29. एक अफसर का प्रायश्चित
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "संसार की सृष्टि से अब तक परमेश्वर ने जो कुछ अपने कार्य में किया है, वह प्रेम ही है, जिसमें मनुष्य के लिए कोई घृणा नहीं है। यहाँ तक कि जो ताड़ना और न्याय तुमने देखे हैं, वे भी प्रेम ही हैं, अधिक सच्चा और अधिक वास्तविक प्रेम, ऐसा प्रेम जो लोगों को मानव-जीवन के सही मार्ग पर ले जाता है। ... जो समस्त कार्य वह कर चुका है, उसका उद्देश्य लोगों को मानव-जीवन के सही मार्ग पर ले जाना है, ताकि वे सामान्य लोगों की तरह जी सकें, क्योंकि लोग नहीं जानते कि कैसे जीएँ, और बिना मार्गदर्शन के तुम केवल खोखला जीवन जियोगे; तुम्हारा जीवन मूल्यहीन और निरर्थक होगा, और तुम एक सामान्य व्यक्ति बनने में बिलकुल असमर्थ रहोगे। यह मनुष्य को जीते जाने का गहनतम अर्थ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (4))। मेरे लिए परमेश्वर के ये वचन बहुत ही प्रेरक हैं, मैं सचमुच परमेश्वर द्वारा अपने उद्धार के प्रति बहुत ही कृतज्ञ हूँ।
मैं गाँव में पैदा हुआ था। मेरे माँ-बाप ईमानदार और मेहनती किसान थे। गाँववाले हमारी गरीबी का मज़ाक उड़ाते थे और हमें परेशान करते थे। मैंने सोचा, "एक दिन मैं इन्हें दिखा दूँगा। यही लोग मेरी इज़्ज़त करेंगे।" लड़कपन में ही मैं सेना में भर्ती हो गया। कोई काम कितना भी गंदा या थका देने वाला क्यों न हो, मैं कर लेता था, ताकि मुझे तरक्की मिल जाए। लेकिन बरसों तक मैं छोटे-मोटे काम ही करता रहा। फिर मुझे एहसास हुआ, अच्छा मूल्यांकन और तरक्की मेहनत से नहीं, मुट्ठी गर्म करने से मिलती है। हालाँकि ऐसा करना मुझे पसंद नहीं था, लेकिन मुझे तरक्की चाहिए थी। इसलिए मैंने दिल को मज़बूत कर अपनी सारी बचत से अपने वरिष्ठों को रिश्वत दी। और जल्दी ही मुझे सैन्य अकादमी के लिए "योग्य" मान लिया गया। अपनी यूनिट में तरक्की के बाद, मुझे खानसामा के तौर पर काम करने के लिए भेज दिया गया, क्योंकि रिश्वत देने के लिए अब मेरे पास और पैसे नहीं थे। मैं अच्छी तरह जानता था कि "उपहार देने वालों के लिए अधिकारी चीजों को मुश्किल नहीं बनाते हैं," और "खुशामदी और चापलूसी के बिना कोई कुछ भी हासिल नहीं कर पाता है," अगर आगे बढ़ना है, तो मुझे रिश्वत के पैसे का इंतज़ाम करने के लिए जो बन पड़े करना होगा, वरना मैं अपनी सारी योग्यता के बावजूद कहीं नहीं पहुँच पाऊँगा। मैं आगे बढ़ना चाहता था, इसलिए पैसे के लिए जो काम मिला, मैंने किया, अपने वरिष्ठों को खुश करने के लिए मैंने उन्हें उनकी मनपसंद चीज़ें दीं। मुझे पता था कि मैं गैर-कानूनी काम कर रहा हूँ, इसलिए मुझे पकड़े जाने और जेल जाने का डर भी था। हर वक्त मेरा कलेजा मुँह को आया रहता था, लेकिन अधिकारी बनने की धुन में सबकुछ करता रहा। थोड़े समय के बाद, मुझे बटालियन कमांडर बना दिया गया। जब कभी मैं घर जाता, तो गाँववाले मुझे घेर कर मेरी चापलूसी और खुशामद करने लगते। इससे मेरा अहंकार तेज़ी से बढ़ने लगा, मेरी महत्वाकांक्षाएँ और ख्वाहिशें भी परवान चढने लगीं। जैसा कि कहते हैं : "एक व्यक्ति अधिकारी बेहतरीन भोजन और कपड़ों के लिए बनता है," और "जब आपके पास सामर्थ्य हो तो इसका उपयोग करें, क्योंकि इसके जाने के बाद, आप इसका उपयोग नहीं कर सकते हैं," मैं एक अधिकारी होने के विशेषाधिकार का मज़ा लेने लगा, जो चाहता मुफ्त में मिल जाता था। अगर मुझसे किसी को कुछ चाहिए होता, तो उसे या तो मुझे दावत देनी होती या रिश्वत। मैंने कमांडर और राजनैतिक कमिसार के पसंदीदा के रूप में भी अपनी स्थिति का इस्तेमाल करता। ताकि मेरे मातहत मुझे कुछ न कुछ देते रहें। मैं एक सामान्य किसान के बेटे से एक लालची, धूर्त और कपटी इंसान बन गया।
मैं न केवल अपनी नौकरी में एक अत्याचारी की तरह काम कर रहा था बल्कि घर में अपनी पत्नी के साथ भी बदसलूकी कर रहा था। मैंने बेमतलब ही उस पर ये इल्ज़ाम लगाया कि उसके विवाहेतर संबंध हैं, जिससे हमारे बीच मनमुटाव और बढ़ गया। आखिरकार, जब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ, तो उसने तलाक की माँग की। मेरा खुशहाल परिवार टूटने के कगार पर था, और इसका खमियाज़ा मेरे बेटे को भी भुगतना पड़ता। मेरी हालत खराब थी, मैं अपने जीवन के बारे में सोचता रहा : बचपन से ही मैंने अलग दिखने की, दूसरों से बेहतर होने की ठानी थी। हम पति-पत्नी दोनों का कैरियर अच्छा चल रहा था और हम एक सुखी जीवन जी रहे थे। हर कोई हमारी प्रशंसा करता था, तो मुझे खुशहाल और संतुष्ट होना चाहिए था। लेकिन फिर भी मुझमें एक खोखलेपन और पीड़ा का एहसास क्यों था? क्या मैं ऐसा ही जीवन चाहता था? वास्तव में, हमें कैसे जीना चाहिए? मैं भ्रमित और खोया-सा था, लेकिन कोई उत्तर नहीं खोज पाया। आगे चलकर, मेरी पत्नी ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य-सुसमाचार को स्वीकार कर लिया और वो भाई-बहनों के साथ मिलकर हर वक्त संगति करती थी। जल्दी ही वो आशावादी बन गयी। अब वो मेरे साथ बहस नहीं करती थी, उसने तलाक की चर्चा भी बंद कर दी। पत्नी में आए बदलाव को देखकर, मुझे लगा परमेश्वर में आस्था रखना बड़ी अच्छी बात होगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरे अंदर भी उसके प्रति आस्था जाग उठी।
मैं कलीसियाई जीवन जीने लगा, मैंने जाना कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया पूरी तरह दुनिया से अलग है। भाई-बहन परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और सत्य पर संगति करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार आचरण करने का प्रयास करते हैं, ईमानदार, खुलेमन के और निष्ठावान बनना चाहते हैं। मुझे लगा जैसे मैं किसी पवित्र स्थान पर आ गया हूँ, मुझे एक ऐसी आज़ादी और मुक्ति का एहसास हुआ जैसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। सभाओं में शामिल होकर और परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है, उसे इंसान की मलिनता और भ्रष्टता से सबसे अधिक नफरत है। सेना में रहकर, मुझे बहुत-सी बुरी आदतें पड़ गयी थीं, अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और मुझे हटा देगा। तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "ऐसी गन्दी जगह में जन्म लेकर, मनुष्य समाज के द्वारा बुरी तरह संक्रमित किया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित किया गया है, और उसे 'उच्च शिक्षा के संस्थानों' में सिखाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन पर मतलबी दृष्टिकोण, जीने के लिए तिरस्कार-योग्य दर्शन, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, पतित जीवन शैली और रिवाज—इन सभी चीज़ों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर रूप से घुसपैठ कर ली है, और उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसकी बजाय, इंसान शैतान की प्रभुता में रहकर, कीचड़ की धरती पर बस सुख-सुविधा में लगा रहता है और खुद को देह के भ्रष्टाचार को सौंप देता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। इन्हें पढ़कर मुझे पता चला कि मैं इतनी बुरी तरह से भ्रष्ट क्यों हूँ। मैंने अपने सेना में काम करने के दिनों की याद की। मैंने आगे बढ़ने के लिए दुनिया के अलिखित नियमों को अपनाया, और बुरे काम करके हराम की दौलत कमाई। मैं बेहद भ्रष्ट और नीच बन गया था और निर्लज्जता से पापी जीवन जी रहा था। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अच्छाई और बुराई का अंतर समझाया, और उन्हीं के द्वारा मैं अपनी भ्रष्टता और नीचता के मूल को जान पाया। अब पता चला कि इन सबके पीछे शैतान का हाथ है। हैवानों के सरदार, शैतान ने, हमारे समाज को भ्रष्ट कर पाप का कुंड बनाने के लिए हर तरह की शिक्षा और प्रभाव का इस्तेमाल किया है। ताकतवर लोग बेकाबू होते हैं, वे आम इंसान को कुचल डालते हैं, जबकि सामान्य और ईमानदार लोग हर तरफ से पिसते हैं और जीवन में कुछ नहीं कर पाते। हमारा समाज भ्रांतियों और विधर्म से भरा हुआ है, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "जो लोग अपने दिमाग से परिश्रम करते हैं वे दूसरों पर शासन करते हैं, और जो अपने हाथों से परिश्रम करते हैं, वे दूसरों के द्वारा शासित होते हैं," "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," "उपहार देने वालों के लिए अधिकारी चीजों को मुश्किल नहीं बनाते हैं; चापलूसी करना फटकार खाने से अच्छा है," "एक व्यक्ति अधिकारी बेहतरीन भोजन और कपड़ों के लिए बनता है," और "जब आपके पास सामर्थ्य हो तो इसका उपयोग करें, क्योंकि इसके जाने के बाद, आप इसका उपयोग नहीं कर सकते हैं।" इन बातों के वश में और आसपास के दबाव में आकर मैं अनजाने में ही रास्ता भटक गया। मैंने अधिकारी बनने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी, निजी हितों के लिए अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया। फायदा उठाने की ज़िद पर अड़ा, मैं पूरी तरह से भ्रष्ट इंसान बन गया था। मैं अपने दुष्कर्मों पर वाकई पछताता हूँ। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद, क्योंकि उसने मुझे एक नयी ज़िंदगी शुरू करने का मौका दिया। वरना तो, मैं अपने बर्ताव के लिए शापित और दंडित होता। मैं परमेश्वर का बहुत एहसानमंद था, मैंने अपना मार्ग बदलने और सेना छोड़कर नया काम तलाशने का संकल्प लिया। लेकिन मेरे वरिष्ठ अधिकारी मुझे रोकने का प्रयास करते रहे, बोले कि वे मुझे डिप्टी रेजिमेंटल कमांडर बना देंगे। मैं झिझका, विचार किया, "डिप्टी रेजिमेंटल कमांडर? ये तो सपना सच होने वाली बात है!" पलभर के लिए तो मैं इस पद को हाथ से न जाने देने के लिए खुद से जूझता रहा, समझ नहीं आया कि क्या करूँ, मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की कि वो मुझे रास्ता दिखाए। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "यदि तुम उच्च पद वाले, सम्मानजनक प्रतिष्ठा वाले, प्रचुर ज्ञान से संपन्न, विपुल संपत्तियों के मालिक हो, और तुम्हें बहुत लोगों का समर्थन प्राप्त है, तो भी ये चीज़ें तुम्हें परमेश्वर के आह्वान और आदेश को स्वीकार करने, और जो कुछ परमेश्वर तुमसे कहता है, उसे करने के लिए उसके सम्मुख आने से नहीं रोकतीं, तो फिर तुम जो कुछ भी करोगे, वह पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा और मनुष्य का सर्वाधिक धर्मी उपक्रम होगा। यदि तुम अपनी हैसियत और लक्ष्यों की खातिर परमेश्वर के आह्वान को अस्वीकार करोगे, तो जो कुछ भी तुम करोगे, वह परमेश्वर द्वारा श्रापित और यहाँ तक कि तिरस्कृत भी किया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। "लोग पृथ्वी पर आते हैं और मेरे सामने आ पाना दुर्लभ है, और सत्य को खोजने और प्राप्त करने का अवसर पाना भी दुर्लभ है। तुम लोग इस खूबसूरत समय को इस जीवन में अनुसरण करने का सही मार्ग मानकर महत्त्व क्यों नहीं दोगे? और तुम लोग हमेशा सत्य और न्याय के प्रति इतने तिरस्कारपूर्ण क्यों बने रहते हो? तुम लोग क्यों हमेशा उस अधार्मिकता और गंदगी के लिए स्वयं को रौंदते और बरबाद करते रहते हो, जो लोगों के साथ खिलवाड़ करती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, युवा और वृद्ध लोगों के लिए वचन)। हर शब्द ने मेरी अंतरात्मा पर चोट की। मैं जाग गया। मैंने सोचा, "देहधारी परमेश्वर से मिलना मेरी खुशकिस्मती है जो सत्य व्यक्त करने और इंसान को बचाने आया है, सत्य का अनुसरण करने और खुद को परमेश्वर के लिये खपाने का यह अवसर पाना परमेश्वर का महान उत्कर्ष और अनुग्रह है!" सृष्टिकर्ता के लिए खुद को खपाने से अधिक सार्थक और क्या हो सकता है? मैं चाहे कितने भी ऊँचे पद पर पहुँच जाऊँ, लेकिन क्या मैं कभी खुश रह पाऊँगा? कितने ही शक्तिशाली लोग स्वेच्छाचारी बनकर हर तरह की बुराइयों में लिप्त रहते हैं, लेकिन अंत में उनका वही हश्र होता है जिसके वे हकदार होते हैं। बहुत से बड़े अधिकारी थोड़े वक्त के लिए धनी और विशिष्ट व्यक्ति बने रहते हैं, लेकिन जैसे ही उनके हाथ से सत्ता जाती है, कुछ तो सबकुछ गँवाकर जेल की हवा खाते हैंऔर कुछ आत्महत्या कर लेते हैं ... ऐसा तो हमेशा होता रहता है। जहाँ तक मेरी बात है, मैं सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ता जा रहा था, लेकिन मैं अहंकारी, स्वार्थी और कपटी हो गया! अब, परमेश्वर ने मुझे अनेक सत्य प्रदान किए हैं और मुझे जीवन में सही मार्ग दिखाया है। तो मैं पहले की तरह कैसे जी सकता था? जीवन भर शैतान ने मेरा नुकसान किया है और मुझे मूर्ख बनाया है और नतीजतन मेरे अंदर ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं बची। उसके बाद, मैं अलग तरह का जीवन जीना चाहता था, परमेश्वर का अनुसरण, सत्य का अभ्यास करना चाहता था और परमेश्वर के वचनों के मुताबिक आचरण करना चाहता था। इसलिए मैंने सेना से कोई रिश्ता न रखने और नया काम करने का निश्चय किया। लेकिन चूँकि शैतान ने मुझे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया था, इसका विष "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो" मेरा जीवन बन चुका था। कलीसिया में भी मैं हमेशा पद पाने की ताक में रहता था, केवल परमेश्वर के प्रकाशन और न्याय ने ही मेरे लक्ष्य को सही दिशा दी।
कुछ समय तक कलीसिया में काम करने के बाद, मैंने कलीसिया में एक युवा अगुआ को और एक दूसरे व्यक्ति को देखा जो पहले मेरे दोस्त रह चुके थे। मैं बेचैन हो गया और सोचने लगा, "बाहर की दुनिया में तुम लोग मुझसे नीचे थे, लेकिन यहाँ कलीसिया में तुम लोग मेरे वरिष्ठ हो। मैं तुम लोगों से कहीं बेहतर अगुआ साबित होऊँगा!" और मैं जी-जान से इस काम में जुट गया। पहले तो मैंने एक योजना बनाई : मैं सुबह पाँच बजे उठकर परमेश्वर के वचनों को पढ़ता, फिर दो घंटे उपदेश सुनता, और हर हफ्ते परमेश्वर के वचनों के तीन भजन याद करता। मैं अपने कामकाज में पूरी तरह जुटा रहता, और कलीसिया के हर काम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता, फिर चाहे वो काम कितना भी मुश्किल या थका देने वाला क्यों न हो। सभाओं में, मैं सेना के अपने अनुभव बताता और अपनी काबिलियत की शान बघारता, और कलीसिया के अगुआओं की संगति पर नाक-भौं सिकोड़ता। कभी-कभी छिपे अंदाज़ में उनकी सोच और क्रियाकलापों की इस ढंग से आलोचना करता जैसे मैं ये काम उनसे बेहतर कर सकता हूँ। नाम और रुतबा पाने के संघर्ष में मैं इस तरह जीता था, और मन में कलीसिया का अगुआ बनने का ख्वाब पाले हुए था। एक बार, मैंने देखा कि एक अगुआ किसी काम को ठीक ढंग से नहीं कर पाई। चीज़ों को संभाल न पाने के लिए मैंने उसे फटकार लगाई, और संकेतों में उसे त्यागपत्र देने को कहा। मुझे उम्मीद थी कि मैं अगले चुनाव में अगुआ चुन लिया जाऊँगा। जब भाई-बहनों को पता चला तो उन्होंने मेरे बर्ताव का विश्लेषण किया, और यह कहा कि मैं मक्कार, महत्वाकांक्षी हूँ और कलीसिया पर कब्ज़ा जमाना चाहता हूँ। मुझे समूह अगुआ के पद से हटा दिया गया। इससे मैं वाकई परेशान हो गया और सोचने लगा, "मैं कभी इज़्ज़तदार बटालियन कमांडर हुआ करता था, लेकिन आज मैं समूह अगुआ के काबिल भी नहीं।" इसके कई महीनों बाद, अब मैं और नहीं सह सकता था, मैं अपने भाई-बहनों की शक्ल भी नहीं देखना चाहता था। सभाओं में मैंने चुप्पी साध ली। मेरी आत्मा में अंधेरा छा गया और अब मैं परमेश्वर को भी महसूस नहीं कर पा रहा था। तब जाकर मुझे डर लगने लगा, मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और उसे पुकारा कि वो मुझे इस अंधकार से निकाले।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ... जितना अधिक तू इस तरह से तलाश करेगी उतना ही कम तू पाएगी। हैसियत के लिए किसी व्यक्ति की अभिलाषा जितनी अधिक होगी, उतनी ही गंभीरता से उसके साथ निपटा जाएगा और उसे उतने ही बड़े शुद्धिकरण से गुजरना होगा। इस तरह के लोग निकम्मे होते हैं! उनके साथ अच्छी तरह से निपटने और उनका न्याय करने की ज़रूरत है ताकि वे इन चीज़ों को पूरी तरह से छोड़ दें। यदि तुम लोग अंत तक इसी तरह से अनुसरण करोगे, तो तुम लोग कुछ भी नहीं पाओगे। जो लोग जीवन का अनुसरण नहीं करते वे रूपान्तरित नहीं किए जा सकते; जिनमें सत्य की प्यास नहीं है वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तू व्यक्तिगत रूपान्तरण का अनुसरण करने और प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देती; बल्कि तू हमेशा उन अनावश्यक अभिलाषाओं और उन चीज़ों पर ध्यान देती है जो परमेश्वर के लिए तेरे प्रेम को बाधित करती हैं और तुझे उसके करीब आने से रोकती हैं। क्या ये चीजें तुझे रूपान्तरित कर सकती हैं? क्या ये तुझे राज्य में ला सकती हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को चीर दिया और मैंने बेहद शर्मिंदगी महसूस की। मैं पद पर नज़र गड़ाए हुए था, फिर भाई-बहनों ने मुझे उजागर कर दिया और मेरा निपटारा करके मुझे मेरे काम से बर्खास्त कर दिया। मैं ऐसा नहीं चाहता था, लेकिन ये इसलिए नहीं हुआ क्योंकि कोई मुझे नुकसान पहुँचना चाहता था। बल्कि यह परमेश्वर का धार्मिक न्याय और सही समय पर मेरा उद्धार था। परमेश्वर के अंत के दिनों का काम हमारी पुरानी सोच और धारणाओं को बदलने, हमें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए है, ताकि हम सत्य और परमेश्वर से जीवन पा सकें और रोशनी में जी सकें। मैं सही मार्ग पर नहीं चल रहा था, न ही मैंने सत्य के अनुसरण पर ध्यान दिया था, मैं तो पद और प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहा था। छल-कपट से पद पाने के लिए चालें चल रहा था। क्या ये हरकतें इंसान को बचाने की परमेश्वर की इच्छा के विपरीत नहीं थीं? इस तरह की हरकतों का मतलब था कि मुझे सत्य कभी हासिल नहीं होगा और मुझे हटा दिया जाएगा। मुझे भटकने से रोकने और फिर से सही मार्ग पर लाने के लिए, परमेश्वर ने भाई-बहनों के ज़रिए मेरी काट-छाँट और निपटारा किया, मेरी महत्वाकांक्षाओं और ख्वाहिशों को उजागर किया और मेरा पद छीन लिया ताकि मैं आत्म-मंथन करूँ और अपने तौर-तरीके बदलूँ। मैंने जाना कि परमेश्वर सचमुच हमारे दिलों की गहराई में झाँकता है। मुझे परमेश्वर की धार्मिकता, पवित्रता, सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता की सच्ची समझ भी हासिल हुई। अब मैं पद को गँवाकर निराश और दुखी नहीं था, बल्कि मैं सत्य का अनुसरण करना चाहता था, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहता था।
छह महीनों के बाद, मैं कलीसियाई जीवन जीने के लिए एक दूसरी कलीसिया में गया, जहाँ वे लोग अगुआ का चुनाव करने वाले थे। ये जानकर मुझे खुशी हुई कि वहाँ किसी को भी परमेश्वर में आस्था रखने का उतना अनुभव नहीं था जितना मुझे था, तो मुझे लगा कि मेरे लिए एक मौका है। जीवन अनुभव और बरसों की आस्था में मैं उन्हें पछाड़ चुका था। मैंने सोचा, कलीसिया अगुआ के लिए उनकी पहली पसंद तो मैं ही होऊंगा। जब मैं खुद का अच्छा दिखावा करने की तैयारी कर रहा था, मेरी पुरानी कलीसिया की एक बहन भाग कर कलीसिया में आ गई क्योंकि सीसीपी उसका पीछा कर रही थी। मैंने सोचा, "उसे पता है कि पिछली कलीसिया में मैं किस तरह पद की होड़ में रहता था। अगर वो फिर से मुझे कलीसिया के अगुआ के पद की होड़ में देखेगी, तो क्या वो मेरे पुराने शर्मनाक बर्ताव को उजागर कर देगी? अगर उसने ऐसा कर दिया तो सचमुच मेरी प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा।" कोई विकल्प न देख, मैंने अपनी योजना छोड़ दी और स्थिति का आकलन किया : "पहले मैं समूह का अगुआ बनूँगा और फिर वहाँ से सीढ़ियाँ चढ़ता जाऊँगा।" लेकिन मुझे हैरानी हुई कि मुझे समूह का अगुआ तक नहीं चुना गया। रोज़मर्रा के कामकाज करने के लिए कलीसिया के पास लोगों की कमी थी, तो कलीसिया के अगुआओं ने पूछा कि क्या मैं कुछ काम करना चाहूँगा। ये सोचकर कि मैं अवज्ञाकारी लगूँगा, मैं बेमन से सहमत हो गया। इज़्ज़तदार बटालियन कमांडर रह चुकने के बावजूद, मैं ऐसा निम्न-स्तर काम कर रहा था। ये सब मुझे गलत लगा। जल्दी ही, हमारी सभाएँ पुलिस की नज़र में आ गयीं, इसलिए अब वहाँ सभा करना संभव नहीं था। कलीसिया अगुआ ने मुझे मिलने-जुलने के लिए मेज़बानी का काम करने वाले भाई-बहनों के दूसरे ग्रुप में भेज दिया। मेरे लिए पानी सिर से ऊपर हो गया। मैं न केवल एक निम्न-स्तर का काम कर रहा था, बल्कि मुझे मेज़बानी का काम करने वाले भाई-बहनों के साथ मिलना-जुलना था। मुझे ये काफी अपमानजनक लगा। मैं इतना नीचे कैसे गिर सकता था? अगर चीज़ें ऐसे ही चलती रहीं, तो मेरा भविष्य क्या होगा? मेरी बेचैनी बढ़ती गयी, मैं बस व्यग्रता से मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना ही कर सकता था।
तब, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं। क्या तुम लोगों के वर्तमान विचार और दृष्टिकोण ठीक ऐसे ही नहीं हैं? 'चूँकि मैं परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पर आशीषों की वर्षा होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मेरी हैसियत कभी न गिरे, यह अविश्वासियों की तुलना में अधिक बनी रहनी चाहिए।' तुम्हारा यह दृष्टिकोण कोई एक-दो वर्षों से नहीं है; बल्कि बरसों से है। तुम लोगों की लेन-देन संबंधी मानसिकता कुछ ज़्यादा ही विकसित है। यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। लोगों ने सहूलियत की अपनी अभिलाषा का कभी त्याग नहीं किया" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। "जब तुम आज के मार्ग पर चलते हो, तो किस प्रकार का अनुगमन सबसे अच्छा होता है? अपने अनुगमन में तुम्हें खुद को किस तरह के व्यक्ति के रूप में देखना चाहिए? तुम्हें पता होना चाहिए कि आज जो कुछ भी तुम पर पड़ता है, उसके प्रति तुम्हारा नज़रिया क्या होना चाहिए, चाहे वह परीक्षण हों या कठिनाई, या फिर निर्मम ताड़ना और श्राप। तुम्हें इस पर सभी मामलों में सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मैंने आत्म-मंथन किया, "मुझे अपने अनुसरण में अपने आपको किस तरह के इंसान के रूप में देखना चाहिए?" मैंने अपने आपको हमेशा एक बटालियन कमांडर के रुप में ही देखा है, जिसका एक रुतबा है। मेरा काम मेरी गरिमा के अनुरूप होना चाहिए, और सिर्फ खास रुतबे वाले लोगों को ही मुझसे मिलने-जुलने का हक होना चाहिए। मैं मेज़बानी करने वाले भाई-बहनों को नीची नज़र से देखता था, मुझे लगता था उनके साथ होने का मतलब है कि मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। बिना रुतबे के, मेरे अंदर निराशा और प्रतिरोध का भाव आ गया, यहाँ तक कि जीवन भी बेकार लगने लगा। रुतबे, नाम और धन ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था और मैं इंसानियत गँवा चुका था। मैं भी कितना घिनौना और बदसूरत इंसान था! मेरे जैसा इंसान कलीसिया अगुआ बनने लायक कैसे हो सकता है? कलीसिया कोई समाज नहीं है। कलीसिया में सत्य का ही बोलबाला होता है। अगुआ ऐसा हो जिसमें इंसनियत हो और जो सत्य का अनुसरण करता हो। लेकिन मैं तो बस रुतबे के पीछे भाग रहा था और अगुआ बनने की होड़ में था। मैं इतना विवेकहीन, इतना बेशर्म कैसे हो सकता था?
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि वह हमारी मंज़िल हमारे रुतबे या इस बात से तय नहीं करता कि हमने कितना काम किया है। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि हमने सत्य प्राप्त किया है या नहीं, हम परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं। मैंने जाना कि परमेश्वर का स्वभाव सभी के लिए धार्मिक है, हम चाहे जो भी काम करते हों, हमें सदा सत्य का अनुसरण करना चाहिए। अगर सत्य है, तो बिना किसी रुतबे वाले इंसान को भी बचाया जा सकता है। लेकिन बिना सत्य का अनुसरण किए, किसी को भी नहीं बचाया जा सकता, फिर चाहे उसका रुतबा कितना भी बड़ा हो। मैंने सोचा पागलों की तरह रुतबे के पीछे भागना, मेरी कितनी बड़ी बेवकूफी थी। मैं उन भ्रष्ट सेना अधिकारियों से नफरत किया करता था, लेकिन बड़े पदों पर पहुँचकर, मैं तो बदतर बन गया, आखिरकार उन्हीं की तरह भ्रष्ट अधिकारी बन गया। कुछ ताकतवर लोग रुतबा हासिल करने से पहले, पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हैं, लेकिन जैसे ही सत्ता उनके हाथ में आती है, वे उसका दुरुपयोग करना शुरू कर देते हैं, और उनके पापों का घड़ा भरने लगता है। मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। जब उनके पास रुतबा नहीं था, तब नहीं लगता था कि वे कोई गलत काम कर रहे हैं, लेकिन जैसे ही स्थिति बदली, उन्होंने लोगों को नीचा दिखाते हुए, उन्हें बाध्य करना और दबाना शुरू कर दिया, वे अपने पदों पर टिके रहने के लिए उल्टी-सीधी बातें और हरकतें करने लगे, दुष्कर्म में लिप्त हो गए और परमेश्वर के गृह-कार्य में रुकावट डालने लगे। इससे मैंने जाना कि बिना सत्य के, हम हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार ही जीते हैं। जैसे ही हमें सत्ता और रुतबा हासिल होता है, हम विकृत बनकर बुरे काम करना शुरू कर देते हैं, अंतत: जिसका नतीजा दंड होता है! इतने बरसों तक सेना में ऊपर पहुँचने के लिए संघर्ष और प्रयास करते-करते, मैं शैतानी स्वभाव से भर गया था। मैं अहंकारी, कपटी, दुष्ट और पापी बन गया था। उच्च पद पर पहुँचकर, मेरी महत्वाकांक्षा और भी प्रबल हो जाती थी, जैसे सेना में अधिकारी के पद पर रहते हुए, मैंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया था। वहाँ रहते हुए मेरा हश्र यही होता कि मैं बुरे काम करता, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करता और दंडित होता। ये तमाम बातें सोचकर, मुझे डर भी लगा और मैंने कृतज्ञता भी महसूस की। परमेश्वर ने बार-बार असफलताएँ दीं, मुझे नाकाम किया, मेरी महत्वाकांक्षाओं और ख्वाहिशों को पूरा होने से रोका। यह मेरे लिए उसका उद्धार और मेरी सुरक्षा थी! परमेश्वर के प्रबोधन के लिए उसका धन्यवाद कि उसने मुझे शोहरत और रुतबे के पीछे भागने के नतीजे दिखाए। इसके अलावा, मैंने अंतत: यह भी जाना कि सत्य का अनुसरण करना कितना महत्वपूर्ण होता है।
तब से, मैंने अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिए सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है। कलीसिया मुझे चाहे जो काम सौंपे, मेरा ध्यान अब पद पर नहीं रहता। बल्कि, मेरा सारा ध्यान सत्य के सिद्धांतों की खोज और अपने कर्तव्य के निर्वहन पर केंद्रित हो गया है। जब मैंने इस तरह से अभ्यास करना शुरू किया, तो मैंने परमेश्वर की मौजूदगी और मार्गदर्शन को महसूस किया, और मुझे एक ऐसी शांति और आनंद का एहसास हुआ जिसे बयाँ नहीं किया जा सकता। कुछ समय के बाद, मैंने देखा कि मैं आसपास के लोगों के साथ काफी विनम्र हो गया हूँ, और मैं भूतपूर्व सेना अधिकारी होने की शान भी नहीं बघारता। जब कभी भाई-बहन मेरी गलतियों की ओर इशारा करते, तो मैं सावधानी से परमेश्वर से प्रार्थना करता और स्वयं को समर्पित कर देता, फिर आत्म-चिंतन करके खुद को जानने का प्रयास करता। मैं लोगों के साथ बराबरी के स्तर पर मिलने-जुलने लगा था, और अपने आपको उनसे श्रेष्ठ नहीं समझता था। मुझे पता भी नहीं चला और अनुसरण को लेकर मेरे विचार बदल गए। रुतबा, शोहरत और पैसा धुंधले पड़ने लगे थे। अब मैं इनकी पकड़ से बाहर हो गया था। जब मैं देखता कि आस्था में मुझसे कम अनुभवी लोग भी कलीसिया अगुआ बन रहे हैं, तो थोड़ी-बहुत जलन तब भी होती थी, लेकिन प्रार्थना और सत्य की खोज करके, मैं तुरंत इस भाव पर काबू पा लेता था। अब मैं घर पर अपनी पत्नी के साथ मिलकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करता हूँ। हालाँकि इसमें कोई दिखावा नहीं है, लेकिन मैं सचमुच संतुष्ट हूँ। हम अपने जीवन में अभ्यास करते हुए परमेश्वर के वचनों को प्रभावी होने देते हैं, और उसकी बात मानते हैं जो सही बोलता है और सत्य के अनुरूप होता है। मैंने वाकई अनुभव किया है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे बदल दिया है। उसने मेरे विवाह को, मेरे परिवार को और मुझ जैसे नीच इंसान को बचाया है। मैं बेहद अहंकारी, दंभी, रुतबे और पैसे में आसक्त, दुष्ट और लालची इंसान था। अगर परमेश्वर द्वारा उद्धार न होता, तो मैं जीवन में कभी भी सही राह पर न चल पाता। मैं और भी भ्रष्ट और नीच हो जाता, और इस हद तक दुष्कर्म करता कि परमेश्वर मुझे धिक्कारता और सज़ा देता। मैंने इन अनुभवों से सचमुच परमेश्वर के उद्धार और प्रेम को महसूस किया। सत्य पर अमल कर पाने और एक सच्चे इंसान की तरह जी पाने का सारा श्रेय परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को जाता है! परमेश्वर का धन्यवाद!