स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V

परमेश्वर की पवित्रता (II)

आज, भाइयो और बहनो, आओ हम एक भजन गाएँ। जो तुम लोगों को पसंद हो और जिसे तुम लोग नियमित रूप से गाते हो उसे चुन लो। (हम परमेश्वर के वचनों का भजन 760 गाएँगे, “शुद्ध और निष्कलंक प्रेम।”)

1 “प्रेम” एक ऐसा भाव है जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम धोखा नहीं दोगे, शिकायत, विश्वासघात, विद्रोह नहीं करोगे, कुछ छीनने, पाने या ज्यादा माँगने की कोशिश नहीं करोगे।

2 “प्रेम” एक ऐसा भाव है जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। यदि तुम प्रेम करते हो, तो खुशी-खुशी खुद को समर्पित करोगे, खुशी-खुशी कष्ट सहोगे, मेरे अनुरूप हो जाओगे, मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग दोगे, तुम अपना परिवार, अपना भविष्य, अपनी जवानी और अपना विवाह छोड़ दोगे। वरना तुम लोगों का प्रेम, प्रेम बिलकुल नहीं होगा, बल्कि कपट और विश्वासघात होगा!

—मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ

यह भजन एक अच्छा चुनाव था। क्या तुम सबको इसे गाने में मजा आता है? इसे गाने के बाद तुम्हें कैसा लगता है? क्या तुम इस तरह के प्रेम को अपने भीतर महसूस कर पाते हो? (अभी तक नहीं।) इसके कौन-से शब्द तुम्हें सबसे ज्यादा गहराई तक प्रेरित करते हैं? (प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। लेकिन अपने अंदर मैं अभी भी कई अशुद्धताएँ देखता हूँ, और मेरे कई अंग परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं। मुझे वास्तव में वैसा प्रेम नहीं हुआ, जो शुद्ध और निर्दोष हो।) अगर तुम्हें वैसा प्रेम नहीं हुआ, जो शुद्ध और निर्दोष हो, तब तुम्‍हारे प्रेम की मात्रा क्या है? (मैं मात्र उस चरण पर हूँ, जहाँ मैं खोजने की अभिलाषा रखता हूँ, जहाँ मैं तड़प रहा हूँ।) अपने आध्यात्मिक कद के आधार पर और अपने स्वयं के अनुभव से बोलते हुए, तुमने प्रेम की कितनी मात्रा प्राप्त की है? क्या तुम्‍हारे पास धोखा है? क्या तुम्‍हारे पास शिकायतें हैं? क्या तुम्‍हारे हृदय में माँगें हैं? क्या कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें तुम परमेश्वर से चाहते और माँगते हो? (हाँ, मेरे भीतर ये ख़राब चीज़ें हैं।) वे किन परिस्थितियों में बाहर आती हैं? (जब परमेश्वर द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित की गई स्थिति मेरे विचारों से मेल नहीं खाती, या जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं : ऐसे क्षणों में मेरा इस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है।) तुम भाई-बहनें, जो ताइवान से आते हो, क्या तुम लोग भी अकसर इस भजन को गाते हो? क्या तुम थोड़ा बता सकते हो कि तुम लोग “शुद्ध और निष्कलंक प्रेम” से क्या समझते हो? परमेश्वर क्यों प्रेम को इस तरह परिभाषित करता है? (यह भजन मुझे बहुत ज्यादा पसंद है, क्योंकि मैं इससे देख सकता हूँ कि यह प्रेम एक पूर्ण प्रेम है। हालाँकि उस मानक को पूरा करने के लिए मुझे अभी भी काफी लंबी दूरी तय करनी है, और मैं सच्चा प्रेम करने से अभी भी बहुत दूर हूँ। कुछ चीज़ें हैं, जिनमें मैं उस शक्ति के माध्यम से जो उसके वचन मुझे देते हैं, और प्रार्थना के माध्यम से प्रगति और सहयोग करने में सक्षम रहा हूँ। हालाँकि जब कुछ परीक्षण और प्रकटन सामने आते हैं, तो मुझे लगता है कि मेरा कोई भविष्य या भाग्य नहीं है, कि मेरे पास कोई गंतव्य नहीं है। ऐसे क्षणों में मैं बहुत कमजोर महसूस करता हूँ और यह मुद्दा मुझे प्रायः परेशान करता है।) जब तुम “भविष्य और नियति” की बात करते हो, तब तुम अंततः किस चीज़ का उल्लेख करते हो? क्या तुम किसी ख़ास चीज़ का उल्लेख करते हो? क्या यह कोई तसवीर है या कोई ऐसी चीज़ है, जिसकी तुमने कल्पना की है या क्या तुम्हारा भविष्य और नियति कोई ऐसी चीज़ है, जिसे तुम वास्तव में देख सकते हो? क्या यह कोई वास्तविक चीज़ है? मैं चाहता हूँ कि तुम लोगों में से प्रत्येक इस बारे में विचार करे : अपने भविष्य और नियति को लेकर तुम लोगों के हृदय में जो चिंताएँ हैं, वे किसे संदर्भित करती हैं? (यह बचाए जाने योग्य होना है, ताकि मैं जीवित रह सकूँ।) अन्य भाई-बहनो, तुम भी थोड़ा बताओ कि तुम “शुद्ध और निष्कलंक प्रेम” से क्या समझते हो? (जब यह किसी व्यक्ति के पास होता है, तो उसके व्यक्तिगत स्व से कोई अशुद्धि नहीं आती, और वे अपने भविष्य और भाग्य द्वारा नियंत्रित नहीं होते। भले ही परमेश्वर उनके साथ कैसा भी बरताव करता हो, वे परमेश्वर के कार्य और आयोजनों का पूर्णतः पालन करने और अंत तक उसका अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर के लिए केवल इस प्रकार का प्रेम ही शुद्ध निर्दोष प्रेम होता है। अपने को इसकी तुलना में मापने पर मैंने पाया है कि, हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में परमेश्वर पर विश्वास करते हुए मैंने अपने को खपाया है और कुछ चीज़ों का त्याग किया है, पर मैं वास्तव में परमेश्वर को अपना हृदय देने में सक्षम नहीं रहा हूँ। जब परमेश्वर मुझे उजागर करता है, तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मुझे बचाया नहीं जा सकता, और मैं एक नकारात्मक अवस्था में रहता हूँ। मैं स्वयं को अपना कर्तव्य करते हुए देखता हूँ, किंतु साथ ही मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाज़ी करने की कोशिश भी कर रहा होता हूँ, और मैं अपने संपूर्ण हृदय से परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ हूँ, और मेरा गंतव्य, मेरा भविष्य और मेरी नियति हमेशा मेरे मन में रहते हैं।) ऐसा लगता है कि तुम लोगों ने इस भजन की कुछ समझ प्राप्त कर ली है, और इसके तथा अपने वास्तविक अनुभवों के बीच कुछ संबंध बना लिए हैं। हालाँकि इस “शुद्ध और निष्कलंक प्रेम” नामक भजन के प्रत्येक पद तुम भिन्न-भिन्न मात्रा में स्वीकार करते हो। कुछ लोग सोचते हैं कि यह स्वेच्छा के बारे में है, कुछ लोग अपना भविष्य एक तरफ रख देने के इच्छुक हैं, कुछ लोग अपने परिवार को अलग कर देना चाहते हैं, कुछ लोग कुछ भी प्राप्त नहीं करना चाहते। कुछ अन्य लोग परमेश्वर को धोखा न देना, कोई शिकायत न करना और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह न करना अपने लिए आवश्यक मानते हैं। परमेश्वर क्यों इस प्रकार का प्रेम करने की सलाह देना चाहेगा, और यह चाहेगा कि लोग उसे इस तरह से प्रेम करें? क्या यह उस प्रकार का प्रेम है, जिसे लोग प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात्, क्या लोग इस प्रकार से प्रेम करने में समर्थ हैं? लोग देख सकते हैं कि वे ऐसा प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें इस प्रकार का प्रेम होने का कोई संकेत नहीं है। जब लोगों के पास यह नहीं है, और वे प्रेम के बारे में बुनियादी रूप से नहीं जानते, तो परमेश्वर इन वचनों को कहता है, और ये वचन उनके लिए अनजाने हैं। चूँकि लोग इस दुनिया में रहते हैं और एक भ्रष्ट स्वभाव में जीते हैं, इसलिए अगर लोगों के पास इस प्रकार का प्रेम होता या अगर कोई व्यक्ति इस प्रकार का प्रेम कर सकता, ऐसा प्रेम जो कोई अनुरोध और माँग नहीं करता, ऐसा प्रेम जिसके साथ वे अपने आपको समर्पित करने, कष्ट सहने और अपना सब-कुछ त्यागने के लिए तैयार हों, तो इस प्रकार का प्रेम करने वाले के बारे में अन्य लोग क्या सोचेंगे? क्या ऐसा व्यक्ति पूर्ण नहीं होगा? (हाँ, होगा।) क्या इस तरह का कोई पूर्ण व्यक्ति इस जगत में विद्यमान है? इस तरह का कोई व्यक्ति दुनिया में बिलकुल विद्यमान नहीं है। यह परम सत्य है। इसलिए, कुछ लोग अपने अनुभवों के द्वारा, इन वचनों पर खुद को मापने का बहुत प्रयास करते हैं। वे स्वयं से निपटते हैं, स्वयं को संयमित करते हैं, यहाँ तक कि वे स्वयं को भी लगातार त्यागते रहते हैं : वे कष्ट सहते हैं और अपनी धारणाओं का त्याग कर देते हैं। वे अपनी विद्रोहशीलता छोड़ देते हैं और अपनी इच्छाओं तथा अभिलाषाओं का त्याग कर देते हैं। किंतु अंततः वे फिर भी माप नहीं पाते। ऐसा क्यों होता है? परमेश्वर लोगों द्वारा पालन किए जाने के लिए एक मानक प्रदान करने हेतु इन बातों को कहता है, ताकि लोग परमेश्वर द्वारा उनसे माँगे गए मानक को जानें। पर क्या परमेश्वर कभी कहता है कि लोगों को इसे तुरंत प्राप्त करना चाहिए? क्या कभी परमेश्वर कहता है कि कितने समय में लोगों को इसे प्राप्त करना है? (नहीं।) क्या कभी परमेश्वर कहता है कि लोगों को उसे इस तरह से प्रेम करना है? क्या भजन के इस अंश में ऐसा कहा गया है? नहीं, इसमें ऐसा नहीं कहा गया है। परमेश्वर लोगों को बस उस प्रेम के बारे में बता रहा है, जिसका वह उल्लेख कर रहा था। जहाँ तक लोगों के परमेश्वर को इस तरह से प्रेम करने और परमेश्वर से इस तरह से व्यवहार करने में सक्षम होने की बात है, तो मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? उन्हें तत्क्षण पूरा करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि यह लोगों के सामर्थ्य से परे होगा। क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है कि इस प्रकार से प्रेम करने के लिए लोगों को किस तरह की शर्तें पूरी करनी आवश्यक हैं? अगर लोग बार-बार इन वचनों को पढ़ेंगे, तो क्या वे धीरे-धीरे इस प्रेम को पा लेंगे? (नहीं।) तब क्या शर्तें हैं? पहली बात, लोग परमेश्वर के प्रति संशय से कैसे मुक्त हो सकते हैं? (केवल ईमानदार लोग ही इसे प्राप्त कर सकते हैं।) धोखे से मुक्त होने के बारे में क्या कहोगे? (यह भी ईमानदार लोग ही कर सकते हैं।) ऐसा व्यक्ति होने के बारे में क्या ख़याल है, जो परमेश्वर से सौदेबाज़ी नहीं करता? यह भी ईमानदार व्यक्ति होने का एक हिस्सा है। चालाकी से रहित होने के बारे में क्या कहोगे? प्रेम में कोई चुनाव न होने का क्या अर्थ है? क्या ये सब चीज़ें ईमानदार व्यक्ति होने से संबंध रखती हैं? यहाँ इसका बहुत सारा विवरण है। इससे क्या साबित होता है कि परमेश्वर इस प्रकार के प्रेम को इस तरह से बताने और परिभाषित करने में सक्षम है? क्या हम कह सकते हैं कि परमेश्वर के पास ऐसा प्रेम है? (हाँ।) तुम लोग इसे कहाँ देखते हो? (मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम में।) क्या मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सशर्त है? क्या परमेश्वर और मनुष्य के बीच में अवरोध या दूरी है? क्या परमेश्वर को मनुष्यों के बारे में संदेह हैं? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य को देखता है और उसे समझता है; वह मनुष्य को सचमुच समझता है। क्या परमेश्वर मनुष्य के प्रति कपटपूर्ण है? (नहीं।) चूँकि परमेश्वर इस प्रेम के बारे में इतनी पूर्णता से कहता है, तो क्या उसका हृदय या उसका सार भी इतना ही पूर्ण हो सकता है? (हाँ।) बिना किसी संदेह के, वे इतने ही पूर्ण हैं; जब लोगों का अनुभव एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाता है, तो वे इसे महसूस कर सकते हैं। क्या लोगों ने कभी प्रेम को इस तरह से परिभाषित किया है? मनुष्य ने किन परिस्थितियों में प्रेम को परिभाषित किया है? मनुष्य प्रेम के बारे में कैसे बात करता है? क्या मनुष्य प्रेम के बारे में देने या अर्पित करने के रूप में बात नहीं करता? (हाँ।) प्रेम की यह परिभाषा सरलीकृत है; इसमें सार का अभाव है।

परमेश्वर की प्रेम की परिभाषा और जिस तरह से परमेश्वर प्रेम के बारे में बोलता है, वे उसके सार के एक पहलू से संबंधित हैं, किंतु वह कौन-सा पहलू है? पिछली बार हमने एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय के बारे में संगति की थी, एक ऐसा विषय, जिस पर लोगों ने अकसर पहले चर्चा की है। इस विषय में एक शब्द है, जो परमेश्वर पर विश्वास करने के दौरान अकसर बोला जाता है, लेकिन फिर भी जो ऐसा शब्द है, जिससे हर कोई परिचित और अपरिचित दोनों महसूस करता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? वह एक ऐसा शब्द है, जो मनुष्य की भाषाओं से आता है; हालाँकि लोगों के बीच इसकी परिभाषा स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों है। वह शब्द क्या है? (“पवित्रता”।) पवित्रता : यह पिछली बार संगति का हमारा विषय था। हमने इस विषय के एक भाग के बारे में संगति की थी। अपनी पिछली संगति के माध्यम से क्या हर किसी ने परमेश्वर की पवित्रता के सार के बारे में कोई नई समझ प्राप्त की? इस समझ के कौन-से पहलू तुम लोगों को पूरी तरह से नए लगते हैं? अर्थात्, इस समझ या उन वचनों के भीतर ऐसा क्या है, जिससे तुम लोगों को महसूस हुआ कि परमेश्वर की पवित्रता की तुम्हारी समझ मेरे द्वारा संगति के दौरान बताई गई परमेश्वर की पवित्रता से भिन्न या अलग थी? क्या तुम पर उसका कोई प्रभाव है? (परमेश्वर वह कहता है, जो वह अपने हृदय में महसूस करता है; उसके वचन निष्कलंक हैं। यह पवित्रता के एक पहलू की अभिव्यक्ति है।) (पवित्रता तब भी होती है, जब परमेश्वर मनुष्य के प्रति कुपित होता है; उसका कोप दोष-रहित होता है।) (जहाँ तक परमेश्वर की पवित्रता की बात है, मैं समझता हूँ कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में उसका क्रोध और दया दोनों शामिल हैं। इसने मुझ पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला है। हमारी पिछली संगति में यह भी उल्लेख किया गया था कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अद्वितीय है—मुझे अतीत में यह समझ नहीं आया था। परमेश्वर ने जो संगति की थी, उसे सुनकर ही मेरी समझ में आया कि परमेश्वर का क्रोध मनुष्य के क्रोध से अलग है। परमेश्वर का क्रोध एक सकारात्मक चीज़ है और वह सिद्धांत पर आधारित है; वह परमेश्वर के अंतर्निहित सार के कारण किया जाता है। परमेश्वर कुछ नकारात्मक देखता है, इसलिए क्रोध करता है। यह एक ऐसी चीज़ है, जो किसी सृजित प्राणी में नहीं है।) आज का हमारा विषय परमेश्वर की पवित्रता है। सभी लोगों ने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में कुछ न कुछ सुना और जाना है। इतना ही नहीं, कई लोग प्रायः एक ही साँस में परमेश्वर की पवित्रता और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में बात करते हैं; वे कहते हैं कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव पवित्र है। “पवित्र” शब्द निश्चित रूप से किसी के लिए अपरिचित नहीं है—यह एक आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है। लेकिन शब्द के भीतर के अर्थों के संबंध में, परमेश्वर की पवित्रता की कौन-सी अभिव्यक्ति देखने में लोग सक्षम हैं? परमेश्वर ने क्या प्रकट किया है, जिसे लोग पहचान सकते हैं? मेरा ख़याल है कि यह कुछ ऐसा है, जिसे कोई नहीं जानता। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, किंतु अगर तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लो और कहो कि यह पवित्र है, तो यह थोड़ा अस्पष्ट, थोड़ा भ्रामक प्रतीत होता है; ऐसा क्यों है? तुम कहते हो, परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, या तुम कहते हो, उसका धार्मिक स्वभाव पवित्र है, तो अपने हृदय में तुम लोग परमेश्वर की पवित्रता का कैसे चित्रण करते हो, तुम लोग उसे कैसे समझते हो? अर्थात्, परमेश्वर ने जो प्रकट किया, उसके बारे में क्या ख़याल है, या परमेश्वर के स्वरूप के बारे में, क्या उन्हें लोग पवित्र मानेंगे? क्या तुमने इसके बारे में पहले सोचा है? मैंने जो देखा है, वह यह है कि लोग प्रायः सामान्य रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों के साथ सामने आते हैं या उनके पास ऐसे मुहावरे होते हैं, जो बार-बार कहे जा चुके हैं, पर वे यह तक नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं। यह ठीक वैसा ही होता है, जैसा हर कोई कहता है, और वे इसे आदतन कहते हैं, इसलिए यह उनके लिए एक निश्चित शब्द बन जाता है। लेकिन अगर वे जाँच करें और वास्तव में विवरणों का अध्ययन करें, तो वे यह पाएँगे कि उन्हें नहीं पता कि उसका वास्तविक अर्थ क्या है या वह किसका उल्लेख करता है। ठीक “पवित्र” शब्द की तरह, कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि परमेश्वर की जिस पवित्रता के बारे में वे बात करते हैं, उसके संबंध में परमेश्वर के सार के किस पहलू का उल्लेख किया जा रहा है, और कोई नहीं जानता कि परमेश्वर के साथ “पवित्र” शब्द का सामंजस्य कैसे बैठाना है। लोग अपने हृदयों में भ्रमित हैं, और परमेश्वर की पवित्रता की उनकी पहचान अनिश्चित और अस्पष्ट है। परमेश्वर पवित्र कैसे है, इस बारे में कोई पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। आज हम परमेश्वर के साथ “पवित्र” शब्द का सामंजस्य स्थापित करने के लिए इस विषय पर संगति करेंगे, ताकि लोग परमेश्वर की पवित्रता के सार की वास्तविक अंतर्वस्तु देख सकें। यह कुछ लोगों को इस शब्द के आदतन और लापरवाही के साथ इस्तेमाल करने और चीज़ों को जैसे चाहे, वैसे कहने से रोकेगा, जबकि वे नहीं जानते कि उनका क्या अर्थ है या वे सही और सटीक हैं या नहीं। लोगों ने हमेशा इसी तरह कहा है; तुमने कहा है, उसने कहा है, और इस प्रकार यह बोलने की एक आदत बन गई है। यह अनजाने ही ऐसे शब्द को दूषित कर देता है।

ऊपर से “पवित्र” शब्द समझने में बहुत आसान लगता है, है न? कम से कम, लोग “पवित्र” शब्द का अर्थ स्वच्छ, निर्मल, पावन और शुद्ध मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो “शुद्ध और निष्कलंक प्रेम” भजन में, जिसे हमने अभी गाया है, “पवित्रता” को “प्रेम” के साथ जोड़ते हैं। यह सही है; यह इसका एक भाग है। परमेश्वर का प्रेम उसके सार का भाग है, किंतु यह उसकी समग्रता नहीं है। हालाँकि लोग अपनी धारणाओं में शब्द को देखते हैं और उसे उन चीज़ों के साथ जोड़ने में प्रवृत्त हो जाते हैं, जिन्हें वे स्वयं शुद्ध और साफ़ समझते हैं या उन चीज़ों के साथ, जिनके बारे में वे व्यक्तिगत रूप से सोचते हैं कि वे निर्मल और निष्कलंक हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने कहा कि कमल का फूल स्वच्छ है, और कि वह कीचड़ में भी निष्कलंक खिलता है। इसलिए लोग कमल के फूल के लिए “पवित्र” शब्द का प्रयोग करने लगे। कुछ लोग मनगढ़ंत प्रेम-कथाओं को पवित्र समझते हैं, या वे कुछ कल्पित, विस्मयकारी चरित्रों को पवित्र समझ सकते हैं। इसके अलावा, कुछ लोग बाइबल या अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों में दर्ज लोगों को—जैसे कि संत, प्रेरित या अन्य, जिन्होंने कभी परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के दौरान उसका अनुसरण किया था—आध्यात्मिक अनुभव पाए हुए लोग मानते हैं, जो पवित्र था। ये सब चीज़ें लोगों द्वारा कल्पित की गई हैं और ये सब उनकी धारणाएँ हैं। लोग इस तरह की धारणाएँ क्यों रखते हैं? इसका कारण बहुत सरल है : ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग भ्रष्ट स्वभाव के बीच जीते हैं और बुराई तथा गंदगी की दुनिया में रहते हैं। वे जो कुछ भी देखते हैं, वे जो कुछ भी छूते हैं, वे जो कुछ भी अनुभव करते हैं, वह शैतान की दुष्टता और शैतान की भ्रष्टता है और साथ ही ऐसे कुचक्र, अंतर्कलह और युद्ध हैं, जो शैतान के प्रभाव से ग्रस्त लोगों के बीच होते हैं। इसलिए, जब परमेश्वर लोगों में अपना कार्य करता है, या जब वह उनसे बात करता है और अपना स्वभाव और सार प्रकट करता है, तब भी वे परमेश्वर की पवित्रता और सार को देखने या जानने में सक्षम नहीं होते। लोग प्रायः कहते हैं कि परमेश्वर पवित्र है, किंतु उनमें सच्ची समझ का अभाव है; वे बस खोखले शब्द कहते हैं। चूँकि लोग गंदगी और भ्रष्टता में रहते हैं और शैतान के अधिकार-क्षेत्र में हैं, और वे प्रकाश को नहीं देखते, सकारात्मक मामलों के बारे में कुछ नहीं जानते, और इसके अलावा, सत्य को नहीं जानते, इसलिए कोई भी वास्तव में नहीं जानता कि “पवित्र” का क्या अर्थ है। तो क्या इस भ्रष्ट मानवजाति के बीच कोई पवित्र वस्तुएँ या पवित्र लोग हैं? हम निश्चित रूप से कह सकते हैं : नहीं, कोई नहीं है, क्योंकि केवल परमेश्वर का सार ही पवित्र है।

पिछली बार हमने, परमेश्वर का सार किस तरह पवित्र है, इसके एक पहलू के बारे में संगति की थी। उसने लोगों को परमेश्वर की पवित्रता का ज्ञान प्राप्त करने की कुछ प्रेरणा प्रदान की थी, लेकिन यह काफी नहीं है। यह लोगों को परमेश्वर की पवित्रता को पूरी तरह से जानने में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं कर सकता, और न ही यह समझने में उन्हें सक्षम कर सकता है कि परमेश्वर की पवित्रता अद्वितीय है। इतना ही नहीं, यह लोगों को पवित्रता का सही अर्थ समझने में भी पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं बना सकता, जो कि परमेश्वर में पूरी तरह से सन्निहित है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इस विषय पर अपनी संगति जारी रखें। पिछली बार हमारी संगति में तीन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया था, इसलिए अब हमें चौथे मुद्दे पर विचार-विमर्श करना चाहिए। हम पवित्र शास्त्र को पढ़ने से शुरुआत करेंगे।

शैतान का प्रलोभन

मत्ती 4:1-4 तब आत्मा यीशु को जंगल में ले गया ताकि इब्लीस से उस की परीक्षा हो। वह चालीस दिन, और चालीस रात, निराहार रहा, तब उसे भूख लगी। तब परखनेवाले ने पास आकर उस से कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियाँ बन जाएँ।” यीशु ने उत्तर दिया : “लिखा है, ‘मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा।’”

ये वे वचन हैं, जिनसे इब्लीस ने पहली बार प्रभु यीशु को प्रलोभित करने का प्रयास किया था। इब्लीस ने जो कहा था, उसकी विषयवस्तु क्या है? (“यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियाँ बन जाएँ।”) इब्लीस द्वारा कहे गए ये शब्द काफी साधारण हैं, किंतु क्या इनके सार के साथ कोई समस्या है? इब्लीस ने कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है,” लेकिन अपने दिल में वह जानता था या नहीं कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है? वह जानता था या नहीं कि वह मसीह है? (वह जानता था।) तो उसने ऐसा क्यों कहा “यदि तू है”? (वह परमेश्वर को प्रलोभित करने का प्रयास कर रहा था।) किंतु ऐसा करने में उसका क्या उद्देश्य था? उसने कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है।” अपने दिल में वह जानता था कि यीशु मसीह परमेश्वर का पुत्र है, यह उसके दिल में बहुत स्पष्ट था, किंतु यह जानने के बावजूद, क्या उसने उसके सामने समर्पण किया या उसकी आराधना की? (नहीं।) वह क्या करना चाहता था? वह मसीह को क्रोध दिलाने और फिर अपने इरादों के अनुसार कार्य करवाने में प्रभु यीशु को मूर्ख बनाने के लिए इस पद्धति और इन वचनों का उपयोग करना चाहता था। क्या इब्लीस के शब्दों के पीछे यही अर्थ नहीं था? अपने दिल में शैतान स्पष्ट रूप से जानता था कि यह प्रभु यीशु मसीह है, किंतु उसने फिर भी ये शब्द कहे। क्या यह शैतान की प्रकृति नहीं है? शैतान की प्रकृति क्या है? (धूर्त, दुष्ट होना और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा न रखना।) परमेश्वर के प्रति कोई श्रद्धा न होने के क्या परिणाम होंगे? क्या वह परमेश्वर पर हमला नहीं करना चाहता था? वह इस तरीके का उपयोग परमेश्वर पर हमला करने के लिए करना चाहता था, और इसलिए उसने कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियाँ बन जाएँ”; क्या यह शैतान की बुरी नीयत नहीं है? वह वास्तव में क्या करने का प्रयास कर रहा था? उसका उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है : वह इस तरीके का उपयोग प्रभु यीशु मसीह के पद और पहचान को नकारने के लिए करने की कोशिश कर रहा था। उन शब्दों से शैतान का आशय यह था कि, “अगर तू परमेश्वर का पुत्र है, तो इन पत्थरों को रोटियों में बदल दे। अगर तू ऐसा नहीं कर सकता, तो तू परमेश्वर का पुत्र नहीं है, इसलिए तुझे अपना काम अब और नहीं करना चाहिए।” क्या ऐसा नहीं है? वह इस तरीके का उपयोग परमेश्वर पर हमला करने के लिए करना चाहता था, और वह परमेश्वर के काम को खंडित और नष्ट करना चाहता था; यह शैतान का द्वेष है। उसका द्वेष उसकी प्रकृति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। यद्यपि वह जानता था कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर का पुत्र, स्वयं परमेश्वर का ही देहधारण है, फिर भी वह परमेश्वर का पीछा करते हुए, उस पर लगातार आक्रमण करते हुए और उसके कार्य को अस्त-व्यस्त और नष्ट करने का भरसक प्रयास करते हुए इस प्रकार का काम करने से बाज नहीं आता।

अब, आओ शैतान द्वारा बोले गए इस वाक्यांश का विश्लेषण करें : “तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियाँ बन जाएँ।” पत्थरों को रोटी में बदलना—क्या इसका कुछ अर्थ है? अगर वहाँ भोजन है, तो क्यों न उसे खाया जाए? पत्थरों को भोजन में बदलना क्यों आवश्यक है? क्या यह कहा जा सकता है कि यहाँ कोई अर्थ नहीं है? यद्यपि वह उस समय उपवास कर रहा था, फिर भी क्या निश्चित रूप से प्रभु यीशु के पास खाने को भोजन था? (उसके पास भोजन था।) तो हम यहाँ शैतान के शब्दों की असंगति देख सकते हैं। शैतान की सारी दुष्टता और कपट के बावजूद हम उसकी असंगति और बेतुकापन देख सकते हैं। शैतान बहुत सारी चीज़ें करता है, जिसके माध्यम से तुम उसकी द्वेषपूर्ण प्रकृति को देख सकते हो; तुम उसे वैसी चीज़ें करते देख सकते हो, जो परमेश्वर के कार्य को खंडित करती हैं, और यह देखकर तुम अनुभव करते हो कि वह घृणित और कुपित करने वाला है। किंतु दूसरी ओर, क्या तुम उसके शब्दों और कार्यों के पीछे एक बचकानी और बेहूदी प्रकृति नहीं देखते? यह शैतान की प्रकृति के बारे में एक प्रकाशन है; चूँकि उसकी ऐसी प्रकृति है, इसलिए वह ऐसे ही काम करेगा। आज लोगों के लिए शैतान के ये शब्द असंगत और हास्यास्पद हैं। किंतु शैतान बेशक ऐसे शब्द कहने में सक्षम है। क्या हम कह सकते हैं कि वह अज्ञानी और बेतुका है? शैतान की दुष्टता हर जगह है और लगातार प्रकट हो रही है। और प्रभु यीशु ने उसे कैसे उत्तर दिया? (“मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा।”) क्या इन वचनों में कोई सामर्थ्य है? (उनमें सामर्थ्य है।) हम क्यों कहते हैं कि उनमें सामर्थ्य है? वह इसलिए, क्योंकि ये वचन सत्य हैं। अब, क्या मनुष्य केवल रोटी से जीवित रहता है? प्रभु यीशु ने चालीस दिन और रात उपवास किया। क्या वह भूख से मर गया? वह भूख से नहीं मरा, इसलिए शैतान उसके पास गया और उसे इस तरह की बातें कहते हुए पत्थरों को भोजन में बदलने के लिए उकसाया : “अगर तू पत्थरों को खाने में बदल देगा, तो क्या तब तेरे पास खाने की चीज़ें नहीं होंगी? तब तुझे उपवास नहीं करना पड़ेगा, भूखा नहीं रहना पड़ेगा!” किंतु प्रभु यीशु ने कहा, “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीवित रहेगा,” जिसका अर्थ है कि, यद्यपि मनुष्य भौतिक शरीर में रहता है, किंतु उसका भौतिक शरीर भोजन से नहीं, बल्कि परमेश्वर के मुख से निकले प्रत्येक वचन से जीवित रहता और साँस लेता है। एक ओर, ये वचन सत्य हैं; ये लोगों को विश्वास देते हैं, उन्हें यह महसूस कराते हैं कि वे परमेश्वर पर निर्भर रह सकते हैं और कि वह सत्य है। दूसरी ओर, क्या इन वचनों का कोई व्यावहारिक पहलू है? क्या प्रभु यीशु चालीस दिन और रात उपवास करने के बाद भी खड़ा नहीं था, जीवित नहीं था? क्या यह एक वास्तविक उदाहरण नहीं है? उसने चालीस दिन और रात कोई भोजन नहीं किया था, और वह फिर भी ज़िंदा था। यह सशक्त गवाही है, जो उसके वचनों की सच्चाई की पुष्टि करती है। ये वचन सरल है, किंतु क्या प्रभु यीशु ने इन्हें केवल तभी बोला जब शैतान ने उसे प्रलोभित किया, या ये पहले से ही प्राकृतिक रूप से उसका एक हिस्सा थे? इसे दूसरी तरह से कहें तो, परमेश्वर सत्य है, और परमेश्वर जीवन है, लेकिन क्या परमेश्वर का सत्य और जीवन बाद के जोड़ थे? क्या वे बाद के अनुभव से उत्पन्न हुए थे? नहीं—वे परमेश्वर में जन्मजात थे। कहने का तात्पर्य यह है कि सत्य और जीवन परमेश्वर के सार हैं। उस पर चाहे जो भी बीते, वह सब सत्य ही प्रकट करता है। यह सत्य, ये वचन—चाहे उसकी वाणी की अंतर्वस्तु लंबी हो या छोटी—वे मनुष्य को जीने में सक्षम बना सकते हैं और उसे जीवन दे सकते हैं; वे लोगों को मानव-जीवन के मार्ग के बारे में सत्य और स्पष्टता हासिल करने में सक्षम बना सकते हैं, और उन्हें परमेश्वर पर विश्वास करने में सक्षम बना सकते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर द्वारा इन वचनों के प्रयोग का स्रोत सकारात्मक है। तो क्या हम कह सकते हैं कि यह सकारात्मक चीज़ पवित्र है? (हाँ।) शैतान के वे शब्द शैतान की प्रकृति से आते हैं। शैतान हर जगह लगातार अपनी दुष्ट और द्वेषपूर्ण प्रकृति प्रकट करता रहता है। अब, क्या शैतान ये प्रकाशन स्वाभाविक रूप से करता है? क्या कोई उसे ऐसा करने का निर्देश देता है? क्या कोई उसकी सहायता करता है? क्या कोई उसे विवश करता है? नहीं। ये सब प्रकाशन वह स्वतः करता है। यह शैतान की दुष्ट प्रकृति है। जो कुछ भी परमेश्वर करता है और जैसे भी करता है, शैतान उसके पीछे-पीछे चलता है। शैतान द्वारा कही और की जाने वाली इन चीज़ों का सार और उनकी वास्तविक प्रकृति शैतान का सार है—ऐसा सार, जो दुष्ट और द्वेषपूर्ण है। अब, जब हम आगे पढ़ते हैं, तो शैतान और क्या कहता है? आओ, पढ़ें।

मत्ती 4:5-7 तब इब्लीस उसे पवित्र नगर में ले गया और मन्दिर के कंगूरे पर खड़ा किया, और उससे कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो अपने आप को नीचे गिरा दे; क्योंकि लिखा है : ‘वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा, और वे तुझे हाथों-हाथ उठा लेंगे; कहीं ऐसा न हो कि तेरे पाँवों में पत्थर से ठेस लगे।’” यीशु ने उससे कहा, “यह भी लिखा है : ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।’”

आओ, पहले शैतान द्वारा यहाँ कहे गए शब्दों को देखें। शैतान ने कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो अपने आप को नीचे गिरा दे,” और तब उसने पवित्र शास्त्र से उद्धृत किया, “वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा, और वे तुझे हाथों-हाथ उठा लेंगे; कहीं ऐसा न हो कि तेरे पाँवों में पत्थर से ठेस लगे।” शैतान के शब्द सुनकर तुम्हें कैसा लगता है? क्या वे बहुत बचकाने नहीं हैं? वे बचकाने, असंगत और घृणास्पद हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? शैतान अकसर मूर्खतापूर्ण बातें करता रहता है, और वह स्वयं को बहुत चतुर मानता है। वह प्रायः पवित्र शास्त्र के उद्धरण—यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन भी—उद्धृत करता है, वह परमेश्वर पर आक्रमण करने और उसे प्रलोभित करने के लिए इन वचनों का उपयोग परमेश्वर के विरुद्ध करने का प्रयास करता है, ताकि उसकी कार्य-योजना को खंडित करने का अपना उद्देश्य पूरा कर सके। क्या तुम शैतान द्वारा कहे गए इन शब्दों में कुछ देख पाते हो? (शैतान बुरे इरादे रखता है।) शैतान ने अपने समस्त कार्यों में हमेशा मानवजाति को प्रलोभित करने की कोशिश की है। वह सीधे तौर पर नहीं बोलता, बल्कि प्रलोभन, छल और फरेब का उपयोग करते हुए गोल-मोल तरीके से बोलता है। शैतान परमेश्वर को भी प्रलोभन देने की कोशिश करता है, मानो वह कोई साधारण मनुष्य हो, और वह यह मानता है कि परमेश्वर भी मनुष्य की ही तरह अज्ञानी, मूर्ख और चीज़ों के सही रूप को स्पष्ट रूप से पहचानने में असमर्थ है। शैतान सोचता है कि परमेश्वर और मनुष्य समान रूप से उसके सार, उसकी चालाकी और उसके कुटिल इरादे को आर-पार देख पाने में असमर्थ हैं। क्या यह शैतान की मूर्खता नहीं है? इतना ही नहीं, शैतान खुल्लम-खुल्ला पवित्र शास्त्र को उद्धृत करता है, और यह विश्वास करता है कि ऐसा करने से उसे विश्वसनीयता मिलती है, और तुम उसके शब्दों में कोई गलती नहीं पकड़ पाओगे या मूर्ख बनाए जाने से नहीं बच पाओगे। क्या यह शैतान की मूर्खता और बचकानापन नहीं है? यह ठीक वैसा ही है, जैसा जब लोग सुसमाचार को फैलाते हैं और परमेश्वर की गवाही देते हैं : तो क्या अविश्वासी कुछ ऐसा ही नहीं कहते, जैसा शैतान ने कहा था? क्या तुम लोगों ने लोगों को वैसा ही कुछ कहते हुए सुना है? ऐसी बातें सुनकर तुम्हें कैसा लगता है? क्या तुम घृणा महसूस करते हो? (हाँ।) जब तुम घृणा महसूस करते हो, तो क्या तुम अरुचि और विरक्ति भी महसूस करते हो? जब तुम्हारे भीतर ऐसी भावनाएँ होती हैं, तो क्या तुम यह पहचान पाते हो कि शैतान, और मनुष्य के भीतर काम करने वाला उसका स्वभाव, दुष्ट हैं? क्या अपने दिलों में तुमने कभी ऐसा महसूस किया है : “जब शैतान बोलता है, तो वह ऐसा हमले और प्रलोभन के रूप में करता है; शैतान के शब्द बेतुके, हास्यास्पद, बचकाने और घृणास्पद होते हैं; लेकिन परमेश्वर कभी इस तरह से नहीं बोलता या कार्य करता और वास्तव में उसने कभी ऐसा नहीं किया है”? निस्संदेह, इस स्थिति में लोग इसे बहुत कम समझ पाते हैं और परमेश्वर की पवित्रता को समझने में असमर्थ रहते हैं। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के साथ तुम लोग मात्र यही महसूस करते हो : “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, सच कहता है, वह हमारे लिए लाभदायक है, और हमें उसे स्वीकार करना चाहिए।” चाहे तुम इसे स्वीकार करने में सक्षम हो या नहीं, बिना अपवाद के तुम कहते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है और यह कि परमेश्वर सत्य है, किंतु तुम यह नहीं जानते कि सत्य स्वयं पवित्र है और यह कि परमेश्वर पवित्र है।

तो शैतान के इन शब्दों पर यीशु की क्या प्रतिक्रिया थी? यीशु ने उससे कहा, “यह भी लिखा है : ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।’” क्या यीशु द्वारा कहे गए इन वचनों में सत्य है? इनमें निश्चित रूप से सत्य है। ऊपरी तौर पर ये वचन लोगों द्वारा अनुसरण किए जाने के लिए एक आज्ञा हैं, एक सरल वाक्यांश, परंतु फिर भी, मनुष्य और शैतान दोनों ने अकसर इन शब्दों का उल्लंघन किया है। तो, प्रभु यीशु ने शैतान से कहा, “तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर,” क्योंकि शैतान ने प्रायः ऐसा किया था और इसके लिए पूरा प्रयास किया था। यह कहा जा सकता है कि शैतान ने बेशर्मी और ढिठाई से ऐसा किया था। परमेश्वर से न डरना और अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा न रखना शैतान की प्रकृति और सार है। यहाँ तक कि जब शैतान परमेश्वर के पास खड़ा था और उसे देख सकता था, तब भी वह परमेश्वर को प्रलोभन देने से बाज नहीं आया। इसलिए प्रभु यीशु ने शैतान से कहा, “तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।” ये वे वचन हैं, जो परमेश्वर ने शैतान से प्रायः कहे हैं। तो क्या इस वाक्यांश को वर्तमान समय में लागू किया जाना उपयुक्त है? (हाँ, क्योंकि हम भी अकसर परमेश्वर को प्रलोभन देते हैं।) लोग अकसर परमेश्वर को प्रलोभन क्यों देते हैं? क्या इसका कारण यह है कि लोग भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से भरे हुए हैं? (हाँ।) तो क्या शैतान के उपर्युक्त शब्द ऐसे हैं, जिन्हें लोग प्रायः कहते हैं? और लोग इन शब्दों को किन स्थितियों में कहते हैं? कोई यह कह सकता है कि लोग समय और स्थान की परवाह किए बिना ऐसा कहते आ रहे हैं। यह सिद्ध करता है कि लोगों का स्वभाव शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से अलग नहीं है। प्रभु यीशु ने कुछ सरल वचन कहे; वचन, जो सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं; वचन, जिनकी लोगों को आवश्यकता है। लेकिन इस स्थिति में क्या प्रभु यीशु इस तरह बोल रहा था, जैसे शैतान से बहस कर रहा हो? क्या जो कुछ उसने शैतान से कहा, उसमें टकराव की कोई बात थी? (नहीं।) प्रभु यीशु ने शैतान के प्रलोभन के संबंध में अपने दिल में कैसा महसूस किया? क्या उसने तिरस्कार और घृणा महसूस की? प्रभु यीशु ने तिरस्कार और घृणा महसूस की, फिर भी उसने शैतान से बहस नहीं की, किन्हीं महान सिद्धांतों के बारे में तो उसने बिलकुल भी बात नहीं की। ऐसा क्यों है? (क्योंकि शैतान हमेशा से ऐसा ही है; वह कभी बदल नहीं सकता।) क्या यह कहा जा सकता है कि शैतान विवेकहीन है? (हाँ।) क्या शैतान मान सकता है कि परमेश्वर सत्य है? शैतान कभी नहीं मानेगा कि परमेश्वर सत्य है और कभी स्वीकार नहीं करेगा कि परमेश्वर सत्य है; यह उसकी प्रकृति है। शैतान के स्वभाव का एक और पहलू है, जो घृणास्पद है। वह क्या है? प्रभु यीशु को प्रलोभित करने के अपने प्रयासों में, शैतान ने सोचा कि भले ही वह असफल हो गया हो, फिर भी वह ऐसा करने का प्रयास करेगा। भले ही उसे दंडित किया जाएगा, फिर भी उसने किसी न किसी प्रकार से कोशिश करने का चयन किया। भले ही ऐसा करने से कुछ लाभ नहीं होगा, फिर भी वह कोशिश करेगा, और अपने प्रयासों में दृढ़ रहते हुए बिलकुल अंत तक परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा रहेगा। यह किस तरह की प्रकृति है? क्या यह दुष्टता नहीं है? अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के नाम का उल्लेख किए जाने पर कुपित हो जाता है और क्रोध से फनफना उठता है, तो क्या उसने परमेश्वर को देखा है? क्या वह जानता है कि परमेश्वर कौन है? वह नहीं जानता कि परमेश्वर कौन है, उस पर विश्वास नहीं करता और परमेश्वर ने उससे बात नहीं की है। परमेश्वर ने उसे कभी परेशान नहीं किया है, तो फिर वह गुस्सा क्यों होता है? क्या हम कह सकते हैं कि यह व्यक्ति दुष्ट है? दुनिया के रुझान, खाना, पीना और सुख की खोज करना, और मशहूर हस्तियों के पीछे भागना—इनमें से कोई भी चीज़ ऐसे व्यक्ति को परेशान नहीं करेगी। किंतु “परमेश्वर” शब्द या परमेश्वर के वचनों के सत्य के उल्लेख मात्र से ही वह आक्रोश से भर जाता है। क्या यह दुष्ट प्रकृति का होना नहीं है? यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि इस मनुष्य की प्रकृति दुष्ट है। अब, तुम लोगों की बात करें, क्या ऐसे अवसर आए हैं, जब सत्य का उल्लेख हो या परमेश्वर द्वारा मानवजाति के परीक्षणों या मनुष्य के विरुद्ध परमेश्वर के न्याय के वचनों का उल्लेख किया जाए, और तुम्हें अरुचि महसूस हो; तिरस्कार महसूस हो, और तुम ऐसी बातें न सुनना चाहो? तुम्हारा हृदय सोच सकता है : “क्या सभी लोग नहीं कहते कि परमेश्वर सत्य है? इनमें से कुछ वचन सत्य नहीं हैं! ये स्पष्ट रूप से सिर्फ परमेश्वर द्वारा मनुष्य की भर्त्सना के वचन हैं!” कुछ लोग अपने दिलों में अरुचि भी महसूस कर सकते हैं और सोच सकते हैं : “यह हर दिन बोला जाता है—उसके परीक्षण, उसका न्याय, यह कब ख़त्म होगा? हमें अच्छी मंज़िल कब मिलेगी?” पता नहीं, यह अनुचित क्रोध कहाँ से आता है। यह किस प्रकार की प्रकृति है? (दुष्ट प्रकृति।) यह शैतान की दुष्ट प्रकृति से निर्देशित और मार्गदर्शित होती है। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, शैतान की दुष्ट प्रकृति और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के संबंध में वह कभी बहस नहीं करता या लोगों के प्रति द्वेष नहीं रखता, और जब मनुष्य मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं, तो वह कभी बात का बतंगड़ नहीं बनाता। तुम परमेश्वर को चीज़ों के संबंध में मनुष्यों जैसे विचार रखते नहीं देखोगे, और इतना ही नहीं, उसे तुम चीज़ों को सँभालने के लिए मनुष्य के दृष्टिकोणों, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन या कल्पना का उपयोग करते हुए भी नहीं देखोगे। इसके बजाय, परमेश्वर जो कुछ भी करता है और जो कुछ भी वह प्रकट करता है, वह सत्य से जुड़ा है। अर्थात्, उसका कहा हर वचन और उसका किया हर कार्य सत्य से संबंधित है। यह सत्य किसी आधारहीन कल्पना की उपज नहीं है; यह सत्य और ये वचन परमेश्वर द्वारा अपने सार और अपने जीवन के आधार पर व्यक्त किए जाते हैं। चूँकि ये वचन और परमेश्वर द्वारा की गई हर चीज़ का सार सत्य हैं, इसलिए हम कह सकते हैं कि परमेश्वर का सार पवित्र है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक बात जो परमेश्वर कहता और करता है, वह लोगों के लिए जीवन-शक्ति और प्रकाश लाती है; वह लोगों को सकारात्मक चीजें और उन सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता देखने में सक्षम बनाती है, और मनुष्यों को राह दिखाती है, ताकि वे सही मार्ग पर चलें। ये सब चीज़ें परमेश्वर के सार और उसकी पवित्रता के सार द्वारा निर्धारित की जाती हैं। तुम लोग अब इसे समझते हो, है न? अब हम पवित्र शास्त्र का एक और अंश पढ़ेंगे।

मत्ती 4:8-11 फिर इब्लीस उसे एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर ले गया और सारे जगत के राज्य और उसका वैभव दिखाकर उससे कहा, “यदि तू गिरकर मुझे प्रणाम करे, तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।” तब यीशु ने उससे कहा, “हे शैतान दूर हो जा, क्योंकि लिखा है : तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।” तब शैतान उसके पास से चला गया, और देखो, स्वर्गदूत आकर उसकी सेवा करने लगे।

शैतान इब्लीस ने अपनी पिछली दो चालों में असफल होने के बाद एक और कोशिश की : उसने प्रभु यीशु को दुनिया के समस्त राज्य और उनका वैभव दिखाया और उससे अपनी आराधना करने के लिए कहा। इस स्थिति से तुम शैतान के वास्तविक लक्षणों के बारे में क्या देख सकते हो? क्या इब्लीस शैतान पूरी तरह से बेशर्म नहीं है? (हाँ, है।) वह कैसे बेशर्म है? सभी चीज़ें परमेश्वर द्वारा रची गई थीं, फिर भी शैतान ने पलटकर परमेश्वर को सारी चीज़ें दिखाईं और कहा, “इन सभी राज्यों की संपत्ति और वैभव देख। अगर तू मेरी उपासना करे, तो मैं यह सब तुझे दे दूँगा।” क्या यह पूरी तरह से भूमिका उलटना नहीं है? क्या शैतान बेशर्म नहीं है? परमेश्वर ने सारी चीज़ें बनाईं, पर क्या उसने सारी चीज़ें अपने उपभोग के लिए बनाईं? परमेश्वर ने हर चीज़ मनुष्य को दे दी, लेकिन शैतान उन सबको अपने कब्ज़े में करना चाहता था और उन्हें अपने कब्ज़े में करने के बाद उसने पमेश्वर से कहा, “मेरी आराधना कर! मेरी आराधना कर और मैं यह सब तुझे दे दूँगा।” यह शैतान का बदसूरत चेहरा है; वह पूर्णतः बेशर्म है! यहाँ तक कि शैतान “शर्म” शब्द का मतलब भी नहीं जानता। यह उसकी दुष्टता का सिर्फ एक और उदाहरण है। वह यह भी नहीं जानता कि “शर्म” क्या होती है। शैतान स्पष्ट रूप से जानता है कि परमेश्वर ने सारी चीज़ें बनाईं और कि वह सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है और उन पर उसकी प्रभुता है। सारी चीज़ें मनुष्य की नहीं हैं, शैतान की तो बिलकुल भी नहीं हैं, बल्कि परमेश्वर की हैं, और फिर भी इब्लीस शैतान ने ढिठाई से कहा कि वह सारी चीज़ें परमेश्वर को दे देगा। क्या यह शैतान के एक बार फिर बेतुकेपन और बेशर्मी से कार्य करने का एक और उदाहरण नहीं है? इसके कारण परमेश्वर को शैतान से और अधिक घृणा होती है, है न? फिर भी, शैतान ने चाहे जो भी कोशिश की, पर क्या प्रभु यीशु उसके झाँसे में आया? प्रभु यीशु ने क्या कहा? (“तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।”) क्या इन वचनों का कोई व्यावहारिक अर्थ है? (हाँ, है।) किस प्रकार का व्यवहारिक अर्थ? हम शैतान की वाणी में उसकी दुष्टता और बेशर्मी देखते हैं। तो अगर मनुष्य शैतान की उपासना करेंगे, तो क्या परिणाम होगा? क्या उन्हें सभी राज्यों का धन और वैभव मिल जाएगा? (नहीं।) उन्हें क्या मिलेगा? क्या मनुष्य शैतान जितने ही बेशर्म और हास्यास्पद बन जाएँगे? (हाँ।) तब वे शैतान से भिन्न नहीं होंगे। इसलिए, प्रभु यीशु ने ये वचन कहे, जो हर एक इंसान के लिए महत्वपूर्ण हैं : “तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।” इसका अर्थ है कि प्रभु के अलावा, स्वयं परमेश्वर के अलावा, अगर तुम किसी दूसरे की उपासना करते हो, अगर तुम इब्लीस शैतान की उपासना करते हो, तो तुम उसी गंदगी में लोट लगाओगे, जिसमें शैतान लगाता है। तब तुम शैतान की बेशर्मी और उसकी दुष्टता साझा करोगे, और ठीक शैतान की ही तरह तुम परमेश्वर को प्रलोभित करोगे और उस पर हमला करोगे। तब तुम्हारा क्या अंत होगा? परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा, परमेश्वर तुम्हें मार गिराएगा, परमेश्वर तुम्हें नष्ट कर देगा। प्रभु यीशु को कई बार प्रलोभन देने में असफल होने के बाद क्या शैतान ने फिर कोशिश की? शैतान ने फिर कोशिश नहीं की और फिर वह चला गया। इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि शैतान की दुष्ट प्रकृति, उसकी दुर्भावना, उसकी बेहूदगी और उसकी असंगतता परमेश्वर के सामने उल्लेख करने योग्य भी नहीं है। प्रभु यीशु ने शैतान को केवल तीन वाक्यों से परास्त कर दिया, जिसके बाद वह दुम दबाकर खिसक गया, और इतना शर्मिंदा हुआ कि चेहरा दिखाने लायक भी नहीं रहा, और उसने फिर कभी प्रभु को प्रलोभन नहीं दिया। चूँकि प्रभु यीशु ने शैतान के इस प्रलोभन को परास्त कर दिया, इसलिए अब वह आसानी से अपने उस कार्य को जारी रख सकता था, जो उसे करना था और जो कार्य उसके सामने पड़े थे। क्या इस परिस्थिति में जो कुछ प्रभु यीशु ने कहा और किया, अगर उसे वर्तमान समय में प्रयोग में लाया जाए, तो क्या प्रत्येक मनुष्य के लिए उसका कोई व्यावहारिक अर्थ है? (हाँ, है।) किस प्रकार का व्यावहारिक अर्थ? क्या शैतान को हराना आसान बात है? क्या लोगों को शैतान की दुष्ट प्रकृति की स्पष्ट समझ होनी चाहिए? क्या लोगों को शैतान के प्रलोभनों की सही समझ होनी चाहिए? (हाँ।) जब तुम अपने जीवन में शैतान के प्रलोभनों का अनुभव करते हो, अगर तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति को आर-पार देखने में सक्षम हो, तो क्या तुम उसे हराने में सक्षम नहीं होगे? अगर तुम शैतान की बेहूदगी और असंगतता के बारे में जानते हो, तो क्या फिर भी तुम शैतान के साथ खड़े होगे और परमेश्वर पर हमला करोगे? अगर तुम समझ जाओ कि कैसे शैतान की दुर्भावना और बेशर्मी तुम्हारे माध्यम से प्रकट होती हैं—अगर तुम इन चीज़ों को स्पष्ट रूप से पहचान और समझ जाओ—तो क्या तुम फिर भी परमेश्वर पर इस प्रकार हमला करोगे और उसे प्रलोभित करोगे? (नहीं, हम नहीं करेंगे।) तुम क्या करोगे? (हम शैतान के विरुद्ध विद्रोह करेंगे और उसका परित्याग कर देंगे।) क्या यह आसान कार्य है? यह आसान नहीं है। ऐसा करने के लिए लोगों को लगातार प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें स्वयं को बार-बार परमेश्वर के सामने रखना चाहिए और स्वयं को जाँचना चाहिए। और उन्हें परमेश्वर के अनुशासन और उसके न्याय तथा ताड़ना को अपने ऊपर आने देना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग धीरे-धीरे अपने आपको शैतान के धोखे और नियंत्रण से मुक्त करेंगे।

अब, शैतान द्वारा बोले गए इन सभी शब्दों को देखकर हम उन चीज़ों को संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे, जो शैतान के सार का निर्माण करती हैं। पहली बात, शैतान के सार को सामान्यतया दुष्टता कहा जा सकता है, जो परमेश्वर की पवित्रता के विपरीत है। मैं क्यों कहता हूँ कि शैतान का सार दुष्टता है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए व्यक्ति को, जो कुछ शैतान लोगों के साथ करता है, उसके परिणामों की जाँच करनी चाहिए। शैतान मनुष्य को भ्रष्ट और नियंत्रित करता है, और मनुष्य शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के तहत काम करता है, और वह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए लोगों की दुनिया में रहता है। मानवजाति अनजाने ही शैतान द्वारा अधिकृत और आत्मसात कर ली जाती है; इसलिए मनुष्य में शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, जो कि शैतान की प्रकृति है। शैतान द्वारा कही और की गई हर चीज़ से क्या तुमने उसका अंहकार देखा है? क्या तुमने उसका छल और द्वेष देखा है। शैतान का अंहकार मुख्य रूप से कैसे प्रदर्शित होता है? क्या शैतान सदैव परमेश्वर का स्थान लेने की इच्छा रखता है? शैतान हमेशा परमेश्वर के कार्य और पद को खंडित करने और उसे खुद हथियाने की चाह रखता है, ताकि लोग शैतान का अनुसरण, समर्थन और उसकी आराधना करें; यह शैतान की अंहकारी प्रकृति है। जब शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, तो क्या वह उनसे सीधे कहता है कि उन्हें क्या करना चाहिए? जब शैतान परमेश्वर को प्रलोभित करता है, तो क्या वह सामने आकर कहता है कि, “मैं तुझे प्रलोभित कर रहा हूँ, मैं तुझ पर हमला करने जा रहा हूँ”? वह ऐसा बिलकुल नहीं करता। शैतान कौन-सा तरीका इस्तेमाल करता है? वह बहकाता है, प्रलोभित करता है, हमला करता है, और अपना जाल बिछाता है, यहाँ तक कि पवित्र शास्त्र को भी उद्धृत करता है। अपने कुटिल उद्देश्य हासिल करने और अपने इरादे पूरे करने के लिए शैतान कई तरीकों से बोलता और कार्य करता है। शैतान के ऐसा कर लेने के बाद मनुष्य में जो अभिव्यक्त होता है, उससे क्या देखा जा सकता है? क्या लोग भी अंहकारी़ नहीं हो जाते? हजारों सालों से मनुष्य शैतान की भ्रष्टता से पीड़ित रहा है, इसलिए मनुष्य अहंकारी, धोखेबाज, दुर्भावनाग्रस्त और विवेकहीन हो गया है। ये सभी चीज़ें शैतान की प्रकृति के कारण उत्पन्न हुई हैं। चूँकि शैतान की प्रकृति दुष्ट है, इसलिए इसने मनुष्य को यह दुष्ट प्रकृति दी है और उसे यह दुष्ट, भ्रष्ट स्वभाव प्रदान किया है। इसलिए मनुष्य भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के तहत जीता है और शैतान की ही तरह परमेश्वर का विरोध करता है, परमेश्वर पर हमला करता है, यहाँ तक कि वह परमेश्वर की आराधना नहीं कर सकता, उसके प्रति श्रद्धा रखने वाला हृदय नहीं रखता।

पाँच तरीके जिनसे शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है

जहाँ तक परमेश्वर की पवित्रता का संबंध है, भले ही यह एक परिचित विषय हो, किंतु यह एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में बात करने पर कुछ लोगों के लिए यह थोड़ा अमूर्त हो सकता है, और कुछ गहन, और उनकी पहुँच से परे हो सकता है। लेकिन चिंता करने की ज़रूरत नहीं। मैं तुम लोगों की यह समझने में सहायता करूँगा कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है? यह समझने के लिए कि कोई किस तरह का व्यक्ति है, यह देखो कि वह क्या करता है और उसके कार्यों के परिणाम देखो, और फिर तुम उस व्यक्ति का सार देखने में समर्थ हो जाओगे। क्या इसे इस तरह से कहा जा सकता है? (हाँ।) तो फिर, आओ पहले हम इस परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की पवित्रता पर संगति करें। यह कहा जा सकता है कि शैतान का सार दुष्टता है, और इसलिए मनुष्य के प्रति शैतान के कार्यकलाप उसे अनवरत रूप से भ्रष्ट करते रहे हैं। शैतान दुष्ट है, इसलिए जिन लोगों को उसने भ्रष्ट किया है, वे भी निश्चित रूप से दुष्ट हैं। क्या कोई कहेगा, “शैतान दुष्ट है, लेकिन शायद वह, जिसे इसने भ्रष्ट किया है, पवित्र हो?” यह एक मज़ाक होगा, है न? क्या यह संभव है? (नहीं।) शैतान दुष्ट है, और उसकी दुष्टता के भीतर एक आवश्यक और एक व्यावहारिक दोनों पक्ष निहित हैं। यह कोई खोखली बात नहीं है। हम शैतान को बदनाम करने का प्रयत्न नहीं कर रहे; हम सत्य और वास्तविकता के बारे में संगति मात्र कर रहे हैं। इस विषय की वास्तविकता पर संगति करने से कुछ लोगों को या लोगों के किसी खास उप-वर्ग को ठेस पहुँच सकती है, परंतु इसमें कोई दुर्भावनापूर्ण इरादा नहीं है; शायद तुम लोग इसे आज सुनोगे और थोड़ा असहज अनुभव करोगे, किंतु शीघ्र ही किसी दिन, जब तुम उसे पहचानने में समर्थ हो जाओगे, तो तुम लोग अपने आपसे घृणा करोगे, और महसूस करोगे कि आज मैं जिस बारे में बात कर रहा हूँ, वह तुम लोगों के लिए बहुत उपयोगी और बहुत मूल्यवान है। शैतान का सार दुष्टता है, इसलिए क्या हम यह कह सकते हैं कि शैतान के कार्यों के परिणाम भी अपरिहार्य रूप से दुष्ट होते हैं, या कम से कम, उसकी दुष्टता से जुड़े होते हैं? (हाँ।) तो शैतान लोगों को किस तरह भ्रष्ट करता है? दुनिया में और लोगों के बीच शैतान जो दुष्टता करता है, उसके कौन-से विशिष्ट पहलू लोगों को प्रत्यक्ष और दृष्टिगोचर होते हैं? क्या तुम लोगों ने पहले कभी इस बारे में सोचा है? शायद तुम लोगों ने इस पर ज्यादा विचार नहीं किया होगा, इसलिए मैं कुछ मुख्य बिंदुओं का उल्लेख कर देता हूँ। हर कोई शैतान द्वारा प्रस्तावित विकास के सिद्धांत को जानता है, है न? यह मनुष्य द्वारा अध्ययन किया गया ज्ञान का एक क्षेत्र है, है न? (हाँ, है।) इसलिए शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए पहले ज्ञान का उपयोग करता है, और उन्हें ज्ञान प्रदान करने के लिए अपने खुद के शैतानी तरीकों का इस्तेमाल करता है। फिर वह उन्हें भ्रष्ट करने के लिए विज्ञान का इस्तेमाल करता है और ज्ञान, विज्ञान, रहस्यमयी मामलों या उन मामलों में, जिनकी लोग खोज करना चाहते हैं, उनकी रुचि जगाता है। मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए शैतान द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अन्य चीज़ें हैं पारंपरिक संस्कृति और अंधविश्वास, और उसके बाद, सामाजिक प्रवृत्तियाँ। ये वे चीज़ें हैं, जिनसे लोगों का उनके दैनिक जीवन में सामना होता है, और ये सब लोगों के बिलकुल आसपास मौजूद हैं; ये सभी उन चीज़ों से जुड़ी हैं, जिन्हें वे देखते हैं, सुनते हैं, स्पर्श करते हैं और जिनका वे अनुभव करते हैं। कोई यह कह सकता है कि प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन इन्हीं चीज़ों से घिरा हुआ जीता है और चाहकर भी इनसे बच नहीं सकता या मुक्त नहीं हो सकता। इन चीज़ों के सामने मनुष्यजाति असहाय है, और मनुष्य सिर्फ उनसे प्रभावित, संक्रमित, नियंत्रित और बाध्य होने के सिवा कुछ नहीं कर सकता; मनुष्य के पास खुद को इनसे छुड़ाने की ताकत नहीं है।

i. शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग कैसे करता है

पहले हम ज्ञान के बारे में बात करेंगे। क्या ज्ञान ऐसी चीज़ है, जिसे हर कोई सकारात्मक चीज़ मानता है? लोग कम से कम यह तो सोचते ही हैं कि “ज्ञान” शब्द का संकेतार्थ नकारात्मक के बजाय सकारात्मक है। तो हम यहाँ क्यों उल्लेख कर रहे हैं कि शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग करता है? क्या विकास का सिद्धांत ज्ञान का एक पहलू नहीं है? क्या न्यूटन के वैज्ञानिक नियम ज्ञान का भाग नहीं हैं? पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण भी ज्ञान का ही एक भाग है, है न? (हाँ।) तो फिर ज्ञान क्यों उन चीज़ों में सूचीबद्ध है, जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है? तुम लोगों का इस बारे में क्या विचार है? क्या ज्ञान में सत्य का लेश मात्र भी होता है? (नहीं।) तो ज्ञान का सार क्या है? मनुष्य द्वारा प्राप्त किए जाने वाले समस्त ज्ञान का आधार क्या है? क्या यह विकास के सिद्धांत पर आधारित है? क्या मनुष्य द्वारा खोज और संकलन के माध्यम से प्राप्त ज्ञान नास्तिकता पर आधारित नहीं है? क्या ऐसे किसी ज्ञान का परमेश्वर के साथ कोई संबंध है? क्या यह परमेश्वर की उपासना करने के साथ जुड़ा है? क्या यह सत्य के साथ जुड़ा है? (नहीं।) तो शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग कैसे करता है? मैंने अभी-अभी कहा कि इसमें से कोई भी ज्ञान परमेश्वर की उपासना करने या सत्य के साथ नहीं जुड़ा है। कुछ लोग इस बारे में इस तरह सोचते हैं : “हो सकता है, ज्ञान का सत्य से कोई लेना-देना न हो, किंतु फिर भी, यह लोगों को भ्रष्ट नहीं करता।” तुम लोगों का इस बारे में क्या विचार है? क्या तुम्हें ज्ञान के द्वारा यह सिखाया गया है कि व्यक्ति की खुशी उसके अपने दो हाथों द्वारा सृजित होनी चाहिए? क्या ज्ञान ने तुम्हें यह सिखाया कि मनुष्य का भाग्य उसके अपने हाथों में है? (हाँ।) यह कैसी बात है? (यह शैतानी बात है।) बिलकुल सही! यह शैतानी बात है! ज्ञान चर्चा का एक जटिल विषय है। तुम बस यह कह सकते हो कि ज्ञान का क्षेत्र ज्ञान से अधिक कुछ नहीं है। ज्ञान का यह क्षेत्र ऐसा है, जिसे परमेश्वर की उपासना न करने और परमेश्वर द्वारा सब चीज़ों का निर्माण किए जाने की बात न समझने के आधार पर सीखा जाता है। जब लोग इस प्रकार के ज्ञान का अध्ययन करते हैं, तो वे यह नहीं देखते कि सभी चीज़ों पर परमेश्वर का प्रभुत्व है; वे नहीं देखते कि परमेश्वर सभी चीज़ों का प्रभारी है या सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है। इसके बजाय, वे जो कुछ भी करते हैं, वह है ज्ञान के क्षेत्र का अंतहीन अनुसंधान और खोज, और वे ज्ञान के आधार पर उत्तर खोजते हैं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अगर लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करेंगे और इसके बजाय केवल अनुसंधान करेंगे, तो वे कभी भी सही उत्तर नहीं पाएँगे? वह सब ज्ञान तुम्हें केवल जीविकोपार्जन, एक नौकरी, आमदनी दे सकता है, ताकि तुम भूखे न रहो; किंतु वह तुम्हें कभी भी परमेश्वर की आराधना नहीं करने देगा, और वह कभी भी तुम्हें बुराई से दूर नहीं रखेगा। जितना अधिक लोग ज्ञान का अध्ययन करेंगे, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने, परमेश्वर को अपने अध्ययन के अधीन करने, परमेश्वर को प्रलोभित करने और परमेश्वर का विरोध करने की इच्छा करेंगे। तो अब हम क्या देखते हैं कि ज्ञान लोगों को क्या सिखा रहा है? यह सब शैतान का फ़लसफ़ा है। क्या शैतान द्वारा भ्रष्ट मनुष्यों के बीच फैलाए गए फ़लसफ़ों और जीवित रहने के नियमों का सत्य से कोई संबंध है? उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, और वास्तव में, वे सत्य के विपरीत हैं। लोग प्रायः कहते हैं, “जीवन गति है” और “मनुष्य लोहा है, चावल इस्पात है, अगर मनुष्य एक बार का भोजन छोड़ता है, तो वह भूख से बेज़ार महसूस करता है”; ये क्या कहावतें हैं? ये भुलावे हैं और इन्हें सुनने से घृणा की भावना पैदा होती है। मनुष्य के तथाकथित ज्ञान में शैतान ने अपने जीवन का फ़लसफ़ा और अपनी सोच काफी कुछ भर दी है। और जब शैतान ऐसा करता है, तो वह मनुष्य को अपनी सोच, अपना फ़लसफ़ा और दृष्टिकोण अपनाने देता है, ताकि मनुष्य परमेश्वर के अस्तित्व को नकार सके, सभी चीज़ों और मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर के प्रभुत्व को नकार सके। तो जब मनुष्य का अध्ययन आगे बढ़ता है और वह अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह परमेश्वर के अस्तित्व को धुँधला होता महसूस करता है, और फिर वह यह भी महसूस कर सकता है कि परमेश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। चूँकि शैतान ने मनुष्य में कुछ विचार, मत और धारणाएँ भर दी हैं, जब शैतान मनुष्य के अंदर यह जहर भर देता है, तो क्या मनुष्य शैतान द्वारा छला और भ्रष्ट नहीं किया जाता? तो तुम लोग क्या कहोगे कि आज के लोग किस चीज के अनुसार जीते हैं? क्या वे शैतान द्वारा भरे गए ज्ञान और विचारों से नहीं जीते? और जो चीजें इस ज्ञान और इन विचारों में छिपी हैं—क्या वे शैतान के दर्शन और विष नहीं हैं? मनुष्य शैतान के दर्शनों और विष से जीता है। और शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के मूल में क्या है? शैतान मनुष्य से परमेश्वर का खंडन करवाना, उसका विरोध करवाना, और अपनी तरह उसे उसके विरुद्ध खड़ा करवाना चाहता है; मनुष्य को भ्रष्ट करने के पीछे यही शैतान का लक्ष्य है, और वह साधन भी, जिसके द्वारा शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है।

हम ज्ञान के सबसे सतही पहलू पर चर्चा से शुरुआत करेंगे। क्या भाषाओं का व्याकरण और शब्द लोगों को भ्रष्ट करने में समर्थ हैं? क्या शब्द लोगों को भ्रष्ट कर सकते हैं? शब्द लोगों को भ्रष्ट नहीं करते; वे एक उपकरण हैं, जिसका लोग बोलने के लिए इस्तेमाल करते हैं, और वे वह उपकरण भी हैं, जिसका लोग परमेश्वर के साथ संवाद करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, और इतना ही नहीं, वर्तमान समय में भाषा और शब्द ही हैं, जिनसे परमेश्वर लोगों के साथ संवाद करता है। वे उपकरण हैं, और वे एक आवश्यकता हैं। एक और एक दो होते हैं, और दो गुणा दो चार होते हैं; क्या यह ज्ञान नहीं है? पर क्या यह तुम्हें भ्रष्ट कर सकता है? यह सामान्य ज्ञान है—यह एक निश्चित प्रतिमान है—और इसलिए यह लोगों को भ्रष्ट नहीं कर सकता। तो किस तरह का ज्ञान लोगों को भ्रष्ट करता है? भ्रष्ट करने वाला ज्ञान वह ज्ञान होता है, जिसमें शैतान के दृष्टिकोणों और विचारों की मिलावट होती है। शैतान इन दृष्टिकोणों और विचारों को ज्ञान के माध्यम से मानवजाति में भरने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, किसी लेख में, लिखित शब्दों में अपने आप में कुछ ग़लत नहीं होता। जब लेखक लेख लिखता है तो समस्या उसके दृष्टिकोण और अभिप्राय के साथ ही उसके विचारों की विषयवस्तु में होती है। ये आत्मा की चीज़ें हैं, और ये लोगों को भ्रष्ट करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम टेलीविज़न पर कोई कार्यक्रम देख रहे हो, तो उसमें किस प्रकार की चीज़ें लोगों का दृष्टिकोण बदल सकती हैं? क्या कलाकारों द्वारा कहे गए शब्द खुद लोगों को भ्रष्ट करने में सक्षम होंगे? (नहीं।) किस प्रकार की चीज़ें लोगों को भ्रष्ट करेंगी? ये कार्यक्रम के मुख्य विचार और विषय-वस्तु होंगे, जो निर्देशक के विचारों का प्रतिनिधित्व करेंगे। इन विचारों द्वारा वहन की गई सूचना लोगों के मन और मस्तिष्क को प्रभावित कर सकती है। क्या ऐसा नहीं है? अब तुम लोग जानते हो कि मैं अपनी चर्चा में शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग करने के संदर्भ में क्या कह रहा हूँ। तुम ग़लत नहीं समझोगे, है न? तो अगली बार जब तुम कोई उपन्यास या लेख पढ़ोगे, तो क्या तुम आकलन कर सकोगे कि लिखित शब्दों में व्यक्त किए गए विचार मनुष्य को भ्रष्ट करते हैं या मानवजाति के लिए योगदान करते हैं? (हाँ, कुछ हद तक।) यह ऐसी चीज़ है, जिसे धीमी गति से पढ़ा और अनुभव किया जाना चाहिए, और यह ऐसी चीज़ नहीं है, जिसे तुरंत आसानी से समझ लिया जाए। उदाहरण के लिए, ज्ञान के किसी क्षेत्र में शोध या अध्ययन करते समय, उस ज्ञान के कुछ सकारात्मक पहलू उस क्षेत्र के बारे में कुछ सामान्य ज्ञान पाने में सहायता कर सकते हैं, साथ ही यह जानने में भी सक्षम बना सकते हैं कि किन चीज़ों से लोगों को बचना चाहिए। उदाहरण के लिए “बिजली” को लो—यह ज्ञान का एक क्षेत्र है, है न? अगर तुम्हें यह पता न होता कि बिजली लोगों को झटका मार सकती है और चोट पहुँचा सकती है, तो क्या तुम अनभिज्ञ न होते? किंतु एक बार ज्ञान के इस क्षेत्र को समझ लेने पर तुम बिजली के करेंट वाली चीज़ों को छूने में लापरवाही नहीं बरतोगे, और तुम जान जाओगे कि बिजली का उपयोग कैसे करना है। ये दोनों सकारात्मक बातें हैं। क्या अब तुम लोगों को स्पष्ट हो गया है कि हम, ज्ञान लोगों को किस तरह भ्रष्ट करता है, इस बारे में क्या चर्चा कर रहे हैं? दुनिया में कई प्रकार के ज्ञान का अध्ययन किया जाता है और तुम लोगों को स्वयं उनमें अंतर करने के लिए समय देना चाहिए।

ii. शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए विज्ञान का उपयोग कैसे करता है

विज्ञान क्या है? क्या विज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के मन में बड़ी प्रतिष्ठा नहीं रखता और अगाध नहीं माना जाता? जब विज्ञान का उल्लेख किया जाता है, तो क्या लोग ऐसा महसूस नहीं करते : “यह एक ऐसी चीज़ है, जो सामान्य लोगों की पहुँच से परे है; यह ऐसा विषय है, जिसे केवल वैज्ञानिक शोधकर्ता या विशेषज्ञ ही स्पर्श कर सकते हैं; इसका हम जैसे आम लोगों से कुछ लेना-देना नहीं है”? क्या इसका आम लोगों के साथ कोई संबंध है? (हाँ।) शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए विज्ञान का उपयोग कैसे करता है? हम यहाँ अपनी चर्चा में केवल उन चीज़ों के बारे में बात करेंगे, जिनसे लोगों का अपने जीवन में बार-बार सामना होता है, और अन्य मामलों को नज़रअंदाज़ कर देंगे। एक शब्द है “जींस।” क्या तुमने यह शब्द सुना है? तुम सब इस शब्द से परिचित हो। क्या जींस विज्ञान के माध्यम से नहीं खोजे गए थे? लोगों के लिए जींस ठीक-ठीक क्या मायने रखते हैं? क्या ये लोगों को यह महसूस नहीं कराते कि शरीर एक रहस्यमयी चीज़ है? लोगों को इस विषय से परिचित कराए जाने पर क्या कुछ लोग ऐसे नहीं होंगे—विशेषकर जिज्ञासु—जो और अधिक जानना चाहेंगे या और अधिक विवरण पाना चाहेंगे? ये जिज्ञासु लोग अपनी ऊर्जा इस विषय पर केंद्रित करेंगे और जब उनके पास कोई और चीज़ करने को नहीं होगी, तो वे इसके बारे में और अधिक विवरण पाने के लिए पुस्तकों में और इंटरनेट पर जानकारी खोजेंगे। विज्ञान क्या है? स्पष्ट रूप से कहूँ तो, विज्ञान उन चीज़ों से संबंधित विचार और सिद्धांत हैं, जिनके बारे में मनुष्य जिज्ञासु है, जो अज्ञात चीज़ें हैं, और जो उन्हें परमेश्वर द्वारा नहीं बताई गई हैं; विज्ञान उन रहस्यों से संबंधित विचार और सिद्धांत हैं, जिन्हें मनुष्य खोजना चाहता है। विज्ञान का दायरा क्या है? तुम कह सकते हो कि वह काफी व्यापक है और हर उस चीज़ का शोध और अध्ययन करता है, जिसमें उसकी रुचि होती है। विज्ञान में इन चीज़ों के विवरण और नियमों का शोध करना और फिर वे संभावित सिद्धांत सामने लाना शामिल है, जो हर किसी को सोचने पर मजबूर कर देते हैं : “ये वैज्ञानिक सचमुच ज़बरदस्त हैं। वे इतना अधिक जानते हैं, इन चीज़ों को समझने के लिए इनमें बहुत ज्ञान है!” उनके मन में वैज्ञानिकों के लिए बहुत सराहना होती है, है न? जो लोग विज्ञान संबंधी शोध करते हैं, वे किस तरह के विचार रखते हैं? क्या वे ब्रहमांड का शोध नहीं करना चाहते, अपनी रुचि के क्षेत्र में रहस्यमयी चीज़ों पर शोध नहीं करना चाहते? इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? कुछ विज्ञानों में लोग अनुमान के आधार पर अपने निष्कर्ष निकालते हैं, और अन्य विज्ञानों में वे निष्कर्ष निकालने के लिए मानव-अनुभव पर भरोसा करते हैं। विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में लोग ऐतिहासिक और पृष्ठभूमिगत अवलोकनों के आधार पर अपने निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। क्या ऐसा नहीं है? तो विज्ञान लोगों के लिए क्या करता है? विज्ञान सिर्फ इतना करता है कि लोगों को भौतिक जगत में चीज़ों को देखने देता है और मनुष्य की जिज्ञासा शांत करता है, पर यह मनुष्य को उन नियमों को देखने में सक्षम नहीं बनाता, जिनके द्वारा परमेश्वर सब चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है। मनुष्य विज्ञान में उत्तर पाता प्रतीत होता है, किंतु वे उत्तर उलझन में डालने वाले होते हैं और केवल अस्थायी संतुष्टि लाते हैं, ऐसी संतुष्टि, जो मनुष्य के मन को केवल भौतिक संसार तक सीमित रखने का काम करती है। मनुष्यों को महसूस होता है कि उन्हें विज्ञान से उत्तर मिले हैं, इसलिए जो कोई भी मामला उठता है, वे उस मामले को साबित या स्वीकृत करने के लिए आधार के रूप में अपने वैज्ञानिक विचारों का ही इस्तेमाल करते हैं। मनुष्य का मन विज्ञान द्वारा बहकाया जाता है और इस हद तक उसके वश में हो जाता है कि वह परमेश्वर को जानने, परमेश्वर की उपासना करने और यह मानने को तैयार नहीं होता कि सभी चीज़ें परमेश्वर से आती हैं, और उत्तर पाने के लिए मनुष्य को उसकी ओर देखना चाहिए। क्या यह सच नहीं है? लोग जितना अधिक विज्ञान में विश्वास करते हैं, उतने ही अधिक बेतुके हो जाते हैं और यह मानने लगते हैं कि हर चीज़ का एक वैज्ञानिक समाधान होता है, कि शोध किसी भी चीज़ का समाधान कर सकता है। वे परमेश्वर को नहीं खोजते और वे यह विश्वास नहीं करते कि उसका अस्तित्व है। परमेश्वर में लंबे समय से विश्वास करने वाले कई लोग हैं, जो कोई समस्या सामने आने पर चीजों के बारे में जानने और उत्तर खोजने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करते हैं; वे केवल वैज्ञानिक ज्ञान में विश्वास करते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन मानवजाति की सभी समस्याएँ हल कर सकते हैं, वे मानवजाति की असंख्य समस्याओं को सत्य के दृष्टिकोण से नहीं देखते। चाहे उनके सामने कोई भी समस्या आए, वे कभी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न ही परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर समाधान ढूँढ़ते हैं। अनेक मामलों में वे यह विश्वास करना पसंद करते हैं कि ज्ञान समस्या का समाधान कर सकता है; उनके लिए विज्ञान ही अंतिम उत्तर है। परमेश्वर ऐसे लोगों के दिलों से बिल्कुल नदारद रहता है। वे गैर-विश्वासी हैं, और परमेश्वर पर विश्वास के बारे में उनके विचार कई प्रतिष्ठित शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों के विचारों से अलग नहीं हैं, जो हमेशा वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके परमेश्वर की जाँच करने की कोशिश करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, कई धर्म-विशेषज्ञ हैं, जो उस स्थान पर गए हैं, जहाँ महान जल-प्रलय के बाद जहाज़ रुका था, और इस प्रकार उन्होंने जहाज़ के अस्तित्व को प्रमाणित कर दिया है। किंतु जहाज के प्रकटन में वे परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं देखते। वे केवल कहानियों और इतिहास पर विश्वास करते हैं; यह उनके वैज्ञानिक शोध और भौतिक संसार के अध्ययन का परिणाम है। अगर तुम भौतिक चीजों पर शोध करोगे, चाहे वह सूक्ष्म जीवविज्ञान हो, खगोलशास्त्र हो या भूगोल हो, तो तुम कभी ऐसा परिणाम नहीं पाओगे, जो यह निर्धारित करता हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है या यह कि वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है। तो विज्ञान मनुष्य के लिए क्या करता है? क्या वह मनुष्य को परमेश्वर से दूर नहीं करता? क्या वह लोगों को परमेश्वर को अध्ययन के अधीन करने के लिए प्रेरित नहीं करता? क्या वह लोगों को परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता के बारे में अधिक संशयात्मक नहीं बनाता, और इस प्रकार उनसे परमेश्वर का खंडन नहीं करवाता और उसे धोखा नहीं दिलवाता? यही परिणाम होता है। तो जब शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए विज्ञान का उपयोग करता है, तो वह कौन-सा उद्देश्य हासिल करने की कोशिश कर रहा होता है? वह लोगों को धोखा देने और संज्ञाहीन करने के लिए वैज्ञानिक निष्कर्षों का उपयोग करना चाहता है, और उनके हृदयों पर पकड़ बनाने के लिए अस्पष्ट उत्तरों का उपयोग करना चाहता है, ताकि वे परमेश्वर के अस्तित्व की खोज या उस पर विश्वास न करें। इसीलिए मैं कहता हूँ कि विज्ञान उन तरीकों में से एक है, जिनसे शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है।

iii. शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए पारंपरिक संस्कृति का उपयोग कैसे करता है

क्या ऐसी कई चीज़ें हैं या क्या ऐसी कई चीज़ें नहीं हैं, जो पारंपरिक संस्कृति का अंग मानी जाती हैं? (हाँ, हैं।) इस “पारंपरिक संस्कृति” का अर्थ क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि यह पूर्वजों से चली आती है—यह एक पहलू है। आरंभ से ही परिवारों, जातीय समूहों, यहाँ तक कि पूरी मानवजाति में जीवन के तरीके, रीति-रिवाज, कहावतें और नियम आगे बढ़ाए गए हैं, और वे लोगों के विचारों में बैठ गए हैं। लोग उन्हें अपने जीवन का अविभाज्य अंग समझते हैं और उन्हें नियमों की तरह मानते हैं, और उनका इस तरह पालन करते हैं, जैसे वे स्वयं जीवन हों। दरअसल, वे कभी भी इन चीज़ों को बदलना या इनका परित्याग करना नहीं चाहते, क्योंकि ये उनके पूर्वजों से आई हैं। पारंपरिक संस्कृति के अन्य पहलू भी हैं, जो लोगों की हड्डियों तक में जम गए हैं, जैसे कि वे चीज़ें, जो कन्फ्यूशियस या मेंसियस से आई हैं, और वे चीज़ें, जो चीनी ताओवाद और कन्फ्यूशीवाद द्वारा लोगों को सिखाई गई हैं। क्या यह सही नहीं हैं? पारंपरिक संस्कृति में क्या चीज़ें शामिल हैं? क्या इसमें वे त्योहार शामिल हैं, जिन्हें लोग मनाते हैं? उदाहरण के लिए : वसंत महोत्सव, दीप-महोत्सव, चिंगमिंग दिवस, ड्रैगन नौका महोत्सव, और साथ ही, भूत महोत्सव और मध्य-हेमंत महोत्सव। कुछ परिवार तब भी उत्सव मनाते हैं, जब वरिष्ठ लोग एक निश्चित उम्र पर पहुँच जाते हैं, या जब बच्चे एक माह या सौ दिन की उम्र के हो जाते हैं। और इसी तरह चलता रहता है। ये सब पारंपरिक त्योहार हैं। क्या इन त्योहारों में पारंपरिक संस्कृति अंतर्निहित नहीं है? पारंपरिक संस्कृति का मूल क्या है? क्या इनका परमेश्वर की उपासना से कुछ लेना-देना है? क्या इनका लोगों को सत्य का अभ्यास करने के लिए कहने से कुछ लेना-देना है? क्या परमेश्वर को भेंट चढ़ाने, परमेश्वर की वेदी पर जाने और उसकी शिक्षाएँ प्राप्त करने के लिए भी लोगों के कोई त्योहार हैं? क्या इस तरह के कोई त्योहार हैं? (नहीं।) इन सभी त्योहारों में लोग क्या करते हैं? आधुनिक युग में इन्हें खाने, पीने और मज़े करने के अवसरों के रूप में देखा जाता है। पारंपरिक संस्कृति का अंतर्निहित स्रोत क्या है? पारंपरिक संस्कृति किससे आती है? यह शैतान से आती है। इन पारंपरिक त्योहारों के दृश्यों के पीछे शैतान मनुष्यों में कुछ खास चीजें भर देता है। वे चीज़ें क्या हैं? यह सुनिश्चित करना कि लोग अपने पूर्वजों को याद रखें—क्या यह उनमें से एक है? उदाहरण के लिए, चिंगमिंग महोत्सव के दौरान लोग कब्रों की सफ़ाई करते हैं और अपने पूर्वजों को भेंट चढ़ाते हैं, ताकि वे अपने पूर्वजों को भूलें नहीं। साथ ही, शैतान सुनिश्चित करता है कि लोग देशभक्त होना याद रखें, जिसका एक उदाहरण ड्रैगन नौका महोत्सव है। मध्य-हेमंत उत्सव किसलिए मनाया जाता है? (पारिवारिक पुनर्मिलन के लिए।) पारिवारिक पुनर्मिलनों की पृष्ठभूमि क्या है? इसका क्या कारण है? यह भावनात्मक रूप से संवाद करने और जुड़ने के लिए है। निस्संदेह, चाहे वह चंद्र नववर्ष की पूर्व संध्या मनाना हो या दीप-महोत्सव, उन्हें मनाने के पीछे के कारणों का वर्णन करने के कई तरीके हैं। लेकिन कोई उन कारणों का वर्णन कैसे भी करे, उनमें से प्रत्येक कारण शैतान द्वारा लोगों में अपना फ़लसफ़ा और सोच भरने का तरीका है, ताकि वे परमेश्वर से भटक जाएँ और यह न जानें कि परमेश्वर है, और वे भेंटें या तो अपने पूर्वजों को चढ़ाएँ या फिर शैतान को, या देह-सुख की इच्छाओं के वास्ते खाएँ, पीएँ और मज़ा करें। जब भी ये त्योहार मनाए जाते हैं, तो इनमें से हर त्योहार में लोगों के जाने बिना ही उनके मन में शैतान के विचार और दृष्टिकोण गहरे जम जाते हैं। जब लोग अपनी उम्र के चालीसवें, पचासवें दशक में या उससे भी बड़ी उम्र में पहुँचते हैं, तो शैतान के ये विचार और दृष्टिकोण पहले से ही उनके मन में गहरे जम चुके होते हैं। इतना ही नहीं, लोग इन विचारों को, चाहे वे सही हों या गलत, अविवेकपूर्ण ढंग से और बिना दुराव-छिपाव के, अगली पीढ़ी में संचारित करने का भरसक प्रयास करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (है।) पारंपरिक संस्कृति और ये त्योहार लोगों को कैसे भ्रष्ट करते हैं? क्या तुम जानते हो? (लोग इन परंपराओं के नियमों से इतने विवश और बाध्य हो जाते हैं कि उनमें परमेश्वर को खोजने का समय और ऊर्जा नहीं बचती।) यह एक पहलू है। उदाहरण के लिए, चंद्र नव वर्ष के दौरान हर कोई उत्सव मनाता है—अगर तुमने नहीं मनाया, तो क्या तुम दुःखी महसूस नहीं करोगे? क्या तुम अपने दिल में कोई अंधविश्वास रखते हो? शायद तुम ऐसा महसूस करो : “मैंने नववर्ष का उत्सव नहीं मनाया, और चूँकि चंद्र नव वर्ष का दिन एक खराब दिन था; तो कहीं बाकी पूरा वर्ष भी खराब ही न बीते”? क्या तुम बुरा और थोड़ा डरा हुआ महसूस नहीं करोगे? ऐसे भी कुछ लोग हैं, जिन्होंने वर्षों से अपने पुरखों को भेंट नहीं चढ़ाई है और वे अचानक स्वप्न देखते हैं, जिसमें कोई मृत व्यक्ति उनसे धन माँगता है। वे कैसा महसूस करेंगे? “कितने दुःख की बात है कि इस मृत व्यक्ति को खर्च करने के लिए धन चाहिए! मैं उसके लिए कुछ कागज़ी मुद्रा जला दूँगा। अगर मैं ऐसा नहीं करता हूँ, तो यह बिलकुल भी सही नहीं होगा। इससे हम जीवित लोग किसी मुसीबत में पड़ सकते हैं—कौन कह सकता है, दुर्भाग्य कब आ पड़ेगा?” उनके मन में डर और चिंता का यह छोटा-सा बादल हमेशा मँडराता रहेगा। उन्हें यह चिंता कौन देता है? शैतान इस चिंता का स्रोत है। क्या यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का एक तरीका नहीं है? वह तुम्हें भ्रष्ट करने, तुम्हें धमकाने और तुम्हें बाँधने के लिए विभिन्न तरीके और बहाने इस्तेमाल करता है, ताकि तुम स्तब्ध रह जाओ और झुक जाओ और उसके सामने समर्पण कर दो; शैतान इसी तरह मनुष्य को भ्रष्ट करता है। प्रायः जब लोग कमज़ोर होते हैं या परिस्थितियों से पूर्णतः अवगत नहीं होते, तब वे असावधानीवश, भ्रमित तरीके से कुछ कर सकते हैं; अर्थात्, वे अनजाने में शैतान के चंगुल में फँस जाते हैं और वे बेइरादा कुछ कर सकते हैं, कुछ ऐसी चीज़ें कर सकते हैं, जिनके बारे में वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। शैतान इसी तरह से मनुष्य को भ्रष्ट करता है। यहाँ तक कि अब कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो गहरे जड़ जमाई हुई पारंपरिक संस्कृति से अलग होने के अनिच्छुक हैं, और उसे नहीं छोड़ सकते। विशेष रूप से जब वे कमज़ोर और निष्क्रिय होते हैं, तब वे इस प्रकार के उत्सव मनाना चाहते हैं और वे फिर से शैतान से मिलना और उसे संतुष्ट करना चाहते हैं, ताकि उनके दिलों को सुकून मिल जाए। पारंपरिक संस्कृति की पृष्ठभूमि क्या है? क्या पर्दे के पीछे से शैतान का काला हाथ डोर खींच रहा है? क्या शैतान की दुष्ट प्रकृति जोड़-तोड़ और नियंत्रण कर रही है? क्या शैतान इन सभी चीज़ों को नियंत्रित कर रहा है? (हाँ।) जब लोग इस पारंपरिक संस्कृति में जीते हैं और इस प्रकार के पारंपरिक त्योहार मनाते हैं, तो क्या हम कह सकते हैं कि यह एक ऐसा परिवेश है, जिसमें वे शैतान द्वारा मूर्ख बनाए और भ्रष्ट किए जा रहे हैं, और इतना ही नहीं, वे शैतान द्वारा मूर्ख बनाए जाने और भ्रष्ट किए जाने से खुश हैं? (हाँ।) यह एक ऐसी चीज़ है, जिसे तुम सब स्वीकार करते हो, जिसके बारे में तुम जानते हो।

iv. शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए अंधविश्वास का उपयोग कैसे करता है

तुम “अंधविश्वास” शब्द से परिचित हो, है न? अंधविश्वास और पारंपरिक संस्कृति में संबंध हैं, किंतु आज हम उनके बारे में बात नहीं करेंगे। इसके बजाय मैं अंधविश्वास के सबसे ज्यादा सामने आने वाले रूपों की चर्चा करूँगा : भविष्य-कथन, ज्योतिष, धूप जलाना और बुद्ध की आराधना करना। कुछ लोग भविष्य-कथन करते हैं, दूसरे लोग बुद्ध की आराधना करते हैं और धूप जलाते हैं, जबकि अन्य लोग अपना भाग्य पढ़वाते हैं या किसी को अपना चेहरा दिखाकर अपना भाग्य ज्ञात करवाते हैं। तुम लोगों में से कितनों ने अपना भाग्य ज्ञात करवाया या चेहरा पढ़वाया है? यह चीज़ ऐसी है, जिसमें अधिकांश लोग रुचि रखते हैं, है न? (हाँ।) क्यों? भविष्य-कथन और ज्योतिष से लोगों को क्या फायदा होता है? इससे उन्हें किस प्रकार की संतुष्टि मिलती है? (जिज्ञासा।) क्या यह सिर्फ जिज्ञासा है? जहाँ तक मैं देखता हूँ, जरूरी नहीं कि यह सिर्फ जिज्ञासा हो। अटकल और भविष्य-कथन का क्या लक्ष्य है? यह क्यों किया जाता है? क्या यह भविष्य जानने के लिए नहीं है? कुछ लोग भविष्य का पूर्वानुमान लगाने के लिए अपना चेहरा पढ़वाते हैं, अन्य लोग ऐसा यह देखने के लिए करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा होगा या नहीं। कुछ लोग यह देखने के लिए ऐसा करते हैं कि उनकी शादी कैसी रहेगी, और कुछ अन्य लोग यह देखने के लिए ऐसा करते हैं कि आने वाला वर्ष कैसा भाग्य लाएगा? कुछ लोग यह देखने के लिए अपना चेहरा पढ़वाते हैं कि उनका और उनके पुत्र-पुत्रियों का भविष्य कैसा रहेगा, और कुछ व्यापारी लोग यह देखने के लिए ऐसा करते हैं कि वे कितना पैसा कमाएँगे और चेहरा पढ़ने वाले से मार्गदर्शन माँगते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए? तो क्या यह सिर्फ जिज्ञासा शांत करने के लिए है? जब लोग अपना चेहरा पढ़वाते हैं या इस प्रकार की चीज़ें करते हैं, तो यह केवल उनके अपने भविष्य के व्यक्तिगत लाभ के लिए होता है; वे विश्वास करते हैं कि यह सब उनके भाग्य के साथ निकटता से जुड़ा है। क्या इनमें से कुछ भी उपयोगी है? (नहीं।) यह उपयोगी क्यों नहीं हैं? क्या इन चीज़ों के माध्यम से कुछ जानकारी प्राप्त करना अच्छी बात नहीं है? ये प्रथाएँ तुम्हें यह जानने में सहायता कर सकती हैं कि मुसीबत कब आ सकती है, और अगर तुम मुसीबतों के बारे में उनके आने से पहले जान लो, तो क्या तुम उनसे बच नहीं सकते? अगर तुम अपना भविष्य पढ़वा लेते हो, तो वह तुम्हें यह दिखा सकता है कि भूलभुलैया से निकलने का सही मार्ग कैसे खोजा जाए, ताकि तुम आने वाले वर्ष में सौभाग्य प्राप्त कर सको और अपने व्यवसाय के माध्यम से खूब धन-दौलत प्राप्त कर सको। तो यह उपयोगी है या नहीं? लेकिन यह उपयोगी है या नहीं, इसका हमसे कोई संबंध नहीं है, और हमारी आज की संगति में यह मुद्दा शामिल नहीं होगा। शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए अंधविश्वास का उपयोग कैसे करता है? सभी लोग अपना भाग्य जानना चाहते हैं, इसलिए शैतान उनकी उत्सुकता का उन्हें लालच देने के लिए फायदा उठाता है। लोग अटकल, भविष्य-कथन, और चेहरा पढ़वाने में संलग्न हो जाते हैं, ताकि जान सकें कि भविष्य में उनके साथ क्या होगा और आगे किस प्रकार का मार्ग है। यद्यपि अंततः वह भाग्य या संभावनाएँ किसके हाथ में हैं जिनसे लोग इतने चिंतित हैं? (परमेश्वर के हाथ में।) ये सभी चीज़ें परमेश्वर के हाथों में हैं। इन विधियों का उपयोग करके शैतान लोगों को क्या ज्ञात करवाना चाहता है? शैतान चेहरा पढ़ने और भविष्य-कथन का उपयोग लोगों को यह बताने के लिए करना चाहता है कि वह उनका भविष्य और भाग्य जानता है, और न केवल वह इन चीज़ों को जानता है, बल्कि ये उसके नियंत्रण में भी हैं। शैतान इस अवसर का लाभ उठाना चाहता है और इन विधियों का उपयोग लोगों को नियंत्रित करने के लिए करना चाहता है, ताकि लोग उस पर अंधे होकर विश्वास करें और उसके हर शब्द का पालन करें। उदाहरण के लिए, अगर तुम अपना चेहरा पढ़वाओ, और अगर भाग्य बताने वाला व्यक्ति अपनी आँखें बंद करके पूर्ण स्पष्टता के साथ तुम्हें बता दे कि पिछले कुछ दशकों में तुम्हारे साथ क्या-क्या घटित हुआ है, तो तुम भीतर कैसा महसूस करोगे? तुम तुरंत महसूस करोगे, “यह कितना सटीक है! मैंने अपना अतीत पहले कभी किसी को नहीं बताया, इसने उसके बारे में कैसे जाना? मैं सच में इस भविष्यवक्ता की सराहना करता हूँ!” क्या शैतान के लिए तुम्हारे अतीत के बारे में जानना बहुत आसान नहीं है? परमेश्वर तुम्हें वहाँ तक लेकर आया है, जहाँ आज तुम हो, और इस पूरे समय के दौरान शैतान लोगों को भ्रष्ट करता रहा है और तुम्हारा पीछा करता रहा है। तुम्हारे जीवन के दशकों का समय शैतान के लिए कुछ भी नहीं है और इन चीज़ों को जानना उसके लिए कठिन नहीं है। जब तुम जानते हो कि शैतान जो कहता है, वह सटीक है, तो क्या तुम अपना हृदय उसे नहीं दे देते? क्या तुम अपना भविष्य और भाग्य उसके नियंत्रण में नहीं छोड़ देते? एक पल में तुम्हारा हृदय उसके लिए कुछ आदर या श्रद्धा महसूस करेगा, और कुछ लोगों के लिए, इस बिंदु पर उनकी आत्माएँ उसके द्वारा पहले ही छीन ली गई होंगी। और तुम तुरंत भविष्यवक्ता से पूछोगे, “मैं आगे क्या करूँ? आने वाले साल में मुझे किससे बचना चाहिए? मुझे क्या नहीं करना चाहिए?” और फिर, वह कहेगा, “तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए, तुम्हें यह नहीं करना चाहिए, फ़लाँ रंग के कपड़े मत पहनो, तुम्हें अमुक-अमुक स्थानों पर नहीं जाना चाहिए, और तुम्हें फ़लाँ चीज़ें अधिक करनी चाहिए...।” क्या तुम उसकी हर बात तुरंत दिल से स्वीकार नहीं कर लोगे? तुम उसके वचन परमेश्वर के वचनों से भी अधिक तेजी से याद कर लोगे। तुम उन्हें इतनी शीघ्रता से क्यों याद कर लोगे? क्योंकि तुम अच्छे भाग्य के लिए शैतान पर भरोसा करना चाहोगे। क्या तभी वह तुम्हारे दिल पर कब्ज़ा नहीं कर लेता? जब उसकी भविष्यवाणियाँ एक के बाद एक सच हो जाती हैं, तब क्या तुम यह जानने के लिए वापस उसके पास नहीं जाना चाहोगे, कि अगला साल कैसा भाग्य लेकर आएगा? (हाँ।) तुम वही करोगे, जो शैतान तुमसे करने के लिए कहेगा, और उन चीज़ों से बचोगे, जिनसे वह बचने के लिए कहेगा। इस तरह से, क्या तुम उसकी कही हर बात का पालन नहीं कर रहे होते? बहुत जल्दी तुम उसकी गोद में जा गिरोगे, धोखा खाओगे और उसके नियंत्रण में चले जाओगे। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम विश्वास करते हो कि वह जो कहता है, वह सत्य है, और क्योंकि तुम मानते हो कि वह तुम्हारी पिछली ज़िंदगियों, तुम्हारी वर्तमान ज़िंदगी और तुम्हारे भविष्य में घटित होने वाली चीज़ों के बारे में जानता है। यही वह विधि है, जिससे शैतान लोगों को नियंत्रित करता है। किंतु वास्तव में कौन नियंत्रण करता है? स्वयं परमेश्वर नियंत्रण करता है, शैतान नहीं। शैतान इस मामले में अपनी चालाकियों का उपयोग केवल अज्ञानी लोगों को चकमा देने के लिए करता है, उन लोगों को बरगलाने के लिए करता है, जो उस पर विश्वास और भरोसा करने में केवल भौतिक जगत को देखते हैं। फिर वे शैतान के चंगुल में फँस जाते हैं और उसकी हर बात मानते हैं। किंतु क्या जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करना और उसका अनुसरण करना चाहते हैं, तब शैतान अपनी पकड़ ढीली करता है? शैतान अपनी पकड़ ढीली नहीं करता। इस स्थिति में, क्या लोग वास्तव में शैतान के चंगुल में फँस रहे हैं? (हाँ।) क्या हम कह सकते हैं कि इस संदर्भ में शैतान का व्यवहार सचमुच निर्लज्जतापूर्ण है? (हाँ।) हम ऐसा क्यों कहेंगे? क्योंकि ये धोखा देने वाली और छल से भरी हुई चालबाजियाँ हैं। शैतान बेशर्म है और लोगों को गुमराह करता है कि वह उनसे संबंधित सभी चीज़ों को नियंत्रित करता है और वह उनके भाग्य को भी नियंत्रित करता है। इससे अज्ञानी लोग उसे पूरी तरह से मानने लगते हैं। वे केवल कुछ शब्दों से मूर्ख बना दिए जाते हैं। हतप्रभ होकर लोग उसके आगे झुक जाते हैं। तो शैतान किस तरह के तरीके इस्तेमाल करता है, खुद पर विश्वास करवाने के लिए वह क्या कहता है? उदाहरण के लिए, तुमने शैतान को नहीं बताया होगा कि तुम्हारे परिवार में कितने सदस्य हैं, किंतु शायद वह बता दे कि तुम्हारे परिवार में कितने सदस्य हैं, और साथ ही तुम्हारे माता-पिता और बच्चों की उम्र भी बता दे। इससे पहले अगर तुम्हें शैतान पर कुछ शक या संदेह रहा भी हो, तो क्या ऐसी बातें सुनने के बाद तुम यह महसूस नहीं करोगे कि यह थोड़ा अधिक विश्वसनीय है? तब शैतान कह सकता है कि हाल ही में तुम्हारा कार्य कितना कठिन रहा है, कि तुम्हारे वरिष्ठ तुम्हें उतना महत्व नहीं देते, जितना तुम्हें मिलना चाहिए और वे हमेशा तुम्हारे विरुद्ध कार्य करते हैं, इत्यादि। यह सुनने के बाद तुम सोचोगे, “यह बिलकुल सही है! कार्यालय में सब चीज़ें सुचारु रूप से नहीं चल रही हैं।” तो तुम शैतान पर थोड़ा और विश्वास करोगे। फिर वह तुम्हें धोखा देने के लिए कुछ और कहेगा, जिससे तुम उस पर और भी अधिक विश्वास करोगे। थोड़ा-थोड़ा करके तुम अब खुद को उसका और प्रतिरोध करने या उस पर संदेह करने में असमर्थ पाओगे। शैतान सिर्फ कुछ मामूली चालाकियाँ, यहाँ तक कि छोटी-छोटी तुच्छ चालाकियाँ इस्तेमाल करता है और इस तरह तुम्हें भ्रमित कर देता है। जब तुम भ्रमित हो जाते हो, तो तुम अपना व्यवहार स्थिर नहीं रख पाते, तुम्हारी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ, और तुम वही करना आरंभ कर देते हो, जो शैतान कहता है। यह वह शानदार तरीका है, जिसे शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है, जिससे तुम अनजाने ही उसके जाल में फँस जाते हो और उसके द्वारा बहकाए जाते हो। शैतान तुमसे कुछ बातें कहता है, जिन्हें लोग अच्छी बातें मानते हैं, और तब वह तुम्हें कहता है कि क्या करना है और क्या नहीं करना। इस तरह तुम अनजाने ही छले जाते हो। एक बार जब तुम इसमें पड़ जाते हो, तो तुम्हारे लिए चीज़ें परेशानी देने वाली हो जाती हैं; तुम लगातार इसी बारे में सोचते रहते हो कि शैतान ने क्या कहा और उसने तुमसे क्या करने को कहा, और तुम अनजाने ही उसके कब्ज़े में आ जाते हो। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मनुष्यों में सत्य का अभाव है और इसलिए वे शैतान के प्रलोभन और बहकावे के विरुद्ध मजबूती से खड़े होने और उसका विरोध करने में असमर्थ हैं। शैतान की दुष्टता और उसके धोखे, विश्वासघात और दुर्भावना का सामना करने में मानवजाति बहुत अज्ञानी, अपरिपक्व और कमज़ोर है, है न? क्या यह उन तरीकों में से एक नहीं है, जिनसे शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है? (हाँ, है।) मनुष्य अनजाने में, थोड़ा-थोड़ा करके, शैतान के विभिन्न तरीकों द्वारा धोखा खाते और छले जाते हैं, क्योंकि उनमें सकारात्मक और नकारात्मक के बीच अंतर करने की योग्यता का अभाव है। शैतान पर विजय पाने के लिए उनमें इस आध्यात्मिक कद और योग्यता का अभाव है।

v. शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए सामाजिक प्रवृत्तियों का उपयोग कैसे करता है

सामाजिक प्रवृत्तियाँ कब अस्तित्व में आईं? क्या वे केवल वर्तमान समय में अस्तित्व में आईं? कोई यह कह सकता है कि सामाजिक प्रवृत्तियाँ तब अस्तित्व में आईं, जब शैतान ने मनुष्य को भ्रष्ट करना आरंभ किया। सामाजिक प्रवृत्तियों में क्या शामिल है? (कपड़े पहनने और शृंगार करने की शैलियाँ।) ये ऐसी चीजें हैं, जिनके संपर्क में लोग अकसर आते हैं। कपड़े पहनने की शैलियाँ, फैशन, रुझान—ये चीज़ें एक छोटा पहलू निर्मित करती हैं। क्या और भी कुछ है? क्या वे लोकप्रिय वाक्यांश भी इसमें शामिल हैं, जिन्हें लोग अकसर बोलते हैं? क्या वे जीवन-शैलियाँ इसमें शामिल हैं, जिनकी लोग कामना करते हैं? क्या संगीत के सितारे, मशहूर हस्तियाँ, पत्रिकाएँ और उपन्यास, जिन्हें लोग पसंद करते हैं, इसमें शामिल होते हैं? (हाँ।) तुम लोगों के विचार में, सामाजिक प्रवृत्तियों का कौन-सा पहलू मनुष्य को भ्रष्ट करने में सक्षम है? इनमें से कौन-सा रुझान तुम लोगों को सबसे लुभावना लगता है? कुछ लोग कहते हैं : “हम सब एक खास उम्र में पहुँच गए हैं, हम अपनी उम्र के पचासवें या साठवें, सत्तरवें या अस्सीवें दशक में हैं, और हम अब और इन रुझानों के अनुकूल नहीं हो सकते और वे वास्तव में हमारा ध्यान आकर्षित नहीं करते।” क्या यह सही है? दूसरे कहते हैं : “हम मशहूर हस्तियों का अनुसरण नहीं करते, वह तो बीसेक साल के युवा लोग किया करते हैं; हम फैशन वाले कपड़े भी नहीं पहनते, वह तो अपनी छवि के बारे में सतर्क लोग किया करते हैं।” तो इनमें से क्या तुम लोगों को भ्रष्ट करने में सक्षम है? (लोकप्रिय कहावतें।) क्या ये कहावतें लोगों को भ्रष्ट कर सकती हैं? मैं एक उदाहरण दूँगा, और तुम लोग देख सकते हो कि वे लोगों को भ्रष्ट करती हैं या नहीं : “पैसा दुनिया को नचाता है”; क्या यह एक रुझान है? क्या यह तुम लोगों द्वारा उल्लिखित फैशन और स्वादिष्ट भोजन के रुझानों की तुलना में अधिक खराब नहीं है? “पैसा दुनिया को नचाता है” यह शैतान का एक फ़लसफ़ा है। यह संपूर्ण मानवजाति में, हर मानव-समाज में प्रचलित है; तुम कह सकते हो, यह एक रुझान है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह हर एक व्यक्ति के हृदय में बैठा दिया गया है, जिन्होंने पहले तो इस कहावत को स्वीकार नहीं किया, किंतु फिर जब वे जीवन की वास्तविकताओं के संपर्क में आए, तो इसे मूक सहमति दे दी, और महसूस करना शुरू किया कि ये वचन वास्तव में सत्य हैं। क्या यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने की प्रक्रिया नहीं है? शायद लोग इस कहावत को समान रूप से नहीं समझते, बल्कि हर एक आदमी अपने आसपास घटित घटनाओं और अपने निजी अनुभवों के आधार पर इस कहावत की अलग-अलग रूप में व्याख्या करता है और इसे अलग-अलग मात्रा में स्वीकार करता है। क्या ऐसा नहीं है? चाहे इस कहावत के संबंध में किसी के पास कितना भी अनुभव हो, इसका किसी के हृदय पर कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है? तुम लोगों में से प्रत्येक को शामिल करते हुए, दुनिया के लोगों के स्वभाव के माध्यम से कोई चीज प्रकट होती है। यह क्या है? यह पैसे की उपासना है। क्या इसे किसी के हृदय में से निकालना कठिन है? यह बहुत कठिन है! ऐसा प्रतीत होता है कि शैतान का मनुष्य को भ्रष्ट करना सचमुच गहन है! शैतान लोगों को प्रलोभन देने के लिए धन का उपयोग करता है, और उन्हें भ्रष्ट करके उनसे धन की आराधना करवाता है और भौतिक चीजों की पूजा करवाता है। और लोगों में धन की इस आराधना की अभिव्यक्ति कैसे होती है? क्या तुम लोगों को लगता है कि बिना पैसे के तुम लोग इस दुनिया में जीवित नहीं रह सकते, कि पैसे के बिना एक दिन जीना भी असंभव होगा? लोगों की हैसियत इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितना पैसा है, और वे उतना ही सम्मान पाते हैं। गरीबों की कमर शर्म से झुक जाती है, जबकि धनी अपनी ऊँची हैसियत का मज़ा लेते हैं। वे ऊँचे और गर्व से खड़े होते हैं, ज़ोर से बोलते हैं और अंहकार से जीते हैं। यह कहावत और रुझान लोगों के लिए क्या लाता है? क्या यह सच नहीं है कि पैसे की खोज में लोग कुछ भी बलिदान कर सकते हैं? क्या अधिक पैसे की खोज में कई लोग अपनी गरिमा और ईमान का बलिदान नहीं कर देते? क्या कई लोग पैसे की खातिर अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने का अवसर नहीं गँवा देते? क्या सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने का अवसर खोना लोगों का सबसे बड़ा नुकसान नहीं है? क्या मनुष्य को इस हद तक भ्रष्ट करने के लिए इस विधि और इस कहावत का उपयोग करने के कारण शैतान कुटिल नहीं है? क्या यह दुर्भावनापूर्ण चाल नहीं है? जैसे-जैसे तुम इस लोकप्रिय कहावत का विरोध करने से लेकर अंततः इसे सत्य के रूप में स्वीकार करने तक की प्रगति करते हो, तुम्हारा हृदय पूरी तरह से शैतान के चंगुल में फँस जाता है, और इस तरह तुम अनजाने में इस कहावत के अनुसार जीने लगते हो। इस कहावत ने तुम्हें किस हद तक प्रभावित किया है? हो सकता है कि तुम सच्चे मार्ग को जानते हो, और हो सकता है कि तुम सत्य को जानते हो, किंतु उसकी खोज करने में तुम असमर्थ हो। हो सकता है कि तुम स्पष्ट रूप से जानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, किंतु तुम सत्य को पाने के लिए क़ीमत चुकाने का कष्ट उठाने को तैयार नहीं हो। इसके बजाय, तुम बिलकुल अंत तक परमेश्वर का विरोध करने में अपने भविष्य और नियति को त्याग दोगे। चाहे परमेश्वर कुछ भी क्यों न कहे, चाहे परमेश्वर कुछ भी क्यों न करे, चाहे तुम्हें इस बात का एहसास क्यों न हो कि तुम्हारे लिए परमेश्वर का प्रेम कितना गहरा और कितना महान है, तुम फिर भी हठपूर्वक अपने रास्ते पर ही चलते रहने का आग्रह करोगे और इस कहावत की कीमत चुकाओगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यह कहावत पहले ही तुम्हारे विचारों के साथ छल कर चुकी है और उन्हें नियंत्रित कर चुकी है, यह पहले ही तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर चुकी है, और तुम धन की खोज छोड़ने के बजाय इसे अपने भाग्य पर शासन करने दोगे। लोग इस प्रकार कार्य कर सकते हैं कि उन्हें शैतान के शब्दों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित किया जा सकता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें शैतान द्वारा बरगलाया और भ्रष्ट किया गया है? क्या शैतान के दर्शन, उसकी मानसिकता और उसके स्वभाव ने तुम्हारे दिलों में जड़ें नहीं जमा ली हैं? जब तुम आँख मूँदकर धन के पीछे दौड़ते हो, और सत्य की खोज छोड़ देते हो, तो क्या शैतान ने तुम्हें बरगलाने का अपना उद्देश्य प्राप्त नहीं कर लिया है? ठीक यही मामला है। तो क्या जब शैतान द्वारा तुम्हें बरगलाया और भ्रष्ट किया जाता है, तो तुम इसे महसूस कर पाते हो? तुम नहीं कर पाते। अगर तुम शैतान को अपने सामने खड़ा नहीं देख सकते, या यह महसूस नहीं कर सकते कि यह शैतान है जो छिपकर कार्य कर रहा है, तो क्या तुम शैतान की दुष्टता देख पाओगे? क्या तुम जान पाओगे कि शैतान मानवजाति को कैसे भ्रष्ट करता है? शैतान हर समय और हर जगह मनुष्य को भ्रष्ट करता है। शैतान मनुष्य के लिए इस भ्रष्टता से बचना असंभव बना देता है और वह इसके सामने मनुष्य को असहाय बना देता है। शैतान अपने विचारों, अपने दृष्टिकोणों और उससे आने वाली दुष्ट चीज़ों को तुमसे ऐसी परिस्थितियों में स्वीकार करवाता है, जहाँ तुम अज्ञानता में होते हो, और जब तुम्हें इस बात का पता नहीं चलता कि तुम्हारे साथ क्या हो रहा है। लोग इन चीज़ों को स्वीकार कर लेते हैं और इन पर कोई आपत्ति नहीं करते। वे इन चीज़ों को सँजोते हैं और एक खजाने की तरह सँभाले रखते हैं, वे इन चीज़ों को अपने साथ जोड़-तोड़ करने देते हैं और उन्हें अपने साथ खिलवाड़ करने देते हैं; और इस तरह लोग शैतान के सामर्थ्य के अधीन जीते हैं और अनजाने ही शैतान की आज्ञा का पालन करते हैं, और शैतान का मनुष्य को भ्रष्ट करना और अधिक गहरा होता जाता है।

शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इन अनेक विधियों का उपयोग करता है। मनुष्य को कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का ज्ञान और समझ है, मनुष्य पारंपरिक संस्कृति के प्रभाव में जीता है, और प्रत्येक मनुष्य पारंपरिक संस्कृति का उत्तराधिकारी और हस्तांतरणकर्ता है। मनुष्य शैतान द्वारा स्वयं को दी गई पारंपरिक संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए बाध्य है, और वह शैतान द्वारा मानवजाति को प्रदान किए जाने वाले सामाजिक प्रवृत्तियों का पालन भी करता है। मनुष्य शैतान से अविभाज्य है, वह हर समय शैतान का अनुसरण करता है, उसकी दुष्टता, धोखे, दुर्भावना और अहंकार को स्वीकार करता है। शैतान के इन स्वभावों को धारण कर लेने पर, क्या मनुष्य इस भ्रष्ट मनुष्यजाति के बीच रहते हुए खुश रहा है या दुःखी? (दुःखी।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? (चूँकि मनुष्य इन चीज़ों से बँधा है और इन भ्रष्ट चीज़ों से नियंत्रित है, वह पाप में रहता है और एक कठिन संघर्ष में डूबा हुआ है।) कुछ लोग बहुत बौद्धिक दिखाई देने के लिए चश्मा पहनते हैं; वे वाक्पटुता और तार्किकता के साथ बहुत सम्मानास्पद ढंग से बोल सकते हैं, और चूँकि वे कई चीज़ों से होकर गुज़रे हैं, इसलिए वे बहुत अनुभवी और परिष्कृत हो सकते हैं। वे छोटे-बड़े मामलों के बारे में विस्तार से बोलने में समर्थ हो सकते हैं; वे चीज़ों की प्रामाणिकता और तर्क का आकलन करने में भी समर्थ हो सकते हैं। कुछ लोग इन लोगों के व्यवहार और रूप-रंग, और साथ ही इनके चरित्र, इनकी ईमानदारी और आचरण इत्यादि को देख सकते हैं, और उन्हें इनमें कोई दोष नहीं मिलता होगा। ऐसे व्यक्ति मौजूदा सामाजिक प्रवृत्तियों के अनुकूल होने में ख़ास तौर से सक्षम होते हैं। भले ही ये लोग अधिक उम्र के हों, पर वे कभी समकालीन प्रवृत्तियों से पीछे नहीं रहते और कभी इतने बूढ़े नहीं होते कि सीखना बंद कर दें। सतह पर, कोई भी ऐसे व्यक्ति में दोष नहीं निकाल सकता, लेकिन अपने भीतरी सार से वे शैतान द्वारा सरासर और पूरी तरह से भ्रष्ट किए जा चुके होते हैं। हालाँकि इन लोगों में कोई बाहरी दोष नहीं ढूँढ़ा जा सकता, और हालाँकि सतह पर वे सौम्य, परिष्कृत होते हैं और ज्ञान और एक खास नैतिकता रखते हैं, और उनमें ईमानदारी होती है, और हालाँकि ज्ञान के मामले में वे किसी भी तरह से युवा लोगों से कम नहीं होते, फिर भी जहाँ तक उनकी प्रकृति और सार का संबंध होता है, ऐसे लोग शैतान के पूर्ण और जीवित प्रतिमान होते हैं। वे शैतान के पूर्ण प्रतिबिंब होते हैं। यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का “फल” है। मैंने जो कहा है, उससे तुम्हें ठेस पहुँच सकती है, पर यह सब सत्य है। जिस ज्ञान का मनुष्य अध्ययन करता है, जिस विज्ञान को वह समझता है और सामाजिक प्रवृत्तियों के अनुरूप होने के लिए जिन साधनों का वह चयन करता है, वे निरपवाद रूप से शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने के उपकरण हैं। यह बिलकुल सत्य है। इसलिए मनुष्य एक ऐसे स्वभाव के भीतर जीता है, जिसे शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया होता है, और मनुष्य के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है या परमेश्वर का सार क्या है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि व्यक्ति शैतान के मनुष्य को भ्रष्ट करने के तरीकों में ऊपरी तौर पर दोष नहीं ढूँढ़ सकता; किसी के व्यवहार से कोई यह नहीं कह सकता कि कुछ अनुचित है। प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य सामान्य रूप से करता है और सामान्य जीवन जीता है; वह सामान्य रूप से पुस्तकें और समाचारपत्र पढ़ता है, सामान्य रूप से अध्ययन करता और बोलता है। कुछ लोग कुछ नैतिकता सीख लेते है, और वे बोलने में अच्छे, दूसरों को समझने वाले और मित्रतापूर्ण होते हैं, मददगार और उदार होते हैं, और छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा नहीं करते या लोगों का फायदा नहीं उठाते। लेकिन उनका भ्रष्ट शैतानी स्वभाव उनमें गहरी जड़ें जमाए होता है और यह सार बाहरी प्रयासों पर भरोसा करके नहीं बदला जा सकता। इस सार के कारण मनुष्य परमेश्वर की पवित्रता को समझने में समर्थ नहीं है, और परमेश्वर की पवित्रता के सार को मनुष्य पर प्रकट किए जाने के बावज़ूद वह इसे गंभीरता से नहीं लेता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विभिन्न साधनों के जरिये शैतान पहले ही मनुष्य की भावनाओं, मतों, दृष्टिकोणों और विचारों को अपने कब्जे में करने के लिए आ चुका होता है। यह कब्ज़ा और भ्रष्टता अस्थायी या आकस्मिक नहीं होते; बल्कि हर जगह और हर समय विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार, तीन या चार साल से, या पाँच या छह साल से भी, परमेश्वर पर विश्वास करते आ रहे बहुत-से लोग अभी भी इन दुष्ट विचारों, दृष्टिकोणों, तर्क और फ़लसफ़ों को खज़ाने के रूप में लेते हैं जो शैतान ने उनमें भर दिए हैं, और उन्हें छोड़ देने में असमर्थ हैं। चूँकि मनुष्य ने शैतान की प्रकृति से आने वाली दुष्ट, अहंकारी और दुर्भावनापूर्ण चीज़ों को स्वीकार किया है, इसलिए उनके अंतर्वैयक्तिक संबंधों में अपरिहार्य रूप से प्रायः संघर्ष, बहसबाजी और असामंजस्य रहता है, जो शैतान की अहंकारी प्रकृति के परिणामस्वरूप आता है। अगर शैतान ने मानवजाति को सकारात्मक चीज़ें दी होतीं—उदाहरण के लिए, अगर मनुष्य द्वारा स्वीकृत पारंपरिक संस्कृति का कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद अच्छी चीज़ें होतीं—तो उन चीज़ों को स्वीकार करने के बाद समान मानसिकता वाले व्यक्तियों को आपस में मिलजुलकर रहने में समर्थ होना चाहिए था। तो समान चीजें स्वीकार करने वालों के बीच इतनी बड़ी फूट क्यों है? क्यों है इतनी बड़ी फूट? ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये चीज़ें शैतान से आती हैं और शैतान लोगों में दरार पैदा करता है। शैतान से आने वाली चीज़ें, चाहे वे ऊपरी तौर पर कितनी ही गरिमापूर्ण और महान क्यों न दिखाई पड़ें, मनुष्यों के लिए और उनके जीवन में केवल अहंकार और शैतान की दुष्ट प्रकृति के धोखे के अलावा और कुछ नहीं लातीं। क्या यह सही नहीं है? कोई ऐसा व्यक्ति, जो अपने को छिपाने में सक्षम हो, जिसके पास ज्ञान की संपदा हो या जिसकी अच्छी परवरिश हुई हो, उसे भी अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को छिपाने में कठिनाई होगी। अर्थात्, इस व्यक्ति ने भले ही अपने आपको कितने ही तरीकों से छिपाया हो, चाहे तुम उसे संत समझते थे या सोचते थे कि वह पूर्ण है, या तुम सोचते थे कि वह एक फ़रिश्ता है, चाहे तुमने उसे कितना भी शुद्ध क्यों न समझा हो, पर्दे के पीछे उसका जीवन किस तरह का है? उसके स्वभाव के प्रकाशन में तुम क्या सार देखोगे? निस्संदेह तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति देखोगे। क्या ऐसा कहना स्वीकार्य है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम लोग अपने करीबी किसी व्यक्ति को जानते हो, जिसके बारे में तुम सोचते थे कि वह अच्छा व्यक्ति है, शायद कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे तुम एक आदर्श मानते थे। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के अनुसार तुम उसके बारे में क्या सोचते हो? पहले, तुम यह आकलन करते हो कि इस प्रकार के व्यक्ति में मानवता है या नहीं, क्या वह ईमानदार है, क्या उसमें लोगों के लिए सच्चा प्रेम है, क्या उसके वचन और कार्य दूसरों को लाभ और सहायता पहुँचाते हैं। (नहीं पहुँचाते।) इन लोगों द्वारा दिखाई जाने वाली तथाकथित दयालुता, प्रेम या अच्छाई क्या है? यह सब झूठ है, मुखौटा है। इस मुखौटे के पीछे एक गुप्त बुरा उद्देश्य है : उस व्यक्ति को इष्ट और पूजनीय बनाना। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से देखते हो? (हाँ।)

शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए जिन विधियों का उपयोग करता है, वे मानवजाति के लिए क्या लेकर आती हैं? क्या वे कोई सकारात्मक चीज़ लाती हैं? पहली बात, क्या मनुष्य अच्छे और बुरे के बीच अंतर कर सकता है? क्या तुम कहोगे कि इस संसार में, चाहे कोई प्रसिद्ध या महान व्यक्ति हो, या कोई पत्रिका या अन्य प्रकाशन, जिन मानकों का यह निर्णय करने के लिए उपयोग करते हैं कि कोई चीज़ अच्छी है या बुरी, और सही है या ग़लत, वे सटीक मानक हैं? क्या घटनाओं और लोगों के बारे में उनके आकलन निष्पक्ष हैं? क्या उनमें सच्चाई है? क्या यह संसार, यह मानवजाति, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का आकलन सत्य के मानक के आधार पर करती है? (नहीं।) लोगों में वह क्षमता क्यों नहीं है? लोगों ने ज्ञान का इतना अधिक अध्ययन किया है और विज्ञान के विषय में इतना अधिक जानते हैं, इसलिए वे महान क्षमताओं से युक्त हैं, है न? तो फिर वे सकारात्मक और नकारात्मक चीज़ों के बीच अंतर करने में क्यों असमर्थ हैं? ऐसा क्यों है? (क्योंकि लोगों के पास सत्य नहीं है, विज्ञान और ज्ञान सत्य नहीं हैं।) शैतान मानवजाति के लिए जो भी चीज़ लेकर आता है, वह दुष्ट और भ्रष्ट होती है, और उसमें सत्य, जीवन और मार्ग का अभाव होता है। शैतान द्वारा मनुष्य के लिए लाई जाने वाली दुष्टता और भ्रष्टता को देखते हुए क्या तुम कह सकते हो कि शैतान के पास प्रेम है? क्या तुम कह सकते हो कि मनुष्य के पास प्रेम है? कुछ लोग कह सकते हैं : “तुम ग़लत हो, दुनिया में बहुत लोग हैं, जो गरीबों और बेघर लोगों की सहायता करते हैं। क्या वे अच्छे लोग नहीं हैं? यहाँ धर्मार्थ संगठन भी हैं, जो अच्छे कार्य करते हैं; क्या उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य अच्छे नहीं हैं?” तुम उसे क्या कहोगे? शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए कई अलग-अलग विधियों और सिद्धांतों का उपयोग करता है; क्या मनुष्य की यह भ्रष्टता एक अस्पष्ट धारणा है? नहीं, यह अस्पष्ट नहीं है। शैतान कुछ व्यावहारिक चीज़ें भी करता है, और वह इस दुनिया और समाज में किसी दृष्टिकोण या किसी सिद्धांत को बढ़ावा भी देता है। प्रत्येक राजवंश और प्रत्येक काल-खंड में वह एक सिद्धांत को बढ़ावा देता है और मनुष्यों के मन में विचार भरता है। ये विचार और सिद्धांत धीरे-धीरे लोगों के हृदयों में जड़ जमा लेते हैं, और तब वे उन विचारों और सिद्धांतों के अनुसार जीना आरंभ कर देते हैं। एक बार जब वे इन चीज़ों के अनुसार जीने लगते हैं, तो क्या वे अनजाने ही शैतान नहीं बन जाते? क्या तब लोग शैतान के साथ एक नहीं हो जाते? जब लोग शैतान के साथ एक हो जाते हैं, तो अंत में परमेश्वर के प्रति उनका क्या रवैया होता है? क्या यह वही रवैया नहीं होता, जो शैतान परमेश्वर के प्रति रखता है? कोई भी यह स्वीकार करने का साहस नहीं करता, है न? यह कितना भयावह है। मैं क्यों कहता हूँ कि शैतान की प्रकृति दुष्ट है? मैं ऐसा अकारण नहीं कहता; बल्कि, शैतान की प्रकृति का निर्धारण और विश्लेषण इस आधार पर किया जाता है कि उसने क्या किया है और किन चीज़ों को प्रकट किया है। अगर मैंने केवल यह कहा होता कि शैतान दुष्ट है, तो तुम लोग क्या सोचते? तुम लोग सोचते : “स्पष्टतः शैतान दुष्ट है।” इसलिए मैं तुमसे पूछता हूँ : “शैतान के कौन-से पहलू दुष्टता हैं?” अगर तुम कहते हो : “शैतान द्वारा परमेश्वर का विरोध करना दुष्टता है,” तो तुम अभी भी स्पष्टता के साथ नहीं बोल रहे होगे। अब जबकि मैंने इस प्रकार विशिष्ट रूप से कहा है; तो क्या तुम्हें शैतान की दुष्टता के सार की विशिष्ट अंतर्वस्तु के बारे में समझ है? (हाँ।) अगर तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो, तो तुम अपनी खुद की स्थितियाँ देखोगे। क्या इन दोनों चीज़ों के बीच कोई संबंध है? यह तुम लोगों के लिए मददगार है या नहीं? (हाँ, है।) जब मैं परमेश्वर की पवित्रता के सार के बारे में संगति करता हूँ, तो क्या यह आवश्यक है कि मैं शैतान के दुष्ट सार के बारे में भी संगति करूँ? इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? (हाँ, यह आवश्यक है।) क्यों? (शैतान की दुष्टता परमेश्वर की पवित्रता को स्पष्टता से उभार देती है।) क्या यह ऐसा ही है? यह आंशिक रूप से सही है, इस अर्थ में कि शैतान की दुष्टता के बिना लोग परमेश्वर की पवित्रता को नहीं जानेंगे; यह कहना सही है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि परमेश्वर की पवित्रता केवल शैतान की दुष्टता के विपरीत होने के कारण विद्यमान है, तो क्या यह सही है? सोचने का यह द्वंद्वात्मक तरीका ग़लत है। परमेश्वर की पवित्रता परमेश्वर का अंतर्निहित सार है; यहाँ तक कि जब परमेश्वर इसे अपने कर्मों के माध्यम से प्रकट करता है, तब भी वह परमेश्वर के सार की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है और यह तब भी परमेश्वर का अंतर्निहित सार है; यह हमेशा विद्यमान रही है और स्वयं परमेश्वर के लिए अंतर्भूत और सहज है, यद्यपि मनुष्य इसे नहीं देख सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बीच और शैतान के प्रभाव के अधीन रहता है, और वह पवित्रता के बारे में ही नहीं जानता, परमेश्वर की पवित्रता की विशिष्ट अंतर्वस्तु के बारे में तो कैसे जानेगा। तो क्या यह आवश्यक है कि हम पहले शैतान के दुष्ट सार के बारे में संगति करें? (हाँ, यह आवश्यक है।) कुछ लोग कुछ संदेह व्यक्त कर सकते हैं : “तुम स्वयं परमेश्वर के बारे में संगति कर रहे हो, तो फिर तुम हर समय इस बारे में बात क्यों करते रहते हो कि शैतान लोगों को भ्रष्ट कैसे करता है और शैतान की प्रकृति दुष्ट कैसे है?” अब तुमने इन संदेहों का समाधान कर लिया है, है ना? जब लोगों को शैतान की दुष्टता का बोध हो जाता है और जब उनके पास उसकी एक सही परिभाषा होती है, जब लोग दुष्टता की विशिष्ट अंतर्वस्तु और अभिव्यक्ति को, दुष्टता के स्रोत और सार को स्पष्ट रूप से देख लेते हैं, केवल तभी, परमेश्वर की पवित्रता की चर्चा के माध्यम से, लोग स्पष्ट रूप से समझ और पहचान पाते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है, पवित्रता मात्र क्या है। अगर मैं शैतान की दुष्टता की चर्चा न करूँ, तो कुछ लोग ग़लती से यह विश्वास कर लेंगे कि कुछ चीजों का, जिन्हें लोग समाज में या लोगों के बीच करते हैं—या कुछ खास चीजों का, जो इस संसार में विद्यमान हैं—पवित्रता से कुछ संबंध हो सकता है। क्या यह दृष्टिकोण ग़लत नहीं है? (हाँ, है।)

अब जबकि मैंने इस रूप में शैतान के सार पर संगति कर ली है, तुम लोगों ने अपने पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों, परमेश्वर के वचनों के अपने अध्ययन और उसके कार्य का अनुभव प्राप्त करने के माध्यम से परमेश्वर की पवित्रता की किस प्रकार की समझ प्राप्त की है? आगे बढ़ो और इस बारे में बोलो। तुम्हें कानों को अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना है, बस अपने स्वयं के अनुभवों से बोलो। क्या परमेश्वर की पवित्रता में केवल उसका प्रेम शामिल है? क्या यह परमेश्वर का प्रेम मात्र है, जिसका हम पवित्रता के रूप में वर्णन करते हैं? यह कुछ ज़्यादा ही एकतरफा होगा, है न? परमेश्वर के प्रेम के अलावा, क्या परमेश्वर के सार के अन्य पहलू भी हैं? क्या तुमने उन्हें देखा है? (हाँ। परमेश्वर त्योहारों और अवकाशों, प्रथाओं और अंधविश्वासों से घृणा करता है; यह भी परमेश्वर की पवित्रता है।) परमेश्वर पवित्र है, इसलिए वह चीज़ों से घृणा करता है, क्या तुम्हारा यह मतलब है? जब बात परमेश्वर की पवित्रता की होती है, तो वह क्या है? क्या ऐसा है कि परमेश्वर की पवित्रता में कोई तात्विक अंतर्वस्तु नहीं है, केवल घृणा है? क्या तुम अपने मन में यह सोच रहे हो : “चूँकि परमेश्वर इन बुरी चीज़ों से घृणा करता है, इसलिए कहा जा सकता है कि परमेश्वर पवित्र है”? क्या यह मात्र अटकलबाज़ी नहीं है? क्या यह अतिशयोक्ति और निर्णय का एक रूप नहीं है? जब परमेश्वर के सार को समझने की बात आती है, तब वह सबसे बड़ी चूक क्या है, जिससे पूर्णतः बचा जाना चाहिए? (जब हम वास्तविकता को पीछे छोड़ देते हैं और उसके बजाय सिद्धांतों की बात करते हैं।) यह एक बहुत बड़ी चूक है। क्या कोई और चीज़ भी है? (अटकलबाज़ी और कल्पना।) ये भी बहुत गंभीर चूकें हैं। अटकलबाज़ी और कल्पना उपयोगी क्यों नहीं हैं? क्या जिन चीजों के बारे में तुम अटकलबाज़ी और कल्पना करते हो, उन्हें तुम वास्तव में देख सकते हो? क्या वे परमेश्वर का सच्चा सार हैं? (नहीं।) और किस चीज़ से बचना चाहिए? क्या बस परमेश्वर के सार का वर्णन करने के लिए अच्छे लगने वाले वचनों की कड़ी को दोहराना चूक है? (हाँ।) क्या यह आडंबरपूर्ण और बेतुका नहीं है? जिस तरह निर्णय और अटकलबाज़ी बेतुके हैं, उसी तरह अच्छे लगने वाले वचनों का चयन भी बेतुका है। खोखली स्तुति भी बेतुकी है, है न? क्या परमेश्वर लोगों को ऐसी बेतुकी बातें कहते सुनकर आनंदित होता है? (नहीं, आनंदित नहीं होता।) इन्हें सुनकर वह असहज महसूस करता है! जब परमेश्वर लोगों के एक समूह की अगुआई करता है और उसे बचाता है, और लोगों का यह समूह जब उसके वचन सुनता है, तो फिर भी उनकी समझ में कभी नहीं आता कि उसका क्या अर्थ है? कोई पूछ सकता है : “क्या परमेश्वर अच्छा है?” और वे उत्तर देंगे “हाँ!” “कितना अच्छा?” “बहुत, बहुत अच्छा!” “क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है?” “हाँ!” “कितना? क्या तुम इसका वर्णन कर सकते हो?” “बहुत, बहुत अधिक! परमेश्वर का प्रेम समुद्र से भी गहरा है, आसमान से भी ऊँचा है!” क्या ये शब्द बकवास नहीं हैं? और क्या यह बकवास उसी के समान नहीं है, जो तुम लोगों ने अभी कहा : “परमेश्वर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से घृणा करता है, इसलिए परमेश्वर पवित्र है”? (हाँ।) क्या अभी तुम लोगों ने जो कहा, वह बकवास नहीं है? और ज्यादातर कही जाने वाली बकवास बातें कहाँ से आती हैं? ज्यादातर कही जाने वाली बकवास बातें मुख्य रूप से परमेश्वर के प्रति लोगों के अनुत्तरदायित्व और अश्रद्धा के कारण कही जाती हैं। क्या हम ऐसा कह सकते हैं? तुम्हें कोई समझ नहीं थी, और फिर भी तुमने बकवास बातें कीं। क्या यह अनुत्तरदायी होना नहीं है? क्या यह परमेश्वर के प्रति अशिष्ट होना नहीं है? तुमने कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया है, थोड़े विचार और तर्क समझ लिए हैं, तुमने इन चीज़ों का इस्तेमाल किया है और इतना ही नहीं, परमेश्वर को जानने के एक तरीके के रूप में ऐसा किया है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें उस तरह कहते सुनकर परमेश्वर परेशान महसूस करता है? तुम लोग इन विधियों का प्रयोग करके परमेश्वर को जानने का प्रयास कैसे कर सकते हो? जब तुम उस तरह बोलते हो, तो क्या यह विचित्र नहीं लगता? इसलिए, जब परमेश्वर के ज्ञान की बात आती है, व्यक्ति को बहुत अधिक सावधान रहना चाहिए; उसे उसी सीमा तक बोलना चाहिए, जिस सीमा तक वह परमेश्वर को जानता हो। ईमानदारी से और व्यावहारिक रूप से बोलो और अपने वचनों को अरुचिकर सराहनाओं से न सजाओ और चापलूसी का उपयोग न करो; परमेश्वर को इसकी आवश्यकता नहीं है; इस तरह की चीज़ें शैतान से आती हैं। शैतान का स्वभाव अंहकारी है; शैतान चापलूसी किया जाना और अच्छे शब्द सुनना पसंद करता है। शैतान खुश और आनंदित होगा, अगर लोग अपने सीखे हुए तमाम सुखद शब्द दोहराएँ और उन्हें शैतान के लिए इस्तेमाल करें। किंतु परमेश्वर को इसकी आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर को चाटुकारिता या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है और वह नहीं चाहता कि लोग बेकार की बातें करें और अंधे होकर उसकी स्तुति करें। परमेश्वर ऐसी स्तुति और चाटुकारिता से घृणा करता है, जो वास्तविकता से मेल न खाती हो। इसलिए, जब कुछ लोग झूठे मन से परमेश्वर की स्तुति करते हैं, झूठी शपथ खाते हैं और झूठी प्रार्थना करते हैं, तो परमेश्वर बिलकुल नहीं सुनता। तुम जो कहते हो, तुम्हें उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। अगर तुम कोई चीज़ नहीं जानते, तो बस वैसा कह दो; अगर तुम कोई चीज़ जानते हो, तो उसे व्यावहारिक रूप से व्यक्त कर दो। इसलिए, जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर की पवित्रता किस चीज़ को विशिष्ट रूप से और वास्तव में आवश्यक बनाती है, क्या तुम लोगों को इसकी सच्ची समझ है? (जब मैंने विद्रोहशीलता व्यक्त की, जब मैंने आज्ञा का उल्लंघन किया, तो मुझे परमेश्वर से न्याय और ताड़ना मिली, और उसमें मैंने परमेश्वर की पवित्रता देखी। और जब मैंने उन परिवेशों का सामना किया, जो मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थे, तब मैंने इन चीज़ों के बारे में प्रार्थना की और परमेश्वर के इरादे जानने चाहे, और जब परमेश्वर ने अपने वचनों से मुझे प्रबुद्ध किया और मेरी अगुआई की, तो मैंने परमेश्वर की पवित्रता देखी।) यह तुम्हारे अपने अनुभव से है? (जो परमेश्वर ने इसके बारे में बोला है, उससे मैंने देखा है कि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने और क्षति पहुँचाए जाने के बाद क्या बन गया है। फिर भी, परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए सब-कुछ दिया है और इससे मैं परमेश्वर की पवित्रता देखता हूँ।) यह बोलने का यथार्थवादी ढंग है; यह सच्चा ज्ञान है। क्या इसे समझने के कोई अलग तरीके हैं? (मैं शैतान की दुष्टता उसके द्वारा हव्वा को पाप करने के लिए बहकाने हेतु कहे गए उसके शब्दों और प्रभु यीशु को दिए गए उसके प्रलोभन में देखता हूँ। परमेश्वर ने उन वचनों से, जिनसे उसने आदम और हव्वा को कहा था कि वे क्या खा सकते हैं और क्या नहीं खा सकते, मैं देखता हूँ कि परमेश्वर के वचन सीधे, स्पष्ट और भरोसेमंद होते हैं; इससे मैं परमेश्वर की पवित्रता देखता हूँ।) उपर्युक्त टिप्पणियाँ सुनने के बाद तुम लोगों को किसके वचन “आमीन” कहने के लिए प्रेरित करते हैं? किसकी संगति आज की हमारी संगति के विषय के सबसे निकट थी? किसके शब्द सर्वाधिक यथार्थवादी थे? पिछली बहन की संगति कैसी थी? (अच्छी थी।) उसने जो कहा, तुम लोगों ने उस पर आमीन कहा। उसने क्या कहा, जो सीधे लक्ष्य पर था? (उस बहन द्वारा अभी-अभी कहे गए वचनों में मैंने सुना कि परमेश्वर के वचन सीधे और बहुत स्पष्ट होते हैं, और शैतान की गोलमोल बातों की तरह बिलकुल नहीं होते। मैंने इसमें परमेश्वर की पवित्रता देखी।) यह इसका भाग है। क्या यह सही था? (हाँ।) बहुत अच्छा। मैं देखता हूँ कि तुम लोगों ने इन दो पिछली संगतियों में कुछ प्राप्त किया है, परंतु तुम्हें लगातार कठिन परिश्रम करते रहना चाहिए। तुम्हारे कठिन परिश्रम करते रहने का कारण यह है कि परमेश्वर के सार को समझना एक बहुत गंभीर सबक है; यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो रातोंरात किसी की समझ में आ जाए, या जिसे कोई केवल कुछ ही शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सके।

लोगों के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, ज्ञान और दर्शन का प्रत्येक पहलू, लोगों के विचार और दृष्टिकोण, और अलग-अलग व्यक्ति के खास व्यक्तिगत पहलू उन्हें परमेश्वर के सार को जानने में सबसे अधिक रुकावट डालते हैं; इसलिए जब तुम इन विषयों को सुनते हो, तो उनमें से कुछ विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हो सकते हैं, कुछ को शायद तुम समझ न पाओ, जबकि कुछ को शायद तुम मूलभूत रूप से वास्तविकता के साथ न जोड़ पाओ। बहरहाल, मैंने तुम लोगों की परमेश्वर की पवित्रता की समझ के बारे में सुना है और मैं जानता हूँ कि अपने हृदयों में तुम लोग उसे स्वीकार करना आरंभ कर रहे हो, जो मैंने परमेश्वर की पवित्रता के बारे में कहा है और संगति की है। मैं जानता हूँ कि तुम लोगों के हृदयों में परमेश्वर की पवित्रता के सार को समझने की तुम्हारी इच्छा अंकुरित होना शुरू कर रही है। पर मुझे जो बात और भी अधिक आनंदित करती है, वह यह है कि तुममें से कुछ लोग परमेश्वर की पवित्रता के अपने ज्ञान का सरलतम शब्दों में वर्णन करने में पहले से ही सक्षम हो। भले ही कहने के लिए यह एक सरल बात है और मैंने इसे पहले भी कहा है, फिर भी तुममें से अधिकांश के हृदयों में इन वचनों को अभी भी स्वीकृति मिलनी बाकी है, और वास्तव में उन्होंने तुम्हारे मन पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ा है। फिर भी, तुममें से कुछ ने इन वचनों को अपने हृदय में ग्रहण कर लिया है। यह बहुत अच्छा है और यह एक बहुत आशाजनक शुरुआत है। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उन विषयों पर, जो तुम्हें गंभीर लगते हैं—या जो विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं उन पर मनन करते रहोगे, और ज्यादा से ज्यादा संगति करोगे। जो विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं, उनके लिए कोई न कोई तुम लोगों का और अधिक मार्गदर्शन करने के लिए मौजूद रहेगा। अगर तुम उन क्षेत्रों के बारे में और अधिक संगति करने में संलग्न रहते हो, जो अभी तुम लोगों की पहुँच में हैं, तो पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा और तुम्हें अधिक समझ आ जाएगी। परमेश्वर के सार को समझना और परमेश्वर के सार को जानना लोगों के जीवन में प्रवेश के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग इसकी उपेक्षा नहीं करोगे या इसे एक खेल की तरह नहीं लोगे, क्योंकि परमेश्वर को जानना मनुष्य के विश्वास का आधार और उसके लिए सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने की कुंजी है। अगर लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं मगर उसे जानते नहीं, अगर वे केवल शब्दों और सिद्धांतों में जीते रहते हैं, तो उनके लिए उद्धार प्राप्त करना कभी संभव नहीं होगा, भले ही वे सत्य के सतही अर्थ के अनुसार कार्य करते और जीते रहें। अर्थात्, अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन उसे जानते नहीं, तो तुम्हारा विश्वास बिलकुल बेकार है और उसमें वास्तविकता का कोई अंश नहीं है। तुम समझते हो, है न? (हाँ, हम समझते हैं।) आज की हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

4 जनवरी, 2014

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