मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात)

III. परमेश्वर के वचनों से घृणा करना

आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे—वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली बार हमने इस प्रमुख विषय के तीसरे भाग तक संगति की थी कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। इस भाग पर हमारी संगति और गहन विश्लेषण तीन उप-विषयों में बाँटा गया था। ये तीन उप-विषय क्या हैं? (पहला है मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं; दूसरा है, अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं; तीसरा है, मसीह-विरोधी यह खोजबीन करते हैं कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं।) मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की बात क्या इन तीनों में समग्र रूप से आ जाती है? (कुछ और भी होना चाहिए।) और कौन-से दूसरे कथन और अभिव्यक्तियाँ हैं? (मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेते हैं।) क्या परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेना उनके परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की ही एक अभिव्यक्ति है? क्या परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेना परमेश्वर के वचनों से घृणा करने का स्पष्टीकरण नहीं है? यहाँ हमें स्पष्टीकरणों की जरूरत नहीं है, बल्कि मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की विभिन्न अभिव्यक्तियों और अभ्यासों की जरूरत है जिन्हें तुम देख और छू सकते हो और जिनके बारे में तुमने सुना है। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की विभिन्न अभिव्यक्तियों की ज्यादा समझ नहीं है। हो सकता है कि तुम लोगों को उन तीन मदों की कुछ शाब्दिक समझ हो जिन पर मैं पहले संगति कर चुका हूँ लेकिन तुम लोग यह नहीं सोच पा रहे हो कि मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की दूसरी अभिव्यक्तियाँ क्या हो सकती हैं, है न? तुम लोगों को उन तीनों अभिव्यक्तियों को याद रखना चाहिए था जिन पर हम पहले संगति कर चुके हैं। क्या परमेश्वर के वचनों से घृणा करने में मसीह-विरोधियों के व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ साफ और सच्ची होती हैं? क्या ईमानदार लोगों को ऐसा ही करना चाहिए? (नहीं।) ये ऐसी अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; ये सकारात्मक नहीं, बल्कि नकारात्मक हैं। इन कुछ व्यवहारों में निहित सार शैतान, दानवों और परमेश्वर के दुश्मनों की ओर इशारा करता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के व्यवहार में कोई समर्पण नहीं होता, इसमें कोई स्वीकृति नहीं होती, कोई अनुभव नहीं होता, अपनी धारणाओं को दरकिनार कर परमेश्वर के वचनों को विनम्रता और खुलेपन से स्वीकार करना नहीं होता—इसके बजाय वे परमेश्वर के वचनों के प्रति तमाम शैतानी रवैये उत्पन्न करते हैं। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों और व्यवहारों के जरिए प्रकट हुआ स्वभाव बिल्कुल वही होता है जो शैतान आध्यात्मिक जगत में प्रकट करता है। ये व्यवहार किसी भी स्थिति में, किसी भी युग में और किसी भी जनसमूह में सकारात्मक नहीं होते हैं। ये दुष्ट और नकारात्मक होते हैं, और ये ऐसी अभिव्यक्तियाँ या व्यवहार नहीं हैं जो एक सृजित प्राणी या एक सामान्य व्यक्ति में होने चाहिए। इस प्रकार हम इन्हें मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के रूप में चिह्नित करते हैं। इन तीन मदों पर संगति करने के बाद हो सकता है कि अधिकतर लोग यह सोचें कि ये तीनों अभिव्यक्तियाँ शायद परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के सारे बुनियादी रवैयों को अपने में समेटे हैं। लेकिन एक ऐसा बिंदु है जिसकी तुम लोगों ने अनदेखी कर दी है : परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का व्यवहार इन तीन दृष्टिकोणों तक ही सीमित नहीं है। एक और अभिव्यक्ति और व्यवहार ऐसा है जिससे यह स्पष्ट होता है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। अगर हम इसके शाब्दिक अर्थ को देखें तो कुछ लोगों के मन में कुछ लोगों की ओर इशारा करने वाली छवियाँ आ सकती हैं लेकिन इसकी विशिष्ट और सच्ची अभिव्यक्तियाँ अभी बहुत स्पष्ट नहीं हैं; वे अभी भी बहुत अस्पष्ट और सामान्य हैं। तो फिर आज हम इस बारे में संगति करेंगे कि मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं।

घ. मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं

मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं; यह भी कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी स्वयं सत्य को ही एक वस्तु मानते हैं। इन्हें वस्तुएँ मानने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि बस कुछ मौखिक दावे करना, दिखावा करना और फिर धोखे से लोगों का भरोसा, समर्थन और अनुमोदन हासिल करना ताकि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा प्राप्त कर सकें। इस प्रकार परमेश्वर के वचन और सत्य उनके लिए सीढ़ी बन जाते हैं। सत्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। वे सत्य का दोहन करते हैं, इससे खिलवाड़ करते हैं और इसे रौंद डालते हैं जो मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से तय होता है। तो फिर परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में क्या हैं? सत्य को हमें किस प्रकार सटीक ढंग से परिभाषित करना चाहिए? मुझे बताओ, सत्य क्या है? (सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) यह सत्य की एक सटीक और विशिष्ट परिभाषा है। तुम सब लोग इस कथन को कैसे समझते हो? तुम्हें इस कथन को अपने दैनिक जीवन में और अपने पूरे जीवन में किस प्रकार लागू करना चाहिए? तुम्हें इस कथन का अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम जो भी सोच और समझ पा रहे हो उसे तुरंत बिना लाग-लपेट के बता दो। तुम लोगों के अनुभव की भाषा में सत्य क्या है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? (सत्य किसी व्यक्ति के जीवन संबंधी दृष्टिकोण और मूल्यों को बदलकर उसे एक सामान्य मानव के समान जीवन जीने में सक्षम बना सकता है।) भले ही यह उतना समग्र नहीं है, फिर भी तुमने जो कुछ कहा वह सब सत्य की एक अनुभवजन्य समझ को व्यक्त करता है; यह ऐसी अंतर्दृष्टि और समझ है जिसे तुमने अपने जीवन में अनुभव कर निचोड़ तैयार किया है। और कौन साझा करना चाहेगा? (सत्य हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध कर हमें सिद्धातों के अनुसार और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम बना सकता है।) यह कथन काफी अच्छा और असरदार है। कृपया बोलते जाएँ। (सत्य जीवन है, अनंत जीवन का मार्ग है। केवल सत्य का अनुसरण करके और इसके अनुसार जीकर ही व्यक्ति जीवन प्राप्त कर सकता है।) (सत्य लोगों को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, सच्चा इंसान बनाने में सक्षम बनाता है।) इन दोनों ही बिंदुओं का संबंध लोगों के दैनिक जीवन में अभ्यास के सिद्धांतों से है। भले ही ये व्याख्याएँ अपेक्षाकृत गहरी और उच्च हैं, फिर भी वे बहुत व्यावहारिक हैं। (सत्य हमारे भीतर के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर तमाम मामलों पर हमारे गलत दृष्टिकोणों को बदल सकता है और हमें एक सच्चे इंसान के समान जीने में सक्षम बना सकता है।) ये कथन व्यावहारिक हैं और इनका संबंध लोगों के लिए सत्य के मूल्य और महत्व से होने के साथ ही इस बात से भी है कि सत्य लोगों पर क्या प्रभाव छोड़ सकता है। तुम सब लोगों ने जो भी कहा है उसके बारे में हमने पहले भी अक्सर चर्चा की है। भले ही हर व्यक्ति का जोर अलग-अलग बातों पर है, फिर भी इन सबका संबंध सत्य के बारे में पहले समझाए और परिभाषित किए जा चुके कथनों से है—सत्य सभी चीजों को मापने की कसौटी है। क्या सत्य की बराबरी परमेश्वर के वचनों से की जा सकती है? (हाँ।) परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। तुम लोगों ने अपनी संगति में जो अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा की हैं, क्या हम उसके आधार पर यह कह सकते हैं कि सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है? (हाँ।) सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। यह इंसान का जीवन और उसके चलने की दिशा बन सकता है; यह उसके भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने में, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला इंसान बनने में और एक योग्य सृजित प्राणी बनने में और एक ऐसा इंसान बनने में जिसे परमेश्वर प्रेम करता है और स्वीकार्य मानता है, मदद कर सकता है। सत्य की बहुमूल्यता को देखते हुए परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति किसी व्यक्ति का क्या दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए? यह बिल्कुल स्पष्ट है : परमेश्वर के प्रति सचमुच विश्वास रखने वाले और उसका भय मानने वाले लोगों के लिए उसके वचन उनके जीवनशक्ति होते हैं। लोगों को परमेश्वर के वचन सँजोकर रखने चाहिए, उन्हें खाना और पीना चाहिए, उनका आनंद लेना चाहिए और उन्हें अपने जीवन के रूप में, उस दिशा के रूप में जिसमें वे चलते हैं और उसके लिए सहज रूप से उपलब्ध सहायता और पोषण के रूप में स्वीकार करना चाहिए; इंसान को सत्य के कथनों और अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास और अनुभव करना चाहिए, और सत्य प्रदत्त प्रत्येक अपेक्षा और सिद्धांत के प्रति समर्पण करना चाहिए। केवल इसी प्रकार व्यक्ति जीवन हासिल कर सकता है। सत्य का अनुसरण मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव है, बजाय इसके कि उसकी जाँच-पड़ताल, विश्लेषण, उस पर अटकलबाजी और संदेह किया जाए। चूँकि सत्य लोगों के लिए सहज उपलब्ध सहायता और पोषण है, और यह उनका जीवन हो सकता है, इसलिए उन्हें सत्य को सबसे अनमोल मानना चाहिए। इसका यह कारण है कि उन्हें जीने के लिए, परमेश्वर की माँगों को पूरा करने के लिए, उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए और अपने दैनिक जीवन के भीतर अभ्यास के मार्ग को खोजने और अभ्यास के सिद्धांत समझने के लिए सत्य पर भरोसा करना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करना चाहिए। लोगों को इसलिए भी सत्य पर भरोसा करना चाहिए ताकि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकें, ऐसे व्यक्ति बन सकें जिन्हें बचाया गया हो और जो योग्य सृजित प्राणी हों। इसे चाहे जिस किसी परिप्रेक्ष्य या तरीके से व्यक्त कर लिया जाए, सत्य के प्रति लोगों में जो रवैया सबसे कम होना चाहिए वह है परमेश्वर के वचनों और सत्य को एक उत्पाद मानना या अकस्मात लेन-देन की वस्तु मानना। यही वह चीज है जिसे परमेश्वर सबसे कम देखना चाहता है और यही वह व्यवहार और अभिव्यक्ति भी है जो किसी सच्चे सृजित प्राणी में नहीं होनी चाहिए।

मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने का उद्देश्य और इरादा क्या होता है? वास्तव में उनका लक्ष्य क्या करने का होता है और उनका मंसूबा क्या होता है? जब कोई व्यापारी एक वस्तु खरीदता है तो उसे उस वस्तु से यह उम्मीद होती है कि इससे फायदा होगा और अच्छी-खासी मनचाही रकम मिलेगी। इसलिए जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं तो वे निस्संदेह परमेश्वर के वचनों को एक भौतिक वस्तु मानते हैं जिसका लेन-देन फायदों और पैसे के लिए किया जा सकता है। वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर सँजोते, स्वीकारते नहीं, इनका अभ्यास या अनुभव नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचनों को जीवन का ऐसा मार्ग मानते हैं जिस पर उन्हें चलना चाहिए, न ही वे इन्हें ऐसा सत्य मानते हैं जिसका अभ्यास उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने के लिए करना चाहिए। बल्कि, वे परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। एक व्यापारी के लिए किसी वस्तु का सबसे बड़ा मूल्य यह होता है कि उसका पैसे के लिए, वांछित मुनाफे के लिए लेन-देन किया जाए। इस प्रकार जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं तो उनका इरादा और मंसूबा वास्तव में एक ही होता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, अर्थात वे इनका उपयोग खाने, पीने और आनंद के लिए नहीं कर रहे हैं, न ही अपने अनुभव या अभ्यास के लिए कर रहे हैं, बल्कि अपने पास उपलब्ध ऐसे सामान के रूप में करते हैं जिसे कभी भी और कहीं भी बेचा जा सके, ऐसे लोगों को पेश किया जाए जिनसे उन्हें मुनाफा हो सके। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, तो अगर इसे शाब्दिक तौर पर लिया जाए तो इसका अर्थ है परमेश्वर के वचनों को व्यापार की वस्तु मानना, पैसों की खातिर इन्हें लेन-देन के रूप में इस्तेमाल करना; वे परमेश्वर के वचनों की खरीद-फरोख्त को अपना पेशा बना लेते हैं। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है। मसीह-विरोधियों के ऐसे क्रिया-कलाप और व्यवहार शर्मनाक होते हैं, जो लोगों में अरुचि और घृणा पैदा करते हैं। तो फिर परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने की मसीह-विरोधियों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? यही वह महत्वपूर्ण बिंदु है जिस पर हम संगति करेंगे। परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने को लेकर मसीह-विरोधियों की कुछ बहुत स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ होती हैं। तुम लोगों के लिए इसे और स्पष्ट और समझने लायक बनाने के लिए हम अभी इन पर एक-एक करके चर्चा करेंगे। मैं यह दृष्टिकोण क्यों अपना रहा हूँ? अपने अनेक वर्षों के कार्य और बोलने के अनुभव के आधार पर बताऊँ तो अधिकतर लोगों में भ्रमित विचार होते हैं और उनमें स्वतंत्र रूप से सोचने की योग्यता नहीं होती। इसके आधार पर मैंने सबसे सरल और कारगर तरीका सोचा, जो यही है कि किसी भी मसले या विषय को—वो चाहे कोई भी हो—मद-दर-मद समझाया और स्पष्ट किया जाए ताकि तुम लोगों को इसके हर पहलू को जानने और इस पर विचार करने में मदद मिले। क्या यह उचित है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “यह बिल्कुल सटीक है, इससे हम अपने दिमाग को दौड़ाने और भारी सोच-विचार करने से बच जाते हैं। हम बहुत व्यस्त हैं और हमारे पास इसके लिए फुरसत नहीं है! हम अपनी ताकत और विचार बड़े मामलों में खपाते हैं, ऐसे तुच्छ और छोटे मसलों पर नहीं। इन छोटे मामलों में हमसे विचार करवाकर कुछ-कुछ ऐसा लगता है कि तुम हमें कमतर आँक रहे हो और हमारी महान प्रतिभा का कमतर उपयोग कर रहे हो।” क्या यही मामला है? (नहीं।) तो फिर क्या है? (हमारी काबिलियत इतनी कम है कि कभी-कभी हम सत्य को समझ नहीं पाते और हमें विस्तार से, शब्द-दर-शब्द और वाक्य-दर-वाक्य संगति करने के लिए परमेश्वर की जरूरत पड़ती है ताकि हम इसे कुछ-कुछ समझ सकें।) तुमने देखा कि मैंने अनजाने में ही असली वस्तुस्थिति बता दी, यह खुलासा कर दिया कि तुम सब लोगों के साथ वास्तव में क्या चल रहा है, लेकिन यही बस तथ्य हैं। अगर मैं इसे उजागर न करता तो तब भी यही बात होती। ऐसा करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। अगर मैं सिर्फ बड़े विषयों पर सरल और आम ढंग से बोलूँगा तो फिर मैं व्यर्थ ही बोलता रहूँगा और अपनी कोशिश जाया करता रहूँगा। यह तो सिर्फ समय गँवाना होगा, है न? चलो मुख्य विषय पर लौटते हैं। जहाँ तक मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने का विषय है, हम इसे अनेक उप-विषयों में बाँट देंगे ताकि कदम-दर-कदम पर इसे समझाया और स्पष्ट किया जा सके कि मसीह-विरोधी ऐसा कैसे करते हैं, ऐसे कौन-से विशिष्ट उदाहरण और अभिव्यक्तियाँ हैं जो पर्याप्त रूप से यह साबित कर सकें कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं और यह भी पुष्टि हो सकें कि मसीह-विरोधियों में वास्तव में ऐसा सार होता है। हम इस संगति को दो मुख्य भागों में करेंगे।

1. परमेश्वर के वचनों को रुतबा, प्रतिष्ठा और गरिमा प्राप्त करने का एक साधन मानना

पहला प्रमुख पहलू यह है कि परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने की मसीह-विरोधियों की सबसे आम अभिव्यक्ति इन्हें अपना रुतबा, प्रतिष्ठा और गरिमा प्राप्त करने के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करना है, और इससे भी ज्यादा इन्हें मौजमस्ती और पैसों के लिए इस्तेमाल करना है। मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आते हैं तो उन्हें लगता है, “परमेश्वर के वचन महान हैं। हर वाक्य तर्कसंगत और सही है; ये वचन लोग नहीं कह सकते और ये बाइबल में नहीं मिल सकते।” पिछले दो युगों में परमेश्वर ने ये वचन नहीं कहे। न तो पुराने नियम में, न ही नए नियम में ऐसे स्पष्ट और सीधे-सादे ढंग से कहे हुए वचन हैं। बाइबल में परमेश्वर के वचनों का सिर्फ बहुत ही सीमित हिस्सा दर्ज है। परमेश्वर इस समय जो कह रहा है, उसे देखें तो विषयवस्तु बहुत समृद्ध है। मसीह-विरोधी तब मन-ही-मन में ईर्ष्या और जलन महसूस करते हैं और वे भीतर-ही-भीतर कुचक्र रचने लगते हैं : “यह साधारण व्यक्ति इतना अधिक बोल सकता है; मैं भी ये वचन कब बोल सकता हूँ? इस व्यक्ति की तरह मैं भी परमेश्वर के वचन कब अनवरत बोलता जा सकता हूँ?” उनके मन में ऐसा ही आवेग और कामना उठती है। उनके मन में इस आवेग और कामना को देखें, तो मसीह-विरोधी परमेश्वर के कहे इन वचनों के प्रति ईर्ष्या महसूस करते हैं और वे इन पर श्रद्धा रखने लगते हैं। मैं यहाँ “ईर्ष्या” और “श्रद्धा” शब्दों का उपयोग यह बताने के लिए कर रहा हूँ कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और उनके मन में इन्हें स्वीकार करने का इरादा नहीं होता, बल्कि उन्हें इन वचनों की समृद्ध विषयवस्तु, समग्र अंशों और इन वचनों की गहनता से भी ईर्ष्या होती है जो एक ऐसी गहराई को दिखाते हैं जहाँ मनुष्य नहीं पहुँच सकते—और यही नहीं, उन्हें इस बात से भी ईर्ष्या होती है कि ये ऐसे वचन हैं जो वे स्वयं नहीं बोल सकते। “ईर्ष्या” के इन पहलुओं से यह स्पष्ट है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के इन वचनों को दिव्यता की अभिव्यक्तियाँ, सत्य या ऐसा जीवन या सत्य नहीं मानते जिनके जरिए परमेश्वर मानवता को बचाना चाहता है या जिन्हें मानवता को प्रदान करना चाहता है। यह देखते हुए कि मसीह-विरोधी इन वचनों से ईर्ष्या कर सकते हैं, यह स्पष्ट है कि वे मन-ही-मन ऐसे वचन व्यक्त करने वाले व्यक्ति भी बनना चाहते हैं। इसी आधार पर बहुत-से मसीह-विरोधियों ने गुपचुप रूप से प्रचंड प्रयास किए हैं, वे रोज प्रार्थना करते हैं, इन वचनों को रोज पढ़ते हैं, नोट लेते हैं, रटते हैं, सारांश तैयार करते हैं और इन्हें व्यवस्थित करते हैं। परमेश्वर के कहे इन वचनों पर उन्होंने बहुत ज्यादा कार्य किया है, अनगिनत नोट्स तैयार किए हैं और अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान अनेक अंतर्दृष्टियों को कागज पर उतारा है और साथ ही इन वचनों को याद रखने के लिए अनगिनत बार प्रार्थना की है। यह सब करने के पीछे उनका उद्देश्य क्या है? यही कि एक दिन शायद उनके अंदर किसी प्रेरणा का सोता फूट जाए और वे परमेश्वर के संभावित वचनों को इस तरह अंतहीन रूप से कह सकें, जैसे किसी बाँध का मुहाना खुलता है; वे यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर के वचनों की तरह उनके वचन भी वह प्रदान कर सकें जिसकी लोगों को जरूरत है, लोगों को जीवन प्रदान कर सकें, वह प्रदान कर सकें जो लोगों को प्राप्त करना चाहिए और वे लोगों के सामने अपनी माँगें रख सकें। इसका उद्देश्य यह है कि परमेश्वर के देहधारण के समान वे परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य और रुतबे के साथ खड़े हो सकें और परमेश्वर के उसी लहजे और कहने के तरीके में वही बातें कह सकें जो वह कहता है, ठीक उसी तरह जैसा वे चाहते हैं। मसीह-विरोधियों ने इसमें बहुत सारे प्रयास झोंक दिए हैं और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि उनमें से कुछ तो अक्सर चुपचाप नोटबुक्स निकाल लेते हैं ताकि वे उन वचनों को दर्ज कर सकें जो वे कहना चाहते हैं, वे वचन जिन्हें परमेश्वर से प्राप्त करने का वे इंतजार कर रहे हैं। लेकिन वे चाहे कुछ भी करें, मसीह-विरोधियों की कामनाएँ हमेशा अधूरी रह जाती हैं, उनकी इच्छाएँ कभी साकार नहीं होतीं। वे चाहे कितने ही प्रयास झोंक दें, वे चाहे कितनी ही प्रार्थना कर लें, वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कितना ही दर्ज कर लें या इन्हें कितना ही रट और व्यवस्थित कर लें, यह सब व्यर्थ रहता है। परमेश्वर उनके माध्यम से एक भी वाक्य नहीं कहता, न ही परमेश्वर उन्हें एक बार भी अपनी आवाज सुनने देता है। वे चाहे कितने ही लालायित रहते हों या कितने ही व्यग्र हो जाएँ, वे परमेश्वर के वचनों का एक भी वाक्य नहीं बोल पाते। वे जितने ही ज्यादा व्यग्र या ईर्ष्यालु होते हैं, और अपने लक्ष्य को हासिल करने में जितने ही ज्यादा विफल रहते हैं, वे आंतरिक रूप से उतने ही ज्यादा चिढ़ जाते हैं। वे किस बारे में चिढ़े हुए हैं और वे इतने व्यग्र क्यों हैं? वे यह देखते हैं कि परमेश्वर के वचनों के कारण अधिक से अधिक लोग परमेश्वर के सामने आ रहे हैं ताकि वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकें, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार कर सकें, लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो उनके चरणों में, उनकी उपस्थिति में उनकी आराधना या प्रशंसा करे। वे इसी बात से व्यग्र और चिढ़े रहते हैं। इस चिढ़ और व्यग्रता के रहते अभी भी मसीह-विरोधी यही सोच और चिंतन कर पाते हैं : “ये लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य क्यों निभाते हैं? जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो यह अविश्वासियों की दुनिया से अलग क्यों होती है? ऐसा क्यों होता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद अधिकतर लोग उचित व्यवहार करने लगते हैं और धीरे-धीरे बेहतर होते जाते हैं? ऐसा क्यों है कि अधिकतर लोग परमेश्वर के घर में बिना किसी भरपाई के खुद को खपाते हैं और कीमत चुकाते हैं, और यहाँ तक कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे छोड़कर नहीं जाते और कुछ तो बहिष्कृत या निष्कासित होने पर भी छोड़कर नहीं जाते? मूल रूप से इसका एकमात्र कारण परमेश्वर के वचन ही हैं, यह ‘वचन देह में प्रकट होता है’ का प्रभाव और उसकी भूमिका है।” मसीह-विरोधियों को जब यह बात समझ में आती है तो वे परमेश्वर के वचनों से और भी अधिक ईर्ष्या करने लगते हैं। इसलिए इतनी सारी कोशिश करने के बावजूद परमेश्वर के वचन बोलने या परमेश्वर का प्रवक्ता बनने में असमर्थ रहने पर मसीह-विरोधी अपना ध्यान परमेश्वर के वचनों पर केंद्रित करते हैं : “वैसे तो मैं परमेश्वर के कहे वचनों के अलावा और कोई वचन नहीं बोल सकता, फिर भी अगर मैं ऐसे वचन बोल सकूँ तो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हों—भले ही ये सिर्फ धर्म-सिद्धांत या खोखले हों—अगर ये लोगों को सुनने में सही लगें, अगर ये परमेश्वर के इन वचनों के अनुरूप हों तो फिर क्या मैं लोगों के बीच अपनी जगह नहीं बना लूँगा? क्या मैं उनके बीच दृढ़ता से खड़ा नहीं रह सकता? या अगर मैं ‘वचन देह में प्रकट होता है’ के वचनों का अक्सर प्रचार कर इन्हें समझाऊँ, लोगों की मदद करने के लिए अक्सर इन वचनों का इस्तेमाल करूँ और अगर मैं जो कुछ भी कहूँ और प्रचार करूँ वह सुनने में ऐसा लगे कि मानो यह परमेश्वर के वचनों से आता है और सही है, तो क्या तब लोगों के बीच मेरा रुतबा अधिकाधिक स्थायी नहीं हो जाएगा? क्या उनके बीच मेरी इज्जत नहीं बढ़ जाएगी?” यह सोचकर मसीह-विरोधियों को लगता है कि उन्हें रुतबा, अधिकाधिक प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त करने की अपनी इच्छाएँ साकार करने का रास्ता मिल गया है और उन्हें इसे हासिल करने की उम्मीद दिखती है। उम्मीद देखकर मसीह-विरोधी मन-ही-मन चुपचाप खुश होते हैं : “मैं कितना चतुर हूँ? किसी और को इसका बोध नहीं है; दूसरों को यह रास्ता क्यों नहीं सूझता? मैं बेहद होशियार हूँ! लेकिन मैं इतना चतुर हूँ कि इस बारे में किसी को नहीं बता सकता; इतना ही काफी है कि मैं इसे मन-ही-मन जानता हूँ?” मन में ऐसे उद्देश्य और योजना के साथ मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में गंभीर प्रयास करना शुरू करते हैं। उन्हें लगता है, “पहले मैं परमेश्वर के वचनों पर बस सरसरी निगाह फेरता था, इन्हें हल्के-फुल्के ढंग से सुनता था और मन में जो कुछ आता था वह कह देता था। अब मुझे अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी; अब मैं ऐसा नहीं करते रह सकता, यह समय की बर्बादी है। ऐसा करते रहने से पहले कोई नतीजे नहीं मिले; इस तरह जारी रखना वास्तव में बेवकूफी होगी!” इसलिए वे अपनी कमर कसते हैं और परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करने और अपनी क्षमताओं का शानदार नजारा पेश करने का निश्चय करते हैं। अपनी क्षमताओं का शानदार नजारा पेश करने के लिए मसीह-विरोधी कौन-से क्रिया-कलाप करते हैं? वे परमेश्वर के बोलने के तरीके और उसके लहजे की जाँच-पड़ताल करते हैं और हर चरण और दौर में परमेश्वर के वचनों की विशिष्ट विषयवस्तु की भी जाँच-पड़ताल करते हैं। साथ ही वे यह तैयारी भी करते हैं कि परमेश्वर के इन वचनों को कैसे समझाया जाए और जब वे परमेश्वर के वचनों का उपदेश दें तो इन्हें किस प्रकार कहें और समझाएँ ताकि लोग उनकी सराहना करें और उन्हें अपना आदर्श मानें। इस तरह धीरे-धीरे करके मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में वाकई बहुत सारा प्रयास झोंकते हैं। लेकिन एक बात तय है : चूँकि इस प्रयास के पीछे उनके मंसूबे गलत होते हैं और उनके इरादे बुरे होते हैं, इसलिए उनके कहे वचनों को दूसरे लोग चाहे कैसे भी सुनें, वे सिर्फ धर्म-सिद्धांत होते हैं, वे परमेश्वर की वाणी के सिर्फ नकल किए हुए शब्द और वाक्यांश होते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में चाहे कितना ही अधिक प्रयास झोंक दें, खुद उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता। कोई लाभ न होने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते। वे अभ्यास नहीं करते, बल्कि सिर्फ उपदेश देते हैं, इसलिए किसी को भी उनमें कोई बदलाव नजर नहीं आता है। उनके त्रुटिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण नहीं बदलते, जीवन को लेकर उनका गलत नजरिया नहीं बदलता, उन्हें अपने ही भ्रष्ट स्वभावों की कतई कोई समझ नहीं होती और परमेश्वर ने मनुष्य की जो विभिन्न दशाएँ बताई हैं उनकी कसौटी पर खुद को कसने में वे पूरी तरह विफल रहते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों की चाहे कितनी भी जाँच-पड़ताल कर लें, उनमें केवल दो परिणाम दिखाई देते हैं : पहला, भले ही वे परमेश्वर के जो वचन कहते हैं वे सही हों और भले ही इन वचनों की उनकी व्याख्या भी गलत न हो, लेकिन तुम उनमें कोई बदलाव नहीं देख पाते। दूसरा, वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कितने ही जोर-शोर से बढ़ावा दें या इनका उपदेश दें, उन्हें किंचित भी आत्मज्ञान नहीं होता। यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मसीह-विरोधियों के ऐसा व्यवहार दिखाने के पीछे कारण यह होता है कि भले ही वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को बढ़ावा देकर इनका उपदेश दें, लेकिन वे खुद यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। उन्होंने खुद इन वचनों को स्वीकार नहीं किया है; वे सिर्फ अपने गुप्त मंसूबों को पूरा करने के लिए इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं। परमेश्वर के वचनों का उपदेश देकर वे मनचाहा रुतबा और फायदा पाना चाहते हैं और अगर लोग परमेश्वर मानकर उनसे व्यवहार करें और उनकी आराधना करें तो यह उनके लिए सबसे अच्छी बात होगी। वैसे तो वे अब भी इस उद्देश्य या नतीजे को हासिल नहीं कर सकते, लेकिन हर मसीह-विरोधी का यही अंतिम लक्ष्य होता है।

मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वचनों में बहुत सारा प्रयास झोंक दिया है; यह सुनकर कुछ लोग गलतफहमी में आकर पूछ सकते हैं : “क्या इसका यह मतलब है कि जो भी व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करता है वह एक मसीह-विरोधी है?” अगर तुम इसे इस ढंग से समझते हो तो तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों में लगाए गए प्रयास और सत्य का अनुसरण करने वालों के प्रयास में क्या अंतर है? (इरादा और उद्देश्य अलग हैं। मसीह-विरोधी अपने निजी लाभ और रुतबे के लिए, अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाएँ पूरी करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करते हैं।) मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में कौन-से प्रयास लगाते हैं? वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले परमेश्वर के वचनों के हिस्से रटते हैं, मानवीय भाषा का इस्तेमाल कर परमेश्वर के वचनों को समझाना सीखते हैं और कुछ आध्यात्मिक नोट्स और अंतर्दृष्टियों को लिख लेते हैं। वे परमेश्वर के विभिन्न कथनों को छानते भी हैं, इनका निचोड़ तैयार करते हैं और इन्हें व्यवस्थित करते हैं, जैसे वे कथन जिन्हें लोग अपेक्षाकृत मानवीय धारणाओं के अनुरूप मानते हैं, जिनमें परमेश्वर के कहने का लहजा आसानी से दिखता है, रहस्य संबंधी कुछ वचन और परमेश्वर के कुछ ऐसे लोकप्रिय वचन जिनका कुछ समय से कलीसिया में अक्सर उपदेश दिया जाता है। अंतर्दृष्टियों को रटने, व्यवस्थित करने, इनका निचोड़ तैयार करने और इन्हें लिखने के अलावा भी बेशक कई और अजीब-सी हरकतें भी होती हैं। मसीह-विरोधी अपना रुतबा पाने, अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने और कलीसिया को नियंत्रित करने और परमेश्वर बनने का अपना लक्ष्य पूरा के लिए हर कीमत चुकाएँगे। वे अक्सर देर रात तक काम करते हैं और पौ फटते ही जाग जाते हैं, वे रतजगा करते हैं और सवेरे-सवेरे अपने उपदेशों का पूर्वाभ्यास करते हैं, वे दूसरों की कही शानदार बातों को नोट भी करते हैं, ताकि खुद को उस सिद्धांत से लैस कर सकें जिसके बारे में उन्हें भारी-भरकम उपदेश देने हैं। वे हर दिन यही सोचते हैं कि भारी-भरकम उपदेश किस तरह देने हैं, परमेश्वर के कौन-से वचनों का चयन सबसे उपयोगी रहेगा, किन वचनों से परमेश्वर के चुने हुए लोगों से सराहना और प्रशंसा मिलेगी, और फिर वे उन वचनों को रट लेते हैं। फिर वे यह विचार करते हैं कि उन वचनों की व्याख्या इस तरह कैसे की जाए कि उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमानी झलके। परमेश्वर के वचनों को वास्तव में अपने हृदय पर अंकित करने के लिए वे उन्हें कई गुना ज्यादा सुनने का प्रयास करते हैं। यह सब करने के लिए वे वैसे ही प्रयास करते हैं, जैसे प्रयास छात्र कॉलेज में उच्च स्थान प्राप्त करने की होड़ में करते हैं। जब कोई अच्छा उपदेश देता है या कुछ रोशनी प्रदान करने वाला या कुछ सिद्धांत प्रदान करने वाला उपदेश देता है, तो मसीह-विरोधी उसे याद और संकलित कर लेगा और उसे अपने उपदेश में शामिल कर लेगा। मसीह-विरोधी के लिए कोई भी प्रयास बहुत बड़ा नहीं होता। तो उनकी इस कोशिश के पीछे क्या मकसद और मंशा होती है? वह है : परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने, इन्हें सहज और स्पष्ट रूप से कहने और उन पर धाराप्रवाह पकड़ रखने में सक्षम होना, ताकि दूसरे लोग देख सकें कि मसीह-विरोधी उनसे अधिक आध्यात्मिक है, परमेश्वर के वचनों को अधिक सँजोने वाला है, परमेश्वर से अधिक प्रेम करने वाला है। इस तरह से मसीह-विरोधी अपने आस-पास के कुछ लोगों से सराहना बटोर कर अपनी आराधना करवा सकता है। मसीह-विरोधी को लगता है कि यह करने योग्य चीज है और किसी भी प्रयास, कीमत या कठिनाई के लायक है। दो, तीन, पाँच साल से भी ज्यादा समय तक ये प्रयास करने के बाद मसीह-विरोधी धीरे-धीरे परमेश्वर के बोलने के तरीके और उसके वचनों की विषयवस्तु और लहजे से अधिकाधिक परिचित हो जाते हैं; कुछ मसीह-विरोधी तो परमेश्वर के वचनों की नकल भी उतार सकते हैं या अपना मुँह खोलते ही इनके कुछ वाक्य सुना सकते हैं। निस्संदेह उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण चीज नहीं होती। सबसे महत्वपूर्ण क्या होता है? चूँकि वे जब जी में आए तब परमेश्वर के वचनों की नकल उतारने और इन्हें सुनाने में सक्षम होते हैं, इसलिए उनके बोलने का तरीका, लहजा और यहाँ तक कि स्वरशैली भी अधिकाधिक परमेश्वर के समान होने लगती है, अधिकाधिक मसीह की तरह होने लगती है। मसीह-विरोधी मन-ही-मन इस बात पर जश्न मनाते हैं। वे किस बात का जश्न मनाते हैं? वे अधिकाधिक महसूस करते हैं कि परमेश्वर होना कितना अद्भुत होगा, जब इतने सारे लोग उन्हें अपना आदर्श मानकर घेरे होंगे—यह कितने गौरव की बात होगी! वे इन सारी उपलब्धियों का श्रेय परमेश्वर के वचनों को देते हैं। वे मानते हैं कि ये परमेश्वर के वचन ही हैं जिन्होंने उन्हें अवसर दिया है, उन्हें प्रेरित किया है और इससे भी अधिक परमेश्वर के वचनों के कारण ही उन्होंने परमेश्वर के बोलने के तरीके और परमेश्वर के लहजे को सीखा है। इसके कारण वे अंततः खुद को अधिकाधिक परमेश्वर जैसा महसूस करने लगते हैं, वे परमेश्वर की पहचान और दरजे की ओर बढ़ते जाते हैं। यही नहीं, इससे उन्हें लगता है कि परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे की नकल कर पाना, परमेश्वर के बोलने के तरीके और स्वरशैली के साथ बोलना और जीना अत्यंत सुखदायी है, यह उनके लिए सर्वाधिक सुखद क्षण है। मसीह-विरोधी इस बिंदु तक पहुँच चुके हैं—क्या तुम लोग कहोगे कि यह खतरनाक है? (हाँ।) खतरा कहाँ है? (वे परमेश्वर बनना चाहते हैं।) परमेश्वर बनने की चाह खतरनाक है, ठीक पौलुस की तरह, जिसने कहा था कि उसके लिए जीना मसीह है। ऐसे शब्द कहते ही व्यक्ति उद्धार के परे हो जाता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर बनने का रास्ता मानते हैं। इस प्रक्रिया में मसीह-विरोधियों ने क्या कर डाला है? उन्होंने परमेश्वर के वचनों में बहुत सारा प्रयास किया है, बहुत सारी ऊर्जा और समय लगाया है। इस दौरान उन्होंने परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण कर उन्हें बारम्बार पढ़ा, रटा और व्यवस्थित किया। उन्होंने तो परमेश्वर के वचन पढ़ते समय, खासकर परमेश्वर की वाणी के आम प्रचलित वाक्यांश पढ़ते समय उसके बोलने के तरीके और लहजे की भी नकल की। इन सब क्रिया-कलापों का सार क्या है? यहाँ मैं इसे एक ऐसे व्यापारी के सार में रूप में बताऊँगा जो थोक भाव में सामान खरीदता है; यानी मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अपने स्वामित्व वाली भौतिक चीज में बदलने के लिए सबसे सस्ता तरीका अपनाते हैं। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो इन्हें सत्य के रूप में नहीं स्वीकारते, न ही वे इसे एक ऐसा मार्ग मानते हैं जिसमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए और जिसे ऐसा मानना चाहिए। बल्कि वे इन वचनों को, इन्हें बोलने के तरीके और लहजे को याद करने के लिए हर तरीके से कोशिश करते हैं, उनकी कोशिश यही रहती है कि वे खुद को ऐसे वचन व्यक्त करने वाले व्यक्तियों में बदल दें। मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करने में सक्षम हो जाते हैं, बोलने के इस तरीके और लहजे का अपनी बोली और कार्य-कलापों में पूरी तरह से उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं तो लोगों के बीच रहते हुए उनका लक्ष्य अपना कर्तव्य निभाने के प्रति वफादारी अर्जित करना नहीं होता, सिद्धांतों के साथ कार्य करना नहीं होता या परमेश्वर के प्रति वफादार होना नहीं होता। बल्कि परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करके और परमेश्वर के इन वचनों का प्रचार करके वे लोगों के दिल में गहरे उतरकर उनके लिए आराधना की वस्तु बनना चाहते हैं। वे लोगों के दिलों में सिंहासन पर बैठकर वहाँ राजाओं की तरह राज करने की आकांक्षा रखते हैं और लोगों के विचारों और व्यवहारों को तोड़-मरोड़कर उनके जरिए लोगों को नियंत्रित करने का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं।

अगर हम परमेश्वर के वचनों में प्रयास करने वाले मसीह-विरोधियों की तुलना ऐसे व्यापारियों के रूप में करें जो परमेश्वर के वचनों को वस्तुएँ मानकर सस्ते में खरीदते हैं तो क्या परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने के लिए मसीह-विरोधियों का उसकी वाणी की नकल करना, उसके बोलने का तरीका और लहजा अपनाना परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु के रूप में बेचने के समान नहीं है? (हाँ, है।) हर व्यापारी बेचने के लिए ही सामान खरीदता है। ये चीजें जुटाकर अपने पास रखने का उसका उद्देश्य इनसे ऊँचे से ऊँचा मुनाफा कमाना और ज्यादा से ज्यादा पैसे के बदले लेन-देन करना है। इस तरह परमेश्वर के वचनों में मसीह-विरोधियों का विस्तृत प्रयास और उनके प्रति उनका रवैया उन मसीह-विरोधियों से अलग नहीं है जो व्यापारी के रूप में सबसे सस्ते, सबसे किफायती और सबसे फायदेमंद साधनों का उपयोग कर उन्हें हासिल करते हैं, उन्हें अपनी संपत्ति बनाते हैं और फिर मनचाहे फायदे लेने के लिए उन्हें ऊँची कीमत पर बेच देते हैं। और ये फायदे क्या होते हैं? यही कि लोग उन्हें उच्च सम्मान दें, उन्हें अपना आराध्य मानें, उनकी स्तुति करें और खासकर उनका अनुसरण करें। इसलिए कलीसिया में ऐसा दृश्य आम होता है जहाँ मूल रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास न करने वाले और खुद को न जानने वाले व्यक्ति के बहुत से अनुयायी होते हैं, कई लोग उस पर भरोसा करते हैं और उसे अपना आराध्य मानते हैं। इसका क्या कारण है? यही कि यह व्यक्ति चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, मुखर होता है और लोगों को आसानी से गुमराह कर देता है। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते, न ही कार्यों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालते हैं और वे कलीसिया के कार्य और ऊपरवाले की ओर से व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने में भी नाकाम रहते हैं। तो फिर भी वे कुछ लोगों पर अच्छा प्रभाव क्यों जमा पाते हैं? जब उन पर वाकई कुछ आफत आती है तो उन्हें बचाने के लिए क्यों बहुत-से लोग उनकी ढाल बन जाते हैं? उनके अगुआ होने पर बहुत-से लोग उनका बचाव क्यों करते हैं? उन्हें हटाए जाने के आड़े आकर कुछ लोग विरोध क्यों करने लगते हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो दोषों से भरा है, शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरा है और जो कभी सत्य का अभ्यास नहीं करता, फिर भी वह कलीसिया में ऐसा सम्मान क्यों पा लेता है, इसका कारण केवल यही है कि वह बोलने में बेहद कुशल है, दिखावा करने में बहुत अच्छा है और लोगों को गुमराह करने में पारंगत है—मसीह-विरोधी ठीक ऐसे ही लोग होते हैं। तो क्या हम कह सकते हैं कि ऐसे लोग मसीह-विरोधी हैं? हाँ, ऐसे लोग निश्चित रूप से मसीह-विरोधी हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, अक्सर इन्हें रटते और प्रचारित करते हैं, अक्सर दूसरों को उपदेश झाड़ते और उनकी काट-छाँट करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करते हैं, लोगों को उपदेश झाड़ने के लिए परमेश्वर का परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाते हैं, लोगों को पूरी तरह से अपने प्रति आज्ञाकारी और समर्पित बनाते हैं और भारी-भरकम धर्म-सिद्धांत सुनाकर उन्हें अवाक कर देते हैं। फिर भी ऐसे लोग कभी भी खुद को नहीं जानते और कभी भी सिद्धांतों के अनुसार चीजों को नहीं सँभालते। अगर वे एक अगुआ हैं तो उनके वरिष्ठ अगुआ अप्रभावी हो जाते हैं। उनकी अगुआई में कलीसिया की स्थिति को समझना असंभव हो जाता है। उनके मौजूद रहते परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ, परमेश्वर के घर के निर्धारित सिद्धांत और अपेक्षाएँ लागू नहीं की जा सकती हैं। क्या ऐसे लोग मसीह-विरोधी नहीं हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं मानते।) उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़ने में अपने प्रयास झोंके हैं और इनमें से कुछ को सुना भी सकते हैं। सभाओं में संगति के दौरान वे अक्सर परमेश्वर के वचनों का उल्लेख करते हैं और फुर्सत मिलने पर परमेश्वर के वचनों की सस्वर रिकॉर्डिंग सुनते हैं। दूसरों से बात करते समय वे परमेश्वर के वचनों की मात्र नकल करते हैं, और कुछ नहीं कहते। वे जो कुछ भी उपदेश देते हैं और कहते हैं वह बेदाग होता है। ऊपरी तौर पर ऐसे बहुत ही पूर्ण दिखने वाले, तथाकथित “सही व्यक्ति” के पास जब परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं, अपेक्षाओं और सिद्धांतों के मामले पहुँचते हैं तो उसके कारण ये रुक जाते हैं। उसके मातहत लोग उसके अलावा किसी को नहीं मानते। उसके मातहत लोग उस पर और स्वर्ग में अज्ञात परमेश्वर पर श्रद्धा रखने के सिवाय किसी और की नहीं सुनते और हरेक की अनदेखी करते हैं। क्या यह एक मसीह-विरोधी नहीं है? उसने यह सब हासिल करने के लिए कौन-से साधनों का इस्तेमाल किया है? उसने परमेश्वर के वचनों का दोहन किया है। जो लोग अपनी आस्था में भ्रमित हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है, जो अज्ञानी हैं, जिनके विचार उलझे हुए हैं, साथ ही जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, छद्म-विश्वासी हैं और जो हवा से डोलने वाले सरकंडों जैसे हैं, वे मसीह-विरोधी को आध्यात्मिक व्यक्ति मानते हैं। वे मसीह-विरोधी द्वारा प्रचारित शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को सत्य वास्तविकता मानते हैं और मसीह-विरोधी को अपने अनुसरण का लक्ष्य मानते हैं। मसीह-विरोधी का अनुसरण करते हुए वे यह विश्वास करते हैं कि वे परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। वे परमेश्वर के अनुसरण की जगह मसीह-विरोधी का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “हमारे अगुआ ने अभी तक कुछ नहीं कहा या संगति नहीं की; भले ही हम परमेश्वर के वचनों को पढ़ें, हम इन्हें खुद नहीं समझ सकते।” “हमारा अगुआ यहाँ नहीं है—हम किसी चीज को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं लेकिन हमें रोशनी नहीं मिल पाती; हम परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं लेकिन मार्ग को नहीं समझ पाते। हमें अपने अगुआ के लौटने का इंतजार करना होगा।” “हमारा अगुआ इन दिनों व्यस्त चल रहा है और उसके पास हमारे मसले हल करने के लिए समय नहीं है।” अपने स्वामी के बिना ये लोग नहीं जानते कि प्रार्थना कैसे करें या परमेश्वर के वचन कैसे खाएँ और पिएँ, वे परमेश्वर को खोजना और उस पर भरोसा करना नहीं सीखते या अपने बलबूते परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग खोजना नहीं सीखते। अपने स्वामी के बिना वे अंधे लोगों के समान होते हैं, मानो उनके दिल खोदकर निकाल दिए गए हों। उनका स्वामी ही उनकी आँखें होता है, साथ ही उनका दिल और फेफड़े भी होता है। उन्हें यह विश्वास है कि उनका स्वामी परमेश्वर के वचन खाने-पीने में सबसे अच्छा है; अगर उनका स्वामी उनके पास नहीं है तो परमेश्वर के वचन खुद खाने-पीने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती और इनका प्रार्थना-पाठ करने और व्याख्या करने के लिए वे अपने स्वामी के लौटने का इंतजार करेंगे जिससे वे इन वचनों को समझ सकें। वे दिल की गहराई से मानते हैं कि उनका स्वामी उनका दूत है जो उन्हें परमेश्वर के समक्ष आने में मदद कर सकता है। ऐसी “धाक” जम जाए तो मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराई में फूले नहीं समाते : “मेरी इतने बरसों की कोशिश आखिर कामयाब रही; आखिरकार मैंने जो समय बिताया वह बेकार नहीं गया। जो लोग मजबूती से जुटे रहते हैं उन्हें वास्तव में कोशिश का सिला मिलता है—लोहे की छड़ को भी लगातार पीट-पीटकर सुई में बदला जा सकता है। यह कोशिश उपयोगी रही!” यह सुनकर कि उनके अनुयायी उनके बिना नहीं जी सकते, मसीह-विरोधी अपने अंदर कोई अपराध-बोध महसूस नहीं करते। बल्कि वे मन-ही-मन खुश होकर यह सोचते हैं, “परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से महान हैं। तब मेरा निर्णय सही था; इन वर्षों में मैंने जो कोशिश की वह सही थी और मेरे इन वर्षों के दृष्टिकोण की पुष्टि हो गई और यह फलीभूत हो गई है।” उनके मन में लड्डू फूटने लगते हैं। उन्हें अपने बुरे कार्यों के लिए कोई अपराधबोध, पछतावा या घृणा महसूस होना तो दूर रहा, वे इस बात से और भी अधिक आश्वस्त और निश्चिंत हो जाते हैं कि उनका दृष्टिकोण सही है। इसलिए आने वाले समय में, अपने भावी जीवन में वे पहले की तरह ही परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे का अध्ययन करने की योजना बनाते हैं, पहले की तुलना में ऐसा और ज्यादा मेहनत-लगन से करना चाहते हैं और परमेश्वर के बोलने के ढंग और शब्द-चयन की और भी अधिक विस्तृत ढंग से और गहराई से नकल करना चाहते हैं।

जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनका ध्यान और उनके इरादे सत्य का अनुसरण करने वालों से बिल्कुल विपरीत होते हैं। परमेश्वर के बोलने का ढंग चाहे जैसा हो, सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की रुचि केवल यह समझने में होती है कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, सत्य-सिद्धांत क्या हैं और लोगों को क्या बनाए रखना और अनुसरण करना चाहिए। इसके विपरीत मसीह-विरोधी इन बातों पर विचार न कर इन्हें अनदेखा कर देते हैं, उन्हें तो इन बातों से जुड़े वाक्यांशों से भी अरुचि होती है और वे इन बातों से संबंधित वाक्यांशों और शब्दों का गुपचुप खंडन करते हैं। कुछ निश्चित “नतीजे” मिलने के बाद वे परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे, उसके स्वराघात की बारीकियों, उसके शब्द-चयन की और भी अधिक गहराई और सावधानी से जाँच-पड़ताल करते जाते हैं, यहाँ तक कि वे उसके व्याकरण और सामान्य वाक्यविन्यास के विवरणों को भी नहीं छोड़ते और पहले जैसा ही दृष्टिकोण अपनाते हैं। अपने लक्ष्य के करीब पहुँचने के लिए मसीह-विरोधी मन में चुपचाप परमेश्वर के वचनों की और भी अधिक गहनता और गहराई से जाँच-पड़ताल करने का संकल्प लेते हैं, परमेश्वर की वाणी के लक्ष्यों और उद्देश्यों के साथ ही यहाँ तक जाँच-पड़ताल करते हैं कि मानवजाति और पूरे ब्रह्मांड को संबोधित करने वाला यह वक्ता—परमेश्वर—खुद को किस तरह से अभिव्यक्त करता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के बोलने के हर पहलू की अथक जाँच-पड़ताल करते हैं, परमेश्वर की वाणी की नकल करने का प्रयास करते हैं और यह दिखावा करते हैं कि उनके पास परमेश्वर का सार है, वह है जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, और उनके पास परमेश्वर का स्वभाव है। यह सब होना बहुत स्वाभाविक और सहज लगता है; वे अपने लक्ष्यों की दिशा में सहज रूप से कार्य और आचरण करते हैं और—सहज रूप से और इसे महसूस किए बिना ही—खुद को परमेश्वर में बदल देते हैं, एक ऐसी हस्ती में बदल देते हैं जिसे दूसरे सराहें और उसका अनुसरण करें। वे यह जाँच-पड़ताल करते हैं कि परमेश्वर के वचन कैसे लोगों के दिल को छूते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं, कैसे परमेश्वर के वचन लोगों की विभिन्न दशाओं को उजागर करते हैं और इससे भी अधिक यह कि परमेश्वर के वचन लोगों पर कैसे प्रभाव डालते हैं। इस सबकी जाँच-पड़ताल करने का उनका मकसद क्या होता है? मकसद यही है कि लोगों के दिल में प्रवेश किया जाए, उनकी वास्तविक स्थितियों पर पकड़ बनाई जाए, और फिर उनके आंतरिक विचारों को अच्छी तरह से समझते हुए उन्हें गुमराह और नियंत्रित किया जाए। जब परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर उनकी कमजोरियों पर चोट करते हैं तो मसीह-विरोधी सोचते हैं, “ये वचन, ये तरीका बहुत महान और अद्भुत है! मैं भी इसी तरह बोलना चाहता हूँ, मैं बोलने का यही तरीका अपनाना चाहता हूँ और लोगों से इसी तरह पेश आना चाहता हूँ।” बरसों-बरस परमेश्वर के वचन पढ़ने और उनसे परिचित होने के दौरान मसीह-विरोधी परमेश्वर बनने की अपनी इच्छा और कामना को परमेश्वर में विश्वास करने का अपना एकमात्र लक्ष्य मान लेते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचन चाहे कैसे भी यह बताएँ कि लोगों को सत्य का अनुसरण करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की जरूरत है, साथ ही चाहे कैसे भी सकारात्मक चीजों से जुड़ीं तमाम दूसरी वास्तविकताओं के बारे में बताएँ, मसीह-विरोधी इसे आत्मसात न कर इसकी उपेक्षा करते हैं। वे एकचित्त होकर अपने ही उद्देश्य का पीछा करते हैं, क्रिया-कलापों की अपनी प्रेरणाओं के अनुसार वही करते हैं जो वे चाहते हैं, मानो कोई और मायने ही नहीं रखता। परमेश्वर के वचनों का एक भी वाक्य उनके दिलों को प्रेरित नहीं करता या जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण और सांसारिक आचरण के उनके फलसफे को नहीं बदलता—परमेश्वर का कोई वाक्य, कोई धर्मोपदेश या कोई भी कथन उनके दिल में पश्चात्ताप की भावना तो और भी नहीं जगाता। परमेश्वर के वचन चाहे जो भी उजागर करें, चाहे वे मनुष्य के किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करें, मसीह-विरोधी केवल परमेश्वर के बोलने के ढंग, उसके लहजे, लोगों पर परमेश्वर के वचनों के वांछित प्रभाव आदि की ही जाँच-पड़ताल करते हैं—ये सभी मामले सत्य से असंबंधित हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का जितना ज्यादा सामना करते हैं, परमेश्वर बनने की उनकी आंतरिक इच्छा उतनी ही प्रबल होती जाती है। यह इच्छा कितनी तीव्र होती है? यह इस हद तक तीव्र हो जाती है कि वे अपने सपनों में भी परमेश्वर के वचन दोहराने लगते हैं, अक्सर खुद से बातें करते हैं और परमेश्वर के बोलने का ढंग और लहजा अपनाकर उसके वचनों का उपदेश देने का अभ्यास करते हैं। अपने दिल की गहराई में वे परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे को लगातार दोहराते रहते हैं, मानो उन पर कोई प्रेत सवार हो। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी विशिष्ट, ईमानदार या सच्चे क्यों न हों, चाहे वे लोगों को कितनी भी मदद या प्रेरणा क्यों न दें, मसीह-विरोधी इस सबके प्रति उदासीन रहते हैं और इसकी उपेक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के इन वचनों को महत्व नहीं देते। उनका दिल कहाँ होता है? वह इस बात पर लगा रहता है कि परमेश्वर के वचनों की नकल कैसे इस ढंग से करें कि लोग उन्हें पूजें। उनकी इच्छा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वे यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर की वाणी सुन सकें और परमेश्वर के कहे हर वाक्य के पीछे के उद्देश्य, इच्छा और विचारों को समझ सकें—यहाँ तक कि उसकी अंतरतम सोच को भी समझ सकें। मसीह-विरोधियों की इच्छाएँ और कामनाएँ जितनी ज्यादा प्रबल होती जाती हैं, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के बोलने के ढंग की नकल करना चाहते हैं और उतना ही अधिक उनकी यह आकांक्षा होती है कि वे तेजी से खुद को बदलकर परमेश्वर के और अधिक समान बन जाएँ, परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे को अपना लें। यही नहीं, कुछ लोग अपने कार्य-कलापों में परमेश्वर की शैली और आचरण को अपनाना चाहते हैं। मसीह-विरोधी ऐसी ही स्थिति में रहते हैं, हर दिन इन विचारों, खयालों, इरादों और उद्देश्यों के तहत जी रहे होते हैं। वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर बनने, मसीह बनने के मार्ग पर चलने के लिए खुद को रोज बाध्य कर रहे होते हैं। वे इसे निष्कपट मार्ग मानते हैं, एक उज्ज्वल मार्ग मानते हैं। इसलिए सभाएँ हों या मिलन समारोह, दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने के बारे में अपनी भावनाओं को लेकर चाहे कैसे भी संगति कर लें, मसीह-विरोधियों को कुछ भी प्रेरित नहीं कर पाता या उनके उद्देश्यों और इच्छाओं को नहीं बदल पाता। वे मसीह बनने की राह पर, परमेश्वर बनने की दिशा में ऐसे आगे बढ़ते हैं, मानो उन पर प्रेत सवार हो, मानो वे किसी अदृश्य शक्ति के वश में हों, मानो कि वे अदृश्य बेड़ियाँ पहने हों। यह कैसी मानसिकता है? क्या यह घिनौनी नहीं है? (है।)

परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उनके हर पहलू को मसीह-विरोधी अपनी संपत्ति की तरह ग्रहण करते हैं, उन्हें ऐसी वस्तुएँ मानते हैं जिनसे वे ऊँचे से ऊँचा मुनाफा और अधिक से अधिक पैसा कमा सकते हैं। जब इन वस्तुओं को बेचा जाता है, जब इन चीजों का दिखावा किया जाता है, तो उन्हें मनचाहा मुनाफा मिलता है। वे जितना अधिक ऐसा करते हैं, आंतरिक रूप से वे उतना ही अधिक संतुष्ट महसूस करते हैं; जितना अधिक वे ऐसा करते हैं, उनकी परमेश्वर बनने की इच्छा उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। यह कैसा रवैया है, कैसी स्थिति है? परमेश्वर बनने की मसीह-विरोधियों की इच्छा इतनी प्रबल क्यों होती है? क्या किसी ने उन्हें यह पट्टी पढ़ाई है? उन्हें किसने उकसाया या निर्देश दिया है? क्या परमेश्वर के वचन ऐसी माँग करते हैं? (नहीं।) यह राह मसीह-विरोधियों ने खुद चुनी है। यद्यपि उनको कोई बाहरी मदद नहीं मिल रही है, फिर भी वे इतने अधिक प्रेरित हैं—ऐसा क्यों है? यह उनके प्रकृति सार से तय होता है। मसीह-विरोधी किसी बाहरी मदद के बिना ही अथक रूप से, बेहिचक और निर्लज्ज होकर इस राह पर चलते रहते हैं; तुम उनकी चाहे जितनी निंदा कर लो, इससे कोई फायदा नहीं होता; चाहे तुम उनका कितना ही गहन विश्लेषण कर लो, वे इसे ग्रहण नहीं करते या समझते नहीं हैं; मानो वे किसी के वशीभूत हों। ये चीजें उनकी प्रकृति से तय होती हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का व्यवहार ऊपरी तौर पर प्रतिरोधी या निंदनीय नहीं लगता। वे औसत व्यक्ति से भी अधिक मेहनत करते हैं। अगर तुम यह नहीं जानते कि वे आंतरिक रूप से क्या सोच रहे हैं या वे किस राह पर चल रहे हैं, तो बाहरी दिखावों के आधार पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका व्यवहार ललक भरा है—इस शब्द का उपयोग कम-से-कम यह बताने के लिए तो किया ही जा सकता है। लेकिन क्या किसी व्यक्ति का सार केवल उसके बाहरी दिखावों से देखा जा सकता है? (नहीं।) तो इसे कहाँ देखा जा सकता है? भले ही ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों के लिए लालायित रहते हैं, अक्सर उन्हें पढ़ते और सुनते हैं और उन्हें कंठस्थ तक करते हैं, और भले ही इन बाहरी क्रिया-कलापों के आधार पर आकलन कर उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत नहीं करना चाहिए, लेकिन जब वास्तविक स्थितियों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने की बात आती है तो क्या वे ऐसा करते हैं? (नहीं।) परमेश्वर के वचन पढ़ने और रटने के बाद जब उनका सामना वास्तविक स्थितियों से होता है, तो हो सकता है कि वे कभी-कभी परमेश्वर के वचनों का कोई अंश या कुछ वाक्य सुना दें, यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा सटीक रूप से भी कर सकते हैं। लेकिन जब वे परमेश्वर के वचन सुना दें तो यह देखो कि फिर वे क्या करते हैं, वे कौन-सा रास्ता अपनाते हैं और स्थितियों का सामना करते समय कौन-से विकल्प चुनते हैं। अगर इसका संबंध उनके रुतबे या किसी ऐसी चीज से है जो उनकी प्रतिष्ठा या छवि को नुकसान पहुँचा सकती है, तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कतई काम नहीं करेंगे। वे अपनी छवि और रुतबे की रक्षा करेंगे। अगर वे कुछ गलत करते हैं तो वे इसे बिल्कुल भी नहीं कबूलेंगे। बल्कि इस मसले को छिपाने या इससे बचने के लिए वे तमाम तरीके ढूँढ़ लेंगे, इसका जिक्र नहीं करेंगे और यहाँ तक कि अपनी गलती कबूलने के बजाय अपने किए का दोष दूसरों पर मढ़ देंगे। वे परमेश्वर के वचन पढ़ने और अपना रुतबा बचाने में मेहनत करते हैं, लेकिन जब सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए अपने हितों को अलग रखने और शारीरिक कष्ट सहने की बात आती है तो देखो कि वे कैसे विकल्प चुनते हैं। अगर उन्हें सिद्धांतों के अनुसार काम करना हो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी हो, फिर चाहे इससे किसी को भी ठेस पहुँचे या बुरा लगे तो क्या वे ऐसा करेंगे? बिल्कुल नहीं। उनका पहला विकल्प हमेशा खुद को बचाना होता है। भले ही उन्हें पता हो कि गलती किसकी है या किसने बुराई की है, वे उन्हें उजागर नहीं करेंगे। वे अपने दिल में चुपके से खुश भी हो सकते हैं। अगर कोई बुरे लोगों को उजागर करता है तो वे बुरे लोगों का बचाव भी करेंगे और उनके लिए बहाने भी बनाएँगे। जाहिर है कि मसीह-विरोधी ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों के दुर्भाग्य का जश्न मनाते हैं। वे चाहे जिस किसी स्थिति का सामना करते हों, यह देखो कि वे क्या चुनते हैं और कौन-सा रास्ता अपनाते हैं। अगर वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चुनते हैं तो फिर उनका परमेश्वर के वचन खाना-पीना सफल रहा है। अगर नहीं, तो वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कैसे भी खा-पी लें या उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से रटा हो, यह बेकार होता है—वे अभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मान रहे हैं। साथ ही, क्या मसीह-विरोधी खुद को जानते हैं? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन मसीह-विरोधी तो अपने अहंकार और आत्मतुष्टता को स्वीकार करते हैं, कहते हैं कि वे दानव और शैतान हैं।” वे बस ये बातें कह देते हैं लेकिन वास्तव में तब वे क्या करते हैं जब उनका सामना वास्तविक स्थिति से होता है? अगर मसीह-विरोधी के साथ काम करने वाला कोई व्यक्ति कोई सही बात कह दे, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कुछ ऐसा कह दे जिससे मसीह-विरोधी की कही गलत बात का खंडन होता हो और अगर वह व्यक्ति मसीह-विरोधी की कही बातों का समर्थन करने से इनकार कर दे तो मसीह-विरोधी को लगेगा कि उनकी छवि और रुतबे को नुकसान पहुँचाया गया है। फिर वह क्या चुनता है? क्या वह दूसरे व्यक्ति की बात सुनने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए खुद को दरकिनार कर सकता है? बिलकुल नहीं। तो क्या वे जो सही शब्द कहते हैं, उनका कोई उपयोग है? क्या वे अपनी वास्तविकता, अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद, अपने चुनाव या अपने अपनाए मार्ग को दर्शाते हैं? नहीं, ये शब्द उनके अनुभव से नहीं निकले हैं; ये केवल ऐसे शब्द हैं जो उन्होंने सीख लिए हैं। उनके मुँह से जो निकलता है, वह केवल धर्म-सिद्धांत, कपटपूर्ण शब्द होते हैं। जैसे ही मसीह-विरोधियों का रुतबा या स्वार्थ आड़े आता है तो उनका पहला चुनाव हमेशा सबसे पहले खुद को बचाने और सुरक्षित रखने, दूसरों को स्तब्ध और गुमराह करने और कोई भी जिम्मेदारी लेने या किसी भी अपराध को स्वीकार करने से बचना होता है। मसीह-विरोधियों के इन सार को अगर देखें तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन इसलिए पढ़ रहे हैं कि सत्य को समझ सकें और सत्य का अभ्यास करने के मुकाम तक पहुँच सकें? नहीं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के पीछे मसीह-विरोधियों के इरादों और उद्देश्यों को देखा जाए तो उन्हें कभी भी इनकी समझ हासिल नहीं होगी। इसका कारण यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को ऐसा सत्य मानकर नहीं पढ़ते जिसे समझा जाना चाहिए, बल्कि वे इन्हें अपने उद्देश्यों को पूरा करने का साधन मानकर पढ़ते हैं। मसीह-विरोधी भले ही साफ-साफ यह नहीं कहते कि “मैं परमेश्वर बनना चाहता हूँ, मैं मसीह बनना चाहता हूँ,” फिर भी मसीह बनने का उनका उद्देश्य उनके कार्य-कलापों के सार और परमेश्वर के वचनों से पेश आने के उनके तरीके के सार से स्पष्ट हो जाता है। इसे कैसे देखा जा सकता है? वे परमेश्वर के वचनों को और परमेश्वर से प्रकट होने वाली चीजों, जैसे उसकी वस्तुओं, अस्तित्व आदि का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं, उन लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं जो सत्य को नहीं समझते, अज्ञानी हैं, जिनका आध्यात्मिक कद कम है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, छद्म-विश्वासी हैं, यहाँ तक कि इसमें कुछ बुरे लोग भी शामिल हैं। वे इन लोगों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनके पास सत्य है, कि वे सही लोग हैं और यह भी कि वे सराहना और भरोसा किए जाने लायक हस्तियाँ हैं। मसीह-विरोधियों का लक्ष्य यह होता है कि ये लोग उन पर अपनी उम्मीदें टिकाए रखें और उनसे खोजें और ऐसा होने पर वे अंदर से संतुष्ट महसूस करते हैं।

मसीह-विरोधी कभी यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर अद्वितीय है; वे कभी यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही वे कभी यह स्वीकार करते हैं कि केवल परमेश्वर ही सत्य को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके रवैये, परमेश्वर के वचनों में उनके लगाए गए प्रयास और परमेश्वर बनने, मसीह बनने की उनकी इच्छा के आधार पर आकलन करें तो मसीह-विरोधी यह मानते हैं कि किसी व्यक्ति के लिए परमेश्वर बनना आसान है, कि यह कुछ ऐसी चीज है जिसे इंसान हासिल कर सकते हैं। वे कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर को मसीह महज इसलिए कहा जाता है कि वह परमेश्वर के थोड़े-बहुत वचन बोल सकता है, है न? क्या वह बस परमेश्वर के वचनों का प्रवक्ता भर नहीं है? क्या इसका संबंध सिर्फ इस बात से नहीं है कि बहुत से लोग उसका अनुसरण करें? इसलिए अगर किसी व्यक्ति का लोगों के बीच वही रुतबा और मान-सम्मान हो, अगर उसकी भी उतने ही लोग आराधना करें और उसे सम्मान भरी नजर से देखें तो क्या वह मसीह जैसा सम्मान, परमेश्वर होने का सम्मान नहीं पा सकता? मसीह जैसे सम्मान का आनंद लेने में सक्षम होना, परमेश्वर की पहचान और सार वाले व्यक्ति जैसे सम्मान का आनंद लेना, क्या इससे कोई परमेश्वर नहीं बन जाता? इसमें इतनी कठिनाई क्या है?” इस प्रकार मसीह-विरोधियों की परमेश्वर बनने की इच्छा अंतर्निहित होती है; उनकी महत्वाकांक्षा और सार शैतान के समान ही होता है। यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि वे मसीह-विरोधी हैं और उनमें मसीह-विरोधियों का सार होता है, इसलिए वे परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसी प्रतिक्रियाएँ प्रकट करते हैं। मसीह-विरोधियों को जो बात खुश करती है वह यह है कि परमेश्वर ने देहधारण कर लिया है; उसके वचनों को लोग सुन सकते हैं और साथ ही लोग उसे देख भी सकते हैं। वह एक साधारण व्यक्ति है जिसे छुआ और देखा जा सकता है; और ठीक इसलिए क्योंकि यह साधारण, तुच्छ और सामान्य-सा व्यक्ति इतना अधिक बोल सकता है और इस प्रकार परमेश्वर कहला सकता है, कि मसीह-विरोधियों को लगता है कि आखिरकार परमेश्वर बनने का उनका अवसर आ गया है। अगर यह साधारण व्यक्ति न बोलता तो मसीह-विरोधियों को लगता कि उनके परमेश्वर या मसीह बनने की आशा बहुत क्षीण है। लेकिन ठीक इसलिए कि इस साधारण व्यक्ति ने परमेश्वर के वचन बोले हैं और परमेश्वर का कार्य किया है, लोगों के मध्य लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया है, मसीह-विरोधी इसे अपने लिए एक अवसर मानते हैं, जिसका लाभ उठाया जा सकता है, जिससे उन्हें परमेश्वर की वाणी, उसके लहजे और बोलने के ढंग और यहाँ तक कि उसके स्वभाव की नकल करने के और अधिक सुराग मिलते हैं, और वे धीरे-धीरे अपने को और अधिक परमेश्वर के समान, और अधिक मसीह के समान बनाते जाते हैं। इस प्रकार अपने दिल की गहराई में मसीह-विरोधियों को लगता है कि वे अधिक से अधिक परमेश्वर जैसे होते जा रहे हैं, कि वे परमेश्वर के करीब पहुँच रहे हैं। वे एक ऐसे परमेश्वर से बहुत ईर्ष्या करते हैं जिसका सम्मान किया जाता है, जिसका अनुसरण किया जाता है और जिस पर हर चीज में भरोसा किया जाता है, एक ऐसा परमेश्वर जिसे लोग हर मामले में खोजते और सम्मान की नजरों से देखते हैं। वे मसीह की पहचान और व्यक्तिगत मूल्य से ईर्ष्या करते हैं। मसीह-विरोधी अपने दिल में क्या सोच रहे होते हैं? क्या उनके अंतस्तल अँधेरे और दुष्ट नहीं हैं? क्या उनके अंतस्तल घृणित, कुत्सित और शर्मनाक नहीं हैं? (हाँ।) वे अत्यंत विद्रोही हैं!

कुछ लोग कहते हैं, “हम तुम्हारे मुँह से मसीह-विरोधियों के बारे में अरसे से बातें सुनते आ रहे हैं लेकिन ऐसा व्यक्ति हमने कभी क्यों नहीं देखा? क्या तुम बस कहानियाँ ही सुना रहे हो? क्या ऐसी चीजों के बारे में बात कर रहे हो जो दूर की कौड़ी हैं?” क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) तुम लोग ऐसे कितने लोगों से मिले हो? क्या तुम लोग उनमें से एक हो? (हम भी ऐसी दशाएँ दिखाते हैं और ऐसे पहलू प्रकट करते हैं। ये दशाएँ मसीह-विरोधियों जितनी गंभीर नहीं हैं लेकिन इनका प्रकृति सार एक ही होता है।) क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसी दशाएँ होना खतरनाक है? (हाँ।) अगर तुम जानते हो कि यह खतरनाक है तो तुम्हें इसे बदलना चाहिए। क्या बदलना आसान है? दरअसल यह आसान और मुश्किल दोनों हो सकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को अनुपालन करने योग्य सत्य मानते हो, ठीक वैसे ही जैसे प्रभु यीशु ने कहा था, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो,” तो तुम सच में पश्चात्ताप कर सकते हो। उदाहरण के लिए, परमेश्वर तुम लोगों से कुछ क्रियान्वित करने के लिए कहता है, “खाने के बाद कटोरे को चाटकर साफ कर देना, मानो इसे धो दिया गया हो। इससे भोजन की बचत होती है और स्वच्छता भी बनी रहती है।” क्या ये निर्देश सरल हैं? क्या इन्हें लागू करना आसान है? (हाँ।) अगर परमेश्वर ऐसा आग्रह करता है, बस ये चंद वाक्य बोलता है, लोगों की कठिनाइयाँ या दशाएँ नहीं देखता या भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बात नहीं करता और विभिन्न परिस्थितियों में अंतर नहीं करता तो तुम इस एक मामले को लागू कर इसका अभ्यास कैसे करोगे? तुम्हारे लिए ये वाक्य परमेश्वर के वचन हैं, ये सत्य हैं और ये ऐसी चीज हैं जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम्हें जो करना चाहिए वह यह है कि हर दिन, हर बार खाने के बाद परमेश्वर की अपेक्षा का पालन करना—तब तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, परमेश्वर के वचनों को सत्य मान रहे हो, जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करता है और इस सबसे सरल मामले में तुमने एक मसीह-विरोधी के स्वभाव को त्याग दिया है। या दूसरी स्थिति में तुम ये चंद वचन सुनकर मुँह-जुबानी सहमत हो सकते हो और इन्हें याद रख सकते हो, लेकिन खाने के बाद कटोरे में चावल के कुछ दाने बचे देखकर तुम सोचते हो कि “मैं दूसरे कामों में व्यस्त हूँ!” और कटोरे को जस का तस छोड़ देते हो। और अगली बार के भोजन में भी तुम यही करते हो। तुम परमेश्वर के इन चंद निर्देशों को ध्यान में तो रखते हो, लेकिन कोई ऐसा निश्चित दिन नहीं होता जब तुम वास्तव में इनका अभ्यास करने जा रहे हो। जैसे-जैसे समय गुजरता है, तुम ये वचन भूल जाते हो। इसलिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना तो दूर, तुमने इन्हें त्याग भी दिया है। इससे तुम किस तरह के इंसान बनते हो? अगर तुम इन वचनों पर अमल नहीं करते तो क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के वचन सुनने पर उसके मार्ग का अनुसरण कर सकता है? क्या तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो? स्पष्ट रूप से नहीं। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा है तो क्या उसे मसीह-विरोधी के रूप में चिह्नित किया जा सकता है? क्या सत्य का अभ्यास करने में विफल होना अनिवार्य रूप से मसीह-विरोधी होने के बराबर है? (नहीं।) इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता है, इन्हें महत्वहीन मानता है, इनका अभ्यास नहीं करता और उन पर गौर नहीं करता—वह इन्हें बस भूल जाता है। यह मसीह-विरोधी नहीं है। एक और प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर से ये निर्देश सुनकर सोचता है : “खाने के बाद कटोरा चाटना? यह कितनी शर्मनाक बात है! मैं कोई भिखारी तो हूँ नहीं, और फिर ऐसा भी नहीं है कि यहाँ भोजन नहीं है। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करूँगा! जो लोग अपने कटोरे चाटकर साफ करने को तैयार हैं वे ऐसा कर सकते हैं।” जब कोई कहता है कि “यह परमेश्वर की अपेक्षा है” तो वे सोचते हैं, “भले ही यह परमेश्वर की अपेक्षा हो, तो भी यह नामंजूर है। परमेश्वर को ऐसी चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए। ये वचन सत्य नहीं हैं! परमेश्वर ऐसी बातें भी कहता है जो साधारण, अतार्किक होती हैं और इतनी अच्छी नहीं हुआ करती हैं। जरूरी नहीं कि लोगों से परमेश्वर की हर माँग सत्य हो। यह विशेष माँग मुझे सत्य नहीं लगती। प्रभु यीशु ने कहा : ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माँ है।’ इस तरह के वचन सत्य हैं! खाने के बाद कटोरे को चाटकर साफ करना क्या स्वच्छता है? इसे सीधे धो लो, बस यही काफी है। हमसे कटोरे क्यों चटवा रहे हो? यह माँग मेरी धारणाओं या कल्पनाओं से मेल नहीं खाती; इसे कहीं कोई नहीं मानेगा। मुझसे कटोरा चटवा लोगे—संभावना कम ही है! क्या स्वच्छता को इस तरह परिभाषित किया जाता है? मैं अपना कटोरा कीटाणुनाशक का इस्तेमाल करके पानी से धोता हूँ—इसे ही मैं स्वच्छता कहता हूँ!” इस तरह के व्यक्ति में ये वचन सुनकर अपने विचार और आंतरिक प्रतिरोध पैदा होता है; वे उपहास और निंदा भी करते हैं। चूँकि ये वचन परमेश्वर से हैं, इसलिए वे इनकी खुलेआम आलोचना करने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन वचनों को लेकर उनकी अपनी कोई राय या धारणा नहीं है। उनकी राय और धारणाएँ कहाँ प्रकट होती हैं? वे इन वचनों को स्वीकार या इनका अभ्यास नहीं करते; इनके बारे में उनके अपने विचार होते हैं और वे इनका आकलन करने और इनके बारे में धारणाएँ बनाने में सक्षम होते हैं। इसलिए जब वे खाना खाने के बाद कुछ लोगों को अपने-अपने कटोरे चाटते देखते हैं, तो वे खुद ऐसा करने से बचते हैं, यहाँ तक कि वे अपने मन में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने वालों के लिए घृणा भी पालते हैं। उनके चेहरे-मोहरे से अक्सर मजाक और उपहास प्रकट होता है, यहाँ तक कि दूसरों का व्यवहार सुधारने की इच्छा का रवैया भी प्रकट होता है। वे परमेश्वर के कहे अनुसार कार्य करना तो दूर रहा, बल्कि इसके विपरीत भी कार्य करते हैं, इसके उलट कार्य-कलापों में हाथ डालते हैं। वे अपने कार्य-कलापों का उपयोग परमेश्वर की माँगों को अस्वीकार करने, परमेश्वर ने जो कहा है उसका विरोध करने के लिए करते हैं और वे अपने कार्य-कलापों के जरिए और अधिक ध्यान खींचने का प्रयास कर और अधिक लोगों को यह यकीन दिलाते हैं कि परमेश्वर जो कहता है वह गलत है और केवल उनका मार्ग ही सही है, जिससे अधिक लोग परमेश्वर के वचनों का प्रतिरोध और निंदा करने लगते हैं। वे वास्तव में उस तरह कार्य नहीं करते हैं जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया है; हर बार खाने के बाद वे अपना कटोरा पानी से तो धोते ही हैं, इसे कीटाणुनाशक और साबुन से भी बार-बार धोते हैं और फिर इसे कीटाणुशोधन मशीन में रखकर कीटाणुरहित करते हैं। ऐसा करते समय वे अनजाने में कुछ कथन बनाकर सबको बताते हैं, “दरअसल बर्तन चाटने से कीटाणु खत्म नहीं होते, न पानी से धोकर ही खत्म होते हैं। इन्हें कीटाणुनाशक इस्तेमाल कर और साथ ही उच्च तापमान में रखकर ही पूरी तरह से कीटाणुरहित किया जा सकता है। यही स्वच्छता है।” वे परमेश्वर की कही बातें स्वीकार करने या परमेश्वर के निर्देशानुसार अभ्यास करने से तो इनकार करते ही हैं, वे परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध, निंदा और आलोचना करने के लिए अपने ही शब्दों और कर्मों का भी इस्तेमाल करते हैं। वे इस हद तक चले जाते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाओं की निंदा, प्रतिरोध और आलोचना करने के वास्ते और अधिक लोगों को उकसाने और गुमराह करने के लिए खुद को सही लगने वाली कुछ मान्यताओं का इस्तेमाल करने लगते हैं। वे यहाँ क्या भूमिका निभा रहे हैं? यह अधिकाधिक लोगों को परमेश्वर के वचन सुनने और बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करना नहीं है, न यह लोगों में उत्पन्न होने वाली धारणाओं को हल करना है, न ही यह लोगों और परमेश्वर के बीच विरोधाभासों को सुलझाना है या ऐसे विरोधाभास उत्पन्न होने पर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को हल करना है। इसके बजाय वे परमेश्वर की आलोचना करने के लिए अधिकाधिक लोगों को भड़काते और गुमराह करते हैं, ताकि वे परमेश्वर के वचनों की सत्यता का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने में उनका साथ दें। ऊपरी तौर पर तो वे न्याय के रक्षक लगते हैं, जो न्यायसंगत लगता है वह करते हैं। लेकिन क्या यह न्यायसंगत आचरण परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी व्यक्ति के अनुरूप है? क्या यह न्याय का मानवीय बोध है? (नहीं।) तो फिर अपने व्यवहार के पीछे ऐसे व्यक्ति का सार वास्तव में क्या होता है? (उसमें मसीह-विरोधियों का सार होता है, दानवों का सार होता है।) ऐसे व्यक्ति न केवल परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में विफल होते हैं, बल्कि इससे भी अधिक शर्मनाक बात यह है कि वे आध्यात्मिक लोगों का छद्मवेश धर सकते हैं, अक्सर दूसरों को निर्देश देने के लिए वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर खुद को सँवारते हैं और सराहना पाते हैं। वे खुद परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते, न ही वे इन्हें अनुभव और क्रियान्वित करने लायक सत्य मानते हैं। फिर भी वे अक्सर दूसरों से सख्ती और गंभीरता से कहते हैं : “परमेश्वर ने कहा, खाने के बाद अपना कटोरा चाटकर साफ करो; यह एक अच्छी आदत है और आहार को बचाती है।” हर शब्द और वाक्य के साथ वे “परमेश्वर ने कहा,” “यह परमेश्वर का वचन है,” या “यह सत्य है” का बैनर लहराते हैं लेकिन खुद वे इसे स्वीकार या इसका अभ्यास नहीं करते। यही नहीं, वे परमेश्वर के वचनों की तरह-तरह की आलोचनाएँ और भ्रामक व्याख्याएँ पेश करते हैं। मसीह-विरोधी यही करते हैं।

इन तीन प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करने के बाद सबसे गंभीर कौन-सा है? (अंतिम प्रकार का।) इस प्रकार का व्यक्ति खुद परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करता और इनके प्रति तरह-तरह के प्रतिरोधों और आलोचनाओं से भरा होता है। यही नहीं, वह परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल दूसरों को गुमराह करने और अपने उद्देश्य साधने के लिए करता है। ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं। परमेश्वर के वचनों का चाहे कोई भी पहलू हो, भले ही ये वचन उसकी धारणाओं के अनुरूप हों, वह परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता; वह खासकर परमेश्वर के उन वचनों को सत्य नहीं मानता जो मानवीय धारणाओं, पारंपरिक संस्कृति और फलसफे का पूरी तरह खंडन करते हैं—मसीह-विरोधी इन वचनों को और भी कम महत्व देते हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों को महत्वपूर्ण नहीं मानते तो इनका प्रचार क्यों करेंगे? वे अपने उद्देश्य साधने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहते हैं। इन तीन तरह के लोगों में आखिरी वाला सबसे खतरनाक होता है। पहले वाले के बारे में क्या ख्याल है? (वह परमेश्वर के वचन सुनता है और इनका अभ्यास करता है।) क्या तुम लोगों को लगता है कि जो लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं और उनका अभ्यास करते हैं वे सभी नासमझ हैं? ऊपरी तौर पर क्या यह कुछ हद तक मूर्खतापूर्ण नहीं लगता कि परमेश्वर जो कुछ भी कहे और लोगों से करवाए, उसका सख्ती से पालन किया जाए? (नहीं।) परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने वाले लोग सबसे होशियार होते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति कार्य-कलाप पर ध्यान केंद्रित करते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, पर केवल अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और थोड़ा श्रम करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के अर्थ या अपेक्षाओं और मानकों पर ध्यान नहीं देते। वे परमेश्वर के इरादों या उसकी अंतरात्मा की आवाज को नहीं समझते, वे केवल कार्य करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे पता है कि तुम हमारा भला चाहते हो। तुम्हारी हर बात सही है। तुम जो कुछ कहते हो, उसके प्रति समर्पण कर हमें अभ्यास करना चाहिए; तुम बस बताते रहने पर ध्यान दो और हम सब सुनते जाएँगे।” लेकिन हकीकत में वे परमेश्वर के कहे या लोगों के लिए उसकी विस्तृत अपेक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते। वे बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं। बिना सोचे-समझे कार्य करते रहने के कारण व्यक्ति कभी-कभी निरंकुश होकर और अनैतिकता से कार्य करने की ओर बढ़ सकता है जिससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होती हैं; इससे व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिरोध करने की ओर बढ़ सकता है। परमेश्वर का बहुत अधिक हद तक प्रतिरोध करने से कभी-कभी बहुत परेशानी होती है और नतीजे में यह विनाश का कारण बन सकता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों के लिए यह सबसे गंभीर दुष्परिणाम है, और कुछ लोग इस मुकाम तक पहुँच सकते हैं। तीसरे प्रकार के व्यक्ति, मसीह-विरोधी, शैतान के कट्टर अनुयायी होते हैं। वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, चाहे कुछ भी हो जाए। भले ही तुम जो कह रहे हो वह सही हो, वे नहीं सुनेंगे, जब उनकी अपनी धारणाएँ हों तो और भी कम सुनते हैं। वे परमेश्वर के कट्टर दुश्मन हैं, सत्य के कट्टर दुश्मन हैं। ऊपरी तौर पर ये लोग सबसे शातिर और चतुर दिखाई पड़ते हैं। वे हर चीज का भेद जानकर उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं, हर मामले को समझने के लिए विचार और प्रयास करते हैं। लेकिन इतनी जाँच-पड़ताल के बाद वे आखिरकार स्वयं परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने लगते हैं, उसके बारे में धारणाएँ और राय बना लेते हैं। परमेश्वर चाहे जो भी करे, अगर वह उनके अपने आकलन पर खरा नहीं उतरता तो वे हर हाल में उसकी निंदा करते हैं; वे इस डर से उसका अभ्यास करने से इनकार कर देते हैं कि यह उनके लिए हानिकारक हो सकता है। दूसरी ओर जो लोग बाहरी तौर पर मूर्ख लगते हैं, मानो उनमें बुद्धि न हो, वे जैसा परमेश्वर कहता है ठीक वैसा करते हैं। वे अत्यंत सरल और ईमानदार दिखाई देते हैं, जो बात नहीं बतानी चाहिए वह भी खुलेआम बता देते हैं, यहाँ तक कि ऐसी चीजों की सूचना भी देते हैं जिन्हें देने की जरूरत नहीं है, कभी-कभी तो थोड़ा भोला व्यवहार भी प्रदर्शित करते हैं। यह क्या दर्शाता है? यही कि ऐसे लोगों के दिल परमेश्वर के लिए खुले हुए हैं, उसके लिए बंद या अवरुद्ध नहीं हैं। इस सरल से उदाहरण पर चर्चा करने का मेरा उद्देश्य तुम लोगों को बस यह समझने में मदद करना है कि मसीह-विरोधी कौन होता है और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया वास्तव में कैसा होता है। इसका उद्देश्य तुम लोगों को यह समझने में मदद करना है कि किस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी होते हैं और किस प्रकार के लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते हैं। इसका उद्देश्य यही भेद समझना है। हम आज जिस विषय पर संगति कर रहे हैं उसे बेहतर ढंग से समझने में आसानी के लिए मैंने बस यूँ ही इस उदाहरण को तुम लोगों के सामने रख दिया। ऐसा नहीं है कि मैं तुम लोगों से सचमुच यह कह रहा हूँ कि भोजन के बाद अपने कटोरे चाटकर साफ करो। न ही मैंने यह स्पष्ट किया है कि कटोरे चाटना स्वच्छता या भोजन को बरबाद न करने के समान है। तुम लोगों को ऐसा करने की जरूरत नहीं है; तुम लोगों को गलत नहीं समझना चाहिए।

मसीह-विरोधी किस तरह परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं, आज इस बारे में एक अतिरिक्त मद पर संगति की गई : मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। जब वस्तुओं की बात आती है, तो इनका संबंध बिक्री, व्यापार, मुनाफे और पैसे से होता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, यह ऐसी चीज है जिसे कभी भी बिल्कुल नहीं करना चाहिए, यह कतई पाप है। क्यों? जब हमने सभा शुरू की ही थी तो हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी भाषा में परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति अपनी समझ के बारे में संगति की, सरलतम शब्दों में इसका निचोड़ बताया। कुल मिलाकर परमेश्वर के वचन सत्य हैं। मानवजाति के लिए सत्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। सत्य मनुष्य का जीवन हो सकता है, यह लोगों को बचा सकता है, उन्हें फिर से जिला सकता है और एक योग्य सृजित प्राणी बनने में सक्षम बना सकता है। मानवजाति के लिए सत्य की अहमियत शब्दों, भौतिक चीजों या पैसे से नहीं तौली जा सकती। सत्य को सँजोकर और सहेजकर रखा जाना चाहिए, और यह इस लायक है कि यह व्यक्ति के कार्य-कलापों, आचरण, जीवन और संपूर्ण अस्तित्व के लिए मार्गदर्शक, दिशा और लक्ष्य बन सके। लोगों को सत्य से अभ्यास का मार्ग हासिल करना चाहिए, साथ ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग भी पाना चाहिए। लोगों के लिए सत्य स्वयं जीवन के बराबर है। जिस मुँह से सत्य का उल्लेख किया जाए, उसी मुँह से किसी भौतिक वस्तु या धन का उल्लेख नहीं किया जा सकता। इस भौतिक दुनिया में या समस्त ब्रह्मांड में, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी तुलना सत्य के साथ की जा सके या जो इसकी बराबरी कर सके। इससे यह स्पष्ट है कि उद्धार चाहने वाली इस मानवजाति के लिए सत्य सबसे बहुमूल्य धरोहर है, और यह बेशकीमती है। फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से ऐसे व्यक्ति भी हैं जो ऐसी बेशकीमती चीज को मुनाफे के लिए बेचने और व्यापार करने लायक वस्तु मानते हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों को दानवों, शैतानों के रूप में चित्रित किया जा सकता है? बिल्कुल! आध्यात्मिक जगत में ऐसे व्यक्ति दानव और शैतान होते हैं; लोगों के बीच वे मसीह-विरोधी होते हैं।

हमने अभी-अभी कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों पर संगति की कि कैसे बिक्री के जरिए निजी लाभ कमाने के लिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को वस्तुएँ मानते हैं। बेशक यह एक निश्चित अर्थ में कहा गया है और यह शाब्दिक अर्थ से पूरी तरह मेल नहीं खाता है—यह स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता कि वे परमेश्वर के वचनों को बेचने की वस्तु मानते हैं। लेकिन वास्तव में उनके व्यवहार, दृष्टिकोण और यहाँ तक कि उनके सार को देखें तो उन्होंने पहले ही या अत्यंत निश्चितता के साथ परमेश्वर के वचनों को वस्तु मान लिया है, अपने पास रखने की एक भौतिक वस्तु मान लिया है। परमेश्वर के वचन एक बार हाथ लगने के बाद वे इन्हें अपनी छोटी-सी दुकान की वस्तु मानते हैं, फिर इसे सही मौके पर किसी भी जरूरतमंद को बेचकर मुनाफा कमाते हैं। मसीह-विरोधी इससे क्या फायदे उठाते हैं? इन फायदों में यह शामिल है कि उन्हें प्रतिष्ठा मिले, दूसरों से ऊँचे दर्जे का मान-सम्मान मिले और लोग उन्हें आराध्य मानें, लोग उनकी राह में अपने पलक-पाँवड़े बिछा दें और दूसरे उनका बचाव करें—उनके रुतबे और सम्मान की सुरक्षा करें। यहाँ तक कि जब उन्हें निकालकर हटा दिया जाता है तो भी लोग उनके पक्ष में बोलेंगे और उनका बचाव करेंगे। ये वे फायदे हैं जो मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से प्राप्त करते हैं। ठीक यही वे फायदे हैं जिन्हें मसीह-विरोधी चाहते हैं और पाने की कोशिश करते हैं और जिनके लिए वे लंबे समय से अपने दिलों में साजिश रच रहे होते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार है। उनके कार्य-कलाप और व्यवहार उनकी प्रकृति से प्रेरित और प्रभावित होते हैं और इन अभिव्यक्तियों से मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार देखा जा सकता है।

2. परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को व्यक्तिगत लाभ के लिए बेचना

आगे हम दूसरे पहलू पर संगति करेंगे जो परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने वाले मसीह-विरोधियों के असली व्यवहार और दृष्टिकोण के बारे में है। इस दृष्टिकोण का संबंध इस प्रकार के मसीह-विरोधी द्वारा परमेश्वर के वचनों की तमाम तरह की पुस्तकों को वस्तुएँ मानने से है। जब वे परमेश्वर के वचनों की ये पुस्तकें पाते हैं तो वे मानने लगते हैं कि उन्हें पैसा कमाने के लिए पूँजी मिल गई है, ऐसा करने के लिए आवश्यक परिसंपत्तियाँ हाथ लग गई है। परमेश्वर के वचनों की ये छपी हुई पुस्तकें उनकी परिसंपत्तियाँ बन जाती हैं, ऐसी वस्तुएँ बन जाती हैं जिन्हें वे बेचना चाहते हैं और ऐसी चीजें बन जाती हैं जिनका इस्तेमाल वे अंधाधुंध मुनाफा कमाने के लिए करते हैं। मसीह-विरोधी इन पुस्तकों को अपने पास रोककर रखते हैं, इन्हें परमेश्वर के घर की ओर से अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार वितरित नहीं करते बल्कि अपने स्वयं के इरादों के अनुसार अनुचित फायदा उठाने में लग जाते हैं। परमेश्वर के घर में पुस्तकें वितरित करने का क्या सिद्धांत है? यही कि जो लोग परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद करते हैं और जिनके मन में सत्य के लिए प्यास है, उन्हें ये पुस्तकें बाँट दी जाएँ और ऐसा मुफ्त में किया जाए। चाहे कितने भी लोग इन्हें प्राप्त करें या कितनी भी पुस्तकें बाँटी जाएँ, ऐसा हमेशा मुफ्त में किया जाता है। ईसाइयत में परमेश्वर में विश्वास करने वालों को बाइबल मुफ्त में नहीं मिलती; इसे खरीदना पड़ता है। लेकिन अब, परमेश्वर के ये वचन और ये पुस्तकें परमेश्वर का घर मुफ्त में बाँटता है जो एक महत्वपूर्ण बिंदु है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब ये पुस्तकें मसीह-विरोधियों के हाथ में पड़ जाती हैं और वे इन्हें सिद्धांत के अनुसार मुफ्त नहीं बाँटते। जिन लोगों के दिलों में थोड़ा-सा भी परमेश्वर का भय होगा वे सामान्य परिस्थिति में इन पुस्तकों को सिद्धांत के अनुसार मुफ्त में बाँटेंगे, इनके बदले कोई पैसा नहीं लेंगे या बेजा ढंग से मुनाफाखोरी की कोशिश नहीं करेंगे। लेकिन ये पुस्तकें मिलने पर केवल मसीह-विरोधी ही ऐसा सोचते हैं कि उनके हाथ कारोबार का मौका आ गया है। उनकी महत्वाकांक्षा और लालच इस तरह सामने आता है : “ऐसी मोटी-मोटी और अच्छी पुस्तकों को मुफ्त में बाँटना—क्या यह घाटे का सौदा नहीं है? क्या इनसे कुछ पैसा नहीं कमाना बेवकूफी नहीं है? यही नहीं, ये पुस्तकें कहीं और से नहीं खरीदी जा सकती हैं और परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकतर लोग इन्हें पढ़ना चाहेंगे, फिर चाहे इनकी कितनी ही कीमत हो।” मसीह-विरोधी जब लोगों की यह मनोवृत्ति भाँप लेते हैं तो उनके मन में कुछ विचार उठने लगते हैं : “पैसा कमाने का यह मौका मैं हाथ से नहीं जाने दे सकता; ऐसे मौके मुश्किल से मिलते हैं। ये पुस्तकें वितरित करते समय मुझे लोगों को अलग-अलग श्रेणियों में बाँट देना चाहिए, अमीरों से ज्यादा पैसा लेना चाहिए, औसत लोगों से कुछ कम पैसा लेना चाहिए, गरीबों से और भी कम लेना चाहिए या उन्हें पुस्तकें बाँटनी ही नहीं चाहिए, जो मेरी खुशामद करते हैं उन्हें रियायत देनी चाहिए और जिनकी मुझसे नहीं बनती है उनसे ज्यादा पैसा वसूलना चाहिए।” क्या यह परमेश्वर के घर के पुस्तक वितरण के विनियमों के अनुसार है? (नहीं।) यह व्यापार करना है। मसीह-विरोधियों के मन में ऐसे ख्याल पनपते हैं; वे परमेश्वर के घर के विनियमों और सिद्धांतों के अनुसार पुस्तकें बाँटते हैं या नहीं इस बात को अलग रखकर, चलो पहले हम यह चर्चा करते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों से कैसा व्यवहार करते हैं। जब उनके हाथ में परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें आ जाती हैं तो क्या वे इन्हें सँजोकर रखते हैं? (नहीं।) उनकी रुचि परमेश्वर के वचनों में बताए गए जीवन मार्ग या सत्य में नहीं होती; वे इन्हें महत्व नहीं देते और इनके बारे में जरा भी उत्सुक नहीं होते। वे पुस्तकों को केवल सतही तौर पर देखते हैं, लापरवाही से पन्ने पलटते हैं और उन पर सरसरी नजर डालते हैं : “इसमें तो बस यह जिक्र है कि परमेश्वर लोगों के न्याय का कार्य कैसे करता है, उसने किस प्रकार लोगों के समूह को जीत लिया है और वह किस प्रकार लोगों को एक अच्छी मंजिल प्रदान करता है। जहाँ तक मानवजाति के भविष्य का सवाल है, इसमें ऐसे ब्योरे नहीं हैं, इसलिए यह पुस्तक इतनी रोचक नहीं है। हालाँकि यह पुस्तक बहुत रोचक नहीं है लेकिन बहुत से लोग इसे पढ़ने के इच्छुक हैं। यह अच्छा है; मैं इससे लाभ कमा सकता हूँ।” जब परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें उनके हाथों में पड़ती हैं तो वे वस्तुएँ बन जाती हैं, जिसका यह अर्थ है कि बहुत-से लोगों को, कम-से-कम लोगों के एक तबके को, ये पुस्तकें खरीदने के लिए पैसा खर्च करना पड़ेगा। परमेश्वर में विश्वास करने, परमेश्वर के घर का कार्य करने और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों के वितरण के प्रभारी होने की आड़ में मसीह-विरोधी सेंध लगाते हैं और परमेश्वर के घर द्वारा इन पुस्तकों के मुफ्त वितरण को लेन-देन में बदल देते हैं, खरीद-फरोख्त में बदल देते हैं। जो कोई भी परमेश्वर के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनता है उसे परमेश्वर की ओर से उसके वचन निःशुल्क प्रदान किए जाते हैं; ये मुफ्त होते हैं, इनके बदले कुछ भी देने की जरूरत नहीं होती। लोगों से बस यही अपेक्षा की जाती है कि वे इन्हें स्वीकार करें, इनका अभ्यास और अनुभव करें, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण हासिल करें और ऐसे व्यक्ति बनें जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। तब परमेश्वर संतुष्ट हो जाता है, उसका उद्देश्य पूरा हो जाता है और उसके वचन बेकार नहीं जाते। उसे इसमें सुकून मिलता है। यही परमेश्वर की इच्छा है और यही इंसान पर उसके छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन कार्य करने का लक्ष्य भी है, जो सृजित प्राणियों के लिए सृष्टिकर्ता की सबसे सुंदर कामना है। परमेश्वर अपने अनुयायियों को अपने वचन, जो उसके पास है और जो वह स्वयं है, और अपने इरादे निःशुल्क और निरंतर प्रदान करता है। यह बहुत ही स्वच्छ और पवित्र कार्य है, बहुत ही शानदार कर्म है; इसमें कोई लेन-देन शामिल नहीं होता। परमेश्वर के वचन ध्यानपूर्वक सुनने वाले और इनके लिए लालायित रहने वाले हर व्यक्ति के लिए परमेश्वर का कहा हर वाक्य अनमोल होता है। लोग परमेश्वर से सत्य और उसके वचन मुफ्त में प्राप्त करते हैं, और अपने दिल की गहराई से वे परमेश्वर के लिए जो कुछ करना चाहते हैं वह है उसका ऋण चुकाना, उसके इरादों को संतुष्ट करना, उसे सुकून महसूस कराना और उसके महान कार्य को तेजी से पूरा करने में हाथ बँटाना। यही वह अनकही समझ है जो परमेश्वर और सृजित मानवजाति के बीच होनी चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी इस मामले को लेन-देन में बदल देते हैं। वे व्यक्तिगत लाभ पाने के लिए परमेश्वर के कहने और कार्य करने के अवसर का, साथ ही परमेश्वर के वचनों के पोषण की लोगों की जरूरत का फायदा उठाते हैं, पैसा और लाभ हासिल करते हैं जो उन्हें हासिल नहीं करना चाहिए। क्या ऐसे व्यवहार से व्यक्ति शाप पाने लायक नहीं बन जाता? परमेश्वर के किस कथन के आधार पर तुमने यह समझा या किस कथन में तुमने यह सुना कि परमेश्वर किसी मुआवजे के बदले मानवजाति से बात करता है? वह एक वाक्य के बदले कितना मुआवजा लेता है, एक अनुच्छेद के बदले कितना, एक उपदेश, एक पुस्तक के बदले कितना या फिर एक बार की काट-छाँट, न्याय और ताड़ना या शोधन या जीवन भर के प्रावधान के बदले कितना मुआवजा लेता है? क्या कभी परमेश्वर ने ऐसे वचन बोले हैं? (नहीं।) परमेश्वर ने ऐसी बातें कभी नहीं कहीं। परमेश्वर की ओर से जारी चाहे जो भी वाक्य, अनुच्छेद और अंश हो, परमेश्वर के हाथों लोगों की काट-छाँट, ताड़ना और न्याय, परीक्षण और शोधन का एक भी मामला हो, साथ ही परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति और पोषण, इत्यादि का एक भी मामला हो—इन सबमें से किसे पैसे से तौला जा सकता है? इनमें से कौन-सी चीज ऐसी है जिसे इंसान पैसे या भौतिक चीजें या दैहिक मूल्य चुकाकर हासिल कर सकता है? कोई भी नहीं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, परमेश्वर जो भी सत्य व्यक्त करता है, ये सब बेशकीमती होते हैं। चूँकि ये बेशकीमती हैं, चूँकि जो कुछ परमेश्वर के पास है और जो वह है उसके बदले लोग किसी भी धन या भौतिक चीजों का लेन-देन नहीं कर सकते, ठीक इसीलिए परमेश्वर कहता है कि वह लोगों को अपने वचनों की आपूर्ति निःशुल्क करता है। फिर भी मसीह-विरोधी लोग सत्यों की अनमोल और उत्कृष्ट प्रकृति और जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है जिसे वह अभिव्यक्त करता है, नहीं देख सकते हैं; इसके बजाय वे इससे अंधाधुंध लाभ कमाना चाहते हैं जो निहायत शर्मनाक बात है!

कुछ मसीह-विरोधी लोगों को सताने के लिए, अपनी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान कायम करने और दूसरों को अपना आतंक और अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए परमेश्वर के वचन अपने पास रोक लेते हैं, और इन्हें अपने मातहत भाई-बहनों तक नहीं पहुँचाते। इस प्रकार जिन कलीसियाओं में ऐसे बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों का दबदबा होता है, वहाँ के भाई-बहन परमेश्वर के वचन पढ़ने या परमेश्वर के उपदेश सुनने से वंचित रहते हैं। क्या ऐसे लोग शाप पाने के लायक नहीं हैं? परमेश्वर के वचनों को उन्होंने क्या मान लिया है? अपनी निजी संपत्ति। परमेश्वर अपने वचन उन लोगों को प्रदान करता है जो ईमानदारी से उसमें विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं; ये किसी एक ही व्यक्ति को प्रदान नहीं किए जाते और ये किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति कतई नहीं हैं। परमेश्वर के वचन सारी मानवजाति को सुनाए जाते हैं और कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण या बहाने से परमेश्वर के वचनों को अपने पास नहीं रोक सकता। फिर भी मसीह-विरोधी ठीक यही भूमिका निभाते हैं और ऐसा करते हुए नियम तोड़ते हैं। कुछ मसीह-विरोधी अपने पास नए-नए धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग आते ही पहले खुद इन्हें सुनते हैं और इनमें कुछ नई रोशनी और विषयवस्तु पाकर अपने मातहत लोगों को ये धर्मोपदेश श्रंखला न बाँटने का फैसला करते हैं। किसी को भनक लगने दिए बिना वे धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग अपने पास रोक लेते हैं। इन्हें रोकने का उद्देश्य क्या होता है? उनका उद्देश्य सभाओं में शेखी बघारना होता है, जो क्रय-विक्रय करने के बराबर है। शेखी बघारने की इस हरकत से उनके मातहत लोग जब बिल्कुल अनसुनी, सारी की सारी नई विषयवस्तु सुनते हैं तो उनके मन में मसीह-विरोधियों की अहमियत बहुत बढ़ जाती है और इस तरह मसीह-विरोधियों का उद्देश्य पूरा हो जाता है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि कलीसियाओं में हर जगह यकीनन कुछ ऐसे लोग होते हैं जो संगति के उपदेश या रिकॉर्डिंग को समय पर या पूरी तरह वितरित नहीं करते; ऐसे इंसान बिल्कुल होते हैं। इसके अलावा कुछ मसीह-विरोधी अपने प्रति लोगों के रवैये के आधार पर परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें बाँटते हैं, उन्हें उन लोगों को देते हैं जो उनके साथ घुलते-मिलते हैं या उनकी चापलूसी करते हैं। भले ही पुस्तकें मुफ्त होती हैं, पर ये हर व्यक्ति को आसानी से नहीं मिल पातीं; मसीह-विरोधियों के हाथों में मुफ्त और समय पर वितरण के सिद्धांत अलग-अलग शर्तों के अधीन होते हैं। हो सकता है जो लोग उनके साथ हैं या जो उनकी बात सुनते हैं उन्हें वे न चाहते हुए ये पुस्तकें दे दें, मगर जरूरी नहीं कि वे समय पर ऐसा करें; जहाँ तक उनके विचारों से असहमत होने वाले या उनका विरोध करने वाले लोगों की बात है, हो सकता है मसीह-विरोधी उन्हें चुनिंदा ढंग से पुस्तकें दें या बिल्कुल ही न दें। मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों के वितरण में अनुचित रूप से अंधाधुंध लाभ कमाना चाहते हैं, बल्कि इसका उपयोग लोगों को लुभाने और जीतने के साथ ही दूसरों को दबाने और सताने के हथकंडे के रूप में भी करते हैं—वे तमाम तरह का अन्याय कर सकते हैं। वे तो लोगों को यह कहकर धमका भी सकते हैं कि अगर कोई उनकी बुराई करता है, उन्हें नहीं चुनता या उनके खिलाफ मत देता है तो वे उस व्यक्ति के विरुद्ध कदम उठाने के साधन के तौर पर परमेश्वर के वचनों को अपने पास रोक सकते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें या धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग समय पर न पाने के डर से कुछ लोग इन मसीह-विरोधियों से खौफ खाते हैं। मसीह-विरोधी चाहे उनके साथ बुरा करते हों और उनके साथ गलत व्यवहार होता हो लेकिन वे उनकी शिकायत करने का साहस नहीं करते क्योंकि उन्हें मसीह-विरोधियों से दबाए और सताने जाने, ऊपरवाले से संपर्क खोने और ऊपरवाले के हाथों सिंचन और पोषण खोने का डर होता है। क्या ऐसे लोग होते हैं? बिल्कुल, शत-प्रतिशत ऐसे लोग होते हैं। मसीह-विरोधी सभी तरह के बुरे कर्म करते हैं; वे न केवल सत्ता और लाभ के लिए लड़ते हैं, खेमे बनाते हैं और अपने स्वतंत्र राज्य बनाते हैं, बल्कि जब परमेश्वर के वचनों को वितरित करने की बात आती है तब भी वे ऐसा ही करते हैं। वे हर ऐसी चीज का दोहन करते हैं जिससे उन्हें अनुचित ढंग से लाभ हो, रुतबा और ताकत हासिल हो; वे किसी भी चीज को नहीं बख्शते, परमेश्वर के वचनों को भी नहीं। क्या ये चीजें तुम लोगों की कलीसिया में, तुम लोगों के आसपास हुई हैं? कुछ मसीह-विरोधी अपने मातहत लोगों को धमकाते हैं, “अगर तुम मुझे नहीं चुनते हो, अगर तुम ऊपरवाले से मेरी शिकायत करते हो, अगर तुम मुझे पसंद नहीं करते, अगर तुमने मेरी मुखबिरी की और मुझे पता चल गया तो तुम्हें और धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग नहीं मिलेगी। मैं तुम्हारी आपूर्ति बंद कर दूँगा, तुम्हें पोषण से वंचित कर दूँगा, तुम्हें भूखा-प्यासा मार दूँगा!” क्या मसीह-विरोधियों का स्वभाव क्रूर नहीं है? यह बहुत ही क्रूर है! वे हर तरह के बुरे काम करने में सक्षम होते हैं।

अगर तुम लोगों का सामना ऐसे मसीह-विरोधियों से होता है तो तुम इनसे कैसे निपटोगे? क्या तुम इनकी खबर ऊपरवाले को देने का साहस करोगे? क्या एकजुट होकर तुममें उनका तिरस्कार करने का साहस है? (हाँ, है।) अभी तुम हामी भर रहे हो लेकिन जब वास्तव में उनसे सामना होगा तो शायद तुम साहस न कर सको; तुम पीछे हटकर सोचोगे, “मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, मेरी उम्र कम है, मैं कमजोर और अकेला हूँ। अगर मसीह-विरोधी वाकई गिरोहबंद होकर मुझे धौंस देने लगें तो क्या मेरा काम तमाम नहीं हो जाएगा? परमेश्वर कहाँ है? मेरी शिकायत कौन सुनेगा? कौन मेरी शिकायत दूर कर मेरे बदले हिसाब बराबर करेगा? मेरे पक्ष में कौन खड़ा होगा?” तुममें इतनी कम आस्था क्यों है? तुम एक मसीह-विरोधी का सामना होने पर ही कायर बन गए, अगर साक्षात शैतान ने तुम्हें धमकी दे दी—तब क्या तुम परमेश्वर में विश्वास करना छोड़ दोगे? अगर किसी मसीह-विरोधी ने परमेश्वर के वचन तुम तक नहीं पहुँचाए तो तुम क्या करोगे? अगर परमेश्वर के वचनों की पुस्तक के बदले उसने तुमसे पैसे वसूल लिए तो तुम क्या करोगे? अगर परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें देते समय मसीह-विरोधी तुम्हारे लिए कठिनाई खड़ी करे और रुखाई से बोले तो तुम क्या करोगे? क्या इस स्थिति से निपटना आसान है? चलो मैं तुम्हें एक चतुर रणनीति बताता हूँ : जब पुस्तक वितरण का समय बिल्कुल करीब हो तो तुम्हें मसीह-विरोधी के पास खड़े हो जाना चाहिए और उत्साह के साथ मीठी-मीठी बातें करनी चाहिए, उसका भरोसा जीतने के लिए उसकी तारीफों के पुल बाँधने चाहिए। एक बार जब वह परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें और धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग तुम्हें सौंप दे तो उसकी शिकायत ऊपरवाले से करने का मौका निकालो। अगर ऊपरवाले से शिकायत करने का कोई रास्ता न मिले तो फिर समझदार भाई-बहनों के साथ एकजुट होने का मौका तलाशो ताकि तुम मसीह-विरोधी को रोक और काबू कर सको। यह वास्तव में कलीसिया का नुकसान होने से टालना है और अधिकांशतः परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि अगर मसीह-विरोधियों को इस योजना का पता चल गया तो क्या होगा? अगर तुम इस बार आश्वस्त नहीं हो तो अगले मौके का इंतजार करो। जब तुममें साहस हो और स्थितियाँ सही हों, तभी तुम कदम उठाओ। संक्षेप में कहें तो अगर तुम्हें यह डर है कि मसीह-विरोधी तुम्हारा पोषण बंद कर सकता है तो फिर शुरुआत में कुछ भी जाहिर मत होने दो। खुद को उजागर मत करो या मसीह-विरोधी को अपनी मंशा मत ताड़ने दो। जब तुम पर्याप्त आध्यात्मिक कद हासिल कर लो, जब मसीह-विरोधी के विरोध में तुम्हारे साथ खड़े होने के लिए तुम्हें ऐसे उपयुक्त लोग, सही लोग और ज्यादा लोग मिल जाएँ जो मसीह-विरोधी को पहचान और अस्वीकार कर सकें तो यही वह मौका है जब तुम मसीह-विरोधी से संबंध तोड़ सकते हो। यह रणनीति कैसी लग रही है? कुछ लोग कह सकते हैं, “क्या यह दूसरों को धोखा देना नहीं है? क्या परमेश्वर यह नहीं चाहता कि हम ईमानदार रहें? यह तो ईमानदार होना नहीं लगता।” क्या यह दूसरों को धोखा देना है? (नहीं।) यह दानव से निपटना है। मसीह-विरोधी एक दानव है और उससे निपटने के लिए कोई भी तरीका स्वीकार्य होता है।

क्या तुम लोग मसीह-विरोधियों से डरते हो? मान लो कि तुम्हारे आसपास, तुम्हारी अपनी ही कलीसिया में सचमुच कोई मसीह-विरोधी है। तुमने उसे देख लिया है; उसके पास ताकत और रुतबा है और बहुत से लोग उसका समर्थन करते हैं। उसका अपना एक धड़ा है, कुछ कट्टर अनुयायी हैं। क्या तुम उससे डरोगे? कुछ लोग कहेंगे कि डर तो लगेगा। क्या डरना ठीक है? इस डर का कम से कम एक अच्छा और सही पहलू तो है ही। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? अगर तुम उससे डरते हो तो इससे कम से कम यह तो दिखता ही है कि तुम दिल से मानते हो कि वह बुरा है, कि वह तुम्हें सता सकता है और नुकसान पहुँचा सकता है, कि वह नेक व्यक्ति नहीं है या सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है—तुम्हारे मन में उसके बारे में कम से कम यह समझ और पहचान तो है ही। भले ही तुम उसे मसीह-विरोधी न ठहरा सको या यह न ताड़ सको कि वह मसीह-विरोधी है, लेकिन तुम कम से कम यह तो जानते ही हो कि वह अच्छा व्यक्ति नहीं है, ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता हो, न्यायी या दयालु नहीं है या ईमानदार नहीं है, इसलिए तुम उससे डरते हो। राक्षसों के अलावा ऐसे कौन से लोग होते हैं जिनसे सामान्य और साधारण या निष्कपट लोग आम तौर पर डरते हैं? (बुरे लोगों से डरते हैं।) बुरे लोगों से हर कोई डरता है। तुम्हारा दिल कम से कम यह तो जानता ही है कि यह बुरा इंसान है। इस आधार पर परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के प्रति उसके रवैये को गौर से देखो; यह देखो कि क्या वह सत्य का अभ्यास करता है, उसके तमाम व्यवहारों को पहचानो और उसके व्यवहारों के जरिए उसके सार को समझो और पहचानो। अंततः अगर तुम यह तय कर पाते हो कि वह एक मसीह-विरोधी है तब तुम्हारे डर के साथ एक दूसरा घटक भी जुड़ जाएगा—ऐसे लोगों को पहचानने की क्षमता। यद्यपि तुम उनसे मन ही मन डरोगे, तुम उनके पक्ष में नहीं होगे और तुम दिल से उन्हें अस्वीकार कर दोगे—यह अच्छी चीज है या खराब? (अच्छी चीज है।) अगर वे तुमसे बुराई करने में साथ देने को कहें तो क्या तुम सहमत होगे? क्या तुम्हारा दिल इसे पहचान पाएगा? अगर वे तुमसे परमेश्वर को गाली देने या उसकी आलोचना करने में साथ देने को कहें तो क्या तुम सहमत होगे? अगर वे तुमसे दूसरों को सताने में साथ देने को कहें और कुछ व्यक्तियों को परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें न देने को कहें तो क्या तुम सहमत होगे? भले ही तुम 100 प्रतिशत सुनिश्चित न हो कि तुम ये चीजें करने को सहमत नहीं होगे, लेकिन तुम्हें कम से कम उनके क्रिया-कलापों की असली पहचान तो होगी। हो सकता है कि तुम अनिच्छापूर्वक और दबाव में कुछ चीजें उनके साथ कर लो लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए होगा कि तुम्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया गया था और यह स्वेच्छा से नहीं होगा; कम से कम तुम मुख्य उत्पीड़क नहीं होगे, बहुत हुआ तो तुम उनके अपराधों में सहायक होगे। भले ही उनके मुँह पर तुम उन्हें उजागर न कर सको या भड़का न सको, लेकिन तुम उनके अनुयायी या सहयोगी के रूप में भी कार्य नहीं करोगे। यह कुछ हद तक मसीह-विरोधियों को नकारने जैसा होता है। ज्यादातर लोग बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के डर के कारण सिर्फ खुद को बचाने की खातिर समझौते करते हैं, इसलिए तुम्हारा इसे एक अस्थायी, कामचलाऊ उपाय के तौर पर करना पहले ही अच्छी बात है। लेकिन क्या तुम्हारा इस स्तर तक पहुँचना अपनी गवाही में अडिग रहना कहलाएगा? क्या यह सत्य सिद्धांतों का पालन करना कहलाएगा? क्या यह शैतान को पराजित करना कहलाएगा? परमेश्वर की नजरों में ऐसा नहीं है। तो फिर तुम अपनी गवाही में कैसे अडिग रह सकते हो? तुम सब लोगों के पास रास्ता नहीं है और तुम बस खुद को बचाने के लिए समझौते करते रहते हो : “वे बुराई करते हैं, लेकिन मैं बुराई करने में उनका साथ देने का साहस नहीं करता; मैं दंडित होने से डरता हूँ। वे बुरे लोग हैं; वे लोगों को सताने के लिए बुरे काम करते हैं। खैर, इतना ही अच्छा है कि मैंने खुद किसी को नहीं सताया है। इस बुराई का दोष मेरे मत्थे नहीं आएगा।” अगर तुम कम से कम इतना कर सकते हो तो यह ठीक-ठाक है; तुम सिर्फ चापलूसी कर रहे हो और मध्य-मार्गी दृष्टिकोण अपनाए हुए हो लेकिन तुम गवाही नहीं दे पा रहे हो। तो फिर गवाही देने के लिए क्या किया जाना चाहिए? धर्म-सिद्धांत के तौर पर कहें तो तुम्हें बुरे लोगों को नकारना चाहिए, मसीह-विरोधियों को नकारना और उजागर करना चाहिए और मसीह-विरोधियों को परमेश्वर के घर में बेलगाम होकर बुरी चीजें करने और परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचाने से रोकना चाहिए। लेकिन क्या तुम यह सटीक ढंग से जानते हो कि ऐसा कैसे किया जाए? (इसके बारे में ऊपरवाले को शिकायत कर बता दो।) क्या तुम लोग इसी सीमा तक अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकते हो? क्या तुम लोग इतनी ही गवाही दृढ़ होकर दे सकते हो, क्या तुम्हारा इतना ही आध्यात्मिक कद है? किसी मसीह-विरोधी के बारे में शिकायत करने के अलावा तुम लोग और क्या कर सकते हो? (हम पहले मसीह-विरोधी के नियमित व्यवहार और कुकृत्यों के तथ्य जुटा सकते हैं और फिर इन तथ्यों के आधार पर मसीह-विरोधी का भेद पहचानने के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति कर सकते हैं। एक बार भाई-बहनों ने मसीह-विरोधी का भेद पहचानना सीख लिया तो वे सब मसीह-विरोधी को उजागर करने के कदम उठा सकते हैं और फिर हम उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर सकते हैं।) ये कदम और प्रक्रियाएँ सही हैं लेकिन कुछ विशेष मामलों के बारे में क्या कहोगे? तुम एक अगुआ के तौर पर बोल रहे हो लेकिन अगर किसी साधारण विश्वासी का सामना किसी मसीह-विरोधी से होता है तो क्या होगा? क्या यह पत्थर से सिर फोड़ने जैसी बात नहीं होगी? तुम लोग ऐसी स्थितियों में क्या करोगे? मैं तुम लोगों को आय-व्यय दर्ज करने और इसकी रपट बनाने का एक प्रसंग सुनाता हूँ। एक व्यक्ति को हिसाब-किताब रखने का जिम्मा सौंपा गया था, एक खाता बाहरी इस्तेमाल के लिए था और दूसरा आंतरिक। एक दिन आंतरिक खाते में दो सौ डॉलर की गड़बड़ी मिली। बाद में एक सुपरवाइजर ने आकर खातों की जाँच की तो गड़बड़ी देखकर उसने कहा, “आंतरिक खाते को फाड़ दो। सिर्फ बाहरी खाता रखो, इसलिए कोई प्रमाण नहीं बचेगा।” वहाँ मौजूद लोगों में से एक व्यक्ति ने इससे असहमति जताई, “यह भेंट है। चाहे यह कितनी भी रकम हो, है तो यह परमेश्वर का ही पैसा; तुम ऐसा नहीं कर सकते।” सुपरवाइजर ने कुछ नहीं कहा लेकिन दूसरा व्यक्ति बोला, “दो सौ डॉलर होते ही क्या हैं? मसीह-विरोधी तो एक ही झटके में हजारों का गबन कर देते हैं।” और इस तरह उन लोगों ने इस मसले को निपटा दिया। लेकिन बाद में एक व्यक्ति को यह तरीका गलत लगा और उसने यह मामला ऊपर निर्णय लेने वाले समूह को बता दिया। समूह ने कह दिया कि दो सौ डॉलर कोई बड़ी रकम नहीं है और उनके पास इससे निपटने की फुर्सत नहीं है। जब यह बात कलीसिया के अगुआओं को बताई गई तो उन सबने भी इसका समाधान करने की कोशिश न कर इसकी अनदेखी कर दी। जिस व्यक्ति ने इस मसले की सूचना दी थी वह परेशान होकर कहने लगा, “ये सारे लोग ऐसे कैसे हो सकते हैं? ये परमेश्वर की भेंटों के प्रति इतने गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? ये तो इतने सरासर ढंग से धोखेबाजी करने का दुस्साहस करते हैं!” वह इस बात को लेकर परेशान था। एक दिन मैं उन लोगों से मिलने गया, उस व्यक्ति ने यह मामला मुझे बताकर कहा कि खाते सँभालने वाला व्यक्ति लापरवाह है, कि उसने खातों को बिगाड़कर रखा हुआ है और आखिरकार इसमें गड़बड़ी तो थी ही। भले ही यह कोई बहुत बड़ा मामला नहीं था, इससे जुड़े हर व्यक्ति का रवैया अलग था। इन तथाकथित सुपरवाइजरों और अगुआओं ने समस्या का समाधान करने की कोशिश नहीं की थी। उन्होंने खातों की देखरेख करने वाले व्यक्ति को न सिर्फ बाहर नहीं निकाला, बल्कि उसे बचाने का बहाना भी खोज लिया। जिस व्यक्ति ने यह मामला उठाया था वह शिकायत करता रहा; भले ही बहुत से लोगों ने उससे संबंध रखना बंद कर दिया था। मुझे बताओ कि जब इस व्यक्ति ने यह मामला उठाया तो उसकी कैसी मानसिकता थी? अगर उसका रवैया भी उस दूसरे व्यक्ति की तरह ही होता—उस व्यक्ति की तरह जिसने यह कहा था, “सिर्फ दो सौ डॉलर की बात है, तुम क्यों इतनी सी बात का बतंगड़ बना रहे हो? मसीह-विरोधी तो एक ही झटके में हजारों का गबन कर देते हैं”—तो क्या तब भी वह व्यक्ति इस मामले की शिकायत करता? वह ऐसा नहीं करता। अगर वह यह कहता, “यह मेरा पैसा नहीं है; जो भी गबन करना चाहता है करने दो—वह खुद इसके लिए जिम्मेदार होगा। खैर, मैंने तो कोई गबन नहीं किया है, इसलिए मुझे यह जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है”; या “मैं पहले ही इस बारे में निर्णायक मंडल और कलीसिया के अगुआओं को बता चुका हूँ और उन सबने ही मेरी उपेक्षा कर दी, इसलिए मैं अपने हिस्से का काम कर चुका हूँ और मुझे आगे परेशान होने की जरूरत नहीं है”—अगर उसका ऐसा रवैया होता तो क्या वह तब भी इस बारे में इतने अथक रूप से शिकायत करता रहता? बिल्कुल भी नहीं; अधिकतर लोग इस बारे में बहुत हुआ तो निर्णायक मंडल से शिकायत करने के बाद रुक जाते। लेकिन इस व्यक्ति ने जब निर्णायक मंडल समूह से इसकी शिकायत की थी तो ठीक उसी समय नूह और अब्राहम की कहानियों पर मेरी संगति सुनी थी। यह सुनकर वह प्रेरित हुआ और सोचने लगा, “परमेश्वर के वचन सुनकर नूह पीछे हटे बिना इतने साल तक इन पर अडिग रहा। लेकिन मैं इस छोटी-सी कठिनाई का सामना करते हुए अडिग नहीं रह सकता—एक इंसान को ऐसा तो नहीं करना चाहिए!” इसलिए वह तब तक शिकायत करता रहा जब तक यह मामला अंततः ऊपरवाले तक नहीं पहुँच गया, और ऊपरवाले ने इस समस्या का समाधान किया। क्या तुम लोगों को लगता है कि तुम्हारे बीच ऐसे बहुत सारे लोग हैं? ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम लोगों में से कितने इस व्यक्ति की तरह अडिग रह पाएँगे? क्या तुम लोगों को भी लगता कि दो सौ डॉलर बहुत बड़ी रकम नहीं है, यह कोई बड़ी बात नहीं है और लिहाजा यह सोचने लगते कि सिद्धांतों पर इतनी दृढ़ता से अडिग रहने या इतने गंभीर होने की कोई जरूरत नहीं है और यह भी कि जब तक कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी नहीं होती तब तक तुम शिकायत करने का इंतजार कर सकते हो? क्या तुम लोग यह सोचोगे, “कुछ भी हो, मैंने अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा दी है। अब कोई इस पर ध्यान देता है या नहीं, यह अगुआओं पर निर्भर करता है। मैं तो बस साधारण विश्वासी हूँ, मेरे पास इतनी ही सामर्थ्य है, मैं बस इतना ही कर सकता हूँ। मैंने इस बारे में शिकायत कर दी है, मैं अपना दायित्व निभा चुका हूँ; बाकी बातों से मेरा वास्ता नहीं है”? क्या तुम लोग इसी तरह नहीं सोचोगे? अगर कोई तुम्हें दबाए तो क्या तुम इसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं दिखाओगे? इस व्यक्ति ने मसले की शिकायत करने की प्रक्रिया के दौरान दमन झेला था और कुछ लोगों ने उस पर उँगली उठाते हुए उसकी निंदा की और हमेशा उसे पीड़ा देने की कोशिश की। इन लोगों के मन में कितनी दुर्भावना भरी होगी! मुझे ऐसे कुछ व्यक्ति याद हैं—मैं उन्हें क्यों याद रखता हूँ? उन्होंने परमेश्वर के घर का खाना खाया और परमेश्वर के दिए सत्यों का सुख भोगा, फिर भी परमेश्वर की भेंटों के प्रति उनका रवैया ऐसा था। क्या उन्हें परमेश्वर के घर के लोग माना जा सकता है? वे इस लायक नहीं हैं! उनसे अपनी गवाही में अडिग रहने की अपेक्षा नहीं की जाती क्योंकि उनमें यह चरित्र नहीं था। लेकिन उनसे जो उम्मीद की जाती है वे वह भी नहीं कर सके, इसलिए क्या वे अब भी परमेश्वर के घर में रहने लायक थे? क्या ऐसे लोगों को याद रखा जाना चाहिए? क्या तुम लोग ऐसे इंसानों को पसंद करते हो? (नहीं।) तो फिर तुम लोग कैसे लोगों को पसंद करते हो? (उन्हें जो सिद्धांतों का पालन करते हैं, जो परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में अंत तक जुटे रहते हैं।) मुझे उन निकम्मे लोगों से घृणा होती है जो मजबूत लोगों के सामने डर जाते हैं और निष्कपट लोगों के सामने साहसी बनते फिरते हैं। मुझे उन लोगों से भी घृणा है जो जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, उनसे भी घृणा है जिनकी सत्य में रुचि नहीं है, और खास कर उनसे जिन्होंने कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बावजूद सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझा है या जो बिल्कुल भी नहीं बदले हैं, और अब भी अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और उससे सावधान रहते हैं। अगर ऐसे लोगों के स्पष्ट रूप से बुराई करने के कोई मामले नहीं हैं तो इन्हें मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता, लेकिन मैं उनसे घृणा करता हूँ। कितनी घृणा? ठीक उतनी ही घृणा जितनी मैं मसीह-विरोधियों से करता हूँ। क्यों? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन को एक वस्तु मानते हैं ताकि इनकी खरीद-फरोख्त और लेन-देन कर इससे मुनाफा कमाया जाए। भले ही ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों से मुनाफा न कमाए, फिर भी परमेश्वर के वचनों के प्रति उसके रवैये से हम यह आकलन कर सकते हैं कि वह बिल्कुल मसीह-विरोधियों जैसा है, कि वह परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चलता, या यहाँ तक कि उसमें परमेश्वर की भेंटों के प्रति जो सरल और सबसे आम रवैया होना चाहिए वह भी नहीं है, और वह जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है। ऐसे लोग किस मिट्टी के बने हैं? ये यहूदा हैं जो प्रभु को और अपने दोस्तों को धोखा देते हैं। यह कहानी सुनकर तुम लोगों के क्या विचार हैं? क्या तुम लोग ऐसी स्थितियों में सिद्धांतों का पालन कर अपने रुख पर कायम रह सकते हो? अगर तुम निकम्मे हो, हमेशा घबराकर पीछे हटते हो, हमेशा मसीह-विरोधियों की ताकत से डरते हो, उनके सताए जाने से डरते हो, उनकी ताकत से नुकसान पहुँचने से डरते हो और तुम्हारे दिल में हमेशा डर बैठा रहता है, और तुममें इससे निपटने के लिए बुद्धि नहीं है, तुम हमेशा मसीह-विरोधियों से समझौता कर लेते हो, उनकी शिकायत करने या उन्हें उजागर करने का साहस नहीं करते, या उन्हें अस्वीकार करने के लिए अपना साथ देने के लिए दूसरे लोगों को खोजने की हिम्मत नहीं करते तो तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर की गवाही में अडिग रह सके—तुम निकम्मे हो, जिस थाली में खाते हो उसी में छेद कर देते हो। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को वस्तु मानते हैं, इनका उपयोग अनुचित रूप से अंधाधुंध मुनाफा कमाने, तुम्हें धमकाने और तुम्हारा पोषण रोकने के लिए करते हैं, और अगर तुम ऐसी स्थितियों में भी उन्हें अस्वीकार नहीं कर पाते, तो क्या तुम एक विजेता हो? क्या तुम मसीह का अनुयायी होने लायक हो? अगर तुममें यह क्षमता भी नहीं है कि तुम परमेश्वर से मुफ्त में मिलने वाले वचन और आध्यात्मिक पोषण प्राप्त कर सको, और इन चीजों को खा-पी सको या इनका आनंद ले सको तो इससे तुम कितने तुच्छ बन जाते हो?

मैंने अभी-अभी जिन तथ्यों पर संगति की है वे परमेश्वर के वचनों को वस्तु मानने की मसीह-विरोधियों की कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को नहीं खाते-पीते, और वे सत्य को नहीं स्वीकारते, वे उनसे अपनी शोभा बढ़ाने के वास्ते परमेश्वर के वचनों को सिर्फ सरसरी तौर पर पढ़कर निगाह डाल लेते हैं। परमेश्वर के वचनों को वे अपनी वस्तुएँ और निजी संपत्ति मानते हैं, ताकि वे मनचाहा धन और लाभ पाने के लिए इनका लेन-देन कर सकें, और ताकि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और खाने-पीने की स्वतंत्रता को नियंत्रित कर सकें। ऐसे मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं, दानव और छद्म-विश्वासी होते हैं; वे अविश्वासियों की जमात के हैं! ऐसा कोई भी परमेश्वर के घर में दिखाई दे तो उसे निष्कासित कर देना चाहिए, हमेशा-हमेशा के लिए निष्कासित कर देना चाहिए! क्या ऐसे लोगों से सामना होने पर तुम लोगों में उन्हें अस्वीकार करने की हिम्मत है? क्या तुम लोगों में एकजुट होकर उन्हें उजागर करने की हिम्मत है? उन्हें उजागर किया जाना चाहिए; उन्हें अस्वीकार किया जाना चाहिए। परमेश्वर के घर पर सत्य का शासन है। अगर तुम लोगों का ऐसा आध्यात्मिक कद नहीं है तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बन पाए हैं। अगर तुम डरपोक हो, शैतानों से डरते हो, बुरे लोगों से डरते हो, मसीह-विरोधियों से लड़ने के बजाय खुद को बचाने के लिए उनसे समझौते करना बेहतर समझते हो, भले ही इसका मतलब परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना या उन्हें प्राप्त न करना हो तो तुम भूखे मरने लायक हो और अगर तुम ऐसा करते हो तो किसी को भी तुम पर दया नहीं आएगी। अगर तुम लोगों के सामने ऐसी स्थितियाँ आएँ तो तुम्हें कैसे चुनना और अभ्यास करना चाहिए? तुम्हें उन लोगों को फौरन उजागर करना चाहिए। परमेश्वर के वचन वस्तुएँ नहीं हैं; वे परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को प्रदान की जाती हैं, वे किसी एक व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं होतीं। किसी को भी परमेश्वर के वचनों को अपने पास रोकने या अपने लिए ही रखने का अधिकार नहीं है। परमेश्वर के वचन उसका अनुसरण करने वाले सभी चुने हुए लोगों को मुफ्त में और बिना प्रतिफल लिए बाँटे जाने चाहिए। जो भी व्यक्ति उन्हें अपने पास रोकता है, उनसे गलत ढंग से अंधाधुंध मुनाफा पाने की कोशिश करता है या परमेश्वर के वचनों के बारे में व्यक्तिगत योजनाएँ बनाता है तो वह शाप का भागी है। वह ऐसा व्यक्ति है जिसे उजागर और अस्वीकार करने के लिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को खड़ा होना चाहिए और उसे बहिष्कृत कर हटा देना चाहिए।

आज मैंने जिन दो मदों पर संगति की क्या वे यह बखूबी स्पष्ट करती हैं कि मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं? (हाँ।) मसीह-विरोधी कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, न वे इन्हें सँजोते हैं, न मूल्यवान समझते हैं, न ही इनसे सृष्टिकर्ता के वचनों की तरह पेश आते हैं। इसके बजाय वे हर मोड़ पर अपनी अकथनीय, घृणित, कुत्सित मंशाएँ दिखाते हैं। वे केवल अपने अकथनीय उद्देश्यों को पूरा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहते हैं, और चाहे भौतिक या अमूर्त चीजों की बात हो, वे परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल अपने लिए अनुचित फायदा उठाने में, पैसा और भौतिक चीजें हासिल करने में, या लोगों से अपनी चापलूसी, प्रशंसा, आराधना और अनुसरण कराने में करना चाहते हैं। परमेश्वर इन चीजों से नफरत करता है और लोगों को इन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जब कभी ऐसे लोगों को पाए या ऐसी घटनाएँ होते देखे तो उसे इन्हें उजागर और अस्वीकार करने के लिए खड़ा होना चाहिए, और ऐसे लोगों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच तनकर खड़े होने से रोकना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसी चीजें सामने आने पर वे इनके बारे में ऊपरवाले से शिकायत करेंगे, लेकिन यह बहुत ही निष्क्रिय और धीमी बात है। अगर तुम इन चीजों की शिकायत ऊपरवाले को करके रह जाते हो तो तुम बहुत ही बेकार हो! तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए, पिए हैं और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी तुम सिर्फ शिकायत भेजना जानते हो—इसका अर्थ है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद निहायत छोटा है! निश्चित ही मसीह-विरोधियों से निपटने के लिए तुम्हारे पास दूसरे तरीके होंगे? ऊपरवाले को शिकायत भेजना तो अंतिम उपाय है, यह ऐसा कदम है जो निहायत जरूरी होने पर ही उठाया जाता है। अगर तुम्हारी गिनती कम है, तुम मुकाबला करने लायक नहीं हो और तुममें नीर-क्षीर विवेक नहीं है और तुम इस बारे में आश्वस्त नहीं हो कि कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या नहीं, तो हो सकता है कि तुम उसकी तमाम अभिव्यक्तियों और क्रिया-कलापों को उजागर करने का साहस न कर सको। लेकिन अगर तुम्हें पक्का यकीन है कि वह एक मसीह-विरोधी है और फिर भी तुम उसका मुकाबला करने, उसे अस्वीकार करने और उसे हराने के लिए खड़े होने का साहस नहीं करते तो क्या तुम निपट बेकार नहीं हो? तुम जो थोड़ा-सा सत्य समझते भी हो उसका उपयोग नहीं कर रहे हो। क्या तुम्हें पक्का यकीन है कि जिस चीज को तुम समझते और सुनते हो वह सत्य है? अगर ऐसा है तो फिर क्यों नहीं तुम सख्ती और धार्मिकता के साथ खड़े होकर मसीह-विरोधियों का मुकाबला करते? ऐसा तो है नहीं कि मसीह-विरोधी कोई शासन करने वाले अधिकारी हों—तुम उनसे किसलिए घबराए हुए हो? अगर ऐसी नौबत हो कि उतावली में आकर उन्हें उजागर करने से वे तुम्हें अधिकारियों को सौंप सकते हैं—ऐसी परिस्थितियों में तुम्हें सावधान रहना चाहिए, उन्हें भड़काना नहीं चाहिए, उनकी गुपचुप आलोचना करने और साख घटाने के लिए तुम्हें होशियारी भरे तरीके अपनाने चाहिए और उन्हें धीरे-धीरे हटाना चाहिए। क्या उन्हें चुपचाप हटाना ज्यादा प्रभावशाली तरीका नहीं है? (हाँ।) तो ठीक है, आज की संगति यहीं तक। अलविदा!

12 सितंबर 2020

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