को, दूसरों को, और तुम्हारे सामने आने वाली घटनाओं और परिवेशों को समझने के लिए सही दृष्टिकोण, नजरिया और परिप्रेक्ष्य अपनाने में मदद करेंगे। इस तरह, परमेश्वर के मार्गदर्शन के तहत और परमेश्वर के वचनों के पोषण, प्रबुद्धता और सहायता के तहत, कोई समस्या तुम्हें डगमगा नहीं सकती, और कोई समस्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करने से बाधित नहीं कर सकती और तुम्हारे बढ़ते कदम रोक नहीं सकती। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (है।) जो सबक अब तुम लोगों को सीखना चाहिए, वह है कुड़कुड़ाना नहीं, शिकायत न करना और नियमों पर न अड़े रहना, या समस्याओं का सामना करने पर मनुष्य के नजरिये न तलाशना, बल्कि परमेश्वर के सामने आना और सत्य खोजना, परमेश्वर की सहायता माँगना, परमेश्वर के वचनों को तुम्हें पोषण प्रदान करने देना और तुम्हारी हर कठिनाई हल करने देना—यही वह सबक है जो तुम लोगों को सीखना चाहिए। यहाँ हम शैतान द्वारा मानवजाति को गहन रूप से भ्रष्ट किए जाने की पृष्ठभूमि में परमेश्वर द्वारा अपनी प्रबंधन-योजना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य शुरू करने को समझने के विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे; अंत में, यह सब परमेश्वर के वचनों पर निर्भर करता है। हम कैसे भी संगति करें, अंत में मैं आशा करता हूँ कि लोग परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे और सिर्फ यह जानकर संतुष्ट नहीं हो जाएँगे कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कैसे किया जाए या धार्मिक सिद्धांत का अध्ययन कैसे किया जाए या रोज धार्मिक समारोहों में कैसे भाग लिया जाए। परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना जीवन-प्रवेश का सबसे जरूरी सबक है, जो लोगों को अवश्य सीखना चाहिए।

अब हम नैतिक आचरण पर विभिन्न कहावतों से संबंधित एक और व्यावहारिक समस्या पर संगति करेंगे। नैतिक आचरण संबंधी जिन विभिन्न कहावतों पर हमने पहले संगति की थी, वे मूल रूप से परंपरागत चीनी संस्कृति का नमूने के रूप में प्रदर्शन करके उजागर की गई थीं, जिससे भ्रष्ट मनुष्यों के अंतरतम हृदयों में मौजूद ये बहुआयामी शैतानी कहावतें उजागर हो गई थीं। कुछ लोग कहते हैं, “यह देखते हुए कि नैतिक आचरण से संबंधित इन कहावतों को प्रदर्शित करने के लिए परंपरागत चीनी संस्कृति का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन हम चीनी नहीं हैं, तो क्या हम इन वचनों को अस्वीकार नहीं सकते, जिनकी तुम संगति कर रहे हो? क्या हमें वाकई शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता से जुड़ी इन नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतों को जानने की आवश्यकता है?” क्या यह कहना सही है? (नहीं।) बहुत स्पष्ट रूप से, यह गलत है। शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता नस्ल या समय के बीच अंतर नहीं करती, बल्कि वह नस्ल या समय या धार्मिक पृष्ठभूमि का भेद किए बिना मनुष्य को भ्रष्ट करती है। इसलिए, अगर तुम चीनी नस्ल के हो, चाहे तुम हान चीनी हो या मंगोलियाई, हुई, मियाओ, यी इत्यादि जैसे अल्पसंख्यक जातीय समूह के हो, तो बिना किसी अपवाद के शैतान से आई नैतिक आचरण संबंधी तमाम तरह की कहावतें तुम्हारे मन में भरी गई हैं और तुम्हें उनकी शिक्षा दी गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम भी, बिना किसी अपवाद के, अपनी सोच के संदर्भ में शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता के भागी बनाए गए हो। सटीक रूप से कहें तो, तुम्हारी सोच, तुम्हारी अंतरतम आत्मा और तुम्हारा अंतरतम हृदय भी शैतान ने गहराई से भ्रष्ट और संसाधित किया है। अगर तुम चीनी नहीं हो—अगर तुम जापानी, कोरियाई, जर्मन या किसी भी राष्ट्रीयता के हो—चाहे तुम एशियाई, यूरोपीय, अफ्रीकी या अमेरिकी हो, चाहे तुम्हारी त्वचा पीली, काली, भूरी या सफेद हो, चाहे तुम्हारी जातीयता कुछ भी हो और तुम किसी भी नस्ल के हो, अगर तुम एक सृजित प्राणी हो, तो शैतान ने तुम्हें बिना किसी अपवाद के गहराई से भ्रष्ट किया है। तुम्हारे शैतानी भ्रष्ट स्वभाव होने के अलावा, बिना किसी अपवाद के शैतान ने तुममें शैतानी विचार और दृष्टिकोण डाले हैं, और निस्संदेह तुम्हारा दिल भी शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। बात सिर्फ इतनी है कि, विभिन्न देशों और विभिन्न नस्लों के लोगों के लिए, शैतान उनमें वही चीजें डालने के लिए विभिन्न तरीके इस्तेमाल करता है। ये चीजें कहने में भिन्न हो सकती हैं, कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन लोगों को भ्रष्ट करने का अंतिम परिणाम हमेशा एक-सा ही होता है और व्यापक रूप से समान होता है, सिर्फ मामूली अंतर होते हैं। वे सब लोगों को अपने व्यवहार के माध्यम से अपना असली रूप-रंग छिपाने के लिए प्रेरित करती हैं और कई दिखावटी, अवास्तविक, यहाँ तक कि मानवता-विरोधी अनैतिक कहावतों के माध्यम से वे माँग करती हैं कि लोग एक निश्चित तरीके से पेश आएँ और अपने नैतिक चरित्र के संदर्भ में एक निश्चित तरीके से व्यवहार करें, और माँग करें कि लोगों को कैसे आचरण करना चाहिए और कुछ चीजें कैसे करनी चाहिए। भले ही इन कहावतों में अंतर हो, और भले ही वे अलग-अलग समय पर उत्पन्न होती हों और विभिन्न कोनों, विभिन्न इलाकों और विभिन्न क्षेत्रों से आती हों, और विभिन्न लोगों से उत्पन्न हुई हों, फिर भी अंतिम परिणाम हमेशा यही होता है कि वे लोगों के विचारों और दिलों को नियंत्रित करती हैं, लोगों के विचारों और दिलों को सीमित कर देती हैं, और लोगों की सोच में वे विचार और धारणाएँ भर देती हैं जिनमें शैतान के जहर और उसका प्रकृति-सार होता है। उनकी वजह से लोगों के अंतरतम हृदय शैतान के विचारों, उसके दुष्ट सार और उसकी दुष्ट धारणाओं से भर जाते हैं। अंततः, सभी मनुष्य, चाहे वे किसी भी जाति या नस्ल के हों, और चाहे वे किसी भी जनजाति या समयावधि के हों, शैतान द्वारा गुमराह किए और कुचले गए हैं और उसने उनके विचारों और अंतरतम हृदयों को भिन्न मात्राओं में भ्रष्ट किया है। अंत में, जिन पर शैतान भ्रष्टता का यह कार्य करता है, वे लोग चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हों, या किसी भी नस्ल के हों, या किसी भी समयावधि में रहे हों, इसका परिणाम हमेशा मनुष्य को पूर्ण रूप से शैतान की संतान, उसका प्रवक्ता और मूर्त रूप बनाना, और मनुष्य को पूर्ण रूप से बड़े-छोटे, मूर्त-अमूर्त दोनों तरह के जीवित शैतान बनाना होता है। निस्संदेह, ऐसा मनुष्य परमेश्वर का पक्का शत्रु और विरोधी भी बन जाता है। इसलिए, चाहे अब जिस तरह के लोग उपदेश सुन रहे हों या जितने भी लोग हों, यह एक निर्विवाद तथ्य है : संपूर्ण मानवजाति उस दुष्ट के चंगुल में है—यह एक तथ्य है। अगर हम इसे दूसरे तरीके से कहें तो, इसका मतलब यह है कि जहाँ पूरी मानवजाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा रही है, वहीं पूरी मानवजाति के विचार और दिल भी पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण और उसकी कैद में हैं—यह निर्विवाद है। इसलिए, कोई भी महान जाति और किसी भी शक्तिशाली देश से संबंधित राष्ट्रीयता वाले कोई भी लोग, बिना किसी अपवाद के शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं, और शैतान द्वारा गहराई से प्रभावित, नियंत्रित और सीमित किए गए हैं। अगर तुम मानवजाति के सदस्य हो, पृथ्वी पर रहते हो, अगर तुम हवा में साँस लेने, पानी पीने और अनाज खाने वाले मनुष्य हो, तो तुम्हारा शैतान द्वारा भ्रष्ट होना अपरिहार्य रहा है और बिना किसी अपवाद के, अपने विचारों, अपने हृदय, अपने स्वभाव और अपने सार में तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हो। इसे और ज्यादा सटीक रूप से कहें तो, अगर तुम एक सृजित मनुष्य हो और अगर तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हो, तो तुम परमेश्वर के दुश्मन हो। अगर तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हो, तो अगर तुम अतीत में शैतान द्वारा नियंत्रित और सीमित थे या अब किए जा रहे हो, तुम परमेश्वर द्वारा बचाए जाने वाली वस्तु हो, और इसमें कोई शक नहीं है। अगर तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य हो, तो बिना किसी अपवाद के तुममें शैतान का स्वभाव और सोच है और एक ऐसा दिल है जो शैतान के विषों से भरा और उनके कब्जे में है। इसलिए, शैतान से आने वाले विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और नैतिक आचरण से संबंधित विविध कहावतों को पहचानना और समझना सिर्फ चीनी लोगों का काम नहीं है, न ही यह कोई ऐसी चीज है जिस पर चीनी लोगों का एकाधिकार हो। इसके विपरीत, यह एक सबक है जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक को, जिसे उसने चुना है, सीखना चाहिए और एक वास्तविकता है जिसमें उसे प्रवेश करना चाहिए। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक को शैतान से आने वाले तमाम असंख्य भ्रामक और बुरे विचारों और दृष्टिकोणों को पहचानना और समझना चाहिए। यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुम एक अमीर परिवार में, एक प्रमुख स्थान रखने वाले परिवार में पैदा हुए हो, तो तुम खुद को शैतान द्वारा भ्रष्ट न मानते हुए श्रेष्ठता की भावना रख सकते हो, और सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास एक सम्मानजनक पहचान है, तो तुम्हारी आत्मा भी कुलीन होगी—यह एक विकृत समझ है। या शायद तुम मानते हो कि तुम्हारा वंश कुलीन है, और तुम्हारी त्वचा का रंग दर्शाता है कि तुम्हारी एक सम्मानजनक पहचान, पद और मूल्य है, इसलिए तुम गलत ढंग से यह मानते हो कि तुम्हारा सार, तुम्हारी सोच और तुम्हारा हृदय दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ और ऊँचा है। अगर ऐसा है, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हारी यह समझ मूर्खतापूर्ण और अवास्तविक है, क्योंकि परमेश्वर जिस मानवजाति की बात कर रहा है, वह राष्ट्रीयता, नस्ल या धर्म से विभाजित नहीं है। तुम चाहे जैसी भी सामाजिक परिस्थितियों या धार्मिक स्थिति में रहते हो, और चाहे तुम जिस भी नस्ल में पैदा हुए हो, या समाज में तुम्हारा स्थान निम्न हो या उच्च, या चाहे तुम अन्य लोगों के बीच उच्च प्रतिष्ठा रखते हो या न रखते हो, इत्यादि, तुम इनमें से किसी भी चीज का इस्तेमाल परमेश्वर के इन वचनों को न स्वीकारने या इस तथ्य को न स्वीकारने के बहाने के रूप में नहीं कर सकते कि शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है। अगर तुम एक मनुष्य हो, तो “मनुष्य” शब्द के पहले गुणवाचक शब्द “भ्रष्ट” होना ही चाहिए। सटीक रूप से कहें तो, अगर तुम एक मनुष्य हो, तो तुम अवश्य ही एक भ्रष्ट मनुष्य होगे, और यह तमाम संदेहों से परे है। इसके अलावा, हम कह सकते हैं कि अगर तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, तो तुम्हारी प्राकृतिक सोच के भीतर की चीजें और तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद चीजें शैतान से आती हैं और वे सब शैतान द्वारा गहराई से संसाधित और भ्रष्ट कर दी गई हैं—तुम्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए। तुममें स्वाभाविक रूप से सत्य से संबंधित कुछ भी नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के जीवन से कोई लेना-देना हो, उलटे तुम शैतान द्वारा गुमराह और भ्रष्ट किए गए और नियंत्रित किए गए हो। तुम्हारा दिमाग शैतान के विचारों, फलसफों, तर्क और जीने के नियमों से भरा है, और तुम्हारे दिमाग में सब-कुछ शैतान से आता है। यह तथ्य लोगों को क्या बताता है? किसी को भी परमेश्वर का उद्धार नकारने या परमेश्वर के वचनों को चुनिंदा रूप से स्वीकारने के लिए कोई बहाना नहीं बनाना चाहिए। एक भ्रष्ट मनुष्य के रूप में तुम्हें बिना कोई चुनाव किए परमेश्वर के वचन स्वीकारने चाहिए। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है और तुम्हें इसकी आवश्यकता भी है। अगर किसी व्यक्ति का जन्म एक धनी और शक्तिशाली राष्ट्र में हुआ है और वह श्रेष्ठ सामाजिक परिस्थितियों में रहता है, या उसका जन्म एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ है और उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की है, और इसलिए वह खुद को बाकी सबसे अलग और परमेश्वर के चुने हुए अन्य लोगों से ज्यादा श्रेष्ठ मानता है, और इसलिए खुद को परमेश्वर के चुने हुए अन्य सभी लोगों में ऊपर रखना चाहता है, तो यह बेतुकी सोच है, यह मूर्खतापूर्ण सोच है, यहाँ तक कि इसे बेहद मूर्खतापूर्ण भी कहा जा सकता है। चाहे तुम्हारी पहचान, पद या मूल्य कितना भी विशेष हो, या तुम्हारी पहचान, पद या सामाजिक परिस्थितियाँ साधारण लोगों की तुलना में कितनी भी ऊँची हों, परमेश्वर के सामने तुम हमेशा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम कहाँ से आए हो या तुम्हारे जन्म के समय की परिस्थितियाँ क्या थीं, वह तुम्हारी राष्ट्रीयता या नस्ल नहीं देखता, और वह समाज या दुनिया में तुम्हारा मूल्य, प्रतिष्ठा या उपलब्धियाँ नहीं देखता। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम उसके वचनों को स्वीकारते हो या नहीं, तुम उसके वचनों को सत्य के रूप में लेते हो या नहीं, और तुम उसके वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकते और आचरण और कार्य कर सकते हो या नहीं। अगर तुम वास्तव में खुद को परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन साधारण सृजित प्राणियों में से एक मानते हो, तो तुम्हें अपनी सामाजिक परिस्थितियाँ, अपनी नस्लीय पृष्ठभूमि, अपनी राष्ट्रीय पृष्ठभूमि और अपनी धार्मिक पृष्ठभूमि छोड़ देनी चाहिए और एक साधारण सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के सामने आना चाहिए, बिना किसी ठप्पे या पृष्ठभूमि के उसके वचन स्वीकारने चाहिए, ऐसा करने से तुम्हारी पहचान और हैसियत ठीक हो जाएगी। अगर तुम इस सही पहचान और हैसियत के साथ परमेश्वर के वचन स्वीकारना चाहते हो, तो पहली चीज तुम्हें यह समझनी चाहिए कि मनुष्य का सार क्या है, और पहली चीज तुम्हें यह स्वीकारनी चाहिए कि मनुष्य का सार शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और मनुष्य के विचारों और उसके अंतरतम हृदय को भरने वाली और उन पर कब्जा कर लेने वाली सभी चीजें शैतान से आती हैं। चूँकि लोग परमेश्वर के वचन स्वीकारना चाहते हैं और सत्य को जीवन के रूप में स्वीकारना चाहते हैं, इसलिए उन्हें पहले अपनी सोच और अंतरतम हृदयों में सत्य के विपरीत और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण चीजों का पता लगाना चाहिए, उन पर विचार करना चाहिए और उन्हें जानना चाहिए। जब इन चीजों को स्पष्ट रूप से पहचाना जाता है, अच्छी तरह से समझा जाता है और उनका पूरी तरह से विश्लेषण किया जाता है, तभी लोग उन्हें सही समय पर और सही परिवेश में त्याग सकते हैं, जिससे उनके अंतरतम हृदयों में पूर्ण परिवर्तन हो सकता है। जब वे शैतान की सभी चीजें निष्कासित कर देते हैं और परमेश्वर के वचन और सत्य स्वीकार लेते हैं, तो वे नए लोग बन जाते हैं। जब उस परिप्रेक्ष्य, उन दृष्टिकोणों और नजरिये में, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, पूर्ण परिवर्तन आता है, तभी वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को सच में और सटीक रूप से देख सकते हैं। तब वे अपेक्षाकृत शुद्ध, निष्कलंक लोग बन जाते हैं। लोग अभी भी इसे हासिल नहीं कर सकते। हालाँकि वे अपने दिलों में थोड़ा-बहुत सत्य समझ सकते हैं, फिर भी वे तमाम तरह के बेतुके विचारों और गलत और बेतुकी चीजों से दूषित होते हैं। वे परमेश्वर के आधे वचन और आधा सत्य स्वीकारते हैं और दूसरे आधे को छोड़ देते हैं; वे चुनिंदा रूप से थोड़ा-सा स्वीकारते हैं, अलग-अलग मात्राओं में थोड़ा-सा स्वीकारते हैं, फिर भी अपने दिल में हमेशा शैतान के विचारों और तर्क के लिए और शैतान द्वारा उनमें डाली जाने वाली दिखावटी चीजों के लिए जगह छोड़ देते हैं, और उन चीजों को हमेशा अपने दिल में रखते हैं। लोगों के भीतर की ये चीजें उनके दिमाग, उनके निर्णय और उस परिप्रेक्ष्य और उन दृष्टिकोणों को प्रभावित करती हैं जिनके द्वारा वे लोगों और चीजों को देखते हैं, और इसका, जिस हद तक वे सत्य स्वीकारते हैं, उस पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है।

शैतान द्वारा परंपरागत संस्कृति का इस्तेमाल करते हुए लोगों के मन में बैठाई जाने वाली नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतों के कारण मनुष्य व्यापक रूप से भ्रष्ट और गुमराह होता है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो सिर्फ चीनी लोगों तक ही सीमित हो, बल्कि यह पूरी मानवजाति तक, हर कोने और हर समयावधि में पहुँचती है। यह लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभावित और नियंत्रित करती है, और विभिन्न जातियों, राष्ट्रीयताओं और धर्मों के लोगों को प्रभावित और नियंत्रित करती है। जब लोग इसे समझ जाते हैं, तो “परंपरागत संस्कृति” के साथ लगने वाला विशेषणात्मक शब्द सिर्फ “चीनी” नहीं होता; यह कहा जा सकता है कि हर राष्ट्र या जाति की परंपरागत संस्कृति शैतान से आती है और शैतान की भ्रष्टता से उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए, परंपरागत जापानी संस्कृति, परंपरागत कोरियाई संस्कृति, परंपरागत भारतीय संस्कृति, परंपरागत फिलिपीनी संस्कृति, परंपरागत वियतनामी संस्कृति, परंपरागत अफ्रीकी संस्कृति, गोरे लोगों की परंपरागत संस्कृति, और साथ ही यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म की परंपरागत संस्कृतियाँ, और वे अन्य परंपरागत संस्कृतियाँ जो धर्मों से उत्पन्न हुई हैं। ये तमाम परंपरागत संस्कृतियाँ सत्य के विपरीत हैं और लोगों के इस बात से संबंधित विचारों, दृष्टिकोणों और परिप्रेक्ष्यों पर गहरा प्रभाव डालती हैं कि वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं और कैसे आचरण और कार्य करते हैं। वे ठीक उन लोकप्रिय ब्रांडों की तरह हैं, जो लोगों के अंतरतम विचारों और दिलों पर गहरी छाप छोड़ते हैं। वे लोगों के जीवन, लोगों के जीवन जीने के नियमों, जीवन में उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों और उनके आचरण की दिशा और लक्ष्यों पर प्रभुत्व रखती हैं; यहाँ तक कि लोग जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे उन पर भी नियंत्रण रखती हैं। ये चीजें उस रवैये को गंभीर रूप से बाधित और प्रभावित करती हैं, जिससे लोग सकारात्मक चीजों, परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर को देखते हैं। बेशक, वे लोगों के इस बात से संबंधित दृष्टिकोणों और विचारों को भी गंभीर रूप से प्रभावित और बाधित करती हैं कि वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं और कैसे आचरण और कार्य करते हैं, यानी कि लोगों के सत्य स्वीकारकर उसका अभ्यास करने पर उनका गंभीर प्रभाव पड़ता है। और अंत में परिणाम क्या होता है? (लोग उद्धार प्राप्त करने का मौका खो देते हैं।) यह सही है, इससे अंततः लोगों के उद्धार प्राप्त करने का महत्वपूर्ण मामला ही प्रभावित होता है। क्या यह गंभीर परिणाम नहीं है? (हाँ, है।) यह बहुत गंभीर परिणाम है! व्यक्ति चीजों को कैसे देखता है, चीजों को देखने के लिए किस तरह का परिप्रेक्ष्य अपनाता है, चीजों को देखने के लिए कौन-से विचार अपनाता है और कौन-सी धारणाएँ रखता है, यह सब उसके भ्रष्ट स्वभावों और उसकी सोच में मौजूद चीजों के आधार पर तय होता है। अगर उसकी सोच में मौजूद चीजें सकारात्मक होती हैं, तो वह लोगों और चीजों को सही परिप्रेक्ष्य से देखेगा; अगर उसकी सोच में मौजूद चीजें नकारात्मक और निष्क्रिय होती हैं और शैतान से आई होती हैं, तो वह अनिवार्य रूप से लोगों और चीजों को गलत और बेतुके परिप्रेक्ष्यों, दृष्टिकोणों और विचारों से देखेगा, और अंततः इसका प्रभाव उस मार्ग पर पड़ेगा, जिसका वह अनुसरण करता है। अगर लोगों और चीजों को देखने के तुम्हारे दृष्टिकोण, विचार और परिप्रेक्ष्य गलत हैं, तो तुम्हारे अनुसरण के लक्ष्य और दिशा भी गलत है, और वह मार्ग भी गलत है जो तुम अपने आचरण में अपनाते हो। अगर तुम ये गलत चीजें जारी रखते हो, तो तुम्हारे पास उद्धार प्राप्त करने का मौका बिल्कुल नहीं होगा, क्योंकि तुम जिस मार्ग का अनुसरण करते हो, वह गलत है। अगर लोगों और चीजों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण, विचार और मत सही हैं, तो जो परिणाम निकलेंगे वे भी सही होंगे, वे सकारात्मक चीजों से संबंधित होंगे और सत्य के विपरीत नहीं होंगे। जब मनुष्य लोगों और चीजों को सत्य के अनुरूप परिप्रेक्ष्यों से देखता है, तो उसके द्वारा चुना गया मार्ग भी सही होता है, साथ ही उसके लक्ष्य और उसकी दिशा भी सही होती है, और अंत में उसके पास उद्धार प्राप्त करने की आशा होगी। लेकिन, चूँकि लोग अब शैतान के कब्जे में और उसके द्वारा नियंत्रित हैं, इसलिए लोगों और चीजों को देखने के उनके परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और विचार भी गलत होते हैं, जिसके कारण उनका अनुसरण और वह मार्ग, जिस पर वे चलते हैं, भी गलत होता है। उदाहरण के लिए, जब लोग प्रसिद्धि और लाभ, इज्जत और हैसियत की खातिर काम करते और कीमत चुकाते हैं, तो क्या यह मार्ग गलत होता है? (हाँ।) ऐसा कैसे होता है कि लोग ऐसे गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं होता कि इन चीजों को देखने के उनके परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और शुरुआती बिंदु गलत होते हैं? (ऐसा ही है।) इसके कारण लोग गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। और अगर लोग ऐसे गलत मार्ग पर चलते रहते हैं, तो क्या अंत में वे उद्धार प्राप्त कर पाएँगे? नहीं, वे नहीं कर पाएँगे। अगर तुम लोगों और चीजों को शैतान द्वारा तुममें डाले गए किसी विचार या दृष्टिकोण के अनुसार देखते हो और आचरण और कार्य करते हो, तो वह मार्ग, जिस पर तुम चलते हो, अनिवार्य रूप से तबाही का मार्ग होगा। वह उद्धार का मार्ग बिल्कुल नहीं होगा, क्योंकि वह उद्धार के मार्ग का ठीक विरोधी और विपरीत मार्ग है। अगर लोग इस गलत मार्ग पर चलते हैं, तो वे उद्धार प्राप्त करने का अपना मौका नष्ट कर लेते हैं, वह पूरी तरह से खत्म हो जाता है, और वे कभी उद्धार के मार्ग पर नहीं चल सकते। लेकिन अगर तुम सही दृष्टिकोण से अनुसरण करते हो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखते और आचरण और कार्य करते हो, तो इससे उत्पन्न होने वाले अभ्यास के सिद्धांत सकारात्मक होंगे, तुम्हारा मार्ग सकारात्मक होगा, और चूँकि तुम सही जगह से शुरुआत कर रहे हो, इसलिए अंततः जिस मार्ग पर तुम चलोगे, वह भी सही होगा। अगर तुम ऐसे मार्ग पर चलते रहते हो, तो तुम उद्धार प्राप्त करने में निश्चित रूप से सक्षम होगे। सत्य का यह पहलू कुछ हद तक गहन है और तुम लोगों में से ज्यादातर शायद इसे नहीं समझते। तुम्हें इसकी कोई समझ नहीं है, और तुममें अभी तक सत्य वास्तविकता का यह पहलू नहीं है। तुम नहीं जानते कि तुम गलत विचारों के आधार पर लोगों और चीजों को देखते और आचरण और कार्य करते हो या सही विचारों के आधार पर—तुम्हें अभी तक इसका अनुभव नहीं है। अभी तुम लोग सिर्फ कार्य करना, अपनी ताकत लगाना, प्रयास करना और कीमत चुकाना जानते हो, लेकिन तुमने यह जाँचना भी शुरू नहीं किया है कि तुम्हारे अंतरतम दिलों के दृष्टिकोणों और विचारों को क्या प्रभावित और नियंत्रित करता है। इसलिए यह विषय कुछ हद तक तुम लोगों की पहुँच से बाहर है और हम इसके बारे में यहीं बात करना बंद करते हैं।

हमने अभी नैतिक आचरण संबंधी कहावतों के सार के बारे में बात की थी और इस बारे में भी कि इसका दायरा सिर्फ चीनी मुख्य भूमि तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण मानवजाति से संबंधित है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि संपूर्ण मानवजाति उस दुष्ट के चंगुल में है, और प्रत्येक मनुष्य शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है और वह शैतान के नियंत्रण में है। ऐसा कहने का तथ्यात्मक आधार है। सिर्फ चीनी मुख्य भूमि के लोग ही शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गए हैं, बल्कि संपूर्ण मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई है, और सभी मनुष्य उस दुष्ट के चंगुल में हैं। मानवजाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दी गई है, इसे कुछ हद तक सभी लोग देख सकते हैं। हम पिछले कुछ समय से इस पर संगति कर रहे हैं कि शैतान लोगों के विचारों में नैतिक आचरण संबंधी विभिन्न कहावतें डाल देता है, और वह इसका इस्तेमाल लोगों को गुमराह कर उन्हें नियंत्रित और सीमित करने और इस प्रकार उन्हें भ्रष्ट करने का अपना उद्देश्य हासिल करने के लिए करता है। यह तथ्य चीनी लोगों तक सीमित नहीं है, बल्कि विभिन्न जातियों, विभिन्न राष्ट्रीयताओं और विभिन्न नस्लों के सभी लोगों में मौजूद है। शैतान द्वारा सभी मनुष्य गहराई से भ्रष्ट कर दिए गए हैं, जिनमें सभी जातियों और नस्लों के लोग शामिल हैं; वे बहुआयामी सत्याभासी चीजें जो शैतान द्वारा परंपरागत संस्कृति का इस्तेमाल करके लोगों के मन में बैठाई जाती हैं और जिन्हें पहचानना मुश्किल है, और वे चीजें भी, जो लोगों को अपेक्षाकृत सकारात्मक और अपने आचार-विचार, सोच और रुचियों के अनुरूप लगती हैं, वास्तव में शैतान द्वारा की गई मानवजाति की भ्रष्टता का हिस्सा हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि शैतान ने इस तरह से सभी मनुष्यों को भ्रष्ट कर दिया है, और हर जाति, नस्ल या राष्ट्रीयता के सभी मनुष्य, चाहे वे पृथ्वी के किसी भी स्थान पर या किसी भी क्षेत्र या भूमि पर पैदा हुए हों, शैतान ने उन्हें मन और हृदय दोनों में गहराई से गुमराह, नियंत्रित और भ्रष्ट किया है। तुम चाहे कहीं भी या कभी भी पैदा हुए हो, या किसी भी जाति या राष्ट्र में पैदा हुए हो, बिना किसी अपवाद के तुम शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बैठाई गई परंपरागत संस्कृति की कहावतों से गुमराह और भ्रष्ट किए गए हो। इसलिए, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि हम सिर्फ परंपरागत चीनी संस्कृति का विश्लेषण कर रहे हैं, इसलिए तुम्हारे अपने राष्ट्र या जाति की कोई शैतानी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नहीं है और तुम चीनी लोगों से बेहतर हो, न ही तुम्हारे अंदर श्रेष्ठता की भावना होनी चाहिए जिससे तुम चीनी लोगों से ज्यादा माननीय और श्रेष्ठ महसूस करो। श्रेष्ठता की यह भावना एक गलत धारणा है, यह गलत है, बेतुकी है, और हम यहाँ तक कह सकते हैं कि यह मूर्खतापूर्ण है। अगर भ्रष्ट मानवजाति का उल्लेख किया जाता है, तो तुम्हें खुद को उससे अलग नहीं करना चाहिए; अगर भ्रष्ट मानवजाति का उल्लेख किया जाता है, तो तुम उसका हिस्सा हो। निस्संदेह, अगर यह कहा जाता है कि तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, तो तुम्हारा अंतरतम हृदय उस परंपरागत संस्कृति के प्रभुत्व वाले विचारों से भरा होता है जिसे शैतान तुम्हारे मन में बैठाता है, और यह एक निर्विवाद तथ्य है, ऐसा तथ्य जो सदैव अपरिवर्तनीय है। तुम लोगों को यह तथ्य स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए—यह सवाल से परे है और इस पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। हम इस विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं।

पिछली बार हमने “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” विषय पर संगति की थी। यह वह कहावत है, जिसका इस्तेमाल शैतान लोगों को नैतिक आचरण की दृष्टि से भ्रष्ट करने के लिए करता है। इस कहावत का समर्थन लोगों की सोच पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है और नैतिक आचरण संबंधी अन्य कहावतों की तरह यह भी बेतुकी है और तथ्यों के अनुरूप नहीं है। कोई कुछ भी कहता हो, अगर वह ऐसा करता है, तो दूसरे लोगों को लगता है कि उनमें उत्कृष्ट नैतिकता और सम्माननीय चरित्र है, और यह बेतुका और हास्यास्पद दोनों है। यह कहावत इस बात में नैतिक आचरण संबंधी अन्य कहावतों के बिल्कुल समान है कि वे सभी बेतुकी और हास्यास्पद पाखंड और भ्रांतियाँ हैं। वे सब इस तरह संदर्भित की जा सकती हैं और उन्हें अत्यधिक बेतुकी और जाँच के सामने न टिकने वाली चीजों के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। आओ, आज नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत को देखें, “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना।” इस पर औपचारिक रूप से संगति करने से पहले, क्या तुम लोगों ने कभी इस बात पर विचार किया है कि इस कहावत को कैसे समझाया जाए? इसके सार का विश्लेषण कैसे किया जा सकता है? यह अपने अंदर कौन-से जहर रखे है? शैतान इस कहावत के जरिये लोगों के मन में कौन-से विचार बैठाना चाहता है? शैतान का क्या दुष्ट इरादा है? इस कहावत का इस्तेमाल करके शैतान मनुष्य के किस पहलू को भ्रष्ट करता है? क्या तुम लोगों ने कभी इन चीजों पर विचार किया है? “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना” कहावत सरल रूप में बुरे लोगों के साथ न जाने और खुद को बुरे प्रभावों से बचाने में सक्षम होने के रूप में समझाई जा सकती है। चाहे कोई अन्य व्यक्ति यह मूल्यांकन करे कि एक व्यक्ति “कीचड़ से बेदाग निकाल आया” है, या व्यक्ति स्वयं ही इस कहावत को साकार करना चाहता हो, आम तौर पर कहें तो वे किस तरह के व्यक्ति हैं? वे बहुत ही सच्चरित्र, ईमानदार, खुले और निष्कपट होने का दावा करते हैं, कि वे उत्कृष्ट नैतिक चरित्र वाले सज्जन हैं, लेकिन वे इस युग, इस दुनिया, इस मानवजाति, यहाँ तक कि इस देश, इस शाही दरबार और इस नौकरशाही को ऐसा नहीं समझते। क्या ये लोग आम तौर पर चीजों को व्यंग्यपूर्वक नहीं देखते और वास्तविकता से असंतुष्ट महसूस नहीं करते? उन्हें अक्सर लगता है कि उनकी आकांक्षाएँ ऊँची हैं लेकिन उनका जन्म गलत समय पर हुआ है, कि उनके पास प्रतिभा है लेकिन वे उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। वे मानते हैं कि नौकरशाही में हो या समाज में, हमेशा घटिया लोग उनका मार्ग रोकते हैं, कि उनके पास भव्य, रणनीतिक दिमाग है, वे उत्कृष्ट व्यक्ति हैं लेकिन कोई उनकी प्रतिभा नहीं पहचानता या कभी उन्हें महत्वपूर्ण कार्य नहीं सँभालने देता। वे वास्तविकता से असंतुष्ट होकर निंदक बन जाते हैं और इसलिए वे स्वयं का वर्णन करने के लिए इस कहावत का उपयोग करते हैं—“कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना,” कहते हैं कि वे खुद को बुरे प्रभावों से बचाएँगे और निष्कलंक रहेंगे। स्पष्ट रूप से कहें तो, ऐसे लोग खुद को पवित्र और उच्च मानते हैं और वास्तविकता से असंतुष्ट होते हैं। जरूरी नहीं कि उनके पास कोई सच्ची प्रतिभा या वास्तविक क्षमता हो, और जरूरी नहीं कि जिन परिप्रेक्ष्यों से वे लोगों और चीजों को देखते और आचरण और कार्य करते हैं, वे सही या व्यावहारिक हों और, बेशक, यह भी जरूरी नहीं कि वे कुछ हासिल कर सकते हों। फिर भी वे खुद को साधारण लोगों से अलग मानते हैं और हमेशा आहें भरते हैं, “सारा संसार गंदा है, मैं अकेला निर्मल हूँ; तमाम लोग नशे में चूर हैं, मैं अकेला होश में हूँ,” मानो नश्वर संसार से उनका भ्रम दूर हो गया हो और वे अक्सर संसार की बुराई और उसका अंधकार देखते हों। सटीक रूप से कहें तो, ऐसे लोग निंदक होते हैं। वे राजनीतिक और वाणिज्यिक क्षेत्रों से घृणा करते हैं, और वे साहित्यिक, कलात्मक और शैक्षिक क्षेत्रों से भी घृणा करते हैं। वे अपने कार्यों के प्रति बुद्धिजीवियों के परिप्रेक्ष्यों से घृणा करते हैं, और वे किसानों और धार्मिक विश्वास वाले लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। ये किस तरह के लोग हैं? क्या ये बिल्कुल अलग तरह के लोग नहीं हैं? क्या ये किसी रूप में असामान्य नहीं हैं? इन लोगों में कोई वास्तविक क्षमता या ज्ञान नहीं होता। अगर तुम उनसे कुछ व्यावहारिक कार्य करने के लिए कहो, तो जरूरी नहीं कि वे उसे कर पाने में सक्षम हों। उन्हें शिकायत करने में मजा आता है, और अपने खाली समय में वे किसी एक अवधि के दौरान राजनीति, सरकार, समाज और किसी समूह विशेष के व्यक्तियों के मामले उजागर करने के लिए लेख और कविता-संग्रह प्रकाशित करते हैं। वे आज इसकी आलोचना करते हैं और कल उसकी, वे वाक्पटुता से बोलते हैं, लेकिन जब कुछ करते हैं तो मुसीबत में पड़ जाते हैं। अंत में, वे किसी के साथ हिलमिल कर नहीं रह पाते, वे कहीं कुछ हासिल नहीं कर सकते, और वे अपना काम करने में सक्षम नहीं होते। वे गलत ढंग से यह मानते हैं, “मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ! साधारण लोग मेरे विचार के दायरे तक नहीं पहुँच सकते!” वे अपने दिल में निरुत्साहित, परेशान और उदास महसूस करते हैं। अपने खाली समय में वे इधर-उधर घूमते हैं, और जब भी वे किसी ऐतिहासिक रुचि वाले स्थान पर जाते हैं, तो जोर से चिल्लाते हैं, “मैं एक कुंठित प्रतिभा हूँ! मैं एक उत्कृष्ट व्यक्ति हूँ, लेकिन ऐसे लोग कम ही हैं जो सच्ची प्रतिभा को पहचान सकें! मेरी आकांक्षाएँ ऊँची हैं, यह शर्म की बात है कि मैं गलत समय पर पैदा हुआ और मेरी किस्मत खोटी है!” वे हमेशा खुद को महत्वाकांक्षी और ज्ञान से भरपूर मानते हैं, लेकिन कभी भीड़ से अलग नहीं हो पाते या किसी सत्ताधारी व्यक्ति द्वारा ऊँचे पद पर नहीं रखे जाते, इसलिए वे चिड़चिड़े और असंतुष्ट हो जाते हैं, वे हर व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखते हैं, जब तक कि अंततः वे बिल्कुल अकेले नहीं रह जाते। क्या यह दयनीय नहीं है? स्पष्ट रूप से कहें तो, ऐसे लोग आडंबरपूर्ण, बेहद अलग रहने वाले और वास्तविकता से असंतुष्ट लोगों का एक पागल समूह हैं, जो हमेशा असफल महसूस करते हैं। असल में, ये लोग कुछ नहीं होते, ये कुछ नहीं कर सकते, ये हर काम खराब तरीके से करते हैं और जब ये थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो उसके बारे में बेशुमार बातें करके दिखावा करते हैं। प्राचीन काल में ऐसे लोग कविता पढ़ते थे, गीत लिखते थे और अपने साहित्यिक कौशल का दिखावा करते थे, अपनी पांडित्यपूर्ण छवि बनाए रखते थे। आजकल ऐसे लोगों के पास दिखावा करने के कहीं ज्यादा मौके हैं। वे अपना खुद का मीडिया बना सकते हैं, ब्लॉग्स पर कमेंट्स पोस्ट कर सकते हैं, इत्यादि। अपेक्षाकृत मुक्त सामाजिक प्रणालियों वाले कुछ देशों में वे अक्सर विभिन्न उद्योगों के अँधेरे पक्ष को उजागर करते हैं, जैसे कि साहित्यिक, कलात्मक, वाणिज्यिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों के अँधेरे और बुरे पहलू। पूरे दिन वे एक की आलोचना तो दूसरे का अपमान करते हैं, खुद को बहुत प्रतिभाशाली मानते हैं। उनके ये तमाम चीजें करने की जड़ उनका यह विश्वास है कि उनके बारे में सब-कुछ अच्छा और सही है, और उन्होंने महानता, महिमा और शुद्धता पा ली है। सटीक रूप से कहें तो, वे खुद को बुरे प्रभावों से बचाते हैं और वे “कीचड़ से बेदाग निकल आते हैं, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीले नहीं दिखते।” वे मानते हैं कि वे हर चीज स्पष्ट रूप से देखते हैं, हर चीज समझ सकते हैं। वे कुछ भी करने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ परोक्ष आलोचना का इस्तेमाल करते हैं और उसे घृणा और तिरस्कार की नजर से देखते हैं। कोई कुछ भी करे, उसके बारे में कहने के लिए उनके पास हमेशा कुछ न कुछ होता है और वे उसकी आलोचना और अपमान करते हैं। वास्तव में, उन्हें नहीं पता कि वे खुद क्या हैं, वे कभी नहीं जानते कि जब वे बातें करते हैं तो उन्हें कौन-सा परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो सही और उचित हो। वे बस यह जानते हैं कि लापरवाही और चतुराई से कैसे बोला जाए। क्या समाज में ऐसे बहुत लोग हैं? (हाँ।) ये कौन लोग हैं? सटीक रूप से कहें तो, वे ऐसे पागल लोगों का समूह हैं जो आडंबरपूर्ण हैं और खुद को शुद्ध और ऊँचा समझते हैं। पूरे इतिहास में ऐसे कई लोग हुए हैं, है न? (हाँ।) तुम्हें इन लोगों को कैसे वर्णित और परिभाषित करना चाहिए? क्या वे आदर्शवादी नहीं हैं? सटीक रूप से कहें तो, ये लोग आदर्शवादी होते हैं। वे वर्तमान वास्तविक जीवन-परिवेश में रहने के इच्छुक नहीं होते, और उनका दिमाग लगातार कल्पना-लोक में रहता है और हवाई, खोखली, अदृश्य और अमूर्त चीजों से भरा रहता है। वे एक अस्तित्वहीन और अलौकिक दुनिया में रहते हैं—ये लोग आदर्शवादी कहलाते हैं। तो, वे दूसरे लोगों का मूल्यांकन करने के लिए क्या परिप्रेक्ष्य अपनाते हैं? वे नैतिक रूप से ऊँचा स्थान ग्रहण कर लेते हैं और दूसरे लोगों का मूल्यांकन करने के लिए उनका शुरुआती बिंदु यह होता है, “मैं तुम लोगों का बुरा और काला पक्ष स्पष्ट रूप से देख सकता हूँ और उसे उजागर कर सकता हूँ। मेरा तुम लोगों द्वारा की जाने वाली खराब और बुरी चीजें उजागर करने में सक्षम होना साबित करता है कि मैं तुम्हारे जैसा नहीं हूँ।” यहाँ उनका अंतर्निहित अर्थ यह है, “‘कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना’—यह कहावत मुझपर सही बैठती है। तुम सब लोग इस बुरी प्रवृत्ति से दूषित हो चुके हो; तुम लोग अच्छे नहीं हो।” क्या यह उनका खुद को शुद्ध और ऊँचा समझना नहीं है? क्या यह उनका खुद को ज्यादा आंकना और प्रदर्शनप्रिय होना नहीं है? क्या यह उनके द्वारा वास्तविकता की आलोचना करने, समाज के अँधेरे पक्ष को उजागर करने और वास्तविकता से असंतुष्ट होने की आड़ में खुद को ऊँचा उठाने का एक प्रच्छन्न प्रयास नहीं है? (है।) तो, हम ऐसे लोगों को कैसे परिभाषित करें? एक लोकोक्ति है, “मैं पहले भी बेशर्म लोगों से मिला हूँ, लेकिन तुम जैसे बेशर्म से पहले कभी नहीं मिला।” क्या यह इन लोगों के बारे में नहीं बताता? (बताता है।) वे बेशर्म हैं। उनके पास ऐसे मुँह हैं जो सिर्फ सही और गलत के बारे में बात करते हैं, और ऐसी आँखें हैं जो सिर्फ दूसरों की कमियाँ और खामियाँ देखती हैं। अपने चतुर मुँह से वे सार्वजनिक रूप से दूसरों की कमियाँ और खामियाँ उजागर करते हैं, और ऐसा करके वे अपने विचार व्यक्त करते हैं और अन्य लोगों को दिखाते हैं कि वे खुद को बुरे प्रभावों से कैसे बचाते हैं, और वे कितने अद्वितीय और महान हैं। क्या वे सचमुच महान हैं? क्या वे सचमुच अद्वितीय हैं? वे अन्य सभी जैसे ही हैं। दूसरे लोग प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए जो भी तरीके अपनाते हों, उनके तरीके स्पष्ट होते हैं। लेकिन ये लोग प्रतिष्ठित होने का दिखावा करते हैं, और उनके द्वारा दूसरों को उजागर करना और उनकी आलोचना ऐसे विषयों और आगे बढ़ने की प्रेरणा का काम देती है, जिनके द्वारा वे खुद को ऊँचा उठाते और बढ़ावा देते हैं, और वे इन साधनों का इस्तेमाल प्रसिद्ध और प्रभावशाली बनने के लिए करते हैं। क्या वे भी प्रसिद्धि और लाभ का अनुसरण नहीं कर रहे? क्या उनके लक्ष्य बिल्कुल एक-जैसे नहीं हैं? क्या नतीजे बिल्कुल एक-जैसे नहीं हैं? वे अलग-अलग साधन और तरीके इस्तेमाल करते हैं, बस। यह किसी को विनम्र भाषा का इस्तेमाल करके अपमानित करने और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करके अपमानित करने जैसा ही है, अपमान करने की प्रकृति फिर भी बिल्कुल एक-जैसी है। दूसरे लोग एक तरीके से प्रसिद्ध बनते हैं, और ये लोग दूसरे तरीके से प्रसिद्ध बनते हैं—अंतिम परिणाम एक-जैसा ही होता है, और इरादा, उद्देश्य और प्रेरणा भी एक ही जैसी होती है, इसलिए उनमें बिल्कुल भी अंतर नहीं होता।

जहाँ तक समाज में उन लोगों का सवाल है, जो खुद को “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना” घोषित करते हैं, हमने उन्हें आदर्शवादियों के रूप में परिभाषित किया है। ऐसे लोगों का लक्षण यह है कि वे असाधारण रूप से अलग-थलग रहते हैं, उन्हें लगता है कि वे अन्य सबसे बेहतर हैं, वे बाकी सभी को असंतोषजनक मानते हैं, और अंततः वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि, “तुम सभी लोग कीचड़ में धँसे और बुरी प्रवृत्तियों में डूबे हुए हो। मैं तुम लोगों से आगे निकल गया हूँ और मैं ‘कीचड़ से बेदाग निकल आता हूँ, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला नहीं दिखता।’” यह उनका आडंबर है, और यह दिखाता है कि वे वास्तविकता से कितने असंतुष्ट हैं, मानो वे खुद बहुत पवित्र और साफ हों। वास्तव में, चूँकि वे दूसरों की तरह सक्षम नहीं हैं और उनके पास वे साधन नहीं हैं जो दूसरे लोगों के पास हैं, चूँकि वे हमेशा भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करते हैं लेकिन कभी उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती, चूँकि वे हमेशा आदर्श, अलौकिक और खोखली चीजें खोजा करते हैं लेकिन कभी संतुष्ट नहीं होते और कभी इन चीजों को वास्तविकता में नहीं ला सकते, और चूँकि उनमें वास्तविकता का सामना करने या अपने आदर्श छोड़ने की कोई इच्छा नहीं होती, इसलिए, रूप के संदर्भ में, उनके पास आधिकारिक, राजनीतिक, कलात्मक और साहित्यिक, और सांस्कृतिक क्षेत्रों से दूर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। चूँकि ऐसे क्षेत्रों में उनका स्वागत नहीं किया जाता, उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता, इसलिए वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते, और उनके आदर्श और आकांक्षाएँ साकार नहीं हो सकतीं, इसलिए अंत में वे खुद को “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना” घोषित कर देते हैं और कहते हैं कि वे धारा के विपरीत तैरते हैं, कि उनके पास महान नैतिक चरित्र है, और वे खुद को सांत्वना देने के लिए ऐसी कहावतों का इस्तेमाल करते हैं। क्या उन पर हमारी ऐसी संगति से अब तुम लोग जान गए हो कि ऐसे लोगों को कैसे पहचाना जाए? सार में ये लोग असल में क्या हैं? वे कुछ नहीं हैं, पर फिर भी आडंबरी हैं। क्या यह सटीक आकलन है? (हाँ।) ऐसे लोगों के पास बहुत सारे आदर्श होते हैं, लेकिन उनमें से एक भी साकार नहीं किया जा सकता, न ही उनमें से कोई वास्तविकता के अनुरूप होता है। जिन सभी चीजों के बारे में वे सोचते हैं, वे खोखली और अवास्तविक हैं। पूरे दिन, ये लोग कोई उचित काम नहीं करते, सिर्फ कविता पढ़ना और कसीदे लिखना जानते हैं, इसकी आलोचना करना, उसका अपमान करना—यह उनका कोई उचित काम न करना है, है न? उनका सार उनके व्यवहार से देखा जा सकता है : उनमें कोई वास्तविक प्रतिभा या ज्ञान नहीं होता, वास्तविकता और जीवन पर उनके तमाम विचार और दृष्टिकोण खोखले, अस्पष्ट और अवास्तविक होते हैं, यही कारण है कि वे “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना” की भ्रांति का पालन कर सकते हैं। वे यह आशा करते हुए ऐसा बनने का प्रयास करते हैं कि और भी लोग ऐसे होंगे—यह भ्रामक है। अगर लोग ऐसे हुए, तो वे क्या हासिल कर सकते हैं? सटीक रूप से कहें तो, ऐसे लोग जीवन में वास्तविक लक्ष्य या दिशा से रहित, सच्चे विश्वास से रहित, जीवन में सच्चे विकल्प से रहित और अभ्यास के सही मार्ग से रहित होते हैं। पूरे दिन, उनके विचार जंगली और अनियंत्रित रहते हैं, वे तमाम तरह के विचित्र विचारों पर सोचते हैं, उनके दिमाग अराजक, खोखली और अवास्तविक चीजों से भरे रहते हैं, जिनमें से कोई भी चीज यथार्थवादी नहीं होती, और ये लोग वास्तव में मनुष्य से अलग किस्म के होते हैं। उनकी सोच खोखली और बेहद बेतुकी और अतिवादी दोनों होती है। चाहे वे किसी भी समूह के लोग हों, या चाहे वे समाज में उच्च वर्ग के हों या मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग के, वे कभी दूसरों के साथ सामंजस्य नहीं बना पाते और लोग उन्हें कभी स्वीकार नहीं कर सकते। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनकी सोच, उनके अनुसरण और वे परिप्रेक्ष्य, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, अतिवादी और एक अलग तरह के होते हैं। शिष्टता से कहें तो, ये लोग आदर्शवादी होते हैं, लेकिन सटीक रूप से कहें तो, ये मानसिक रूप से बीमार और मानसिक रूप से असामान्य होते हैं। मुझे बताओ, क्या मानसिक रूप से बीमार लोगों की सामान्य लोगों के साथ बन सकती है? न सिर्फ उनकी अपने दोस्तों और सहकर्मियों के साथ नहीं बनती, बल्कि उनकी अपने परिवार से भी नहीं बनती। जब ये लोग अपने विचार और वक्तव्य सामने रखते हैं, तो दूसरे लोग अजीब और विमुख महसूस करते हैं, और वे उन्हें बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहते। इन कथनों में कोई दम नहीं होता और ये वास्तविक जीवन में काम नहीं करते। वास्तविक जीवन में, लोगों को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वे उनके भीतर उत्पन्न हो सकती हैं, वे लोगों के वस्तुनिष्ठ परिवेशों से उत्पन्न हो सकती हैं, या वे जीवन की मुख्य दैनिक जरूरतों से जुड़ी हो सकती हैं—इन चीजों का सामना कैसे किया जाना चाहिए, इन्हें कैसे सँभाला और हल किया जाना चाहिए? छोटी कठिनाइयों की बात करें तो, वे ऐसी कठिनाइयाँ होती हैं जो जीवन की मुख्य दैनिक जरूरतों से जुड़ी होती हैं, जबकि बड़ी कठिनाइयों की बात करें तो, ये वे कठिनाइयाँ होती हैं जो जीवन के प्रति लोगों के दृष्टिकोण, उनके जीने के नियमों, उनके द्वारा अनुसरण किए जाने वाले मार्ग और उनके विश्वासों से संबंधित हैं, और यही समस्याएँ सबसे वास्तविक होती हैं। फिर भी ये आदर्शवादी हमेशा इन समस्याओं से खुद को अलग रखना चाहते हैं और कभी वास्तविक जीवन की स्थितियों में नहीं रहना चाहते। उनके विचार, परिप्रेक्ष्य और आरंभ बिंदु, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, इन वास्तविक समस्याओं पर आधारित नहीं होते, बल्कि जंगली और अनियंत्रित होते हैं। तुम्हें कभी पता नहीं चलता कि वे क्या सोच रहे हैं, मानो वे दूसरे ग्रहों के लोगों की तरह सोचते हों, ऐसी चीजें जो यहाँ पृथ्वी पर लोगों ने पहले कभी नहीं सुनीं, ऐसी चीजें जो उन्हें असामान्य लगती हैं। किसी को असामान्य चीजें कहते हुए कौन सुनना चाहता है? जब लोग पहली बार इस व्यक्ति से मिलते हैं और उसे बोलते हुए सुनते हैं, तो उन्हें लग सकता है कि वे जो कह रहे हैं वह वास्तव में ताजा और नया है, साधारण लोग जो कहते हैं उससे ज्यादा गहन और चतुराई भरा है। लेकिन थोड़ी देर बाद ही उन्हें पता चल जाता है कि यह सब सिर्फ बकवास है, इसलिए फिर कोई उस व्यक्ति पर ध्यान नहीं देता, वे उसकी बात नहीं सुनते, और वह जो कुछ भी कहता है, वह न तो उनके कानों में प्रवेश करता है, न ही उनके दिल में। जब दूसरे लोग उसके प्रति ऐसा रवैया अपनाते हैं, तो क्या वह व्यक्ति इसे समझ पाता है? समय बीतने पर उसे इसका पता चल जाता है, और वह अपने दिल में सोचता है, “कोई मुझे पसंद नहीं करता, इसका क्या कारण है? वे मुझे पसंद क्यों नहीं करते? ओह, मैं एक उत्कृष्ट व्यक्ति हूँ, लेकिन बहुत कम लोग हैं जो सच्ची प्रतिभा पहचान सकते हैं!” देखा, वे हमेशा आडंबरपूर्ण होते हैं, हमेशा खुद को प्रतिभाशाली, चतुर और सक्षम मानते हैं, जबकि असल में वे कुछ नहीं हैं। चाहे वे खुद को किसी भी जन-समूह में पाएँ, उनके लिए अंतिम परिणाम और अंत हमेशा अस्वीकृति ही होता है। ऐसा उनके इस कथन का अनुसरण करने के कारण होता है, “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना।” अगर तुमने कभी ऐसा बनना चाहा हो, तो मैं तुमसे कहता हूँ कि वहीं रुक जाओ, क्योंकि ये लोग सामान्य नहीं होते। अगर तुम्हारी सोच और तुम्हारी मानवता का विवेक सामान्य है, तो तुम वही करो जो तुम्हें करना चाहिए और जो तुम कर सकते हो, और उन लोगों में से एक बनने की कोशिश न करो जो “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना।” ये लोग एक पतित और अलग किस्म के इंसान होते हैं, ये सामान्य नहीं होते।

उन लोगों के सार का विश्लेषण कर लेने के बाद, जो कि “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना,” आओ, वास्तविकता से असंतोष और दोषदर्शिता की समस्याओं के बारे में बात करें, जिनका उल्लेख हमने तब किया था जब हमने इन लोगों को उजागर किया था। कुछ लोग मानते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए हमें समाज के स्याह पक्ष और समाज में व्याप्त बुरी प्रवृत्तियों को समझना चाहिए, और उनका अनुसरण नहीं करना चाहिए। हमें राजनीति, मनुष्य की दुष्टता, मनुष्य की विभिन्न सामान्य प्रथाओं और मनुष्य की उन तमाम अँधेरी और बुरी चीजों को भी समझना होगा, जो विभिन्न समयों पर, दुनिया के विभिन्न कोनों में और विभिन्न जातियों और समूहों के बीच मौजूद हैं। ऐसा करने से हममें विवेक का विकास होगा।” क्या परमेश्वर मनुष्य से यही चाहता है? इससे पहले कि हम इस विषय पर संगति करें, तुम लोगों में से कुछ ने इसे अपना अनुसरण बना लिया होगा, लेकिन अब मैं तुम्हें स्पष्ट रूप से बताता हूँ, यह वह चीज नहीं है जो तुम्हें करनी चाहिए, और यह वह चीज नहीं है जो परमेश्वर तुमसे चाहता है। तुम्हें इस दुनिया, इस समाज और मानवजाति, या इस राजनीतिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक या धार्मिक क्षेत्र, या समाज से आने वाली किसी सामान्य प्रथा, या समाज में किसी समूह या बल की संचालन-पद्धति इत्यादि समझने की जरूरत नहीं है—यह वह सबक नहीं है जिसे तुम्हें सीखने की जरूरत हो। तुम्हें वास्तविकता से असंतुष्ट होने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें खुद को बुरे प्रभावों से बचाने की जरूरत भी नहीं है। यह वह दृष्टिकोण या परिप्रेक्ष्य नहीं है जो तुम्हें अपनाना चाहिए, और यह वह विचार नहीं है जो तुम्हें अपनाना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें चुना है और तुम्हें अपने पर विश्वास करने और अपना अनुसरण करने दिया है; वह तुमसे मनुष्य-विरोधी, समाज-विरोधी, राजनीति-विरोधी या राज्य-विरोधी होने के लिए नहीं कहता, न ही वह तुमसे किसी समूह, जाति या धर्म का विरोध करने के लिए कहता है। वह बस कहता है कि तुम उसका अनुसरण करो और शैतान को नकारो, उसके अर्थात परमेश्वर के सामने आओ और उसके वचन स्वीकारो और उनके प्रति समर्पित बनो, उसके मार्ग का अनुसरण करो और उसका भय मानो और बुराई से दूर रहो। परमेश्वर ने कभी यह नहीं कहा है कि तुम मनुष्य-विरोधी, समाज-विरोधी या राज्य-विरोधी बनो। ज्यादा सटीक रूप से कहें तो, परमेश्वर ने कभी तुमसे किसी निश्चित सरकार, किसी निश्चित सामाजिक या राजनीतिक प्रणाली, या किसी निश्चित राजनीतिक नीति का विरोध करने के लिए नहीं कहा है—परमेश्वर ने तुमसे कभी कोई ऐसी चीज करने के लिए नहीं कहा है। कुछ लोग कहते हैं, “सभी मनुष्य हमें नकारते हैं, हमारा विरोध करते है और सताते हैं। क्या हमारा उठकर उनका विरोध करना और उनके खिलाफ लड़ना गलत है? वे सब हमारे खिलाफ हैं, तो हम उनके खिलाफ क्यों नहीं हो सकते?” व्यक्तिगत रूप से तुम चाहे जैसे भी सोचो या कार्य करो, या समाज, दुनिया और राष्ट्रीय राजनीतिक प्रणालियों के संबंध में व्यक्तिगत रूप से चाहे जैसे भी विचार रखो, यह तुम्हारा अपना मामला है और इसका उस मार्ग से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका परमेश्वर तुमसे अनुसरण करने के लिए कहता है, न ही उसका परमेश्वर की शिक्षाओं या अपेक्षाओं से कोई लेना-देना है। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि तुम कहते हो कि इन चीजों का परमेश्वर की शिक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है, कि ये वे नहीं हैं जो परमेश्वर हमसे चाहता है और न ही ये वे हैं जो परमेश्वर हमसे करने के लिए कहता है, तो फिर परमेश्वर शैतान, सामाजिक प्रवृत्तियों, समाज के स्याह पक्ष, यहाँ तक कि धर्म को भी उजागर क्यों करता है?” परमेश्वर इन चीजों को सिर्फ इसलिए उजागर करता है, ताकि तुम उन्हें समझ सको, क्योंकि परमेश्वर द्वारा उजागर की जाने वाली ये चीजें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उनके परमेश्वर-विरोधी विचारों और धारणाओं से संबंधित हैं। इसलिए, इस तरह की स्थिति में, हमारा ऐसे विषयों पर संगति करना और ऐसे उदाहरण इस्तेमाल करना अनिवार्य है, जिसका उद्देश्य लोगों को भ्रष्ट मनुष्य द्वारा प्रकट किए जाने वाले शैतानी स्वभावों को ज्यादा सटीक और व्यावहारिक रूप से जानने और वे तमाम विभिन्न भ्रांतिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण और परमेश्वर-विरोधी धारणाएँ समझने में सक्षम बनने देना है, जो शैतान उनके मन में बैठाता है, और कुछ नहीं। ऐसा इसलिए नहीं किया जाता कि लोग व्यक्तिगत रूप से राजनीति का विरोध कर सकें, समाज का विरोध कर सकें और मनुष्य का विरोध कर सकें। परमेश्वर ने कभी लोगों से वास्तविकता से असंतुष्ट होने, दोषदर्शी होने या खुद को बुरे प्रभावों से बचाने के लिए नहीं कहा। कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि परमेश्वर ने मुझसे ऐसा बनने के लिए कभी नहीं कहा, लेकिन मैं परमेश्वर में विश्वास करता ही इसलिए हूँ क्योंकि मैं दोषदर्शी हूँ और वास्तविकता से असंतुष्ट हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि परमेश्वर के घर में निष्पक्षता और धार्मिकता है और यहाँ सत्य का बोलबाला है, और यहाँ मेरे साथ उचित व्यवहार किया जाता है।” यह तुम्हारा मामला है और इसका परमेश्वर की अपेक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। बेशक, सभी अलग-अलग कारणों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं : कुछ लोग आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो कुछ आपदाओं से बचने के लिए, कुछ इसलिए कि उनकी बीमारी ठीक हो जाए, तो कुछ इसलिए कि उन्हें भविष्य में एक अच्छी मंजिल मिल जाए; और फिर कुछ ऐसे भी हैं जो वास्तविकता से असंतुष्ट हैं, दुनिया से असंतुष्ट हैं, समाज से असंतुष्ट हैं, या जिनके साथ समाज में गलत व्यवहार किया गया है, इसलिए जो आराम और शरण की तलाश में परमेश्वर के घर आते हैं। परमेश्वर में विश्वास को लेकर सभी के विचार और परमेश्वर में अपने विश्वास के पीछे उनका मूल इरादा या प्रेरणा अलग-अलग होती है। ऐसे लोग भी हैं, जिनके हृदय में ये चीजें नहीं होतीं, जो सिर्फ परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं और महसूस करते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छी चीज है। जो भी हो, जब दोषदर्शी और वास्तविकता से असंतुष्ट लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो परमेश्वर सिर्फ इसलिए उनकी सराहना या उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार नहीं कर देता कि वे कुछ हद तक गुणी या प्रतिभाशाली हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं और दूसरों का तिरस्कार करते हैं, और ऐसे लोगों को सत्य स्वीकारना बेहद कठिन लगता है। तुम्हें ऐसे लोगों के लिए कोई आशा नहीं रखनी चाहिए, न ही तुम लोगों को खुद ऐसा बनना चाहिए। मैं तुम लोगों से सिर्फ ईमानदार बनने, सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित बनो, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए कहता हूँ। इसलिए, यह कभी न मानो कि सिर्फ इसलिए कि तुम समाज से असंतुष्ट हो और उसे स्पष्ट रूप से समझते हो, या चूँकि तुम पहले किसी विशेष उद्योग में संलग्न थे और उस उद्योग के स्याह पक्ष की गहरी समझ रखते हो, इस कारण तुम्हारे पास परमेश्वर में अपने विश्वास में पूँजी और आध्यात्मिक कद है, इस कारण परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है, तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक पूरे करते हो, या तुम एक योग्य सृजित प्राणी हो। अगर तुम ऐसा मानते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम गलत हो, जिन विचारों से तुम स्थिति माप रहे हो वे गलत हैं, जिस परिप्रेक्ष्य से तुम चीजों को देख रहे हो वह गलत है, और जो दृष्टिकोण तुम अपना रहे हो वह गलत है। मैं यह क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ कि चूँकि जो दृष्टिकोण तुम अपना रहे हो और जिस परिप्रेक्ष्य और जिन दृष्टिकोणों से तुम लोगों और चीजों को देखते हो, वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं और सत्य उनकी कसौटी नहीं है। अगर तुम हमेशा सांसारिक लोगों का परिप्रेक्ष्य अपनाते हो और वास्तविकता से असंतुष्ट और दोषदर्शी महसूस करते हो, तो तुम उनसे घृणा करोगे, उनके खिलाफ लड़ना और संघर्ष करना चाहोगे, उनसे तर्क करना चाहोगे और सही-गलत के बारे में उनसे बहस करना चाहोगे; तुम मानवजाति को बदलना चाहोगे, समाज को बदलना चाहोगे, यहाँ तक कि देश की राजनीतिक प्रणाली को भी बदलना चाहोगे। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हुए अपने देश के राजनीतिक अभिजात-वर्ग का स्याह पक्ष उजागर करना चाहेंगे कि ऐसा करके वे शैतान को नकार रहे हैं और सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यह सब गलत है। राजनीतिक अभिजात-वर्ग के क्षेत्रों में, व्यावसायिक क्षेत्रों में, या कलात्मक और साहित्यिक क्षेत्रों में चाहे जितनी भी चीजें चलती हों, उनमें से किसी का भी सत्य के तुम्हारे अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसी चीजों के बारे में चाहे तुम जितना भी जानते हो, यह सब बेकार है, और यह ये प्रदर्शित नहीं करता कि तुम शैतान का सार जानते हो या तुम अपने अंतरतम हृदय में शैतान को नकार सकते हो। चाहे तुम ऐसी चीजों को कितना भी जानते या समझते हो, और चाहे तुम्हारी समझ कितनी भी विशिष्ट, कितनी भी सच्ची या कितनी भी सटीक हो, यह ये नहीं दर्शाता कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, कि तुम खुद को जान रहे हो, या कि तुम अपने भीतर के शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण कर रहे हो, न ही यह ये दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य से प्रेम करते हो, और तुम्हारे द्वारा परमेश्वर का भय मानने को तो बिल्कुल नहीं दर्शाता। यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुम समाज के बारे में थोड़ा-बहुत समझते हो, या तुम किसी उद्योग के वे अंदरूनी नियम या कुछ सुनी-सुनाई बातें जानते हो जिनके बारे में ज्यादातर लोग नहीं जानते, कि चूँकि तुम दोषदर्शी और समाज से असंतुष्ट हो और तुममें समाज का स्याह पक्ष उजागर करने का साहस है, इसलिए तुम एक नेक और सम्माननीय व्यक्ति हो, औरों से कहीं बेहतर हो, और “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना।” परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता।

परमेश्वर में विश्वास करने से पहले कुछ लोग डरपोक थे और झिझकते थे, समाज के स्याह पक्ष को उजागर करने की हिम्मत नहीं करते थे, ऐसा करने का साहस नहीं रखते थे। अब जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन्हें प्रोत्साहित कर उनका समर्थन कर रहा है, इसलिए वे अब ऐसी चीजों को उजागर करने से नहीं डरते। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो विदेश में लोकतांत्रिक देशों में जाते हैं और सीसीपी नामक राक्षस के कुछ बुरे काम उजागर करने का साहस करते हैं। तब इन लोगों को लगता है कि वे सत्य समझते हैं, कि उनका आध्यात्मिक कद है और वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं। ये सब गलत विचार और दृष्टिकोण हैं, और उनके लिए इन चीजों का अनुसरण करना व्यर्थ है। चाहे तुम वास्तविकता से असंतुष्ट और दोषदर्शी हो या नहीं, चाहे तुम बाकी समाज से बेहतर हो या नहीं, और चाहे तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना,” परमेश्वर के लिए इनमें से कुछ भी मायने नहीं रखता; वह ऐसी चीजें नहीं देखता। परमेश्वर क्या देखता है? परमेश्वर पहले यह देखता है कि तुम अपने अंतरतम हृदय में शैतान से आने वाले विचार और दृष्टिकोण पहचानते हो या नहीं, और जब तुम उन्हें पहचान लेते हो, तो क्या तुम उन्हें उजागर करते हो और उनके बारे में दूसरों से खुलकर बात करते हो, और जब तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ लेते हो तो क्या तुम उन्हें नकारते हो। इसके अलावा, परमेश्वर यह देखता है कि तुम वास्तविक जीवन में सचेत रूप से सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं, तुम लोगों और चीजों को जैसे देखते हो और जैसे आचरण और कार्य करते हो, क्या उसमें सचेत रूप से सत्य सिद्धांतों की खोज करते हो, और सत्य के प्रति वास्तव में तुम्हारा क्या रवैया है। यह ऐसी चीज है, जिसके बारे में तुम्हें अपने दिल में स्पष्ट होना चाहिए। कुछ लोगों को अतीत और वर्तमान पर चर्चा करने, ऐतिहासिक दरबारी साजिशों के बारे में प्रचुरता और प्रबलता से बोलने, राजनीतिक क्षेत्रों में किस अवधि में कौन-सी बड़ी घटनाएँ हुईं, महत्वपूर्ण मुद्दे क्या थे, और महत्वपूर्ण क्षणों में किसने भूमिका निभाई, आदि-इत्यादि को विस्तार से रेखांकित करने में आनंद आता है। फिर वे सोचते हैं कि उनका आध्यात्मिक कद है, वे ईमानदार हैं और उनमें न्याय की गहरी भावना है, और कहते हैं, “देखते हो, मैं समाज से बहुत असंतुष्ट हूँ। मेरी नजर नौकरशाही के अँधेरे को बेध जाती है, और मैं उसे बहुत गहराई से और पूरी तरह से समझता हूँ!” ऐसी बातें करने से क्या फायदा? तुम किसे मस्का लगाने की कोशिश कर रहे हो? परमेश्वर को? क्या तुम दिखावा कर रहे हो कि तुम बहुत बुद्धिजीवी हो और बहुत-सी चीजों के बारे में जानते हो? ये चीजें कहना बेकार है। मैंने कभी ऑनलाइन किसी बेकार कचरे पर नजर नहीं डाली है, न ही मुझे कभी किसी तरह के समाचार या खबरों में दिलचस्पी रही है। मैं इन चीजों पर नजर क्यों नहीं डालता? क्योंकि यह खीझ पैदा करने वाला और घिनौना है। कुछ लोग मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने लगने के बाद उनमें न्याय की भावना होनी चाहिए, और वे अक्सर प्रसिद्ध लोगों, मशहूर हस्तियों और राजनेताओं पर टीका-टिप्पणी करते हैं और शेखी से भरे होते हैं, और वे इन लोगों के निजी जीवन को प्रकाश में लाकर सभी की आँखें खोलने की उम्मीद करते हैं। उन्हें लगता है कि वे हरफनमौला हैं, बुद्धिमान व्यक्ति हैं, तमाम रहस्य जानते हैं, और वे बहुत चतुर, ज्ञानी और ईमानदार हैं। ऐसी चीजें जानने का क्या फायदा? क्या यह दर्शाता है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? क्या यह दर्शाता है कि तुमने सत्य समझ लिया है? क्या यह दर्शाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद है? (नहीं।) तुम समाज में उन चीजों के बारे में बात करना बंद नहीं कर सकते, लेकिन क्या तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो कि तुम्हारी आँखों के ठीक सामने जो चीजें हैं और वह कर्तव्य जो तुम्हें करना चाहिए, उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कैसे निभाया जाए? तुम नहीं कह सकते; तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं है। तुम समाज में उन चीजों के बारे में चाहे जितना भी जानते हो, इससे यह प्रदर्शित नहीं होता कि तुम सत्य समझते हो या तुम्हारा आध्यात्मिक कद वास्तविक है। यह मत सोचो कि चूँकि तुम नकली समाचारों और भ्रांतियों की असलियत देख सकते हो, सिर्फ इसलिए तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है, और तुमने दुनिया त्याग दी है, शैतान को नकार दिया है, कि तुम अब शैतान के साथ दोस्ती नहीं गाँठते, और तुम्हें परमेश्वर में आस्था है और तुम उसके प्रति वफादार हो—ये सब भ्रामक विचार हैं, और इनमें से कोई भी जीवन का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं करता। अगर तुम सोचते हो, “क्या ऐसा नहीं है कि मैं वास्तविकता से जितना ज्यादा असंतुष्ट होता हूँ, जितना ज्यादा बड़े लाल अजगर को उजागर करता हूँ, जितना ज्यादा मैं बड़े लाल अजगर से नफरत करता हूँ, जितना ज्यादा मैं दुनिया से नफरत करता हूँ और जितना ज्यादा मैं दोषदर्शी हूँ, परमेश्वर उतना ही ज्यादा प्रसन्न होता है और उतना ही ज्यादा मुझे पसंद करता है?” तो तुम गलत हो। जितना ज्यादा तुम उन चीजों का अनुसरण करते हो और जितना ज्यादा तुम उस मार्ग का अनुसरण करते हो, उतना ही कम परमेश्वर तुम्हें पसंद करता है और उतना ही ज्यादा वह तुमसे विमुख होता है। ऐसा क्यों है कि जितना ज्यादा तुम उन सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हो, उतना ही कम परमेश्वर तुम्हें पसंद करता हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि तुम सही मार्ग पर नहीं चल रहे और उचित काम नहीं कर रहे। इसलिए, जब तुम्हारे पास कुछ समय हो, तो तुम परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़ सकते हो, भजन सुन सकते हो, अपने भाई-बहनों के जीवन अनुभवजन्य गवाहियाँ सुन सकते हो, और सभी एक-साथ परमेश्वर के वचनों पर चिंतन और संगति कर सकते हो। उस अफवाह के बारे में मत पूछो, जिसका तुम्हारे जीवन-प्रवेश या उद्धार के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है। यह उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिनके पास करने के लिए कुछ बेहतर नहीं होता। समाज कैसे विकसित होता है, दुनिया क्या रुख अपनाएगी, मानवजाति कितनी गंदी और बुरी है और राजनीति कितनी अंधकारमय है—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? अगर समाज और दुनिया अंधकारमय, बुरी और गंदी न होती, तो क्या तुम उद्धार प्राप्त कर लेते? (नहीं।) उन चीजों का तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह सिर्फ इस बात से संबंधित है कि तुम कितना सत्य स्वीकारते और समझते हो, तुम कितना सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो, और यह इस बात से संबंधित है कि तुम अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह निभाते हो—यह सिर्फ इन कुछ चीजों से संबंधित है। बार-बार प्रसिद्ध लोगों और मशहूर हस्तियों पर टिप्पणी मत करो, समय गुजारने के लिए मशहूर हस्तियों का शर्मनाक और गंदा व्यवहार उजागर मत करो, यह दिखावा मत करो कि तुम कितने चतुर और दूसरों से कितने बेहतर हो। ये मूर्खतापूर्ण चीजें हैं; ऐसे मत बनो। ऐसा व्यक्ति वह होता है, जो कोई उचित कार्य नहीं करता और सही मार्ग पर नहीं चलता।

जहाँ तक, नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत कि “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना,” के सार का सवाल है, हमने अब इसके बारे में काफी संगति और इसका काफी विश्लेषण कर लिया है। इसके अलावा, क्या हमने अब इस कथन के अनुसार आचरण करने के रवैये और विचारों पर और साथ ही इस बात पर कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ और रवैया क्या है, स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर ली है? (कर ली है।) क्या तुम लोग अब उस मार्ग को भी समझते हो, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए? (समझते हैं।) क्या जिस दोषदर्शिता के बारे में हम यहाँ बात कर रहे हैं, वह एक सकारात्मक चीज है? क्या वास्तविकता से असंतोष एक सकारात्मक चीज है? क्या खुद को बुरे प्रभावों से बचाना सकारात्मक चीज है? (नहीं।) इनमें से कोई भी सकारात्मक चीज नहीं है। हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये तुम्हारे आचरण और कार्य करने के आधार नहीं हैं, इन्हें तुम्हारे आचरण और कार्य करने के आधार नहीं बनना चाहिए, इन्हें तुम्हारे आचरण और कार्य करने के सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं बनना चाहिए। इसलिए, ये वे चीजें हैं, जिन्हें तुम्हें छोड़ देना और नकार देना चाहिए। तुम लोगों को परंपरागत संस्कृति से आने वाली इन कहावतों और सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझकर पूरी तरह से त्याग देना चाहिए, और तुम्हें इन विशिष्ट चीजों को सत्य के रूप में नहीं स्वीकारना चाहिए या इन्हें भ्रम से सत्य नहीं समझना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि चाहे ये चीजें मानवजाति के बीच कितने भी वर्षों से घूम रही हों, या इनकी जड़ें मानवजाति के बीच कितनी भी गहरी क्यों न हों, ये सत्य के सामने एक क्षण भी नहीं टिक सकतीं। ये बिल्कुल भी सकारात्मक चीजें नहीं हैं और सत्य के साथ उल्लेख करने लायक नहीं हैं। इन चीजों का लोगों पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता; न सिर्फ ये लोगों की अगुआई नहीं कर सकतीं और उन्हें सही मार्ग पर नहीं ला सकतीं, बल्कि, इसके विपरीत, ये लोगों को एक के बाद एक गलत मार्ग पर ले जाती हैं, जिससे लोग और ज्यादा अलग-थलग और बेशर्म, स्वयं के बारे में कम अवगत और कम विवेकशील बन जाते हैं, जिससे परमेश्वर उनका तिरस्कार करने लगता है और उसे उनसे घृणा महसूस होती है। अगर तुम ये चीजें छोड़ देते हो, ये धारणाएँ छोड़ देते हो, लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के शैतान से आने वाले ये विचार और दृष्टिकोण, ये तरीके और आधार छोड़ देते हो, और परमेश्वर के सामने आकर पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखते और आचरण और कार्य करते हो, तो इन चीजों का तुम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जहाँ तक वास्तविकता से असंतुष्ट होने और दोषदर्शी महसूस करने का सवाल है, तो परमेश्वर को तुमसे यह समझने या सीखने के लिए प्रयास करवाने की जरूरत नहीं है कि समाज में कौन-सा अँधेरा घात लगाए हुए है। तुम्हें सिर्फ पूरी तरह से और सार में यह जानने की जरूरत है कि दुनिया और मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई है और वे उस दुष्ट के चंगुल में हैं। चाहे सामाजिक प्रवृत्ति हो, रीति-रिवाज हो, परंपरागत संस्कृति हो, ज्ञान हो, शिक्षा हो—यह किसी भी स्तर पर, किसी भी पहलू के संबंध में, या किसी भी उद्योग में हो—यह सब शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों और उसके पाखंडों और भ्रांतियों से भरा हुआ है। चाहे कोई भी देश, जाति, या समाज में लोगों का कोई भी समूह या संगठन हो, न तो सत्य और न ही परमेश्वर के वचन उन पर प्रभाव रखते हैं; निस्संदेह, उनमें निष्पक्षता या धार्मिकता दिखने की संभावना और भी कम है। यह निश्चित है, और अगर तुम बस इसे जानते हो, तो यह पर्याप्त है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि अपने हृदय को शांत करो और खुद को परमेश्वर के वचनों से अधिक सुसज्जित करो, और अपने भीतर शैतान से आने वाले पाखंड और भ्रांतियाँ, विचार और दृष्टिकोण पहचानो। सिर्फ इन चीजों की वास्तविक समझ से ही तुम वास्तव में इनकी असलियत देख सकते हो; सिर्फ वास्तव में इनकी असलियत देखकर ही तुम वास्तव में इन्हें नकार और छोड़ सकते हो; और सिर्फ वास्तव में इन्हें छोड़कर ही तुममें सत्य की निरंतर स्वीकृति और उसके प्रति समर्पण हो सकता है। इस तरह, तुम जिस मार्ग का अनुसरण करोगे वह सही होगा, और वह रोशन होगा। तुम्हारा लक्ष्य भी सही होगा और अंत में तुम्हें उद्धार की प्राप्ति एक निर्विवाद तथ्य होगी। इसलिए तुम्हें शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बैठाए जाने वाले पाखंडों, भ्रांतियों, विचारों और दृष्टिकोणों को बिल्कुल भी अपने विचारों को भ्रमित करने और अपनी आँखों पर पर्दा डालने नहीं देना चाहिए; तुम्हें दोषदर्शी और वास्तविकता से असंतुष्ट नहीं होना चाहिए और इस तरह सुन्न नहीं होना चाहिए और खुद को और दूसरों को धोखा नहीं देना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करना चाहिए, एक सच्चे इंसान की तरह जीना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यह तुम्हारा उचित कार्य है, और यही वह मार्ग है जिसका तुम्हें अब अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक समाज, देश या किसी उद्योग की स्थिति का सवाल है, उन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनका सत्य के तुम्हारे अनुसरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनका सत्य के तुम्हारे अनुसरण से कोई संबंध नहीं है, तुम्हारे अंत से कोई संबंध नहीं है, और तुम्हारे उद्धार की प्राप्ति से कोई संबंध नहीं है। समझे? (हाँ।) अगर तुम इसे समझ गए हो, तो तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है और जीवन कैसे प्राप्त करना है।

14 जुलाई 2022

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