248 परमेश्वर का सच्चा प्रेम

1

मैं बहुत बार मायूस हुई

अपना सम्मान गँवाने पर रोई।

जब परीक्षणों ने उजागर किया मुझे,

तब अपने भविष्य की चिंता हुई,

और अपने, दुःख से, घिर गयी।

बहुत बार, ज़िद की, विद्रोह किया,

ईश-न्याय से भागने का प्रयास किया;

मेरे ज़मीर ने धिक्कारा न मुझे।

कई बार संकल्प किया प्रायश्चित का,

मगर फिर बुराई की, पाप किया।


हे ईश्वर, तेरे न्याय-वचन दिखाएँ बदसूरती मेरी,

मैं साफ़ देखूँ अपनी भ्रष्टता।

न मुँह छिपाने को जगह कोई।


2

तेरे हाथों बचाए जाने की मुझे कोई उम्मीद न थी

पर तेरे वचनों से मेरी ग़लतफ़हमी दूर हुई।

मैं कई बार शैतान के लालच में फँसी,

मगर तूने चुपके से नज़र रखी, मेरी रक्षा की।

मेरी ग़लतफ़हमियों, विरोध के बावजूद,

तूने धैर्य और दया दिखायी।

तूने मेरे अपराधों को कभी याद न किया;

मुझे प्रायश्चित का मौका दिया।


हे ईश्वर, मैं नीच हूँ, तुच्छ हूँ,

फिर भी तू परवाह करे मेरी।

गर तेरा प्रेम चुका न पाऊँ, तो क्या इंसान कहलाऊँ?


3

तेरे न्याय, परीक्षण, अनुशासन से,

आख़िरकार मैं तेरे प्यार को जान सकूँ।

तेरे शोधन की पीड़ा तो होती है,

पर मेरी भ्रष्टता शुद्ध हो रही है।

तेरा आज्ञापालन और सत्य पर अमल कर,

मिलता मुझे चैन और सुकून।

तेरा भय मानने, और बुराई को नकारने,

तेरे वचनों पर जीने से मिले ख़ुशी मुझे।


हे ईश्वर, तेरा न्याय प्रेम है।

इसने तेरा उद्धार पाने के काबिल बनाया मुझे।

तेरे प्यार का अनुभव कर लिया

तुझे प्रेम और तेरा आज्ञापालन करना सदा चाहूँ।

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