38. परमेश्वर मेरे साथ है
मेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था, और जब मैं एक वर्ष की थी, तो मेरी माँ ने लौटे हुए प्रभु यीशु—सर्वशक्तिमान परमेश्वर—का नया कार्य स्वीकार कर लिया, हालाँकि मेरी दादी इसकी प्रबल विरोधी थीं। मुझे याद है कि जब मैं छोटी थी, तो मेरी दादी अकसर मुझसे कहा करती थीं, "अगर तुम अच्छा महसूस न करो या अपना होमवर्क न कर पाओ, तो बस प्रभु यीशु से प्रार्थना किया करो। वे तुम्हें बुद्धि और ज्ञान प्रदान करेंगे, और तुम्हें सुरक्षित रखेंगे।" जबकि मेरी माँ अकसर मुझसे कहती थीं, "परमेश्वर ने इस दुनिया को बनाया और उसने ही मानव-जाति का निर्माण किया। वे हमेशा हमारे साथ हैं। जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आ जाए, तो याद से सर्वशक्तिमान परमेश्वर की प्रार्थना करना; वह तुम पर नजर रखेगा और तुम्हारी रक्षा करेगा।" मैं ये दो अलग-अलग विचार अकसर सुना करती थी। एक बार मैंने हिचकिचाते हुए अपनी माँ से पूछा, "दादी चाहती हैं कि मैं प्रभु यीशु से प्रार्थना करूँ और आप चाहती हैं कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर से प्रार्थना करूँ। मुझे किसकी बात सुननी चाहिए?" उन्होंने कहा, "प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर असल में एक ही हैं। बस, उनका समय अलग है, उनके द्वारा अपनाए गए नाम अलग हैं, और उनके द्वारा किए गए काम भी अलग हैं। प्रभु यीशु ने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर राज्य के युग का कार्य करता है। परमेश्वर हर युग में अपने काम करने का तरीका बदलता है, और वह अपना नाम भी बदलता है। पर उसका नाम और काम कितना भी क्यों न बदल जाए, उसका सार नहीं बदलता। उदाहरण के लिए, आज स्कूल जाने के लिए तुमने लाल कपड़े पहने हैं और कल रेस्तरां जाने के लिए तुम नीले रंग के कपड़े पहनोगी—भले ही तुमने अलग-अलग कपड़े पहने हों, और भले ही तुम अलग-अलग जगह पर अलग-अलग काम करो, फिर भी तुम तुम ही हो। लेकिन जब परमेश्वर का नया युग आता है, तो हमें उसके नए कार्य के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए। इसीलिए हमें अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए।" मेरी माँ के समझाने के बाद भी मैं बहुत भ्रमित महसूस करती रही और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नए कार्य के प्रति मन में दुविधा लिए रही।
अगस्त 2014 में मैं विदेश में अध्ययन करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका आ गई। मेरी माँ भी कुछ महीनों बाद वहाँ आ गई और अमेरिका में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया से जुड़ गई। उस समय से मुझे धीरे-धीरे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अस्तित्व महसूस होना शुरू हुआ। जब मैं अपनी पढ़ाई के लिए अमेरिका आई ही थी, तो मुझे यहाँ के जीवन से तालमेल बैठाना वाकई मुश्किल लगा, खासकर किसी और के घर में अकेले रहना। मैं बहुत ही डरपोक हूँ, इसलिए मैं अकेले सोने से डरती थी। मेरी माँ ने मुझसे कहा, "हमें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर का अधिकार अद्वितीय है। शैतान और राक्षस भी उसके अधिकार में हैं, इसलिए जब तुम्हें रात में डर लगे, तो बस परमेश्वर से प्रार्थना करना। जब तक तुम्हारे दिल में परमेश्वर है, तब तक शैतान तुम्हारे पास नहीं फटक सकता।" जब भी मैं अपनी माँ को संगति देते सुनती, मुझे बहुत शांति और आराम महसूस होता।
दिसंबर 2015 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की सभाओं में भाग लेना शुरू कर दिया, लेकिन चूँकि मुझे अभी भी विश्वास के मामलों की ज्यादा समझ नहीं थी, मुझे अकसर खुद को सभाओं में जाने के लिए मजबूर करना पड़ता। वह तो बाद में, दो घटनाओं का अनुभव करने के बाद ही मैंने व्यावहारिक रूप से परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व को मानना शुरू किया, जिसके बाद मैं अपने दिल की गहराई से पुष्टि करने में सक्षम हुई कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सच्चा परमेश्वर है, और वह हमेशा मेरे साथ है ...
एक शुक्रवार की दोपहर को मेरे स्कूल की छुट्टी होने ही वाली थी, सिर्फ एक कला की कक्षा बाकी थी, फिर मैं घर जा सकती थी। एक सहपाठी ने अचानक मुझसे कहा, "चलो, आखिरी कक्षा छोड़कर कुछ खाने और बाजार में घूमने के लिए शहर चलते हैं। मैंने वहाँ एक नए सीफूड रेस्तराँ के बारे में सुना है, जो वाकई अच्छा है।" यह सुनकर मैं ललचा गई—मैंने लंच में कुछ नहीं खाया था और मैं वाकई भूखी थी। मेरा पेट गड़गड़ा रहा था, मानो मुझसे जल्दी से सीफूड रेस्तराँ चलने का आग्रह कर रहा हो। पर मैं अभी भी हिचकिचा रही थी। "मैंने कभी कक्षा नहीं छोड़ी है," मैंने सोचा। "अगर मैं पकड़ी गई, तो क्या होगा?" लेकिन फिर मैंने सोचा: "हमारी कक्षा की शाओली तो महत्वपूर्ण कक्षाएँ भी छोड़ देती है और वो ऐसा कई बार कर चुकी है और कभी पकड़ी नहीं गई, मैं भी पकड़ी नहीं जाऊँगी।" इसलिए मैं अपनी दोस्त के साथ जाने के लिए तैयार हो गई और अपने कला-शिक्षक से कह दिया कि आज दोपहर मुझे डॉक्टर के पास जाने के लिए स्कूल से जल्दी जाना है, इसलिए मुझे अपनी कक्षा में गैर-हाजिर रहने के लिए माफ कर दें। फिर मेरी दोस्त और मैं बाजार घूमने और खाने-पीने के लिए टैक्सी पकड़कर शहर चले गए और उस शाम मैं आठ-नौ बजे के बाद घर पहुँची। वापस जाने पर मुझे एक अंतरराष्ट्रीय छात्रों के प्रभारी शिक्षक से एक ईमेल मिली, जिसमें कहा गया था कि अगले दिन मैं स्कूल में अपने डॉक्टर से मिलने के दस्तावेज लेकर आऊँ। यह देखकर मैं घबरा गई और जल्दी से अपने सहपाठियों से इसकी चर्चा की। एक ने कहा, "तुम्हें शिक्षक को कोई दस्तावेज देने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह एक निजी मामला है।" मुझे लगा कि उसका कहना सही था, पर चूँकि इस मामले में मैं गलत थी, इसलिए मुझे अपनी ओर से अकारण बहस करने में शर्मिंदगी महसूस हुई। इसी कारण मैंने अपनी मकान-मालकिन से इसका कोई हल सोचने में मेरी मदद करने के लिए कहा। उसने मुझसे कहा कि मैं उस प्रभारी व्यक्ति के पास जाकर अपनी गलती स्वीकार कर लूँ। उसकी बात सुनकर मैं दुविधा में पड़ गई—मैं समझ नहीं पाई कि मुझे अपनी गलती स्वीकार कर लेनी चाहिए या झूठ जारी रखना चाहिए। उस रात मुझे नींद नहीं आई, मैं करवटें बदलती रही। मैं अपनी गलती स्वीकार करना चाहती थी, पर मुझे डर था कि मेरे शिक्षक और सहपाठी मेरे बारे में क्या सोचेंगे, और अपनी जो सकारात्मक छवि मैंने बना रखी है, वह पलक झपकते ही नष्ट हो जाएगी। अपने दर्द के बीच मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की, और फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा: "लेकिन बेईमान लोग इस तरह काम नहीं करते हैं। वे शैतान के फलसफ़ों और अपनी धोखेबाज़ प्रकृति और सार के आधार पर जीते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें उन्हें सावधान रहना होता है कि कहीं दूसरे लोगों को उनके बारे में पता न चल जाए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपने असली चेहरे को छिपाने के लिए, उन्हें अपनी स्वयं की विधियाँ, अपनी स्वयं की बेईमान और कुटिल योजना का उपयोग करना पड़ता है, इस डर से कि देर-सवेर वे गलती से अपना राज़ खोल देंगे और जब वे अपना असली रंग दिखाते हैं तब वे चीज़ो को बदलने की कोशिश करते हैं। जब वे चीज़ों को बदलने की कोशिश करते हैं, तो कई बार यह आसान नहीं होता, और जब वे नहीं कर पाते, तो वे व्याकुल होने लगते हैं। उन्हें भय होता है कि दूसरे लोग उनके बारे में जान जाएँगे; ऐसा होने पर, उन्हें लगता है कि उन्होंने स्वयं को शर्मिंदा किया है, और फिर उन्हें स्थिति को सुधारने के तरीके के बारे में सोचना पड़ता है। ... अपने मन में, वे हमेशा सोचते रहते हैं कि तुम्हें उन्हें गलत समझने से कैसे रोकें, तुम्हें किस तरीके से अपनी बातें सुनाए और अपने कार्य का सम्मान करवाए कि उनके प्रयोजन के लक्ष्य हासिल हो जाएँ। और इसलिए वे मन में इस बारे में बार-बार सोचते रहते हैं। जब वे रात में नहीं सो पाते हैं तो इसके बारे में सोचते हैं; दिन में, अगर वे खा नहीं पाते तो वे उसके बारे में सोच रहे होते हैं; दूसरों के साथ चर्चा के दौरान वे इस पर विचार करते हैं। वे हमेशा दिखावा करते हैं, ताकि तुम यह न सोचो कि वे उस तरह के व्यक्ति हैं, ताकि तुम सोचो कि वे अच्छे हैं, या तुम यह न सोचो कि उनका यह मतलब था" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। एक-एक करके परमेश्वर के हर-एक वचन ने मेरे भीतर के विचारों को उजागर कर दिया, जैसे किसी प्रकाश ने अचानक मेरे दिल के अँधेरे पक्ष पर चमककर उसे रोशन कर दिया हो, जिससे मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई, ऐसा लगा जैसे मेरे लिए छिपने की कोई जगह न बची हो। "यह सच है!" मैंने सोचा। "मैंने कक्षा छोड़ी और झूठ बोला, और उसके बाद न केवल मैंने अपनी गलती स्वीकार करने की पहल नहीं की, बल्कि अपना दिमाग अपने झूठ की लीपापोती करने का उपाय सोचने में खपाया। मुझे जरा भी अपराध-बोध या पछतावा महसूस नहीं हुआ। मैंने यहाँ तक सोचा कि अंतरराष्ट्रीय छात्रों के प्रभारी शिक्षक को अपने काम से काम रखना चाहिए। ओह! इस तरह का व्यवहार परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी है और परमेश्वर को इससे घृणा होती है! मेरा कोई भी विचार या कर्म दूर-दूर तक परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है—परमेश्वर में विश्वास करने वाला ऐसा व्यवहार नहीं करता! नहीं, मुझे अपनी समस्याओं का समाधान उस तरह से नहीं करना चाहिए, जिस तरह से अविश्वासी करते हैं। मुझे परमेश्वर के आगे पश्चाताप करना होगा और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना होगा। मुझे ईमानदारी से बोलना है और एक ईमानदार इंसान बनना है।"
इसलिए स्कूल के अगले दिन मैं शिक्षक के पास गई और कक्षा छोड़ने की अपनी गलती स्वीकार कर ली। यह देखकर मैं हैरान रह गई कि प्रभारी शिक्षक ने मेरी जरा भी आलोचना नहीं की, उलटे उन्होंने कहा कि मैं बहुत ईमानदार हूँ और अपनी गलती स्वीकार कर पाना अच्छी बात है! फिर भी, कक्षा छोड़ने की सजा तो मिलनी ही थी, इसलिए शिक्षक ने मुझे छुट्टी के बाद एक पीरियड तक रुकने की सजा दी, ताकि मैं अपने किए पर विचार कर सकूँ। हालाँकि मुझे कक्षा छोड़ने और झूठ बोलने के लिए बहुत कम सजा मिली, लेकिन मुझे लगा कि परमेश्वर ही मेरी रक्षा कर रहा था। बाद में एक सभा में मैंने इस घटना के बारे में अपनी कलीसिया की बहन के साथ संगति की। मेरा विवरण सुनने के बाद उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर सुनाया: "यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख़्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता को प्रकट करने के लिए या तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर ऐसा कैसे करता है? सबसे पहले, वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव, प्रकृति, सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। परमेश्वर के वचनों पर संगति के माध्यम से मुझे समझ में आया कि मेरे सहपाठियों द्वारा कई बार कक्षा छोड़ने के बावजूद कुछ भी क्यों नहीं हुआ, जबकि मुझे पहली बार में ही शिक्षक द्वारा पकड़ लिया गया: यह निश्चित ही परमेश्वर की संप्रभुता थी। परमेश्वर ने एक व्यावहारिक तरीके से मुझे उजागर करने, मेरी ताड़ना करने और मुझे अनुशासित करने के लिए एक वातावरण तैयार किया; यह इसलिए किया गया ताकि मैं अपनी स्वयं की शैतानी प्रकृति को समझ सकूँ और झूठ बोलने तथा धोखा देने के अपने भ्रष्ट स्वभाव को जान सकूँ और इस तरह सत्य की खोज कर सकूँ, एक ईमानदार व्यक्ति बन सकूँ और एक इंसान की तरह जी सकूँ। परमेश्वर मुझसे प्यार कर रहा था और मुझे बचा रहा था! पूर्व में हर कोई मुझे अच्छा बच्चा समझकर मेरी प्रशंसा करता था और और मैं भी हमेशा अपने बारे में ऐसा ही सोचती थी। लेकिन तथ्यों के सामने आने के माध्यम से और परमेश्वर के वचनों द्वारा न्याय किए जाने और उजागर किए जाने से अंततः मुझे अपनी प्रकृति की कुटिलता और कपट का एहसास हुआ। मैं ढिठाई से झूठ बोलने और धोखा देने में सक्षम थी, और मैं वास्तव में छोटे आध्यात्मिक कद की थी; मैं हर समय और सभी जगहों पर अविश्वासियों के साथ जाते हुए और अपने भ्रष्ट स्वभावों के भीतर रहते हुए परमेश्वर के नाम को शर्मशार करने में सक्षम थी। शिक्षक ने मुझे सज़ा दी जिससे मुझे देह में थोड़ा दर्द तो हुआ, पर इसने मुझे यह सबक याद करा दिया, और मैं भविष्य में कभी झूठ नहीं बोलूँगी या धोखा नहीं दूँगी। अगर मैं उस समय कक्षा छोड़ने पर बच जाती, तो बाद में परीक्षणों और प्रलोभन से सामना होने पर मैं फिर से ऐसा करना चाहती। फिर मैं बस झूठ पर झूठ बोलती रहती, ज्यादा से ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बन जाती और अंत में शैतान द्वारा पूरी तरह से हर ली जाती। उस समय परमेश्वर मुझे स्वीकार भी न करता, क्योंकि वह ईमानदार लोगों से प्यार करता है और उन्हें बचाता है तथा कपटी लोगों से घृणा करता है और उन्हें खत्म कर देता है। उस समय मैंने अंतत: स्पष्ट रूप से देखा कि झूठ बोलने से कितना बड़ा नुकसान होता है, और मैंने यह भी देखा कि एक ईमानदार इंसान होना कितना सही और महत्त्वपूर्ण है!
उसके बाद जल्दी ही हमारी गणित की परीक्षा होने वाली थी। उससे पिछली शाम जब मैं अपने पाठ दोहरा रही थी, तो मैंने पाया कि अभी भी बहुत सारे टॉपिक ऐसे थे, जिनमें मैं निपुणता हासिल नहीं कर पाई थी। यह सोचकर कि अगले दिन ही परीक्षा है, मैं सचमुच चिंतित हो गई। क्योंकि उस सत्र के ग्रेड विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण थे, वे लोग उस वर्ष से मेरे ग्रेड देखेंगे और अगर मैं गणित में पास नहीं हुई, तो मेरी पिछली सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही ज्यादा तनाव मैंने महसूस किया। अगले दिन, परीक्षा से एकदम कुछ ही मिनट पहले, मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं वो नोटबुक लाना भूल गई हूँ, जिसमें मैंने सारे फार्मूले लिखे हुए थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैंने उस नोटबुक में गुप्त रूप से बहुत सारे उदाहरण लिख रखे थे, लेकिन अब जबकि वह खो गई थी, तो मुझे परीक्षा में फेल होना निश्चित लगा। आशा की एक किरण मन में लिए मैंने इस उम्मीद में हर जगह देखा कि मैंने उसे अनजाने में कहीं फर्श पर न गिरा दिया हो। जब मैं ऊपर-नीचे देख रही थी, तो मैंने अपनी बगल में बैठे छात्र के परीक्षा के प्रश्नपत्र पर लिखे उत्तर देख लिए। किस्मत से मिले इस अवसर से मैं खुश हो गई, मुझे लगा जैसे मुझे अचानक उम्मीद की एक किरण दिखाई दे गई हो। मैंने चुपके से शिक्षक पर एक नजर डाली और देखा कि वह कंप्यूटर के सामने बैठा अपने काम में तल्लीन था। फिर मैंने जल्दी से गणित की परीक्षा के सभी प्रश्न देखे और बगल में बैठे छात्र को थपथपाकर हमारे जवाबों का मिलान करने का इशारा किया। हालाँकि मैंने कहा था कि मैं जवाबों का मिलान करना चाहती हूँ, पर असल में मैं अपने स्वयं के परीक्षा प्रश्नपत्र पर उसके उत्तरों की नकल करना चाहती थी। पूरे समय डरते-डरते मैंने लुकाछिपी करते हुए गणित की पूरी परीक्षा इस तरह से दे डाली।
मैंने सोचा, आखिरकार मैंने उस विषय का ठीकठाक इंतजाम कर ही लिया, जिसमें मैं सबसे कम निपुण थी, और अवकाश शुरू होने के बाद शानदार समय बिताने की योजना बनाने लगी। पर यह देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि कुछ दिनों बाद स्कूल ने माता-पिता और अभिभावकों की एक बैठक की, जिसमें मेरी जगह मेरी मकान-मालकिन मेरा रिपोर्ट-कार्ड लेने गई। उसने बताया कि मुझे हर चीज में अच्छे ग्रेड मिले हैं, पर मेरा गणित का ग्रेड बाकी विषयों के साथ दर्ज नहीं किया गया, क्योंकि स्कूल को शक था कि उसमें शैक्षिक ईमानदारी का मसला हो सकता है। यह सुनते ही मेरा दिल डूब गया—मैं चिंतित हो गई, घबरा गई, और समझ नहीं पाई कि क्या करूँ। मैंने मन में बार-बार सोचा: "शैक्षिक ईमानदारी का मसला? क्या उन्हें पता चल गया कि मैंने अपने सहपाठी के उत्तरों की नकल की है? अगर ऐसा है, तो मुझे क्या करना चाहिए? लेखन की चोरी वास्तव में एक गंभीर समस्या है और यह मेरे विश्वविद्यालय में जाने की संभावनाओं पर भी बुरा असर डाल सकती है। लेकिन फिलहाल स्कूल को सिर्फ इसका शक है, इसलिए अभी भी उम्मीद बाकी है। अगर मैं कोई अच्छा-सा स्पष्टीकरण दे सकूँ, तो सब ठीक रहेगा, पर स्पष्टीकरण मैं दूँ क्या? मैंने वास्तव में लेखन की चोरी की थी। क्या मुझे जाकर बस इसे स्वीकार कर लेना चाहिए?" मैंने मन में इस पर बार-बार विचार किया। मेरे सहपाठियों ने सुझाव दिया कि मैं इसे कभी भी किसी भी सूरत में स्वीकार न करूँ, मुझे कोई बहाना बनाकर अपना काम निकाल लेना चाहिए। पर फिर मैंने सोचा: "परमेश्वर में विश्वास करने वाले को ऐसा नहीं करना चाहिए। यह भला मैं क्या करने जा रही हूँ?" फिर ऐसा हुआ कि उस शाम कलीसिया की एक सभा हुई, जिसमें मैंने अपनी बहनों की संगति में अपनी उस स्थिति के बारे में खुलकर बताया। इस पर मेरी एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया: "तब से लेकर अब तक, लोगों ने सत्य पर बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और परमेश्वर के बहुत से कार्यों का अनुभव किया है। फिर भी भिन्न-भिन्न कारकों एवं परिस्थितियों के हस्तक्षेप एवं अवरोधों के कारण, अधिकांश लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हैं। लोग उत्तरोत्तर आलसी होते जा रहे हैं, और उनके आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर कमी आती जा रही है। ... परमेश्वर की एकमात्र इच्छा है कि वह मनुष्य को ये सत्य प्रदान करे, उसके मन में अपना मार्ग बैठा दे, और फिर भिन्न-भिन्न तरीकों से मनुष्य को जाँचने के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करे। उसका लक्ष्य इन वचनों, इन सत्यों, और अपने कार्य को लेकर ऐसा परिणाम उत्पन्न करना है जहाँ मनुष्य परमेश्वर का भय मान सके और बुराई से दूर रह सके। मैंने देखा है कि अधिकांश लोग बस परमेश्वर के वचन को लेते हैं और उसे सिद्धांत मान लेते हैं, उस कागज़ पर लिखे शब्दों के रूप में मानते हैं, और पालन किए जाने वाले विनियमों के रूप में मानते हैं। जब वे कार्य करते हैं और बोलते हैं, या परीक्षणों का सामना करते हैं, तब वे परमेश्वर के मार्ग को उस मार्ग के रूप में नहीं मानते जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। यह बात विशेष रूप से तब लागू होती है जब लोगों का बड़े परीक्षणों से सामना होता है; मैंने किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की दिशा में अभ्यास करते नहीं देखा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। ये वचन सुनने के बाद मैंने अपने दिल में भर्त्सना महसूस की। हालाँकि मैं एक ईमानदार इंसान होने की कुछ सच्चाई समझती थी और उस संबंध में कुछ समय पहले ही परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन से गुजरी थी, फिर भी, एक और परीक्षण का सामना करने पर मैं सत्य को व्यवहार में लाने में असमर्थ रही। मैं बहुत स्पष्ट रूप से जानती थी कि लेखन की चोरी गलत है, लेकिन अपने ग्रेड्स के लिए मैं परमेश्वर के सत्य की इस अपेक्षा के बारे में भूल गई कि हमें ईमानदार इंसान बनना चाहिए। न केवल मैं गवाही नहीं दे सकी, बल्कि मैंने परमेश्वर को शर्मसार किया था। मन में बार-बार यही घूमते रहने के कारण उस रात मैं सो नहीं पाई। आखिरकार मैंने एक ईमानदार इंसान बनने और अब से अपने व्यक्तिगत हितों की पूर्ति के लिए परमेश्वर के नाम को शर्मसार न करने का संकल्प लिया। एक बार जब मैं इस निर्णय पर पहुँच गई, तो मैंने बिस्तर से तुरंत निकली, कंप्यूटर चालू किया और अपने गलत काम स्वीकार करते हुए एक आत्म-आलोचना लिख डाली। अगली सुबह मैं बहुत जल्दी स्कूल पहुँच गई और अपने शिक्षक को अपनी आत्म-आलोचना सौंप दी, अपने व्यवहार के लिए उनसे माफी माँगी, और गारंटी दी कि भविष्य में मैं फिर कभी किसी धोखाधड़ी नहीं करूँगी। मैंने गणित में शून्य अंक प्राप्त करने के लिए खुद को मजबूत किया और स्कूल द्वारा दी जाने वाली हर सज़ा स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई। मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि शिक्षक वास्तव में मुझे फिर से परीक्षा में बैठने देने का फैसला करेगा। उस क्षण मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद दिए बिना और उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाई: मुझ पर दया दिखाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद! इससे मुझे पता चला कि परमेश्वर मनुष्य के अंतरतम हृदय की छानबीन करता है, और जब मैंने अपने निजी स्वार्थ अलग रख दिए और एक ईमानदार इंसान होने की सच्चाई का व्यवहार किया, तो परमेश्वर ने मेरे लिए एक रास्ता खोल दिया और शिक्षक को मुझे परीक्षा में पुन: बैठने की अनुमति देने के लिए तैयार किया। मैंने वास्तव में महसूस किया कि परमेश्वर मेरे साथ है, मेरे हर कदम पर नजर रखे हुए है और मेरे आसपास के सभी लोगों, घटनाओं, चीजों और वातावरण की व्यवस्था कर रहा है, ताकि मैं व्यक्तिगत रूप से उसके वास्तविक अस्तित्व का अनुभव कर सकूँ। मेरे लिए परमेश्वर का प्यार इतना वास्तविक है!
इससे भी बड़ी हैरानी की बात यह थी कि कुछ दिनों बाद उस सत्र में सभी विषयों में सर्वोच्च ग्रेड पाने वाले छात्रों को योग्यता-प्रमाणत्र जारी करने के लिए पूरे स्कूल की एक सभा आयोजित हुई। जब शिक्षक ने मेरे नाम की घोषणा की, तो मुझे लगा कि वह एक गलती थी। जब मेरे कुछ सहपाठियों ने मुझसे कुछ कहा, तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे वाकई योग्यता-प्रमाणत्र मिल रहा है। मेरे सभी सहपाठी भी वास्तव में यह सोचकर हैरान थे कि गणित की परीक्षा में लेखन की चोरी करने के बावजूद मैं योग्यता-प्रमाणपत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूँ। मैंने अपने दिल में कहा: "यह सब परमेश्वर का कार्य है! मुझे पता है कि यह प्रमाणपत्र मेरे ग्रेड के लिए नहीं है, बल्कि परमेश्वर मुझे एक ईमानदार इंसान के जैसे आचरण करने के लिए एक पुरस्कार दे रहा है।" इसने इस बात की और भी ज्यादा पुष्टि कर दी कि परमेश्वर वास्तव में हर समय मेरे साथ है और हर पल मेरी निगरानी कर रहा है। परमेश्वर मेरे लिए जो कुछ भी व्यवस्था करता है, वह हमेशा सबसे अच्छी रहती है।
अब मैं सभाओं का आनंद ले रही हूँ और परमेश्वर के वचन ज्यादा से ज्यादा पढ़ रही हूँ। भले ही मैं अभी भी जीवन में अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देती हूँ, फिर भी, कैसी भी परिस्थिति क्यों न आ जाए, मैं हमेशा अपनी बहनों के साथ संगति कर सकती हूँ और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों से सत्य की तलाश कर सकती हूँ। एक साथ काम करने और व्यावहारिक तरीकों से सहयोग करने के माध्यम से मैं अधिक से अधिक सत्य समझ गई हूँ और अधिकाधिक बल के साथ उन्हें अमल में लाती हूँ। मुझे लगता है कि परमेश्वर मेरे साथ है और वह विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से किसी भी समय मुझे उजागर कर सकता है, और वह सत्य में प्रवेश करने में मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल भी करता है। अब मुझे लगता है कि परमेश्वर के साथ मेरा संबंध लगातार निकट होता जा रहा है, और मुझे पूरा यकीन है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है, और हर समय तथा हर जगह परमेश्वर ही है, जो मेरी निगरानी करता है और मेरी परवाह और रक्षा करता है!