मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए

हाल में, हम मुख्य रूप से नैतिक आचरण से संबद्ध कुछ वक्तव्यों पर संगति करते रहे हैं। हमने एक-एक कर नैतिक आचरण के हर उस पहलू के वक्तव्यों का बारीकी से विश्लेषण और विच्छेदन कर उन्हें उजागर किया है, जो पारंपरिक संस्कृति में प्रस्तुत किए गए हैं। इसने पारंपरिक संस्कृति में सकारात्मक माने जानेवाले, नैतिक आचरण से जुड़े विविध वक्तव्यों के प्रति लोगों को विवेकयुक्त कर दिया है, और उनके सार की असलियत देखने दी है। जब एक व्यक्ति को इन वक्तव्यों की स्पष्ट समझ हो जाती है, तो वह इनसे विमुख होकर इन्हें ठुकराने में सक्षम हो जाएगा। इसके बाद, वह वास्तविक जीवन में धीरे-धीरे इन चीजों को छोड़ पाएगा। पारंपरिक संस्कृति की स्वीकृति, उसमें अंधी आस्था, और उसके पालन को किनारे करने से, वह परमेश्वर के वचनों और उसकी माँगों को स्वीकार करने, और उन सत्य सिद्धांतों को स्वीकार करने में दिल से समर्थ हो जाएगा जो एक व्यक्ति में होने ही चाहिए, ताकि वह पारंपरिक संस्कृति को दिल से उखाड़ सके। इस तरह, वह व्यक्ति इंसान की तरह जीने और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में समर्थ होगा। सार रूप में देखें तो, मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रतिपादित विभिन्न वक्तव्यों के विश्लेषण का लक्ष्य लोगों को नैतिक आचरण पर इन वक्तव्यों के सार के बारे में स्पष्ट विवेक और ज्ञान देना है, और यह बताना है कि शैतान किस प्रकार से मानवजाति को भ्रष्ट करने, उसे गुमराह और नियंत्रित करने में इसका प्रयोग करता है। इस तरह लोग सटीक रूप से भेद कर पाएँगे कि सत्य क्या है और सकारात्मक चीजें क्या हैं। सटीक रूप से कहें तो, नैतिक आचरण के बारे में इन वक्तव्यों, उनके सार, उनकी प्रकृति, और शैतान की चालबाजी को स्पष्ट रूप से समझने के बाद, लोग यह जानने में सक्षम हो जाएँगे कि सत्य वास्तव में क्या है। पारंपरिक संस्कृति और उसके द्वारा इंसान के मन में बिठाए गए नैतिक आचरण से जुड़े उन वक्तव्यों को सत्य से मिलाकर न देखो। ये चीजें सत्य नहीं हैं, ये सत्य का स्थान नहीं ले सकतीं, और यकीनन इनका सत्य से कुछ लेना-देना नहीं है। पारंपरिक संस्कृति को तुम चाहे जिस भी परिप्रेक्ष्य से देखते हो, और इसकी चाहे जो भी विशिष्ट वक्तव्य या अपेक्षाएँ हों, यह सिर्फ इंसान के लिए शैतान के निर्देशों, और उसके द्वारा इंसान के मन में विचार भरने, उसे गुमराह करने और जबरन उसका मत परिवर्तन करने का प्रतिनिधित्व करता है। यह शैतान की चालबाजी, उसके प्रकृति सार का प्रतिनिधित्व करता है। यह सत्य और परमेश्वर की माँगों से पूरी तरह असंबद्ध है। इसलिए, नैतिक आचरण को लेकर तुम्हारा अभ्यास, या तुम्हारे द्वारा इसका कार्यान्वयन या इस पर तुम्हारी पकड़ कितनी भी अच्छी क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, या तुममें इंसानियत और समझ है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ तो नहीं है कि तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने में समर्थ हो। नैतिक आचरण के बारे में किसी भी वकतव्य या अपेक्षा का—चाहे वह किसी भी किस्म के व्यक्ति या व्यवहार को निशाना बनाए—मनुष्य से परमेश्वर की माँगों के साथ कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर मनुष्य से जिस सत्य का अभ्यास करने और जिन सिद्धांतों का पालन करने की अपेक्षा करता है, उनसे भी इसका कुछ लेना-देना नहीं है। क्या तुम इस प्रश्न पर चिंतन-मनन करते रहे हो? क्या अब यह तुम्हें स्पष्ट समझ आ रहा है? (हाँ।)

पारंपरिक संस्कृति के इन विभिन्न वक्तव्यों के बारे में विस्तृत संगति और उसके मदवार बारीक विश्लेषण के बिना, लोग यह नहीं देख सकते कि इसके द्वारा प्रस्तुत वक्तव्य झूठे, कपटपूर्ण और अवैध हैं। परिणामस्वरूप, लोग अपने दिलों की गहराइयों में, अभी भी पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न वक्तव्यों को उस पंथ या नियमों के अंश के रूप में देखते हैं, जिनका उन्हें अपने कार्य या आचरण में पालन करना है। वे पारंपरिक संस्कृति में अच्छे माने जानेवाले व्यवहार और नैतिक आचरण को अभी भी सत्य के रूप में लेते हैं, और उनका इसी तरह पालन करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें सत्य से मिला भी देते हैं। इससे भी बुरा यह है कि लोग इनका प्रचार कर इन्हें ऐसे आगे बढ़ाते हैं, मानो वे सही हों, मानो वे सकारात्मक चीजें हों, और यहाँ तक कि मानो वे सच हों; वे लोगों को गुमराह करते हैं, विचलित करते हैं, और वे उन्हें सत्य को स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने आने से रोकते हैं। यह सबसे असल समस्या है, जिसे सभी लोग देख सकते हैं। नैतिक आचरण पर जो वक्तव्य मनुष्य को अच्छे और सकारात्मक लगते हैं, उन्हें लोग अक्सर सत्य के रूप में देखते हैं। वे सभाओं में शामिल होकर परमेश्वर के वचनों के बारे में बोलते समय पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों और शब्दों का उल्लेख भी करते हैं। यह एक बहुत गंभीर समस्या है। परमेश्वर के घर में ऐसी बात या घटना नहीं होनी चाहिए, मगर ऐसा अक्सर होता है—यह एक आम समस्या है। यह एक और मसला दर्शाता है : जब लोग पारंपरिक संस्कृति और नैतिक आचरण पर वक्तव्यों के वास्तविक सार को नहीं समझते, तो वे नैतिक आचरण के बारे में पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों को सकारात्मक चीजों के रूप में लेते हैं, जिन्हें सत्य का स्थान दिया जा सकता है या जो सत्य से ऊपर हैं। क्या यह एक आम घटना है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों जैसे कि, “दूसरों के साथ दयालु रहो,” “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” और इनसे भी अधिक लोकप्रिय वक्तव्य जैसे कि, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” और “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” पहले ही पंथ बन चुके हैं, जिनके अनुसार लोग आचरण करते हैं, और जिनकी कसौटी और मानकों पर एक व्यक्ति की कुलीनता आंकी जाती है। इसलिए, परमेश्वर के अनेक वचन और सत्य सुनने के बाद भी, लोग पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों और सिद्धांतों का उन मानकों के रूप में प्रयोग करते हैं, जिनसे वे दूसरों को मापते और चीजों को देखते हैं। इसमें मसला क्या है? यह एक बहुत गंभीर समस्या दर्शाता है, जो यह है कि पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के दिल की गहराई में बड़ा अहम स्थान रखती है। क्या यह इसे नहीं दर्शाता? (दर्शाता है।) शैतान ने लोगों में जो विचार बैठाए हैं उन्होंने उनके दिलों में गहरी जड़ें जमा ली हैं। वे प्रबल होकर मानवजाति के जीवन, माहौल, और समाज की मुख्यधारा बन चुके हैं। इसलिए, पारंपरिक संस्कृति न केवल लोगों के दिलों की गहराई में अहम स्थान बना चुकी है, इतना ही नहीं वह प्रबल रूप से उन सिद्धांतों और रवैयों को, और उन नजरियों और तरीकों को भी प्रभावित कर नियंत्रित करती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण व कार्य करते हैं। परमेश्वर के वचनों की विजय को, और साथ ही उनके खुलासे, न्याय और ताड़ना को, लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के बाद भी, पारंपरिक संस्कृति के ये विचार अभी भी उनके आध्यात्मिक जगत और उनके दिलों की गहराइयों में एक अहम स्थान रखते हैं। इसका अर्थ है कि वे उस दिशा, लक्ष्यों, सिद्धांतों, रवैयों और नजरियों को नियंत्रित करते हैं, जो इसका आधार हैं कि वे लोगों और चीजों को किस तरह देखते हैं, किस तरह आचरण व कार्य करते हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों को शैतान ने पूरी तरह बंदी बना लिया है? क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह एक तथ्य है। लोग जैसा जीवन जीते हैं और जीवन में उनके जो लक्ष्य होते हैं, वे हर चीज को जिस दृष्टिकोण और रवैए से देखते हैं, वह पूरी तरह पारंपरिक संस्कृति पर आधारित होता है, जिसे शैतान ने प्रोत्साहन देकर उनके भीतर बिठा दिया है। पारंपरिक संस्कृति लोगों के जीवन में सबसे अधिक हावी होती है। कहा जा सकता है कि परमेश्वर के सम्मुख आने और उसके वचन सुनने से पहले और उसके कुछ सही वक्तव्य और विचार स्वीकार कर लेने के बावजूद, पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न विचारों का उनके आध्यात्मिक जगत और उनके दिलों की गहराई में सबसे ज्यादा दबदबा और अहम स्थान होता है। इन विचारों के कारण, लोग पारंपरिक संस्कृति के तरीकों, दृष्टिकोणों और रवैयों का प्रयोग करके ही परमेश्वर और उसके वचनों और कार्य को देख पाते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के वचनों, कार्य, पहचान और सार को इन्हीं के आधार पर आँकेंगे, और उनका विश्लेषण और अध्ययन करेंगे। क्या ऐसी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य, उसके कार्यकलापों, सार, सत्ता और बुद्धिमत्ता के द्वारा जीत लिए जाते हैं, तब भी पारंपरिक संस्कृति उनके दिलों में एक अहम स्थान रखती है, इतना अहम कि उसे कोई उखाड़ नहीं सकता। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर के वचनों और सत्य के लिए भी यह सच है। परमेश्वर द्वारा लोगों पर विजय पा लेने के बाद भी, उसके वचन और सत्य उनके दिलों में पारंपरिक संस्कृति का स्थान नहीं ले पाते। यह बहुत दुखदाई और भयावह है। लोग परमेश्वर का अनुसरण करते समय, उसके वचन सुनते समय, और उससे सत्य और विभिन्न विचारों को स्वीकार करते समय भी पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं। सतह पर तो लगता है कि ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, लेकिन पारंपरिक संस्कृति और शैतान द्वारा उनमें बिठाए गए विभिन्न विचार, दृष्टिकोण, और परिप्रेक्ष्य उनके दिलों में एक स्थिर और अपूरणीय स्थान जमाए होते हैं। हालाँकि शायद लोग रोज परमेश्वर के वचन खाते-पीते हों और अक्सर उन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़कर उन पर चिंतन-मनन करते हों, फिर भी वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं, कैसे आचरण और कार्य करते हैं, उनमें निहित बुनियादी विचार, सिद्धांत और तरीके अभी भी परंपरागत संस्कृति पर आधारित होते हैं। इसलिए, परंपरागत संस्कृति दैनिक जीवन में लोगों को अपने जोड़-तोड़, आयोजनों और नियंत्रण के अधीन रखकर उन्हें प्रभावित करती है। यह उनकी छाया जैसी ही स्थाई, और अपरिहार्य है। ऐसा क्यों है? क्योंकि लोग परंपरागत संस्कृति और शैतान द्वारा मनुष्य के मन में बैठाए गए विभिन्न विचारों और मतों को अपने दिल की गहराइयों से अनावृत, विश्लेषित या उजागर नहीं कर सकते; वे इन चीजों को पहचान नहीं सकते, इनकी असलियत देख या इनसे विद्रोह नहीं कर सकते, इन्हें त्याग नहीं सकते; वे उस तरह लोगों और चीजों को नहीं देख सकते, उस तरह आचरण व कार्य नहीं कर सकते, जिस तरह परमेश्वर लोगों से कहता है या जिस तरह से वह सिखाता और समझाता है। इस वजह से आज भी ज्यादातर लोग कैसी विकट दुर्दशा में जी रहे हैं? उस परिस्थिति में, जिसमें उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण व कार्य करने, परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध न जाने या सत्य के खिलाफ न जाने की इच्छा रहती है, फिर भी, प्रतिरोध न करते हुए भी और न चाहते हुए भी, वे अभी भी शैतान द्वारा सिखाए गए तरीकों के अनुसार ही लोगों से बातचीत करते हैं, आचरण करते हैं और मामले सँभालते हैं। लोग भीतर से सत्य की लालसा रखते हैं, परमेश्वर के प्रति एक जबरदस्त इच्छा रखना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण व कार्य करना चाहते हैं, और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना चाहते हैं, फिर भी चीजें हमेशा उनकी इच्छा के विपरीत ही होती हैं। अपने प्रयास दोगुने करने के बाद भी उन्हें जो परिणाम मिलते हैं, वे उनकी इच्छा के अनुसार नहीं होते। सकारात्मक चीजों से प्रेम करने के लिए लोग चाहे कितना भी संघर्ष करें, कितना भी प्रयास करें, कितना भी संकल्प और इच्छा करें, अंत में, जिस सत्य का वे अभ्यास और सत्य की जिस कसौटी का वे वास्तविक जीवन में पालन कर पाते हैं, वे बहुत कम और कभी-कभार होते हैं। लोगों के दिलों की गहराई में यह सबसे निराशाजनक बात है। आखिर इसका क्या कारण है? एक कारण तो यही है कि परंपरागत संस्कृति द्वारा लोगों को सिखाए जाने वाले विभिन्न विचार और मत अभी भी उनके दिलों पर हावी हैं, उनके शब्दों, कार्यों, विचारों, और आचरण तथा कार्य की पद्धतियों व तरीकों को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार, परंपरागत संस्कृति को पहचानने, उसका विश्लेषण कर उसे उजागर करने, उसे समझने, उसकी असलियत देखने, और अंततः उसे हमेशा के लिए त्यागने के लिए एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऐसा करना बहुत महत्वपूर्ण है, यह वैकल्पिक नहीं है। ऐसा इसलिए कि परंपरागत संस्कृति लोगों के दिलों की गहराई में पहले से हावी है—यह उनके पूरे व्यक्तित्व पर भी हावी रहती है। इसका अर्थ है कि वे अपने जीवन में जिस तरह आचरण करते और मामले सँभालते हैं, उसमें सत्य का उल्लंघन करने से बच नहीं पाते, और वे आज तक जैसे थे, उसी तरह न चाहते हुए भी परंपरागत संस्कृति से नियंत्रित और प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते।

अगर व्यक्ति परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य को पूरी तरह स्वीकार करना चाहता है, और अच्छी तरह अभ्यास कर उसे पाना चाहता है, तो उसे गहराई और विशेष रूप से खोदकर, विश्लेषण कर, और पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों को जानने से शुरू करना चाहिए। स्पष्ट है कि पारंपरिक संस्कृति के ये विचार हर व्यक्ति के दिल में एक अहम स्थान रखते हैं, फिर भी अलग-अलग लोग इसके विचारसूत्र के विभिन्न पहलुओं से चिपके रहते हैं; हर व्यक्ति इसके अलग भाग पर ध्यान केंद्रित करता है। कुछ लोग इस वक्तव्य की विशेष पैरवी करते हैं : “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा।” वे अपने मित्रों के प्रति बहुत निष्ठावान होते हैं, और उनके लिए निष्ठा किसी भी दूसरी चीज से बढ़कर है। निष्ठा उनका जीवन है। जन्म से ही, वे निष्ठा के लिए जीते हैं। कुछ लोग दयालुता को बहुत मूल्य देते हैं। अगर वे किसी व्यक्ति से दया प्राप्त करते हैं, चाहे वो छोटी हो या बड़ी, वे उसे दिल से लगा लेते हैं, और इसकी कीमत चुकाना उनके जीवन का सबसे अहम काम बन जाता है—यह उनके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। कुछ लोग दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ने को मूल्य देते हैं; वे सम्मानित, कुलीन और बढ़िया किस्म का इंसान बनना चाहते हैं, जिससे दूसरे उनका आदर करें, उनके बारे में ऊँचा सोचें। वे चाहते हैं कि दूसरे उनके बारे में अच्छा बोलें, वे अच्छी साख चाहते हैं, प्रशंसा पाना चाहते हैं, सभी से जोरदार शाबाशी पाना चाहते हैं। पारंपरिक संस्कृति और नैतिक आचरण के विभिन्न वक्तव्यों के अपने अनुसरण में प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान एक अलग बात पर होता है। कुछ लोग शोहरत और दौलत को मूल्य देते हैं, दूसरे सत्यनिष्ठा को, कुछ लोग शुद्धता को, और दूसरे दयालुताओं की कीमत चुकाने को। कुछ लोग निष्ठा को मूल्य देते हैं, तो दूसरे परोपकार को और कुछ लोग उपयुक्तता को—वे सभी के प्रति सम्मानपूर्ण और शिष्ट होते हैं, वे हमेशा दूसरों को रास्ता और प्रामुख्यता देते हैं—इत्यादि। प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान एक अलग चीज पर केंद्रित होता है। इसलिए अगर तुम समझना चाहते हो कि पारंपरिक संस्कृति ने तुम्हें किस तरह प्रभावित किया है और वह तुम्हें कैसे नियंत्रित करती है, अगर तुम जानना चाहते हो कि तुम्हारे दिल की गहराई में इसका कितना वजन है, तो तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, और किन चीजों को मूल्य देते हो। क्या तुम “उपयुक्तता” और “परोपकार” की परवाह करते हो? क्या तुम “विश्वसनीयता” या “सहनशीलता” को मूल्य देते हो? तुम पर पारंपरिक संस्कृति के किस पहलू ने सबसे गहन प्रभाव डाला है, और तुम पारंपरिक संस्कृति का अनुसरण क्यों करते हो, इसका तुम्हें विभिन्न नजरियों से और अपने वास्तविक व्यवहार के आधार पर गहन-विश्लेषण करना चाहिए। तुम पारंपरिक संस्कृति के जिस किसी सार का अनुसरण करते हो, तुम उसी किस्म के व्यक्ति हो। तुम जिस भी किस्म के इंसान हो, वही तुम्हारे जीवन पर हावी होता है—और तुम्हारे जीवन पर जो हावी होता है, उसी चीज को तुम्हें पहचानने, विश्लेषित करने, उसकी असलियत को समझने, उसके विरुद्ध विद्रोह करने, और उसे छोड़ देने की जरूरत है। इसे अनावृत कर उसकी समझ हासिल कर लेने के बाद तुम धीरे-धीरे पारंपरिक संस्कृति से खुद को अलग कर सकते हो, सही मायनों में उसे छोड़ सकते हो, और अंततः उससे पूरी तरह अलग हो सकते हो, और इसे अपने दिल की गहराइयों से उखाड़ सकते हो। फिर तुम उसे पूरी तरह उसके खिलाफ विद्रोह कर निर्मूल कर सकोगे। ऐसा कर लेने के बाद, अब पारंपरिक संस्कृति तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाएगी; इसके बजाय, परमेश्वर के वचन और सत्य धीरे-धीरे तुम्हारे दिल की गहराइयों में मुख्य भूमिका निभाने लगेंगे और तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। परमेश्वर के वचन और सत्य धीरे-धीरे वहाँ एक अहम स्थान पा लेंगे, और परमेश्वर के वचन और परमेश्वर तुम्हारे दिल के सिंहासन पर बैठ जाएँगे, और तुम्हारे राजा के रूप में राज करेंगे। वे तुम्हारे हर भाग में बस जाएँगे। फिर क्या जीने की पीड़ा छोटी महसूस नहीं होगी? क्या तुम्हारा जीवन निरंतर कम पीड़ादायक नहीं बनता जाएगा? (अवश्य।) क्या तुम्हारे लिए पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना, और आचरण व कार्य करना आसान नहीं हो जाएगा? (बिल्कुल।) यह कहीं अधिक आसान होगा। मैं देख सकता हूँ कि तुम लोग हर रोज अपने कर्तव्यों में बहुत व्यस्त रहते हो। परमेश्वर के वचन पढ़ने के अलावा, तुम्हें हर रोज सत्य पर संगति भी करनी चाहिए, पढ़ना, सुनना, याद करना और लिखना चाहिए। तुम बहुत समय और शक्ति खपाते हो, बड़ी कीमत चुकाते हो, बहुत पीड़ा सहते हो, और संभवतः तुम बहुत-से धर्म-सिद्धांत समझते हो। लेकिन, कर्तव्य निभाने की बात पर, यह बहुत बुरी बात है कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। तुमने कई बार सत्य के विभिन्न पहलुओं को सुना है, उन पर संगति की है, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घट जाता है, तब तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव, अभ्यास और प्रयोग कैसे करें। तुम नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे करें; तुम्हें अभी भी दूसरों के साथ मिलकर खोजना और विचार-विमर्श करना पड़ता है। परमेश्वर के वचनों को मनुष्य के दिल में जड़ें जमाने में इतना समय क्यों लगता है? उसके वचनों के जरिए सत्य को समझना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना इतना मुश्किल क्यों होता है? इसे खारिज नहीं किया जा सकता कि लोगों पर पारंपरिक संस्कृति का गंभीर प्रभाव इसका एक प्रमुख कारण है। इसने लोगों के दिलों में बड़े लंबे समय से एक अहम स्थान हथिया रखा है, और यह लोगों के विचारों और मन को नियंत्रित करता है। पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को मनमानी करने देती है; वे सहजता से इसे प्रदर्शित करते हैं, जैसे कि कसाई और चाकू, पानी और मछली। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों से नजदीकी से जुड़ी हुई है। ये साथ काम करते हैं और एक-दूसरे को मजबूती देते हैं। मछली और पानी की तरह, जब भ्रष्ट स्वभाव पारंपरिक संस्कृति से मिलते हैं, तो वे अपनी पूरी क्षमताएँ दिखा पाते हैं। भ्रष्ट स्वभाव को पारंपरिक संस्कृति से प्रेम होता है और उसे उसकी जरूरत होती है। इसलिए, पारंपरिक संस्कृति के सहस्राब्दियों के अनुकूलन से, शैतान ने मनुष्य को और अधिक गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को और अधिक गंभीर बना और बढ़ा दिया है। इसके छद्मवेश और स्वांग में, ये स्वभाव न सिर्फ और अधिक गंभीर हो जाते हैं, बल्कि और भी ज्यादा छद्मवेशी हो जाते हैं। अहंकार, कपट, धूर्तता, कट्टरता, और सत्य से विमुख होने वाले स्वभाव और ज्यादा गहराई में छुप जाते और ढक जाते हैं—वे और अधिक धूर्त तरीकों से प्रदर्शित होते हैं, जिससे लोगों के लिए इन्हें देख पाना मुश्किल हो जाता है। तो, पारंपरिक संस्कृति के अनुकूलन, निर्देश, गुमराह करने, और नियंत्रण के अधीन मानवजाति की दुनिया धीरे-धीरे क्या बन गयी है? यह दानवों की दुनिया बन गयी है। लोग इंसानों की तरह नहीं जीते; उनमें इंसानियत या मानवता नहीं है। फिर भी, जो लोग पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं, जिनमें यह धारा समा गयी है, जिनमें यह व्याप्त है, जो इसके पूर्ण नियंत्रण में हैं, वे अपनी ही महानता, कुलीनता, श्रेष्ठता के प्रति आश्वस्त हो गए हैं। वे बेहद अहंवादी हैं; उनमें से कोई भी नहीं सोचता कि वह तुच्छ है, वह मूल्यहीन है, वह महज एक अदना-सा सृजित प्राणी है। इनमें से एक भी इंसान सामान्य व्यक्ति नहीं होना चाहता; ये सभी प्रसिद्ध होना चाहते हैं, महान बनना चाहते हैं, संत बनना चाहते हैं। पारंपरिक संस्कृति के अनुकूलन के अधीन, न सिर्फ लोग स्वयं से आगे बढ़ जाना चाहते हैं—वे पूरी दुनिया और पूरी मानवजाति के पार निकल जाना चाहते हैं। तुमने वह गाना सुना है जो गैर-विश्वासी गाते हैं, “मैं ऊँचे उड़ना चाहता हूँ, ऊँचे उड़ना चाहता हूँ,” और वह गीत जिसके बोल हैं, “मैं एक छोटी चिड़िया हूँ, मैं उड़ना चाहती हूँ, मगर ऊँचे उड़ नहीं सकती।” क्या ये बोल समझ से रिक्त नहीं हैं, पूरी इंसानियत और समझ से रिक्त नहीं हैं? क्या यह शैतान की खूंख्वार गरज नहीं है? (बिल्कुल हैं।) ये शैतान की विक्षिप्त गरज के स्वर हैं। इसलिए, इसे किसी भी दृष्टि से देखें, पारंपरिक संस्कृति का विष लंबे समय से मनुष्य के दिल में समा चुका है, और यह ऐसी चीज नहीं है जिसे रातोरात मिटाया जा सके। यह किसी निजी दोष या बुरी आदत से उबरने जितना आसान नहीं है—तुम्हें सत्य के अनुसार, अपने विचारों, दृष्टिकोणों और भ्रष्ट स्वभाव को अनावृत कर पारंपरिक संस्कृति की जहरीली जड़ों को अपने जीवन से मिटा देना चाहिए। फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुरूप लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने, और उसके वचनों के सत्य को अपना जीवन बनाने की जरूरत है। ऐसा करके ही तुम सही मायनों में, परमेश्वर का अनुसरण करने और उसमें विश्वास रखने के सही मार्ग पर चलोगे।

हम पारंपरिक संस्कृति के विषय का बारीकी से विश्लेषण कर उसे उजागर करने के लिए काफी कुछ कर चुके हैं, और हमने उसके बारे में विस्तार से संगति की है। हमने उस पर चाहे कितनी भी संगति की हो, जितनी भी लंबी संगति की हो, लेकिन लोगों के सत्य का अनुसरण करते समय आने वाली तमाम कठिनाइयों या उनके जीवन प्रवेश में मौजूद विभिन्न कठिनाइयों और समस्याओं को सुलझाने का ध्येय बाकी ही है। लक्ष्य सभी बाधाओं, व्यवधानों और कठिनाइयों को हटाना है—जिनमें सबसे प्रमुख हैं पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न वक्तव्य, विचार और दृष्टिकोण—जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की राह के आड़े आते हैं। आज की तिथि में, हमने पारंपरिक संस्कृति के विषय पर अपनी संगति को सार रूप में पूरा कर लिया है। तो क्या हमने सत्य के अनुसरण से संबंधित विषयों पर संगति पूरी कर ली है? (नहीं।) क्या पारंपरिक संस्कृति पर हमारी संगति और विश्लेषण सत्य के अनुसरण से संबंधित थे? (बिल्कुल।) ये सत्य के अनुसरण से संबंधित थे। सत्य के अनुसरण के मार्ग में लोगों के सामने जो सबसे बड़ी कठिनाई है पारंपरिक संस्कृति। अब चूँकि हम सत्य के अनुसरण में सबसे बड़ा व्यवधान—पारंपरिक संस्कृति—के बारे में संगति पूरी कर चुके हैं, इसलिए आज हम इस प्रश्न पर संगति करेंगे, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? क्या हमने इस प्रश्न पर पहले संगति की है? हमें इस पर संगति क्यों करनी चाहिए? क्या यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है? (बिल्कुल।) यह क्यों महत्वपूर्ण है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (मेरी समझ से सत्य का अनुसरण सीधे मनुष्य के उद्धार से संबंधित है। चूँकि हम सबका स्वभाव गंभीर रूप से भ्रष्ट है, हमारे भीतर बहुत छोटी आयु से ही पारंपरिक संस्कृति ने इतनी गहराई से हमें सिखा-पढ़ा दिया है और विषाक्त किया है, इसलिए हमें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता है, वरना हम शैतान से आने वाली नकारात्मक चीजों को नहीं समझ सकेंगे। हम सत्य का अभ्यास भी नहीं कर सकेंगे, और हमें सकारात्मक ढंग से और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करना भी नहीं आएगा। हमारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार आचरण करने और कार्य करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह विश्वास करता है, तो अंत में, वह एक जीवित शैतान ही बना रहेगा, ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे परमेश्वर बचाएगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करना बहुत महत्वपूर्ण है। यही नहीं, हमारे भ्रष्ट स्वभाव को सत्य के अनुसरण के जरिये ही स्वच्छ किया जा सकता है; साथ ही यही एकमात्र तरीका है जिससे हम लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण और अपने आचरण और कार्य के तरीके के बारे में अपने गलत विचारों को सुधार सकते हैं। सत्य को समझने और प्राप्त करने के बाद ही कोई व्यक्ति सक्षम होकर अपना कर्तव्य निभा सकता है और परमेश्वर को समर्पण करने वाला व्यक्ति बन सकता है। वरना, वह अनजाने ही अपने कर्तव्य में काम करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव का पालन करेगा, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा उत्पन्न होगी।) तुमने दो बातें रखीं। मेरा प्रश्न क्या था? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?) क्या यह एक सरल प्रश्न है? यह कारण-व-प्रभाव का सरल प्रश्न लगता है। क्या तुम सबका यही विचार है कि एक तरह से सत्य का अनुसरण व्यक्ति के उद्धार से संबंधित होता है, और दूसरी तरह से गड़बड़ियाँ और बाधाएँ न पैदा करने से संबंधित होता है? (हाँ।) जब तुम उसे इस तरह प्रस्तुत करते हो, तो प्रश्न बहुत सरल ही लगता है। क्या यह वास्तव में इतना सरल है? तुम सब अपने विचार साझा करो। (मुझे लगता है यह प्रश्न कि “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में थोड़ा सरल है, मगर जब यह अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने से जुड़ा होता है, तो यह सरल नहीं रह जाता।) “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?”—यह कितने प्रश्न समेटे हुए है? इसमें ऐसे प्रश्न शामिल हैं जैसे कि सत्य के अनुसरण की महत्ता क्या है, इसके कारण क्या हैं—और क्या? (सत्य के अनुसरण का महत्त्व।) यह सही है : इसमें सत्य का अनुसरण करने का महत्त्व भी शामिल है; इसमें ये प्रश्न शामिल हैं। इन चीजों पर ध्यान देने पर क्या यह प्रश्न, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” सरल है? (बिल्कुल नहीं।) इन चीजों के प्रकाश में, इस प्रश्न पर दोबारा चिंतन-मनन करो कि “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” पहले पीछे मुड़कर देखो—सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? इसे परिभाषित कैसे किया जाए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर, लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) क्या यह सही है? “पूरी तरह” शब्द पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया है। दोबारा पढ़ो। (पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” यह प्रश्न लोगों और चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण और उनके आचरण और कार्यों से संबंधित है। यह इस बारे में है कि लोगों को लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए, उन्हें कैसा आचरण और कार्य करना चाहिए; और उन्हें पूर्णतया परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य की कसौटी पर क्यों लोगों और चीजों को देखना और आचरण व कार्य करना चाहिए। उन्हें काम करने के इस तरीके का अनुसरण क्यों करना चाहिए—क्या यह इस प्रश्न का मूल नहीं है? क्या यह आधारभूत प्रश्न नहीं है? (बिल्कुल है।) अब तुम प्रश्न के आधारभूत मुख्य विषय को समझ गए हो। आओ प्रश्न पर वापस चलें, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” यह प्रश्न सरल नहीं है। इसमें सत्य के अनुसरण की महत्ता और मूल्य शामिल हैं, साथ ही इसमें कुछ और भी है जो अत्यंत महत्त्व का है : मानवजाति के सार और सहज प्रवृत्ति के आधार पर, उसे अपने जीवन के रूप में सत्य की जरूरत है, और इसलिए उसे इसका अनुसरण करना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, यह मानवजाति के भविष्य और जीवित रहने से भी जुड़ा हुआ है। सरल शब्दों में कहें तो सत्य का अनुसरण लोगों के उद्धार और उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलने से संबद्ध है। स्वाभाविक रूप से, यह लोगों की विभिन्न जीवन विधियों, उनके उद्गारों और उनके रोजमर्रा के जीवन में उनके व्यवहार से भी संबंधित है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो यह सत्यता के साथ कहा जा सकता है कि बचाए जाने की उनकी संभावना शून्य है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनके परमेश्वर का प्रतिरोध करने, उसे धोखा देने और ठुकराने की संभावना शत प्रतिशत है। वे कभी भी किसी भी स्थान पर परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं, और स्वाभाविक रूप से वे कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर को बाधित कर सकते हैं, या ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर व्यवधान या गड़बड़ी पैदा हो सकती है। लोग सत्य का अनुसरण क्यों करें, इसके ये कुछ सरलतम और सबसे बुनियादी कारण हैं, जो वे अपने रोजमर्रा के जीवन में देख और समझ सकते हैं। लेकिन आज हम, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” इस प्रश्न के कुछ अहम भागों पर ही संगति करेंगे। हम इस प्रश्न के सबसे आधारभूत आयामों पर पहले ही संगति कर चुके हैं, जिसे लोगों ने धर्म-सिद्धांत के मामले के रूप में समझा और पहचाना है, इसलिए हम आज उन बुनियादी, सरल प्रश्नों के बारे में संगति नहीं करेंगे। हमारे लिए कई मुख्य तत्वों पर संगति करना काफी होगा। हम सत्य का अनुसरण करने के विषय पर संगति क्यों कर रहे हैं? स्पष्ट है कि इसमें कुछ और महत्वपूर्ण प्रश्न निहित हैं, ऐसे प्रश्न जिन्हें गहराई से लोग नहीं समझ सकते हैं, जिन्हें वे नहीं जानते, और नहीं समझते, मगर जिसके लिए उनकी समझ-बूझ जरूरी है।

“मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” हम उन बुनियादी आयामों से शुरू नहीं करेंगे जो लोग पहले ही समझते हैं, न ही हम उस धर्म-सिद्धांत से शुरू करेंगे जो लोग पहले ही जानते हैं। तो, हम कहाँ से शुरू करेंगे? हमें इस प्रश्न के मूल से आरंभ करना होगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना और उसके इरादों से। प्रश्न के मूल से आरंभ करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि हम परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर द्वारा मानवजाति के सृजन से शुरू करेंगे। जब से लोग अस्तित्व में आए, जब से एक सजीव प्राणी—सृजित मानवजाति—को परमेश्वर की श्वास मिली, तब से परमेश्वर ने इनके बीच से एक समूह को प्राप्त करने की योजना बनाई है। यह समूह उसके वचनों की अवगाहना करने, उन्हें समझने और उनका पालन करने में सक्षम होगा। यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सभी चीजों, परमेश्वर के अनगिनत सृजन, वनस्पतियों, प्राणियों, अरण्यों, समुद्रों, नदियों, झीलों, पर्वतों, खाड़ियों, मैदानों, आदि के संचालक के रूप में कार्य कर पाएगा। इस योजना को बनाने के बाद, परमेश्वर ने इसी अनुसार मानवजाति से अपनी आशाएँ रखीं। उसे आशा है कि एक दिन लोग इस मानवजाति, दुनिया में मौजूद सारी चीजों, उनके बीच जीनेवाले तमाम प्राणियों के संचालक के रूप में कार्य कर पाएँगे, और वे यह कार्य सुव्यवस्थित ढंग से, उसके द्वारा तय किए गए तरीकों, नियमों और व्यवस्थाओं के अनुसार कर पाएँगे। हालाँकि परमेश्वर ने पहले ही यह योजना और ये अपेक्षाएँ तय कर रखी हैं, उसे अपना अंतिम लक्ष्य हासिल करने में बहुत लंबा समय लगेगा। यह ऐसी चीज नहीं है जिसे दस-बीस वर्ष में, सौ-दो सौ वर्ष में पूरा किया जा सकेगा और न ही हजार-दो हजार वर्ष में। इसमें छह हजार वर्ष लगेंगे। इस प्रक्रिया में, मानवजाति को विभिन्न अवधियों, युगों, कल्पों और परमेश्वर के कार्य के विभिन्न चरणों का अनुभव करना होगा। उन्हें आकाश में नक्षत्रों की गति, समुद्रों के सूखने, और चट्टानों के टूटने का अनुभव करना होगा, उन्हें नाटकीय परिवर्तन का अनुभव करना होगा। पहले और थोड़े-से इंसानों से लेकर अब तक मानवजाति ने विराट उतार-चढ़ाव देखे हैं, और इस दुनिया के उलटफेर और तब्दीलियों को देखा है, जिसके बाद धीरे-धीरे लोगों की संख्या बढ़ी है, और धीरे-धीरे उन्होंने अनुभव प्राप्त किया है, मानवजाति की कृषि, अर्थतंत्र, जीवन-यापन और जीवित रहने के तौर-तरीके धीरे-धीरे बदल गए हैं, और इन्होंने नए तौर-तरीकों को जन्म दिया है। एक विशेष अवधि और एक विशेष युग के आने पर ही लोग उस स्तर पर पहुँच सकते हैं जहाँ परमेश्वर उनका न्याय कर, उन्हें ताड़ना देकर उन पर विजय प्राप्त करेगा, और जहाँ परमेश्वर उनके समक्ष सत्य, अपने वचन और अपने इरादे व्यक्त करेगा। इस स्तर पर पहुँचने के लिए, मानवजाति ने और इस दुनिया में मौजूद तमाम चीजों ने अत्यधिक उथल-पुथल का अनुभव किया है। स्वाभाविक है, आकाश और ब्रह्मांड में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। परिवर्तन का यह क्रम परमेश्वर के प्रबंधन के साथ—साथ धीरे-धीरे हुआ है, और प्रकट हुआ है। लोगों को उस मुकाम पर पहुँचने में बहुत समय लगा है जहाँ वे परमेश्वर के सामने आकर उसकी विजय, न्याय, ताड़ना और उसके वचनों के पोषण को स्वीकार कर सकते हैं। मगर कोई बात नहीं; परमेश्वर प्रतीक्षा कर सकता है, क्योंकि यह परमेश्वर की योजना है, और यही उसकी इच्छा है। परमेश्वर को अपनी योजना और अपनी इच्छा के कारण लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होगी। वह अब तक प्रतीक्षा करता रहा है, जोकि सचमुच बड़ा लंबा समय है।

मानवजाति के अज्ञान, भ्रम और उलझन की प्रारंभिक अवस्था से गुजरने के बाद, परमेश्वर उन्हें व्यवस्था के युग में ले आया। हालाँकि मानवजाति एक नए युग, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के एक युग में प्रवेश कर चुकी थी, और भले ही लोग अब निरंकुश ढंग से भेड़ों के झुंडों की तरह अनुशासनहीन जीवन नहीं जी रहे थे, भले ही वे अपने जीवन के उस माहौल में प्रवेश कर चुके थे जिसमें व्यवस्था का मार्गदर्शन, निर्देश, और विधि निहित थी, मगर लोग सिर्फ थोड़ी-सी आसान चीजें जानते थे जो उन्हें व्यवस्था के द्वारा सिखाई, बताई या सूचित की गई थीं, या जो इंसानी जीवन के दायरे में पहले से ही मालूम थीं : उदाहरण के लिए, चोरी क्या है, या व्यभिचार क्या है, हत्या क्या है, हत्या के लिए लोगों को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा, पड़ोसियों के साथ कैसे बातचीत की जाए, या तमाम चीजें करने के लिए लोगों को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा। कुछ भी न जानने-समझने की अपनी प्रारंभिक परिस्थितियों से निकलकर मानवजाति परमेश्वर द्वारा सूचित मानव आचरण की कुछ सरल, अनिवार्य व्यवस्थाओं तक पहुँच गई थी। परमेश्वर द्वारा इन व्यवस्थाओं की घोषणा के बाद, व्यवस्था में रह रहे लोग नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना जान गए थे, और उनके मस्तिष्क और भीतरी संसार में, व्यवस्था उनके आचरण के लिए एक अंकुश और एक मार्गदर्शक की तरह थी, और मनुष्यों में आरंभिक इंसानी सदृशता आ गई थी। ये लोग समझ गए थे कि उन्हें कुछ नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना होगा। उन लोगों ने इनका चाहे जितना अच्छा अनुसरण या जितनी भी सख्ती से अनुपालन किया हो, किसी भी स्थिति में, इन लोगों में व्यवस्था से पहले आए लोगों की अपेक्षा अधिक इंसानी सदृशता थी। अपने व्यवहार और जीवन के आधार पर, वे कुछ विशेष मानकों पर कुछ अंकुशों के साथ कार्य करते और जीवन जीते थे। वे अब वैसे खोए हुए और अज्ञानी नहीं थे जैसे वे पहले कभी थे, और अब जीवन में उतने लक्ष्यहीन नहीं थे। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए सभी वक्तव्यों ने उनके दिलों में जड़ें जमा ली थीं, और वहाँ उन्होंने एक स्थान पा लिया था। मनुष्य अब जानते थे कि उन्हें क्या करना है; वे अब लक्ष्य, दिशा या अंकुश से रहित नहीं थे। इसके बावजूद, वे परमेश्वर की योजनाओं और उसकी इच्छाओं के अनुरूप व्यक्ति बन पाने से बहुत दूर थे। वे अभी भी सभी चीजों के स्वामी की तरह कार्य कर पाने से बहुत दूर थे। परमेश्वर को अभी भी प्रतीक्षा करने और धैर्य रखने की जरूरत थी। हालाँकि व्यवस्था के अधीन रहने वाले लोग परमेश्वर की आराधना करना जानते थे, पर वे ऐसा सिर्फ औपचारिकता के लिए करते थे। उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान और छवि परमेश्वर की सच्ची पहचान और सार से बिल्कुल भिन्न थी। इसलिए, वे अभी भी वो सृजित मानव नहीं थे, जिन्हें परमेश्वर चाहता था, और वे ऐसे लोग नहीं थे जिनकी परमेश्वर ने कल्पना की थी, जो सभी चीजों के संचालक के रूप में कार्य करने योग्य थे। उनके दिलों की गहराइयों में, परमेश्वर का सार, पहचान और हैसियत महज मानवजाति के शासक के रूप में थी, और लोग उस शासक की प्रजा या लाभार्थी मात्र थे, और कुछ नहीं। तो, परमेश्वर को अभी भी इन लोगों की अगुआई कर उन्हें आगे बढ़ाना था, जो व्यवस्था के अधीन जीते थे, और सिर्फ व्यवस्था को ही जानते थे। ये लोग व्यवस्था के सिवाय कुछ भी नहीं समझते थे; वे सभी चीजों के लिए संचालक की तरह कार्य करना नहीं जानते थे; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है; वे जीवनयापन का सही मार्ग नहीं जानते थे। वे परमेश्वर की माँगों के अनुसार कैसे आचरण और जीवन-यापन करना है, न ही वे जिस तरह वे जी रहे थे उससे बेहतर तरीके से जीना जानते थे, न यह जानते थे कि लोगों को अपने जीवन में किसका अनुसरण करना चाहिए, आदि-आदि। व्यवस्था के अधीन जीने वाले लोग इन चीजों से बिल्कुल अनजान थे। व्यवस्था के अलावा, इन लोगों को परमेश्वर की अपेक्षाओं, सत्य या परमेश्वर के वचनों का कोई ज्ञान नहीं था। इस कारण से, परमेश्वर को व्यवस्था में रहने वाली मानवजाति को सहन करते रहना पड़ा। ये लोग उनसे पहले रहने वाले लोगों की अपेक्षा एक विशाल कदम से आगे थे—कम-से-कम वे यह समझते थे कि पाप क्या है, और यह कि उन्हें व्यवस्था का पालन और अनुसरण करना चाहिए, और व्यवस्था के ढाँचे के भीतर रहना चाहिए—फिर भी वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर थे। जो भी हो, परमेश्वर अभी भी उत्सुकतापूर्वक आशा और प्रतीक्षा कर रहा था।

युगों के विकास और मानवजाति के विकास के साथ, सभी चीजों के कार्यान्वयन, और परमेश्वर के हाथों की व्यवस्थाओं और उसकी संप्रभुता, मार्गदर्शन और अगुआई के साथ, मानवजाति और सभी चीजें और संपूर्ण ब्रह्मांड सदा आगे बढ़ रहे हैं। हजारों वर्षों तक व्यवस्था के अंकुश में रहने के बाद, व्यवस्था के अधीन मानवजाति अब व्यवस्था कायम नहीं रख पा रही थी, और उसने अगले युग में परमेश्वर के कार्य का अनुसरण किया, जिसका प्रारंभ परमेश्वर ने किया था—अनुग्रह का युग। अनुग्रह के युग के आगमन पर, परमेश्वर ने इस तथ्य को अपने कार्य का आधार बनाया कि उसने इसकी भविष्यवाणी करने के लिए नबियों को भेजा था। कार्य का यह चरण उतना स्नेही या इच्छित नहीं था जितना मनुष्य ने अपनी धारणाओं में कल्पना की थी, न ही यह उतना अच्छा लगा जितना उन्होंने सोचा था; इसके बजाय, बाहर से, सब-कुछ भविष्यवाणियों के विपरीत लग रहा था। इन परिस्थितियों में से एक ऐसा तथ्य उभरा, जिसका मनुष्य कभी अंदाजा भी नहीं लगा सकता था : उस देह के, जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया था—प्रभु यीशु—के सूली पर चढ़ाए जाने का तथ्य। यह सब मनुष्य के पूर्वानुमान से परे था। बाहर से, यह सब एक क्रूर, रक्तरंजित घटना लगती थी, देखने में भयानक, फिर भी यह परमेश्वर के व्यवस्था के युग को समाप्त कर एक नए युग का प्रारंभ करने की शुरुआत थी। यह नया युग अनुग्रह का युग है, जिसे तुम सब लोग अब जानते हो। अनुग्रह का युग व्यवस्था के युग में परमेश्वर की भविष्यवाणियों को चुनौती देता प्रतीत होता था। निश्चित रूप से यह परमेश्वर के देहधारण के सूली पर चढ़ाए जाने के रूप में भी आया। ये सारी घटनाएँ बिल्कुल अचानक और बहुत स्वाभाविक रूप से हुईं, और ऐसी परिस्थितियों में हुईं जो उनके लिए उपयुक्त थीं। पुराने युग को समाप्त कर नए युग का आह्वान करने—नए युग को लाने—के लिए—परमेश्वर ने ऐसे साधनों का प्रयोग किया। हालाँकि इस युग के आरंभ में जो कुछ भी हुआ, वह बहुत क्रूर, रक्तरंजित, अकल्पनीय और इसका आगमन बहुत अचानक हुआ, और मनुष्य की कल्पना के जैसा अद्भुत और मधुर नहीं था—हालाँकि अनुग्रह के युग का आरंभ-दृश्य देखने में भयावह, और हृदय-विदारक था, इसमें ऐसी क्या बात थी जो उत्सव मनाने के योग्य थी? व्यवस्था के युग के अंत का अर्थ था कि परमेश्वर को अब व्यवस्था के अंतर्गत मानवजाति के विभिन्न व्यवहारों का पालन करने की जरूरत नहीं थी; इसका अर्थ था कि मानवजाति ने परमेश्वर के कार्य और उसकी योजना के अनुरूप एक नए युग में बहुत विराट कदम रख लिया था। जाहिर है, इसका अर्थ यह भी था कि परमेश्वर की प्रतीक्षा की अवधि घट गई थी। मानवजाति ने एक नए युग में, एक नए कल्प में प्रवेश किया, जिसका अर्थ था कि परमेश्वर के कार्य ने एक विराट कदम आगे बढ़ाया था, और जैसे-जैसे उसका कार्य आगे बढ़ेगा, उसकी इच्छा धीरे-धीरे साकार होती जाएगी। अनुग्रह के युग का आगमन आरंभ में उतना मनोहर नहीं था, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, एक मानवजाति शीघ्र उदय होने वाली थी, ऐसी मानवजाति जिसे वह चाहता था, जो उसकी अपेक्षाओं और लक्ष्यों के बहुत समीप आ रही थी। यह एक आनंददायी और सराहनीय चीज थी, जोकि उत्सव मनाने के योग्य थी। हालाँकि मानवजाति ने परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया, जो मनुष्य के लिए देखने में दुखद घटना थी, फिर भी मसीह को जिस पल सूली पर चढ़ाया गया, उस पल का अर्थ था कि परमेश्वर का अगला युग—अनुग्रह का युग—आ चुका था, और जाहिर तौर पर उस युग में परमेश्वर का कार्य प्रारंभ होने को था। यही नहीं, इसका अर्थ था कि परमेश्वर के देहधारण की उस घटना का महान कार्य पूरा हो चुका था। परमेश्वर विश्व के लोगों का सामना एक विजेता के रूप में करेगा, एक नए नाम और छवि के साथ, और उसके नए कार्य की विषयवस्तु मानवजाति के सामने अनावृत और प्रकट की जाएगी। इसी दौरान, मानवजाति की बात करें, तो वह अब व्यवस्था के बारंबार होने वाले उल्लंघनों से लगातार परेशान नहीं होगी, न ही अब इसका उल्लंघन करने के लिए व्यवस्था द्वारा दंडित होगी। अनुग्रह के युग के आगमन ने मानवजाति को परमेश्वर के पहले के कार्य से निकलकर, कार्य के नए कदमों और नए तरीकों के साथ एक बिल्कुल नए माहौल में प्रवेश करने दिया। इसने मानवजाति को एक नया प्रवेश, एक नया जीवन दिया, और जाहिर तौर पर इसने परमेश्वर और मनुष्य के बीच एक संबंध बनने दिया, जिससे कि वे एक कदम और समीप आ गए। परमेश्वर के देहधारण के कारण, मनुष्य परमेश्वर से रूबरू हो पाया। मनुष्य ने परमेश्वर की असली और वास्तविक वाणी और वचन सुने; मनुष्य ने उसके कार्य का ढंग और साथ ही उसका स्वभाव आदि देखा। मनुष्य ने हर तरह से, इसे अपने कानों से सुना और अपनी आँखों से देखा; उसने जीवंत रूप से अनुभव किया कि परमेश्वर सचमुच सही मायनों में, इंसानों के बीच आ चुका है, वह सचमुच सही मायनों में मनुष्य के सामने था, वह सचमुच सही मायनों में मानवजाति के बीच जीवनयापन करने आया था। हालाँकि उस देहधारण में परमेश्वर के कार्य की अवधि लंबी नहीं थी, लेकिन उसने उस समय की मानवजाति को परमेश्वर के साथ जीने का सच्चा, दृढ़ और पक्का अनुभव दिया। और भले ही जिन लोगों को ये अनुभव हुए, उन्होंने अधिक समय तक इसका अनुभव नहीं किया, लेकिन परमेश्वर ने अपने देहधारण की उस घटना में अनेक वचन कहे और वे वचन अत्यंत विशिष्ट थे। उसने बहुत कार्य भी किए, और बहुत से लोग थे, जो उसका अनुसरण करते थे। मानवजाति ने निर्णायक ढंग से पुराने युग की व्यवस्था के अधीन अपना जीवन समाप्त कर एक पूर्णतया नए युग : अनुग्रह के युग में प्रवेश किया।

नए युग में प्रवेश कर लेने के बाद, मानवजाति अब व्यवस्था के बंधनों के अधीन नहीं, बल्कि परमेश्वर की नई अपेक्षाओं और नए वचनों के अधीन जी रही थी। परमेश्वर के नए वचनों और नई अपेक्षाओं के कारण, मानवजाति ने एक नया जीवन विकसित किया, जिसका रूप भिन्न था, परमेश्वर में विश्वास का जीवन, जिसका रूप और विषयवस्तु भिन्न थे। व्यवस्था के अधीन पूर्व के जीवन की अपेक्षा यह जीवन मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों पर खरे उतरने के एक कदम समीप आ गया। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए नई आज्ञाएँ रखीं, उसने मानवजाति के लिए नए व्यवहार संबंधी मानक रखे उस काल की मानवजाति के लिए जो अधिक सही और अधिक अनुकूल थे, और साथ ही उसने लोगों और चीजों को लेकर व्यक्ति के विचारों, और उसके आचरण और कार्यकलाप के लिए मानदंड और सिद्धांत भी बनाए। तब उसके द्वारा कहे वचन, अब के वचनों जैसे विशिष्ट नहीं थे, न ही उनकी मात्रा अब जितनी अधिक थी, फिर भी तब के मनुष्य के लिए, जो अभी-अभी व्यवस्था की अधीनता से बाहर आया था, वे वचन और अपेक्षाएँ काफी थीं। उस काल के लोगों के आध्यात्मिक कद, और वे जिनसे युक्त थे उसे देखा जाए, तो वे इतनी ही चीजें प्राप्त कर सिद्ध कर सकते थे। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने लोगों से विनम्र व धैर्यवान होने, सहिष्णु रहने, क्रूस उठाने, आदि के लिए कहा; व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर ने मनुष्य से ये अधिक विशिष्ट अपेक्षाएँ रखीं, ऐसी अपेक्षाएँ जो इंसानियत का जीवन जीने के तरीके से जुड़ी थीं। इससे परे, मनुष्य ने, जो व्यवस्था के अधीन जीवन जिया करता था, अनुग्रह के युग के आगमन के कारण, परमेश्वर के अनुग्रह, आशीषों, और ऐसी दूसरी चीजों के प्रचुर और निरंतर प्रवाह का आनंद उठाया। उस युग में मानवजाति सचमुच आरामदेह जीवन जी रही थी। सभी खुश थे, परमेश्वर की आँखों का तारा थे, उसकी हथेलियों में बच्चे जैसे थे। उन्हें आज्ञाओं का पालन करने के अलावा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुकूल विचारों के अनुसार थोड़ा अच्छा व्यवहार करना था, लेकिन मानवजाति के लिए, परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद अधिक मात्रा में उपलब्ध था। उदाहरण के लिए, दानवों के कब्जे के कारण होनेवाले रोगों से लोगों को चंगाई मिली, और उनके भीतर बसे घृणित दानवों और बुरी आत्माओं को खदेड़कर बाहर कर दिया गया। जब लोग मुसीबत या जरूरत में होते, तो परमेश्वर अपवाद के रूप में उनके लिए चिह्नों और चमत्कारों का प्रदर्शन करता, ताकि उनके विभिन्न रोगों से उन्हें चंगाई मिले, उनका शरीर तुष्ट हो, और उन्हें भोजन और वस्त्र मिलें। उस युग में मनुष्य के आनंद के लिए अत्यधिक अनुग्रह और आशीष उपलब्ध थे। केवल आज्ञाओं का पालन करने के अलावा, मानवजाति को अधिक-से-अधिक धैर्यवान, सहिष्णु, स्नेही, इत्यादि रहना था। सत्य या मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ी किसी भी दूसरी चीज का मनुष्य को कोई अंदाजा नहीं था। मनुष्य के पूरी तरह से अनुग्रह और परमेश्वर के आशीषों का आनंद उठाने का इरादा रखने, और प्रभु यीशु द्वारा मनुष्य से उस काल में किए गए वादे के कारण, मनुष्य आदतन परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने लगा, और इसका अंत कहीं नजर न आता था। मनुष्य ने सोचा कि यदि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है, तो उसे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद मिलना चाहिए, और यह हिस्सेदारी न्यायसंगत रूप से उसकी है। लेकिन उसे यह पता नहीं था कि उसे सृजन के प्रभु की आराधना करनी है, या एक सृजित प्राणी का दर्जा अपनाकर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करना है, और एक नेक सृजित प्राणी बनना है। वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने, उसके प्रति वफादार होने, उसके वचनों को स्वीकार करने और लोगों और चीजों को देखने और अपने आचरण व कार्यों के आधार के रूप में उसके वचनों का प्रयोग करने के तरीकों के बारे में भी नहीं जानता था। मनुष्य ऐसी किसी भी चीज से अनजान था। आदतन परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के अलावा, मनुष्य मृत्यु के बाद स्वर्ग में वैसे ही प्रवेश करना चाहता था, और वहाँ प्रभु के साथ अच्छे आशीषों का आनंद उठाना चाहता था। यही नहीं, अनुग्रह के युग में जीने वाली मानवजाति, जोकि अनुग्रह और आशीषों के बीच जी रही थी, गलत ढंग से यह विश्वास करती थी कि परमेश्वर बस एक दयालु, स्नेही परमेश्वर है, उसका सार कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता है, और कुछ नहीं। उसके लिए, कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता परमेश्वर की पहचान, रुतबे, और सार के प्रतीक थे; उसके लिए सत्य, मार्ग और जीवन का अर्थ परमेश्वर का अनुग्रह और उसके आशीष थे, या शायद बस क्रूस उठाकर क्रूस के रास्ते पर चलने का तरीका थे। अनुग्रह के युग में, लोगों का परमेश्वर का ज्ञान और उसके प्रति उनकी अनुस्थिति, और साथ ही मानवजाति और स्वयं लोगों के बारे में उनका ज्ञान और उनके प्रति उनकी अनुस्थिति बस इतनी ही थी। इसलिए, कारणों की ओर मुड़कर मूल तक पहुँचें तो : वास्तव में वह क्या था जिससे ये परिस्थितियाँ पैदा हुईं? दोष किसी का भी नहीं है। और अधिक ठोस ढंग से या और अधिक विस्तार से न बोलने या कार्य न करने के लिए तुम परमेश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते, और तुम मनुष्य पर भी इसकी जिम्मेदारी नहीं डाल सकते। ऐसा क्यों? मनुष्य सृजित मानवजाति है, एक सृजित प्राणी है। वह व्यवस्था से निकलकर अनुग्रह के युग में आया। परमेश्वर के कार्य की प्रगति के साथ मनुष्य ने चाहे इसका जितना भी अनुभव किया हो, जो परमेश्वर ने मनुष्य को प्रदान किया, और जो उसने किया, वह वही था जो मनुष्य प्राप्त कर सकता था, और जो वह जान सकता था। लेकिन इससे परे, जो परमेश्वर ने नहीं किया, जो उसने नहीं कहा, जिसका उसने खुलासा नहीं किया, उसे समझने या जानने की क्षमता मनुष्य में नहीं थी। लेकिन वस्तुपरक परिस्थितियों और बड़ी तस्वीर को देखें, तो हजारों वर्षों से प्रगति करती आ रही मानवजाति अनुग्रह के युग में पहुँची थी, उसकी समझ बस वहीं तक पहुँच सकी, और परमेश्वर वैसा ही कार्य कर सकता था जैसा वह कर रहा था। ऐसा इसलिए कि व्यवस्था से निकली मानवजाति को जिसकी जरूरत थी, वह ताड़ना दिया जाना या न्याय किया जाना, या जीता जाना नहीं था, पूर्ण किए जाने की तो बात ही दूर है। उस समय मानवजाति को सिर्फ एक चीज की जरूरत थी। वह चीज क्या थी? एक पापबलि, परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त। परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त—व्यवस्था के युग से बाहर आते हुए मानवजाति को एकमात्र उस पापबलि की ही जरूरत थी। इसलिए, उस काल में, मानवजाति की जरूरतों और वास्तविक परिस्थितियों के कारण, परमेश्वर को तब जो कार्य करना था, वह एक पापबलि के रूप में अपने देहधारण का बहुमूल्य रक्त अर्पित करना था। व्यवस्था के अधीन रहने वाली मानवजाति के छुटकारे का यही एकमात्र तरीका था। कीमत और पापबलि के रूप में अपना बहुमूल्य रक्त देकर परमेश्वर ने मानवजाति के पाप को मिटा दिया। और उसके पाप के मिटाए जाने तक मनुष्य की यह साख नहीं थी कि वह परमेश्वर के समक्ष पापमुक्त आ सके, और उसके अनुग्रह और निरंतर मार्गदर्शन को स्वीकार कर सके। मानवजाति को परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त अर्पित किया गया, और चूँकि यह मानवजाति के लिए अर्पित किया गया, इसलिए उसे छुटकारा मिल सका। अभी-अभी छुटकारा प्राप्त मानवजाति क्या समझने में सक्षम थी? अभी-अभी छुटकारा प्राप्त मानवजाति को किस चीज की जरूरत थी? अगर इसके तुरंत बाद मानवजाति को जीता जाता, उसका न्याय कर ताड़ना दी गई होती, तो उसके पास इसे स्वीकार करने की क्षमता नहीं होती। उसके पास स्वीकृति की ऐसी क्षमता नहीं थी, और न ही हालात ऐसे थे कि वह ये सब समझ पाई होती। इसलिए, परमेश्वर की पापबलि, और साथ ही उसके अनुग्रह, आशीषों, सहिष्णुता, धैर्य, कृपा, और प्रेमपूर्ण दयालुता के अलावा, उस समय की मानवजाति, परमेश्वर द्वारा की गई मनुष्य के व्यवहार से संबंधित कुछ सरल अपेक्षाओं से ज्यादा कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकती थी। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। और जहाँ तक मनुष्य के उद्धार को ज्यादा गहराई से छूने वाले समस्त सत्य की बात है—मानवजाति के पास कौन-से गलत विचार और नजरिये हैं; उसके पास कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं; परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोहीपन का कैसा सार उसमें है; उस पारंपरिक संस्कृति का सार क्या है, जिसे मानवजाति कायम रखती है, जैसी कि हमने हाल में संगति की है; शैतान मानवजाति को कैसे भ्रष्ट करता है; इत्यादि—उस समय की मानवजाति कुछ भी समझ नहीं पाती। वैसी परिस्थितियों में, परमेश्वर मानवजाति को सिर्फ फटकारकर उससे आसान और सीधे तरीकों से अपेक्षाएँ ही रख सकता था, जिनमें आचरण की सबसे प्राथमिक अपेक्षाएँ शामिल थीं। इसलिए, अनुग्रह के युग में, मानवजाति केवल अनुग्रह, और असीम ढंग से पापबलि के रूप में परमेश्वर के बहुमूल्य रक्त का आनंद ही उठा सकती थी। वैसे, अनुग्रह के युग में, महानतम काम पहले ही पूरा कर लिया गया था। वह क्या था? वह यह था कि मानवजाति, जिसे परमेश्वर बचाने वाला था, उसके पाप परमेश्वर के बहुमूल्य रक्त द्वारा क्षमा हो गए थे। यह बात उत्सव मनाए जाने के योग्य है; अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किया गया यह महानतम काम था। हालाँकि मनुष्य का पाप क्षमा कर दिया गया था, और मनुष्य अब परमेश्वर के समक्ष एक पापी देह की सदृशता में या एक पापी के रूप में न आता, बल्कि पापबलि द्वारा पापों के लिए क्षमा पाकर परमेश्वर के समक्ष आने के योग्य था, फिर भी परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध, एक सृजित प्राणी और सृजनकर्ता के बीच संबंध के स्तर तक नहीं पहुँच पाया था। यह अभी भी सृजित मानवजाति का सृजनकर्ता के साथ संबंध नहीं था। अनुग्रह के अधीन मानवजाति अभी भी उस भूमिका से कोसों दूर थी जिसकी परमेश्वर उससे अपेक्षा रखता था, यानी सभी चीजों का स्वामी और संचालक होने की अपेक्षा। तो, परमेश्वर को प्रतीक्षा करनी थी; उसे धैर्य रखना था। परमेश्वर के प्रतीक्षा करने का क्या अर्थ था? इसका अर्थ था कि तब मानवजाति को परमेश्वर के अनुग्रह के बीच, अनुग्रह के युग के परमेश्वर के कार्य की विभिन्न विधियों के बीच जीते रहना था। परमेश्वर मानवजाति के मुट्ठीभर लोगों या एक प्रजाति को नहीं, बल्कि बहुत अधिक लोगों को बचाना चाहता था; उसका उद्धार सिर्फ एक प्रजाति या सिर्फ एक संप्रदाय के लोगों तक सीमित नहीं है। इसलिए, अनुग्रह के युग को, व्यवस्था के युग की तरह, हजारों वर्षों तक चलना था। मानवजाति को परमेश्वर की अगुआई में साल-दर-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस नए युग में जीते रहना था। मनुष्य को इस प्रकार कितने कल्प गुजारने होंगे—तारों में कितने फेरबदल देखने होंगे, कितने समुद्रों को सूखते और चट्टानों को चूर होते देखना होगा, कितने समुद्रों को उपजाऊ भूमि को स्थान देते हुए देखना होगा, और उन्हें विविध अवधियों में मानवजाति के विभिन्न बदलावों, और पृथ्वी की विभिन्न चीजों में हो रहे बदलावों से गुजरना होगा। और जब वह इन सबका अनुभव कर रही थी, तब परमेश्वर के वचन, उसके कार्य, और अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा मानवजाति के छुटकारे का तथ्य, ये सभी पृथ्वी के अंतिम छोरों तक फैल गए, तमाम गली-मुहल्लों में, हर नुक्कड़ में तब तक फैलते गए, जब तक वे घर-घर में सबको मालूम नहीं हो गए। और फिर वह युग—अनुग्रह का युग, जो व्यवस्था के युग के बाद आया था—समाप्त हुआ। इस अवधि में परमेश्वर ने जो कार्य किया, वह सिर्फ चुपचाप प्रतीक्षा करने का नहीं था; प्रतीक्षा के दौरान, उसने अनुग्रह के युग की मानवजाति पर विभिन्न विधियों से कार्य किया। उसने अपना अनुग्रह-आधारित कार्य जारी रखा, इस युग की मानवजाति को अनुग्रह और आशीष प्रदान करता रहा, ताकि उसके कर्म, उसका कार्य, उसके वचन और जिन तथ्यों पर उसने कार्य किया, और अनुग्रह के युग में उसके इरादे उसके चुने हुए हर व्यक्ति के कानों तक पहुँचे। उसने अपने चुने हुए हर व्यक्ति को अपनी पापबलि का लाभ उठाने योग्य बनाया, ताकि वे अब एक पापी देह की सदृशता में, पापी के रूप में उसके समक्ष न आएँ। हालाँकि परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध, अब व्यवस्था के युग की तरह नहीं था, जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर को कभी देखा नहीं था, बल्कि उससे एक कदम आगे था, यह वैसा संबंध था, जो विश्वासियों और प्रभु, ईसाइयों और मसीह के बीच होता है, फिर भी ऐसा संबंध वह संबंध नहीं है जो अंततः परमेश्वर मानवजाति और परमेश्वर के बीच, सृजित प्राणी और सृजनकर्ता के बीच चाहता है। उस समय उनका संबंध सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच के संबंध से अभी भी बहुत दूर था, लेकिन व्यवस्था के युग में मानवजाति और परमेश्वर के संबंध की तुलना में यह बहुत बड़ी प्रगति दर्शाता है। यह उल्लास और उत्सव का कारण था। मगर जो भी हो, परमेश्वर को अब भी मानवजाति की अगुआई करनी थी; उसे उस मानवजाति को आगे बढ़ाना था, जिसके दिल की गहराइयाँ अभी भी परमेश्वर के बारे में धारणाओं, और कल्पनाओं, निवेदनों, माँगों, विद्रोहीपन और प्रतिरोध से भरी हुई थीं। क्यों? क्योंकि ऐसी मानवजाति भले ही परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाना जान गई थी, और जान गई थी कि परमेश्वर कृपालु और प्रेमपूर्ण है, लेकिन उससे परे, वह परमेश्वर की सच्ची पहचान, रुतबे और सार के बारे में एक भी चीज नहीं जानती थी। परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के बावजूद, शैतान की भ्रष्टता का अनुभव करने के कारण ऐसी मानवजाति के दिल की गहराई में उसका सार और विभिन्न धारणाएँ और विचार परमेश्वर के प्रतिकूल और उसके विरुद्ध हैं। मनुष्य यह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर को समर्पण कैसे करें, या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा करें, एक संतोषजनक सृजित प्राणी बनना तो दूर रहा। कोई ऐसा व्यक्ति तो बिल्कुल ही नहीं था जो सृजन के प्रभु की आराधना करना जानता हो। अगर इस हद तक भ्रष्ट मानवजाति को दुनिया की विभिन्न चीजें सौंप दी गई होतीं, तो यह उन्हें शैतान को सौंपने के समान ही होता। इसके परिणाम पूरी तरह से वही होते, उनके बीच कोई फर्क नहीं होता। इसलिए परमेश्वर को अभी भी अपना कार्य जारी रखना था, मानवजाति को उस कार्य के अगले चरण में ले जाना था जिसे वह आगे करने वाला था। यह ऐसा चरण था, जिसकी परमेश्वर लंबे समय से प्रतीक्षा करता रहा, ऐसा जिसकी वह लंबे समय से बाट जोहता था, और कुछ ऐसा था जिसकी उसने अपने पूर्व के दीर्घकालिक धैर्य से कीमत चुकाई।

अब अंततः चूँकि मानवजाति परमेश्वर के पर्याप्त और प्रचुर अनुग्रह का आनंद उठा चुकी है, तो किसी भी दृष्टि से देखें, यह संसार और यह मानवजाति, दोनों ऐसे स्तर पर पहुँच चुके हैं, जहाँ परमेश्वर मानवजाति को बचाने का सच्चा कार्य करेगा। वे ऐसे समय में आ चुके हैं जब परमेश्वर मानवजाति को जीतकर उन्हें ताड़ना देगा और उनका न्याय करेगा, जब वह मानवजाति को पूर्ण करने, और मानवजाति में से एक समूह को प्राप्त करने के लिए अनेक सत्य व्यक्त करेगा, एक ऐसा समूह जो उन चीजों में से सभी चीजों का संचालक होगा। यह समय आ जाने के बाद, परमेश्वर को अब धैर्यवान रहने की जरूरत नहीं है, न ही उसे अनुग्रह के युग की मानवजाति को अनुग्रह में जीते रहने देने की जरूरत है। अब उसे अनुग्रह में रह रही मानवजाति को पोषण देने, उनकी चरवाही करने, उनकी निगरानी करने या उन्हें सुरक्षित रखने की जरूरत नहीं है; अब उसे अथक रूप से मानवजाति को बिना शर्त अनुग्रह और आशीष प्रदान करने की जरूरत नहीं है; अब जब मानवजाति उसकी आराधना किए बगैर लालच और बेशर्मी से उसके अनुग्रह की याचना करती है, तो उसे अनुग्रह में मानवजाति के साथ बिना शर्त धैर्यवान होने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय परमेश्वर अपने इरादे, अपना स्वभाव, अपने हृदय की सच्ची वाणी और अपना सार व्यक्त करेगा। इस दौरान, परमेश्वर मानवजाति को उनकी जरूरत के अनेकानेक सत्य और वचन मुहैया करते हुए, अपना सच्चा स्वभाव—धार्मिक स्वभाव—भी उड़ेल रहा और व्यक्त कर रहा है। अपना धार्मिक स्वभाव व्यक्त करते समय ऐसा नहीं है मानो वह भावशून्य होकर न्याय और निंदा के कुछ वाक्यांश प्रदान कर काम खत्म कर देता है; इसके बजाय, वह मानवजाति की भ्रष्टता, उसके सार और उसकी शैतानी वीभत्सता को उजागर करने के लिए तथ्यों का प्रयोग करता है। वह अपने विरुद्ध मानवजाति के विद्रोहीपन, प्रतिरोध, और अस्वीकरण, और साथ ही अपने बारे में उसकी विभिन्न धारणाओं, और उसे दिए धोखे को भी उजागर करता है। इस अवधि में, वह जो व्यक्त करता है उसमें से अधिकतर उस कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता से परे होता है जो वह मानवजाति को देता है : यह नफरत, घृणा, विरक्ति, और तिरस्कार है जो मानवजाति के प्रति उसके मन में है। परमेश्वर के स्वभाव और दर्जे में इस तरह से पूर्ण रूप से हुए बदलाव या परिवर्तन के लिए मानवजाति तैयार नहीं रहती, और वह इसे स्वीकार करने में सक्षम नहीं होती। परमेश्वर एक कड़कती बिजली की जबरदस्त आकस्मिक शक्ति के साथ अपना स्वभाव और अपने वचन व्यक्त करता है। बेशक, वह अत्यंत धैर्य और सहिष्णुता के साथ मानवजाति को उनकी सारी जरूरतें भी मुहैया करता है। एक सृजनकर्ता होने की अवस्थिति के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर विभिन्न तरीकों और विभिन्न कोणों से मानवजाति के समक्ष बोलता और अपना स्वभाव व्यक्त करता है, वह ऐसा उन तरीकों से करता है जो सृजित प्राणियों से पेश आने के सबसे उपयुक्त, उचित, ठोस, और सीधे तरीके हैं। इसी ढंग से बोलने और कार्य करने के लिए परमेश्वर छह हजार वर्ष से लालायित होकर प्रतीक्षा करता रहा है। छह हजार वर्षों की लालसा; छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा—यह परमेश्वर की छह हजार वर्षों की आशा को समाहित किए छह हजार वर्षों के धैर्य को बयान करती है। मानवजाति अभी भी परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति ही है, मगर छह हजार वर्षों के अंतहीन, नक्षत्रों में उलट-फेर करने वाले, समुद्र को निगल जाने वाले परिवर्तन से गुजरकर आने के बाद, वह अब वैसी मानवजाति नहीं रही जिसका परमेश्वर ने आरंभ में सृजन किया था और जिसका सार अब भी वैसा ही है। इसलिए, इस दिन जब परमेश्वर अपना कार्य शुरू करता है, तो वह जिस मानवजाति को अब देखता है, वह भले ही वैसी ही है जैसी उसे उम्मीद थी, पर वह उससे घृणा भी करता है, और बेशक इसे देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी है। मैंने यहाँ तीन चीजों के बारे में बात की; क्या तुम सबको याद है? भले ही परमेश्वर को ऐसी ही मानवजाति की अपेक्षा थी, पर वह इससे घृणा भी करता है। दूसरी चीज क्या थी? (यह देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी है।) यह देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी भी है। मनुष्य में ये तीनों चीजें एक साथ मौजूद हैं। परमेश्वर को किस चीज की अपेक्षा थी? कि ऐसी मानवजाति, व्यवस्था और फिर छुटकारे का अनुभव करने के बाद, अंत में उन कुछ आधारभूत व्यवस्थाओं और आज्ञाओं की बुनियाद पर चलते हुए आज तक पहुँच जाएगी, जिनका मनुष्य को पालन करना चाहिए, और अब आदम और हव्वा की तरह, अपने दिल की गहराई में खालीपन लिए एक सरल मानवजाति नहीं रहेगी। इसके बजाय, उनके दिल में नई चीजों की कुछ समझ होगी। ये वो चीजें हैं जिनके मानवजाति में होने की परमेश्वर को अपेक्षा थी। लेकिन साथ ही मानवजाति ऐसी मानवजाति भी जिससे परमेश्वर घृणा करता है। तो फिर ऐसा क्या है जिससे परमेश्वर घृणा करता है? क्या तुम सब नहीं जानते? (मनुष्य का विद्रोहीपन और प्रतिरोध।) इंसान शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए हैं, वे एक भयावह जीवन जी रहे हैं, यह न पूरी तरह मनुष्य की तरह है न ही दानव की तरह। मानवजाति अब इतनी सरल नहीं है कि वह सर्प के प्रलोभन से भी न बच सके। हालाँकि मानवजाति की अपनी सोच और विचार हैं, उसकी अपनी निश्चित राय है, और विभिन्न घटनाओं और चीजों को समझने के उसके अपने तरीके हैं, मगर इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों और चीजों पर मानवजाति के नजरिये में या उसके आचरण और कार्य में हो। मानवजाति सोच सकती है, दृष्टिकोण रख सकती है, और अपने कार्यों के लिए उसके अपने आधार, साधन और रवैये हैं, मगर ये सब जिनसे वे युक्त हैं, उन सबका उद्गम शैतान की भ्रष्टता में है। ये सब शैतान के विचारों और फलसफों पर आधारित हैं। जब मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आता है, तो उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पण नहीं होता, न ही कोई ईमानदारी होती है। मनुष्य शैतान के विषों से संतृप्त है, उसकी शिक्षा, सोच और भ्रष्ट स्वभाव से सराबोर है। यह क्या दर्शाता है? मनुष्यों के अस्तित्व के ढंग और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को बदलने के लिए—और बेशक विशेष रूप से लोगों और चीजों पर उनके दृष्टिकोणों, और उनके आचरण और कार्यों के तरीकों और मानदंडों को बदलने के लिए—परमेश्वर को बहुत-से वचन बोलने होंगे और बहुत-सा कार्य करना होगा। इन सबके प्रभावी होने से पहले, परमेश्वर की दृष्टि में मानवजाति घृणा की चीज है। जब परमेश्वर जिस चीज से घृणा करता है उसे बचाता है, तो उसे किस चीज की जरूरत होती है? क्या उसके हृदय में उल्लास है? क्या प्रसन्नता है? क्या सुकून है? (नहीं।) बिल्कुल कोई सुकून नहीं होता है, न प्रसन्नता होती है। उसके हृदय में घृणा भरी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में बोलने, अनथक रूप से बोलने, के सिवाय परमेश्वर एक ही चीज करेगा, और वह है धैर्य रखना। परमेश्वर जिस मानवजाति को देख रहा है, उसके प्रति परमेश्वर द्वारा महसूस किया गया दूसरा तत्व है—घृणा। तीसरा तत्व यह है कि वह देखने में बहुत दुखदायी है। मानवजाति का सृजन करने के पीछे परमेश्वर के मूल इरादे के प्रकाश में, मनुष्य के साथ परमेश्वर का संबंध माता-पिता, और बच्चे का, परिवार का है। संबंध का यह आयाम शायद मानवजाति के रक्त संबंधों जैसा न हो, लेकिन परमेश्वर के लिए, यह मानवजाति के दैहिक रक्त संबंधों से बढ़कर है। जिस मानवजाति का परमेश्वर ने आरंभ में सृजन किया, वह उस मानवजाति से पूरी तरह भिन्न है जिसे वह अंत के दिनों में देखता है। आरंभ में, मनुष्य सरल और शिशु समान था, अज्ञानी होकर भी उसका दिल शुद्ध और स्वच्छ था। उसकी आँखों में उसके दिल की गहराई की स्पष्टता और पारदर्शिता देखी जा सकती थी। उसमें वह विविध भ्रष्ट स्वभाव नहीं थे जो आज के मनुष्य में हैं; उसमें कट्टरता, अहंकार, धूर्तता, या कपट नहीं था, और निश्चित रूप से उसमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं था। मनुष्य के कथनों और कार्यों से, उसकी आँखों से, उसके चेहरे से देखा जा सकता था कि यह वही मानवजाति थी जिसका सृजन परमेश्वर ने आरंभ में किया था और जिस पर उसकी कृपा थी। लेकिन अंत में, जब परमेश्वर फिर से मानवजाति को देखता है, तो मनुष्य का हृदय अब अपनी गहराइयों में उतना स्पष्ट नहीं है, और उसकी आँखें उतनी स्पष्ट नहीं हैं। मनुष्य का दिल शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरपूर है, और परमेश्वर से मिलने पर, उसका चेहरा, उसके कथन और कार्य परमेश्वर को घृणास्पद लगते हैं। लेकिन एक तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता, और इस तथ्य के कारण ही परमेश्वर कहता है कि ऐसी मानवजाति को देखना बहुत दुखदायी है। यह कौन-सा तथ्य है? यह ये तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता : परमेश्वर ने इस मानवजाति का अपने हाथों से सृजन किया, जो एक बार फिर उसके समक्ष आ गई है, लेकिन वह आरंभ में जैसी थी वैसी अब नहीं रही। मनुष्य की आँखों से लेकर उसकी सोच तक, और उसके दिल की गहराई तक, उसमें परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध और धोखा भरा हुआ है; मनुष्य की आँखों से लेकर उसकी सोच तक, और उसके दिल की गहराई तक, उनमें से शैतान के स्वभाव से कम कुछ भी नहीं निकलता। कट्टरता, अहंकार, कपट, धूर्तता, और सत्य से विमुख होने के मनुष्य के शैतानी स्वभाव उसकी दृष्टि और उसकी अभिव्यक्तियों से एक समान रूप से, बिना किसी छिपाव के स्वाभाविक रूप से बाहर आते हैं। परमेश्वर के वचनों से सामना होने पर, या परमेश्वर से आमने-सामने होने पर, मनुष्य का भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव और उसका शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया सार, इसी तरह बिना किसी छिपाव के बाहर आता है। इस तथ्य का आविर्भाव परमेश्वर को क्या महसूस करवाता है, इसे केवल एक ही वाक्यांश जाहिर कर पाता है और वह है “देखने में बहुत दुखदायी।” जो मानवजाति आज तक पहुँच गई है और इस काल तक आ गई है, वह परमेश्वर के कार्य के तृतीय और अंतिम चरण की अपेक्षाओं के स्तर पर पहुँच गई है, जोकि मानवजाति के उद्धार का स्तर है, मनुष्य के वृहद् माहौल के संदर्भ में ही नहीं, लोग स्वयं को जिन स्थितियों और हालात में पाते हैं उनके हर विशिष्ट पहलू के संदर्भ में भी—लेकिन भले ही परमेश्वर इस मानवजाति को लेकर बहुत आशान्वित हो, वह उनके प्रति घृणा से भी भरा हुआ है। बेशक, परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता की एक के बाद एक घटना देखकर अभी भी महसूस करता है कि उसे देखना बहुत दुखदायी है। फिर भी जो बात उत्सव-योग्य है वह यह है कि परमेश्वर को अब मनुष्य की ओर से अर्थहीन धैर्य रखने और अर्थहीन प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। उसे वह कार्य करने की जरूरत है जिसके लिए उसने छह हजार वर्ष तक प्रतीक्षा की है, उसने छह हजार वर्षों से जिसकी आशा की है, और छह हजार वर्ष तक उसने जिसकी राह देखी है : अपने वचन, अपने स्वभाव और प्रत्येक सत्य को व्यक्त करने की। बेशक, इसका अर्थ यह भी है कि परमेश्वर द्वारा चुनी गई इस मानवजाति के बीच, लोगों के एक समूह का उदय होगा जिसकी परमेश्वर ने लंबे समय से प्रतीक्षा की है, जो सभी चीजों के संचालक और सभी चीजों के स्वामी बनेंगे। स्थिति को पूर्णता में देखें, तो अब तक सभी चीजें उससे बहुत दूर भटक गई हैं जो कि अपेक्षित था; सब-कुछ बहुत पीड़ादायक और दुखदायी रहा है। लेकिन जो परमेश्वर की खुशी के योग्य है वह यह है कि समय के साथ और भिन्न युग के चलते, मानवजाति के शैतान की भ्रष्टता के अधीन होने के दिन लद चुके हैं। मानवजाति व्यवस्था के बपतिस्मा और परमेश्वर के छुटकारे का अनुभव कर चुकी है; अंततः वह परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण में पहुँच चुकी है : वह चरण जिसमें परमेश्वर की ताड़ना और न्याय और उसकी जीत की स्वीकृति के अंतिम परिणाम के रूप में मानवजाति बचाई जाएगी। मानवजाति के लिए यह बेशक एक बहुत बड़ी खबर है, और परमेश्वर के लिए यह निश्चित रूप से एक ऐसी चीज है जो लंबे समय से आने को थी। किसी भी दृष्टि से देखने पर, यह पूरी मानवजाति के महानतम काल का आगमन है। मानवजाति की भ्रष्टता की दृष्टि से देखें या संसार की प्रवृत्तियों, सामाजिक संरचनाओं, मानवजाति की राजनीति या संपूर्ण विश्व के संसाधनों, या वर्तमान आपदाओं की दृष्टि से देखें, मानवजाति का परिणाम समीप है—यह मानवजाति अंतिम सीमा पर पहुँच गई है। यह परमेश्वर के कार्य का चरम समय है, वह समय जो मनुष्य की स्मृति और उत्सव के सबसे योग्य है, और बेशक, यह सबसे महत्वपूर्ण और अहम समय का आगमन भी है, वह समय, जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना पर परमेश्वर के छह हजार वर्षों के कार्य में मानवजाति की नियति का निर्णय होता है। इसलिए मानवजाति के साथ जो कुछ भी घटा हो, और जितने भी लंबे समय तक परमेश्वर ने प्रतीक्षा की हो, धैर्य रखा हो, ये सब इस योग्य ही था।

आओ हम उस विषय पर वापस चलें, जिस पर हमने चर्चा करने का तय किया था, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।” मानवजाति के बीच परमेश्वर की प्रबंधन योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। उसने पहले दो चरण पहले ही पूरे कर लिए हैं। उन दो चरणों पर आज तक गौर करें, तो व्यवस्था हो या आज्ञाएँ, मनुष्य के लिए उनकी उपयोगिता बस इतनी थी कि वे मनुष्य से व्यवस्था, आज्ञाओं और परमेश्वर के नाम को कायम रखवाएँ और उनके दिल की कोटरिकाओं में आस्था बनाए रखें, मनुष्य से थोड़ा अच्छा व्यवहार करवाएँ और कुछ अच्छे नीति-सूत्रों को कायम रखवाएँ। मनुष्य आधारभूत रूप से परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक यानी सभी चीजों का संचालक और सभी चीजों का मुखिया बनने के मानक पर खरा नहीं उतर पाता। क्या ऐसा नहीं है? वह आधारभूत रूप से इस पर खरा नहीं उतरता। यदि व्यवस्था और अनुग्रह के युग से गुजर चुके मनुष्य से वह करवाया जाए जिसकी परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है, तो वह इन सभी चीजों से केवल अनुग्रह के युग में उसे दिए गए व्यवस्था के साधनों या अनुग्रह और आशीषों के जरिये ही जुड़ पाएगा। यह परमेश्वर की उस अपेक्षा से बहुत कम है कि मनुष्य को सभी चीजों का संचालक होना चाहिए, और मानवजाति उन चीजों को पूरा नहीं कर पाती जिनकी परमेश्वर उससे अपेक्षा करता है और उस जिम्मेदारी और कर्तव्य में पीछे रह जाती है जो परमेश्वर उससे पूरी करने की अपेक्षा करता है। मनुष्य परमेश्वर की इस अपेक्षा के मानक को बिल्कुल पूरा नहीं कर सकता या उन पर खरा नहीं उतर सकता कि उसे सभी चीजों का मुखिया होना चाहिए और अगले युग का मुखिया होना चाहिए। इसलिए, अपने कार्य के अंतिम चरण में, परमेश्वर मनुष्य के लिए उन समस्त सत्यों को और अभ्यास के उन सभी सिद्धांतों को उनके सभी आयामों में व्यक्त कर बताता है, जिनकी मनुष्य को जरूरत है ताकि मनुष्य जान सके कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक क्या हैं, उसे सभी चीजों से कैसे जुड़ना चाहिए, सभी चीजों से कैसे पेश आना चाहिए, सभी चीजों का संचालक कैसे बनना चाहिए, उसके अस्तित्व का ढंग क्या होना चाहिए, उसे परमेश्वर के समक्ष, सृजनकर्ता के प्रभुत्व के अधीन मौजूद सच्चा सृजित प्राणी बनकर किस ढंग से रहना चाहिए। एक बार ये चीजें समझ लेने के बाद मनुष्य यह भी जान लेता है कि परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षाएँ हैं; एक बार इन चीजों को पूरा कर लेने पर, वह परमेश्वर की उससे अपेक्षाओं के मानक भी पूरे कर चुका होगा। यह देखते हुए कि व्यवस्था, आज्ञाएँ, और व्यवहार के सरल मानदंड सत्य के पर्याय नहीं हैं, परमेश्वर अंत के दिनों में अनेक वचन और सत्य व्यक्त करता है जो मनुष्य के अभ्यास, उसके आचरण और कार्य, और लोगों व चीजों के बारे में उसके विचारों से संबंधित हैं। परमेश्वर मनुष्य को बताता है कि लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखे, और कैसा आचरण और कार्य करे। परमेश्वर के मनुष्य को ये सब बताने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम इन सत्यों के अनुसार लोगों और चीजों को देखो, और आचरण और कार्य करो, और इस तरह इस दुनिया में रहो। तुम चाहे जो कर्तव्य निभाओ या परमेश्वर से कोई भी आदेश स्वीकार करो, तुमसे उसकी अपेक्षाएँ नहीं बदलतीं। एक बार परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ लेने के बाद, वह तुम्हारे साथ हो या न हो या वह तुम्हारी जाँच कर रहा हो या न कर रहा हो, तुम्हें उसकी अपेक्षाओं की अपनी समझ के अनुसार अभ्यास करना होगा, अपना कर्तव्य निभाना होगा, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश पूरे करने होंगे। केवल इसी प्रकार से तुम सचमुच उन सभी चीजों के मुखिया बन पाओगे, जिनसे परमेश्वर आश्वस्त है, और वह व्यक्ति बनोगे जो योग्य और उसके आदेशों के लायक है। क्या यह इस विषय को स्पर्श नहीं करता कि मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? (करता है।) क्या तुम सब अब समझ गए हो? यही तथ्य हैं, जो परमेश्वर सामने लाएगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करना सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर देना और परमेश्वर का प्रतिरोध न करना ही नहीं है। हम जिस सत्य के अनुसरण की बात कर रहे हैं उसकी महत्ता और मूल्य कहीं अधिक है। सही मायनों में, यह मनुष्य की मंजिल और उसकी नियति से जुड़ा हुआ है। क्या तुम समझे? (हाँ।) मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? सीमित अर्थ में, इसके बारे में मनुष्य की समझ आने वाले अत्यंत बुनियादी धर्म-सिद्धांत बताते हैं। विराट अर्थ में, सबसे पहला कारण यह है कि परमेश्वर के लिए सत्य का अनुसरण, उसके प्रबंधन, मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं और मानवजाति को सौंपी गई उसकी आशाओं से जुड़ा हुआ है। यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना का एक हिस्सा है। इसमें यह देखा जा सकता है कि तुम जो भी हो, और तुमने जितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उससे प्रेम नहीं करते, तो तुम अनिवार्यतः ऐसे बन जाओगे जिसे हटाया जाना है। यह बात दिन की तरह साफ है। परमेश्वर तीन चरणों का कार्य करता है; मानवजाति का सृजन करने के बाद से उसकी एक प्रबंधन योजना रही है, और एक-एक करके वह इन चरणों को मानवजाति में प्रभावी करता गया है, और मानवजाति को कदम-दर-कदम बढ़ाते हुए आज तक ले आया। अपने द्वारा व्यक्त किए गए सत्य और मानवजाति को बताई हुई अपनी अपेक्षाओं के मानदंडों के हर आयाम को मनुष्य में गढ़ने के अंतिम लक्ष्य को पाने के लिए परमेश्वर ने श्रमसाध्य प्रयास किए, बहुत बड़ी कीमत चुकाई, और बड़े लंबे समय तक कष्ट सहे और उन्हें मनुष्य के जीवन और वास्तविकता में तब्दील किया। परमेश्वर की दृष्टि में यह एक अति महत्वपूर्ण मामला है। परमेश्वर इसे बहुत अहम मानता है। परमेश्वर ने अनेक वचन व्यक्त किए हैं, और इससे पहले उसने बहुत अधिक तैयारी की है। यदि अंत में, उसके व्यक्त करने के बाद, तुम इन वचनों का अनुसरण न करो, या अब इनमें प्रवेश न करो, तो परमेश्वर तुम्हें किस दृष्टि से देखेगा? परमेश्वर तुम्हें किस प्रकार का पद सौंपेगा? यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है। इसलिए हर व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की ओर प्रयास करने चाहिए, भले ही तुम्हारी क्षमता या उम्र कितनी भी हो, या परमेश्वर में विश्वास किए हुए कितने भी साल हुए हों। तुम्हें किसी भी वस्तुगत तर्क पर जोर नहीं देना चाहिए; तुम्हें बिना शर्त सत्य का अनुसरण करना चाहिए। अपने दिन यूँ ही न गँवाओ। अगर तुम सत्य को खोजने और उसके अनुसरण के प्रयासों को अपने जीवन का प्रधान मामला बना लो, तो शायद अनुसरण से तुम जो सत्य पाओ और जिस सत्य तक तुम पहुँचो, वह तुम्हारी इच्छा के अनुसार न हो। लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह अनुसरण में तुम्हारे रवैये और ईमानदारी के आधार पर तुम्हें एक उचित मंजिल देगा, तो यह कितनी अद्भुत बात रहेगी! अभी के लिए, इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या होगा और क्या बदा है, या क्या तुम विपत्ति से बचकर प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनकी माँग करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं में सत्य का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने पर ध्यान केंद्रित करो, जिससे कि तुम परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा के अयोग्य सिद्ध नहीं होगे। परमेश्वर को थोड़ा सुकून दो; उसे देखने दो कि तुमसे थोड़ी आशा है और स्वयं में उसकी इच्छाएँ साकार होने दो। मुझे बताओ, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करेगा? बिल्कुल भी नहीं! और भले ही अंतिम परिणाम व्यक्ति की कामना के अनुरूप न हों, उसे एक सृजित प्राणी की तरह इस तथ्य से कैसे पेश आना चाहिए? उसे बिना किसी निजी योजना के हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। क्या सृजित प्राणियों का नजरिया ऐसा नहीं होना चाहिए? (बिल्कुल।) यही सही मानसिकता है। इसी के साथ, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए, इसके मुख्य विषय पर हम अपनी संगति समाप्त करते हैं।

हमारी संगति ने अभी-अभी मुख्य रूप से, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए, इस पर परमेश्वर की प्रबंधन योजना के संदर्भ में, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से गौर किया। दूसरी ओर से देखने पर यह थोड़ा सरल है। स्वयं मनुष्य के संदर्भ में, मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? अत्यंत सरल रूप में, अगर मनुष्य व्यवस्था के अधीन जीता, सत्य को न समझता, और उसका अनुसरण व्यवस्था कायम रखने से अधिक कुछ न होता, तो आखिरकार उसका क्या परिणाम होता? इसका बस एकमात्र परिणाम यही होता कि व्यवस्था कायम न रख पाने के कारण मनुष्य व्यवस्था द्वारा दंडित होता। वहाँ से अनुग्रह के युग की ओर जाएँ तो : उस युग में, मनुष्य बहुत-कुछ समझता था, उसने मनुष्य के बारे में परमेश्वर से काफी नई जानकारियाँ—मानव आचरण के लिए दिशा-निर्देश और आज्ञाएँ—प्राप्त कर ली थीं। धर्म-सिद्धांत के संबंध में मनुष्य बहुत लाभान्वित हुआ। फिर भी, मनुष्य को आशा थी कि उसे सत्य समझे बिना ही परमेश्वर की और अधिक रक्षा, समर्थन, आशीष और अनुग्रह प्राप्त होंगे; मनुष्य का नजरिया अभी भी परमेश्वर से विनती करने का था, और विनती करते समय उसके प्रयासों का लक्ष्य और दिशा अभी भी शारीरिक जीवन, शारीरिक ऐशो-आराम, और बेहतर शारीरिक जीवनयापन की ओर थी। उसके अनुसरण का लक्ष्य अभी भी सत्य के प्रतिकूल और उसके विरुद्ध था। सत्य के अनुसरण में सक्षम होने में मनुष्य अभी भी पीछे था, वह ऐसे वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं कर सका था, जिसमें सत्य व्यक्ति के अस्तित्व का आधार होता है। मनुष्य के जीवन की यही वास्तविकताएँ हैं, जो वह सभी व्यवस्थाओं या अनुग्रह के युग की आज्ञाओं और बाध्यताओं को समझने, और सत्य को अब तक न समझने की बुनियाद पर जीता है। जब मनुष्य के जीवन की ये वास्तविकताएँ हों, तो वे बिना एहसास किए ही अक्सर अपनी दिशा खो देंगे। उसी तरह जैसे लोग कहते हैं : “मैं उलझन में हूँ, कुछ सूझ नहीं रहा।” अविरत उलझन की ऐसी दशा में, मनुष्य अक्सर एक शून्य में डूब जाएगा, परेशान हो जाएगा, नहीं जान पाएगा कि मनुष्य क्यों जीता है या भविष्य कैसा होगा, उसे यह तो और भी पता नहीं होगा कि असल जीवन में सामने आने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों का सामना कैसे करना है, और उनका सामना करने का सही तरीका क्या है। परमेश्वर के बहुत-से अनुयायी, विश्वासी भी हैं, जो आज्ञाओं का पालन करते हुए, परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद उठाते हुए भी, रुतबे, दौलत, आशाजनक भविष्य, समकक्षियों के बीच प्रतिष्ठा, शानदार शादियों, घरेलू संतृप्ति, और ऐश्वर्य के पीछे भागते हैं—और आज के समाज में, वे देहसुख, जीवन के ऐशो-आराम के पीछे भागते हैं; विलासितापूर्ण भवनों, और गाड़ियों के पीछे भागते हैं; मानवजाति के रहस्यों और भविष्य की खोजबीन करने के लिए दुनिया भर की सैर के पीछे भागते हैं। मानवजाति अनेक व्यवस्थाओं और व्यावहारिक मानदंडों के नियमों और बंधनों को स्वीकृति में, भविष्य, मानवजाति के रहस्यों और मानवजाति के ज्ञान की सीमा से बाहर के हर मामले में झाँकने की अपनी प्रवृत्ति को छोड़ नहीं पाती है। ऐसा करते समय लोग अक्सर निस्सार, अवसादग्रस्त, खिन्न, नाराज, परेशान और भयभीत महसूस करते हैं, इतना अधिक कि जब उन पर बहुत-सी चीजें आन पड़ती हैं, तो उन्हें अपने गरम मिजाज और भावनाओं पर काबू करने में बहुत मुश्किल होती है। ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो काम में विषम हालात या घरेलू झगड़े, घरेलू मनमुटाव, वैवाहिक परेशानियों या सामाजिक भेदभाव जैसे भड़काऊ हालात का सामना होने पर, उदासी, अवसाद, दमन इत्यादि में डूब जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो भावनाओं के चरम बिंदु पर पहुँच जाते हैं; कुछ ऐसे भी हैं जो उग्र साधनों के इस्तेमाल से अपने जीवन का अंत कर लेना चाहते हैं। जाहिर तौर पर ऐसे भी लोग हैं जो संबंध विच्छेद और अकेलापन चुन लेते हैं। इन सबसे समाज में कैसी चीजें पैदा हुई हैं? एकांतवासी, पुरुष और स्त्रियाँ; नैदानिक अवसाद; इत्यादि। ईसाइयों के जीवन में भी ऐसी बातों की कमी नहीं है; ये अक्सर होती हैं। सब-कुछ कहने-करने के बाद, इसका मूल कारण यह है कि मानवजाति नहीं समझती कि सत्य क्या है, मनुष्य कहाँ से आता है, कहाँ जा रहा है, मनुष्य जीवित क्यों है और उसे कैसे जीना चाहिए। मनुष्य नहीं जानता कि विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं, और चीजों से सामना होने पर, इन बातों को कैसे सँभाले, ठीक करे, दूर करे या कैसे इन सभी बातों को गहराई से देखे, ताकि वह सृजनकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में, खुशी और आराम से जी सके। मानवजाति के पास यह क्षमता नहीं है। परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति के बिना और बिना उसके मनुष्य को यह बताए कि उसे लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए, और कैसा आचरण और कार्य करना चाहिए, मनुष्य अपने स्वयं के प्रयासों, अपने द्वारा अर्जित ज्ञान, समझे हुए जीवन कौशल, समझे हुए खेल के नियमों, और आचरण के नियमों और सांसारिक आचरण के फलसफों पर भरोसा करता है। वह मानव जीवन के अपने अनुभव और उसके प्रति उसके खुलासे पर, यहाँ तक कि किताबों से सीखी बातों पर भरोसा करता है—फिर भी जब वास्तविक जीवन अपनी तमाम मुश्किलें लेकर उनके सामने आता है, तो वह शक्तिहीन हो जाता है। ऐसे हालात में जीने वाले लोगों के लिए बाइबल पढ़ना बेकार है। प्रभु यीशु से प्रार्थना करना भी बेकार है, यहोवा से प्रार्थना की तो बात ही न करो। प्राचीन काल के नबियों ने जो भविष्यवाणियाँ कीं, उनको पढ़ने से भी उनकी समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं। इसलिए कुछ लोग दुनिया की यात्रा करते हैं; वे चंद्रमा और मंगल की खोज पर जाते हैं, या भविष्य के बारे में बता सकने वाले नबियों को खोजकर उनसे बातें करते हैं। लेकिन ऐसा कर चुकने के बावजूद लोगों के दिलों में व्याकुलता, दुख और परेशानी बनी रहती है। उनकी तरक्की की दिशा और लक्ष्य उन्हें बहुत दुर्ग्राह्य और खोखले लगते हैं। कुल मिलाकर मानवजाति का जीवन बहुत खोखला बना रहता है। मनुष्य के जीवन की यथास्थिति ऐसी होने के कारण वह खुद के मनोरंजन के अनेक साधन ढूँढ़ता है : उदाहरण के लिए, पश्चिमी देशवासी जिनका आनंद उठाते हैं, ऐसे आधुनिक वीडियो गेम, बंगी जंपिंग, सर्फिंग, पर्वतारोहण, स्काईडाइविंग, चीनी जिन्हें पसंद करते हैं ऐसे विभिन्न नाटक, गाने, और नृत्य, और दक्षिण-पूर्व एशिया के पसंदीदा लेडीबॉय शो। लोग ऐसी चीजें भी देखते हैं, जो उनके आध्यात्मिक संसार और शारीरिक वासनाओं को संतुष्ट करते हैं। फिर भी उनका आमोद-प्रमोद चाहे जो हो, वे चाहे जो भी देखें, लोग अपने दिलों की गहराइयों में भविष्य को लेकर उलझन में ही रहते हैं। किसी ने दुनिया के चाहे जितने चक्कर लगाए हों, चाहे लोग चंद्रमा और मंगल पर हो आए हों, फिर भी लौटकर बस जाने के बाद वे पूरी तरह पहले जैसे ही हतोत्साहित हो जाते हैं। देखा जाए तो वे न जाने से अधिक, जाने के कारण दुखी और बेचैन हो जाएँगे। मनुष्यों को लगता है कि वे इतने खोखले, सामर्थ्यहीन, उलझे हुए और विचलित, और आने वाले अनजाने समय का पता लगाने के इतने इच्छुक इसलिए हैं क्योंकि लोग स्वयं का मनोरंजन करना नहीं जानते, जीने का तरीका नहीं जानते। वे सोचते हैं कि ऐसा इसलिए है कि लोग जीवन का आनंद लेना या मौजूदा पल का आनंद उठाना नहीं जानते; उन्हें लगता है कि उनकी रुचियाँ और अभिरुचियाँ बहुत मामूली हैं—पर्याप्त व्यापक नहीं हैं। फिर भी लोग चाहे जितनी रुचियाँ पालें, जितने भी मनोरंजनों में भाग लें, दुनिया की जितनी भी जगहों की सैर कर लें, मनुष्यों को तब भी लगता है कि वे जिस तरह जीते हैं और उनके अस्तित्व की दिशा और लक्ष्य जैसे हैं वो उनकी कामना के अनुरूप नहीं हैं। संक्षेप में, सामान्य रूप से लोग जो महसूस करते हैं, वह खोखलापन और ऊब है। कुछ लोग इस खोखलेपन और ऊब के चलते, सारी दुनिया के रुचिकर व्यंजनों का स्वाद लेना चाहते हैं; वे जहाँ भी जाते हैं, खाने पर ही जोर देते हैं। दूसरे जहाँ कहीं जाते हैं, जी भर के मौज करने, खाने-पीने, और आमोद-प्रमोद में जुट जाते हैं—फिर भी खा-पी लेने और मौज-मस्ती कर लेने के बाद, वे पहले से ज्यादा रिक्त होते हैं। इसके लिए क्या किया जाए? इस भावना को झटक पाना असंभव क्यों है? जब लोग बंद रास्ते में पहुँच जाते हैं, तो कुछ लोग नशीले पदार्थों, अफीम, एक्सटेसी का सेवन करने लगते हैं, और हर प्रकार की भौतिक चीजों से खुद को उत्तेजना देने में लग जाते हैं। और इसका परिणाम क्या होता है? मनुष्य के खोखलेपन को ठीक करने में क्या इनमें से कोई भी तरीका कारगर होता है? क्या इनमें से कोई भी उनकी समस्याएँ जड़ से खत्म कर सकता है? (नहीं।) वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य अपनी भावनाओं के सहारे जीता है। वह सत्य को नहीं समझता, वह नहीं जानता कि खोखलेपन, बेचैनी, व्यग्रता जैसी मानवजाति की समस्याएँ किससे पैदा होती हैं, न ही वह जानता है कि किन साधनों से इन्हें ठीक किया जाए। उसे लगता है कि अगर शारीरिक आनंद का ख्याल रख लिया जाए, और उसकी शारीरिक वासनाओं की दुनिया तुष्ट और तृप्त हो जाए, तो उसकी आत्मा की खोखली भावना दूर हो जाएगी। क्या ऐसा होता है? तथ्य यह है कि ऐसा नहीं होता। अगर तुम इन धर्मोपदेशों को धर्म-सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर निकल चुके हो, मगर उनका जरा भी अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, और अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों को लोगों और चीजों को देखने, और अपने आचरण व कार्य का आधार और मानदंड नहीं मानते, तो तुम्हारे अस्तित्व का ढंग और जीवन के प्रति दृष्टिकोण कभी नहीं बदलेगा। और अगर ये चीजें नहीं बदलीं, तो तुम्हारा जीवन, तुम्हारी शैली, और इसके अस्तित्व का मूल्य कभी नहीं बदलेगा। और अगर तुम्हारे जीवन के अस्तित्व की शैली और मूल्य कभी न बदले, तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि एक दिन, देर-सवेर, जिन धर्म-सिद्धांतों को तुम समझते हो, वे तुम्हें आत्मा के आधार-स्तंभों जैसे लगेंगे; देर-सवेर, वे तुम्हारे लिए सूत्रवाक्य और सिद्धांत बन जाएँगे, ऐसी चीजें, जिनसे हालात के अनुसार तुम अपने भीतर की दुनिया के खोखलेपन को भरोगे। अगर तुम्हारे अनुसरण की दिशा और लक्ष्य नहीं बदले, तो तुम उन्हीं लोगों जैसे होगे, जिन्होंने परमेश्वर का एक भी वचन नहीं सुना है। तुम्हारे प्रयासों की दिशा और लक्ष्य अभी भी मनोरंजन और शारीरिक संतुष्टि की खोज ही रहेगा। तुम अभी भी अपने खोखलेपन और उलझन को ठीक करने की कोशिश में दुनिया की यात्रा करोगे, रहस्यों की खोज करोगे। इसमें कोई शक नहीं कि तब तुम उन्हीं लोगों के उसी रास्ते पर चलोगे। वे दुनिया भर के व्यंजनों का स्वाद लेने और दुनिया की शानदार विलासिताओं का आनंद लेने के बाद भी खोखला महसूस करते हैं, वैसे ही तुम भी करोगे। सच्चे मार्ग और परमेश्वर के वचनों के साथ रहकर भी अगर तुम उनका अनुसरण या अभ्यास नहीं करोगे, तो तुम्हारा परिणाम उन जैसा ही होगा, सच्ची खुशी, सच्चे उल्लास, सच्ची आजादी आदि के बिना, अक्सर खोखला, विचलित, रोषपूर्ण और दमित महसूस करोगे। और फिर, अंत में तुम्हारा परिणाम भी उन जैसा ही होगा।

मनुष्य के परिणाम के मामले में परमेश्वर किस बात पर गौर करता है? वह नहीं देखता कि तुमने उसके कितने वचन पढ़े हैं या तुमने कितने धर्मोपदेश सुने हैं। परमेश्वर ये चीजें नहीं देखता। वह इस बात पर गौर करता है कि तुमने अपने अनुसरण में कितना सत्य प्राप्त किया है, तुम कितने सत्य का अभ्यास कर सकते हो; वह गौर करता है कि क्या तुम अपने जीवन में, लोगों और चीजों को देखने और अपने आचरण व कार्य के लिए, उसके वचनों को आधार और सत्य को मानदंड मानते हो—वह गौर करता है कि क्या तुम्हें ऐसा अनुभव है, क्या तुम्हारे पास ऐसी गवाही है। अगर तुम्हारे रोजमर्रा के जीवन में और परमेश्वर का अनुसरण करने के दौरान ऐसी कोई गवाही नहीं है, और इनमें से किसी भी चीज की पुष्टि नहीं हुई है, तो परमेश्वर तुम्हें भी गैर-विश्वासियों के समान ही मानेगा। क्या उसका ऐसा मानना कहानी का अंत है? नहीं; ऐसा तो होगा ही नहीं कि परमेश्वर तुम्हें ऐसा मानकर छोड़ दे। इसके बजाय, वह तुम्हारा परिणाम तय करेगा। परमेश्वर तुम्हारे चलने के मार्ग को देखकर तुम्हारा परिणाम तय करता है; वह तुम्हारा परिणाम इस आधार पर तय करता है कि अनुसरण और लक्ष्य के क्षेत्र में तुम कैसा प्रदर्शन करते हो, सत्य के प्रति तुम्हारा क्या रवैया है, और क्या तुमने सत्य के अनुसरण के मार्ग पर अपने कदम रखे हैं। वह इस तरह क्यों तय करता है? जब सत्य का अनुसरण न करने वाले किसी व्यक्ति ने परमेश्वर के वचन पढ़े हों, और बहुत-से वचन सुने हों, फिर भी वह उसके वचनों को लोगों और चीजों पर अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यों का मानदंड नहीं मानता, तो वह व्यक्ति अंत में बचाया नहीं जा सकेगा। यह रही सबसे महत्वपूर्ण बात : यदि ऐसा व्यक्ति जीता रहे, तो उसका क्या होगा? क्या वह सभी चीजों का मुखिया बन सकेगा? क्या वह परमेश्वर के स्थान में सभी चीजों का संचालक बन सकेगा? क्या वह आदेश के लायक होगा? विश्वास के योग्य होगा? अगर परमेश्वर तुम्हें सारी चीजें सौंप दे, तो क्या तुम वैसा करोगे जैसा आज मानवजाति करती है, परमेश्वर द्वारा सृजित जीवित प्राणियों की अंधाधुंध हत्या करोगे, परमेश्वर द्वारा सृजित अनगिनत जीवों को अंधाधुंध ढंग से नष्ट कर दोगे, परमेश्वर द्वारा मानवजाति को प्रदत्त अनगिनत चीजों को अंधाधुंध ढंग से दूषित कर दोगे? स्पष्ट तौर पर तुम ऐसा ही करोगे! इसलिए अगर परमेश्वर ये दुनिया और तमाम चीजें तुम्हें सौंप दे, तो तमाम चीजों का अंततः किससे सामना होगा? उनका कोई सच्चा संचालक नहीं होगा; उन्हें शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति द्वारा दूषित कर नष्ट कर दिया जाएगा। आखिरकार, सभी चीजों, सभी चीजों में जीवित प्राणियों, और शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति के समान ही नियति होगी : वे परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दिए जाएँगे। यह ऐसी चीज है जिसे देखने की परमेश्वर आशा नहीं रखता। इसलिए, यदि ऐसे व्यक्ति ने परमेश्वर के अनेक वचन सुने हैं, और उसके वचनों में सिर्फ बहुत-से धर्म-सिद्धांत समझे हैं, फिर भी वह सभी चीजों के मुखिया होने के कर्तव्य का बीड़ा उठाने या परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने और उनके अनुसार आचरण व कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो परमेश्वर उसे कोई भी मामला नहीं सौंपेगा, क्योंकि वह अयोग्य है। परमेश्वर कड़ी मेहनत से सृजित सभी चीजों को शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के हाथों दूसरी बार नष्ट और दूषित होते नहीं देखना चाहता, न ही जिस मानवजाति का उसने छह हजार वर्ष तक प्रबंधन किया है, उसे ऐसे इंसानों के हाथों नष्ट होते देखना चाहता है। परमेश्वर बस यह देखना चाहता है कि उसके द्वारा उद्धार पाए लोगों के समूह के संचालन में, उसके द्वारा कड़ी मेहनत से बनाई गई चीजें निरंतर परमेश्वर की देखभाल, रक्षा और अगुआई में अस्तित्व में रहें, और सभी चीजों की व्यवस्था और परमेश्वर द्वारा आदेशित कानूनों के अनुसार जीती रहें। फिर ये किस किस्म के लोग हैं, जो ऐसा भारी बोझ उठा सकते हैं? ऐसी किस्म सिर्फ एक है, और यह वो किस्म है जिसके बारे में मैं बोलता हूँ, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, ऐसी किस्म के लोग जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपना मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को देख सकते हैं और आचरण और कार्य कर सकते हैं। ऐसे लोग विश्वास करने योग्य होते हैं। उनके अस्तित्व का ढंग पूरी तरह से शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के ढंग से उपजी है; अपने अनुसरण के लक्ष्य और ढंग में, और लोगों और चीजों को देखने, और अपने आचरण व कार्य में वे पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने में सक्षम हैं, और पूरी तरह से सत्य को अपना मानदंड मान सकते हैं। ऐसे ही लोग जीते रहने के सचमुच योग्य हैं, और परमेश्वर द्वारा उनके हाथों में सभी चीजों के सौंपे जाने लायक हैं। यही लोग परमेश्वर के आदेश का भारी बोझ उठा सकते हैं। परमेश्वर निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण न करने वाले व्यक्ति को सारी चीजें नहीं सौंपेगा। निश्चित रूप से वह सभी चीजें ऐसे लोगों को नहीं सौंपेगा, जो उसके वचन सुनते ही नहीं, और निश्चित रूप से ऐसे लोगों को कोई काम नहीं सौंपेगा। वे परमेश्वर का आदेश पूरा करना तो दूर, स्वयं अपने कर्तव्य भी अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर परमेश्वर उन्हें सारी चीजें सौंप दे, तो उनमें जरा भी वफादारी नहीं होगी, न ही वे उसके वचनों के अनुसार कार्य करेंगे। वे खुश होने पर थोड़ा काम करेंगे, और न होने पर वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने चले जाएँगे। अक्सर वे खोखले और बेचैन होंगे, उन्हें दिल से पता नहीं होगा कि करना क्या है, वे परमेश्वर के आदेश के प्रति वफादार नहीं होंगे। ऐसे लोग निश्चित रूप से वो नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के इरादे समझते हो, और भ्रष्ट मानवजाति की कमियों को और साथ ही यह भी जानते हो कि भ्रष्ट मानवजाति को किस मार्ग पर चलना चाहिए, तो तुम्हें सत्य के अनुसरण से शुरू करना चाहिए। परमेश्वर के वचन सुनो और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, और आचरण व कार्य करने की दिशा में शुरुआत करो। स्वयं को इस लक्ष्य, इस दिशा की ओर मोड़ो, फिर देर-सवेर वह दिन आएगा, जब परमेश्वर तुम्हारी खपत और अदायगी को याद रखेगा और उसे स्वीकार करेगा। फिर, तुम्हारे जीवित रहने का मूल्य होगा; परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देगा, और तुम तब एक साधारण व्यक्ति नहीं रह जाओगे। तुम्हें नूह को जहाज बनाने में लगे समय जितने लंबे समय तक डटे रहने को नहीं कहा जा रहा है, मगर तुम्हें कम-से-कम इस जीवनकाल में तो डटे रहना होगा। क्या तुम एक सौ बीस वर्ष जीवित रहोगे? कोई नहीं जानता, मगर यह कहना काफी है कि आधुनिक मानवजाति का जीवनकाल इतना नहीं होता है। फिलहाल सत्य का अनुसरण करना जहाज बनाने की अपेक्षा बहुत आसान है। जहाज बनाना बहुत मुश्किल था और तब कोई आधुनिक औजार नहीं थे—उसे पूरी तरह इंसानी ताकत से, और ऊपर से बिल्कुल प्रतिकूल माहौल में बनाया गया था। इसमें बहुत लंबा समय लगा, और मदद करने वाले लोग बहुत थोड़े थे। तुम्हारे लिए अभी सत्य का अनुसरण करना तब जहाज बनाने की अपेक्षा बहुत आसान है। तुम्हारा बड़े पैमाने का माहौल और जीवन के छोटे पैमाने के हालात, सत्य का अनुसरण करने के मामले में, तुम्हें बड़े लाभ की स्थिति में रखकर बड़ी सुविधा प्रदान करते हैं।

“मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए” विषय पर आज की संगति में मुख्य रूप से विषय के दो पहलुओं पर केंद्रित है। एक पहलू था परमेश्वर के नजरिये से, उसकी प्रबंधन योजना, उसकी इच्छाओं और उसकी ललक के बारे में सरल संगति; दूसरा था खुद लोगों के नजरिये से उनके ही भीतर की समस्याओं का विश्लेषण, जिसने सत्य का अनुसरण करने की जरूरत और महत्त्व को समझाया। इनमें से किसी भी कोण से देखा जाए, सत्य का अनुसरण करना मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर रूप से अत्यावश्यक है। किसी भी नजरिये से देखें, सत्य का अनुसरण जीवन का वह मार्ग और लक्ष्य है, जिसे परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी को और हर उस व्यक्ति को चुनना चाहिए जिसने परमेश्वर के वचन सुने हैं। सत्य के अनुसरण को किसी आदर्श या कामना के रूप में नहीं लेना चाहिए, न ही इसके बारे में दिए गए वक्तव्यों को किसी आध्यात्मिक सुविधा के साधन के रूप में लेना चाहिए; इसके बजाय, व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं को लेकर उन्हें अत्यंत व्यावहारिक ढंग से वास्तविक जीवन में अपने अभ्यास के लिए सिद्धांतों और आधार के रूप में बदल देना चाहिए, ताकि उनके जीवन का लक्ष्य और अस्तित्व की विधि बदल सके, बेशक, इससे व्यक्ति का जीवन अधिक सार्थक भी बनता है। इस प्रकार, छोटे पैमाने पर, सत्य का अनुसरण करते हुए, तुम जिस मार्ग पर चलते हो और तुम्हारा जो चुनाव है, वे दोनों सही होंगे—और विराट पैमाने पर, सत्य का अनुसरण करने के कारण तुम अंततः अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे और बचा लिए जाओगे। जो बचा लिए जाएँगे, वे परमेश्वर की दृष्टि में, सिर्फ उसकी आँखों के तारे या उसके हाथों में खजाना नहीं हैं, वे सिर्फ उसके राज्य के सरल मुख्य आधार तो और भी नहीं हैं। तुम्हें, भविष्य की मानवजाति के सदस्य को, मिलने वाला आशीष सचमुच बहुत महान है, ऐसा जो पहले कभी देखा नहीं गया, न ही कभी देखा जाएगा; तुम्हें एक-के-बाद-एक अच्छी चीजें इस तरह मिलेंगी जैसे तुम सोच भी नहीं सकते। किसी भी हालत में, अभी जो काम पहले किया जाना है, वह है सत्य के अनुसरण के लक्ष्य को स्थापित करना। इस लक्ष्य की स्थापना तुम्हारे आध्यात्मिक संसार के खोखलेपन के समाधान के लिए नहीं है, न ही यह तुम्हारे दिल की गहराई में भरे दमन और रोष, या अनिश्चितता और विभ्रांति को ठीक करने के लिए है। यह इसके लिए नहीं है। इसके बजाय, यह उस वास्तविक और सच्चे लक्ष्य के रूप में कार्य करने के लिए है जिस ओर व्यक्ति को आचरण और कार्य करना चाहिए। यह इतना सरल है। क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह सरल है? तुम लोग ऐसा कहने की हिम्मत नहीं करते, मगर तथ्य यह है कि यह काफी सरल है—बात यहीं आ जाती है कि किसी व्यक्ति में सत्य के अनुसरण का संकल्प है या नहीं। यदि तुममें वास्तव में सचमुच वह संकल्प है, तो ऐसा कौन-सा सत्य है जिसके अभ्यास का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं है? सभी के मार्ग हैं, हैं या नहीं? (जरूर हैं।) सत्य के किसी भी क्षेत्र में, उसके अभ्यास के लिए एक विशिष्ट आधार रखना और कार्य की किसी भी परियोजना के लिए अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत रखना—यह परिणाम सचमुच संकल्प रखने वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “मसलों से सामना होने पर मैं अभी भी अभ्यास करना नहीं जानता।” ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम खोजने में असफल रहते हो। अगर तुम खोजते, तो तुम्हारे पास मार्ग होता। एक कहावत है, है न? वह इस प्रकार है, “ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा” (मत्ती 7:7)। क्या तुमने खोजा है? क्या तुमने खटखटाया है? परमेश्वर के वचन पढ़ते समय क्या तुमने सत्य पर चिंतन-मनन किया है? यदि तुम उस चिंतन-मनन में मेहनत करते हो, तो सब-कुछ समझने में सक्षम हो जाओगे। समस्त सत्य परमेश्वर के वचनों में है; बस जरूरत है कि तुम इसे पढ़ो और उस पर चिंतन-मनन करो। निठल्ले मत रहो; ईमानदारी से ध्यान दो। जिन समस्याओं को तुम खुद सुलझा न सको, उनके लिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और कुछ समय तक तुम्हें सत्य खोजना होगा, और कभी-कभी तुम्हें धैर्य के साथ, परमेश्वर के समय में उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल तैयार कर उसमें सभी चीजों का खुलासा करे, तुम्हें अपने वचनों के एक अंश से प्रबुद्ध करे, तुम्हारे हृदय को स्पष्टता दे, और तुम्हारे पास अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत हों, तो क्या इस तरह तुम समझ नहीं जाओगे? इसलिए, सत्य का अनुसरण ऐसी कोई अमूर्त चीज नहीं है, न ही यह बहुत कठिन है। चाहे किसी भी कोण से देखा जाए, चाहे तुम्हारे रोजमर्रा के जीवन से देखा जाए, या तुम्हारे कर्तव्य से, या कलीसिया के कार्य से, या फिर दूसरों से तुम्हारी बातचीत से देखा जाए, तुम अभ्यास की दिशा और इसके मानदंड जानने के लिए सत्य खोज सकते हो। यह कतई मुश्किल नहीं है। मनुष्य के लिए अतीत की अपेक्षा अब परमेश्वर में विश्वास रखना कहीं अधिक आसान है, क्योंकि परमेश्वर के बहुत-से वचन उपलब्ध हैं, तुम लोग बहुत-से धर्मोपदेश सुनते हो, और सत्य के हर पहलू पर इतनी संगतियाँ उपलब्ध हैं। यदि किसी के पास आध्यात्मिक समझ है और उसमें योग्यता है, तो वह पहले ही समझ चुका होगा। जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं है, जिनकी योग्यता बहुत तुच्छ है, वही लोग हमेशा कहते हैं कि वे अमुक-अमुक चीजें नहीं समझते, और कभी चीजों की असलियत नहीं जान पाते। किसी भी मुश्किल के आते ही वे उलझ जाते हैं; सत्य पर संगति से उनकी उलझन दूर होती है, मगर थोड़ी देर बाद, वे फिर से उलझ जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बिल्कुल ही बेपरवाह होकर अपने दिन जाया करते हैं। वे बस बहुत आलसी हैं, खोजते नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर के और अधिक प्रासंगिक वचन पढ़ोगे और खोजोगे, तो चीजों को समझना आसान हो जाएगा, क्योंकि ये सभी वचन आसानी से समझ आने वाली आम भाषा में हैं। मानसिक रूप से कमजोर लोगों को छोड़कर कोई भी सामान्य व्यक्ति इन्हें समझ सकता है। ये वचन अनेक मामलों का स्पष्ट वर्णन करते हैं, और तुम्हें सब-कुछ बताते हैं। अगर ऐसा नहीं है कि तुम सत्य के अनुसरण को बहुत बड़ी बात नहीं मानते, और वास्तव में तुम सत्य प्राप्त करने की दिली लालसा रखते हो, और इसके अनुसरण को जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज मानते हो, तो कोई भी चीज तुम्हारे लिए अड़चन नहीं बन सकती या सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने से नहीं रोक सकती।

सत्य के अनुसरण का सरलतम नियम यह है कि तुम्हें परमेश्वर से सभी चीजों को स्वीकारना और सभी चीजों में समर्पण करना चाहिए। यह इसका एक अंश है। दूसरा अंश यह है कि अपने कर्तव्य और जो तुम्हें करना है, और उससे भी बढ़कर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और तुम्हारे दायित्व, साथ ही वह महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे कर्तव्य से बाहर है, मगर उसे पूरा करने में तुम्हारी जरूरत है, ऐसे कार्य जिसकी व्यवस्था तुम्हारे लिए हुई है और जिसे करने के लिए तुम्हें नामित किया गया है—यह कितना भी कठिन क्यों न हो, तुम्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए। भले ही तुम्हें अपनी पूरी शक्ति से इसमें जुट जाना हो, भले ही उत्पीड़न सामने मंडरा रहा हो, और भले ही इससे तुम्हारा जीवन जोखिम में पड़ जाए, तुम्हें यह कीमत चुकाने में संकोच न करते हुए अपनी मृत्यु तक अपनी वफादारी दिखाकर समर्पण करना है। वास्तविकता में, अपनी वास्तविक खपत और अपने वास्तविक अभ्यास में सत्य का अनुसरण इस प्रकार अभिव्यक्त होता है। क्या यह कठिन है? (नहीं।) मुझे ऐसे लोग पसंद हैं जो कहते हैं यह कठिन नहीं है, क्योंकि उनके दिल सत्य का अनुसरण करने को लालायित हैं, उनके दिल दृढ़प्रतिज्ञ और वफादार हैं—उनके दिलों में शक्ति है, इसलिए उन पर आई कोई भी मुश्किल कठिन नहीं होती। लेकिन अगर लोगों में आत्मविश्वास न हो, यदि उन्हें स्वयं पर संदेह हो, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, तो फिर उनके लिए सब-कुछ खत्म हो चुका है। अगर कोई व्यक्ति कीचड़ के ढेर जितना बेकार है, कुछ भी उपयोगी करने को अभिप्रेरित नहीं है, मगर खाने-पीने और मौज-मस्ती के नाम पर उसमें जान आ जाती है, और मुश्किलें सामने आने पर वह निराश हो जाता है, और सत्य के बारे में संगति की बात आने पर उसमें उत्साह नहीं होता, उसमें जरा भी अभिप्रेरणा नहीं होती, ऐसा व्यक्ति किस किस्म का है? वह ऐसा है जिसे सत्य से प्रेम नहीं है। यदि अनुग्रह के युग या व्यवस्था के युग में, मनुष्य से सत्य का अनुसरण करने की अपेक्षा की गई होती, तो यह उसके लिए एक चुनौती जैसी होती। यह आसान नहीं होता, क्योंकि तब मानवजाति के हालात अलग थे, और परमेश्वर की उससे अपेक्षाओं के मानक भी अलग थे। इसलिए अतीत के युगों में, नूह, अब्राहम, अय्यूब और पतरस जैसे प्रमुख लोगों के अलावा, ज्यादा लोग ऐसे नहीं थे जो परमेश्वर के वचनों का पालनकर उसे समर्पित होने में सक्षम थे। लेकिन परमेश्वर ने उन दो युगों के लोगों को दोष नहीं दिया, क्योंकि उसने लोगों को उद्धार के मानकों तक पहुँचने का तरीका नहीं बताया था। अंतिम युग में कार्य के इस चरण में, परमेश्वर लोगों को स्पष्ट रूप से सत्य के हर उस पहलू के बारे में बताता है, जिसका अभ्यास उन्हें करना है। यदि लोग अभी भी उनका अभ्यास नहीं करते, और अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाते, तो यह परमेश्वर की गलती नहीं है; यह मसला मनुष्य के सत्य से प्रेम न करने और उससे विमुख होने का है। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने के इस समय में, लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करना कोई चुनौती नहीं है—सचमुच, यह ऐसा कार्य है जिसमें वे सक्षम हैं। एक दृष्टि से, ऐसा इसलिए है क्योंकि सब-कुछ इसके अनुकूल है; दूसरी दृष्टि से, लोगों के हालात और बुनियाद सत्य का अनुसरण करने के लिए पर्याप्त हैं। अगर अंततः कोई सत्य प्राप्त करने में सफल नहीं होता, तो इसका कारण यह है कि उसके मसले बहुत गंभीर हैं। ऐसा व्यक्ति उसे मिलने वाले दंड, परिणाम और जैसी भी मृत्यु उसे मिले, उस लायक ही है। वह जरा भी तरस के योग्य नहीं है। परमेश्वर के लिए, लोगों के लिए तरस या करुणा जैसे कोई शब्द नहीं हैं। वह व्यक्ति का परिणाम मनुष्य से अपनी अपेक्षाओं, अपने स्वभावों और स्वयं द्वारा स्थापित व्यवस्था और नियमों के आधार पर तय करता है; और जिस तरह जैसा प्रदर्शन होता है वैसा ही परिणाम होता है, इसी के फलस्वरूप व्यक्ति का वर्तमान जीवन और भविष्य का जीवन तय किए जाते हैं। यह इतना ही सरल है। अंत में कितने जीवित बचेंगे, या कितनों को दंड मिलेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर इसकी परवाह नहीं करता। इन वचनों से तुम लोगों ने क्या समझा है? इनसे तुम सबको क्या जानकारी मिलती है? क्या तुम जानते हो? चलो देखते हैं, क्या तुम इतने चतुर और युक्तिसंपन्न हो कि जवाब दे सको। अगर तुम लोग जवाब न दे सको, तो मैं सिर्फ एक शब्द से तुम्हारा आकलन करूँगा—मूर्ख। मैं तुम लोगों को मूर्ख क्यों कहता हूँ? मैं तुम सबको बताता हूँ। मैंने कहा था कि अंत में कितने लोग जीवित रहते हैं, कितने नष्ट हो जाते हैं और दंड पाते हैं, इसकी परमेश्वर को परवाह नहीं। यह तुम सबको क्या बताता है? यह तुम लोगों को बताता है कि परमेश्वर ने लोगों की निश्चित संख्या निर्धारित नहीं की है। तुम इसके लिए संघर्ष कर सकते हो, लेकिन आखिरकार जो जीवित बचता है या दंडित होता है, वह चाहे तुम हो, कोई दूसरा, या कोई समूह हो, वह उस संख्या का हिस्सा नहीं होता, जो परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखी है। परमेश्वर आज की तरह कार्य करता और बोलता है। वह हर व्यक्ति से निष्पक्ष रूप से पेश आता है और हर व्यक्ति को पर्याप्त अवसर देता है। वह तुम्हें पर्याप्त अवसर, प्रचुर अनुग्रह, और प्रचुर मात्रा में अपने वचन, अपना कार्य, अपनी कृपा और सहिष्णुता देता है। वह हर व्यक्ति के साथ निष्पक्ष है। यदि तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर हो, और तुम्हें कितनी भी मुश्किलें सहनी पड़ें, या चुनौतियां झेलनी पड़ें, तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो, और अगर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो चुका है, तो तुम बचा लिए जाओगे। यदि तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो, और एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हो, सभी चीजों के योग्य स्वामी बन सकते हो, तो तुम जीवित बच जाओगे। यदि तुम बच गए, तो इसलिए नहीं कि तुम सौभाग्यशाली हो, बल्कि यह तुम्हारी स्वयं की खपत और प्रयासों और तुम्हारे स्वयं के अनुसरण के कारण होगा। यह तुम्हारी योग्यता और तुम्हारे हकदार होने के कारण होगा। तुम्हें परमेश्वर द्वारा कुछ अतिरिक्त दिए जाने की जरूरत नहीं होगी। परमेश्वर तुम्हें पूरक मार्गदर्शन और प्रशिक्षण नहीं देता; वह तुम्हारे लिए पूरक वचन नहीं कहता, या तुम्हें विशेष लाभ नहीं देता। वह ये चीजें नहीं करता। जैसे प्रकृति में होता है, उसी तरह यह योग्यतम की उत्तरजीविता है। प्रत्येक प्राणी परमेश्वर द्वारा तय व्यवस्था और नियमों के अनुसार अपनी संतान को जन्म देता है, जितनी भी संख्या में जन्म लें और मर जाएँ। जीवित रह सकने वाले जीवित रहते हैं, जो जीवित नहीं रह सकते, वे मर जाते हैं, और फिर नए को जन्म देते हैं। उनमें से जितने जीवित रह पाते हैं, उतनी ही उनकी संख्या होती है। एक बुरे वर्ष में, एक भी जीवित नहीं रहता; एक अच्छे वर्ष में, ज्यादा जीवित रहते हैं। अंत में, सभी चीजें संतुलन बनाकर रखती हैं। तो, परमेश्वर अपने द्वारा सृजित मानवजाति से कैसे पेश आता है? परमेश्वर का रवैया वही होता है। वह इस तरह निष्पक्ष रूप से हर व्यक्ति को उसका अवसर देता है, और इस तरह हर व्यक्ति से सार्वजनिक रूप से और बिना किसी पारिश्रमिक के बात करता है। वह हर व्यक्ति के साथ कृपालु रहता है, और हर व्यक्ति को ऊपर उठाता है; आगे बढ़ाता है, देखभाल करता है, और हर व्यक्ति की निगरानी करता है। अगर अंत में, तुम सत्य का अनुसरण कर जीवित रहते हो, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों पर खरे उतरते हो, तो तुम सफल हो जाओगे। लेकिन अगर तुम उलझन में रहते हुए, खुद को दुर्भाग्यशाली मानकर अपने दिन बर्बाद करते रहते हो, हमेशा बहुत महत्वाकांक्षी होने की ओर प्रवृत्त रहते हो, क्या करना है नहीं जानते, हमेशा सत्य का अनुसरण किए बिना या सही मार्ग पर चले बिना अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हो, तो अंत में तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर तुम परमेश्वर द्वारा तुम पर किए गए कार्य की अनदेखी कर हमेशा अपने दिन जैसे-तैसे गुजारने की इच्छा रखते हो, जरा भी परवाह नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारी अगुआई करता है, या वह तुम्हें मौके, अनुशासन, प्रबुद्धता और सहारा देता है, तो वह यह देख लेगा कि तुम संवेदनहीन मूर्ख हो, और वह तुम्हारी उपेक्षा करेगा। परमेश्वर तुम पर तब कार्य करेगा जब तुम सत्य का अनुसरण करोगे। वह तुम्हारे उल्लंघनों को याद नहीं रखता। यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे जबरदस्ती नहीं करेगा या तुम्हें साथ नहीं घसीटेगा। अनुसरण करोगे तो तुम्हें लाभ होगा; नहीं करोगे तो तुम्हें लाभ नहीं होगा। लोग सत्य का अनुसरण करें या न करें यह उनकी इच्छा है। उन्हें ही फैसला करना है। अपना कार्य समाप्त होने पर परमेश्वर तुमसे तुम्हारा उत्तर-पत्र माँगेगा, और तुम्हें सत्य के मानकों के अनुसार मापेगा। अगर तुम्हारे पास बिल्कुल कोई गवाही नहीं होगी, तो तुम्हें हटाना होगा; तुम जीवित नहीं रह पाओगे। तुम कहोगे, “मैंने बहुत-से कर्तव्य निभाए हैं, बहुत श्रम किया है। मैंने खुद को बहुत खपाया है और काफी कीमत चुकाई है!” और परमेश्वर कहेगा, “लेकिन क्या तुमने सत्य का अनुसरण किया?” तुम सोच-विचार करोगे, और ऐसा लगेगा कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बीस, तीस, चालीस या पचास वर्षों में तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया था। परमेश्वर कहेगा, “तुम खुद कहते हो कि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया। तो फिर दूर हो जाओ। जहाँ चाहो जाओ।” तुम कहोगे, “क्या परमेश्वर को नहीं लगता कि उसे जितने लोगों को बचाना चाहिए था, उनमें से एक कम व्यक्ति को बचाना, सभी चीजों के एक स्वामी का कम होना कितने तरस की बात है?” इस मुकाम पर, क्या परमेश्वर अब भी सोचेगा कि यह अफसोस की बात है? परमेश्वर ने बड़े लंबे समय से धैर्य रखा है; उसने लंबे समय तक प्रतीक्षा की है। उसकी तुमसे अपेक्षाएँ अब खत्म हो चुकी होंगी; तुमसे उसकी आशा बुझ चुकी होगी, और अब वह तुम पर ध्यान नहीं देगा। वह तुम्हारे लिए एक भी आँसू नहीं बहाएगा, तुम्हारे कारण कोई भी पीड़ा या कष्ट नहीं सहेगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि सभी चीजों का परिणाम अंत तक आ चुका होगा, परमेश्वर का कार्य अपने समापन पर पहुँच चुका होगा, उसकी प्रबंधन योजना समाप्त होने को आ जाएगी, और अब वह आराम करेगा। परमेश्वर किसी भी व्यक्ति के लिए न खुश होगा, न दुखी, किसी भी व्यक्ति के लिए न रोएगा, न विलाप करेगा। स्पष्ट है, वह किसी भी व्यक्ति के जीवित रहने पर या किसी व्यक्ति के सभी चीजों के स्वामी बन जाने पर न आनंदित होगा न प्रसन्न। ऐसा क्यों है? परमेश्वर ने इस मानवजाति के लिए बड़े लंबे समय तक बहुत अधिक खर्च किया है, और उसे आराम की जरूरत है। उसे छह हजार वर्षों की प्रबंधन योजना की पुस्तक को बंद करना होगा, और अब वह उस पर ध्यान नहीं देगा, कोई योजना नहीं बनाएगा, कोई वचन नहीं कहेगा, या मनुष्य पर कोई कार्य नहीं करेगा। वह अगले युग के स्वामियों को भविष्य का कार्य और आने वाले दिन सौंप देगा। वह क्या है जो मैं तुम लोगों को बता रहा हूँ? वो यह है : अब चूँकि तुम लोग जान गए हो कि अंत में कितने लोग रह जाएँगे, और कौन लोग रहने में सक्षम होंगे, इसलिए तुम सभी को उस दिशा में प्रयास कर सकते हो—और ऐसा करने का एकमात्र मार्ग है सत्य का अनुसरण। अपने दिन व्यर्थ न करो; भ्रमित होने से कुछ नहीं होगा। यदि ऐसा दिन आए जब परमेश्वर तुम्हारे द्वारा चुकाई कोई भी कीमत याद न रखे, और परवाह न करे कि तुम किस मार्ग पर चलते हो, या तुम्हारा परिणाम क्या होगा, फिर उसी दिन तुम्हारा परिणाम सचमुच तय हो जाएगा। तो अब तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें वर्तमान का लाभ उठाना चाहिए, जब परमेश्वर का हृदय अभी भी मानवजाति के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है, जब वह मानवजाति के लिए योजनाएँ बना रहा है, जब वह मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि और भाव-भंगिमा पर दुखी और क्षुब्ध हो जाता है। लोगों को जल्द-से-जल्द अपना विकल्प चुन लेना चाहिए। अपने अनुसरण का लक्ष्य और दिशा स्थापित कर लो; अपनी योजनाएँ बनाने के लिए तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक परमेश्वर के आराम के दिन न आ जाएँ। यदि तुम्हें तब तक सच्चा पछतावा, खेद, संताप और विलाप महसूस न हो, तो बहुत देर हो चुकी होगी। तुम्हें कोई भी नहीं बचा सकेगा, न ही परमेश्वर बचाएगा। ऐसा इसलिए कि वह समय आने पर, उस पल जब परमेश्वर की योजना सचमुच समाप्त हो जाती है, और वह अपनी आखिरी छाप छोड़कर अपनी योजना की किताब बंद कर रहा होता है, तो वह अब कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर को आराम चाहिए; उसे अपनी छह हजार साल की प्रबंधन योजना के फलों का स्वाद लेना है और बचे हुए मनुष्य उसकी खातिर सभी चीजों का जो संचालन करते हैं, उसका आनंद लेना है। परमेश्वर इस दृश्य का आनंद लेना चाहता है कि बचे हुए इंसान उसकी किसी भी इच्छा या कामना उल्लंघन किए बिना, उसके द्वारा स्थापित नियमों और अधिनियमों के अनुसार सभी चीजों का प्रबंधन कर रहे हैं, मौसमों, सभी चीजों और मानवजाति के लिए उसके द्वारा बनाए अनुक्रम का सूक्ष्मता से अनुपालन कर रहे हैं। परमेश्वर अपने विश्राम का आनंद उठाना चाहता है; वह मानवजाति के बारे में आगे की चिंता किए बिना या उसकी खातिर कार्य किए बिना, अपनी सुख-सुविधा का आनंद लेना चाहता है। क्या तुम यह समझ रहे हो? (हाँ।) वह दिन जल्द ही आ जाएगा। यदि हम आदम और हव्वा के काल में मानवीय आयुकाल की बात कर रहे होते, तो लोगों के पास अभी भी सदियाँ बची होतीं, और बचा हुआ काल बहुत लंबा होता। गौर करो कि नूह को नाव बनाने में कितना समय लगा था। मेरे ख्याल से आज सिर्फ थोड़े-से लोग ही हैं जो सौ से अधिक वर्ष तक जीवित रहेंगे, और यदि तुम नब्बे या सौ तक जियो भी, तो तुम्हारे लिए कितने दशक बचे हैं? ज्यादा नहीं हैं। भले ही आज तुम बीस के हो, और शायद नब्बे तक जियो, तो तुम सत्तर वर्ष और जियोगे, फिर भी यह नूह को जहाज बनाने में जितना समय लगा उससे कम ही है। परमेश्वर के लिए छह हजार वर्ष का समय पलक झपकने के बराबर है, और मनुष्य के लिए जो साठ, अस्सी, या सौ वर्ष हैं, वे परमेश्वर के लिए कुछ सेकंड हैं—अधिक-से-अधिक कुछ मिनट; पलक झपकने के बराबर। जो लोग सही मार्ग पर नहीं चलते, या सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे भी अक्सर कहते हैं, “जीवन छोटा है : पलक झपकते ही हम वृद्ध हो जाते हैं; पलक झपकते ही घर बच्चों और नाती-पोतों से भर जाता है; पलक झपकते ही हमारे जीवन का अंत होने को होता है।” अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो क्या? तुम्हारे लिए समय और भी ज्यादा कम है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और खोखलेपन की दुनिया में जीते हैं, वे अपने दिन जाया करते हैं, और उन सबको लगता है कि समय बहुत तेजी से गुजर जाता है। यदि तुम सच में सत्य का अनुसरण करो, तो क्या होगा? परमेश्वर की व्यवस्था का कोई भी माहौल, व्यक्ति, घटना या चीज तुम्हारे थोड़े समय तक अनुभव के लिए पर्याप्त है—और बड़े लंबे समय के बाद ही तुम थोड़ा-सा ज्ञान, अंतर्दृष्टि और अनुभव हासिल कर पाओगे। यह आसान नहीं है। जब तुम्हारे पास सचमुच ज्ञान और अनुभव होगा, तो तुम्हें समझ आएगा : “बाप रे! जीवन भर के सत्य के अनुसरण से भी मनुष्य ज्यादा कुछ प्राप्त नहीं करता!” फिलहाल, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में निबंध लिखते हैं, और मैंने देखा है कि कुछ लोग, जिन्होंने बीस-तीस वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, सिर्फ दस-बीस वर्ष पहले की विफलताओं और पतन के बारे में लिखते हैं। वे हाल की किसी चीज और अपने वर्तमान जीवन-प्रवेश के बारे में लिखना चाहते हैं, मगर उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है। उनका अनुभव बहुत ही अधिक कम है। अनुभवजन्य गवाही पर निबंध लिखने में, कुछ लोगों को अतीत की अपनी विफलताओं और पतन पर गौर करना होता है, और कमजोर स्मृति वाले लोगों को दूसरों की मदद चाहिए होती है कि वे उन्हें बीती बातें याद कराएँ। परमेश्वर में अपने दस, बीस, यहाँ तक कि तीस वर्षों के विश्वास में उन्होंने बस वह थोड़ा-सा ही प्राप्त किया है, और उसे लिखना बहुत मेहनत का काम है। कुछ निबंध असंबद्ध भी होते हैं, उनके असंबद्ध हिस्सों को जबरन काल्पनिक ढंग से जोड़ा जाता है। दरअसल इन्हें जीवन अनुभव में गिना भी नहीं जा सकता; इनका जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। सत्य का अनुसरण न करने पर मनुष्य इतना दयनीय होता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) बिल्कुल ऐसा ही है। मैं आशा करता हूँ कि तुममें से कोई भी वह दिन न देखे जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, और तुम उसके समक्ष पश्चातापी होकर घुटने टेक दो और कहो, “अब मैं स्वयं को जानता हूँ! अब मैं जानता हूँ कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है!” बहुत देर हो चुकी है! परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देगा; अब उसे परवाह नहीं कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, या तुममें कैसा भ्रष्ट स्वभाव है, या उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा है, न ही वह परवाह करेगा कि तुम्हें शैतान ने कितनी गहराई से भ्रष्ट किया है या तुम किस किस्म के व्यक्ति हो। ऐसा होने पर, क्या तुम बिल्कुल भीतर तक जम नहीं जाओगे? (हाँ।) अभी यह कल्पना करो : यदि वह पल सचमुच आ गया, तो क्या तुम दुखी होगे? (हाँ।) तुम दुखी क्यों होगे? इसका आशय यह है कि तुम्हें दूसरा मौका कभी नहीं मिलेगा। तुम फिर कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुन पाओगे, और परमेश्वर तुम्हें लेकर कभी परेशान नहीं होगा; तुम फिर कभी उसकी चिंता का विषय या उसके सृजित प्राणी नहीं बनोगे। तुम्हारा उसके साथ बिल्कुल कोई संबंध नहीं होगा। यह सोचना कितना भयावह है। अगर तुम अभी इसकी कल्पना कर भी लो, लेकिन जब वह दिन आएगा जब तुम उस मुकाम पर पहुँच जाओगे, तो क्या तुम भौंचक्के नहीं हो जाओगे? यह ठीक वैसा ही होगा जैसा बाइबल में कहा गया है : जब वह समय आएगा, तो लोग अपनी छातियाँ पीटेंगे और पीठ कूटेंगे, दहाड़ मार कर रोएँगे, दाँत पीसेंगे, और ऐसे रोएँगे कि इससे शायद उनकी मौत हो जाए। लेकिन रो-रोकर मर जाना बेकार है—इन सबके लिए बहुत देर हो चुकी होगी! परमेश्वर अब तुम्हारा परमेश्वर नहीं होगा, और तुम अब परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं रहोगे। तुम्हारा उसके साथ कोई संबंध नहीं होगा; तुम उसे नहीं चाहिए होगे। तुम कैसे हो, इससे परमेश्वर को कोई सरोकार नहीं होगा। तुम अब उसके दिल में नहीं होगे, और अब वह तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा। फिर क्या तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के मार्ग के अंत में नहीं पहुँच चुके होगे? (हाँ।) इसीलिए, यदि तुम कल्पना कर सकने में सक्षम हो, कि ऐसा समय आ सकता है जब परमेश्वर तुम्हें ठुकरा दे, तो तुम्हें वर्तमान को संजोना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें ताड़ना दे सकता है, तुम्हारा न्याय कर सकता है, या तुम्हारी काट-छाँट कर सकता है; वह तुम्हें श्राप भी दे सकता है और जबरदस्त तरीके से डांट भी सकता है। ये सब संजोने लायक है : परमेश्वर कम-से-कम अभी भी तुम्हें अपने सृजित प्राणी के रूप में मानता है, कम-से-कम तुमसे अभी भी उसकी अपेक्षाएँ हैं, तुम अब भी उसके दिल में हो, और वह अभी भी तुम्हें डांटने और श्राप देने को तैयार है, इसका अर्थ है कि उसके दिल में अभी भी तुम्हारे लिए चिंता है। यह चिंता ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे कोई अपने जीवन के बदले पा सकता है। अब, मूर्ख न बनो! समझ गए? (हाँ।) अगर समझ गए तो तुम लोग सचमुच मूर्ख नहीं हो; तुम मूर्ख होने का दिखावा कर रहे हो, है न? मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग सचमुच मूर्ख नहीं हो। यदि तुम ये चीजें समझ चुके हो तो अपने दिन जाया न करो। सत्य का अनुसरण मानव जीवन की बहुत बड़ी बात है। कोई भी दूसरी चीज सत्य के अनुसरण जितनी महत्वपूर्ण नहीं है, और सत्य प्राप्त करने से बढ़कर मूल्यवान कोई चीज नहीं है। क्या आज तक परमेश्वर का अनुसरण करना आसान रहा है? जल्दी करो, और सत्य के अनुसरण को महत्व दो! अंत के दिनों के कार्य का यह चरण परमेश्वर की छह हजार वर्ष की प्रबंधन योजना में लोगों पर किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य का चरण है। सत्य का अनुसरण वह सबसे बड़ी उम्मीद है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से रखता है। उसे उम्मीद है कि लोग सही मार्ग पर चलेंगे, जो सत्य के अनुसरण का मार्ग है। परमेश्वर को निराश न करो, उसे दुखी न करो, और ऐसा मत करो कि अंतिम पल आने पर वह तुम्हें अपने दिल से निकाल दे और तुम्हारी चिंता न करे या उसके दिल में तुम्हारे प्रति कोई घृणा बची रहे। ऐसी स्थिति न आने दो। क्या तुम्हें समझ आया? (बिल्कुल।)

आज हमारी संगति का विषय क्या था? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।) मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए—यह थोड़ा भारी विषय है, है न? यह भारी क्यों है? क्योंकि यह महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति के भविष्य के लिए, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए, और जिस रूप में प्रत्येक व्यक्ति अगले युग में अस्तित्व में रहेगा, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आशा करता हूँ कि तुम लोग इस विषय पर आज की वार्ता को दो-चार बार ज्यादा सुनोगे, ताकि तुम पर इसकी छाप गहरी हो सके। चाहे तुमने अतीत में सत्य का अनुसरण किया हो या न किया हो, और चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने, मेहनत करने को तैयार हो या न हो, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए” विषय पर आज की संगति से और इससे आगे, सत्य का अनुसरण करने के लिए अपना संकल्प दृढ़ कर लो, और अपनी इच्छा को मजबूत कर लो। यही सर्वोत्तम विकल्प है। क्या ऐसा कर सकते हो? (हाँ।) बढ़िया। आज हमने मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए के बारे में संगति की। संगति के लिए हमारा अगला विषय है सत्य का अनुसरण कैसे करें। अब चूँकि मैंने बता दिया है कि विषय क्या है, तो इस बारे में थोड़ा सोच-विचार करो और देखो कि तुम्हें इस विषय का क्या ज्ञान है। पहले इस पर गौर कर लो। इसी के साथ आज की संगति का समापन होता है।

3 सितंबर 2022

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