परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

अपनी पिछली सभा के दौरान हमने एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय के बारे में संगति की थी। क्या तुम लोगों को याद है कि वह क्या था? मैं इसे दोहराता हूँ। हमारी पिछली संगति का विषय था : परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर। क्या यह तुम लोगों के लिए महत्वपूर्ण विषय है? इसका कौन-सा भाग तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है? परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव, या स्वयं परमेश्वर? तुम लोगों को किस में सबसे ज्यादा रुचि है? तुम लोग किस भाग के बारे में सबसे अधिक सुनना चाहते हो? मैं जानता हूँ कि तुम लोगों के लिए इस प्रश्न का उत्तर दे पाना कठिन है, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव उसके कार्य के हर एक पहलू में देखा जा सकता है, और उसका स्वभाव उसके कार्य में हमेशा और सभी स्थानों पर प्रकट होता है, और वस्तुतः स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है; परमेश्वर की समग्र प्रबंधन योजना में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते हैं।

परमेश्वर के कार्य के बारे में हमारी पिछली संगति की विषयवस्तु बाइबल के वृत्तांत थे जो बहुत पहले घटित हुए थे। वे सभी परमेश्वर और मनुष्य के बारे में कहानियाँ थीं, और वे ऐसी चीज़ों के बारे में हैं जो मनुष्य के साथ घटित हुईं, जबकि उनमें परमेश्वर की भागीदारी और अभिव्यक्ति भी शामिल है, इसलिए परमेश्वर को जानने के लिए इन कहानियों का विशेष मूल्य और महत्व है। मनुष्यजाति का सृजन करने के तुरंत बाद, परमेश्वर ने मनुष्य के साथ जुड़ना और मनुष्य से बात करना शुरू कर दिया, और उसका स्वभाव मनुष्य के समक्ष व्यक्त होना आरंभ हो गया। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर जब पहली बार मनुष्य के साथ जुड़ा, तभी से वह अपना सार और अपना स्वरूप, बिना किसी व्यवधान के, मनुष्य पर ज़ाहिर करने लगा। इस बात की परवाह किए बिना कि पहले के लोग या आज के लोग इसे देखने या समझने में समर्थ हैं या नहीं, परमेश्वर अपना स्वभाव प्रकट करते हुए और अपना सार व्यक्त करते हुए मनुष्य से बात करता है और मनुष्य के बीच कार्य करता है—यह तथ्य है, और कोई भी व्यक्ति इससे इनकार नहीं कर सकता है। इसका यह भी अर्थ है कि जब परमेश्वर मनुष्य के साथ कार्य करता और जुड़ता है, तब परमेश्वर का स्वभाव, परमेश्वर का सार और उसका स्वरूप निरंतर सामने आते और प्रकट होते रहते हैं। उसने मनुष्य से कभी कुछ छिपाया या गुप्त नहीं रखा है, बल्कि इसके बजाय वह कुछ भी रोककर रखे बिना अपना स्वभाव सार्वजनिक और प्रकाशित कर देता है। इस प्रकार, परमेश्वर आशा करता है कि मनुष्य उसे जान सके और उसके स्वभाव और सार को समझ सके। वह नहीं चाहता है कि मनुष्य उसके स्वभाव और सार के साथ अनंत रहस्यों की तरह व्यवहार करे, न ही वह यह चाहता है कि मनुष्यजाति परमेश्वर को ऐसी पहेली माने जिसे कभी सुलझाया नहीं जा सकता है। जब मनुष्यजाति परमेश्वर को जान लेती है, केवल तभी मनुष्य आगे का मार्ग जान सकता है और परमेश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार कर सकता है, और केवल ऐसी मनुष्यजाति ही सच्चे अर्थ में परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन जीवन जी सकती है, और प्रकाश में, परमेश्वर के आशीषों के बीच, जीवन जी सकती है।

परमेश्वर से निकले और उसके द्वारा प्रकट किए गए वचन और स्वभाव उसकी इच्छा को दर्शाते हैं, और वे उसके सार को भी दर्शाते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य के साथ जुड़ता है, तब वह चाहे जो कहे या करे, या वह चाहे जो स्वभाव प्रकट करे, और मनुष्य परमेश्वर के सार और उसके स्वरूप का चाहे जो देखे, वे सभी मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा को दर्शाते हैं। मनुष्य चाहे जितना एहसास कर पाए, बूझ या समझ पाए, यह सब परमेश्वर की इच्छा—मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा—को दर्शाता है! यह संदेह से परे है! मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर की इच्छा वह है जैसा वह लोगों से होने अपेक्षा करता है, जो वह उनसे करने की अपेक्षा करता है, जैसे वह उनसे जीने की अपेक्षा करता है, और जैसा वह उनसे परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति करने में समर्थ बनने की अपेक्षा करता है। क्या ये चीज़ें परमेश्वर के सार से अवियोज्य हैं? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर अपना स्वभाव और अपना समूचा स्वरूप उसी समय सामने लाता है जब वह मनुष्य से माँगें कर रहा होता है। इसमें कोई झूठ, कोई बहाना, कोई दुराव-छिपाव, और कोई साज-श्रृंगार नहीं है। फिर भी मनुष्य परमेश्वर का स्वभाव जानने में असमर्थ क्यों है, और क्यों वह परमेश्वर के स्वभाव को कभी भी स्पष्ट रूप से महसूस करने में समर्थ नहीं रहा है? मनुष्य ने कभी परमेश्वर की इच्छा की अनुभूति क्यों नहीं की? परमेश्वर से जो निकलता और उसके द्वारा प्रकट किया जाता है, यही वह है जो स्वयं परमेश्वर का स्वरूप है; यह उसके सच्चे स्वभाव का एक-एक कतरा और फलक है—तो मनुष्य क्यों नहीं देख सकता है? क्यों मनुष्य पूरे ज्ञान के काबिल नहीं है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। तो, यह कारण क्या है? सृजन के समय से ही, मनुष्य ने परमेश्वर के साथ कभी परमेश्वर जैसा बर्ताव नहीं किया। प्राचीनतम समयों में, मनुष्य के संबंध में—उस मनुष्य के संबंध में जिसे अभी बस सृजित किया गया था—परमेश्वर ने चाहे जो किया हो, पर मनुष्य ने परमेश्वर को एक साथी से अधिक कुछ नहीं माना, कोई ऐसा जिस पर भरोसा किया जा सकता था, और मनुष्य को परमेश्वर का कोई ज्ञान या समझ नहीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि वह नहीं जानता था कि इस अस्तित्व—इस अस्तित्व जिस पर उसने भरोसा किया और जिसे अपने साथी के रूप में देखा—से जो निकला था, वही परमेश्वर का सार था, और न ही वह यह जानता था कि यह अस्तित्व वही एकमात्र परमेश्वर था जो सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है। सीधे-सादे ढंग से कहें, तो उस समय के लोग परमेश्वर को बिल्कुल नहीं पहचानते थे। वे नहीं जानते थे कि स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीज़ें उसी के द्वारा बनाई गई हैं, और वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि वह कहाँ से आया, और इस बात से भी कि वह क्या था। निस्संदेह, उस बीते समय में परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा नहीं करता था कि वह उसे जाने, या उसे बूझे, या वह सब कुछ समझे जो वह करता था, या उसकी इच्छा के बारे में जानकार हो, क्योंकि ये मनुष्यजाति के सृजन के बाद प्राचीनतम समय थे। जब परमेश्वर ने व्यवस्था के युग के कार्य की तैयारियाँ आरंभ कीं, तब परमेश्वर ने मनुष्य के लिए कुछ किया और मनुष्य से कुछ माँगें करनी भी शुरू कीं, मनुष्य को यह बताते हुए कि वह परमेश्वर को भेंट कैसे चढ़ाए और उसकी कैसे आराधना करे। केवल तभी मनुष्य ने परमेश्वर के बारे में थोड़ी-सी सीधी-सादी जानकारियाँ प्राप्त कीं, केवल तभी उसने मनुष्य तथा परमेश्वर के बीच का अंतर जाना, और यह जाना कि परमेश्वर ही एकमात्र परमेश्वर है जिसने मनुष्यजाति का सृजन किया था। जब मनुष्य जान गया कि परमेश्वर परमेश्वर था और मनुष्य मनुष्य था, तो उसके और परमेश्वर के बीच में एक निश्चित दूरी बन गई, मगर तब भी परमेश्वर ने यह माँग नहीं की कि मनुष्य को उसके बारे में बहुत अधिक ज्ञान या गहरी समझ हो। इस प्रकार, परमेश्वर अपने कार्य के चरणों और परिस्थितियों के आधार पर मनुष्य से भिन्न-भिन्न अपेक्षाएँ करता है। इसमें तुम लोग क्या देखते हो? तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव का कौन-सा पहलू महसूस करते हो? क्या परमेश्वर वास्तविक है? क्या मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उचित हैं? परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के सृजन के बाद प्राचीनतम समयों के दौरान, जब परमेश्वर ने मनुष्य पर विजय और पूर्णता का कार्य अभी नहीं किया था, और उससे कई सारे वचन नहीं कहे थे, तब उसने मनुष्य से बहुत थोड़ा चाहा। मनुष्य ने चाहे जो किया और उसने चाहे जैसा व्यवहार किया—यहाँ तक कि यदि उसने कुछ ऐसी चीज़ें भी कीं जिनसे परमेश्वर अप्रसन्न हुआ—किंतु परमेश्वर ने इस सबको क्षमा और अनदेखा कर दिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि परमेश्वर जानता था कि उसने मनुष्य को क्या दिया था और मनुष्य के भीतर क्या था, और इस प्रकार वह जानता था कि उसे मनुष्य से किस स्तर की अपेक्षाएँ करनी चाहिए। उस समय उसकी अपेक्षाओं का स्तर भले ही बहुत कम था, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका स्वभाव महान नहीं था, या उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता खोखले शब्द मात्र थे। मनुष्य के लिए, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर को जानने का केवल एक ही तरीक़ा है : परमेश्वर के प्रबंधन और मनुष्यजाति के उद्धार के कार्य के सोपानों का अनुसरण करना, और परमेश्वर मनुष्यजाति से जो वचन कहता है उन्हें स्वीकार करना। एक बार जब मनुष्य परमेश्वर का स्वरूप जान लेता है, और परमेश्वर का स्वभाव जान लेता भी, तब भी क्या मनुष्य परमेश्वर से अपना वास्तविक व्यक्तित्व उसे दिखाने को कहेगा? नहीं, मनुष्य ऐसा नहीं कहेगा, और ऐसा कहने की हिम्मत तक नहीं करेगा, क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप को समझने-बूझने के बाद, मनुष्य सच्चे स्वयं परमेश्वर को, और उसके वास्तविक व्यक्तित्व को पहले ही देख चुका होगा। यह अवश्यंभावी परिणाम है।

परमेश्वर का कार्य और योजना ज्यों-ज्यों निरंतर आगे बढ़ते गए, और जब परमेश्वर ने मनुष्य के साथ एक चिह्न के रूप में बादल में इंद्रधनुष की वाचा स्थापित की कि वह जलप्रलय का उपयोग करके फिर कभी संसार को नष्ट नहीं करेगा, उसके पश्चात् परमेश्वर को उत्तरोत्तर बलवती इच्छा हुई कि वह ऐसे लोगों को प्राप्त करे जो उसके साथ एक मत हो सकते थे। इसलिए भी, उसे पहले से कहीं अधिक तीव्र चाह थी कि वह तत्काल ऐसे लोगों को प्राप्त करे जो पृथ्वी पर उसकी इच्छा पर चल सकें, और, इतना ही नहीं, ऐसे लोगों का एक समूह प्राप्त करे जो अंधकार की शक्तियों का शिकंजा तोड़कर मुक्त हो सकें और शैतान की बेड़ियों में न जकड़े हों, ऐसा समूह जो पृथ्वी पर उसकी गवाही देने में समर्थ होगा। ऐसे लोगों का एक समूह प्राप्त करना परमेश्वर की लंबे समय से इच्छा थी, सृजन के समय से ही वह इसे पाने की प्रतीक्षा कर रहा था। इस प्रकार, संसार का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा जलप्रलय के उपयोग, या मनुष्य के साथ उसकी वाचा के बावजूद, परमेश्वर की इच्छा, मनोदशा, योजना, और आशाएँ सभी वैसी की वैसी बनी रहीं। वह जो करना चाहता था, सृजन के समय के बहुत पहले से ही वह जिस चीज़ के लिए लालायित था, वह था मनुष्यजाति के बीच से उन लोगों को प्राप्त करना जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता था—लोगों का ऐसा समूह प्राप्त करना जो उसके स्वभाव को बूझ और जान पाए और उसकी इच्छा को समझ पाए, ऐसा समूह जो उसकी आराधना कर पाने में समर्थ होगा। लोगों का ऐसा समूह सच्चे अर्थ में उसकी गवाही दे पाएगा, और कहा जा सकता है कि वे उसके विश्वासपात्र होंगे।

आओ, आज हम परमेश्वर के पदचिह्नों और उसके कार्य के चरणों का अनुसरण करते रहें, ताकि हम परमेश्वर के विचारों और मतों का, और परमेश्वर से वास्ता रखने वाले सारे नानाविध विवरणों का खुलासा कर सकें, जिन्हें बहुत लंबे समय से “मुहरबंद करके रखा” गया है। इन चीज़ों के माध्यम से हम परमेश्वर का स्वभाव जानने लगेंगे, परमेश्वर का सार समझने लगेंगे, परमेश्वर को अपने हृदयों में आने देंगे, और हममें से हर एक परमेश्वर से अपनी दूरी को कम करते हुए धीरे-धीरे परमेश्वर के और अधिक निकट आ जाएगा।

पिछली बार हमने जिस बारे में बात की थी, उसका एक भाग इस बात से संबंधित था कि परमेश्वर ने मनुष्य के साथ वाचा क्यों बाँधी। इस बार, हम पवित्र शास्त्र के नीचे दिए गए अंशों के बारे में संगति करेंगे। आओ हम पवित्र शास्त्र के अंश पढ़ने से आरंभ करें।

क. अब्राहम

1. परमेश्वर अब्राहम को एक पुत्र देने की प्रतिज्ञा करता है

उत्पत्ति 17:15-17 फिर परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, “तेरी जो पत्नी सारै है, उसको तू अब सारै न कहना, उसका नाम सारा होगा। मैं उसको आशीष दूँगा, और तुझ को उसके द्वारा एक पुत्र दूँगा; और मैं उसको ऐसी आशीष दूँगा कि वह जाति जाति की मूलमाता हो जाएगी; और उसके वंश में राज्य-राज्य के राजा उत्पन्न होंगे।” तब अब्राहम मुँह के बल गिर पड़ा और हँसा, और मन ही मन कहने लगा, “क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी और क्या सारा जो नब्बे वर्ष की है पुत्र जनेगी?”

उत्पत्ति 17:21-22 परन्तु मैं अपनी वाचा इसहाक ही के साथ बाँधूँगा जो सारा से अगले वर्ष के इसी नियुक्त समय में उत्पन्न होगा। तब परमेश्वर ने अब्राहम से बातें करनी बन्द की और उसके पास से ऊपर चढ़ गया।

कोई भी उस कार्य को बाधित नहीं कर सकता जिसे करने का परमेश्वर संकल्प लेता है

तो, तुम सब लोगों ने अभी-अभी अब्राहम की कहानी सुनी, है न? बाढ़ से संसार के नष्ट हो जाने के बाद उसे परमेश्वर द्वारा चुना गया था, उसका नाम अब्राहम था, और जब वह सौ वर्ष का था और उसकी पत्नी सारा नब्बे वर्ष की थी, तब परमेश्वर की प्रतिज्ञा उस तक आई। परमेश्वर ने उससे क्या प्रतिज्ञा की? परमेश्वर ने वह प्रतिज्ञा की जिसका संकेत हमें पवित्र शास्त्र में मिलता है : “मैं उसको आशीष दूँगा, और तुझ को उसके द्वारा एक पुत्र दूँगा।” परमेश्वर द्वारा उसे पुत्र देने की प्रतिज्ञा के पीछे क्या पृष्ठभूमि थी? पवित्र शास्त्र यहाँ यह विवरण प्रदान करते हैं : “तब अब्राहम मुँह के बल गिर पड़ा और हँसा, और मन ही मन कहने लगा, ‘क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी और क्या सारा जो नब्बे वर्ष की है पुत्र जनेगी?’” दूसरे शब्दों में, यह बुज़ुर्ग दंपति इतने वृद्ध थे कि संतान उत्पन्न नहीं कर सकते थे। जब परमेश्वर ने उससे अपनी प्रतिज्ञा की तो उसके बाद अब्राहम ने क्या किया? वह हँसता हुआ मुँह के बल गिर पड़ा, और उसने मन ही मन कहा, “क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी सन्तान होगी?” अब्राहम मानता था कि यह असंभव था—जिसका अर्थ था कि वह मानता था कि उससे की गई परमेश्वर की प्रतिज्ञा मज़ाक से ज्यादा कुछ नहीं थी। मनुष्य की दृष्टि से, यह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है, और इसी तरह परमेश्वर के द्वारा अप्राप्य और उसके लिए असंभाव्य है। कदाचित्, अब्राहम के लिए, यह हँसी की बात थी : “परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, फिर भी कि वह इस बात से थोड़ा अनभिज्ञ प्रतीत होता है कि इतना वृद्ध व्यक्ति संतान उत्पन्न करने में अक्षम होता है; उसे लगता है कि वह मुझे संतान उत्पन्न करने दे सकता है, वह कहता है कि वह मुझे एक पुत्र देगा—निश्चित रूप से यह असंभव है!” इसलिए, अब्राहम मुँह के बल गिर पड़ा और हँसा, यह सोचते हुए : “असंभव—परमेश्वर मेरे साथ मज़ाक कर रहा है, यह सत्य नहीं हो सकता!” उसने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया। इसलिए, परमेश्वर की नज़रों में, अब्राहम किस प्रकार का व्यक्ति था? (धार्मिक।) यह कहाँ कहा गया था कि वह एक धार्मिक मनुष्य था? तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर जिन्हें बुलाता है वे सब धार्मिक, और पूर्ण होते हैं, कि वे सब ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर के साथ चलते हैं। तुम सिद्धान्त का पालन करते हो! तुम लोगों को स्पष्ट रूप से देखना ही चाहिए कि जब परमेश्वर किसी को परिभाषित करता है, तो वह ऐसा मनमाने ढंग से नहीं करता है। यहाँ, परमेश्वर ने यह नहीं कहा कि अब्राहम धार्मिक था। अपने हृदय में, परमेश्वर के पास प्रत्येक व्यक्ति को मापने के लिए मानक हैं। यद्यपि परमेश्वर ने यह नहीं कहा कि अब्राहम किस प्रकार का व्यक्ति था, फिर भी उसके आचरण की दृष्टि से, अब्राहम को परमेश्वर में किस प्रकार का विश्वास था? क्या यह थोड़ा अमूर्त था? या उसे अत्यधिक विश्वास था? नहीं, उसे नहीं था! उसकी हँसी और विचार दर्शाते हैं कि वह कौन था, इसलिए तुम लोगों का यह विश्वास कि वह धार्मिक था, तुम्हारी कल्पना की उपज मात्र है, यह सिद्धान्त को आँख मूँदकर लागू करना है, यह गैरज़िम्मेदार मूल्यांकन है। क्या परमेश्वर ने अब्राहम की हँसी और उसके हाव-भाव देखे थे? क्या वह उनके बारे में जानता था? परमेश्वर जानता था। परंतु परमेश्वर ने जो करने का उसने संकल्प लिया था, क्या वह उसे बदल देता? नहीं! जब परमेश्वर ने योजना बनाई और संकल्प लिया कि वह इस मनुष्य को चुनेगा, तो यह संपन्न हो गया। मनुष्य के विचार और उसका आचरण परमेश्वर को रत्ती भर भी न तो प्रभावित करेगा, न ही कोई विघ्न डाल पायेगा; परमेश्वर अपनी योजना मनमाने ढंग से नहीं बदलेगा, वह मनुष्य के आचरण के कारण, यहाँ तक कि उस आचरण के कारण भी जो अज्ञानी हो सकता है, अपनी योजना को न ही बदलेगा न तो उलट-पलट करेगा। तो, उत्पत्ति 17:21-22 में क्या लिखा है? “परन्तु मैं अपनी वाचा इसहाक ही के साथ बाँधूँगा जो सारा से अगले वर्ष के इसी नियुक्त समय में उत्पन्न होगा। तब परमेश्वर ने अब्राहम से बातें करनी बन्द की और उसके पास से ऊपर चढ़ गया।” अब्राहम जो सोचता और कहता था, परमेश्वर ने उस पर रत्ती भर ध्यान नहीं दिया। उसके द्वारा अवहेलना करने का क्या कारण था? कारण यह था कि उस समय परमेश्वर ने यह नहीं चाहा था कि मनुष्य को अत्यधिक विश्वास हो, या वह परमेश्वर के बारे में अत्यधिक ज्ञान अर्जित करने में समर्थ हो, या, इतना ही नहीं, वह परमेश्वर द्वारा जो किया और कहा गया था, उसे समझ पाए। इस प्रकार, उसने यह नहीं माँगा कि उसने जो करने का संकल्प लिया था, या उसने जिन लोगों को चुनना निर्धारित किया था, या उसके कार्यों के सिद्धांतों को मनुष्य पूरी तरह समझे, क्योंकि मनुष्य की आध्यात्मिक कद-काठी निरी अपर्याप्त थी। उस समय, अब्राहम ने जो कुछ भी किया और जैसा भी उसका चाल-चलन था, उसे परमेश्वर ने सामान्य माना। उसने न निंदा की या न ही फटकार लगाई, बल्कि बस इतना कहा : “इसहाक सारा से अगले वर्ष के इसी नियुक्त समय में उत्पन्न होगा।” इन वचनों की उसकी घोषणा के बाद, परमेश्वर के लिए, यह विषय कदम-दर-कदम सत्य होता गया; परमेश्वर की नज़रों में, वह जिसे उसकी योजना के अनुसार संपन्न किया जाना था, वह पहले ही प्राप्त कर लिया गया था। इसकी व्यवस्थाएँ पूरी करने के बाद, परमेश्वर चला गया। मनुष्य जो करता या सोचता है, मनुष्य जो समझता है, मनुष्य की योजनाएँ—इनमें से किसी का भी परमेश्वर से कोई संबंध नहीं है। सब कुछ परमेश्वर की योजना के अनुसार, परमेश्वर द्वारा नियत समयों और चरणों के अनुरूप आगे बढ़ता है। परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत ऐसा ही है। मनुष्य जो कुछ भी सोचता या जानता है, परमेश्वर उसमें हस्तक्षेप नहीं करता है, तो भी महज़ इसलिए कि मनुष्य मानता या समझता नहीं है, वह न तो अपनी योजना को त्यागता या न ही अपने कार्य को तजता है। इस प्रकार तथ्यों को परमेश्वर की योजना और विचारों के अनुसार संपन्न किया जाता है। यह वही है जो हम बाइबल में देखते हैं : परमेश्वर ने इसहाक को उस समय जन्म लेने दिया जो उसने नियत किया था। क्या तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण ने परमेश्वर के कार्य में रुकावट डाली? उन्होंने परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाली! क्या परमेश्वर में मनुष्य के थोड़े-से विश्वास ने, और परमेश्वर के बारे में उसकी धारणाओं और कल्पनाओं ने परमेश्वर के कार्य को प्रभावित किया? नहीं, उन्होंने नहीं किया! ज़रा-सा भी नहीं! परमेश्वर की प्रबंधन योजना किसी भी मनुष्य, विषय, या परिवेश से अप्रभावित रहती है। वह जो भी करने का संकल्प लेता है, वह सब समय पर तथा उसकी योजना के अनुसार पूर्ण और संपन्न किया जाएगा, और उसके कार्य में कोई भी मनुष्य दख़ल नहीं दे सकता है। परमेश्वर मनुष्य की नासमझी और अज्ञानता के कुछ निश्चित पहलुओं को, और यहाँ तक अपने प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और धारणाओं के कुछ निश्चित पहलुओं को भी अनदेखा कर देता है; और चाहे कुछ भी हो वह कार्य करता है जो उसे करना ही है। यह परमेश्वर का स्वभाव है, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिबिंब है।

2. अब्राहम इसहाक की बलि देता है

उत्पत्ति 22:2-3 उसने कहा, “अपने पुत्र को अर्थात् अपने एकलौते पुत्र इसहाक को, जिस से तू प्रेम रखता है, संग लेकर मोरिय्याह देश में चला जा; और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।” अतः अब्राहम सबेरे तड़के उठा और अपने गदहे पर काठी कसकर अपने दो सेवक, और अपने पुत्र इसहाक को संग लिया, और होमबलि के लिये लकड़ी चीर ली; तब निकल कर उस स्थान की ओर चला, जिसकी चर्चा परमेश्वर ने उससे की थी।

उत्पत्ति 22:9-10 जब वे उस स्थान को जिसे परमेश्वर ने उसको बताया था पहुँचे; तब अब्राहम ने वहाँ वेदी बनाकर लकड़ी को चुन चुनकर रखा, और अपने पुत्र इसहाक को बाँध कर वेदी पर की लकड़ी के ऊपर रख दिया। फिर अब्राहम ने हाथ बढ़ाकर छुरी को ले लिया कि अपने पुत्र को बलि करे।

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के प्रबंधन और उद्धार का कार्य अब्राहम द्वारा इसहाक की बलि के साथ आरंभ होता है

अब्राहम को एक पुत्र देने के बाद, परमेश्वर ने अब्राहम से जो वचन कहे थे, वे पूरे हो गए थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर की योजना यहीं रुक गई; इसके विपरीत, मनुष्यजाति के प्रबंधन और उद्धार के लिए परमेश्वर की महाप्रतापी योजना अभी बस आरंभ ही हुई थी, और अब्राहम को दी गई संतान की आशीष उसकी समग्र प्रबंधन योजना की प्रस्तावना मात्र थी। उस पल कौन जानता था कि जब अब्राहम ने इसहाक की बलि दी थी, तब शैतान के साथ परमेश्वर का युद्ध ख़ामोशी से आरंभ हो चुका है।

परमेश्वर को परवाह नहीं यदि मनुष्य नासमझ है—वह बस इतना चाहता है कि मनुष्य सच्चा हो

आओ आगे देखें कि परमेश्वर ने अब्राहम के साथ क्या किया। उत्पत्ति 22:2 में, परमेश्वर ने अब्राहम को निम्न आज्ञा दी : “अपने पुत्र को अर्थात् अपने एकलौते पुत्र इसहाक को, जिस से तू प्रेम रखता है, संग लेकर मोरिय्याह देश में चला जा; और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।” परमेश्वर का आशय बिल्कुल स्पष्ट था : वह अब्राहम से अपने इकलौते पुत्र को, जिससे वह प्रेम करता था, होमबलि के रूप में देने के लिए कह रहा था। आज इस पर नज़र डालें, तो क्या परमेश्वर की आज्ञा अभी भी मनुष्य की धारणाओं के विपरीत है? हाँ! उस समय परमेश्वर ने जो भी किया, वह सब मनुष्य की धारणाओं के बिलकुल विपरीत है; यह मनुष्य के लिए अबूझ है। अपनी धारणाओं में, लोग इन बातों पर विश्वास करते हैं : जब मनुष्य विश्वास नहीं करता था, इसे असंभाव्य मानता था, तब परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया, और उसके पुत्र प्राप्त कर लेने के बाद, परमेश्वर ने उससे अपने पुत्र की बलि देने के लिए कहा। क्या यह सरासर अविश्वसनीय नहीं है! वास्तव में परमेश्वर का क्या करने का इरादा था? परमेश्वर का वास्तविक मंतव्य क्या था? उसने अब्राहम को बिना शर्त एक पुत्र दिया, मगर उसने यह भी कहा कि अब्राहम बेशर्त बलि चढ़ा दे। क्या यह बहुत अधिक था? तीसरे पक्ष के दृष्टिकोण से, यह न केवल बहुत अधिक था बल्कि कुछ-कुछ “बेवजह आफ़त पैदा करने” का मामला भी था। परंतु अब्राहम स्वयं यह नहीं मानता था कि परमेश्वर बहुत अधिक माँग रहा था। हालाँकि इसके बारे में उसकी अपनी कुछेक छोटी-मोटी राय थीं और वह परमेश्वर के प्रति थोड़ा शंकालु था, तब भी वह बलि देने के लिए तैयार था। इस बिंदु पर, तुम ऐसा क्या देखते हो जो यह सिद्ध करता हो कि अब्राहम अपने पुत्र की बलि देने के लिए तैयार था? इन वाक्यों में क्या कहा जा रहा है? मूल पाठ नीचे लिखे विवरण देता है : “अतः अब्राहम सबेरे तड़के उठा और अपने गदहे पर काठी कसकर अपने दो सेवक, और अपने पुत्र इसहाक को संग लिया, और होमबलि के लिये लकड़ी चीर ली; तब निकल कर उस स्थान की ओर चला, जिसकी चर्चा परमेश्वर ने उससे की थी” (उत्पत्ति 22:3)। “जब वे उस स्थान को जिसे परमेश्वर ने उसको बताया था पहुँचे; तब अब्राहम ने वहाँ वेदी बनाकर लकड़ी को चुन चुनकर रखा, और अपने पुत्र इसहाक को बाँध कर वेदी पर की लकड़ी के ऊपर रख दिया। फिर अब्राहम ने हाथ बढ़ाकर छुरी को ले लिया कि अपने पुत्र को बलि करे” (उत्पत्ति 22:9-10)। जब अब्राहम ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और अपने बेटे को मारने के लिए छुरी ली, तो क्या उसके कार्यकलाप परमेश्वर द्वारा देखे गए थे? वे देखे गए थे। समूची प्रक्रिया में—आरंभ से, जब परमेश्वर ने कहा कि अब्राहम इसहाक का बलिदान करे, उस समय तक जब अब्राहम ने अपने पुत्र का वध करने के लिए वास्तव में छुरी उठा ली—परमेश्वर ने अब्राहम का हृदय देखा, और पहले परमेश्वर के बारे में उसकी नासमझी, अज्ञानता और ग़लतफ़हमी चाहे जो रही हो, किंतु उस समय अब्राहम का हृदय परमेश्वर के प्रति सच्चा, और ईमानदार था, और वह परमेश्वर के द्वारा दिए गए पुत्र, इसहाक को सचमुच परमेश्वर को लौटाने जा रहा था। परमेश्वर ने उसमें आज्ञाकारिता देखी—ठीक वही आज्ञाकारिता जो उसने चाही थी।

मनुष्य के लिए, परमेश्वर बहुत-से ऐसे काम करता है जो अबूझ और यहाँ तक कि अविश्वसनीय भी होते हैं। जब परमेश्वर किसी को आयोजित करना चाहता है, तो यह आयोजन प्रायः मनुष्य की धारणाओं के विपरीत और उसके लिए अबूझ होता है, फिर भी ठीक यही असंगति और अबूझता ही है जो परमेश्वर द्वारा मनुष्य का परीक्षण और परीक्षा हैं। इस बीच, अब्राहम अपने भीतर परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता प्रदर्शित कर पाया, जो परमेश्वर की अपेक्षा को संतुष्ट करने में उसके समर्थ होने की सबसे आधारभूत शर्त थी। जब अब्राहम परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा कर पाया, जब उसने इसहाक को भेंट चढ़ाया, केवल तभी परमेश्वर ने मनुष्यजाति के प्रति—अब्राहम के प्रति, जिसे उसने चुना था—सच्चे अर्थ में आश्वस्ति और स्वीकृति महसूस की। केवल तभी परमेश्वर आश्वस्त हुआ कि यह व्यक्ति जिसे उसने चुना था अपरिहार्य अगुआ है जो उसकी प्रतिज्ञा और उसके बाद की उसकी प्रबंधन योजना का उत्तरदायित्व ले सकता था। यद्यपि यह सिर्फ एक परीक्षण और परीक्षा थी, फिर भी परमेश्वर ने कृतार्थ महसूस किया, उसने अपने प्रति मनुष्य का प्रेम महसूस किया, और उसने मनुष्य की ओर से इतना सुखद महसूस किया जैसा पहले कभी नहीं किया था। अब्राहम ने इसहाक को मारने के लिए जिस क्षण अपनी छुरी उठाई, क्या परमेश्वर ने उसे रोका? परमेश्वर ने अब्राहम को इसहाक की बलि नहीं देने दी, क्योंकि इसहाक का जीवन लेने का परमेश्वर का कोई इरादा ही नहीं था। इस प्रकार, परमेश्वर ने अब्राहम को बिलकुल सही समय पर रोक दिया। परमेश्वर के लिए, अब्राहम की आज्ञाकारिता ने पहले ही परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी, उसने जो किया वह पर्याप्त था, और जो करना परमेश्वर का अभीष्ट था उसका परिणाम वह पहले ही देख चुका था। क्या यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था? कहा जा सकता है कि यह परिणाम परमेश्वर के लिए संतोषजनक था, कि यही वह था जो परमेश्वर चाहता था, और वह था जो परमेश्वर देखने को लालायित था। क्या यह सच है? यद्यपि, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिए भिन्न-भिन्न तरीक़ों का प्रयोग करता है, किंतु अब्राहम में परमेश्वर ने वह देखा जो वह चाहता था, उसने देखा कि अब्राहम का हृदय सच्चा था, और यह कि उसकी आज्ञाकारिता बेशर्त थी। ठीक यही “बेशर्त” ही था जिसकी परमेश्वर ने आकांक्षा की थी। लोग प्रायः कहते हैं, “मैंने पहले ही यह चढ़ा दिया है, मैंने पहले ही उसका त्याग कर दिया है—फिर भी परमेश्वर मुझसे संतुष्ट क्यों नहीं है? वह मुझे परीक्षाओं के लिए विवश क्यों करता रहता है? वह मुझे परखता क्यों रहता है?” यह एक तथ्य दर्शाता है : परमेश्वर ने तुम्हारा हृदय नहीं देखा है, और तुम्हारा हृदय प्राप्त नहीं किया है। कहने का तात्पर्य है कि उसने ऐसी शुद्ध हृदयता नहीं देखी है जैसी तब देखी थी जब अब्राहम अपने ही हाथ से अपने पुत्र को मारने के लिए और परमेश्वर को भेंट चढ़ाने के लिए छुरी उठा पाया था। उसने तुम्हारी बेशर्त आज्ञाकारिता नहीं देखी है, और उसे तुम्हारे द्वारा आराम नहीं पहुँचाया गया है। ऐसे में, यह स्वाभाविक है कि परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता रहे। क्या यह सच नहीं है? जहाँ तक इस विषय की बात है, इसे हम यहीं छोड़ देंगे। इसके बाद, हम “अब्राहम के लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा” पढ़ेंगे।

3. अब्राहम को परमेश्वर की प्रतिज्ञा

उत्पत्ति 22:16-18 यहोवा की यह वाणी है, कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन् अपने एकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्‍चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्‍चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।

यह परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को दिए गए आशीष का पूर्ण विवरण है। छोटा होते हुए भी इसकी विषयवस्तु समृद्ध है : इसमें अब्राहम को मिले परमेश्वर के उपहार का कारण और उसकी पृष्ठभूमि शामिल है, और साथ ही वह भी जो उसने अब्राहम को दिया था। यह उस आनंद और उत्साह से ओतप्रोत है जिसके साथ परमेश्वर ने ये वचन कहे, और साथ ही साथ उसके वचनों को ध्यानपूर्वक सुन पाने वालों को शीघ्र से शीघ्र प्राप्त करने की उसकी तीव्र लालसा भी इसमें है। परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन और उसकी आज्ञाओं का अनुसरण करने वालों के प्रति परमेश्वर का दुलार, और उसकी दयालुता भी हम इसमें देखते हैं। इसी तरह, हम यह भी देखते हैं कि लोगों को प्राप्त करने के लिए वह क्या क़ीमत चुकाता है, और उन्हें प्राप्त करने के लिए कितनी परवाह और सोच-विचार करता है। यही नहीं, यह अंश, जिसमें “मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ” वचन हैं, हमें उसकी प्रबंधन योजना के इस कार्य के परदे के पीछे, केवल और केवल परमेश्वर द्वारा सही गई कटुता और पीड़ा की शक्तिशाली समझ प्रदान करता है। यह विचारोत्तेजक अंश है, और ऐसा अंश जिसका बाद में आने वालों के लिए विशेष महत्व था, और इसने उन पर दूरगामी प्रभाव डाला था।

मनुष्य अपनी ईमानदारी और आज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर के आशीष प्राप्त करता है

क्या परमेश्वर द्वारा अब्राहम को दिया गया आशीष, जिसके बारे में हम यहाँ पढ़ते हैं, महान था? यह आखिर कितना महान था? यहाँ एक मुख्य वाक्य है : “और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी।” यह वाक्य दिखाता है कि अब्राहम को प्राप्त आशीष पहले या बाद में आने वालों में से किसी को भी नहीं दिए गए थे। परमेश्वर के द्वारा माँगे जाने पर, जब अब्राहम ने अपना इकलौता पुत्र—अपना प्रिय इकलौता पुत्र—परमेश्वर को लौटा दिया (यहाँ हम “भेंट चढ़ा दिया” शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते; हमें कहना चाहिए कि उसने अपना पुत्र परमेश्वर को लौटा दिया), तब परमेश्वर ने न केवल अब्राहम को इसहाक को भेंट नहीं चढ़ाने दिया, बल्कि उसने उसे आशीष भी दी। उसने अब्राहम को किस प्रतिज्ञा से आशीष दी? उसने उसके वंश को कई गुना बढ़ाने की प्रतिज्ञा से आशीष दी। और उन्हें कितने गुना बढ़ाया जाना था? पवित्र शास्त्र में निम्न वर्णन दिया गया है : “आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी।” वह क्या संदर्भ था जिसमें परमेश्वर ने ये वचन कहे? कहने का तात्पर्य है कि अब्राहम ने परमेश्वर के आशीष कैसे प्राप्त किए थे? उसने उन्हें ठीक वैसे ही प्राप्त किया जैसा परमेश्वर पवित्र शास्त्र में कहता है : “क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।” अर्थात्, चूँकि अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया था, क्योंकि उसने, ज़रा-सी भी शिकायत के बिना, वह सब कुछ किया जो परमेश्वर ने कहा, माँगा और आदेश दिया था, इसलिए परमेश्वर ने उससे ऐसी प्रतिज्ञा की। इस प्रतिज्ञा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण वाक्य है जो उस समय परमेश्वर के विचारों का थोड़ा-सा उल्लेख करता है। क्या तुम लोगों ने यह देखा है? हो सकता है तुम लोगों ने परमेश्वर के इन वचनों पर कि “मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ” ज़्यादा ध्यान न दिया हो। उनका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर ने ये वचन कहे, तब वह अपनी ही सौगंध खा रहा था। जब लोग शपथ लेते हैं तब वे किसकी सौगंध खाते हैं? वे स्वर्ग की सौगंध खाते हैं, कहने का अभिप्राय यह, वे परमेश्वर की शपथ लेते हैं और परमेश्वर की सौगंध खाते हैं। हो सकता है लोगों को उस परिघटना की ज़्यादा समझ न हो जिसमें परमेश्वर ने स्वयं अपनी शपथ ली थी, परंतु जब मैं तुम लोगों को सही व्याख्या प्रदान करूँगा तब तुम लोग समझ पाओगे। ऐसे मनुष्य से सामना होने पर, जो केवल उसके वचनों को सुन सकता था किंतु उसके हृदय को नहीं समझ सकता था, परमेश्वर ने एक बार फिर एकाकी और खोया हुआ महसूस किया। हताशा में—और, कहा जा सकता है, अवचेतनता में—परमेश्वर ने कुछ बहुत ही स्वाभाविक किया : अब्राहम से यह प्रतिज्ञा करते समय परमेश्वर ने अपना हाथ अपने हृदय पर रखा और स्वयं को संबोधित किया, और इससे मनुष्य ने परमेश्वर को कहते सुना “मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ।” परमेश्वर के क्रियाकलापों के माध्यम से, तुम शायद स्वयं अपने बारे में सोचो। जब तुम अपना हाथ अपने हृदय पर रखते हो और अपने आप से कहते हो, तो क्या तुम्हें स्पष्ट पता होता है कि तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम्हारा मनोभाव सच्चा है? क्या तुम अपने हृदय से खुलकर बात करते हो? इस प्रकार, हम यहाँ देखते हैं कि जब परमेश्वर ने अब्राहम से बात की, तो वह सच्चा और शुद्ध हृदय था। अब्राहम से बात करते और उसे आशीष देते समय, परमेश्वर साथ ही साथ स्वयं से भी बोल रहा था। वह स्वयं से कह रहा था : मैं अब्राहम को धन्य करूँगा, और उसकी संतति को आकाश के तारों के समान अनगिनत और समुद्र तट पर रेत के समान प्रचुर कर दूँगा, क्योंकि उसने मेरे वचनों का पालन किया है और वह वही है जिसे मैंने चुना है। जब परमेश्वर ने कहा “मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ,” तब परमेश्वर ने संकल्प किया कि वह अब्राहम में इस्राएल के चुने हुए लोगों को उत्पन्न करेगा, जिसके बाद वह इन लोगों को अपने कार्य के साथ तेज़ गति से आगे ले जाएगा। अर्थात्, परमेश्वर अब्राहम के वंशजों से परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य धारण करवाएगा, और परमेश्वर का कार्य और वह जो परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किया गया है अब्राहम के साथ आरंभ होगा और अब्राहम के वंशजों में आगे बढ़ेगा, इस प्रकार मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की इच्छा साकार होगी। क्या कहते हो तुम लोग, क्या यह धन्य चीज़ नहीं है? मनुष्य के लिए, इससे बड़ा कोई आशीष नहीं है; कहा जा सकता है कि यह सर्वाधिक धन्य चीज़ है। अब्राहम के द्वारा प्राप्त आशीष उसकी संतान का कई गुना बढ़ना नहीं था, बल्कि अब्राहम के वंशजों में परमेश्वर द्वारा अपने प्रबंधन, अपने आदेश, और अपने कार्य की प्राप्ति थी। इसका अर्थ है कि अब्राहम द्वारा प्राप्त आशीष अस्थायी नहीं थे, बल्कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना की प्रगति के साथ आगे बढ़ते गए। जब परमेश्वर बोला, जब परमेश्वर ने अपनी ही शपथ खाई, तब वह पहले ही एक संकल्प कर चुका था। क्या इस संकल्प की प्रक्रिया सच्ची थी? क्या यह वास्तविक थी? परमेश्वर ने संकल्प किया कि उससे आगे के समय से, उसके प्रयास, वह क़ीमत जो उसने चुकाई, उसका स्वरूप, उसका सब कुछ, और यहाँ तक कि उसका जीवन भी, अब्राहम को और अब्राहम के वंशजों को दिया जाएगा। इस तरह परमेश्वर ने यह भी संकल्प किया कि लोगों के इस समूह से आरंभ करते हुए, वह अपने कर्मों को प्रत्यक्ष करेगा, और मनुष्य को अपनी बुद्धि, अधिकार और सामर्थ्य देखने देगा।

जो परमेश्वर को जानते हैं और उसकी गवाही दे पाते हैं उन्हें प्राप्त करना परमेश्वर की अपरिवर्ती इच्छा है

परमेश्वर जब स्वयं से बात कर रहा था, उसी समय उसने अब्राहम से भी बात की, परंतु परमेश्वर ने उसे जो आशीष दिए उन्हें सुनने के अलावा, क्या अब्राहम उस पल परमेश्वर के सभी वचनों में निहित उसकी सच्ची अभिलाषाओं को समझ पाया था? वह नहीं समझ पाया था! और इसलिए, उस पल, जब परमेश्वर ने अपनी ही शपथ खाई, तब भी परमेश्वर का हृदय एकाकी और दुःखी था। अभी भी एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जो यह समझ या बूझ पाता कि उसका अभीष्ट और उसकी योजना क्या थी। उस क्षण, कोई भी व्यक्ति—अब्राहम सहित—विश्वासपूर्वक परमेश्वर से बात नहीं कर पाता था, उसे जो कार्य करना ही था उसमें उसके साथ सहयोग तो और भी कोई नहीं कर पाता था। सतह पर, परमेश्वर ने अब्राहम को प्राप्त कर लिया था, एक ऐसे व्यक्ति को जो उसके वचनों का पालन कर सकता था। परंतु वास्तव में, परमेश्वर के बारे में इस व्यक्ति का ज्ञान मुश्किल से ही शून्य से अधिक था। परमेश्वर ने अब्राहम को भले ही धन्य कर दिया था, किंतु परमेश्वर का हृदय अब भी संतुष्ट नहीं था। इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर संतुष्ट नहीं था? इसका अर्थ है कि उसका प्रबंधन अभी बस आरंभ ही हुआ था, इसका अर्थ है कि वे लोग जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता था, लोग जिन्हें वह देखने को लालायित था, लोग जिनसे वह प्रेम करता था, वे लोग अभी भी उससे दूर थे; उसे समय की आवश्यकता थी, उसे प्रतीक्षा करने की आवश्यकता थी, और उसे धैर्यवान होने की आवश्यकता थी। क्योंकि उस समय, स्वयं परमेश्वर के अलावा, कोई नहीं था जो जानता हो कि उसे क्या चाहिए था, या वह क्या प्राप्त करना चाहता था, या वह किसके लिए लालायित था। इसलिए, अत्यधिक उत्साहित महसूस करने के साथ-साथ, परमेश्वर ने हृदय में भारी बोझ भी महसूस किया। फिर भी उसने अपने क़दम नहीं रोके, और उसे जो करना ही था उसके अगले चरण की योजना बनाना उसने जारी रखा।

अब्राहम से की गई परमेश्वर की प्रतिज्ञा में तुम लोग क्या देखते हो? परमेश्वर ने अब्राहम को महान आशीष सिर्फ इसलिए प्रदान किए क्योंकि उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया था। यद्यपि, ऊपर से, यह सामान्य और अपेक्षित प्रतीत होता है, फिर भी इसमें हम परमेश्वर का हृदय देखते हैं : परमेश्वर अपने प्रति मनुष्य की आज्ञाकारिता को विशेष रूप से सहेजकर रखता है, और अपने बारे में मनुष्य की समझ और अपने प्रति मनुष्य की शुद्ध हृदयता उसे अच्छी लगती है। यह शुद्ध हृदयता परमेश्वर को कितनी अच्छी लगती है? तुम लोग शायद समझ न सको कि उसे यह कितनी अच्छी लगती है, और शायद ऐसा कोई भी न हो जिसे इसका अहसास हो। परमेश्वर ने अब्राहम को पुत्र दिया, और जब वह पुत्र बड़ा हो गया, तो परमेश्वर ने अब्राहम से अपना पुत्र परमेश्वर को भेंट चढ़ाने के लिए कहा। अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया, उसने परमेश्वर के वचन का पालन किया, और उसकी शुद्ध हृदयता ने परमेश्वर को द्रवित कर दिया और परमेश्वर ने उसे सहेजकर रखा। परमेश्वर ने इसे कितना सहेजकर रखा? और उसने इसे क्यों सहेजकर रखा? ऐसे समय जब किसी ने भी परमेश्वर के वचनों को बूझा या उसके हृदय को समझा नहीं था, अब्राहम ने कुछ ऐसा किया जिसने स्वर्ग को हिला दिया और पृथ्वी को कँपा दिया, तथा इसने परमेश्वर को अभूतपूर्व संतुष्टि का भाव महसूस कराया, और यह परमेश्वर के लिए ऐसे व्यक्ति को प्राप्त करने का आनंद लाया जो उसके वचनों का पालन करने में समर्थ था। यह संतुष्टि और आनंद परमेश्वर द्वारा अपने हाथ से सृजित किए गए प्राणी से आया, और जब से मनुष्य का सृजन किया गया था, तब से यह पहला “बलिदान” था जिसे मनुष्य ने परमेश्वर को चढ़ाया था और जिसे परमेश्वर ने सर्वाधिक सहेजकर रखा था। इस बलिदान की प्रतीक्षा करते हुए परमेश्वर ने बहुत कठिन समय गुज़ारा था, और उसने इसे उस मनुष्य की ओर से दिए गए पहले सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपहार के रूप में लिया जिसे उसने सृजित किया था। इसने परमेश्वर को उसके प्रयासों और उसकी चुकाई क़ीमत का पहला फल दिखाया, और उसे मनुष्यजाति में आशा देखने की गुंजाइश दी। इसके बाद, परमेश्वर को ऐसे लोगों के समूह की और अधिक लालसा हुई जो उसका साथ दें, उसके साथ शुद्ध हृदयता से व्यवहार करें, और शुद्ध हृदयता के साथ उसकी परवाह करें। परमेश्वर ने यह तक आशा की कि अब्राहम निरंतर जीवित रहेगा, क्योंकि वह चाहता था कि जब वह अपने प्रबंधन को आगे बढ़ाए तब अब्राहम जैसा एक हृदय उसका साथ दे और उसके साथ रहे। परमेश्वर चाहे जो भी चाहता था, यह मात्र एक इच्छा, मात्र एक विचार था—क्योंकि अब्राहम मात्र एक मनुष्य था जो उसका आज्ञापालन करने में समर्थ था और उसे परमेश्वर की थोड़ी-सी भी समझ या ज्ञान नहीं था। अब्राहम ऐसा व्यक्ति था जो मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों से बहुत कम पड़ता था, जो ये हैं : परमेश्वर को जानना, परमेश्वर की गवाही दे पाना, और परमेश्वर के साथ एक मन होना। इसलिए, अब्राहम परमेश्वर के साथ नहीं चल सकता था। अब्राहम द्वारा इसहाक की भेंट चढ़ाने में, परमेश्वर ने अब्राहम की शुद्ध हृदयता और आज्ञाकारिता देखी, और देखा कि उसने परमेश्वर द्वारा ली गई अपनी परीक्षा का सामना किया था। परमेश्वर ने उसकी आज्ञाकारिता और शुद्ध हृदयता को भले ही स्वीकार कर लिया था, किंतु वह अब भी परमेश्वर का विश्वासपात्र बनने, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर को जानता और समझता हो, और ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के स्वभाव के बारे में जानकार हो बनने के अयोग्य था; वह परमेश्वर के साथ एक मन होने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से बहुत दूर था। इसलिए, परमेश्वर अपने हृदय में अब भी एकाकी और उद्विग्न था। परमेश्वर जितना अधिक एकाकी और उद्विग्न होता गया, उतना ही अधिक उसे अपने प्रबंधन को यथाशीघ्र आगे बढ़ाने की, और अपनी प्रबंधन योजना संपन्न करने और अपनी इच्छा पूरी करने के लिए यथाशीघ्र लोगों का एक समूह चुनने और प्राप्त करने की आवश्यकता थी। यह परमेश्वर की उत्कट अभिलाषा थी, और यह बिल्कुल आरंभ से लेकर आज तक अपरिवर्ती बनी रही है। आरंभ में जब से उसने मनुष्य का सृजन किया, तभी से परमेश्वर विजय पाने वालों के एक समूह के लिए तरसा है, ऐसा समूह जो उसके साथ चलेगा और जो उसका स्वभाव समझने, जानने और बूझने में समर्थ होगा। परमेश्वर की यह इच्छा कभी नहीं बदली है। उसे अब भी चाहे जितना लंबा इंतज़ार करना पड़े, आगे का रास्ता चाहे जितना कठिन हो, जिन उद्देश्यों के लिए वह तरसा है वे चाहे जितने दूर हों, परमेश्वर ने मनुष्य के प्रति अपनी अपेक्षाओं को कभी बदला या त्यागा नहीं है। अब जब मैंने यह कहा है, तो क्या तुम लोगों को परमेश्वर की इच्छा का कुछ अहसास हुआ है? तुम्हें जो अहसास हुआ है, शायद वह बहुत गहरा नहीं है—किंतु धीरे-धीरे यह आएगा!

अब्राहम जब जिया उसी अवधि के दौरान, परमेश्वर ने एक शहर को भी नष्ट किया। यह शहर सदोम कहलाता था। निस्संदेह, बहुत से लोग सदोम की कहानी से परिचित हैं, किंतु कोई भी परमेश्वर के उन विचारों से अवगत नहीं है जिन्होंने उसके द्वारा इस नगर के विनाश की पृष्ठभूमि तैयार की थी।

तो आज, अब्राहम के साथ परमेश्वर के यहाँ नीचे दिए गए आदान-प्रदानों के माध्यम से, हम उस समय के उसके विचार जानेंगे, साथ ही उसके स्वभाव के बारे में भी जानेंगे। इसके बाद, आओ हम पवित्र शास्त्र के नीचे लिखे अंश पढ़ें।

ख. परमेश्वर को सदोम का विनाश करना ही होगा

उत्पत्ति 18:26 यहोवा ने कहा, “यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।”

उत्पत्ति 18:29 फिर उसने उससे यह भी कहा, “कदाचित् वहाँ चालीस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं ऐसा न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:30 फिर उसने कहा, “कदाचित् वहाँ तीस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं ऐसा न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:31 फिर उसने कहा, “कदाचित् उसमें बीस मिलें।” उसने कहा, “मैं उसका नाश न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:32 फिर उसने कहा, “कदाचित् उसमें दस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं उसका नाश न करूँगा।”

ये कुछ उद्धरण हैं जो मैंने बाइबल से चुने हैं। वे पूर्ण, मूल संस्करण नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहो, तो तुम लोग स्वयं उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु का हिस्सा हटा दिया है। यहाँ मैंने कई मुख्य अंश और वाक्य भर चुने हैं, ऐसे कई वाक्य छोड़ दिए हैं जिनका हमारी आज की संगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हम जिन अंशों और विषय-वस्तु के बारे में संगति करते हैं, उन सभी में हम कहानियों और कहानियों में मनुष्य के आचरण के विवरण अपने ध्यान से हटा देते हैं; इसके बजाए, उस समय परमेश्वर के जो विचार और मत थे, हम केवल उनके बारे में बात करते हैं। परमेश्वर के विचारों और मतों में, हम परमेश्वर का स्वभाव देखेंगे, और परमेश्वर जो करता था उस सबसे, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—इसमें हम अपना उद्देश्य प्राप्त करेंगे।

परमेश्वर केवल उनकी परवाह करता है जो उसके वचनों का पालन और उसकी आज्ञाओं का अनुसरण कर पाते हैं

ऊपर दिए गए अंशों में अनेक मुख्य शब्द समाविष्ट हैं : संख्याएँ। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर के भीतर पचास धार्मिक मिल गए, तो वह उस समस्त स्थान को छोड़ देगा, अर्थात्, वह नगर को नष्ट नहीं करेगा। तो क्या वहाँ, सदोम के भीतर, वास्तव में पचास धार्मिक थे? नहीं थे। इसके तुरंत बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित वहाँ चालीस मिले तो? और परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। इसके बाद, अब्राहम ने कहा, कदाचित वहाँ तीस मिले तो? परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। यदि वहाँ बीस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। दस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। क्या वहाँ नगर के भीतर, वास्तव में, दस धार्मिक थे? वहाँ दस भी नहीं थे—बल्कि एक ही था। और यह एक कौन था? यह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धार्मिक व्यक्ति था, परंतु जब बात इस संख्या की आई तो क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक ठीक इतने की ही माँग कर रहा था? नहीं, वह नहीं था। और इसलिए, जब मनुष्य पूछता रहा, “चालीस हों तो क्या?” “तीस हों तो क्या?” जब तक वह “दस हों तो क्या?” पर नहीं पहुँच गया, तब परमेश्वर ने कहा, “यदि वहाँ मात्र दस भी हुए तो मैं नगर को नष्ट नहीं करूँगा; मैं उसे छोड़ दूँगा, और इन दस के अलावा अन्य लोगों को भी माफ़ कर दूँगा”। यदि मात्र दस भी होते, तो यह भी काफी दयनीय रहा होता, परंतु पता यह चला कि, सदोम में, वास्तव में, उतनी संख्या में भी धार्मिक लोग नहीं थे। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप और दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उन्हें नष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। परमेश्वर ने जब कहा कि यदि पचास धार्मिक हुए तो वह नगर को नष्ट नहीं करेगा तब उसका क्या अभिप्राय था? परमेश्वर के लिए ये संख्याएँ महत्वपूर्ण नहीं थीं। महत्वपूर्ण यह था कि नगर में ऐसे धार्मिक थे या नहीं जैसे वह चाहता था। यदि नगर में मात्र एक धार्मिक व्यक्ति होता, तो परमेश्वर नगर के अपने विनाश के कारण उन्हें हानि नहीं पहुँचने देता। इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर चाहे उस नगर को नष्ट करने जा रहा था या नहीं, और उसके भीतर चाहे जितने धार्मिक थे, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित और घृणित था, और इसे नष्ट कर दिया जाना चाहिए था, इसे परमेश्वर की आँखों से ओझल हो जाना चाहिए था, जबकि धार्मिकों को बने रहना चाहिए था। युग चाहे जो भी हो, मनुष्यजाति के विकास की अवस्था चाहे जो हो, परमेश्वर की प्रवृत्ति नहीं बदलती है : वह बुराई से घृणा करता है, और उसकी नज़रों में जो धार्मिक हैं उनकी परवाह करता है। परमेश्वर की यह सुस्पष्ट प्रवृत्ति परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन भी है। चूँकि नगर के भीतर मात्र एक धार्मिक व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर अब और नहीं हिचकिचाया। अंतिम परिणाम यह था कि सदोम को अनिवार्यतः नष्ट कर दिया जाता। तुम लोग इसमें क्या देखते हो? उस युग में, यदि एक नगर में पचास धार्मिक होते तो परमेश्वर उसे नष्ट नहीं करता, यदि दस होते तब भी नहीं करता, जिसका अर्थ है कि कुछेक लोगों के कारण जो उसके प्रति श्रद्धा रख पाते और उसकी आराधना कर पाते हैं, परमेश्वर मनुष्यजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहिष्णु होने का निर्णय लेता, या मार्गदर्शन का कार्य करता। परमेश्वर मनुष्य के धार्मिक कर्मों में बड़ा विश्वास करता है, वह उन लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना कर पाते हैं, और वह उन लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके समक्ष अच्छे कर्म कर पाते हैं।

प्राचीनतम काल से लेकर आज तक, क्या तुम लोगों ने बाइबल में कभी भी किसी भी व्यक्ति से सत्य का संवाद करते, या परमेश्वर के मार्ग के बारे में बात करते परमेश्वर के बारे में पढ़ा है? नहीं, कभी नहीं। मनुष्य के लिए परमेश्वर के जिन वचनों के बारे में हम पढ़ते हैं, उन्होंने लोगों को केवल यह बताया कि क्या करना है। कुछ लोगों ने उसे किया, कुछ ने नहीं किया; कुछ ने विश्वास किया, और कुछ ने नहीं किया। बस कुल इतना ही था। इस प्रकार, उस युग के धार्मिक लोग—वे जो परमेश्वर की नज़रों में धार्मिक थे—मात्र वे लोग थे जो परमेश्वर के वचन सुन सकते थे और परमेश्वर की आज्ञाओं का अनुसरण कर सकते थे। वे सेवक थे जिन्होंने मनुष्यों के बीच परमेश्वर के वचन को कार्यान्वित किया था। क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर को जानने वाला कहा जा सकता था? क्या उन्हें ऐसे लोग कहा जा सकता था जिन्हें परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किया गया था? नहीं, उन्हें नहीं कहा जा सकता था। इसलिए, उनकी संख्या चाहे जितनी हो, परमेश्वर की नज़रों में ये धार्मिक लोग क्या परमेश्वर के विश्वासपात्र कहलाने योग्य थे? क्या उन्हें परमेश्वर के गवाह कहा जा सकता था? निश्चित रूप से नहीं! वे परमेश्वर के विश्वासपात्र और गवाह कहलाने के योग्य निश्चित रूप से नहीं थे। तो परमेश्वर ने ऐसे लोगों को क्या कहकर पुकारा? बाइबल के पुराने नियम में परमेश्वर द्वारा उन्हें “मेरा सेवक” कहकर पुकारने के कई दृष्टांत हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय, परमेश्वर की नज़रों में ये धार्मिक लोग परमेश्वर के सेवक थे, ये वे लोग थे जो पृथ्वी पर उसकी सेवा करते थे। और परमेश्वर ने इस विशिष्ट पदवी के बारे में कैसे सोचा? उसने उन्हें ऐसे क्यों पुकारा? परमेश्वर लोगों को जिन विशिष्ट पदवियों से पुकारता है, उनके लिए क्या उसके पास अपने हृदय में कोई मानक हैं? उसके पास निश्चित रूप से हैं। वह लोगों को चाहे धार्मिक, पूर्ण, सच्चा, या सेवक कहे, परमेश्वर के पास मानक हैं। जब वह किसी को अपना सेवक कहकर पुकारता है, तब उसे दृढ़ विश्वास होता है कि यह व्यक्ति उसके संदेशवाहकों की अगवानी करने में समर्थ है, उसके आदेशों का पालन करने में समर्थ है, और उसे कार्यान्वित करने में समर्थ है जिसका आदेश संदेशवाहकों द्वारा दिया जाता है। यह व्यक्ति क्या कार्यान्वित करता है? वे वह कार्यान्वित करते हैं जो परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य को करने और कार्यान्वित करने का आदेश देता है। उस समय, परमेश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर जो करने और कार्यान्वित करने के लिए कहा, क्या उसे परमेश्वर का मार्ग कहा जा सकता था? नहीं, इसे नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि उस समय, परमेश्वर ने उस मनुष्य से केवल कुछ सीधी-सरल चीज़ें करने के लिए कहा; उसने मनुष्य को यह या वह करने के लिए कहते हुए, कुछेक सीधे-सरल आदेश बोले, और इससे ज़्यादा कुछ नहीं। परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा था। चूँकि उस समय, बहुत-सी परिस्थितियाँ अभी विद्यमान नहीं थीं, समय अभी परिपक्व नहीं था, और मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर के मार्ग को धारण कर पाना कठिन था, इसलिए परमेश्वर के मार्ग को परमेश्वर के हृदय से बाहर निकलना अभी आरंभ करना था। परमेश्वर ने उन धार्मिक लोगों को देखा जिनके बारे में उसने बात की थी, जिन्हें हम यहाँ—चाहे तीस हों या बीस—उसके सेवकों के रूप में देखते हैं। जब परमेश्वर के संदेशवाहक इन सेवकों को अचानक मिल गए, तब वे उनकी अगवानी कर पाए, और उनके आदेशों का पालन कर पाए, और उनके वचनों के अनुसार कार्य कर पाए। यह ठीक वही था जिसे उनके द्वारा जो परमेश्वर की नज़रों में सेवक थे किया और प्राप्त किया जाना चाहिए था। लोगों को अपनी पदवियाँ देने में परमेश्वर न्यायसंगत है। उसने उन्हें अपना सेवक कहकर पुकारा तो इसलिए नहीं क्योंकि वे वैसे थे जैसे अब तुम लोग हो—क्योंकि उन्होंने काफी उपदेश सुने थे, जानते थे कि परमेश्वर को क्या करना था, परमेश्वर की बहुत-कुछ इच्छा समझते थे, और उसकी प्रबंधन योजना को बूझते थे—बल्कि इसलिए कि वे अपनी मानवता में ईमानदार थे और वे परमेश्वर के वचनों का अनुपालन करने में समर्थ थे; जब परमेश्वर ने उन्हें आदेश दिया, तब वे जो कर रहे थे उसे एक तरफ़ रखने और परमेश्वर ने जो आदेश दिया था उसे कार्यान्वित करने में समर्थ थे। तो, परमेश्वर के लिए, सेवक की उपाधि में अर्थ की दूसरी परत यह है कि उन्होंने पृथ्वी पर उसके कार्य के साथ सहयोग किया, और यद्यपि वे परमेश्वर के संदेशवाहक नहीं थे, फिर भी वे पृथ्वी पर परमेश्वर के वचनों के निर्वाहक और क्रियान्वयक थे। तो, तुम देखो कि ये सेवक या धार्मिक लोग परमेश्वर के हृदय में बहुत महत्व रखते थे। परमेश्वर को पृथ्वी पर जिस कार्य की शुरुआत करनी थी, वह उसके साथ लोगों के सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता था, और परमेश्वर के सेवकों ने जो भूमिका अपने ऊपर ली थी, उसमें उनका स्थान परमेश्वर के संदेशवाहकों द्वारा ले पाना असंभव था। प्रत्येक कार्य जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने इन सेवकों को दी थी उसके लिए अत्यधिक महत्व का था, और इसलिए वह उन्हें गँवा नहीं सकता था। परमेश्वर के साथ इन सेवकों के सहयोग के बिना, मनुष्यजाति के बीच उसका कार्य ठप पड़ गया होता, जिसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर की आशाएँ चूर-चूर हो गई होतीं।

परमेश्वर जिनकी परवाह करता है उनके प्रति अत्यधिक दयावान, और जिनसे घृणा करता और ठुकराता है उनके प्रति प्रचंड कोपपूर्ण होता है

बाइबल के वर्णनों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, नहीं थे! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा छोड़ दिए जाने योग्य था? नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों की अगवानी की थी। इसका निहितार्थ यह है कि उस नगर में परमेश्वर का केवल एक ही सेवक था, और इसलिए परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम नगर को नष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अब्राहम और परमेश्वर के बीच ऊपर उद्धृत संवाद सीधे-सादे लग सकते हैं, किंतु वे कुछ बहुत गहरी बात का चित्रण करते हैं : परमेश्वर के कार्यकलापों के अपने सिद्धांत हैं, और निर्णय लेने से पहले वह अवलोकन और सोच-विचार करते हुए लंबा समय बिताएगा; वह निश्चित रूप से सही समय आने से पहले कोई निर्णय नहीं लेगा या हड़बड़ी में किन्हीं निष्कर्षों पर नहीं पहुँचेगा। अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवाद हमें दिखाते हैं कि सदोम को नष्ट करने का परमेश्वर का निर्णय रत्ती भर भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से जानता था कि उस नगर में चालीस धार्मिक नहीं थे, न तीस धार्मिक थे, न ही बीस थे। दस भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धार्मिक व्यक्ति लूत था। परमेश्वर ने सदोम में जो हुआ उस सबका और उसकी परिस्थितियों का अवलोकन किया था, और वे परमेश्वर की उतनी ही जानी-पहचानी थीं जितनी उसके अपने हाथ की हथेली जानी-पहचानी थी। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की तुलना में, मनुष्य इतना अधिक संवेदनशून्य, इतना अधिक नासमझ और अज्ञानी, और इतना अधिक अदूरदर्शी है। यह वही बात है जो हम अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरंभ से लेकर आज तक अपना स्वभाव प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार, यहाँ भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें देखना चाहिए। संख्याएँ तो सीधी-सरल होती हैं—वे कुछ प्रदर्शित नहीं करतीं—किंतु यहाँ परमेश्वर के स्वभाव की एक अत्यंत महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। परमेश्वर पचास धार्मिकों की वजह से नगर को नष्ट नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की अनुकंपा के कारण है? क्या यह उसके प्रेम और सहिष्णुता के कारण है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव का यह पहलू देखा है? यदि वहाँ मात्र दस धार्मिक भी होते, इन दस धार्मिक लोगों के कारण, परमेश्वर ने नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहिष्णुता और प्रेम है या नहीं है? उन धार्मिक लोगों के प्रति परमेश्वर की अनुकंपा, सहिष्णुता और सरोकार के कारण, उसने वह नगर नष्ट नहीं किया होता। यही परमेश्वर की सहिष्णुता है। और अंत में, क्या परिणाम हम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, “कदाचित् उसमें दस मिलें,” तब परमेश्वर ने कहा, “मैं उसका नाश न करूँगा।” उसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धार्मिक नहीं थे जिनका उसने उल्लेख किया था, और उसके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, और उस समय उसने समझा कि परमेश्वर ने सदोम को नष्ट करने का संकल्प क्यों किया था। इसमें, तुम लोग परमेश्वर का क्या स्वभाव देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का संकल्प किया था? परमेश्वर ने संकल्प किया था कि यदि इस नगर में दस धार्मिक नहीं हुए, तो वह इसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देगा, और अनिवार्यतः उसे नष्ट कर देगा। क्या यह परमेश्वर का कोप नहीं है? क्या यह कोप परमेश्वर का स्वभाव निरूपित करता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर के पवित्र सार का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धार्मिक सार का प्रकाशन है, जिसका मनुष्य को उल्लंघन नहीं ही करना चाहिए? पुष्टि हो जाने के बाद कि सदोम में दस धार्मिक नहीं थे, यह निश्चित था कि परमेश्वर नगर को नष्ट करेगा, और उस नगर के भीतर रह रहे लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि वे परमेश्वर का विरोध करते थे, और क्योंकि वे बहुत ही गंदे और भ्रष्ट थे।

हमने इन अंशों का इस तरह विश्लेषण क्यों किया है? इसलिए कि ये कुछ सीधे-सादे वाक्य परमेश्वर के अतिशय दयावान और प्रचंड कोपपूर्ण स्वभाव को पूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं। धार्मिकों को सँजोने, और उन पर अनुकंपा करने, उन्हें सहने, और उनकी देखभाल करने के साथ ही साथ, परमेश्वर के हृदय में सदोम के उन सभी लोगों के लिए प्रगाढ़ घृणा थी जो भ्रष्ट कर दिए गए थे। यह अतिशय दया और गहरा कोप था, या नहीं था? परमेश्वर ने किन साधनों से नगर को नष्ट किया? आग से। और उसने आग से उसे नष्ट क्यों किया? जब तुम किसी चीज़ को आग से जलाए जाते देखते हो, या जब तुम किसी चीज़ को बस जलाने ही वाले होते हो, तब उसके प्रति तुम्हारी भावनाएँ क्या होती हैं? तुम इसे क्यों जलाना चाहते हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसकी अब और आवश्यकता नहीं रही, कि तुम इसे अब और देखना नहीं चाहते हो? क्या तुम इसे तज देना चाहते हो? परमेश्वर के द्वारा आग के उपयोग का अर्थ है तज देना, और घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यही वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग का उपयोग करके सदोम को मटियामेट करवाया। आग का उपयोग दर्शाता है कि परमेश्वर कितना अधिक क्रोधित था। परमेश्वर की अनुकंपा और सहिष्णुता तो सचमुच हैं ही, किंतु जब वह अपने कोप का बाँध खोलता है तब परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलू भी दिखाती है जो अपमान सहन नहीं करता। जब मनुष्य परमेश्वर के आदेशों का पालन करने में पूर्णतः सक्षम होता है, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तब मनुष्य के प्रति परमेश्वर अपनी अनुकंपा से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, उसके प्रति घृणा और शत्रुता से भर जाता है, तब परमेश्वर अत्यधिक क्रोधित होता है। किस सीमा तक वह अत्यधिक क्रोधित होता है? उसका कोप तब तक बना रहेगा जब तक उसे मनुष्य का प्रतिरोध और दुष्ट कर्म दिखने बंद नहीं होते, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने अब और नहीं होते हैं। तब कहीं जाकर परमेश्वर का क्रोध ग़ायब होगा। दूसरे शब्दों में, चाहे जो व्यक्ति हो, यदि उसका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है और परमेश्वर से विमुख हो गया है, कभी न लौटने के लिए, तब फिर वे अपने शरीर में या अपनी सोच में, सभी प्रकटनों के लिए या अपनी व्यक्तिपरक अभिलाषाओं की दृष्टि से, परमेश्वर की चाहे जितनी आराधना, अनुसरण और आज्ञापालन करना चाहते हों, परमेश्वर के कोप का बाँध टूट जाएगा और रुकेगा नहीं। यह ऐसे होगा कि मनुष्य को प्रचुर अवसर देने के बाद, जब परमेश्वर प्रचंड वेग से अपने कोप का बाँध खोलता है, एक बार जब इसे खोल दिया जाएगा, तब इसे वापस लेने का कोई रास्ता न होगा, और ऐसी मनुष्यजाति के प्रति वह फिर कभी दयावान और सहिष्णु नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पक्ष है जो अपमान सहन नहीं करता है। यहाँ, लोगों को यह सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को इसलिए नष्ट कर देता क्योंकि, परमेश्वर की नज़रों में, पाप से भरा हुआ एक नगर विद्यमान और अनवरत बना नहीं रह सकता था, और यह तर्कसंगत ही था कि इसे परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दिया जाना चाहिए। फिर भी परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद जो घटित हुआ, उसमें हम परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहिष्णु और दयावान है जो कृपालु, सुंदर और भली हैं; जो चीज़ें बुरी, पापमय और दुष्ट हैं, उनके प्रति वह प्रचंड रूप से कोपपूर्ण है, इतना कि उसका कोप रुकता नहीं है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सर्वोपरि और सबसे प्रमुख पहलू हैं, और, इतना ही नहीं, इन्हें परमेश्वर ने आरंभ से लेकर अंत तक प्रकट किया है : प्रचुर दया और प्रचंड कोप। तुम लोगों में से अधिकतर परमेश्वर की दया का कुछ न कुछ अनुभव कर चुके हो, किंतु तुममें से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर का कोप पूर्णतः पहचाना है। परमेश्वर की अनुकंपा और प्रेममय दयालुता प्रत्येक व्यक्ति में देखी जा सकती है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति अतिशय दयावान रहा है। फिर भी परमेश्वर तुम लोगों के बीच किसी व्यक्ति पर या किसी जनसमूह के प्रति अत्यंत दुर्लभ ही—या, कहा जा सकता है, कभी नहीं—प्रचंड रूप से क्रोधित रहा है। इत्मीनान रखो! परमेश्वर का कोप कभी न कभी प्रत्येक व्यक्ति द्वारा देखा और अनुभव किया जाएगा, किंतु अभी वह समय नहीं है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब परमेश्वर किसी से लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह उसके ऊपर अपने प्रचंड कोप का बाँध खोल देता है, तो इसका अर्थ है कि वह उस व्यक्ति से लंबे समय से घृणा करता और उसे ठुकराता आया है, कि वह उसके अस्तित्व से जुगुप्सा करता है, और वह उनके अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता है; ज्यों ही उसका क्रोध उन पर टूटेगा, वे विलुप्त हो जाएँगे। आज, परमेश्वर का कार्य अभी उस बिंदु पर नहीं पहुँचा है। एक बार परमेश्वर प्रचंड रूप से क्रोधित हो जाए तो तुम लोगों में से कोई भी उसे सहन नहीं कर पाएगा। तो, तुम देखो, इस समय परमेश्वर तुम सब लोगों के प्रति अतिशय दयावान है, और तुम लोगों ने अभी उसका प्रचंड क्रोध देखा नहीं है। यदि ऐसे लोग हैं जो मानने को तैयार नहीं हैं, तो तुम उनसे कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप तुम्हारे ऊपर टूटे, ताकि तुम अनुभव कर सको कि परमेश्वर का क्रोध और उसका वह स्वभाव जो मनुष्य से कोई अपमान सहन नहीं करता वास्तव में अस्तित्वमान है या नहीं। करते हो तुम लोग हिम्मत?

अंत के दिनों के लोग परमेश्वर का कोप केवल उसके वचनों में देखते हैं, और सच में अनुभव नहीं करते परमेश्वर का कोप

क्या परमेश्वर के स्वभाव के ये दो पक्ष, जो पवित्र शास्त्र के इन अंशों में दिखाई देते हैं, संगति के योग्य हैं? यह कहानी सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को परमेश्वर की एक नई समझ प्राप्त हुई है? तुम्हारी किस प्रकार की समझ है? कहा जा सकता है कि सृजन के समय से लेकर आज तक, किसी भी समूह ने परमेश्वर के अनुग्रह या दया और प्रेममय दयालुता का उतना आनंद नहीं लिया है जितना इस अंतिम समूह ने लिया है। यद्यपि, अंतिम चरण में, परमेश्वर ने न्याय और ताड़ना का कार्य किया है, और अपना कार्य प्रताप और कोप के साथ किया है, तो भी अधिकांश बार परमेश्वर अपना कार्य संपन्न करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करता है; वह सिखाने और सींचने, भरण-पोषण और भोजन के लिए वचनों का उपयोग करता है। इस बीच, परमेश्वर के कोप को हमेशा छिपाकर रखा गया है, और परमेश्वर के वचनों में उसके कोपपूर्ण स्वभाव का अनुभव करने के अलावा, बहुत ही कम लोगों ने व्यक्तिगत रूप से उसके क्रोध का अनुभव किया है। कहने का तात्पर्य है, न्याय और ताड़ना के परमेश्वर के कार्य के दौरान, यद्यपि परमेश्वर के वचनों में प्रकट किया गया कोप लोगों को परमेश्वर की महिमा और अपमान के प्रति उसकी असहिष्णुता अनुभव करने देता है, फिर भी यह कोप उसके वचनों से आगे नहीं जाता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर मनुष्य को झिड़कने, मनुष्य को उजागर करने, मनुष्य का न्याय करने, मनुष्य को ताड़ना देने, और यहाँ तक कि मनुष्य की निंदा करने के लिए भी वचनों का उपयोग करता है—परंतु परमेश्वर अभी तक मनुष्य के प्रति प्रचंड रूप से क्रोधित नहीं हुआ है, और अपने वचनों के साथ के अलावा उसने अपने कोप का बाँध मनुष्य पर मुश्किल से ही खोला है। इस प्रकार, मनुष्य के द्वारा इस युग में अनुभव की गई परमेश्वर की अनुकंपा और प्रेममय दयालुता परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन है, जबकि मनुष्य के द्वारा अनुभव किया गया परमेश्वर का कोप महज़ उसके कथनों के स्वर और भाव का प्रभाव है। बहुत-से लोग इस प्रभाव को ग़लत ढंग से परमेश्वर के कोप का सच्चा अनुभव करना और सच्चा ज्ञान मान लेते हैं। परिणामस्वरूप, अधिकतर लोग मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों में उसकी अनुकंपा और प्रेममय दयालुता को देखा है, कि उन्होंने मनुष्य द्वारा अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता को भी देखा है, और उनमें से अधिकांश लोग तो मनुष्य के प्रति परमेश्वर की करुणा और सहिष्णुता की सराहना भी करने लगे हैं। परंतु मनुष्य का व्यवहार चाहे जितना बुरा हो, या उसका स्वभाव चाहे जितना भ्रष्ट हो, परमेश्वर ने हमेशा सहन किया है। सहन करने में, उसका उद्देश्य इस बात की प्रतीक्षा करना है कि जो वचन उसने कहे हैं, जो प्रयास उसने किए हैं और जो क़ीमत उसने चुकाई है, वे उन लोगों में जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता है, सफलतापूर्वक निष्कर्ष पर पहुँच सकें। ऐसे एक परिणाम की प्रतीक्षा करने में समय लगता है, और मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न परिवेशों का सृजन करने की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार जैसे लोग जन्म लेते ही वयस्क नहीं हो जाते हैं; इसमें अट्ठारह या उन्नीस वर्ष लग जाते हैं, और कुछ लोगों को तो बीस या तीस वर्ष लग जाते हैं तब कहीं जाकर वे वास्तविक वयस्क के रूप में परिपक्व होते हैं। परमेश्वर इस प्रक्रिया के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करता है, वह ऐसा समय आने की प्रतीक्षा करता है, और वह इस परिणाम के आगमन की प्रतीक्षा करता है। और उस पूरे समय जब वह प्रतीक्षा करता है, परमेश्वर अतिशय रूप से दयावान होता है। हालाँकि, परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान, परमेश्वर के प्रति घोर विरोध के कारण बहुत ही छोटी संख्या में लोगों को मार गिराया जाता है, और कुछ को दण्डित किया जाता है। ऐसे उदाहरण परमेश्वर के उस स्वभाव के और भी अधिक बड़े प्रमाण हैं जो मनुष्य के द्वारा अपमान बर्दाश्त नहीं करता है, और चुने हुए लोगों के प्रति परमेश्वर की सहिष्णुता और सहनशीलता के वास्तविक अस्तित्व की पूर्णतः पुष्टि करते हैं। निस्संदेह, इन विशिष्ट उदाहरणों में, इन लोगों में परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रकाशन परमेश्वर की समग्र प्रबंधन योजना को प्रभावित नहीं करता है। वास्तव में, परमेश्वर के कार्य के इस अंतिम चरण में, परमेश्वर ने प्रतीक्षा करते रहने की अपनी इस संपूर्ण अवधि के दौरान सहन किया है, और उसने अपनी सहनशीलता और अपने जीवन को अपना अनुसरण करने वाले लोगों के उद्धार के साथ अदल-बदल लिया है। क्या तुम लोग यह देखते हो? परमेश्वर अकारण अपनी योजना में उलट-फेर नहीं करता है। वह अपने कोप का बाँध खोल सकता है, और वह दयावान भी हो सकता है; यह परमेश्वर के स्वभाव के दो मुख्य भागों का प्रकाशन है। यह बिल्कुल स्पष्ट है, या नहीं है? दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर की बात आती है, तो सही और ग़लत, न्यायसंगत और अन्यायपूर्ण, सकारात्मक और नकारात्मक—यह सब कुछ मनुष्य को स्पष्ट रूप से दिखाया जाता है। वह क्या करेगा, वह क्या पसंद करता है, वह किससे घृणा करता है—यह सब उसके स्वभाव में सीधे प्रतिबिंबित हो सकता है। ऐसी चीज़ें परमेश्वर के कार्य में भी प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं, और वे धुँधली या सामान्य नहीं हैं; इसके बजाय, वे सभी लोगों को विशेष रूप से मूर्त, सच्चे और व्यावहारिक ढँग से परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप देखने देती हैं। यही स्वयं सच्चा परमेश्वर है।

परमेश्वर का स्वभाव कभी मनुष्य से छिपा नहीं रहा है—मनुष्य का हृदय परमेश्वर से भटक गया है

यदि मैं इन चीज़ों के बारे में संगति नहीं करता, तो तुम लोगों में से कोई भी बाइबल की कहानियों में परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को नहीं देख पाता। यह तथ्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, यद्यपि बाइबल की इन कहानियों ने परमेश्वर द्वारा की गई कुछ चीज़ों को अंकित किया है, किंतु परमेश्वर ने मात्र कुछ वचन कहे थे, और उसने मनुष्य से न तो अपने स्वभाव का सीधे परिचय कराया था या न ही खुलकर अपनी इच्छा सामने रखी थी। बाद की पीढ़ियों ने इन अभिलेखों को कहानियों से अधिक कुछ और नहीं माना है, और इसलिए लोगों को लगता है कि परमेश्वर स्वयं को मनुष्य से छिपाता है, कि यह परमेश्वर का व्यक्तित्व नहीं, बल्कि उसका स्वभाव और इच्छा ही है जो मनुष्य से छिपे हुए हैं। आज की मेरी संगति के बाद, क्या तुम लोगों को अब भी लगता है कि परमेश्वर मनुष्य से पूरी तरह छिपा हुआ है? क्या तुम लोग अब भी मानते हो कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य से छिपा हुआ है?

सृजन के समय से ही, परमेश्वर का स्वभाव उसके कार्य के साथ क़दम से क़दम मिलाता रहा है। यह मनुष्य से कभी भी छिपा हुआ नहीं रहा है, बल्कि मनुष्य के लिए पूरी तरह प्रचारित और स्पष्ट किया गया है। फिर भी, समय बीतने के साथ, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से और भी अधिक दूर हो गया है, और जैसे-जैसे मनुष्य की भ्रष्टता अधिक गहरी होती गई है, वैसे-वैसे मनुष्य और परमेश्वर अधिकाधिक दूर होते गए हैं। धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से, मनुष्य परमेश्वर की नज़रों से ओझल हो गया है। मनुष्य परमेश्वर को “देखने” में असमर्थ हो गया है, जिससे उसके पास परमेश्वर का कोई “समाचार” नहीं रह गया है; इस प्रकार, वह नहीं जानता कि परमेश्वर विद्यमान है या नहीं, और इस हद तक चला जाता है कि परमेश्वर के अस्तित्व को ही पूरी तरह नकार देता है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के स्वभाव, और स्वरूप, के बारे में मनुष्य की अबूझता इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से छिपा हुआ है, बल्कि इसलिए है क्योंकि उसका हदय परमेश्वर से विमुख हो गया है। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उसका हृदय परमेश्वर से रहित है, और वह अनजान है कि परमेश्वर से कैसे प्रेम करे, न ही वह परमेश्वर से प्रेम करना चाहता है, क्योंकि उसका हृदय कभी भी परमेश्वर के नज़दीक नहीं आता है और वह हमेशा परमेश्वर से बचता है। परिणामस्वरूप, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से दूर है। तो उसका हृदय कहाँ है? वास्तव में, मनुष्य का हृदय कहीं गया नहीं है : इसे परमेश्वर को देने के बजाय या इसे परमेश्वर के देखने के लिए प्रकट करने के बजाय, उसने इसे स्वयं के लिए रख लिया है। यह इस तथ्य के बावज़ूद है कि कुछ लोग प्रायः परमेश्वर से प्रार्थना करते और कहते हैं, “हे परमेश्वर, मेरे हृदय पर दृष्टि डाल—जो मैं सोचता हूँ तू वह सब कुछ जानता है,” और कुछ लोग तो परमेश्वर को अपने ऊपर दृष्टि डालने देने की सौगंध खाते हैं, कि यदि वे अपनी सौगंध तोड़ें तो उन्हें दण्ड दिया जाए। यद्यपि मनुष्य परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर झाँकने देता है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को मानने में सक्षम है, न ही यह कि उसने अपना भाग्य और संभावनाएँ और अपना सर्वस्व परमेश्वर के नियंत्रण के अधीन छोड़ दिया है। इस प्रकार, तुम परमेश्वर के समक्ष चाहे जो सौगंध खाओ या चाहे जो घोषणा करो, परमेश्वर की नज़रों में तुम्हारा हृदय अब भी उसके प्रति बंद है, क्योंकि तुम परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर केवल झाँकने देते हो किंतु इसे नियंत्रित करने की अनुमति उसे नहीं देते हो। दूसरे शब्दों में, तुमने अपना हृदय परमेश्वर को थोड़ा भी दिया ही नहीं है, और केवल परमेश्वर को सुनाने के लिए अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हो; इस बीच, तुम अपने षडयंत्रों, कुचक्रों और मनसूबों के साथ-साथ अपने छल-कपट से भरे नानाविध मंतव्य भी परमेश्वर से छिपा लेते हो, और तुम अपनी संभावनाओं और भाग्य को अपने हाथों में जकड़ लेते हो, इस गहरे डर से कि परमेश्वर उन्हें ले लेगा। इस प्रकार, परमेश्वर कभी अपने प्रति मनुष्य की शुद्ध हृदयता नहीं देखता है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराइयों को ध्यान से देखता है, और देख सकता है कि मनुष्य अपने हृदय में क्या सोच रहा है और क्या करना चाहता है, और देख सकता है कि उसके हृदय के भीतर कौन-सी चीज़ें रखी हैं, किंतु मनुष्य का हृदय परमेश्वर का नहीं है, उसने उसे परमेश्वर के नियंत्रण में नहीं सौंपा है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर को अवलोकन का अधिकार है, किंतु उसे नियंत्रण का अधिकार नहीं है। मनुष्य की व्यक्तिपरक चेतना में, मनुष्य अपने आप को परमेश्वर की व्यवस्थाओं को सौंपना नहीं चाहता या न ही उसका ऐसा कोई इरादा है। मनुष्य ने न केवल स्वयं को परमेश्वर से बंद कर लिया है, बल्कि ऐसे भी लोग हैं जो एक मिथ्या धारणा बनाने और परमेश्वर का भरोसा प्राप्त करने, और परमेश्वर की नज़रों से अपना असली चेहरा छिपाने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातों और चापलूसी का उपयोग करके अपने हृदयों को ढँक लेने के तरीक़ों के बारे में सोचते हैं। परमेश्वर को देखने नहीं देने में उनका उद्देश्य परमेश्वर को यह जानने-समझने नहीं देना है कि वे वास्तव में कैसे हैं। वे परमेश्वर को अपने हृदय देना नहीं चाहते, बल्कि उन्हें स्वयं के लिए रखना चाहते हैं। इसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य जो करता है और वह जो चाहता है, उन सब का नियोजन, आकलन, और निर्णय स्वयं मनुष्य द्वारा किया जाता है; उसे परमेश्वर की भागीदारी या हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता तो और भी नहीं है। इस प्रकार, बात चाहे परमेश्वर की आज्ञाओं, उसके आदेश, या परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की जाने वाली अपेक्षाओं से संबंधित हो, मनुष्य के निर्णय उसके अपने मंतव्यों और हितों पर, उस समय की उसकी अपनी अवस्था और परिस्थितियों पर आधारित होते हैं। मनुष्य को जो मार्ग अपनाना चाहिए उसे परखने और चुनने के लिए वह अपने चिर-परिचित ज्ञान और अंतर्दृष्टियों का, और अपनी विचार शक्ति का उपयोग करता है, और परमेश्वर को हस्तक्षेप या नियंत्रण नहीं करने देता है। यही वह मनुष्य का हृदय है जिसे परमेश्वर देखता है।

आरंभ से लेकर आज तक, केवल मनुष्य ही परमेश्वर के साथ बातचीत करने में समर्थ रहा है। अर्थात्, परमेश्वर के सभी जीवित जीव-जंतुओं और प्राणियों में, मनुष्य के अलावा कोई भी परमेश्वर से बातचीत करने में समर्थ नहीं रहा है। मनुष्य के पास कान हैं जो उसे सुनने में समर्थ बनाते हैं, और उसके पास आँखें हैं जो उसे देखने देती हैं; उसके पास भाषा, अपने स्वयं के विचार, और स्वतंत्र इच्छा है। वह उस सबसे युक्त है जो परमेश्वर को बोलते हुए सुनने, और परमेश्वर की इच्छा को समझने, और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के लिए आवश्यक है, और इसलिए परमेश्वर अपनी सारी इच्छाएँ मनुष्य को प्रदान करता है, मनुष्य को ऐसा साथी बनाना चाहता है जो उसके साथ एक मन हो और जो उसके साथ चल सके। जब से परमेश्वर ने प्रबंधन करना प्रारंभ किया है, तभी से वह प्रतीक्षा करता रहा है कि मनुष्य अपना हृदय उसे दे, परमेश्वर को उसे शुद्ध और सुसज्जित करने दे, उसे परमेश्वर के लिए संतोषप्रद और परमेश्वर द्वारा प्रेममय बनाने दे, उसे परमेश्वर का आदर करने और बुराई से दूर रहने वाला बनाने दे। परमेश्वर ने सदा ही इस परिणाम की प्रत्याशा और प्रतीक्षा की है। क्या बाइबल के अभिलेखों में कोई ऐसे लोग हैं? अर्थात्, क्या बाइबल में कोई हैं जो परमेश्वर को अपने हदय देने में सक्षम हों? क्या इस युग से पहले ऐसा कोई उदाहरण है? आज, आओ हम बाइबल के वृतांत आगे पढ़ें और एक नज़र डालें कि इस व्यक्ति—अय्यूब—ने जो किया था, उसका कोई संबंध “अपना हृदय परमेश्वर को देना” विषय से है या नहीं, जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं। आओ हम देखते हैं कि अय्यूब परमेश्वर के लिए संतोषप्रद और परमेश्वर द्वारा प्रेममय था या नहीं।

अय्यूब के बारे में तुम लोगों का क्या विचार है? मूल पवित्र शास्त्र से उद्धरण देते हुए, कुछ लोग कहते हैं कि अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। “परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था”: ऐसा अय्यूब के बारे में परमेश्वर का आकलन है। यदि तुम लोग अपने शब्दों का प्रयोग करते, तो तुम लोग अय्यूब का ठीक-ठीक वर्णन किस प्रकार करते? कुछ लोग कहते हैं कि अय्यूब अच्छा और तर्कसंगत मनुष्य था; कुछ कहते हैं कि उसे परमेश्वर में सच्चा विश्वास था; कुछ कहते हैं कि अय्यूब धार्मिक और दयालु मनुष्य था। तुम लोगों ने अय्यूब का विश्वास देखा है, कहने का तात्पर्य है, तुम लोग अपने हृदयों में अय्यूब के विश्वास को बड़ा महत्व देते हो और उसके विश्वास के प्रति ईर्ष्यालु हो। तो आओ, आज हम देखें कि अय्यूब ने ऐसा क्या धारण किया था कि परमेश्वर उससे बहुत प्रसन्न था। इसके बाद, आओ हम नीचे दिए गए पवित्र शास्त्रों को पढ़ें।

ग. अय्यूब

1. परमेश्वर के द्वारा और बाइबल में अय्यूब का आँकलन

अय्यूब 1:1 ऊज़ देश में अय्यूब नामक एक पुरुष था; वह खरा और सीधा था और परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।

अय्यूब 1:5 जब जब भोज के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़े भोर को उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता था; क्योंकि अय्यूब सोचता था, “कदाचित् मेरे लड़कों ने पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया हो।” इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था।

अय्यूब 1:8 यहोवा ने शैतान से पूछा, “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।”

वह मुख्य बिंदु क्या है जो तुम लोग इन अंशों में देखते हो? पवित्र शास्त्र के ये तीनों संक्षिप्त अंश अय्यूब से संबंधित हैं। संक्षिप्त होते हुए भी वे स्पष्ट रूप से बताते हैं कि वह किस प्रकार का व्यक्ति था। अय्यूब के प्रतिदिन के व्यवहार और उसके आचरण के बारे में अपने वर्णन के माध्यम से, वे हर एक को बताते हैं कि अय्यूब के बारे में परमेश्वर का आँकलन, निराधार होने के बजाय, तथ्यों पर आधारित था। वे हमें बताते हैं कि चाहे यह अय्यूब के बारे में मनुष्य का मूल्याँकन हो (अय्यूब 1:1), या उसके बारे में परमेश्वर का मूल्याँकन हो (अय्यूब 1:8), दोनों परमेश्वर और मनुष्य के सामने अय्यूब के कर्मों के परिणाम हैं (अय्यूब 1:5)।

सबसे पहले, आओ हम प्रथम अंश को पढ़ें : “ऊज़ देश में अय्यूब नामक एक पुरुष था; वह खरा और सीधा था और परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।” यह बाइबल में अय्यूब के बारे में पहला आँकलन है, और यह वाक्य अय्यूब के बारे में लेखक का मूल्याँकन है। स्वाभाविक रूप से, यह अय्यूब के बारे में मनुष्य का आँकलन भी प्रस्तुत करता है, जो यह है, “वह खरा और सीधा था और परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।” इसके बाद, आओ हम अय्यूब के बारे में परमेश्वर का आँकलन पढ़ें : “क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।” इन दोनों आँकलनों में से, एक मनुष्य से आया, और एक परमेश्वर से उत्पन्न हुआ; ये दो आँकलन हैं जिनकी विषय-वस्तु समान है। तो, देखा जा सकता है कि अय्यूब के व्यवहार और आचरण मनुष्य को पता थे, और परमेश्वर ने भी उनकी प्रशंसा की थी। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के सामने अय्यूब का आचरण और परमेश्वर के सामने उसका आचरण एक समान थे; उसने अपना व्यवहार और हेतु हर समय परमेश्वर के समक्ष रखा, ताकि परमेश्वर उनका अवलोकन कर सके, और वह एक ऐसा व्यक्ति था जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। इस प्रकार, परमेश्वर की नज़रों में, पृथ्वी पर लोगों में केवल अय्यूब ही पूर्ण और खरा था, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।

अपने दैनिक जीवन में अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की सुनिश्चित अभिव्यंजनाएँ

इसके बाद, आओ हम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अय्यूब की सुनिश्चित अभिव्यंजनाओं पर नज़र डालें। इससे पहले और बाद के अंशों के अतिरिक्त, आओ हम अय्यूब 1:5 भी पढ़ें, जो अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की सुनिश्चित अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसका संबंध इस बात से है कि अपने दैनिक जीवन में वह किस प्रकार परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था; सबसे प्रमुख बात यह है, उसने न केवल वह किया जो उसे परमेश्वर के प्रति अपने भय और बुराई से दूर रहने के वास्ते करना ही होता, बल्कि उसने अपने पुत्रों की ओर से परमेश्वर के सामने नियमित रूप से होमबलि भी चढ़ाई। उसे भय था कि उन्होंने भोज करते हुए प्रायः “पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया” था। यह भय अय्यूब में कैसे अभिव्यंजित हुआ था? मूल पाठ नीचे लिखा वर्णन प्रस्तुत करता है : “जब जब भोज के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़े भोर को उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता था।” अय्यूब का आचरण हमें दिखाता है कि उसके बाहरी व्यवहार में प्रदर्शित होने के बजाए, परमेश्वर के प्रति उसका भय उसके हृदय के भीतर से आया था, और परमेश्वर के प्रति उसका भय उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक पहलू में हर समय पाया जा सकता था, क्योंकि उसने न केवल अपने आपको बुराई से दूर रखा था बल्कि वह अपने पुत्रों की ओर से प्रायः होमबलि चढ़ाता था। दूसरे शब्दों में, अय्यूब न केवल परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने और अपने स्वयं के हृदय में परमेश्वर को खो देने के बारे में अत्यंत भयभीत था, बल्कि वह इस बात से भी चिंतित था कि उसके पुत्र परमेश्वर के विरुद्ध पाप कर सकते थे और उसे अपने हृदयों में खो सकते थे। इससे यह देखा जा सकता है कि अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानने की सच्चाई जाँच-पड़ताल में खरी उतरती है, और किसी भी मनुष्य के संदेह से परे है। क्या वह ऐसा कभी-कभार ही करता था, या बार-बार करता था? पाठ का अंतिम वाक्य है “इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था।” इन वचनों का अर्थ है कि अय्यूब कभी-कभार ही, या जब उसे अच्छा लगता था तभी, अपने पुत्रों को देखने और मिलने नहीं जाता था, न ही वह प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के समक्ष अपने पापों को स्वीकार करता था। इसके बजाय, वह अपने पुत्रों को पापमुक्त होने के लिए नियमित रूप से भेजता था, और पवित्र करता था, और उनके लिए होमबलि चढ़ाता था। यहाँ “सदैव” का अर्थ यह नहीं है कि उसने ऐसा एक या दो दिन, या पल भर के लिए, किया। यह कह रहा है कि परमेश्वर के प्रति अय्यूब के भय का आविर्भाव अस्थायी नहीं था, और ज्ञान या बोले गए वचनों पर नहीं रुकता था; इसके बजाय, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग उसके हृदय को दिशा दिखलाता था, यह उसका व्यवहार तय करता था, और यह उसके हृदय में उसके अस्तित्व का मूल आधार था। वह सदैव ऐसा करता था, यह दिखाता है कि अपने हृदय में उसे अक्सर भय होता था कि वह स्वयं परमेश्वर के विरुद्ध पाप कर बैठेगा और यह डर भी था कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ परमेश्वर के विरुद्ध पाप कर बैठेंगे। यह दर्शाता है कि परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग उसके हृदय के भीतर कितना वज़न रखता था। उसने ऐसा सदैव इसलिए किया क्योंकि, अपने मन में, वह डरा हुआ और भयभीत था—भयभीत कि उसने परमेश्वर के विरुद्ध बुरा और पाप किए थे, और यह कि वह परमेश्वर के मार्ग से भटक गया था और इसलिए परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाया था। साथ ही, वह अपने पुत्र और पुत्रियों के बारे में भी चिंतित था, इस डर से कि उन्होंने परमेश्वर को नाराज़ कर दिया था। ऐसा था अय्यूब का सामान्य आचरण अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में। ठीक यही वह सामान्य आचरण है जो सिद्ध करता है कि अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना खोखले वचन नहीं थे, कि अय्यूब ऐसी वास्तविकता को सचमुच जीता था। “इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था”: ये वचन हमें परमेश्वर के समक्ष अय्यूब के दिन-प्रतिदिन के कर्मों के बारे में बताते हैं। जब वह सदैव इस रीति करता था, तो क्या उसका व्यवहार और उसका हृदय परमेश्वर के समक्ष पहुँचते थे? दूसरे शब्दों में, क्या परमेश्वर प्रायः उसके हृदय और उसके व्यवहार से प्रसन्न होता था? फिर, किस अवस्था में, और किस संदर्भ में, अय्यूब सदैव इस रीति किया करता था? कुछ लोग कहते हैं : “उसने इस तरह कार्य इसलिए किया क्योंकि परमेश्वर अय्यूब के समक्ष प्रायः प्रकट होता था।” कुछ कहते हैं : “उसने लगातार ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसमें बुराई से दूर रहने की इच्छाशक्ति थी।” और कुछ कहते हैं : “कदाचित वह सोचता था कि उसका सौभाग्य आसानी से नहीं मिला था, और वह जानता था कि यह उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया था, और इसलिए वह परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने और उसे नाराज़ करने के परिणामस्वरूप अपनी संपत्ति गँवा बैठने को लेकर अत्यंत भयभीत था।” क्या इनमें से कोई भी दावा सच है? स्पष्ट रूप से नहीं। क्योंकि, परमेश्वर की नज़रों में, अय्यूब के बारे में जो बात परमेश्वर ने सर्वाधिक स्वीकार की और हृदय में सँजोई, वह मात्र यह नहीं थी कि वह सदैव इस रीति किया करता था; उससे अधिक, यह शैतान को सौंप दिए जाने और लुभाए जाने पर परमेश्वर, मनुष्य, और शैतान के सामने उसका आचरण था। नीचे दिए गए भाग सर्वाधिक विश्वास दिलाने वाला प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, प्रमाण जो हमें अय्यूब के बारे में परमेश्वर के आँकलन का सत्य दिखाता है। इसके बाद, आओ हम पवित्र शास्त्र के नीचे लिखे अंश पढ़ें।

2. शैतान पहली बार अय्यूब को लुभाता है (उसके मवेशी चुरा लिए जाते हैं और उसके बच्चों के ऊपर विपत्ति टूटती है)

i. परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन

अय्यूब 1:8 यहोवा ने शैतान से पूछा, “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।”

अय्यूब 1:12 यहोवा ने शैतान से कहा, “सुन, जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना।” तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया।

ii. शैतान का जवाब

अय्यूब 1:9-11 शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, “क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बाँधा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा।”

परमेश्वर शैतान को अय्यूब को लुभाने देता है जिससे अय्यूब के विश्वास को पूर्ण बनाया जाएगा

अय्यूब 1:8 यहोवा परमेश्वर और शैतान के बीच हुए संवाद का पहला अभिलेख है जो हम बाइबल में देखते हैं। तो, परमेश्वर ने क्या कहा? मूल पाठ नीचे लिखा वर्णन प्रस्तुत करता है : “यहोवा ने शैतान से पूछा, ‘क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।’” यह शैतान के सामने अय्यूब के बारे में परमेश्वर का आँकलन था; परमेश्वर ने कहा था कि वह पूर्ण और खरा मनुष्य था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर और शैतान के बीच इन वचनों से पहले, परमेश्वर ने संकल्प किया था कि वह अय्यूब को लुभाने के लिए शैतान का उपयोग करेगा—कि वह अय्यूब को शैतान के हाथों में सौंप देगा। एक दृष्टि से, यह सिद्ध करेगा कि अय्यूब के बारे में परमेश्वर का पर्यवेक्षण और मूल्याँकन सटीक और त्रुटिहीन था, और वह अय्यूब की गवाही के माध्यम से शैतान को लज्जित होने के लिए विवश करेगा; दूसरी दृष्टि से, यह अय्यूब के परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर के भय को पूर्ण बनाएगा। इस प्रकार, जब शैतान परमेश्वर के सामने आया, तो परमेश्वर ने गोल-मोल बात नहीं की। वह सीधे मुद्दे पर आया और शैतान से पूछा : “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।” परमेश्वर के प्रश्न का नीचे लिखा अर्थ है : परमेश्वर जानता था कि शैतान सभी स्थानों पर घूमा-फिरा था, और उसने प्रायः अय्यूब की, जो परमेश्वर का सेवक था, जासूसी की थी। उसने प्रायः अय्यूब को लुभाया और उस पर आक्रमण किए थे, इस कोशिश में कि उस पर तबाही बरपाने का कोई तरीक़ा खोजे, जिससे यह सिद्ध कर सके कि अय्यूब का परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर का भय मज़बूती से टिका नहीं रह सकता है। शैतान ने तत्परता से अय्यूब को तबाह करने के अवसर भी खोजे, कि हो सकता है इससे अय्यूब परमेश्वर को त्याग दे, और कि हो सकता है इससे वह उसे परमेश्वर के हाथों से छीन ले। फिर भी परमेश्वर ने अय्यूब के हृदय में झाँका और देखा कि वह पूर्ण और खरा था, और वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर ने एक प्रश्न का उपयोग करके शैतान को बताया कि अय्यूब पूर्ण और खरा मनुष्य था जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, कि अय्यूब परमेश्वर को तजकर शैतान का अनुसरण कभी नहीं करेगा। अय्यूब के बारे में परमेश्वर का मूल्याँकन सुनने के बाद, शैतान को क्रोध आ गया जो अपमान से उत्पन्न हुआ था, और इसलिए वह अय्यूब को छीनने के लिए और अधिक क्रोधित तथा और अधिक अधीर हो उठा, क्योंकि शैतान ने कभी भी विश्वास ही नहीं किया था कि कोई पूर्ण और खरा हो सकता है, कि कोई परमेश्वर का भय मान सकता और बुराई से दूर रह सकता है। साथ ही, शैतान मनुष्य में पूर्णता और खरापन अत्यंत नापसंद करता था, और वह उन लोगों से घृणा करता था जो परमेश्वर का भय मान सकते और दुष्टता से दूर रह सकते थे। और इसलिए अय्यूब 1:9-11 में लिखा है कि “शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, ‘क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बाँधा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा।’” परमेश्वर शैतान की विद्वेषपूर्ण प्रकृति से घनिष्ठ रूप से परिचित था, और बहुत अच्छी तरह जानता था कि शैतान ने अय्यूब पर तबाही बरपाने की योजना बहुत पहले ही बना ली थी, और इसलिए इसमें, शैतान को एक बार फिर यह बताने के माध्यम से, कि अय्यूब पूर्ण और खरा था और वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, परमेश्वर शैतान को रास्ते पर लाना, शैतान से उसका असली चेहरा प्रकट करवाना और उससे अय्यूब पर आक्रमण करवाना और उसे प्रलोभित करवाना चाहता था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने जान-बूझकर ज़ोर दिया था कि अय्यूब पूर्ण और खरा था, और कि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, और इस उपाय से उसने शैतान से अय्यूब पर हमला करवाया, इस बात के प्रति शैतान की घृणा और गुस्से के कारण कि अय्यूब पूर्ण और खरा मनुष्य भला कैसे था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था। परिणामस्वरूप, परमेश्वर शैतान को इस तथ्य के माध्यम से बेइज्ज़त करता कि अय्यूब पूर्ण और खरा मनुष्य था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, और शैतान सरासर अपमानित और पराजित रह जाता। उसके बाद, शैतान अय्यूब की पूर्णता, खरेपन, परमेश्वर का भय मानने, या बुराई से दूर रहने के बारे में अब और न तो संदेह करता या न ही दोषारोपण करता। इस तरह, परमेश्वर का परीक्षण और शैतान का प्रलोभन लगभग अवश्यंभावी थे। परमेश्वर के परीक्षण और शैतान के प्रलोभन का सामना कर पाने वाला एकमात्र व्यक्ति अय्यूब था। इस संवाद के बाद, शैतान को अय्यूब को लुभाने की अनुमति दे दी गई। इस प्रकार शैतान के हमलों का पहला दौर आरंभ हुआ। इन हमलों का लक्ष्य अय्यूब की संपत्ति थी, क्योंकि शैतान ने अय्यूब के विरुद्ध नीचे लिखा आरोप लगाया था : “क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? ... तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है।” परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने शैतान को अनुमति दी कि वह अय्यूब के पास जो भी था सब ले ले—यही वह उद्देश्य था जिससे परमेश्वर ने शैतान के साथ बात की थी। तथापि, परमेश्वर ने शैतान से एक माँग अवश्य की : “जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना” (अय्यूब 1:12)। यही वह शर्त थी जो परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब को लुभाने की अनुमति देने और अय्यूब को शैतान के हाथों में सौंप देने के पश्चात रखी थी, और यह वह सीमा थी जो उसने शैतान के लिए निर्धारित की थी : उसने शैतान को आदेश दिया कि वह अय्यूब को हानि न पहुँचाए। चूँकि परमेश्वर पहचानता था कि अय्यूब पूर्ण और खरा था, और चूँकि उसे विश्वास था कि उसके समक्ष अय्यूब की पूर्णता और खरापन संदेह से परे थे और परीक्षा में डाले जाने का सामना कर सकते थे, इसलिए परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब को लुभाने दिया, परंतु शैतान पर एक प्रतिबंध लगा दिया : शैतान को अय्यूब की सारी संपत्ति ले लेने की अनुमति थी, किंतु वह उसे एक अँगुली भी नहीं लगा सकता था। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर ने उस क्षण अय्यूब को पूरी तरह शैतान को नहीं दिया था। शैतान जिस किसी भी उपाय से चाहता अय्यूब को लुभा सकता था, परंतु वह स्वयं अय्यूब को—यहाँ तक कि उसके सिर के एक बाल को भी—हानि नहीं पहुँचा सकता था, क्योंकि मनुष्य का सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होता है, और क्योंकि मनुष्य जिये या मरे इसका निर्णय भी परमेश्वर करता है। शैतान के पास यह अधिकार नहीं है। परमेश्वर द्वारा शैतान से ये वचन कहे जाने के उपरांत, शैतान आरंभ करने के लिए अधीर हो उठा। उसने अय्यूब को लुभाने के लिए हर उपाय इस्तेमाल किया, और अय्यूब देखते ही देखते पर्वत जितने ऊंचे मूल्य की भेड़-बकरियाँ और बैल और परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सारी संपत्ति गँवा चुका था...। इस प्रकार परमेश्वर के परीक्षणों से वह गुज़रा।

यद्यपि बाइबल अय्यूब के प्रलोभन की उत्पत्तियों के बारे में हमें बताती है, फिर भी क्या स्वयं अय्यूब, जिसे इन प्रलोभनों से गुज़रना पड़ा था, जानता था कि क्या चल रहा था? अय्यूब मात्र एक नश्वर मनुष्य था; अपने चारों ओर घट रही इस कहानी के बारे में वह निस्संदेह कुछ भी नहीं जानता था। तथापि, परमेश्वर के उसके भय और उसकी पूर्णता और खरेपन ने उसे अहसास कराया कि परमेश्वर की परीक्षाएँ उस पर आ गई थीं। वह नहीं जानता था कि आध्यात्मिक क्षेत्र में क्या घटित हुआ था, न ही यह कि इन परीक्षाओं के पीछे परमेश्वर के अभिप्राय क्या थे। परंतु वह यह अवश्य जानता था कि उसके साथ चाहे जो हो, उसे अपनी पूर्णता और खरेपन के प्रति सच्चा बने रहना चाहिए, और उसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। इन विषयों के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति और प्रतिक्रिया परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से देखी थीं। परमेश्वर ने क्या देखा था? उसने अय्यूब का परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय देखा, इसलिए कि आरंभ से ठीक उस पूरे समय तक जब अय्यूब की परीक्षा ली गई, अय्यूब का हृदय परमेश्वर के समक्ष खुला हुआ था, यह परमेश्वर के समक्ष बिछा था, और अय्यूब ने अपनी पूर्णता और खरापन तजा नहीं था, न ही वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग से भटका या विमुख हुआ था—परमेश्वर के लिए इससे अधिक सुखदायक कुछ नहीं था। इसके बाद, हम देखेंगे कि अय्यूब किन प्रलोभनों से होकर गुज़रा, और इन परीक्षणों से वह कैसे निपटा। आओ हम पवित्र शास्त्रों से पढ़ें।

iii. अय्यूब की प्रतिक्रिया

अय्यूब 1:20-21 तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् करके कहा, “मैं अपनी माँ के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊँगा; यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।”

अय्यूब द्वारा अपना सब कुछ वापस करने का जिम्मा अपने ऊपर ले लेना परमेश्वर के प्रति उसके भय से उत्पन्न होता है

परमेश्वर द्वारा शैतान से यह कहने के बाद कि “जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना,” शैतान चला गया, जिसके तुरंत बाद अय्यूब के ऊपर अचानक और भयंकर हमले होने लगे : पहले, उसके बैल और गधे लूट लिए गए और उसके कुछ सेवकों को मार दिया गया; फिर, उसकी भेड़-बकरियों और कुछ और सेवकों को आग में भस्म कर दिया गया; उसके पश्चात्, उसके ऊँट ले लिए गए और उसके कुछ और सेवकों की हत्या कर दी गई; अंत में, उसके पुत्र और पुत्रियों की जानें ले ली गईं। हमलों की यह श्रृंखला अय्यूब द्वारा अपने पहले प्रलोभन के दौरान झेली गई यातना थी। जैसा कि परमेश्वर द्वारा आदेशित था, इन हमलों के दौरान शैतान ने केवल अय्यूब की संपत्ति और उसके बच्चों को लक्ष्य बनाया था, और स्वयं अय्यूब को हानि नहीं पहुँचाई थी। तथापि, अय्यूब विशाल संपदा से संपन्न धनवान मनुष्य से तत्क्षण ऐसे व्यक्ति में बदल गया जिसके पास कुछ भी नहीं था। कोई भी व्यक्ति यह विस्मयकारी अप्रत्याशित झटका सहन नहीं कर सकता था या इसके प्रति समुचित प्रतिक्रिया नहीं कर सकता था, फिर भी अय्यूब ने अपने असाधारण पहलू का प्रदर्शन किया। पवित्र शास्त्र नीचे लिखा विवरण प्रदान करते हैं : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् किया।” यह सुनने के पश्चात् कि अय्यूब ने अपने बच्चे और अपनी सारी संपत्ति गँवा दी थी, यह अय्यूब की पहली प्रतिक्रिया थी। सबसे बढ़कर, वह आश्चर्यचकित, या घबराया हुआ नहीं दिखा, उसने क्रोध या नफ़रत तो और भी व्यक्त नहीं की। तो, तुम देखते हो कि वह अपने हृदय में पहले से ही पहचान गया था कि ये आपदाएँ आकस्मिक घटनाएँ नहीं थीं, या मनुष्य के हाथों से उत्पन्न नहीं हुई थीं, वे प्रतिफल या दण्ड का आगमन तो और भी नहीं थीं। इसके बजाय, यहोवा की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ी थीं; वह यहोवा ही था जो उसकी संपत्ति और बच्चों को ले लेना चाहता था। उस समय अय्यूब बहुत शांत और सोच-विचार में स्पष्ट था। उसकी अचूक और खरी मानवता ने उसे अपने ऊपर आ पड़ी आपदाओं के बारे में तर्कसंगत और स्वाभाविक रूप से सटीक परख करने और निर्णय लेने में समर्थ बनाया, और इसके परिणामस्वरूप, उसने असामान्य शांत मन से व्यवहार किया : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् किया।” “बागा फाड़” का अर्थ है वह निर्वस्त्र था, और कुछ भी धारण नहीं किए था; “सिर मुँडाने” का अर्थ है वह नवजात शिशु के समान परमेश्वर के समक्ष लौट आया था; “भूमि पर गिरा, और दण्डवत् किया” का अर्थ है वह इस संसार में नग्न आया था, और आज भी उसके पास कुछ नहीं था, वह परमेश्वर के पास लौट आया था मानो नवजात शिशु हो। उस पर जो बीता था उस सबके प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति परमेश्वर के किसी प्राणी द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती थी। यहोवा में उसका विश्वास, विश्वास के क्षेत्र से आगे चला गया था; यह परमेश्वर के प्रति उसका भय, परमेश्वर के प्रति उसका आज्ञापालन था; वह न केवल उसे देने के लिए, बल्कि उससे लेने के लिए भी परमेश्वर को धन्यवाद दे पाने में समर्थ था। इतना ही नहीं, वह स्वयं आगे बढ़कर वह सब करने में समर्थ था, जो अपना सब कुछ, अपने जीवन सहित, परमेश्वर को लौटाने के लिए आवश्यक था।

परमेश्वर के प्रति अय्यूब का भय और आज्ञाकारिता मनुष्यजाति के लिए एक उदाहरण है, और उसकी पूर्णता और खरापन मानवता की पराकाष्ठा थी जो मनुष्य को धारण करना ही चाहिए। यद्यपि उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, फिर भी उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर सचमुच विद्यमान था, और इस एहसास के कारण वह परमेश्वर का भय मानता था, और परमेश्वर के अपने इसी भय के कारण, वह परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाया था। उसने परमेश्वर को वह सब जो उसका था लेने की खुली छूट दे दी, फिर भी उसे कोई शिकायत नहीं थी, और वह परमेश्वर के समक्ष गिर गया और उसने उससे कहा कि, बिल्कुल इसी क्षण, यदि परमेश्वर उसकी देह भी ले ले, तो वह, शिकायत किए बिना, ख़ुशी-ख़ुशी उसे ऐसा करने देगा। उसका समूचा आचरण उसकी अचूक और खरी मानवता के कारण था। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी निश्छलता, ईमानदारी, और दयालुता के फलस्वरूप, अय्यूब परमेश्वर के अस्तित्व के अपने अहसास और अनुभव में अटल था। इस स्थापना के आधार पर उसने स्वयं अपने से भारी-भरकम अपेक्षाएँ की थीं और परमेश्वर के समक्ष अपनी सोच, व्यवहार, आचरण और क्रियाकलापों के सिद्धांतों को उसने अन्य बातों के अलावा परमेश्वर द्वारा अपने मार्गदर्शन और परमेश्वर के जो कर्म वह देख चुका था उनके अनुसार आदर्श ढँग से ढाला था। समय के साथ, उसके अनुभवों ने उसमें परमेश्वर का सच्चा और वास्तविक भय उत्पन्न किया और उसे बुराई से दूर रखा। यही उस अखंडता का स्रोत था जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था। अय्यूब सत्यनिष्ठ, निश्छल, और दयालु मानवता से युक्त था, और उसने परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर का आज्ञापालन करने, और बुराई से दूर रहने का, साथ ही इस ज्ञान का कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया” का वास्तविक अनुभव प्राप्त किया था। केवल इन्हीं चीज़ों के कारण वह शैतान के ऐसे शातिर हमलों के बीच अपनी गवाही पर डटा रह पाया, और जब परमेश्वर की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ीं, तब केवल उन्हीं के कारण वह परमेश्वर को निराश नहीं करने और परमेश्वर को संतोषजनक उत्तर देने में समर्थ हो पाया। यद्यपि प्रथम प्रलोभन के दौरान अय्यूब का आचरण बिलकुल दोटूक था, किंतु यह दोटूकपन बाद की पीढ़ियों को जीवन भर के प्रयासों के बाद भी प्राप्त होना निश्चित नहीं था, न ही वे अय्यूब के ऊपर वर्णित आचरण से आवश्यक रूप से युक्त होंगी। आज, अय्यूब के दोटूक आचरण से दोचार होने पर, और इसकी तुलना परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर का अनुसरण करने का दावा करने वाले लोगों द्वारा परमेश्वर के समक्ष प्रदर्शित “परम आज्ञाकारिता और मृत्युपर्यंत निष्ठा” के क्रंदनों और दृढ़संकल्पों से करने पर, तुम लोग अत्यंत लज्जित महसूस करते हो, या नहीं करते हो?

जब तुम पवित्र शास्त्रों में वह सब पढ़ते हो जो अय्यूब और उसके परिवार ने सहा था, तब तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होती है? क्या तुम अपने ही विचारों में खो जाते हो? क्या तुम अचंभित रह जाते हो? क्या अय्यूब पर आ पड़ी परीक्षाओं को “भयावह” कहा जा सकता है? दूसरे शब्दों में, पवित्र शास्त्रों में वर्णित अय्यूब की परीक्षाओं के बारे में पढ़ना इतना डरावना है कि वास्तविक जीवन में वे कैसी रही होंगी इसकी तो बात ही छोड़ दें। तो, तुम देखते हो कि अय्यूब पर जो घटित हुआ वह कोई “प्रशिक्षण अभ्यास” नहीं, बल्कि वास्तविक “संग्राम” था, जिसमें वास्तविक “बंदूकें” और “गोलियाँ” शामिल थीं। परंतु किसके हाथों उसे इन परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा था? निश्चित ही, वे शैतान के काम थे, और शैतान ने ये चीज़ें स्वयं अपने हाथों से की थीं। बावज़ूद इसके, ये चीज़ें परमेश्वर द्वारा अधिकृत थीं। क्या परमेश्वर ने शैतान को बताया कि उसे किन उपायों से अय्यूब को लुभाना है? उसने नहीं बताया। परमेश्वर ने बस एक शर्त रखी जिसका शैतान को पालन करना ही चाहिए था, और फिर प्रलोभन अय्यूब पर आ पड़े। जब प्रलोभन अय्यूब पर आ पड़े, तब इसने लोगों को शैतान की दुष्टता और कुरूपता का, मनुष्य के प्रति उसके द्वेष और घृणा का, परमेश्वर के प्रति उसकी शत्रुता का अहसास करवाया। इसमें हम देखते हैं कि शब्दों में वर्णन ही नहीं किया जा सकता कि यह प्रलोभन कितना क्रूर था। कहा जा सकता है कि वह द्वेषपूर्ण प्रकृति जिससे शैतान ने मनुष्य को हानि पहुँचाई थी, और उसका कुरूप चेहरा, इस क्षण पूरी तरह प्रकट हो गए थे। शैतान ने इस अवसर का उपयोग, अवसर जो परमेश्वर की अनुमति से दिया गया था, अय्यूब को अधीर और बेरहम हानि पहुँचाने के लिए किया, जिसकी क्रूरता का तरीक़ा और स्तर आज लोगों के लिए अकल्पनीय और पूर्णतः असहनीय दोनों हैं। बजाय यह कहने के कि अय्यूब शैतान द्वारा प्रलोभित किया गया था, और कि इस प्रलोभन के दौरान वह अपनी गवाही पर दृढ़ता से डटा रहा, यह कहना बेहतर है कि अय्यूब ने परमेश्वर द्वारा अपने लिए तय परीक्षाओं में अपनी पूर्णता और खरेपन की रक्षा करने के लिए, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के अपने मार्ग का बचाव करने के लिए शैतान के साथ एक प्रतियोगिता आरंभ की। इस प्रतियोगिता में, अय्यूब ने बहुत अधिक मूल्य की भेड़-बकरियाँ और पशु गँवा दिए, उसने अपनी सारी संपत्ति गँवा दी, और उसने अपने पुत्र और पुत्रियाँ गँवा दीं। परंतु उसने अपनी पूर्णता, खरापन, या परमेश्वर का भय नहीं तजा। दूसरे शब्दों में, शैतान के साथ इस प्रतियोगिता में, अय्यूब ने अपनी पूर्णता, खरापन, और परमेश्वर का भय गँवाने की अपेक्षा अपनी संपत्ति और बच्चों से वंचित किया जाना पसंद किया। मनुष्य होने का जो अर्थ है उसकी जड़ को उसने थामे रखना पसंद किया। पवित्र शास्त्र अय्यूब द्वारा अपनी संपत्ति गँवाने की समूची प्रक्रिया का संक्षिप्त विवरण प्रदान करते हैं, और अय्यूब के आचरण और प्रवृत्ति का भी लिखित प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ये संक्षिप्त, सारगर्भित विवरण महसूस कराते हैं कि इस प्रलोभन का सामना करते समय अय्यूब लगभग निश्चिंत था, किंतु वास्तव में जो घटित हुआ था यदि उसे पुनर्रचित किया जाए—शैतान की द्वेषपूर्ण प्रकृति पर भी विचार करते हुए—तो चीज़ें इतनी सीधी-सादी और सहज नहीं होतीं जितनी इन वाक्यों में वर्णित की गई हैं। वास्तविकता कहीं अधिक क्रूर थी। ऐसा होता है उस तबाही और घृणा का स्तर जिससे शैतान मनुष्यजाति और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत सभी लोगों के साथ बर्ताव करता है। यदि परमेश्वर ने यह न कहा होता कि शैतान अय्यूब को हानि न पहुँचाए, तो शैतान ने बिना किसी पछतावे के निस्संदेह उसका वध कर दिया होता। शैतान नहीं चाहता है कि कोई भी परमेश्वर की आराधना करे, न ही वह यह चाहता है कि परमेश्वर की नज़रों में जो धार्मिक हैं और जो पूर्ण तथा खरे हैं वे निरंतर परमेश्वर का भय मान पाएँ तथा बुराई से दूर रह पाएँ। क्योंकि लोगों के लिए परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अर्थ यह है कि वे शैतान से दूर रहें और उसे त्याग दें, और इसलिए शैतान ने दया किए बिना अय्यूब के ऊपर अपना सारा क्रोध और नफ़रत लादने के लिए परमेश्वर की अनुमति का फ़ायदा उठाया। तो, तुम देखो, वह यंत्रणा कितनी बड़ी थी जो अय्यूब ने मन से देह तक, बाहर से भीतर तक सही थी। आज, हमें दिखाई नहीं देता कि उस समय यह कैसा था, और हम केवल बाइबल के वृतांतों से ही उस समय जब उसे यंत्रणा से गुज़ारा गया था अय्यूब की भावनाओं की एक छोटी-सी झलक प्राप्त कर सकते हैं।

अय्यूब की अटल सत्यनिष्ठा शैतान को शर्मिंदा करती है और उसे दहशत में डालकर भगा देती है

तो, जब अय्यूब को इस यंत्रणा से गुज़ारा गया था तब परमेश्वर ने क्या किया? परमेश्वर ने अवलोकन किया, और देखा, और परिणाम की प्रतीक्षा की। जब परमेश्वर ने अवलोकन किया और देखा, तो उसने कैसा महसूस किया? निस्संदेह उसने शोक में डूबा महसूस किया। परंतु क्या यह संभव है कि उसने जो व्यथा महसूस की मात्र उसके कारण, अय्यूब को लुभाने के लिए शैतान को दी गई अपनी अनुमति पर परमेश्वर को पछतावा हुआ हो सकता था? इसका उत्तर है, नहीं, उसे ऐसा पछतावा महसूस नहीं हो सकता था। क्योंकि वह दृढ़ता से मानता था कि अय्यूब पूर्ण और खरा था, कि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर ने शैतान को बस इतना ही अवसर दिया था कि वह परमेश्वर के सामने अय्यूब की धार्मिकता को सत्यापित करे, और अपनी स्वयं की जुगुप्सा और घिनौनेपन को प्रकट करे। इतना ही नहीं, यह अय्यूब के लिए एक अवसर था कि वह संसार के लोगों, शैतान, और यहाँ तक कि परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के भी सामने अपनी धार्मिकता और अपना परमेश्वर के प्रति भय मानना और बुराई से दूर रहना प्रमाणित करे। क्या अंतिम परिणाम से यह साबित हुआ कि अय्यूब के बारे में परमेश्वर का आँकलन सही और त्रुटिहीन था? क्या अय्यूब ने वास्तव में शैतान पर विजय प्राप्त की? हम यहाँ अय्यूब द्वारा बोले गए ठेठ वचन पढ़ते हैं, वचन जो सिद्ध करते हैं कि उसने शैतान पर विजय पा ली थी। उसने कहा : “मैं अपनी माँ के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊँगा।” यह परमेश्वर के प्रति अय्यूब की आज्ञाकारिता की प्रवृत्ति है। फिर, उसने कहा : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” अय्यूब द्वारा कहे गए ये वचन साबित करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराई का अवलोकन करता है, कि वह मनुष्य के मन के भीतर झाँकने में समर्थ है, और वे साबित करते हैं कि अय्यूब की उसकी स्वीकृति त्रुटिहीन है, कि यह मनुष्य जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया गया था, धार्मिक था। “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” ये वचन परमेश्वर के प्रति अय्यूब की गवाही हैं। ये साधारण वचन ही थे जिन्होंने शैतान को संत्रस्त कर दिया था, जिन्होंने उसे शर्मिंदा कर दिया था और उसे दहशत में डालकर भगा दिया था, और, इतना ही नहीं, जिन्होंने शैतान को जंज़ीरों में जकड़ लिया था और उसे संसाधन-हीन छोड़ दिया था। इसलिए भी इन वचनों ने शैतान को यहोवा परमेश्वर के कर्मों की चमत्कारिकता और ताक़त महसूस कराई, और जिसका हृदय परमेश्वर के मार्ग द्वारा शासित होता था उसका असाधारण आकर्षण महसूस करने दिया। इसके अलावा, उन्होंने एक छोटे-से और महत्वहीन मनुष्य द्वारा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का पालन करने में दिखाई गई सामर्थ्यवान जीवनशक्ति का शैतान को दर्शन कराया। इस प्रकार पहली प्रतियोगिता में शैतान पराजित हुआ था। “इससे सीख लेने” के बावजूद, शैतान का अय्यूब को छोड़ने का कोई इरादा नहीं था, न ही उसकी द्वेषपूर्ण प्रकृति में कोई बदलाव आया था। शैतान ने अय्यूब पर लगातार आक्रमण करते रहने की कोशिश की, और एक बार फिर परमेश्वर के सामने आया ...

इसके बाद, आओ हम अय्यूब को दूसरी बार प्रलोभित किए जाने के बारे में पवित्र शास्त्र पढ़ें।

3. शैतान एक बार फिर अय्यूब को प्रलोभित करता है (अय्यूब के पूरे शरीर में दर्दनाक फोड़े निकल आते हैं)

i. परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन

अय्यूब 2:3 यहोवा ने शैतान से पूछा, “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है कि पृथ्वी पर उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है? यद्यपि तू ने मुझे बिना कारण उसका सत्यानाश करने को उभारा, तौभी वह अब तक अपनी खराई पर बना है।”

अय्यूब 2:6 यहोवा ने शैतान से कहा, “सुन, वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना।”

ii. शैतान द्वारा कहे गए वचन

अय्यूब 2:4-5 शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, “खाल के बदले खाल; परन्तु प्राण के बदले मनुष्य अपना सब कुछ दे देता है। इसलिये केवल अपना हाथ बढ़ाकर उसकी हड्डियाँ और मांस छू, तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा।”

iii. अय्यूब परीक्षा से कैसे निपटता है

अय्यूब 2:9-10 तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, “क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।” उसने उससे कहा, “तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुँह से कोई पाप नहीं किया।

अय्यूब 3:3-4 वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, “बेटे का गर्भ रहा।” वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्‍वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो।

परमेश्वर के मार्ग के प्रति अय्यूब का प्रेम अन्य सभी से बढ़कर है

पवित्र शास्त्र परमेश्वर और शैतान के बीच कहे गए वचन नीचे लिखे अनुसार अंकित करते हैं : “यहोवा ने शैतान से पूछा, ‘क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है कि पृथ्वी पर उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है? यद्यपि तू ने मुझे बिना कारण उसका सत्यानाश करने को उभारा, तौभी वह अब तक अपनी खराई पर बना है’” (अय्यूब 2:3)। इस संवाद में, परमेश्वर वही प्रश्न शैतान के सामने दोहराता है। यह ऐसा प्रश्न है जो हमें प्रथम परीक्षण के दौरान अय्यूब द्वारा जो प्रदर्शित किया और जिया गया था उसके बारे में यहोवा परमेश्वर का सकारात्मक आँकलन दिखाता है, और यह वह आँकलन है जो शैतान के प्रलोभन से होकर गुज़रने से पहले के अय्यूब के बारे में परमेश्वर के आँकलन से भिन्न नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि उसके ऊपर प्रलोभन के आने से पहले, परमेश्वर की नज़रों में अय्यूब पूर्ण था, और इसलिए परमेश्वर ने उसकी और उसके परिवार की रक्षा की थी, और उसे धन्य किया था; वह परमेश्वर की नज़रों में धन्य किए जाने योग्य था। प्रलोभन के पश्चात्, अय्यूब ने अपने होठों से पाप नहीं किया क्योंकि उसने अपनी संपत्ति और अपने बच्चों को गँवा दिया था, बल्कि यहोवा के नाम की निरंतर स्तुति ही करता रहा। उसके वास्तविक आचरण ने परमेश्वर से उसकी वाहवाही करवाई, और इसके कारण, परमेश्वर ने उसे पूरे अंक दिए। क्योंकि अय्यूब की नज़रों में, उसकी संतान या उसकी संपत्ति उससे परमेश्वर का त्याग करवाने के लिए पर्याप्त नहीं थे। दूसरे शब्दों में, उसके हृदय में परमेश्वर के स्थान को उसके बच्चों या संपत्ति के किसी टुकड़े से बदला नहीं जा सकता था। अय्यूब के प्रथम प्रलोभन के दौरान, उसने परमेश्वर को दिखाया कि उसके प्रति उसका प्रेम और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग के प्रति उसका प्रेम अन्य सभी से बढ़कर था। यह मात्र इतना ही है कि इस परीक्षण ने अय्यूब को यहोवा परमेश्वर से पुरस्कार प्राप्त करने और उसके द्वारा उसकी संपत्ति तथा बच्चों को छीन लिए जाने का अनुभव प्रदान किया था।

अय्यूब के लिए, यह एक सच्चा अनुभव था जिसने उसकी आत्मा को धोकर स्वच्छ कर दिया था, यह जीवन का एक बपतिस्मा था जिसने उसके अस्तित्व को परिपूर्ण किया था, और, इससे भी अधिक, यह एक आलीशान भोज था जिसने परमेश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता, और उसके भय को कसौटी पर कसा था। इस प्रलोभन ने अय्यूब की स्थिति एक धनवान पुरुष से ऐसे व्यक्ति में रूपांतरित कर दी जिसके पास कुछ भी नहीं था, और इसने उसे मनुष्यजाति के प्रति शैतान के दुर्व्यवहार का अनुभव भी प्राप्त करने दिया था। उसकी अभावग्रस्तता ने उसे शैतान से घृणा करने को नहीं उकसाया; बल्कि, शैतान की नीच करतूतों में उसने शैतान की कुरूपता और घिनौनापन, और साथ ही परमेश्वर के प्रति शैतान की शत्रुता और विद्रोह भी देखा, और इसने उसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर सदैव डटे रहने के लिए बेहतर ढंग से प्रोत्साहित किया। उसने शपथ ली कि वह संपत्ति, बच्चों या कुटुंबियों जैसे बाहरी कारकों की वजह से कभी परमेश्वर को नहीं त्यागेगा और परमेश्वर के मार्ग की तरफ़ पीठ नहीं फेरेगा, न ही वह कभी शैतान, संपत्ति, या किसी व्यक्ति का दास होगा; यहोवा परमेश्वर के अलावा, कोई भी उसका प्रभु, या उसका परमेश्वर नहीं हो सकता है। ऐसी थीं अय्यूब की आकांक्षाएँ। दूसरी ओर, अय्यूब ने कुछ अर्जित भी किया था : परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए परीक्षणों के बीच उसने प्रचुर धन-संपत्ति प्राप्त की थी।

पिछले कई दशकों के अपने जीवन के दौरान, अय्यूब ने यहोवा के कर्म देखे थे और अपने लिए यहोवा परमेश्वर के आशीष प्राप्त किए थे। वे ऐसे आशीष थे जिन्होंने उसे अत्यंत असहज और ऋणी महसूस करते छोड़ दिया था, क्योंकि वह मानता था कि उसने परमेश्वर के लिए कुछ भी नहीं किया था, फिर भी उसे इतने बड़े आशीष वसीयत में दिए गए थे और उसने इतने अधिक अनुग्रह का आनंद लिया था। इस कारण से, वह प्रायः अपने हृदय में प्रार्थना करता था, यह आशा करते हुए कि वह परमेश्वर का ऋण चुका पाएगा, यह आशा करते हुए कि उसे परमेश्वर के कर्मों और महानता की गवाही देने का अवसर मिलेगा, और यह आशा करते हुए कि परमेश्वर उसकी आज्ञाकारिता की परीक्षा लेगा, और, इससे बढ़कर, यह भी कि उसके विश्वास को शुद्ध किया जा सकता था, जब तक कि उसकी आज्ञाकारिता और उसका विश्वास परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर लेते हैं। फिर, जब परीक्षण अय्यूब के ऊपर आ पड़ा, तो उसने मान लिया कि परमेश्वर ने उसकी प्रार्थनाएँ सुन ली हैं। अय्यूब ने यह अवसर किसी भी अन्य चीज़ से बढ़कर सँजोया, और इस प्रकार उसने इसे हल्के ढंग से बरतने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि उसकी जीवन भर की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो सकती थी। इस अवसर के आगमन का अर्थ था कि उसकी आज्ञाकारिता और परमेश्वर के भय की परीक्षा ली जा सकती थी, और उन्हें शुद्ध किया जा सकता था। इतना ही नहीं, इसका अर्थ था कि अय्यूब के पास परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का एक अवसर था, जो उसे इस प्रकार परमेश्वर के और क़रीब ला रहा था। परीक्षण के दौरान, ऐसे विश्वास और अनुसरण ने उसे और अधिक पूर्ण होने दिया, और परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्राप्त करने दी। अय्यूब परमेश्वर के आशीषों और अनुग्रहों के लिए और अधिक कृतज्ञ हो गया, अपने हृदय में उसने परमेश्वर के कर्मों पर और अधिक स्तुति की झ़ड़ी लगा दी, और वह परमेश्वर के प्रति और अधिक भयभीत और श्रद्धालु था, और परमेश्वर की सुंदरता, महानता तथा पवित्रता के लिए और अधिक लालायित था। इस समय, यद्यपि परमेश्वर की नज़रों में अय्यूब अब भी वह व्यक्ति था जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, फिर भी उसके अनुभवों को मानते हुए, अय्यूब का विश्वास और ज्ञान बहुत तेज़ी से कई गुना बढ़ गया था : उसके विश्वास में बढ़ोतरी हुई थी, उसकी आज्ञाकारिता को पाँव रखने की जगह मिल गई थी, और परमेश्वर के प्रति उसका भय और अधिक गहरा हो चुका था। यद्यपि इस परीक्षण ने अय्यूब की आत्मा और जीवन को रूपांतरित कर दिया, फिर भी ऐसे रूपांतरण ने अय्यूब को संतुष्ट नहीं किया, न ही इसने उसकी आगे की प्रगति को धीमा किया। साथ ही साथ, इस परीक्षण से उसने जो प्राप्त किया था उसका हिसाब लगाते हुए, और स्वयं अपनी कमियों पर विचार करते हुए, उसने ख़ामोशी से प्रार्थना की, अगले परीक्षण के अपने ऊपर आने की प्रतीक्षा करने लगा, क्योंकि वह अपने विश्वास, आज्ञाकारिता, और परमेश्वर के प्रति भय को परमेश्वर के अगले परीक्षण के दौरान ऊँचा उठाने के लिए लालायित था।

परमेश्वर मनुष्य के अंतर्तम विचारों और मनुष्य जो कहता और करता है उस सबका अवलोकन करता है। अय्यूब के विचार यहोवा परमेश्वर के कानों तक पहुँच गए, और परमेश्वर ने उसकी प्रार्थनाएँ सुन लीं, और इस तरह, जैसा अपेक्षित था, अय्यूब के लिए परमेश्वर का अगला परीक्षण आ गया।

अत्यधिक पीड़ा के बीच, अय्यूब मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर की परवाह का सच में अहसास करता है

शैतान से यहोवा परमेश्वर के प्रश्नों के उपरांत, शैतान गुपचुप खुश था। ऐसा इसलिए था क्योंकि शैतान जानता था कि उसे एक बार फिर उस मनुष्य पर हमला करने की अनुमति दी जाएगी जो परमेश्वर की नज़रों में पूर्ण था—शैतान के लिए, यह एक दुर्लभ अवसर था। शैतान अय्यूब के दृढ़ विश्वास को पूरी तरह कमज़ोर करने के लिए इस अवसर का उपयोग करना चाहता था, ताकि वह परमेश्वर में अपना विश्वास गँवा दे और इस प्रकार अब और परमेश्वर का भय न माने या यहोवा के नाम को धन्य न करे। यह शैतान को एक अवसर देता : स्थान या समय कोई भी हो, वह अय्यूब को अपनी आज्ञा के प्रति उपकृत खिलौना बना पाएगा। शैतान ने अपने दुष्ट इरादे तो कोई निशान छोड़े बिना छिपा लिए, परंतु वह अपनी बुरी प्रकृति को काबू में नहीं रख सका। इस सच्चाई का संकेत यहोवा परमेश्वर के वचनों के इसके उत्तर में दिया गया है, जैसा पवित्र शास्त्र में दर्ज है : “शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, ‘खाल के बदले खाल; परन्तु प्राण के बदले मनुष्य अपना सब कुछ दे देता है। इसलिये केवल अपना हाथ बढ़ाकर उसकी हड्डियाँ और मांस छू, तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा’” (अय्यूब 2:4-5)। यह असंभव है कि परमेश्वर और शैतान के बीच इस वार्तालाप से शैतान के विद्वेष का तात्विक ज्ञान और समझ प्राप्त न हो। शैतान की इन भ्रामक बातों को सुनने के बाद, वे सब जो सत्य से प्रेम और बुराई से घृणा करते हैं शैतान की नीचता और निर्लज्जता से निस्संदेह और अधिक नफ़रत करेंगे, शैतान की भ्रांतियों से संत्रस्त और जुगुप्सा महसूस करेंगे, और साथ ही, वे अय्यूब के लिए अथाह प्रार्थनाएँ और सच्ची कामनाएँ करेंगे, विनती करते हुए कि यह खरा मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सके, मन्नत मानते हुए कि परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाला यह मनुष्य सदा के लिए शैतान के प्रलोभनों पर विजय पाए, और परमेश्वर के मार्गदर्शन और उसकी आशीषों के बीच, प्रकाश में जीवन बिताए; इस तरह, ऐसे लोग यह भी कामना करेंगे कि अय्यूब के धार्मिक कर्म सदैव उन लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित कर सकें जो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करते हैं। हालाँकि शैतान का द्वेषपूर्ण इरादा इस उद्घोषणा में देखा जा सकता है, किंतु फिर भी परमेश्वर ने शैतान की “विनती” प्रसन्नचित्त होकर मान ली—परंतु उसने एक शर्त भी रख दी : “सुन, वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना” (अय्यूब 2:6)। चूँकि, इस बार, शैतान ने अय्यूब के माँस और हड्डियों को नुक़सान पहुँचाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाने की माँग की थी, इसलिए परमेश्वर ने कहा, “केवल उसका प्राण छोड़ देना।” इन वचनों का अर्थ यह है कि उसने अय्यूब की देह शैतान को दे दी, परंतु अय्यूब का जीवन परमेश्वर ने रख लिया। शैतान अय्यूब का जीवन नहीं ले सकता था, परंतु इसके अलावा शैतान अय्यूब के विरुद्ध कोई भी उपाय या रीति उपयोग में ला सकता था।

परमेश्वर की अनुमति प्राप्त करने के बाद, शैतान अय्यूब पर झपटा और उसकी चमड़ी को पीड़ा पहुँचाने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया, उसके पूरे शरीर पर पीड़ादायक फोड़े पैदा कर दिए, और अय्यूब ने अपनी चमड़ी पर पीड़ा महसूस की। अय्यूब ने यहोवा परमेश्वर की चमत्कारिकता और पवित्रता की स्तुति की, जिसने शैतान को उसके ढीठपन में और भी अधिक जघन्य बना दिया। क्योंकि वह मनुष्य को पीड़ा पहुँचाने का आनंद महसूस कर चुका था, इसलिए शैतान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और अय्यूब का माँस खरोंच दिया, जिससे उसके पीड़ादायक फोड़े और तीखे हो गए। अय्यूब ने तत्काल अपनी देह पर ऐसी पीड़ा और यंत्रणा महसूस की जिसका कोई सानी नहीं था, और वह अपने हाथों से स्वयं को सिर से पाँव तक मसलने के सिवा और कुछ नहीं कर सका, मानो यह उसके शरीर की इस पीड़ा के द्वारा उसकी आत्मा को पहुँचाए गए इस आघात से उसे राहत दिलाएगा। उसे अहसास हुआ कि परमेश्वर उसकी बगल में खड़े होकर उसे देख रहा था, और उसने अपने को मज़बूत बनाने का भरसक प्रयत्न किया। वह एक बार फिर भूमि पर घुटनों के बल बैठ गया, और कहा : “तू मनुष्य के हृदय के भीतर झाँकता है, तू उसकी दुर्दशा देखता है; उसकी कमज़ोरी तुझे चिंतित क्यों करती है? यहोवा परमेश्वर के नाम की स्तुति हो।” शैतान ने अय्यूब का असहनीय दर्द देखा, परंतु उसने अय्यूब को यहोवा परमेश्वर का नाम त्यागते नहीं देखा। इसलिए उसके टुकड़े-टुकड़े करने को अधीर होकर उसने अय्यूब की हड्डियों में पीड़ा पहुँचाने के लिए जल्दी से अपना आगे हाथ बढाया। तत्क्षण, अय्यूब ने अभूतपूर्व यंत्रणा महसूस की; यह ऐसा था मानो उसका माँस हड्डियों से चीरकर अलग कर दिया गया था, और मानो उसकी हड्डियों को टुकड़े-टुकड़े करके अलग किया जा रहा था। इस अत्यंत दुखदायी पीड़ा ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया कि इससे तो मर जाना बेहतर होता...। इस यंत्रणा को सहने की उसकी क्षमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी...। वह चीखना चाहता था, वह दर्द को कम करने की कोशिश में अपने शरीर की चमड़ी को चीरकर निकाल देना चाहता था—फिर भी उसने अपनी चीखें रोक लीं, और अपने शरीर की चमड़ी को नहीं चीरा, क्योंकि वह शैतान को अपनी कमज़ोरी देखने देना नहीं चाहता था। और इसलिए अय्यूब एक बार फिर घुटनों के बल बैठा, परंतु इस बार उसने यहोवा परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं की। वह जानता था कि यहोवा परमेश्वर अक़्सर उसके सामने, और उसके पीछे, और उसके दोनों तरफ होता था। परंतु उसकी पीड़ा के दौरान, परमेश्वर ने एक बार भी नहीं देखा; उसने अपना चेहरा ढँक लिया था और वह छिपा हुआ था, क्योंकि मनुष्य के उसके सृजन का उसका अभिप्राय मनुष्य के ऊपर पीड़ा बरपाना नहीं था। इस समय, अय्यूब रो रहा था, और इस शारीरिक यंत्रणा को सहने का भरसक प्रयास कर रहा था, फिर भी वह परमेश्वर को धन्यवाद देने से अपने आपको अब और रोक नहीं सका : “मनुष्य पहले धक्के में ही गिर जाता है, वह कमज़ोर और शक्तिहीन है, वह कच्चा और अज्ञानी है—तू उसके प्रति इतना चिंतित और नरमदिल होना क्यों चाहेगा? तू मुझे मारता है, पर ऐसा करने से तुझे तकलीफ़ होती है। मनुष्य में क्या है जो तेरी देखभाल और चिंता के लायक है?” अय्यूब की प्रार्थनाएँ परमेश्वर के कानों तक पहुँच गईं, और परमेश्वर ख़ामोश था, कोई भी आवाज़ किए बिना बस देख रहा था...। हर उपलब्ध चाल आज़माने और उसका कोई फायदा नहीं होने पर, शैतान चुपचाप चला गया, किंतु इससे परमेश्वर द्वारा अय्यूब की परीक्षाओं का अंत नहीं हुआ। चूँकि अय्यूब में प्रकट की गई परमेश्वर की सामर्थ्य सार्वजनिक नहीं की गई थी, इसलिए अय्यूब की कहानी शैतान के पीछे हटने के साथ समाप्त नहीं हुई। अन्य पात्रों के प्रवेश करने के साथ, अभी और भी दर्शनीय दृश्य आने बाकी थे।

अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का एक और आविर्भाव सभी चीजों में उसके द्वारा परमेश्ववर के नाम का गुणगान करना है

अय्यूब ने शैतान के विध्वंस झेले थे, किंतु फिर भी उसने यहोवा परमेश्वर का नाम नहीं तजा। उसकी पत्नी पहली थी जो बाहर आई और, मनुष्य की आँखों को दिखाई दे सकने वाले रूप में शैतान की भूमिका निभाते हुए, उसने अय्यूब पर आक्रमण किया। मूल पाठ इसका वर्णन इस प्रकार करता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा’” (अय्यूब 2:9)। ये वे शब्द थे जो मनुष्य के छद्मभेष में शैतान के द्वारा कहे गए थे। वे एक आक्रमण, और एक आरोप, और साथ ही फुसलावा, एक प्रलोभन, और कलंक भी थे। अय्यूब की देह पर आक्रमण करने में विफल होने पर, फिर शैतान ने उसकी सत्यनिष्ठा पर सीधा हमला किया, वह इसका उपयोग अय्यूब से उसकी सत्यनिष्ठा छुड़वाने, परमेश्वर का त्याग करवाने, और जीते नहीं रहने देने के लिए करना चाहता था। इसलिए शैतान भी अय्यूब को प्रलोभित करने के लिए ऐसे वचनों का उपयोग करना चाहता था : यदि अय्यूब यहोवा का नाम त्याग देता, तो उसे ऐसी यंत्रणा सहने की आवश्यकता नहीं होती, वह अपने को देह की यंत्रणा से मुक्त कर सकता था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने यह कहकर उसे झिड़का, “तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब लंबे समय से इन वचनों को जानता था, परंतु इस समय उनके बारे में अय्यूब के ज्ञान का सत्य सिद्ध हो गया था।

जब उसकी पत्नी ने उसे परमेश्वर को कोसने और मर जाने की सलाह दी, तो उसका आशय था : “तेरा परमेश्वर तुझसे ऐसा ही बर्ताव करता है, तो तू उसे कोसता क्यों नहीं? अभी भी जीवित रहकर तू क्या कर रहा है? तेरा परमेश्वर तेरे प्रति इतना अनुचित है, फिर भी तू कहता है कि ‘यहोवा का नाम धन्य है’। जब तू उसके नाम को धन्य कहता है तो वह तेरे ऊपर आपदा कैसे ला सकता है? जल्दी कर और उसका नाम त्याग दे, और अब से उसका अनुसरण मत करना। इसके बाद, तेरी परेशानियाँ समाप्त हो जाएँगी।” इसी पल, वह गवाही उत्पन्न हुई जो परमेश्वर अय्यूब में देखना चाहता था। कोई साधारण मनुष्य ऐसी गवाही नहीं दे सकता था, न ही हम इसके बारे में बाइबल की किसी अन्य कहानी में पढ़ते हैं—परंतु परमेश्वर ने अय्यूब द्वारा ये वचन कहे जाने के बहुत पहले ही यह देख लिया था। परमेश्वर ने तो इस अवसर का उपयोग बस अय्यूब को सबके सामने यह साबित करने देने के लिए करना चाहा था कि परमेश्वर सही था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने न केवल अपनी सत्यनिष्ठा को नहीं छोड़ा या परमेश्वर को नहीं त्यागा, बल्कि उसने अपनी पत्नी से यह भी कहा : “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” क्या ये वचन बहुत महत्व रखते हैं? यहाँ, केवल एक ही तथ्य इन वचनों का महत्व सिद्ध करने में सक्षम है। इन वचनों का महत्व यह है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा अपने हृदय में स्वीकार किया गया है, ये वे वचन हैं जो परमेश्वर द्वारा वांछित थे, ये वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर सुनना चाहता था, और ये वे परिणाम हैं जिन्हें परमेश्वर देखने को लालायित था; ये वचन अय्यूब की गवाही के तत्व भी हैं। इसमें, अय्यूब की पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहना प्रमाणित हुए थे। अय्यूब की अनमोलता इसमें निहित है कि जब उसे प्रलोभित किया गया था, और यहाँ तक कि जब उसका पूरा शरीर दुःखदायी फोड़ों से ढँक गया था, जब उसने अत्यधिक यंत्रणा सही थी, और जब उसकी पत्नी और कुटुंबियों ने उसे सलाह दी थी, तब भी उसने ऐसे वचन कहे थे। इसे दूसरे ढँग से कहें, तो अपने हृदय में वह मानता था कि, चाहे जो भी प्रलोभन हों, या दारुण दुःख या यंत्रणा चाहे जितनी भी कष्टदायी हो, यहाँ तक कि उसके ऊपर यदि चाहे मृत्यु ही आनी हो, तब भी वह परमेश्वर को नहीं त्यागेगा या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग नहीं ठुकराएगा। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर उसके हृदय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता था, और उसके हृदय में केवल परमेश्वर ही था। यही कारण है कि हम पवित्र शास्त्र में उसके बारे में ऐसे विवरण पढ़ते हैं : इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुँह से कोई पाप नहीं किया। उसने न केवल अपने होंठों से पाप नहीं किया, बल्कि अपने हृदय में उसने परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत भी नहीं की। उसने परमेश्वर के बारे में ठेस पहुँचाने वाले वचन नहीं कहे, न ही उसने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया। न केवल उसके मुँह ने परमेश्वर के नाम को धन्य किया, बल्कि अपने हृदय में भी उसने परमेश्वर के नाम को धन्य किया; उसका मुँह और हृदय एक जैसे थे। यह परमेश्वर द्वारा देखा गया सच्चा अय्यूब था, और बिल्कुल यही वह कारण था कि क्यों परमेश्वर ने अय्यूब को सँजोकर रखा था।

अय्यूब के बारे में लोगों की अनेक ग़लतफ़हमियाँ

अय्यूब द्वारा झेली गई कठिनाईयाँ परमेश्वर द्वारा भेजे गए स्वर्गदूतों का कार्य नहीं थीं, न ही यह परमेश्वर द्वारा अपने हाथ से उत्पन्न था। इसके बजाय, यह परमेश्वर के शत्रु, शैतान, द्वारा व्यक्तिगत रूप से उत्पन्न किया गया था। परिणामस्वरूप, अय्यूब द्वारा झेली गई कठिनाईयों का स्तर अत्यधिक प्रगाढ़ था। फिर भी इस क्षण अय्यूब ने, बिना किसी संशय के, अपने हृदय में परमेश्वर के बारे में अपना प्रतिदिन का ज्ञान, अपने प्रतिदिन के कार्यकलापों के सिद्धांत, और परमेश्वर के प्रति अपनी प्रवृत्ति प्रदर्शित की थी—यही सत्य है। यदि अय्यूब को लुभाया नहीं गया होता, यदि परमेश्वर अय्यूब के ऊपर परीक्षण नहीं लाया होता, तो जब अय्यूब ने कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है,” तब तुम कहते कि अय्यूब पाखंडी है; परमेश्वर ने उसे इतनी सारी संपत्तियाँ दी थीं, इसलिए सहज ही उसने यहोवा के नाम को धन्य कहा। यदि परीक्षाओं से गुज़ारे जाने से पहले, अय्यूब ने कहा होता, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” तो तुम कहते कि अय्यूब बढ़ा-चढ़ा कर बातें कर रहा था, और वह परमेश्वर के नाम को नहीं त्यागेगा क्योंकि उसे परमेश्वर के हाथ से प्रायः धन्य किया गया था। तुम कहते कि यदि परमेश्वर उसके ऊपर विपत्ति लाया होता, तो उसने निश्चित रूप से परमेश्वर के नाम को त्याग दिया होता। फिर भी जब अय्यूब ने अपने को ऐसी परिस्थितियों में पाया जिनकी कोई भी कामना नहीं करेगा या देखना नहीं चाहेगा, परिस्थितियाँ जो कोई नहीं चाहेगा कि उसके ऊपर टूटें, जिनके अपने ऊपर आने से वे डरेंगे, परिस्थितियाँ जिन्हें परमेश्वर भी देखना सहन नहीं कर सकता था, उन परिस्थतियों में भी अय्यूब अपनी सत्यनिष्ठा को थामे रख पाया था : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” और “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” इस समय के अय्यूब के आचरण से सामना होने पर, जो लोग ऊँची-ऊँची बातें करना पसंद करते हैं, और जो शब्द और सिद्धांत बोलना पसंद करते हैं, वे सब अवाक रह जाते हैं। जो केवल भाषण में ही परमेश्वर के नाम का गुणगान करते हैं, किंतु जिन्होंने कभी परमेश्वर की परीक्षाओं को स्वीकार नहीं किया, वे उसी सत्यनिष्ठा द्वारा निंदित किए जाते हैं जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था, और जिन्होंने कभी नहीं माना कि मनुष्य परमेश्वर के मार्ग को दृढ़ता से थामे रख पाता है वे अय्यूब की गवाही द्वारा परखे जाते हैं। इन परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के आचरण और उसके द्वारा बोले गए वचनों से सामना होने पर, कुछ लोग भ्रमित महसूस करेंगे, कुछ लोग ईर्ष्यालु महसूस करेंगे, कुछ लोग संदेहग्रस्त महसूस करेंगे, और यहाँ तक कि कुछ उदासीन भी दिखाई देंगे, अय्यूब की गवाही स्वीकार करने से इनकार कर देंगे क्योंकि वे न केवल उस यंत्रणा को देखते हैं जो परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के ऊपर आ पड़ी थी, और अय्यूब द्वारा बोले गए वचन पढ़ते हैं, बल्कि वे अय्यूब द्वारा उसके ऊपर परीक्षाएँ आने के समय दिखाई गई मानवीय “कमज़ोरी” को भी देखते हैं। इस “कमज़ोरी” को वे अय्यूब की पूर्णता में अपेक्षित अपूर्णता मानते हैं, उस मनुष्य में एक धब्बा जो परमेश्वर की नज़रों में पूर्ण था। कहने का तात्पर्य यह कि यह माना जाता है कि जो लोग पूर्ण होते हैं वे दाग़ या धब्बे से रहित, दोषहीन होते हैं, कि उनमें कोई कमज़ोरी नहीं होती है, उन्हें पीड़ा का ज्ञान नहीं होता है, कि वे कभी अप्रसन्न या उदास महसूस नहीं करते हैं, और वे घृणा या किसी भी बाह्य उग्र व्यवहार से रहित होते हैं; परिणामस्वरूप, लोगों का बड़ा बहुमत नहीं मानता कि अय्यूब सचमुच पूर्ण था। लोग परीक्षाओं के दौरान उसके बहुत-से व्यवहार का अनुमोदन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब ने अपनी संपत्ति और बच्चों को गँवा दिया, तो वह फूट-फूट कर नहीं रोया, जैसा कि लोग कल्पना करते। उसमें “शिष्टचार का अभाव” लोगों को यह सोचने को विवश करता है कि वह भावशून्य था, क्योंकि अपने परिवार के प्रति वह आँसुओं, या लगाव से रहित था। यह आरंभिक बुरी छाप है जो अय्यूब की लोगों पर पड़ती है। वे उसके बाद उसका व्यवहार और भी उलझाने वाला पाते हैं : “बागा फाड़” की व्याख्या लोगों ने परमेश्वर के प्रति उसके अनादर के रूप में की है, और “सिर मुँडाने” का अर्थ ग़लत ढँग से परमेश्वर के प्रति अय्यूब की निंदा और विरोध माना जाता है। अय्यूब के इन शब्दों के अलावा कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है,” लोगों को अय्यूब में ऐसी कोई भी धार्मिकता अलग से दिखाई नहीं देती जिसकी प्रशंसा परमेश्वर द्वारा की गई थी, और इस प्रकार उनके एक बड़े बहुमत द्वारा किया गया अय्यूब का आँकलन अबूझता, ग़लतफ़हमी, संदेह, निंदा, और मात्र सैद्धांतिक स्वीकृति के अलावा कुछ नहीं है। उनमें से कोई भी यहोवा परमेश्वर के इन वचनों को सचमुच समझने और सराहने में समर्थ नहीं है कि अय्यूब पूर्ण और खरा मनुष्य था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।

अय्यूब के बारे में उनकी उपरोक्त धारणा के आधार पर, लोगों में उसकी धार्मिकता को लेकर और भी संदेह हैं, क्योंकि पवित्र शास्त्र में दर्ज अय्यूब के कार्यकलाप और उसका आचरण उतने ज़ोरदार ढँग से मर्मस्पर्शी नहीं हैं जितनी लोगों ने कल्पना की थी। न केवल उसने कोई बड़ा साहसिक कार्य पूरा नहीं किया, बल्कि राख के बीच बैठकर उसने अपने को खुजाने के लिए मटके का एक टुकड़ा भी लिया। यह कार्य भी लोगों को आश्चर्यचकित करता है और उन्हें अय्यूब की धार्मिकता पर संदेह करने—और यहाँ तक कि उसे नकारने—का कारण बनता है, क्योंकि स्वयं को खुजाते समय अय्यूब ने परमेश्वर से न तो प्रार्थना या न ही प्रतिज्ञाएँ कीं; इतना ही नहीं, न ही वह दर्द के आँसू रोते देखा गया। इस समय, लोग अय्यूब की केवल कमज़ोरी ही देखते हैं और उसके सिवा कुछ नहीं देखते, और इसलिए यहाँ तक कि जब वे अय्यूब को यह कहते हुए सुनते हैं, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” तब वे बिल्कुल भावशून्य रह जाते हैं, या अन्यथा दुविधा में पड़ जाते हैं, और अय्यूब के वचनों से उसकी धार्मिकता को अब भी पहचान नहीं पाते हैं। अपने परीक्षणों की यंत्रणा के दौरान अय्यूब लोगों पर जो मूल छाप छोड़ता है वह यह है कि वह न तो दब्बू था और न ही दंभी। लोग उसके व्यवहार के पीछे की उस कहानी को नहीं देखते जो उसके हृदय की गहराइयों में घटी थी, न ही वे उसके हृदय के भीतर परमेश्वर का भय या बुराई से दूर रहने के मार्ग के सिद्धांत का अनुपालन देखते हैं। उसकी स्थिरचित्तता लोगों को यह सोचने को विवश करती है कि उसकी पूर्णता और खरापन खोखले शब्द मात्र थे, कि परमेश्वर के प्रति उसका भय सुनी-सुनाई बात भर थी; इसी बीच, उसने बाह्य रूप से जो “कमज़ोरी” प्रकट की थी, वह उनके ऊपर गहरी छाप छोड़ती है, परमेश्वर जिसे पूर्ण और खरे मनुष्य के रूप में परिभाषित करता है उसके बारे में एक “नया परिप्रेक्ष्य”, और यहाँ तक कि उसके प्रति “एक नई समझ” भी देती है। ऐसा एक “नया परिप्रेक्ष्य” और “नई समझ” तब प्रमाणित होते हैं जब अय्यूब ने अपना मुँह खोला और उस दिन को कोसा जब वह पैदा हुआ था।

यद्यपि उसने जो यंत्रणा झेली उसका स्तर किसी भी मनुष्य के लिए अकल्पनीय और अबूझ है, फिर भी उसने कोई सुनी-सुनाई बात नहीं कही, बल्कि उसने तो स्वयं अपने उपायों से अपने शरीर का दर्द कम भर किया था। जैसा पवित्र शास्त्र में दर्ज है, उसने कहा : “वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, ‘बेटे का गर्भ रहा’” (अय्यूब 3:3)। कदाचित, किसी ने भी इन वचनों को कभी महत्वपूर्ण नहीं माना है, और कदाचित ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन पर ध्यान दिया है। तुम लोगों के विचार से, क्या इनका अभिप्राय यह है कि अय्यूब परमेश्वर का विरोध करता था? क्या वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत हैं? मैं जानता हूँ कि अय्यूब के द्वारा कहे गए इन वचनों के बारे में तुम लोगों में से कइयों के कुछ निश्चित विचार हैं और वे मानते हैं कि यदि अय्यूब पूर्ण और खरा था, तो उसे कोई कमज़ोरी या वेदना नहीं दर्शानी चाहिए थी, और इसके बजाय शैतान के किसी भी आक्रमण का सकारात्मक ढँग से सामना करना ही चाहिए था, और यहाँ तक कि शैतान के प्रलोभनों के सामने मुस्कराना भी चाहिए था। उसे शैतान के द्वारा उसकी देह पर बरपाई गई किसी भी यंत्रणा के प्रति रत्ती भर भी प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए थी, न ही उसे अपने हृदय के भीतर की कोई भावना प्रदर्शित करनी चाहिए थी। उसे कहना चाहिए था कि परमेश्वर इन परीक्षाओं को और कठोर बना दे। यही वह है जो अविचल और सच्चे अर्थ में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहे वाले किसी भी व्यक्ति को प्रदर्शित और धारण करना चाहिए। इस चरम यंत्रणा के बीच, अय्यूब ने अपने जन्म के दिन को कोसने के सिवा कुछ न किया। उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की, और परमेश्वर का विरोध करने का तो उसका और भी कोई इरादा नहीं था। यह कर पाना उतना आसान नहीं है जितना कहना, क्योंकि प्राचीन समयों से लेकर आज तक, किसी ने भी अब तक ऐसे प्रलोभन अनुभव नहीं किए या वह नहीं झेला जो अय्यूब पर टूटा था। तो, किसी को भी अब तक अय्यूब के समान प्रलोभनों से क्यों नहीं गुज़ारा गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि, जैसा कि परमेश्वर इसे देखता है, कोई भी ऐसा उत्तरदायित्व या आदेश वहन करने में समर्थ नहीं है, कोई भी वैसा नहीं कर सकता है जैसा अय्यूब ने किया, और इतना ही नहीं, कोई भी, अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा, ऐसा नहीं कर सकता था कि इतने सब के बाद भी परमेश्वर के नाम को नहीं त्यागे और यहोवा परमेश्वर के नाम को धन्य नहीं कहता रहे, जैसा अय्यूब ने उस समय किया था जब उस पर ऐसी यंत्रणा टूटी थी। क्या कोई यह कर सकता था? जब हम अय्यूब के बारे में ऐसा कहते हैं, तो क्या हम उसके व्यवहार की प्रशंसा कर रहे हैं? वह एक धार्मिक मनुष्य था, और परमेश्वर की ऐसी गवाही दे पाने में समर्थ था, और शैतान को अपना सिर अपने हाथों में लिए भागने को मजबूर करने में समर्थ था, ताकि वह उस पर दोष मढ़ने के लिए फिर कभी परमेश्वर के समक्ष न आए—तो उसकी प्रशंसा करने में क्या ग़लत है? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों के मानक परमेश्वर से भी ऊँचे हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि जब परीक्षाएँ तुम लोगों पर टूटें तब तुम अय्यूब से भी बेहतर करो? अय्यूब की प्रशंसा परमेश्वर द्वारा की गई थी—तुम लोगों को भला क्या आपत्तियाँ हो सकती हैं?

अय्यूब अपने जन्म के दिन को कोसता है क्योंकि वह नहीं चाहता कि परमेश्वर को उसके द्वारा पीड़ा पहुँचे

मैं अक्सर कहता हूँ कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय के भीतर देखता है, जबकि लोग लोगों का बाह्य स्वरूप देखते हैं। चूँकि परमेश्वर लोगों के हृदयों के भीतर देखता है, इसलिए वह उनका सार समझता है, जबकि लोग अन्य लोगों का सार उनके बाह्य स्वरूप के आधार पर परिभाषित करते हैं। जब अय्यूब ने अपना मुँह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा, तब इस कृत्य ने, अय्यूब के तीन मित्रों सहित, सभी आध्यात्मिक महानुभावों को अचंभित कर दिया। मनुष्य परमेश्वर से आया, और उसे जीवन तथा देह के लिए, और साथ ही अपने जन्म के दिन के लिए भी, जो परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया है, आभारी होना चाहिए, और उन्हें कोसना नहीं चाहिए। यह कुछ ऐसा है जिसे साधारण लोग समझ सकते और इसकी परिकल्पना कर सकते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, यह समझ पवित्र और अनुल्लंघनीय है, और यह ऐसा सत्य है जो कभी बदल नहीं सकता है। दूसरी ओर, अय्यूब ने नियम तोड़े : उसने अपने जन्म के दिन को कोसा। यह ऐसा कृत्य है जिसे साधारण लोग सीमा पर करके निषिद्ध क्षेत्र में जाना मानते हैं। अय्यूब न केवल लोगों की समझ और सहानुभूति का अधिकारी नहीं है, बल्कि वह परमेश्वर की क्षमा का भी अधिकारी नहीं है। साथ ही साथ, और भी अधिक लोग अय्यूब की धार्मिकता के प्रति शंकालु हो जाते हैं, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता था कि अपने प्रति परमेश्वर की कृपा ने अय्यूब को आत्म-आसक्त बना दिया था; इसने उसे इतना निर्भीक और उतावला बना दिया था कि उसने न केवल अपने जीवनकाल के दौरान उसे आशीष देने के लिए और उसकी देखभाल करने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद नहीं दिया, बल्कि उसने अपने जन्म के दिन को भी विनाश के लिए शापित कर दिया। यदि यह परमेश्वर के प्रति विरोध नहीं तो क्या है? ऐसे उथलेपन लोगों को अय्यूब के इस कृत्य की निंदा करने के लिए प्रमाण उपलब्ध कराते हैं, परंतु कौन जान सकता है कि अय्यूब उस समय सचमुच क्या सोच रहा था? कौन वह कारण जान सकता है कि अय्यूब ने उस तरह क्यों किया? इसकी अंतर्कथा और कारण तो बस परमेश्वर और स्वयं अय्यूब ही जानते हैं।

जब शैतान ने अय्यूब की हड्डियों में पीड़ा पहुँचाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो बचने के उपायों या प्रतिरोध करने की शक्ति के बिना, अय्यूब उसके चंगुल में फँस गया। उसके शरीर और उसकी आत्मा ने अत्यधिक पीड़ा झेली, और इस पीड़ा ने उसे देह में रह रहे मनुष्य की महत्वहीनता, निर्बलता, और शक्तिहीनता से गहराई से परिचित कराया। साथ ही साथ, उसने गहरी सराहना और समझ भी प्राप्त की कि परमेश्वर मनुष्यजाति की परवाह और देखभाल करने वाले मन का क्यों है। शैतान के चंगुल में, अय्यूब को एहसास हुआ कि मनुष्य, जो हाड़-माँस का है, वास्तव में बहुत ही निर्बल और कमज़ोर है। जब वह अपने घुटनों के बल गिरा और परमेश्वर से प्रार्थना की, तो उसने महसूस किया मानो परमेश्वर अपना चेहरा ढँक रहा और छिप रहा था, क्योंकि परमेश्वर ने उसे पूरी तरह शैतान के हाथ में रख दिया था। साथ ही साथ, परमेश्वर उसके लिए रोया भी, और इतना ही नहीं, वह उसके लिए व्यथित था; परमेश्वर उसकी पीड़ा से पीड़ित, और उसकी चोट से चोटिल था...। अय्यूब ने परमेश्वर की पीड़ा महसूस की, साथ ही यह भी कि परमेश्वर के लिए यह कितना असहनीय था...। अय्यूब परमेश्वर को और अधिक व्यथा पहुँचाना नहीं चाहता था, न ही वह यह चाहता था कि परमेश्वर उसके लिए रोए, परमेश्वर को अपने द्वारा पीड़ित होते देखना तो वह और भी नहीं चाहता था। इस क्षण, अय्यूब बस अपनी देह को उतार देना चाहता था, ताकि इस देह द्वारा पहुँचाई गई पीड़ा को अब और न सहना पड़े, क्योंकि यह उसकी पीड़ा से परमेश्वर का उत्पीड़ित होना रोक देगा—तो भी वह नहीं कर सका, और उसे न केवल देह की पीड़ा, बल्कि परमेश्वर को उद्विग्न नहीं करने की इच्छा की यंत्रणा भी सहनी पड़ी। इन दो पीड़ाओं ने—एक देह से, और एक आत्मा से—अय्यूब पर हृदयविदारक, अत्यंत दारूण पीड़ा बरपाई, और उसे महसूस कराया कि कैसे हाड़-माँस से बने मनुष्य की सीमाएँ उसे कुंठित और असहाय बना सकती हैं। इन परिस्थितियों में, परमेश्वर के लिए उसकी ललक और भी तीव्र हो गई थी, और शैतान के लिए उसकी घृणा और भी गहरी हो गई थी। इस समय, परमेश्वर को उसके वास्ते आँसू-आँसू रोते या दर्द सहते देखने की अपेक्षा, अय्यूब ने मनुष्यों के इस संसार में कभी जन्म ही न लेना पसंद किया होता, बल्कि उसका अस्तित्व ही न होता। वह अपनी देह से गहरी घृणा करने लगा, और अपने आप से, अपने जन्म के दिन से, और यहाँ तक कि उस सबसे जो उससे जुड़ा था ऊबने और थकने लगा। वह अपने जन्म के दिन का और उसके साथ जुड़ी किसी भी चीज़ का अब और उल्लेख किया जाना नहीं चाहता था, और इसलिए उसने अपना मुँह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा : “वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, ‘बेटे का गर्भ रहा।’ वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो” (अय्यूब 3:3-4)। अय्यूब के वचन स्वयं अपने प्रति उसकी घृणा वहन करते हैं, “वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, ‘बेटे का गर्भ रहा’,” और साथ ही उनमें स्वयं अपने प्रति जो दोष उसने महसूस किया वह और परमेश्वर को पीड़ा पहुँचाने के लिए ऋणी होने का बोध भी है, “वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो।” ये दो अंश इस बात की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं कि अय्यूब ने तब कैसा महसूस किया था, और सभी को उसकी पूर्णता और खरापन प्रदर्शित करते हैं। साथ ही साथ, बिल्कुल वैसे ही जैसे अय्यूब ने चाहा था, परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और आज्ञाकारिता, साथ ही परमेश्वर के प्रति उसका भय सचमुच ऊँचे उठ गए थे। निस्संदेह, यह ऊँचा उठना ठीक वही प्रभाव है जिसकी परमेश्वर ने अपेक्षा की थी।

अय्यूब शैतान को हराता है और परमेश्वर की नज़रों में सच्चा मनुष्य बन जाता है

जब अय्यूब पहले-पहल अपनी परीक्षाओं से गुज़रा, तब उसकी सारी संपत्ति और उसके सभी बच्चों को उससे छीन लिया गया था, परंतु इसके परिणामस्वरूप वह गिरा नहीं या उसने ऐसा कुछ नहीं कहा जो परमेश्वर के विरुद्ध पाप था। उसने शैतान के प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर ली थी, और उसने अपनी भौतिक संपत्ति, अपनी संतान और अपनी समस्त सांसारिक संपत्तियों को गँवाने की परीक्षा पर विजय प्राप्त कर ली थी, जिसका तात्पर्य यह है कि वह उस समय परमेश्वर का आज्ञापालन करने में समर्थ था जब उसने चीज़ें उससे ली थीं, और परमेश्वर ने जो किया उसके लिए वह परमेश्वर को धन्यवाद देने और उसकी स्तुति करने में समर्थ था। ऐसा था अय्यूब का आचरण शैतान के प्रथम प्रलोभन के दौरान, और ऐसी ही थी अय्यूब की गवाही भी परमेश्वर के प्रथम परीक्षण के दौरान। दूसरी परीक्षा में, अय्यूब को पीड़ा पहुँचाने के लिए शैतान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, और हालाँकि अय्यूब ने इतनी अधिक पीड़ा अनुभव की जितनी उसने पहले कभी महसूस नहीं की थी, तब भी उसकी गवाही लोगों को अचंभित कर देने के लिए काफी थी। उसने एक बार फिर शैतान को हराने के लिए अपनी सहनशक्ति, दृढ़विश्वास, और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का, और साथ ही परमेश्वर के प्रति अपने भय का उपयोग किया, और उसका आचरण और उसकी गवाही एक बार फिर परमेश्वर द्वारा अनुमोदित और उपकृत की गई। इस प्रलोभन के दौरान, अय्यूब ने अपने वास्तविक आचरण का उपयोग करते हुए शैतान के समक्ष घोषणा की कि देह की पीड़ा परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और आज्ञाकारिता को पलट नहीं सकती है या परमेश्वर के प्रति उसकी निष्ठा और परमेश्वर के भय को छीन नहीं सकती है; इसलिए कि मृत्यु उसके सामने खड़ी है वह न तो परमेश्वर को त्यागेगा या न ही स्वयं अपनी पूर्णता और खरापन छोड़ेगा। अय्यूब के दृढ़संकल्प ने शैतान को कायर बना दिया, उसकी आस्था ने शैतान को भीतकातर और कँपकँपाता छोड़ दिया, जीवन और मरण की लड़ाई के दौरान वह शैतान के विरुद्ध जितनी उत्कटता से लड़ा था उसने शैतान के भीतर गहरी घृणा और रोष उत्पन्न कर दिया; उसकी पूर्णता और खरेपन ने शैतान की ऐसी हालत कर दी कि वह उसके साथ और कुछ नहीं कर सकता था, ऐसे कि शैतान ने उस पर अपने आक्रमण तज दिए और अपने वे आरोप छोड़ दिए जो उसने अय्यूब के विरुद्ध यहोवा परमेश्वर के समक्ष लगाए थे। इसका अर्थ था कि अय्यूब ने संसार पर विजय पा ली थी, उसने देह पर विजय पा ली थी, उसने शैतान पर विजय पा ली थी, और उसने मृत्यु पर विजय पा ली थी; वह पूर्णतः और सर्वथा ऐसा मनुष्य था जो परमेश्वर का था। इन दो परीक्षाओं के दौरान, अय्यूब अपनी गवाही पर डटा रहा, और उसने अपनी पूर्णता और खरेपन को सचमुच जिया, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के अपने जीवन जीने के सिद्धांतों का दायरा व्यापक कर लिया। इन दोनों परीक्षाओं से गुज़रने के पश्चात्, अय्यूब में एक अधिक समृद्ध अनुभव ने जन्म लिया, और इस अनुभव ने उसे और भी अधिक परिपक्व तथा तपा हुआ बना दिया, इसने उसे और मज़बूत, और अधिक दृढ़विश्वास वाला बना दिया, और इसने जिस सत्यनिष्ठा पर वह दृढ़ता से डटा रहा था उसकी सच्चाई और योग्यता के प्रति उसे अधिक आत्मविश्वासी बना दिया। यहोवा परमेश्वर द्वारा ली गई अय्यूब की परीक्षाओं ने उसे मनुष्य के प्रति परमेश्वर की चिंता की गहरी समझ और बोध प्रदान किया, और उसे परमेश्वर के प्रेम की अनमोलता को समझने दिया, जिस बिंदु से परमेश्वर के उसके भय में परमेश्वर के प्रति सोच-विचार और उसके लिए प्रेम भी जुड़ गए थे। यहोवा परमेश्वर की परीक्षाओं ने न केवल अय्यूब को उससे पराया नहीं किया, बल्कि वे उसके हृदय को परमेश्वर के और निकट ले आईं। जब अय्यूब द्वारा सही गई दैहिक पीड़ा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई, तब परमेश्वर यहोवा से जो सरोकार उसने महसूस किया था उसने उसे अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिया। ऐसे आचरण की योजना बहुत पहले से नहीं बनाई गई थी, बल्कि यह उसके हृदय के भीतर से परमेश्वर के प्रति सोच-विचार का और उसके लिए प्रेम का स्वाभाविक प्रकाशन था, यह एक स्वाभाविक प्रकाशन था जो परमेश्वर के प्रति उसके सोच-विचार और उसके लिए उसके प्रेम से आया था। कहने का तात्पर्य यह है कि चूँकि वह स्वयं से घृणा करता था, और वह परमेश्वर को यंत्रणा देने का अनिच्छुक था, और यह सहन नहीं कर सकता था, इसलिए उसका सोच-विचार और प्रेम निःस्वार्थता के बिंदु पर पहुँच गए थे। इस समय, अय्यूब ने परमेश्वर के लिए अपनी लंबे समय से चली आती श्रृद्धा और ललक को और परमेश्वर के प्रति निष्ठा को सोच-विचार और प्रेम करने के स्तर तक ऊँचा उठा दिया था। साथ ही साथ, उसने परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था और आज्ञाकारिता और परमेश्वर के भय को सोच-विचार और प्रेम करने के स्तर तक ऊँचा उठा दिया था। उसने स्वयं को ऐसा कोई कार्य नहीं करने दिया जो परमेश्वर को हानि पहुँचाता, उसने स्वयं को ऐसे किसी आचरण की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाता, और उसने अपने को स्वयं अपने कारणों से परमेश्वर पर कोई दुःख, संताप, या यहाँ तक कि अप्रसन्नता लाने की अनुमति नहीं दी। परमेश्वर की नज़रों में, यद्यपि अय्यूब अब भी वह पहले वाला अय्यूब ही था, फिर भी अय्यूब की आस्था, आज्ञाकारिता, और परमेश्वर के भय ने परमेश्वर को पूर्ण संतुष्टि और आनन्द पहुँचाया था। इस समय, अय्यूब ने वह पूर्णता प्राप्त कर ली थी जिसे प्राप्त करने की अपेक्षा परमेश्वर ने उससे की थी; वह परमेश्वर की नज़रों में सचमुच “पूर्ण और खरा” कहलाने योग्य व्यक्ति बन गया था। उसके धार्मिक कर्मों ने उसे शैतान पर विजय प्राप्त करने दी और परमेश्वर की अपनी गवाही पर डटे रहने दिया। इसलिए, उसके धार्मिक कर्मों ने उसे पूर्ण भी बनाया, और उसके जीवन के मूल्य को पहले किसी भी समय से अधिक ऊँचा उठाने, और श्रेष्ठतर होने दिया, और उन्होंने उसे वह सबसे पहला व्यक्ति भी बना दिया जिस पर शैतान अब और न हमले करेगा और न लुभाएगा। चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए शैतान द्वारा उस पर दोष मढ़े गए और उसे प्रलोभित किया गया था; चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए उसे शैतान को सौंपा गया था; चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए उसने शैतान पर विजय प्राप्त की और उसे हराया था, और वह अपनी गवाही पर डटा रहा था। अब से, अय्यूब ऐसा पहला व्यक्ति बन गया जिसे फिर कभी शैतान को नहीं सौंपा जाएगा, वह सचमुच परमेश्वर के सिंहासन के सम्मुख आ गया और उसने, शैतान की जासूसी या तबाही के बिना, परमेश्वर की आशीषों के अधीन प्रकाश में जीवन जिया...। वह परमेश्वर की नज़रों में सच्चा मनुष्य बन गया था, उसे स्वतंत्र कर दिया गया था ...

अय्यूब के बारे में

अय्यूब परीक्षाओं से होकर कैसे गुज़रा इस बारे में जानने के बाद, तुममें से अधिकांश संभवतः स्वयं अय्यूब के बारे में और अधिक विवरण जानना चाहोगे, विशेष रूप से उस रहस्य के संबंध में जिसके द्वारा उसने परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त की थी। इसलिए आओ, आज हम अय्यूब के बारे में बात करें!

अय्यूब के दैनिक जीवन में हम उसकी पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहना देखते हैं

यदि हमें अय्यूब की चर्चा करनी है, तो हमें उसके बारे में उस आँकलन से ही आरंभ करना चाहिए जो परमेश्वर के मुख से कहा गया था : “उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।”

आओ हम सबसे पहले अय्यूब की पूर्णता और खरेपन के बारे में जानें।

तुम लोग “पूर्ण” और “खरा” शब्दों से क्या समझते हो? क्या तुम मानते हो कि अय्यूब कलंक रहित था, कि वह सम्माननीय था? निस्संदेह, यह “पूर्ण” और “खरे” की शाब्दिक व्याख्या और समझ होगी। परंतु वास्तविक जीवन का परिप्रेक्ष्य अय्यूब की सच्ची समझ से अभिन्न है—वचन, किताबें, और सिद्धांत अकेले कोई उत्तर प्रदान नहीं करेंगे। हम अय्यूब के घरेलू जीवन पर नज़र डालते हुए आरंभ करेंगे, इस पर कि अपने जीवन के दौरान उसका सामान्य आचरण किस प्रकार का था। यह हमें जीवन में उसके सिद्धांतों और उद्देश्यों, और साथ ही उसके व्यक्तित्व और खोज के बारे में बताएगा। आओ अब हम अय्यूब 1:3 के अंतिम वचन पढ़ें : “पूर्वी देशों के लोगों में वह सबसे बड़ा था।” ये वचन जो कह रहे हैं वह यह है कि अय्यूब की हैसियत और प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी, और यद्यपि हमें कारण नहीं बताया गया है कि पूर्वी देशों के लोगों में वह अपनी प्रचुर धन-संपत्ति के कारण सबसे बड़ा था, या इसलिए कि वह पूर्ण और खरा था और परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, कुल मिलाकर, हम इतना जानते हैं कि अय्यूब की हैसियत और प्रतिष्ठा बहुत ही मूल्यवान थी। जैसा कि बाइबल में अभिलिखित है, अय्यूब के बारे में लोगों की पहली धारणा यह थी कि अय्यूब पूर्ण था, कि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, और यह कि उसके पास बहुत धन-संपत्ति और सम्माननीय हैसियत थी। ऐसे परिवेश में और ऐसी परिस्थितियों में रह रहे साधारण व्यक्ति के लिए, अय्यूब का आहार, जीवन की गुणवत्ता, और उसके व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलू अधिकांश लोगों के ध्यान के केंद्रबिंदु होंगे; इसलिए हमें पवित्र शास्त्र आगे पढ़ना होगा : “उसके बेटे बारी-बारी से एक दूसरे के घर में खाने-पीने को जाया करते थे; और अपनी तीनों बहिनों को अपने संग खाने-पीने के लिये बुलवा भेजते थे। जब जब भोज के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़े भोर को उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता था; क्योंकि अय्यूब सोचता था, ‘कदाचित् मेरे लड़कों ने पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया हो।’ इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था” (अय्यूब 1:4-5)। यह अंश हमें दो बातें बताता है : पहली यह कि अय्यूब के पुत्र और पुत्रियाँ, बहुत खाने और पीने के साथ, नियमित रूप से भोज करते थे; दूसरी यह है कि अय्यूब बहुधा होमबलियाँ चढ़ाता था क्योंकि वह अपने पुत्रों और पुत्रियों के लिए प्रायः चिंतित रहता था, इस डर से कि वे पाप कर रहे थे, कि उन्होंने अपने हृदय में परमेश्वर को त्याग दिया था। इसमें दो अलग-अलग प्रकार के लोगों के जीवन का वर्णन किया गया है। पहले, अय्यूब के पुत्र और पुत्रियाँ, जो अपनी संपन्नता के कारण अक़्सर भोज करते थे, ख़र्चीला जीवन जीते थे, वे अपने मन की संतुष्टि तक दाखरस पीते और दावत करते थे, और भौतिक संपदा से उत्पन्न उच्च जीवनशैली का आनंद उठाते थे। ऐसा जीवन जीते हुए, यह अवश्यंभावी ही था कि वे अक़्सर पाप करते होंगे और परमेश्वर को नाराज़ करते होंगे—फिर भी वे अपने को पवित्र नहीं करते थे या होमबलि नहीं चढ़ाते थे। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं था, कि उन्होंने परमेश्वर के अनुग्रहों का कोई विचार नहीं किया, न ही वे परमेश्वर को नाराज़ करने से भयभीत हुए, अपने हृदय में परमेश्वर को त्यागने से तो वे और भी भयभीत नहीं हुए थे। निस्संदेह, हमारा ध्यान अय्यूब के बच्चों पर नहीं है, बल्कि उस पर है जो अय्यूब ने ऐसी चीज़ों से सामना होने पर किया; यह अय्यूब के दैनिक जीवन और उसकी मानवता के सार से जुड़ा दूसरा मामला है, जिसका इस अंश में वर्णन किया गया है। बाइबल अय्यूब के पुत्र और पुत्रियों के भोज का उल्लेख तो करती है, किंतु अय्यूब का कोई उल्लेख नहीं है; केवल इतना कहा गया है कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ अक़्सर एक साथ मिलकर खाते और पीते थे। दूसरे शब्दों में, उसने भोज आयोजित नहीं किए, न ही वह अपने पुत्र और पुत्रियों के साथ ख़र्चीले ढँग से खान-पान में शामिल हुआ। धनाढ्य और कई संपत्तियों और सेवकों से संपन्न होते हुए भी, अय्यूब का जीवन विलासी जीवन नहीं था। वह जीवन जीने के अपने सर्वोत्कृष्ट परिवेश से मोहित नहीं हुआ था, और उसने, अपनी संपदा के कारण, स्वयं को देह के आनंदों से ठूँस-ठूँसकर नहीं भरा या होमबलि चढ़ाना नहीं भूला, और इसके कारण अपने हृदय में परमेश्वर से धीरे-धीरे दूर तो वह और भी नहीं हुआ। तो, स्पष्ट रूप से, अय्यूब अपनी जीवनशैली में अनुशासित था, और उसे मिले परमेश्वर के आशीषों के परिणामस्वरूप वह लोभी या सुखवादी नहीं था, और वह जीवन की गुणवत्ता में तल्लीन नहीं था। इसके बजाय, वह विनम्र और शालीन था, वह ठाठ-बाट का आदी नहीं था, और परमेश्वर के सामने वह सतर्क और सावधान था। वह परमेश्वर के अनुग्रहों और आशीषों पर बहुधा विचार करता था, और परमेश्वर से निरंतर भयभीत रहता था। अपने दैनिक जीवन में, अय्यूब अपने पुत्र और पुत्रियों के हेतु होमबलि चढ़ाने के लिए प्रायः जल्दी उठ जाता था। दूसरे शब्दों में, न केवल अय्यूब स्वयं परमेश्वर का भय मानता था, बल्कि वह यह आशा भी करता था कि उसके बच्चे भी उसी प्रकार परमेश्वर का भय मानेंगे और परमेश्वर के विरुद्ध पाप नहीं करेंगे। अय्यूब की भौतिक संपदा का उसके हृदय में कोई स्थान नहीं था, न ही उसने परमेश्वर द्वारा ग्रहित स्थान लिया था; चाहे वे स्वयं अपने लिए हों या अपने बच्चों के लिए, अय्यूब के सभी दैनिक कार्यकलाप परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से जुड़े थे। यहोवा परमेश्वर का उसका भय उसके मुँह तक ही नहीं रुका, बल्कि वह कुछ ऐसा था जिसे उसने क्रियान्वित किया था और जो उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक और सभी भागों में प्रतिबिंबित होता था। अय्यूब का यह वास्तविक आचरण हमें दिखाता है कि वह ईमानदार था, और उस सार से युक्त था जो न्याय और उन चीज़ो से जो सकारात्मक थीं प्रेम करता था। अय्यूब अपने पुत्रों और पुत्रियों को प्रायः भेजता और पवित्र करता था, इसका अर्थ है कि उसने अपने बच्चों के व्यवहार को स्वीकृति नहीं दी थी या अनुमोदित नहीं किया था; इसके बजाय, अपने हृदय में वह उनके व्यवहार से असंतुष्ट था, और उनकी भर्त्सना करता था। उसने निष्कर्ष निकाला कि उसके पुत्र और पुत्रियों का व्यवहार यहोवा परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला नहीं था, और इसलिए वह प्रायः उनसे यहोवा परमेश्वर के सामने जाने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहता था। अय्यूब के कार्यकलाप हमें उसकी मानवता का दूसरा पक्ष दिखाते हैं, वह पक्ष जिसमें वह कभी उनके साथ नहीं चलता था जो अक्सर पाप करते थे और परमेश्वर को नाराज़ करते थे, बल्कि इसके बजाय वह उनसे दूर रहता था और उनसे बचता था। यद्यपि ये लोग उसके पुत्र और पुत्रियाँ थे, फिर भी उसने अपने सिद्धांत इसलिए नहीं छोड़े कि वे उसके अपने सगे-संबंधी थे, न ही वह अपने मनोभावों के कारण उनके पापों में लिप्त हुआ। अपितु, उसने उनसे स्वीकार करने और यहोवा परमेश्वर की क्षमा प्राप्त करने का आग्रह किया, और उसने उन्हें चेताया कि वे अपने लोभी आनंद के वास्ते परमेश्वर को न तजें। दूसरों के साथ अय्यूब के व्यवहार के सिद्धांत उसके परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के सिद्धांतों से अलग नहीं किए जा सकते हैं। वह उससे प्रेम करता था जो परमेश्वर द्वारा स्वीकृत था, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे; और वह उनसे प्रेम करता था जो अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानते थे, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के विरुद्ध बुराई या पाप करते थे। ऐसा प्रेम और ऐसी घृणा उसके दैनिक जीवन में प्रदर्शित होती थी, और यह अय्यूब का वही खरापन था जिसे परमेश्वर की नज़रों से देखा गया था। स्वाभाविक रूप से, यह उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में दूसरों के साथ उसके रिश्तों में अय्यूब की सच्ची मानवता की अभिव्यक्ति और जीवन यापन भी है, जिसके बारे में हमें अवश्य सीखना चाहिए।

अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी मानवता की अभिव्यंजनाएँ (अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहने को समझना)

हमने ऊपर अय्यूब की मानवता के विभिन्न पहलू बताए हैं जो उसकी परीक्षाओं से पहले उसके दैनिक जीवन में दिखलाई दिए थे। बिना किसी संदेह के, ये विभिन्न अभिव्यंजनाएँ अय्यूब के खरेपन, परमेश्वर के भय, और बुराई से दूर रहने का आरंभिक परिचय और समझ प्रदान करती हैं, और स्वाभाविक रूप से आरंभिक अभिपुष्टि प्रदान करती हैं। मैं “आरंभिक” क्यों कहता हूँ इसका कारण यह है कि अधिकांश लोगों को अब भी अय्यूब के व्यक्तित्व की और जिस सीमा तक उसने परमेश्वर का आज्ञापालन करने और भय मानने के मार्ग का अनुसरण किया था उसकी सच्ची समझ नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अय्यूब के बारे में अधिकांश लोगों की समझ उसके संबंध में उस किंचित अनुकूल धारणा से ज़रा भी गहरे नहीं जाती है जो बाइबल में उसके वचनों से युक्त दो अंशों द्वारा प्रदान की गई है, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” और “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” इस प्रकार, हमें यह समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि अय्यूब ने परमेश्वर की परीक्षाओं का स्वागत करते समय अपनी मानवता को कैसे जिया; इस तरह, अय्यूब की सच्ची मानवता उसकी संपूर्णता में सभी को दिखाई जाएगी।

जब अय्यूब ने सुना कि उसकी संपत्ति चुरा ली गई है, कि उसके पुत्र और पुत्रियों ने अपने प्राण गँवा दिए हैं, और उसके सेवकों को मार दिया गया है, तब उसने नीचे लिखे अनुसार प्रतिक्रिया की : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् करके कहा” (अय्यूब 1:20)। ये वचन हमें एक तथ्य बताते हैं : यह समाचार सुनने के बाद, अय्यूब घबराया नहीं, वह रोया नहीं या उन सेवकों को दोषी नहीं ठहराया जिन्होंने उसे यह समाचार दिया था, और उसने विवरणों की जाँच और सत्यापन करने तथा यह पता लगाने के लिए कि वास्तव में क्या हुआ था अपराध के दृश्य का मुआयना तो और भी नहीं किया। उसने अपनी संपत्तियों के नुक़्सान पर किसी पीड़ा या खेद का प्रदर्शन नहीं किया, न ही वह अपने बच्चों और अपने प्रियजनों को खो बैठने के कारण फूट-फूटकर रोया। इसके विपरीत, उसने अपना बागा फाड़ा, और अपना सिर मुँडाया, और भूमि पर गिर गया, और आराधना की। अय्यूब के कार्यकलाप किसी भी सामान्य मनुष्य के कार्यकलापों से भिन्न हैं। वे बहुत-से लोगों को भ्रमित करते हैं, और वे उन्हें अय्यूब की “नृशंसता” के कारण अपने हृदय में उसे धिक्कारने को विवश करते हैं। अचानक अपनी संपत्तियाँ गँवा बैठने पर, साधारण लोग हृदय विदीर्ण या हताश दिखाई देते हैं—या, कुछ लोग तो गहरे अवसाद में भी जा सकते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोगों के हृदय में उनकी संपत्ति जीवन भर के प्रयास की द्योतक होती है—यह वह है जिस पर उनका जीवित रहना निर्भर होता है, यह वह आशा है जो उन्हें जीवित रखती है; अपनी संपत्ति गँवा देने का अर्थ है कि उनके प्रयास व्यर्थ रहे हैं, कि वे आशा रहित है, और यहाँ तक कि उनका कोई भविष्य भी नहीं है। किसी भी सामान्य व्यक्ति की अपनी संपत्ति और उसके साथ उनका जो निकट संबंध होता है उसके प्रति यही प्रवृत्ति होती है, और यही लोगों की नज़रों में संपत्ति का महत्व भी है। ऐसे में, लोगों की बड़ी बहुसंख्या अपनी संपत्ति गँवा बैठने के प्रति उसकी उदासीन प्रवृत्ति से भ्रमित महसूस करती है। आज, हम इन सभी लोगों का भ्रम दूर करने जा रहे हैं, यह बताकर कि अय्यूब के हृदय में क्या चल रहा था।

सामान्य समझ कहती है कि परमेश्वर द्वारा इतनी प्रचुर संपत्ति दिए जाने के बाद, अय्यूब को परमेश्वर के सामने शर्मिंदा महसूस करना चाहिए, क्योंकि उसने ये संपत्तियाँ गँवा दी थीं, क्योंकि उसने उनकी देखरेख नहीं की थी या उनका ख्याल नहीं रखा था; उसने परमेश्वर द्वारा उसे दी गई संपत्तियाँ सँभालकर नहीं रखी थीं। इस प्रकार, जब उसने सुना कि उसकी संपत्ति चुरा ली गई है, तब उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए थी कि वह अपराध के दृश्य पर जाता और जो गँवा बैठा था उन सब सामानों की सूची बनाता, और फिर परमेश्वर के सामने जाकर स्वीकार करता ताकि वह एक बार फिर परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सके। परंतु अय्यूब ने ऐसा नहीं किया, और उसके पास स्वाभाविक ही ऐसा न करने के अपने कारण थे। अपने हृदय में, अय्यूब गहराई से मानता था कि उसके पास जो कुछ भी था वह सब परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया था, और उसके अपने श्रम की उपज नहीं था। इस प्रकार, वह इन आशीषों को कोई ऐसी चीज़ के रूप में नहीं देखता था जिसका लाभ उठाया जाए, बल्कि इसके बजाय उसने अपने जीवित रहने के सिद्धांतों का सहारा लेकर उस मार्ग को अपनी पूरी शक्ति से थामे रखा जो उसे थामना ही चाहिए था। उसने परमेश्वर की आशीषों को सँजोकर रखा और उनके लिए धन्यवाद दिया, किंतु वह आशीषों से आसक्त नहीं था, न ही उसने और अधिक आशीषों की खोज की। ऐसी थी उसकी प्रवृत्ति संपत्ति के प्रति। उसने आशीष प्राप्त करने की ख़ातिर न तो कभी कुछ किया था, न ही वह परमेश्वर के आशीषों के अभाव या हानि से चिंतित या व्यथित था; वह परमेश्वर के आशीषों के कारण न तो ख़ुशी से पागल या उन्मत्त हुआ था, न ही उसने बारंबार आनंद लिए गए इन आशीषों के कारण परमेश्वर के मार्ग की उपेक्षा की या परमेश्वर का अनुग्रह विस्मृत किया था। अपनी संपत्ति के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति लोगों के समक्ष उसकी सच्ची मानवता को प्रकट करती है : सबसे पहले, अय्यूब लोभी मनुष्य नहीं था, और अपने भौतिक जीवन में संकोची था। दूसरे, अय्यूब को कभी यह चिंता या डर नहीं था कि परमेश्वर उसका सब कुछ ले लेगा, जो उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की उसकी प्रवृत्ति थी; अर्थात, उसकी कोई माँगें या शिकायतें नहीं थीं कि परमेश्वर उससे कब ले अथवा ले या नहीं, और उसने कारण नहीं पूछा कि क्यों ले, बल्कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन भर करने की चेष्टा की। तीसरे, उसने कभी यह नहीं माना कि उसकी संपत्तियाँ उसकी अपनी मेहनत से आई थीं, बल्कि यह कि वे परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई थीं। यह परमेश्वर में अय्यूब की आस्था थी, और उसके दृढ़विश्वास का संकेत है। क्या अय्यूब की मानवता और उसका प्रतिदिन सच्चा अनुसरण उसके बारे में इस तीन-सूत्रीय सारांश में स्पष्ट कर दिया गया है? अय्यूब की मानवता और अनुसरण अपनी संपत्ति गँवा बैठने का सामना करते समय उसके शांत आचरण का अभिन्न भाग थे। यह निश्चित रूप से उसके प्रतिदिन के अनुसरण के कारण ही था कि परमेश्वर की परीक्षाओं के दौरान अय्यूब में यह कहने की कद-काठी और दृढ़विश्वास था, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” ये वचन रातों-रात प्राप्त नहीं किए गए थे, न ही वे बस यूँ ही अय्यूब के दिमाग़ में प्रकट हुए थे। ये वे थे जो उसने कई साल जीवन का अनुभव करने के दौरान देखे और अर्जित किए थे। उन सब लोगों की तुलना में जो परमेश्वर के आशीषों की तलाश भर करते हैं, और जो डरते हैं कि परमेश्वर उनसे ले लेगा, और जो इससे नफ़रत करते और इसकी शिकायत करते हैं, क्या अय्यूब की आज्ञाकारिता एकदम वास्तविक नहीं है? उन सब लोगों की तुलना में जो मानते हैं कि परमेश्वर है, किंतु जिन्होंने कभी नहीं माना कि परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है, क्या अय्यूब अत्यधिक ईमानदारी और खरेपन से युक्त नहीं है?

अय्यूब की तर्कशक्ति

अय्यूब के वास्तविक अनुभवों और उसकी खरी और सच्ची मानवता का अर्थ था कि उसने अपनी संपत्तियाँ और अपने बच्चे गँवा बैठने पर सर्वाधिक तर्कसंगत निर्णय और चुनाव किए थे। ऐसे तर्कसंगत चुनाव उसके दैनिक अनुसरणों और परमेश्वर के कर्मों से अवियोज्य थे जिन्हें वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन के दौरान जानने लगा था। अय्यूब की ईमानदारी ने उसे यह विश्वास कर पाने में समर्थ बनाया कि यहोवा का हाथ सभी चीज़ों पर शासन करता है; उसके विश्वास ने उसे सभी चीज़ों के ऊपर यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को जानने दिया; उसके ज्ञान ने उसे यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को मानने का इच्छुक और समर्थ बनाया; उसकी आज्ञाकारिता ने उसे यहोवा परमेश्वर के प्रति अपने भय में अधिकाधिक सच्चा होने में समर्थ बनाया; उसके भय ने उसे बुराई से दूर रहने में अधिकाधिक वास्तविक बनाया; अंततः, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के कारण अय्यूब पूर्ण बन गया; उसकी पूर्णता ने उसे बुद्धिमान बनाया, और उसे उच्चतम तर्कशक्ति प्रदान की।

हमें इस “तर्कशक्ति” शब्द को कैसे समझना चाहिए? एक शाब्दिक व्याख्या यह है कि इसका अर्थ है अच्छी समझ का होना, अपनी सोच में तार्किक और समझदार होना, अच्छी वाणी, चाल-चलन, और परख का होना, और अच्छे तथा नियमित नैतिक मानदण्ड धारण करना। फिर भी अय्यूब की तर्कशीलता समझा पाना इतना आसान नहीं है। यहाँ जब कहा जाता है कि अय्यूब उच्चतम तर्कशक्ति से युक्त था, तो यह उसकी मानवता और परमेश्वर के समक्ष उसके आचरण के संबंध में कहा जाता है। चूँकि अय्यूब ईमानदार था, इसलिए वह परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास और उसका पालन कर पाता था, जिसने उसे ऐसा ज्ञान दिया जो दूसरों द्वारा अप्राप्य था, और इस ज्ञान ने उसे उस सबको जो उसके ऊपर बीता था अधिक सटीकता से पहचनाने, परखने, और परिभाषित करने में समर्थ बनाया, जिसने उसे अधिक सटीकता और चतुराई से यह चुनने में समर्थ बनाया कि उसे क्या करना है और किसे दृढ़ता से थामे रहना है। कहने का तात्पर्य यह है कि उसके वचन, व्यवहार, उसके कार्यकलापों के पीछे के सिद्धांत, और वह संहिता जिसके अनुसार उसने कार्य किया, सब नियमित, सुस्पष्ट और विनिर्दिष्ट थे, और अंधाधुँध, आवेगपूर्ण या भावनात्मक नहीं थे। वह जानता था कि उस पर जो भी बीते उससे कैसे पेश आना है, वह जानता था कि जटिल घटनाओं के बीच संबंधों को कैसे संतुलित करना और सँभालना है, वह जानता था कि जिस मार्ग को दृढ़ता से थामे रखना चाहिए उसे कैसे थामे रखना है, और, इतना ही नहीं, वह जानता था कि यहोवा परमेश्वर के देने और ले लेने के साथ कैसे पेश आना है। यही अय्यूब की तर्कशक्ति थी। जब वह अपनी संपत्तियों और पुत्रों और पुत्रियों से हाथ धो बैठा, उस समय ठीक इसीलिए कि अय्यूब ऐसी तर्कशक्ति से सुसज्जित था उसने कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।”

जब अय्यूब ने शरीर की अत्यधिक पीड़ा का, और अपने कुटुंबियों और मित्रों के उलाहनों का सामना किया, और जब उसने मृत्यु का सामना किया, तो उसके वास्तविक आचरण ने एक बार फिर लोगों को उसका सच्चा चेहरा दिखाया।

अय्यूब का वास्तविक चेहरा : सच्चा, शुद्ध, और असत्यता से रहित

आओ हम अय्यूब 2:7-8 पढ़ें : “तब शैतान यहोवा के सामने से निकला, और अय्यूब को पाँव के तलवे से ले सिर की चोटी तक बड़े बड़े फोड़ों से पीड़ित किया। तब अय्यूब खुजलाने के लिये एक ठीकरा लेकर राख पर बैठ गया।” यह अय्यूब के उस समय के आचरण का वर्णन है जब उसके शरीर पर दर्दनाक़ फोड़े निकल आए थे। इस समय, अय्यूब राख पर बैठ गया और पीड़ा सहता रहा। किसी ने उसका उपचार नहीं किया, और उसके शरीर का दर्द कम करने में किसी ने उसकी सहायता नहीं की; इसके बजाय, उसने पीड़ादायक फोड़ों के ऊपरी भाग को खुजाने के लिए एक ठीकरे का उपयोग किया। सतही तौर पर, यह अय्यूब की यंत्रणा का एक चरण मात्र था, और इसका उसकी मानवता और परमेश्वर के भय से कोई नाता नहीं है, क्योंकि इस समय अय्यूब ने अपनी मनोदशा और विचार व्यक्त करने के लिए कोई वचन नहीं बोले थे। फिर भी, अय्यूब के कार्यकलाप और उसका आचरण अब भी उसकी मानवता की सच्ची अभिव्यक्ति है। पिछले अध्याय के अभिलेख में हमने पढ़ा था कि अय्यूब पूर्वी देशों के सभी मनुष्यों में सबसे बड़ा था। इस बीच, दूसरे अध्याय का यह अंश हमें दिखाता है कि पूर्व के इस महान मनुष्य ने वास्तव में राख में बैठकर अपने आपको खुजाने के लिए एक ठीकरा लिया। क्या इन दोनों वर्णनों के बीच स्पष्ट अंतर्विरोध नहीं है? यह ऐसा अंतर्विरोध है जो हमें अय्यूब के सच्चे आत्म का दर्शन कराता है : अपनी प्रतिष्ठापूर्ण हैसियत और रुतबे के बावज़ूद, उसने इन चीज़ों से न कभी प्रेम किया था और न ही कभी उन पर ध्यान दिया था; उसने परवाह नहीं की कि दूसरे उसकी प्रतिष्ठा को कैसे देखते हैं, न ही वह अपने कार्यकलापों और आचरण का अपनी प्रतिष्ठा पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ने या न पड़ने के विषय में चिंतित था; वह प्रतिष्ठा के लाभों में लिप्त नहीं हुआ, न ही उसने हैसियत और प्रतिष्ठा के साथ आने वाली महिमा का आनंद उठाया। उसने केवल यहोवा परमेश्वर की नज़रों में अपने मूल्य और अपने जीवन जीने के महत्व की परवाह की। अय्यूब का सच्चा आत्म ही उसका सार था : वह प्रसिद्धि और सौभाग्य से प्रेम नहीं करता था, और वह प्रसिद्धि और सौभाग्य के लिए नहीं जीता था; वह सच्चा, और शुद्ध और असत्यता से रहित था।

अय्यूब द्वारा प्रेम और घृणा का विभाजन

अय्यूब की मानवता का एक और पहलू उसके और उसकी पत्नी के बीच इस संवाद में प्रदर्शित होता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।’ उसने उससे कहा, ‘तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’” (अय्यूब 2:9-10)। वह जो यंत्रणा भुगत रहा था उसे देखकर, अय्यूब की पत्नी ने उसे इस यंत्रणा से बच निकलने में सहायता करने के लिए सलाह देने की कोशिश की, तो भी उसके “भले इरादों” को अय्यूब की स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई; इसके बजाय, उन्होंने उसका क्रोध भड़का दिया, क्योंकि उसने यहोवा परमेश्वर में उसके विश्वास और उसके प्रति उसकी आज्ञाकारिता को नकारा था, और यहोवा परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकारा था। यह अय्यूब के लिए असहनीय था, क्योंकि उसने, दूसरों की तो बात ही छोड़ दें, स्वयं अपने को भी कभी ऐसा कुछ नहीं करने दिया था जो परमेश्वर का विरोध करता हो या उसे ठेस पहुँचाता हो। उस समय वह कैसे चुपचाप रह सकता था जब उसने दूसरों को ऐसे वचन बोलते देखा जो परमेश्वर की निंदा और उसका अपमान करते थे? इस प्रकार उसने अपनी पत्नी को “मूढ़ स्त्री” कहा। अपनी पत्नी के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्रोध और घृणा, और साथ ही भर्त्सना और फटकार की थी। यह अय्यूब की मानवता की—प्रेम और घृणा के बीच अंतर करने की—स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, और उसकी खरी मानवता का सच्चा निरूपण था। अय्यूब में न्याय की एक समझ थी—ऐसी समझ जिसकी बदौलत वह दुष्टता की हवाओं और ज्वारों से नफ़रत करता था, और अनर्गल मतांतरों, बेतुके तर्कों, और हास्यास्पद दावों से घृणा, उनकी भर्त्सना और उन्हें अस्वीकार करता था, और वह स्वयं अपने, सही सिद्धांतों और रवैये को उस समय सच्चाई से थामे रह सका जब उसे भीड़ के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था और उन लोगों द्वारा छोड़ दिया गया था जो उसके क़रीबी थे।

अय्यूब की उदार हृदयता और शुद्ध हृदयता

चूँकि, अय्यूब के आचरण से, हम उसकी मानवता के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त होते देख पाते हैं, तो जब उसने अपने जन्म के दिन को कोसने के लिए अपना मुँह खोला तब हम अय्यूब की मानवता का कौन-सा पहलू देखते हैं? यही वह विषय है जिसे हम नीचे साझा करेंगे।

ऊपर, मैंने अय्यूब द्वारा अपने जन्म के दिन को कोसने की उत्पत्तियों के बारे में बात की है। तुम लोग इसमें क्या देखते हो? यदि अय्यूब कठोर हृदय और प्रेम से रहित होता, यदि वह उत्साहहीन और भावनाहीन होता, और मानवता से वंचित होता, तो क्या वह परमेश्वर के हृदय की इच्छा की परवाह कर सकता था? चूँकि वह परमेश्वर के हृदय की परवाह करता था, क्या इसलिए स्वयं अपने जन्म के दिन का तिरस्कार कर सकता था? दूसरे शब्दों में, यदि अय्यूब कठोर हृदय और मानवता से पूर्णतया रहित होता, तो क्या वह परमेश्वर की पीड़ा से संतप्त हुआ हो सकता था? क्या वह अपने जन्म के दिन को इसलिए कोस सकता था क्योंकि परमेश्वर उसके द्वारा व्यथित हुआ था? उत्तर है, बिल्कुल नहीं! क्योंकि वह दयालु हृदय था, इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर के हृदय की परवाह की थी; क्योंकि उसने परमेश्वर के हृदय की परवाह की थी, इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर की पीड़ा समझ ली थी; क्योंकि वह दयालु हृदय था, इसलिए उसने परमेश्वर की पीड़ा को समझ लेने के परिणामस्वरूप और अधिक यंत्रणा भुगती; क्योंकि उसने परमेश्वर की पीड़ा समझ ली थी, इसलिए वह अपने जन्म के दिन से घृणा करने लगा, और इसलिए उसने अपने जन्म के दिन को कोसा। बाहरी लोगों के लिए, अय्यूब की परीक्षा के दौरान उसका समूचा आचरण अनुकरणीय है। उसका केवल अपने जन्म के दिन को कोसना ही उसकी पूर्णता और खरेपन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, या एक भिन्न आँकलन प्रस्तुत करता है। वास्तव में, यह अय्यूब की मानवता के सार की सबसे सच्ची अभिव्यक्ति थी। उसकी मानवता का सार छिपा या बंद नहीं था, या किसी अन्य के द्वारा संशोधित नहीं था। जब उसने अपने जन्म के दिन को कोसा, तो उसने अपने हृदय की गहराई में उदार हृदयता और शुद्ध हृदयता का प्रदर्शन किया; वह उस जलसोत के समान था जिसका पानी इतना साफ़ और पारदर्शी था कि उसका तल दिखाई देता था।

अय्यूब के बारे में यह सब जानने के बाद, निस्संदेह अधिकांश लोगों के पास अय्यूब की मानवता के सार का समुचित रूप से सटीक और वस्तुनिष्ठ आँकलन होगा। उनके पास अय्यूब की उस पूर्णता और खरेपन की गहरी, व्यावहारिक, और अधिक उन्नत समझ और सराहना भी होनी चाहिए जिसके बारे में परमेश्वर द्वारा कहा गया था। आशा करनी चाहिए कि यह समझ और सराहना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने में लोगों की सहायता करेगी।

परमेश्वर द्वारा अय्यूब को शैतान को सौंपने और परमेश्वर के कार्य के लक्ष्यों के बीच संबंध

यद्यपि अधिकांश लोग अब यह पहचानते हैं कि अय्यूब पूर्ण और खरा था, और वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, किंतु यह पहचान उन्हें परमेश्वर के अभिप्राय की कहीं अधिक समझ प्रदान नहीं करती है। साथ ही अय्यूब की मानवता और अनुसरण से ईर्ष्या करते हुए, वे परमेश्वर के बारे में नीचे लिखा प्रश्न पूछते हैं : अय्यूब इतना पूर्ण और खरा था, लोग उससे इतना अधिक प्यार करते थे, तो परमेश्वर ने उसे शैतान को क्यों सौंप दिया और उसे इतनी अधिक यंत्रणा से क्यों गुज़ारा? ऐसे प्रश्नों का लोगों के हृदयों में उठना निश्चित है—या बल्कि, यह शंका वही प्रश्न है जो अनेक लोगों के हृदयों में है। चूँकि इसने इतने सारे लोगों को चकरा दिया है, इसलिए हमें इस प्रश्न को उठाना और इसे समुचित रूप से स्पष्ट अवश्य करना चाहिए।

वह सब जो परमेश्वर करता है आवश्यक है और असाधारण महत्व रखता है, क्योंकि वह मनुष्य में जो कुछ करता है उसका सरोकार उसके प्रबंधन और मनुष्यजाति के उद्धार से है। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर ने अय्यूब में जो कार्य किया वह भी कोई भिन्न नहीं है, फिर भले ही परमेश्वर की नज़रों में अय्यूब पूर्ण और खरा था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर चाहे जो करता हो या वह जो करता है उसे चाहे जिन उपायों से करता हो, क़ीमत चाहे जो हो, उसका ध्येय चाहे जो हो, किंतु उसके कार्यकलापों का उद्देश्य नहीं बदलता है। उसका उद्देश्य है मनुष्य में परमेश्वर के वचनों, और साथ ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके लिए परमेश्वर की इच्छा को आकार देना; दूसरे शब्दों में, यह मनुष्य के भीतर उस सबको आकार देना है जिसे परमेश्वर अपने सोपानों के अनुसार सकारात्मक मानता है, जो मनुष्य को परमेश्वर का हृदय समझने और परमेश्वर का सार बूझने में समर्थ बनाता है, और मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता को मानने और व्यवस्थाओं का पालन करने देता है, इस प्रकार मनुष्य को परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना प्राप्त करने देता है—यह सब परमेश्वर जो करता है उसमें निहित उसके उद्देश्य का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चूँकि शैतान परमेश्वर के कार्य में विषमता और सेवा की वस्तु है, इसलिए मनुष्य प्रायः शैतान को दिया जाता है; यह वह साधन है जिसका उपयोग परमेश्वर लोगों को शैतान के प्रलोभनों और हमलों में शैतान की दुष्टता, कुरूपता और घृणास्पदता को देखने देने के लिए करता है, इस प्रकार लोगों में शैतान के प्रति घृणा उपजाता है और उन्हें वह जानने और पहचानने में समर्थ बनाता जो नकारात्मक है। यह प्रक्रिया उन्हें शैतान के नियंत्रण से और आरोपों, हस्तक्षेप और हमलों से धीरे-धीरे स्वयं को स्वतंत्र करने देती है—जब तक कि परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान और आज्ञाकारिता, और परमेश्वर में उनके विश्वास और भय के कारण, वे शैतान के हमलों और आरोपों के ऊपर विजय नहीं पा लेते हैं; केवल तभी वे शैतान के अधिकार क्षेत्र से पूर्णतः मुक्त कर दिए गए होंगे। लोगों की मुक्ति का अर्थ है कि शैतान को हरा दिया गया है; इसका अर्थ है कि वे अब और शैतान के मुँह का भोजन नहीं हैं—उन्हें निगलने के बजाय, शैतान ने उन्हें छोड़ दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग खरे हैं, क्योंकि उनमें परमेश्वर के प्रति आस्था, आज्ञाकारिता और भय है, और क्योंकि उन्होंने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ लिया है। वे शैतान को लज्जित करते हैं, वे शैतान को कायर बना देते हैं, और वे शैतान को पूरी तरह हरा देते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने में उनका दृढ़विश्वास, और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और उसका भय शैतान को हरा देता है, और उन्हें पूरी तरह छोड़ देने के लिए शैतान को विवश कर देता है। केवल इस जैसे लोग ही परमेश्वर द्वारा सच में प्राप्त किए गए हैं, और यही मनुष्य को बचाने में परमेश्वर का चरम उद्देश्य है। यदि वे बचाए जाना चाहते हैं, और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह प्राप्त किए जाना चाहते हैं, तो उन सभी को जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं शैतान के बड़े और छोटे दोनों प्रलोभनों और हमलों का सामना करना ही चाहिए। जो लोग इन प्रलोभनों और हमलों से उभरकर निकलते हैं और शैतान को पूरी तरह परास्त कर पाते हैं ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचा लिया गया है। कहने का तात्पर्य यह, वे लोग जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है ये वे लोग हैं जो परमेश्वर की परीक्षाओं से गुज़र चुके हैं, और अनगिनत बार शैतान द्वारा लुभाए और हमला किए जा चुके हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं को समझते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को चुपचाप स्वीकार कर पाते हैं, और वे शैतान के प्रलोभनों के बीच परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को नहीं छोड़ते हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है वे ईमानदारी से युक्त हैं, वे उदार हृदय हैं, वे प्रेम और घृणा के बीच अंतर करते हैं, उनमें न्याय की समझ है और वे तर्कसंगत हैं, और वे परमेश्वर की परवाह कर पाते और वह सब जो परमेश्वर का है सँजोकर रख पाते हैं। ऐसे लोग शैतान की बाध्यता, जासूसी, दोषारोपण या दुर्व्यवहार के अधीन नहीं होते हैं, वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं, उन्हें पूरी तरह मुक्त और रिहा कर दिया गया है। अय्यूब बिल्कुल ऐसा ही स्वतंत्र मनुष्य था, और ठीक यही परमेश्वर द्वारा उसे शैतान को सौंपे जाने का महत्व था।

अय्यूब शैतान द्वारा प्रताड़ित हुआ था, परंतु उसने चिरकालिक स्वतंत्रता और मुक्ति भी प्राप्त की थी, और उसने फिर कभी शैतान की भ्रष्टता, दुर्व्यवहार, और आरोपों से नहीं गुज़रने का, इसके बजाय परमेश्वर के हाव-भाव के प्रकाश में, और उसे दिए गए परमेश्वर के आशीषों के बीच, मुक्त और भारहीन जीवन जीने का अधिकार प्राप्त किया था। कोई भी इस अधिकार को छीन, या नष्ट, या झपट नहीं सकता है। यह अय्यूब को परमेश्वर के प्रति उसके विश्वास, दृढ़निश्चय, और आज्ञाकारिता और उसके भय के बदले दिया गया था; अय्यूब ने पृथ्वी पर आनंद और प्रसन्नता अर्जित करने के लिए और, जैसा कि स्वर्ग द्वारा नियत और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया था, पृथ्वी पर परमेश्वर का सच्चा सृष्ट प्राणी होने के नाते सृष्टिकर्ता की आराधना करने का हस्तक्षेप रहित अधिकार और पात्रता अर्जित करने के लिए अपने जीवन की क़ीमत चुकाई थी। ऐसा ही अय्यूब द्वारा सहन किए गए प्रलोभनों का सबसे बड़ा परिणाम भी था।

अभी जब लोगों को बचाया नहीं गया है, तब शैतान के द्वारा उनके जीवन में प्रायः हस्तक्षेप, और यहाँ तक कि उन्हें नियंत्रित भी किया जाता है। दूसरे शब्दों में, वे लोग जिन्हें बचाया नहीं गया है शैतान के क़ैदी होते हैं, उन्हें कोई स्वतंत्रता नहीं होती, उन्हें शैतान द्वारा छोड़ा नहीं गया है, वे परमेश्वर की आराधना करने के योग्य या पात्र नहीं हैं, शैतान द्वारा उनका क़रीब से पीछा और उन पर क्रूरतापूर्वक आक्रमण किया जाता है। ऐसे लोगों के पास कहने को भी कोई खुशी नहीं होती है, उनके पास कहने को भी सामान्य अस्तित्व का अधिकार नहीं होता, और इतना ही नहीं, उनके पास कहने को भी कोई गरिमा नहीं होती है। यदि तुम डटकर खड़े हो जाते हो और शैतान के साथ संग्राम करते हो, शैतान के साथ जीवन और मरण की लड़ाई लड़ने के लिए शस्त्रास्त्र के रूप में परमेश्वर में अपने विश्वास और अपनी आज्ञाकारिता, और परमेश्वर के भय का उपयोग करते हो, ऐसे कि तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर देते हो और उसे तुम्हें देखते ही दुम दबाने और भीतकातर बन जाने को मज़बूर कर देते हो, ताकि वह तुम्हारे विरुद्ध अपने आक्रमणों और आरोपों को पूरी तरह छोड़ दे—केवल तभी तुम बचाए जाओगे और स्वतंत्र हो पाओगे। यदि तुमने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ने का ठान लिया है, किंतु यदि तुम शैतान को पराजित करने में तुम्हारी सहायता करने वाले शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित नहीं हो, तो तुम अब भी खतरे में होगे। समय बीतने के साथ, जब तुम शैतान द्वारा इतना प्रताड़ित कर दिए जाते हो कि तुममें रत्ती भर भी ताक़त नहीं बची है, तब भी तुम गवाही देने में असमर्थ हो, तुमने अब भी स्वयं को अपने विरुद्ध शैतान के आरोपों और हमलों से पूरी तरह मुक्त नहीं किया है, तो तुम्हारे उद्धार की कम ही कोई आशा होगी। अंत में, जब परमेश्वर के कार्य के समापन की घोषणा की जाती है, तब भी तुम शैतान के शिकंजे में होगे, अपने आपको मुक्त करने में असमर्थ, और इस प्रकार तुम्हारे पास कभी कोई अवसर या आशा नहीं होगी। तो, निहितार्थ यह है कि ऐसे लोग पूरी तरह शैतान की दासता में होंगे।

परमेश्वर की परीक्षाओं को स्वीकार करो, शैतान के प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करो, और परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व प्राप्त करने दो

मनुष्य के चिरकालिक भरण-पोषण और सहारे के अपने कार्य के दौरान, परमेश्वर अपनी इच्छा और अपेक्षाएँ मनुष्य को संपूर्णता में बताता है, और मनुष्य को अपने कर्म, स्वभाव, और वह जो है और उसके पास जो है दिखाता है। उद्देश्य है मनुष्य को कद-काठी से सुसज्जित करना, और मनुष्य को परमेश्वर का अनुसरण करते हुए उससे विभिन्न सत्य प्राप्त करने देना—सत्य जो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा शैतान से लड़ने के लिए दिए गए हथियार हैं। इस प्रकार सुसज्जित, मनुष्य को परमेश्वर की परीक्षाओं का सामना करना ही चाहिए। परमेश्वर के पास मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए कई साधन और मार्ग हैं, किंतु उनमें से प्रत्येक को परमेश्वर के शत्रु, शैतान, के “सहयोग” की आवश्यकता होती है। कहने का तात्पर्य यह, शैतान से युद्ध करने के लिए मनुष्य को हथियार देने के बाद, परमेश्वर मनुष्य को शैतान को सौंप देता है और शैतान को मनुष्य की कद-काठी की “परीक्षा” लेने देता है। यदि मनुष्य शैतान की व्यूह रचनाओं को तोड़कर बाहर निकल सकता है, यदि वह शैतान की घेराबंदी से बचकर निकल सकता है और तब भी जीवित रह सकता है, तो मनुष्य ने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली होगी। परंतु यदि मनुष्य शैतान की व्यूह रचनाओं से छूटने में विफल हो जाता है, और शैतान के आगे समर्पण कर देता है, तो उसने परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की होगी। परमेश्वर मनुष्य के जिस किसी भी पहलू की जाँच करता है, उसकी कसौटी यही होती है कि मनुष्य शैतान द्वारा आक्रमण किए जाने पर अपनी गवाही पर डटा रहता है या नहीं, और उसने शैतान द्वारा फुसलाए जाने पर परमेश्वर को त्याग दिया है या नहीं और शैतान के आगे आत्मसमर्पण करके उसकी अधीनता स्वीकार की है या नहीं। कहा जा सकता है कि मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि वह शैतान को परास्त करके उस पर विजय प्राप्त कर सकता है या नहीं, और वह स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि वह शैतान की दासता पर विजय पाने के लिए परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए हथियार, अपने दम पर, उठा सकता है या नहीं, शैतान को पूरी तरह आस तजकर उसे अकेला छोड़ देने के लिए विवश कर पाता है या नहीं। यदि शैतान आस तजकर किसी को छोड़ देता है, तो इसका अर्थ है कि शैतान फिर कभी इस व्यक्ति को परमेश्वर से लेने की कोशिश नहीं करेगा, फिर कभी इस व्यक्ति पर दोषारोपण और उसके साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा, फिर कभी उन्हें निर्दयतापूर्वक यातना नहीं देगा या आक्रमण नहीं करेगा; केवल इस जैसे किसी व्यक्ति को ही परमेश्वर द्वारा सचमुच प्राप्त किया गया होगा। यही वह संपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को प्राप्त करता है।

अय्यूब की गवाही द्वारा बाद की पीढ़ियों को दी गई चेतावनी और प्रबुद्धता

परमेश्वर द्वारा किसी व्यक्ति को पूरी तरह प्राप्त करने की प्रक्रिया को समझने के साथ ही साथ, लोग परमेश्वर द्वारा अय्यूब को शैतान को सौंपे जाने के लक्ष्य और महत्व को भी समझ लेंगे। लोग अय्यूब की यंत्रणा से अब और परेशान नहीं होते हैं, और उसके महत्व की एक नई समझ उनमें है। वे अब और चिंता नहीं करते हैं कि उन्हें भी अय्यूब जैसे ही प्रलोभन से गुज़ारा जाएगा या नहीं, और वे परमेश्वर के परीक्षणों के आने का अब और विरोध या उन्हें अस्वीकार नहीं करते हैं। अय्यूब की आस्था, आज्ञाकारिता, और शैतान पर विजय पाने की उसकी गवाही लोगों के लिए अत्यधिक सहायता और प्रोत्साहन का स्रोत रहे हैं। वे अय्यूब में अपने स्वयं के उद्धार की आशा देखते हैं, और देखते हैं कि परमेश्वर के प्रति आस्था, और आज्ञाकारिता और उसके भय के माध्यम से, शैतान को हराना, और शैतान के ऊपर हावी होना पूरी तरह संभव है। वे देखते हैं कि जब तक वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को चुपचाप स्वीकार करते हैं, और जब तक सब कुछ खो देने के बाद भी परमेश्वर को न छोड़ने का दृढ़संकल्प और विश्वास उनमें है, तब तक वे शैतान को लज्जित और पराजित कर सकते हैं, और वे देखते हैं कि शैतान को भयभीत करने और हड़बड़ी में पीछे हटने को मजबूर करने के लिए, उन्हें केवल अपनी गवाही पर डटे रहने की धुन और लगन की आवश्यकता है—भले ही इसका अर्थ अपने प्राण गँवाना हो। अय्यूब की गवाही बाद की पीढ़ियों के लिए चेतावनी है, और यह चेतावनी उन्हें बताती है कि यदि वे शैतान को नहीं हराते हैं, तो वे शैतान के दोषारोपणों और छेड़छाड़ से कभी अपना पीछा नहीं छुड़ा पाएँगे, न ही वे कभी शैतान के दुर्व्यवहार और हमलों से बचकर निकल पाएँगे। अय्यूब की गवाही ने बाद की पीढ़ियों को प्रबुद्ध किया है। यह प्रबुद्धता लोगों को सिखाती है कि यदि वे पूर्ण और खरे हैं, केवल तभी वे परमेश्वर का भय मान पाएँगे और बुराई से दूर रह पाएँगे; यह उन्हें सिखाती है कि यदि वे परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं, केवल तभी वे परमेश्वर के लिए ज़ोरदार और गूँजती हुई गवाही दे सकते हैं; यदि वे परमेश्वर के लिए ज़ोरदार और गूँजती हुई गवाही देते हैं, केवल तभी वे शैतान द्वारा कभी नियंत्रित नहीं किए जा सकते हैं और परमेश्वर के मार्गदर्शन तथा सुरक्षा में रहते हैं—केवल तभी उन्हें सचमुच बचा लिया गया होगा। अय्यूब के व्यक्तित्व और जीवन के उसके अनुसरण की बराबरी हर उस व्यक्ति को करनी चाहिए जो उद्धार का अनुसरण करता है। अपने संपूर्ण जीवन के दौरान उसने जो जिया और अपनी परीक्षाओं के दौरान उसका आचरण उन सब लोगों के लिए अनमोल ख़ज़ाना है जो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करते हैं।

अय्यूब की गवाही परमेश्वर को आराम पहुँचाती है

यदि अब मैं तुम लोगों से कहूँ कि अय्यूब प्यारा मनुष्य है, तो हो सकता है कि तुम लोग इन शब्दों के भीतर निहित अर्थ न समझ सको, और हो सकता है कि मैंने ये सब बातें क्यों कही हैं उनके पीछे की भावना को न पकड़ सको; परंतु उस दिन तक प्रतीक्षा करो जब तुम लोगों को अय्यूब के सदृश या वैसी ही परीक्षाओं का अनुभव हो चुका होगा, जब तुम लोग विपत्ति से गुज़र चुके होगे, जब तुम लोग व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा आयोजित परीक्षाओं का अनुभव कर चुके होगे, जब तुम प्रलोभनों के बीच शैतान को जीतने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपना सर्वस्व दे दोगे, और अपमान और कष्ट सहोगे—तब तुम इन वचनों का जो मैं बोलता हूँ अर्थ समझ पाओगे। उस समय, तुम महसूस करोगे कि तुम अय्यूब से बहुत हीनतर हो, तुम महसूस करोगे कि अय्यूब कितना प्यारा है, और अनुकरण करने के योग्य है। जब वह समय आएगा, तब तुम्हें अहसास होगा कि अय्यूब के द्वारा कहे गए वे उत्कृष्ट वचन उस व्यक्ति के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं जो भ्रष्ट है और जो इन समयों में रहता है, और तुम्हें अहसास होगा कि अय्यूब ने जो प्राप्त किया था वह आज के लोगों के लिए प्राप्त करना कितना कठिन है। जब तुम महसूस करोगे कि यह कठिन है, तब तुम समझोगे कि परमेश्वर का हृदय कितना व्याकुल और चिंतित है, तुम समझोगे कि ऐसे लोगों को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत कितनी बड़ी है, और वह कितना बहुमूल्य है जो परमेश्वर मनुष्यजाति के लिए करता और खपाता है। अब जब तुम लोगों ने ये वचन सुन लिए हैं, तब क्या तुम लोगों के पास अय्यूब की सटीक समझ और सही आकलन है? तुम लोगों की नज़रों में, क्या अय्यूब सचमुच पूर्ण और खरा मनुष्य था जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था? मैं विश्वास करता हूँ कि अधिकांश लोग बिल्कुल निश्चित रूप से हाँ कहेंगे। क्योंकि अय्यूब ने जो कुछ किया और प्रकट किया उनके तथ्य किसी भी मनुष्य या शैतान के द्वारा अकाट्य हैं। वे शैतान पर अय्यूब की विजय का सर्वाधिक शक्तिशाली प्रमाण हैं। यह प्रमाण अय्यूब में उत्पन्न हुआ था, और परमेश्वर द्वारा प्राप्त प्रथम गवाही थी। इस प्रकार, जब अय्यूब ने शैतान के प्रलोभनों में विजय प्राप्त की और परमेश्वर के लिए गवाही दी, तब परमेश्वर ने अय्यूब में आशा देखी, और उसके हृदय को अय्यूब से आराम मिला था। सृष्टि के समय से लेकर अय्यूब के समय तक, यह पहली बार था जब परमेश्वर ने सच में अनुभव किया कि आराम क्या होता है, और मनुष्य द्वारा आराम पहुँचाए जाने का क्या अर्थ होता है। यह पहली बार था जब उसने सच्ची गवाही देखी, और प्राप्त की, जो उसके लिए दी गई थी।

मैं भरोसा करता हूँ कि अय्यूब की गवाही और अय्यूब के विभिन्न पहलुओं के वृतांत सुनने के बाद, बहुसंख्यक लोगों के पास अपने सम्मुख उपस्थित मार्ग के लिए योजनाएँ होंगी। इसलिए मैं यह भी भरोसा करता हूँ कि अधिकांश लोग जो व्यग्रता और भय से भरे हैं धीरे-धीरे शरीर और मन दोनों से शांत होने लगेंगे, और थोड़ा-थोड़ा करके राहत महसूस करने लगेंगे।

नीचे दिए गए अंश भी अय्यूब के बारे में वृतांत हैं। आओ हम आगे पढ़ें।

4. अय्यूब कान की श्रवणशक्ति से परमेश्वर के बारे में सुनता है

अय्यूब 9:11 देखो, वह मेरे सामने से होकर तो चलता है परन्तु मुझको नहीं दिखाई पड़ता; और आगे को बढ़ जाता है, परन्तु मुझे सूझ ही नहीं पड़ता है।

अय्यूब 23:8-9 देखो, मैं आगे जाता हूँ परन्तु वह नहीं मिलता; मैं पीछे हटता हूँ, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता; जब वह बाईं ओर काम करता है, तब वह मुझे दिखाई नहीं देता; वह दाहिनी ओर ऐसा छिप जाता है, कि मुझे वह दिखाई ही नहीं पड़ता।

अय्यूब 42:2-6 मैं जानता हूँ कि तू सब कुछ कर सकता है, और तेरी युक्‍तियों में से कोई रुक नहीं सकती। तू ने पूछा, “तू कौन है जो ज्ञानरहित होकर युक्‍ति पर परदा डालता है?” परन्तु मैं ने तो जो नहीं समझता था वही कहा, अर्थात् जो बातें मेरे लिये अधिक कठिन और मेरी समझ से बाहर थीं जिनको मैं जानता भी नहीं था। तू ने कहा, “मैं निवेदन करता हूँ सुन, मैं कुछ कहूँगा, मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, तू मुझे बता।” मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्‍चाताप करता हूँ।

यद्यपि परमेश्वर ने अय्यूब पर अपने को प्रकट नहीं किया है, फिर भी अय्यूब परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता है

इन वचनों का ज़ोर किस बात पर है? क्या तुम में से किसी ने अहसास किया कि यहाँ एक तथ्य है? पहला, अय्यूब कैसे जानता था कि परमेश्वर है? फिर, वह कैसे जानता था कि स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीज़ें परमेश्वर द्वारा शासित होती हैं? एक अंश है जो इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देता है : “मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्चाताप करता हूँ।” इन वचनों से हमें पता चलता है कि परमेश्वर को अपनी आँखों से देखा होने के बजाय, अय्यूब ने किंवदंती से परमेश्वर के बारे में जाना था। यह इन्हीं परिस्थितियों के अंतर्गत था कि उसने परमेश्वर का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना आरंभ किया, जिसके बाद उसने अपने जीवन में, और सभी चीज़ों के बीच, परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि की। यहाँ एक अकाट्य तथ्य है—वह तथ्य क्या है? परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ होने के बावज़ूद, अय्यूब ने परमेश्वर को कभी देखा नहीं था। इसमें, क्या वह आज के लोगों के समान नहीं था? अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, जिसका निहितार्थ है कि यद्यपि उसने परमेश्वर के बारे में सुना था, फिर भी वह नहीं जानता था कि परमेश्वर कहाँ है, या परमेश्वर किसके समान है, या परमेश्वर क्या कर रहा है। ये सब व्यक्तिपरक कारक हैं; तटस्थ भाव से कहें, तो यद्यपि वह परमेश्वर का अनुसरण करता था, फिर भी परमेश्वर कभी उसके सामने प्रकट नहीं हुआ या परमेश्वर ने उससे कभी बात नहीं की। क्या यह तथ्य नहीं है? यद्यपि परमेश्वर ने अय्यूब से बात नहीं की थी, या उसे कोई आदेश नहीं दिए थे, फिर भी अय्यूब ने सभी चीज़ों के बीच, और उन किंवदंतियों में जिनके माध्यम से अय्यूब ने अपने कान की श्रवणशक्ति से परमेश्वर के बारे में सुना था, परमेश्वर का अस्तित्व देखा था और उसकी संप्रभुता को निहारा था, जिसके पश्चात उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का जीवन प्रारंभ किया था। ऐसे थे वे उद्गम और प्रक्रिया जिनके द्वारा अय्यूब ने परमेश्वर का अनुसरण किया था। परंतु वह चाहे जितना परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता हो, उसने अपनी सत्यनिष्ठा को चाहे जितनी दृढ़ता से थामे रखा हो, फिर भी परमेश्वर कभी उसके समक्ष प्रकट नहीं हुआ। आओ हम यह अंश पढ़ें। उसने कहा, “देखो, वह मेरे सामने से होकर तो चलता है परन्तु मुझको नहीं दिखाई पड़ता; और आगे को बढ़ जाता है, परन्तु मुझे सूझ ही नहीं पड़ता है” (अय्यूब 9:11)। ये वचन जो कह रहे हैं वह यह है कि अय्यूब ने परमेश्वर को अपने आसपास महसूस किया हो सकता है या नहीं किया हो सकता है—परंतु वह परमेश्वर को कभी देख नहीं पाया था। ऐसे भी समय थे जब वह परमेश्वर के अपने सामने से होकर गुज़रने, या कुछ करने, या मनुष्य का मार्गदर्शन करने की कल्पना करता था, किंतु वह कभी जानता नहीं था। परमेश्वर मनुष्य पर तब आता है जब वह इसकी अपेक्षा नहीं कर रहा होता है; मनुष्य नहीं जानता है कि परमेश्वर कब उस पर आता है, या वह कहाँ उस पर आता है, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर को देख नहीं सकता है, और इस प्रकार, मनुष्य के लिए, परमेश्वर उससे छिपा हुआ है।

परमेश्वर में अय्यूब का विश्वास इस तथ्य से डोलता नहीं है कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ है

पवित्र शास्त्र के नीचे लिखे अंश में, फिर अय्यूब कहता है, “देखो, मैं आगे जाता हूँ परन्तु वह नहीं मिलता; मैं पीछे हटता हूँ, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता; जब वह बाईं ओर काम करता है, तब वह मुझे दिखाई नहीं देता; वह दाहिनी ओर ऐसा छिप जाता है, कि मुझे वह दिखाई ही नहीं पड़ता” (अय्यूब 23:8-9)। इस वृतांत में, हमें पता चलता है कि अय्यूब के अनुभवों में, परमेश्वर पूरे समय उससे छिपा रहा था; परमेश्वर उसके सामने खुलकर प्रकट नहीं हुआ था, न ही उसने खुलकर उससे कोई वचन कहे थे, फिर भी अपने हृदय में, अय्यूब को परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में पूरा विश्वास था। वह हमेशा यही मानता था कि शायद परमेश्वर उसके आगे-आगे चल रहा है, या शायद उसके बगल में कुछ कर रहा है, और यह कि यद्यपि वह परमेश्वर को देख नहीं सकता था, किंतु परमेश्वर उसके बगल में था और उसकी सभी चीज़ों को शासित कर रहा था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, परंतु वह अपने विश्वास के प्रति सच्चा रह पाता था, जो कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर पाता था। दूसरे लोग ऐसा क्यों नहीं कर पाते थे? ऐसा इसलिए था क्योंकि परमेश्वर ने अय्यूब से बात नहीं की या उसके सामने प्रकट नहीं हुआ, और यदि उसने सच्चे अर्थ में विश्वास नहीं किया होता, तो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर न तो आगे बढ़ा सकता था, न ही उसे दृढ़ता से थामे रह सकता था। क्या यह सच नहीं है? जब तुम अय्यूब को ये वचन कहते पढ़ते हो तब तुम कैसा महसूस करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि अय्यूब की पूर्णता और खरापन, और परमेश्वर के समक्ष उसकी धार्मिकता सच हैं, और परमेश्वर की ओर से की गई कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं? परमेश्वर ने अय्यूब के साथ भले ही अन्य लोगों के समान ही व्यवहार किया था, और उसके सामने प्रकट नहीं हुआ या उससे बात नहीं की थी, तब भी अय्यूब अपनी सत्यनिष्ठा को दृढ़ता से थामे रहा था, तब भी परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता था, और इससे बढ़कर, वह परमेश्वर को नाराज़ करने के अपने भय के फलस्वरूप परमेश्वर के समक्ष बारंबार होमबलि चढ़ाता था और प्रार्थना करता था। परमेश्वर को देखे बिना परमेश्वर का भय मानने की अय्यूब की क्षमता में, हम देखते हैं कि वह सकारात्मक चीज़ों से कितना प्रेम करता था, और उसका विश्वास कितना दृढ़ और वास्तविक था। इसलिए कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ था उसने परमेश्वर के अस्तित्व को नकारा नहीं, न ही इसलिए कि उसने उसे कभी देखा नहीं था उसने अपना विश्वास खोया और परमेश्वर को त्यागा। इसके बजाय, सभी चीज़ों पर शासन करने के परमेश्वर के छिपे हुए कार्य के बीच, उसने परमेश्वर के अस्तित्व का अहसास किया था, और परमेश्वर की संप्रभुता और सामर्थ्य को महसूस किया था। इसलिए कि परमेश्वर उससे छिपा हुआ था उसने खरा होना नहीं छोड़ा, न ही इसलिए कि परमेश्वर उसके सामने प्रकट नहीं हुआ था उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग त्यागा। अय्यूब ने कभी नहीं कहा कि अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए परमेश्वर उसके सामने खुलकर प्रकट हो, क्योंकि उसने सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर की संप्रभुता के दर्शन पहले ही कर लिए थे, और वह विश्वास करता था कि उसने वे आशीष और अनुग्रह प्राप्त कर लिए थे जिन्हें अन्य लोगों ने प्राप्त नहीं किया था। यद्यपि परमेश्वर उससे छिपा रहा, फिर भी परमेश्वर में अय्यूब का विश्वास कभी डगमगाया नहीं था। इस प्रकार, उसने वह फसल काटी जो अन्य किसी ने नहीं काटी थी : परमेश्वर की स्वीकृति और परमेश्वर का आशीष।

अय्यूब परमेश्वर के नाम को धन्य करता है और आशीषों या आपदा के बारे में नहीं सोचता है

एक तथ्य है जिसका पवित्र शास्त्र की अय्यूब की कहानियों में कभी उल्लेख नहीं किया गया है, और यही तथ्य आज हमारे ध्यान का केंद्रबिंदु होगा। यद्यपि अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था या स्वयं अपने कानों से परमेश्वर के वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब के हृदय में परमेश्वर का स्थान था। परमेश्वर के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्या थी? जैसा पहले उल्लेख किया गया है, यह थी, “यहोवा का नाम धन्य है।” उसके द्वारा परमेश्वर के नाम को धन्य कहना बेशर्त, संदर्भ से निरपेक्ष था, और किसी तर्क से बंधा नहीं था। हम देखते हैं कि अय्यूब ने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था, उसे परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होने दिया था; अपने हृदय में वह जो सोचता था, वह जो निर्णय लेता था, और वह जिसकी योजना बनाता था वह सब परमेश्वर के लिए खुला छोड़ दिया गया था और परमेश्वर से बंद नहीं रखा गया था। उसका हृदय परमेश्वर के विरोध में खड़ा नहीं हुआ था, और उसने परमेश्वर से कभी नहीं कहा कि वह उसके लिए कुछ करे या उसे कुछ दे, और उसने अंधाधुँध इच्छाएँ नहीं पालीं कि परमेश्वर की उसकी आराधना से उसे कुछ न कुछ प्राप्त जाए। उसने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, न ही उसे कोई वचन बोलते, कोई आज्ञा देते, कोई शिक्षा देते, या उसे किसी चीज़ का निर्देश देते सुना था। आज के वचनों में, जब परमेश्वर ने उसे सत्य के संबंध में कोई प्रबुद्धता, मार्गदर्शन या पोषण नहीं दिया था, उसके लिए परमेश्वर के प्रति ऐसा ज्ञान और प्रवृत्ति रख पाना—यह बहुमूल्य था, और उसका ऐसी चीज़ें प्रदर्शित करना परमेश्वर के लिए पर्याप्त था, और उसकी गवाही परमेश्वर द्वारा सराही और सँजोई गई थी। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा या व्यक्तिगत रूप से उसे कोई शिक्षा देते नहीं सुना था, परंतु परमेश्वर के लिए उसका हृदय और वह स्वयं उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक अनमोल थे जो परमेश्वर के सामने केवल गहन सिद्धांतों की शब्दावली में बोल सकते थे, जो केवल शेखी बघार सकते थे, और बलिदान चढ़ाने की बात कर सकते थे, परंतु जिनके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान कभी नहीं था, और जिन्होंने कभी सच में परमेश्वर का भय नहीं माना था। क्योंकि अय्यूब का हृदय शुद्ध था, और परमेश्वर से छिपा हुआ नहीं था, और उसकी मानवता ईमानदार और दयालु हृदय थी, और वह न्याय से और जो सकारात्मक था उससे प्रेम करता था। केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही जो ऐसे हृदय और मानवता से युक्त था, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर पाने में समर्थ था, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता देख सकता था, उसका अधिकार और सामर्थ्य देख सकता था, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता प्राप्त करने में समर्थ था। केवल इस जैसा व्यक्ति ही परमेश्वर के नाम की सच्ची स्तुति कर सकता था। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह यह नहीं देखता था कि परमेश्वर उसे आशीष देगा या उसके ऊपर आपदा लाएगा, क्योंकि वह जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ से नियंत्रित होता है, और यह कि मनुष्य का चिंता करना मूर्खता, अज्ञानता, या तर्कहीनता का, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के प्रति संदेह का, और परमेश्वर का भय न मानने का संकेत है। अय्यूब का ज्ञान ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। तो, क्या परमेश्वर के बारे में अय्यूब का सैद्धांतिक ज्ञान तुम लोगों से अधिक था? चूँकि उस समय परमेश्वर का कार्य और उसके कथन बहुत ही कम थे, इसलिए परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना कोई आसान बात नहीं थी। अय्यूब के द्वारा ऐसी उपलब्धि बहुत कठिनाई से प्राप्त बड़ी उपलब्धि थी। उसने परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया था, न ही कभी परमेश्वर को बोलते सुना था, न ही परमेश्वर का चेहरा देखा था। वह परमेश्वर के प्रति ऐसी प्रवृत्ति रख पाया था तो यह पूरी तरह उसकी मानवता और उसके व्यक्तिगत अनुसरण का परिणाम था, ऐसी मानवता और अनुसरण जो आज के लोगों में नहीं हैं। इस प्रकार, उस युग में, परमेश्वर ने कहा, “क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा मनुष्य और कोई नहीं है।” उस युग में, परमेश्वर ने पहले ही उसके बारे में ऐसा आँकलन कर लिया था, और ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच चुका था। आज तो यह और भी कितना अधिक सत्य होता?

यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से छिपा हुआ है, किंतु मनुष्य के लिए उसे जानने हेतु सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर के कर्म पर्याप्त हैं

अय्यूब ने परमेश्वर का चेहरा नहीं देखा था या परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन नहीं सुने थे, उसने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के कार्य का अनुभव तो और भी नहीं किया था, तो भी परमेश्वर के प्रति उसका भय और उसकी परीक्षाओं के दौरान उसकी गवाही सभी लोगों द्वारा देखी जाती है, और वे परमेश्वर द्वारा प्रेम की जाती, उसे आनंदित करती, और उसके द्वारा प्रशंसित होती हैं, और लोग उनसे ईर्ष्या, और उनकी प्रशंसा करते हैं, और उससे भी अधिक, उनकी स्तुति गाते हैं। उसके जीवन के बारे में कुछ भी महान या असाधारण नहीं था : किसी भी साधारण मनुष्य के समान ही, उसने अनुल्लेखनीय जीवन जिया था, सूर्य उगने पर काम पर बाहर जाना और सूर्य अस्त होने पर विश्राम के लिए लौट आना। अंतर यह है कि अपने जीवन के अनेक अनुल्लेखनीय दशकों के दौरान, उसने परमेश्वर के मार्ग की अंतर्दृष्टि प्राप्त की थी, और परमेश्वर की महान सामर्थ्य और संप्रभुता का इस तरह अहसास किया और उसे समझ लिया था जैसा पहले कभी किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं किया था। वह किसी साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक चतुर नहीं था, उसका जीवन विशेष रूप से सुदृढ़ नहीं था, इसके अतिरिक्त, न ही उसके पास अदृश्य विशेष कौशल थे। यद्यपि जो उसके पास था वह ऐसा व्यक्तित्व था जो ईमानदार, दयालु हृदय, और खरा था, ऐसा व्यक्तित्व जो निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीज़ों से प्रेम करता था—इनमें से कुछ भी बहुसंख्यक साधारण लोगों के पास नहीं है। उसने प्रेम और घृणा के बीच भेद किया, उसमें न्याय का बोध था, वह अटल और दृढ़ था, और अपने सोच-विचार के विवरणों पर सूक्ष्मता से ध्यान देता था। इस प्रकार, पृथ्वी पर अपने अनुल्लेखनीय समय के दौरान उसने वे सब असाधारण चीज़ें देखीं जो परमेश्वर ने की थीं, और उसने परमेश्वर की महानता, पवित्रता और धार्मिकता देखी, उसने मनुष्य के लिए परमेश्वर का सरोकार, अनुग्रहशीलता, और संरक्षण देखा, और उसने सर्वोच्च परमेश्वर की माननीयता और अधिकार देखा। अय्यूब क्यों इन चीज़ों को प्राप्त कर पाया था जो किसी भी साधारण मनुष्य से परे थीं, इसका पहला कारण यह था कि उसके पास शुद्ध हृदय था, और उसका हृदय परमेश्वर का था, और सृष्टिकर्ता द्वारा मार्गदर्शित होता था। दूसरा कारण था उसका अनुसरण : अवगुणरहित और पूर्ण होने का अनुसरण, और ऐसा व्यक्ति होने का अनुसरण जो स्वर्ग की इच्छा का पालन करता हो, जिसे परमेश्वर द्वारा प्रेम किया जाता हो, और जो बुराई से दूर रहता हो। अय्यूब ने परमेश्वर को देखने या परमेश्वर के वचन सुनने में असमर्थ होते हुए भी इन चीज़ों को धारण और इनका अनुसरण किया; यद्यपि उसने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, फिर भी वह उन उपायों को जानने लगा था जिनसे परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है; और उसने उस बुद्धि को समझ लिया था जिससे परमेश्वर ऐसा करता है। यद्यपि उसने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब जानता था कि मनुष्य को फल देने और मनुष्य से ले लेने के सारे कर्म परमेश्वर से आते हैं। हालाँकि उसके जीवन के वर्ष किसी भी साधारण व्यक्ति के वर्षों से भिन्न नहीं थे, फिर भी उसने अपने जीवन की अनुल्लेखनीयता से सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के अपने ज्ञान को, या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग के अपने अनुसरण को प्रभावित नहीं होने दिया। उसकी नज़रों में, सभी चीज़ों के विधानों में परमेश्वर के कर्म समाए थे, और परमेश्वर की संप्रभुता व्यक्ति के जीवन के किसी भी भाग में देखी जा सकती थी। उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, परंतु वह यह अहसास कर पाता था कि परमेश्वर के कर्म हर जगह हैं, और पृथ्वी पर अपने अनुल्लेखनीय समय के दौरान, अपने जीवन के प्रत्येक कोने में वह परमेश्वर के असाधारण और चमत्कारिक कर्म देख पाता और उनका अहसास कर पाता था, और वह परमेश्वर की चमत्कारिक व्यवस्थाओं को देख सकता था। परमेश्वर की अदृश्यता और मौन ने परमेश्वर के कर्मों के अय्यूब के बोध में रुकावट नहीं डाली, न ही उन्होंने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के उसके ज्ञान को प्रभावित किया। उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन के दौरान, उसका जीवन हर चीज़ में छिपे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का बोध था। अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसने परमेश्वर के हृदय की आवाज़ और परमेश्वर के वचन सुने और समझे थे, उस परमेश्वर के जो सभी चीज़ों के बीच मौन रहकर भी अपने हृदय की आवाज़ और अपने वचन सभी चीज़ों के विधि-विधानों को शासित करने के द्वारा व्यक्त करता है। तो, तुम देखो, कि यदि लोगों के पास अय्यूब के समान ही मानवता और अनुसरण हो, तो वे अय्यूब के समान बोध और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और अय्यूब के समान ही सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की समझ और ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। परमेश्वर अय्यूब के समक्ष प्रकट नहीं हुआ था या परमेश्वर ने उससे बात नहीं की थी, किंतु अय्यूब पूर्ण, और खरा होने, तथा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के मनुष्य के समक्ष प्रकट हुए या उससे बात किए बिना भी, सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर के कर्म और सभी चीज़ों के ऊपर उसकी संप्रभुता मनुष्य को परमेश्वर के अस्तित्व, सामर्थ्य और अधिकार से अवगत होने के लिए पर्याप्त है, और परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करवाने के लिए पर्याप्त हैं। चूँकि अय्यूब जैसा साधारण मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग अर्जित कर पाता था, इसलिए परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक साधारण मनुष्य को भी ऐसा कर पाना चाहिए। हालाँकि ये शब्द तार्किक निष्कर्ष की तरह लग सकते हैं, फिर भी ये चीज़ों के विधि-विधानों की अवहेलना नहीं करते हैं। तो भी तथ्य अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रहे हैं : ऐसा प्रतीत होगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना अय्यूब और केवल अय्यूब के लिए परिरक्षित नहीं है। “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” का उल्लेख होने पर लोग सोचते हैं कि यह केवल अय्यूब द्वारा ही किया जाना चाहिए, मानो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग अय्यूब के नाम के साथ चस्पा हो गया था और दूसरों के साथ इसका कोई लेना-देना नहीं था। इसका कारण स्पष्ट है : चूँकि केवल अय्यूब ही ऐसा व्यक्तित्व रखता था जो ईमानदार, दयालु हृदय, और खरा था, और जो निष्पक्षता और धार्मिकता तथा उन चीज़ों से जो सकारात्मक थीं प्रेम करता था, इस प्रकार केवल अय्यूब ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण कर सका था। तुम सबने इसके निहितार्थ अवश्य समझ लिए होंगे—चूँकि कोई भी उस मानवता से युक्त नहीं है जो ईमानदार, दयालु हृदय, और खरी है, और जो निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम करती है, इसलिए कोई भी न परमेश्वर का भय मान सकता है और न बुराई से दूर रह सकता है, और इस प्रकार लोग कभी परमेश्वर का आनंद प्राप्त नहीं कर सकते हैं या परीक्षाओं का सामना नहीं कर सकते हैं। इसका यह भी अर्थ है कि अय्यूब के अपवाद के साथ, सभी लोग अब भी शैतान द्वारा घेरे और फुसलाए जाते हैं; वे सब शैतान द्वारा उसके दोषारोपण, आक्रमण और दुर्व्यवहार के भागी बनाए जाते हैं। वे ही हैं जिन्हें शैतान निगलने की कोशिश करता है, और वे सब स्वतंत्रता से रहित, शैतान के द्वारा बंधक बनाए गए क़ैदी हैं।

यदि मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के प्रति शत्रुता हो, तो वह कैसे परमेश्वर का भय मान सकता और बुराई से दूर रह सकता है?

चूँकि आज के लोगों में अय्यूब जैसी मानवता नहीं है, इसलिए उनकी प्रकृति और सार, और परमेश्वर के प्रति उनकी मनोवृत्ति क्या है? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? क्या वे बुराई से दूर रहते हैं? वे जो परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते हैं उनका सार केवल तीन शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है : “परमेश्वर के शत्रु।” तुम लोग ये तीन शब्द अक़्सर कहते हो, किंतु उनका वास्तविक अर्थ तुम लोगों ने कभी नहीं जाना है। “परमेश्वर के शत्रु” शब्दों का सार है : वे यह नहीं कह रहे हैं कि परमेश्वर मनुष्य को शत्रु के रूप में देखता है, बल्कि यह कि मनुष्य परमेश्वर को शत्रु के रूप में देखता है। पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं : “मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ...” प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है “परमेश्वर में विश्वास” की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति और सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह अपना हृदय अपने पास ही रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा। अब आओ हम फिर अय्यूब को देखें। सबसे पहले, क्या उसने परमेश्वर के साथ कोई सौदा किया? क्या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को दृढ़ता से थामे रहने में उसकी कोई छिपी हुई मंशा थी? उस समय, क्या परमेश्वर ने आने वाले अंत के बारे में किसी से बात की थी? उस समय, परमेश्वर ने किसी से भी अंत के बारे में प्रतिज्ञाएँ नहीं की थीं, और यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। क्या आज के लोग अय्यूब के साथ तुलना में कहीं टिकते हैं? उनमें बहुत ही अधिक असमानता है, वे अलग-अलग स्तरों पर हैं। यद्यपि अय्यूब को परमेश्वर का अधिक ज्ञान नहीं था, फिर भी उसने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था और यह परमेश्वर का था। उसने परमेश्वर के साथ कभी सौदा नहीं किया, और उसकी परमेश्वर के प्रति कोई अनावश्यक इच्छाएँ या माँगें नहीं थीं; इसके बजाय, वह विश्वास करता था कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया।” यही वह था जो उसने जीवन के अनेक वर्षों के दौरान परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को सच्चाई से थामे रहने से देखा और प्राप्त किया था। इसी प्रकार, उसने वह परिणाम भी प्राप्त किया जो इन वचनों में दर्शाया गया है : “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” ये दो वाक्य वह थे जो उसने अपने जीवन के अनुभवों के दौरान परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप देखे और जानना आरंभ किए थे, और वे उसके सबसे ताक़तवर हथियार भी थे जिनसे उसने शैतान के प्रलोभनों के दौरान विजय प्राप्त की थी, और वे परमेश्वर की गवाही पर उसके दृढ़ता से डटे रहने की नींव थे। इस बिंदु पर, क्या तुम लोग अय्यूब की एक प्यारे व्यक्ति के रूप में परिकल्पना करते हो? क्या तुम लोग ऐसा व्यक्ति बनने की आशा करते हो? क्या तुम लोग शैतान के प्रलोभनों से गुज़ारे जाने से डरते हो? क्या तुम लोग परमेश्वर से तुम लोगों को अय्यूब के समान ही परीक्षाओं से गुज़ारने की प्रार्थना करने का संकल्प लेते हो? बिना संदेह, अधिकांश लोग ऐसी चीज़ों के लिए प्रार्थना करने का साहस नहीं करेंगे। तो यह स्पष्ट है कि तुम लोगों की आस्था दयनीय रूप से तुच्छ है; अय्यूब की तुलना में, तुम लोगों की आस्था उल्लेख के योग्य भी नहीं है। तुम लोग परमेश्वर के शत्रु हो, तुम लोग परमेश्वर का भय नहीं मानते हो, तुम लोग परमेश्वर के लिए अपनी गवाही पर डटे रह पाने में असमर्थ हो, और तुम शैतान के हमलों, आरोपों और प्रलोभनों पर विजय पाने में असमर्थ हो। वह क्या है जो तुम लोगों को परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने के योग्य बनाता है? अय्यूब की कहानी सुनने और मनुष्य को बचाने में परमेश्वर का अभिप्राय और मनुष्य के उद्धार का अर्थ समझने के बाद, क्या अब तुम लोगों में अय्यूब के समान परीक्षण स्वीकार करने का विश्वास है? क्या तुममें स्वयं को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करने देने का थोड़ा-सा संकल्प नहीं होना चाहिए?

परमेश्वर की परीक्षाओं के बारे में आशंकाएँ मत रखो

अय्यूब की परीक्षाएँ समाप्त होने पर उसकी गवाही मिलने के बाद, परमेश्वर ने संकल्प लिया कि वह अय्यूब के समान लोगों का एक समूह—या एक से अधिक समूह—प्राप्त करेगा, इसके अतिरिक्त उसने संकल्प लिया कि वह शैतान को फिर कभी, परमेश्वर से होड़ करते हुए, उन्हीं साधनों का उपयोग करके जिनके द्वारा उसने अय्यूब को लुभाया था, उस पर आक्रमण और उसके साथ दुर्व्यवहार किया था, किसी अन्य व्यक्ति पर आक्रमण या उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं करने देगा; परमेश्वर ने शैतान को फिर कभी मनुष्य के साथ, जो कमज़ोर, मूर्ख और अज्ञानी है, ऐसी चीज़ें नहीं करने दीं—बस इतना काफ़ी था कि शैतान ने अय्यूब को लुभाया था! शैतान को लोगों के साथ चाहे जैसा मनचाहा दुर्व्यवहार नहीं करने देना यह परमेश्वर की अनुकंपा है। परमेश्वर के लिए, इतना काफ़ी था कि अय्यूब ने शैतान के प्रलोभन और दुर्व्यवहार झेले थे। परमेश्वर ने शैतान को फिर कभी ऐसी चीज़ें करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं उनका जीवन और सब कुछ परमेश्वर द्वारा शासित और आयोजित किया जाता है, और शैतान परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इच्छानुसार बहकाने का अधिकारी नहीं है—तुम लोगों को यह बात स्पष्ट होनी चाहिए! परमेश्वर मनुष्य की कमज़ोरी का ध्यान रखता है, और उसकी मूर्खता तथा अज्ञान को समझता है। यद्यपि, इसलिए कि मनुष्य को पूरी तरह बचाया जा सके, परमेश्वर को उसे शैतान के हाथों में सौंपना पड़ता है, परंतु परमेश्वर मनुष्य को कभी शैतान द्वारा मूर्ख मानकर छले जाते और प्रताड़ित होते देखने का इच्छुक नहीं है, और वह मनुष्य को हमेशा कष्ट भुगतते देखना नहीं चाहता है। मनुष्य परमेश्वर द्वारा सृजित किया गया था, और परमेश्वर मनुष्य से संबंधित सब कुछ शासित और व्यवस्थित करे, यह स्वर्ग द्वारा आदेशित है और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है; यह परमेश्वर का उत्तरदायित्व है, और यह वह अधिकार है जिसके द्वारा परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है! परमेश्वर शैतान को मनुष्य के साथ मनमाने ढंग से दुर्व्यवहार और बुरा बर्ताव नहीं करने देता है, वह मनुष्य को भटकाने के लिए शैतान को नानाविध साधनों का प्रयोग नहीं करने देता है, और इससे भी बढ़कर, वह मनुष्य पर परमेश्वर की संप्रभुता में शैतान को हस्तक्षेप नहीं करने देता है, न ही वह शैतान को उन विधि-विधानों को कुचलने और नष्ट करने देता है जिनके द्वारा परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, मनुष्यजाति का प्रबंधन करने और बचाने के परमेश्वर के महान कार्य की तो बात ही छोड़ दें! वे जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, और वे जो परमेश्वर की गवाही देने में समर्थ हैं, परमेश्वर की छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना का मर्म और साकार रूप हैं, साथ ही उसके छह हज़ार वर्षों के कार्य के उसके प्रयासों का इनाम है। परमेश्वर इन लोगों को यूँ ही शैतान को कैसे दे सकता है?

लोग परमेश्वर के परीक्षणों को लेकर प्रायः चिंतित और भयभीत रहते हैं, तो भी वे हर समय शैतान के फंदे में रह रहे होते हैं, और ख़तरों से भरे क्षेत्र में रह रहे होते हैं जिसमें उन पर शैतान द्वारा आक्रमण और दुर्व्यवहार किया जाता है—मगर वे नहीं जानते भय क्या है, और अविचलित रहते हैं। चल क्या रहा है? परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास केवल उन चीज़ों तक ही सीमित है जिन्हें वह देख सकता है। उसमें मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम और सरोकार की, या मनुष्य के प्रति उसकी सहृदयता और सोच-विचार की रत्ती भर भी सराहना नहीं है। यदि परमेश्वर की परीक्षाओं, न्याय और ताड़ना, तथा प्रताप और कोप के प्रति थोड़ी-सी घबराहट और डर को छोड़ दें, तो मनुष्य को परमेश्वर के अच्छे अभिप्रायों की रत्ती भर भी समझ नहीं है। परीक्षाओं का उल्लेख होने पर, लोगों को लगता है मानो परमेश्वर के छिपे हुए इरादे हैं, और कुछ तो यह तक मानते हैं कि परमेश्वर बुरे षडयंत्रों को प्रश्रय देता है, इस बात से अनभिज्ञ कि परमेश्वर वास्तव में उनके साथ क्या करेगा; इस प्रकार, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता के बारे में चीखने-चिल्लाने के साथ-साथ, वे मनुष्य के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता और मनुष्य के लिए उसकी व्यवस्थाओं को रोकने और उनका विरोध करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं सब करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि यदि वे सावधान नहीं रहे तो उन्हें परमेश्वर द्वारा गुमराह कर दिया जाएगा, कि यदि वे अपने भाग्य पर पकड़ नहीं बनाए रखते हैं तो जो कुछ उनके पास है वह सब परमेश्वर द्वारा ले लिया जा सकता है, और यहाँ तक कि उनका जीवन भी समाप्त किया जा सकता है। मनुष्य शैतान के खेमे में है, परंतु वह शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किए जाने की कभी चिंता नहीं करता है, और उसके साथ शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है परंतु वह शैतान द्वारा बंधक बनाए जाने से भी कभी नहीं डरता है। वह कहता रहता है कि वह परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करता है, मगर उसने परमेश्वर में कभी भरोसा नहीं किया है या विश्वास नहीं किया है कि परमेश्वर सचमुच मनुष्य को शैतान के पंजों से बचाएगा। यदि, अय्यूब के समान, मनुष्य परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाता है, और अपना संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर के हाथों में सौंप सकता है, तो क्या मनुष्य का अंत अय्यूब के समान ही नहीं होगा—परमेश्वर के आशीषों की प्राप्ति? यदि मनुष्य परमेश्वर का शासन स्वीकार और उसके प्रति समर्पण कर पाता है, तो इसमें खोने के लिए क्या है? इस प्रकार, मैं सुझाव देता हूँ कि तुम लोग अपने कार्यकलापों में सावधान रहो, और उस सब के प्रति चौकन्ने रहो जो तुम लोगों पर आने ही वाला है। तुम लोग उतावले या आवेगी न बनो, और परमेश्वर तथा लोगों, विषयों, और वस्तुओं के साथ, जिनकी उसने तुम लोगों के लिए व्यवस्था की है, अपने गर्म खून या अपनी स्वाभाविकता पर निर्भर करते हुए, या अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं के अनुसार व्यवहार मत करो; परमेश्वर के कोप को भड़काने से बचने के लिए, तुम लोगों को अपने कार्यकलापों में सचेत होना ही चाहिए, और अधिक प्रार्थना तथा खोज करनी चाहिए। यह याद रखो!

इसके बाद, हम देखेंगे कि अपनी परीक्षाओं के पश्चात् अय्यूब कैसा था।

5. अपनी परीक्षाओं के पश्चात् अय्यूब

अय्यूब 42:7-9 ऐसा हुआ कि जब यहोवा ये बातें अय्यूब से कह चुका, तब उसने तेमानी एलीपज से कहा, “मेरा क्रोध तेरे और तेरे दोनों मित्रों पर भड़का है, क्योंकि जैसी ठीक बात मेरे दास अय्यूब ने मेरे विषय कही है, वैसी तुम लोगों ने नहीं कही। इसलिये अब तुम सात बैल और सात मेढ़े छाँटकर मेरे दास अय्यूब के पास जाकर अपने निमित्त होमबलि चढ़ाओ, तब मेरा दास अय्यूब तुम्हारे लिये प्रार्थना करेगा, क्योंकि उसी की प्रार्थना मैं ग्रहण करूँगा; और नहीं, तो मैं तुम से तुम्हारी मूढ़ता के योग्य बर्ताव करूँगा, क्योंकि तुम लोगों ने मेरे विषय मेरे दास अय्यूब की सी ठीक बात नहीं कही।” यह सुन तेमानी एलीपज, शूही बिलदद और नामाती सोपर ने जाकर यहोवा की आज्ञा के अनुसार किया, और यहोवा ने अय्यूब की प्रार्थना ग्रहण की।

अय्यूब 42:10 जब अय्यूब ने अपने मित्रों के लिये प्रार्थना की, तब यहोवा ने उसका सारा दुःख दूर किया, और जितना अय्यूब के पास पहले था, उसका दुगना यहोवा ने उसे दे दिया।

अय्यूब 42:12 यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।

अय्यूब 42:17 अन्त में अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया।

वे जो परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं परमेश्वर द्वारा दुलार से देखे जाते हैं, जबकि वे जो मूर्ख हैं परमेश्वर द्वारा दीन-हीन के रूप में देखे जाते हैं

अय्यूब 42:7-9 में, परमेश्वर कहता है कि अय्यूब उसका दास है। अय्यूब का उल्लेख करने के लिए उसके द्वारा “दास” शब्द का प्रयोग उसके हृदय में अय्यूब का महत्व दर्शाता है; यद्यपि परमेश्वर ने अय्यूब को कुछ ऐसा कहकर नहीं पुकारा था जो और अधिक सम्माननीय होता, फिर भी परमेश्वर के हृदय के भीतर अय्यूब के महत्व से इस उपाधि का कोई संबंध नहीं था। यहाँ “दास” अय्यूब के लिए परमेश्वर का दिया उपनाम है। परमेश्वर द्वारा “मेरे दास अय्यूब” का बहुत बार उल्लेख दिखाता है कि वह अय्यूब से कितना प्रसन्न था। यद्यपि परमेश्वर ने “दास” शब्द के पीछे निहित अर्थ की बात नहीं की, फिर भी “दास” शब्द की परमेश्वर की परिभाषा पवित्र शास्त्र के इस अंश के उसके वचनों में देखी जा सकती है। परमेश्वर ने सबसे पहले तेमानी एलीपज से कहा : “मेरा क्रोध तेरे और तेरे दोनों मित्रों पर भड़का है, क्योंकि जैसी ठीक बात मेरे दास अय्यूब ने मेरे विषय कही है, वैसी तुम लोगों ने नहीं कही।” यह पहली बार है जब परमेश्वर ने ये वचन स्पष्ट रूप से लोगों से कहे थे कि उसने वह सब स्वीकार किया जो अय्यूब ने परमेश्वर द्वारा अपनी परीक्षाओं के बाद कहा और किया था, और यह पहली बार है जब उसने अय्यूब द्वारा कहे और किए गए सब कुछ की सटीकता और औचित्य की पुष्टि की थी। परमेश्वर एलीपज और दूसरों के ग़लत, और बेतुके वार्तालाप के कारण क्रोधित था, क्योंकि, अय्यूब के समान, वे परमेश्वर का प्रकटन नहीं देख सके थे या उन वचनों को नहीं सुन सके थे जो उसने उनके जीवन में कहे थे, इसके अतिरिक्त अय्यूब को परमेश्वर का ऐसा सटीक ज्ञान था, जबकि वे परमेश्वर की इच्छा का उल्लंघन करते हुए और वे जो कुछ करते थे उनमें उसके धैर्य की परीक्षा लेते हुए, आँख मूँदकर परमेश्वर के बारे में केवल अनुमान ही लगा सके थे। परिणामस्वरूप, अय्यूब के द्वारा जो किया और कहा गया था उसे स्वीकार करने के साथ ही साथ, परमेश्वर दूसरों के प्रति कुपित हो गया, क्योंकि उनमें वह न केवल परमेश्वर के भय की कोई वास्तविकता नहीं देख पाया था, बल्कि वे जो कुछ कहते थे उसमें भी उसने परमेश्वर के भय के बारे में कुछ नहीं सुना था। और इसलिए इसके बाद परमेश्वर ने उनसे नीचे लिखी माँगें कीं : “इसलिये अब तुम सात बैल और सात मेढ़े छाँटकर मेरे दास अय्यूब के पास जाकर अपने निमित्त होमबलि चढ़ाओ, तब मेरा दास अय्यूब तुम्हारे लिये प्रार्थना करेगा, क्योंकि उसी की प्रार्थना मैं ग्रहण करूँगा; और नहीं, तो मैं तुम से तुम्हारी मूढ़ता के योग्य बर्ताव करूँगा।” इस अंश में परमेश्वर एलीपज और दूसरों से कुछ ऐसा करने के लिए कह रहा है जो उन्हें उनके पापों से मुक्ति देगा, क्योंकि उनकी मूढ़ता यहोवा परमेश्वर के विरुद्ध पाप थी, और इस प्रकार उन्हें अपनी ग़लतियों का सुधार करने के लिए होमबलि चढ़ानी पड़ी थी। होमबलियाँ प्रायः परमेश्वर को चढ़ाई जाती हैं, परंतु इन होमबलियों के बारे में असामान्य बात यह है कि वे अय्यूब को चढ़ाई गई थीं। अय्यूब को परमेश्वर द्वारा इसलिए स्वीकार किया गया था क्योंकि उसने अपनी परीक्षाओं के दौरान परमेश्वर के लिए गवाही दी थी। इस बीच, अय्यूब के इन मित्रों को उसकी परीक्षाओं के समय के दौरान उजागर किया गया था; उनकी मूर्खता के कारण, परमेश्वर द्वारा उनकी भर्त्सना की गई थी, और उन्होंने परमेश्वर का क्रोध भड़काया था, और परमेश्वर द्वारा दण्डित किए जाने चाहिए—अय्यूब के सामने होमबलि चढ़ाने के द्वारा दण्डित किए गए—जिसके बाद अय्यूब ने उनके लिए प्रार्थना की कि उनकी तरफ़ से परमेश्वर का दण्ड और कोप हट जाए। परमेश्वर का अभिप्राय उन्हें लज्जित करना था, क्योंकि वे ऐसे लोग नहीं थे जो परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते थे, और उन्होंने अय्यूब की सत्यनिष्ठा की भर्त्सना की थी। एक दृष्टि से, परमेश्वर उन्हें बता रहा था कि उसने उनके कार्यकलाप स्वीकार नहीं किए थे, किंतु अय्यूब को अत्यधिक स्वीकार किया और उससे प्रसन्न हुआ था; दूसरी दृष्टि से, परमेश्वर उन्हें बता रहा था कि परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाना मनुष्य को परमेश्वर के समक्ष ऊँचा उठा देता है, कि मनुष्य अपनी मूर्खता के कारण परमेश्वर की घृणा का भागी बनता है, और इसके कारण परमेश्वर को नाराज़ करता है, और वह परमेश्वर की नज़रों में दीन-हीन और नीच है। ये दो प्रकार के लोगों की परमेश्वर द्वारा दी गई परिभाषाएँ हैं, वे इन दो प्रकार के लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्तियाँ हैं, और वे इन दो प्रकार के लोगों के महत्व और प्रतिष्ठा के बारे में परमेश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर ने अय्यूब को भले ही अपना दास कहा था, फिर भी परमेश्वर की नज़रों में यह दास परमप्रिय था, और उसे दूसरों के लिए प्रार्थना करने और उनकी ग़लतियों को क्षमा करने का अधिकार प्रदान किया गया था। यह दास परमेश्वर से सीधे बातचीत कर पाता और सीधे परमेश्वर के समक्ष आ पाता था, उसकी हैसियत दूसरों की तुलना में अधिक ऊँची और सम्माननीय थी। यही परमेश्वर द्वारा बोले गए “दास” शब्द का सच्चा अर्थ है। अय्यूब को उसके द्वारा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की वजह से यह विशेष सम्मान दिया गया था, और दूसरों को परमेश्वर द्वारा दास नहीं कहा गया तो इसका कारण यह है कि वे परमेश्वर का भय नहीं मानते थे और बुराई से दूर नहीं रहते थे। परमेश्वर की ये दो स्पष्ट रूप से भिन्न प्रवृत्तियाँ ही दो प्रकार के लोगों के प्रति उसकी प्रवृत्तियाँ हैं : वे लोग जो परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाते हैं और उसकी नज़रों में अनमोल माने जाते हैं, जबकि वे लोग जो मूर्ख हैं परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं, बुराई से दूर रहने में अक्षम हैं, और परमेश्वर की कृपा प्राप्त नहीं कर पाते हैं; वे प्रायः परमेश्वर की घृणा और भर्त्सना के भागी बनते हैं, और वे परमेश्वर की नज़रों में दीन-हीन हैं।

परमेश्वर अय्यूब को अधिकार प्रदान करता है

अय्यूब ने अपने मित्रों के लिए प्रार्थना की, और उसके बाद, अय्यूब की प्रार्थनाओं की वजह से, परमेश्वर उनसे उनकी मूर्खता के अनुसार नहीं निपटा—उसने उन्हें दण्ड नहीं दिया या उनसे कोई बदला नहीं लिया। ऐसा क्यों था? ऐसा इसलिए था क्योंकि परमेश्वर के दास अय्यूब द्वारा उनके लिए की गई प्रार्थनाएँ परमेश्वर के कानों तक पहुँच गई थीं; परमेश्वर ने उन्हें क्षमा कर दिया था क्योंकि उसने अय्यूब की प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया था। तो, इसमें हम क्या देखते हैं? जब परमेश्वर किसी को धन्य करता है, तो वह उन्हें बहुत-से पुरस्कार देता है, और केवल भौतिक पुरस्कार ही नहीं : परमेश्वर उन्हें अधिकार भी देता है, और दूसरों के लिए प्रार्थना करने का अधिकारी बनाता है, और परमेश्वर उन लोगों के अपराधों को भूल जाता और अनदेखा कर देता है, क्योंकि वह इन प्रार्थनाओं को सुन लेता है। यह वही अधिकार है जो परमेश्वर ने अय्यूब को दिया। उनके तिरस्कार को रोकने के लिए अय्यूब की प्रार्थनाओं के माध्यम से, यहोवा परमेश्वर ने उन मूर्ख लोगों को लज्जित किया—जो, निश्चित ही, एलीपज और दूसरों के लिए उसका विशेष दण्ड था।

अय्यूब को एक बार फिर परमेश्वर द्वारा धन्य किया जाता है, और वह फिर कभी शैतान द्वारा दोषारोपित नहीं किया जाता है

यहोवा परमेश्वर के कथनों के बीच ऐसे वचन हैं कि “तुम लोगों ने मेरे विषय मेरे दास अय्यूब की सी ठीक बात नहीं कही।” वह क्या था जो अय्यूब ने कहा था? यह वह था जिसके बारे में हमने पहले बात की थी, और साथ ही अय्यूब की पुस्तक में वचनों के अनेक पन्नों में बताया गया है जिनमें अय्यूब द्वारा बोला गया अंकित है। वचनों के इन अनेक पन्नों में से सभी में, अय्यूब को परमेश्वर के बारे में कभी एक बार भी कोई शिकायत या संदेह नहीं है। वह बस परिणाम की प्रतीक्षा करता है। यह वह प्रतीक्षा है जो आज्ञाकारिता की उसकी प्रवृत्ति है, जिसके परिणामस्वरूप, और परमेश्वर को कहे गए उसके वचनों के परिणामस्वरूप, अय्यूब को परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया गया था। जब उसने परीक्षाएँ भुगतीं और कष्ट झेला, तब परमेश्वर उसके बगल में था, और यद्यपि परमेश्वर की उपस्थिति से उसका कष्ट कम नहीं हुआ था, फिर भी परमेश्वर ने वह देखा जो वह देखना चाहता था, और वह सुना जो वह सुनना चाहता था। अय्यूब के कार्यकलापों और वचनों में से प्रत्येक परमेश्वर की आँखों और कानों तक पहुँचा; परमेश्वर ने सुना, और उसने देखा—यह तथ्य है। परमेश्वर के बारे में अय्यूब का ज्ञान, और उस समय, उस अवधि के दौरान उसके हृदय में परमेश्वर के बारे में उसके विचार, वास्तव में उतने विशिष्ट नहीं थे जितने आज के लोगों के हैं, परंतु उस समय के संदर्भ में, परमेश्वर ने तब भी वह सब पहचान लिया जो उसने कहा था, क्योंकि उसका व्यवहार और उसके हृदय के विचार, साथ ही वह जो उसने अभिव्यक्त और प्रकट किया था, उसकी अपेक्षाओं के लिए पर्याप्त थे। उस समय के दौरान जब अय्यूब को परीक्षाओं से गुज़ारा गया था, उसने अपने हृदय में जो सोचा और करने का ठान लिया था, उसने परमेश्वर को परिणाम दिखाया, वह परिणाम जो परमेश्वर के लिए संतोषजनक था, और उसके बाद परमेश्वर ने अय्यूब की परीक्षाएँ दूर कर दीं, अय्यूब अपने कष्टों से निकल गया, और उसकी परीक्षाएँ समाप्त हो गई थीं और फिर कभी दुबारा उस पर नहीं आईं। चूँकि अय्यूब इन परीक्षाओं से पहले ही गुज़ारा जा चुका था, और इन परीक्षाओं के दौरान वह डटा रहा था, और उसने शैतान पर पूरी तरह विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिए परमेश्वर ने उसे वे आशीष प्रदान किए जिनका वह समुचित रूप से अधिकारी था। जैसा कि अय्यूब 42:10, 12 में अभिलिखित है, अय्यूब एक बार फिर धन्य किया गया था, और उससे कहीं अधिक धन्य किया गया जितना पहले दृष्टांत में किया गया था। इस समय शैतान पीछे हट गया था, तथा उसने अब और न कुछ कहा या न कुछ किया, और उसके बाद से शैतान ने अब और न अय्यूब के साथ छेड़छाड़ की या न ही उस पर आक्रमण किया, और शैतान ने अय्यूब को दिए गए परमेश्वर के आशीषों के विरुद्ध अब और कोई दोषारोपण नहीं किया।

अय्यूब ने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध परमेश्वर के आशीषों के बीच बिताया

यद्यपि उस समय के उसके आशीष केवल भेड़-बकरियों, गाय-बैलों, ऊँटों, भौतिक संपत्तियों, इत्यादि तक ही सीमित थे, फिर भी परमेश्वर अपने हृदय में अय्यूब को जो आशीष प्रदान करना चाहता था वे इनसे कहीं बढ़कर थे। क्या उस समय यह अंकित किया गया था कि परमेश्वर किस प्रकार की अनंत प्रतिज्ञाएँ अय्यूब को देना चाहता था? अय्यूब को अपने आशीषों में, परमेश्वर ने उसके अंत का उल्लेख नहीं किया या उसकी थोड़ी भी चर्चा नहीं की, और परमेश्वर के हृदय में अय्यूब चाहे जो महत्व और स्थान रखता था, कुल मिलाकर परमेश्वर अपने आशीषों में अत्यधिक नपा-तुला था। परमेश्वर ने अय्यूब के अंत की घोषणा नहीं की। इसका क्या अर्थ है? उस समय, जब परमेश्वर की योजना मनुष्य के अंत की घोषणा के बिंदु तक नहीं पहुँची थी, इस योजना को उसके कार्य के अंतिम चरण में अभी प्रवेश करना था, तब परमेश्वर ने मनुष्य को भौतिक आशीष मात्र ही प्रदान करते हुए, अंत का कोई उल्लेख नहीं किया था। इसका अर्थ यह है कि अय्यूब के जीवन का उत्तरार्द्ध परमेश्वर के आशीषों के बीच गुज़रा था, जो वही था जिसने उसे दूसरों से अलग बनाया था—किंतु उनके समान ही उसकी आयु बढ़ी, और किसी भी सामान्य व्यक्ति के समान ही वह दिन आया जब उसने संसार को अलविदा कह दिया। इस प्रकार यह अभिलिखित है कि “अन्त में अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया” (अय्यूब 42:17)। यहाँ “वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया” का क्या अर्थ है? परमेश्वर ने लोगों के अंत की घोषणा की उससे पहले के युग में, परमेश्वर ने अय्यूब के लिए एक जीवन काल निर्धारित किया था, और जब वह उस आयु तक पहुँच गया था तब उसने अय्यूब को स्वाभाविक रूप से इस संसार से जाने दिया। अय्यूब को दूसरे आशीष से उसकी मृत्यु तक, परमेश्वर ने और कोई कष्ट नहीं बढ़ाए। परमेश्वर के लिए, अय्यूब की मृत्यु स्वाभाविक, और आवश्यक भी थी; यह कुछ ऐसा था जो बहुत सामान्य था, और न तो न्याय था और न ही दण्डाज्ञा। जब वह जीवित था, तब अय्यूब परमेश्वर की आराधना करता और उसका भय मानता था; उसकी मृत्यु के बाद उसका अंत किस प्रकार हुआ, इस संबंध में परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा, न ही इस बारे में कोई टिप्पणी की। परमेश्वर जो कहता और करता है उसमें उसके औचित्य का प्रबल बोध होता है, और उसके वचनों और कार्यों की विषयवस्तु और सिद्धांत उसके कार्य के चरण और उस अवधि के अनुसार होते हैं जिसमें वह कार्य कर रहा होता है। परमेश्वर के हृदय में अय्यूब जैसे किसी व्यक्ति का किस प्रकार का अंत हुआ? क्या परमेश्वर अपने हृदय में किसी भी प्रकार के निर्णय पर पहुँच गया था? निस्संदेह वह पहुँच गया था! बस इतना ही है कि मनुष्य को यह अविदित था; परमेश्वर मनुष्य को बताना नहीं चाहता था, न ही मनुष्य को बताने का उसका कोई इरादा था। इस प्रकार, ऊपरी तौर पर कहें, तो अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मरा, और ऐसा था अय्यूब का जीवन।

अपने जीवनकाल के दौरान अय्यूब द्वारा जिए गए जीवन का मूल्य

क्या अय्यूब ने मूल्यवान जीवन जिया? वह मूल्य कहाँ था? ऐसा क्यों कहा जाता है कि उसने मूल्यवान जीवन जिया? मनुष्य के लिए उसका मूल्य क्या था? मनुष्य के दृष्टिकोण से, उसने शैतान और संसार के लोगों के सामने गूँजती हुई गवाही में उस मनुष्यजाति का प्रतिनिधित्व किया जिसे परमेश्वर बचाना चाहता था। उसने वह कर्तव्य निभाया जो परमेश्वर के सृजित प्राणी को निभाना ही चाहिए था, उन सभी लोगों के लिए जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, एक प्रतिमान स्थापित किया, और एक आदर्श के रूप में कार्य किया, लोगों को देखने दिया कि परमेश्वर पर भरोसा रखकर शैतान पर विजय प्राप्त करना पूरी तरह संभव है। परमेश्वर के लिए उसका मूल्य क्या था? परमेश्वर के लिए, अय्यूब के जीवन का मूल्य परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर की आराधना करने, परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने, और परमेश्वर के कर्मों की स्तुति करने, परमेश्वर को आराम देने और उसके आनंद लेने के लिए कुछ करने की उसकी क्षमता में निहित था; परमेश्वर के लिए, अय्यूब के जीवन का मूल्य इसमें भी निहित था कि कैसे, उसकी मृत्यु से पहले, अय्यूब ने परीक्षाओं का अनुभव किया और शैतान पर विजय प्राप्त की, और शैतान के समक्ष परमेश्वर की गूँजती हुई गवाही दी, जिससे परमेश्वर ने मनुष्यजाति के बीच महिमा प्राप्त की, उसके हृदय को आराम मिला और इसने उसके आतुर हृदय को एक परिणाम देखने दिया और आशा देखने दी। उसकी गवाही ने मनुष्यजाति के प्रबंधन के परमेश्वर के कार्य में, परमेश्वर की अपनी गवाही में डटे रहने की क्षमता का, और परमेश्वर की ओर से शैतान को लज्जित करने में सक्षम होने का दृष्टांत स्थापित किया। क्या यह अय्यूब के जीवन का मूल्य नहीं है? अय्यूब ने परमेश्वर के हृदय को आराम पहुँचाया, उसने परमेश्वर को महिमा प्राप्त करने की खुशी का पूर्वस्वाद चखाया, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए अद्भुत आरंभ प्रदान किया था। इस बिंदु से आगे, अय्यूब का नाम परमेश्वर के महिमा प्राप्त करने का प्रतीक, और शैतान पर मनुष्यजाति की विजय का चिह्न बन गया। अपने जीवनकाल के दौरान अय्यूब ने जो जिया, वह और साथ ही शैतान के ऊपर उसकी उल्लेखनीय विजय परमेश्वर द्वारा हमेशा हृदय में सँजोकर रखी जाएगी, और आने वाली पीढ़ियों द्वारा उसकी पूर्णता, खरेपन, और परमेश्वर के भय का सम्मान और अनुकरण किया जाएगा। परमेश्वर द्वारा उसे दोषरहित, चमकदार मोती के समान हमेशा सँजोया जाएगा, और इसलिए वह मनुष्य के द्वारा भी सहेजकर रखे जाने योग्य है!

इसके बाद, आओ हम व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य पर दृष्टि डालें।

घ. व्यवस्था के युग के नियम

दस आज्ञाएँ

वेदी बनाने के सिद्धांत

सेवकों के साथ व्यवहार के लिए नियम

चोरी और मुआवजे़ के लिए नियम

सब्त के वर्ष और तीन पर्वों का पालन करना

सब्त के दिन के लिए नियम

बलि चढ़ाने के लिए नियम

होमबलि

अन्नबलि

मेलबलि

पापबलि

दोषबलि

याजकों द्वारा बलियाँ चढ़ाने के नियम (हारून और उसके पुत्रों को पालन करने का आदेश दिया जाता है)

याजकों द्वारा होमबलि

याजकों द्वारा अन्नबलि

याजकों द्वारा पापबलि

याजकों द्वारा दोषबलि

याजकों द्वारा मेलबलि

याजकों द्वारा बलि खाने के लिए नियम

स्वच्छ और अस्वच्छ पशु (जिन्हें खाया जा सकता और नहीं खाया जा सकता है)

बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं के शुद्धिकरण के लिए नियम

कुष्ठ रोग की जाँच करने के लिए मानक

जो कुष्ठ रोग से चंगे हो चुके हैं उनके लिए नियम

संक्रमित घरों की सफ़ाई करने के लिए नियम

असामान्य स्राव से पीड़ित लोगों के लिए नियम

प्रायश्चित का दिन जो वर्ष में एक बार अवश्य मनाया जाना चाहिए

मवेशी और भेड़-बकरी की बलि चढ़ाने के लिए नियम

अन्यजातियों के घृण्य अभ्यासों का अनुसरण करने का निषेध (कौटुम्बिक व्यभिचार, इत्यादि नहीं करना)

नियम जिनका लोगों द्वारा पालन अवश्य किया जाना चाहिए (“तुम पवित्र बने रहो; क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा पवित्र हूँ” (लैव्यव्यवस्था 19:2))

उनका वध जो मोलेक को अपने बच्चों की बलि चढ़ाते हैं

व्यभिचार के अपराध के दण्ड के लिए नियम

नियम जिनका याजकों द्वारा पालन अवश्य किया जाना चाहिए (उनके प्रतिदिन के व्यवहार के लिए नियम, पवित्र वस्तुओं का उपभोग करने के लिए नियम, बलिदान चढ़ाने के लिए नियम, इत्यादि)

पर्व जिन्हें मनाया जाना चाहिए (सब्त का दिन, फसह, पिन्तेकुस्त, प्रायश्चित का दिन, इत्यादि)

अन्य नियम (दीपक जलाना, जुबली वर्ष, भूसंपत्ति छुड़ाना, मन्नत मानना, दसवें अंश की भेंटें, इत्यादि)

व्यवस्था के युग के नियम परमेश्वर द्वारा संपूर्ण मनुष्यजाति के निर्देशन के वास्तविक प्रमाण हैं

तो, तुम लोगों ने व्यवस्था के युग के ये नियम और सिद्धांत पढ़ लिए हैं, तुमने पढ़ लिए हैं न? क्या इन नियमों का दायरा व्यापक है? सबसे पहले, उनमें दस आज्ञाएँ शामिल हैं, जिसके बाद नियम हैं कि वेदियाँ कैसे बनाएँ, इत्यादि। इनके बाद सब्त का पालन करने और तीन पर्व मनाने के नियम हैं, जिसके बाद बलियाँ चढ़ाने के नियम हैं। क्या तुम लोगों ने देखा कि कितने प्रकार की बलियाँ हैं? होमबलि, अन्नबलि, मेलबलि, पापबलि, इत्यादि हैं। इनके बाद याजकों के लिए बलि के नियम आते हैं, जिसमें याजकों द्वारा होमबलि और अन्नबलि, और अन्य प्रकार की बलियाँ शामिल हैं। आठवां नियम याजकों द्वारा बलियों को खाने के लिए है। फिर इसके लिए नियम हैं कि लोगों के जीवन के दौरान किन चीज़ों का पालन किया जाना चाहिए। लोगों के जीवन के कई पहलुओं के लिए निर्धारित नियम हैं, जैसे इसके लिए नियम कि वे क्या खा सकते या क्या नहीं खा सकते हैं, बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं के शुद्धिकरण के लिए नियम, और कोढ़ से चंगे हो गए लोगों के लिए नियम। इन नियमों में, परमेश्वर इस सीमा तक जाता है कि बीमारी के बारे में बात करता है, और इनमें भेड़-बकरी और मवेशी, इत्यादि का वध करने के लिए भी नियम हैं। भेड़-बकरी और मवेशी परमेश्वर द्वारा सृजित किए गए थे, और उनका वध तुम्हें उसी तरह करना चाहिए जिस तरह परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है; बिना किसी संदेह, परमेश्वर के वचनों में तर्क है; परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञाओं के अनुसार कार्य करना निस्संदेह सही है, और निश्चित ही लोगों के लिए लाभदायक है! पर्व और उन्हें मनाने के नियम भी हैं, जैसे सब्त का दिन, फसह, और अन्य—परमेश्वर ने इन सबके बारे में बोला था। आओ हम अंतिम नियमों पर नज़र डालें : अन्य नियम—दीपक जलाना, जुबली वर्ष, भूसंपत्ति छुड़ाना, मन्नतें मानना, दशवाँ अंश चढ़ाना, इत्यादि। क्या इनका दायरा व्यापक है? सबसे पहले जिसकी बात की जाए वह है लोगों द्वारा बलियों का मुद्दा। फिर चोरी और मुआवज़े, और सब्त का दिन मनाने के लिए नियम हैं...; जीवन का एक-एक विवरण शामिल है। कहने का तात्पर्य यह, जब परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना का आधिकारिक कार्य आरंभ किया, तब उसने अनेक नियम निर्धारित किए जिनका पालन मनुष्य द्वारा किया जाना था। ये नियम मनुष्य को पृथ्वी पर मनुष्य का सामान्य जीवन जीने देने के लिए थे, मनुष्य का सामान्य जीवन जो परमेश्वर और उसके मार्गदर्शन से अवियोज्य है। परमेश्वर ने सबसे पहले मनुष्य को बताया कि वेदियाँ कैसे बनाएँ, वेदियाँ किस प्रकार स्थापित करें। उसके बाद, उसने मनुष्य को बताया कि बलि कैसे चढ़ाएँ, और स्थापित किया कि मनुष्य को किस प्रकार जीना था—उसे जीवन में किस पर ध्यान देना था, उसे किसका पालन करना था, उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए जो निर्दिष्ट किया वह सर्वव्यापी था, और इन रीति-रिवाज़ों, नियमों, और सिद्धांतों के साथ उसने लोगों के व्यवहार के मानक तय किए, उनके जीवन का मार्गदर्शन किया, परमेश्वर की व्यवस्थाओं में उनकी दीक्षा का मार्गदर्शन किया, परमेश्वर की वेदी के समक्ष आने के लिए उनका मार्गदर्शन किया, और उन सभी चीज़ों के बीच जीवन पाने के लिए उनका मार्गदर्शन किया जो परमेश्वर ने व्यवस्था, नियमितता, और संयम से युक्त मनुष्य के लिए बनाई थीं। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सीमाएँ निर्धारित करने के उद्देश्य से सबसे पहले इन सीधे-सादे नियमों और सिद्धांतों का उपयोग किया था, ताकि पृथ्वी पर मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने वाला सामान्य जीवन हो, और उसके पास मनुष्य का सामान्य जीवन हो; ऐसी है उसकी छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना के आरंभ की विशिष्ट विषयवस्तु। इन नियमों और व्यवस्थाओं में बहुत व्यापक विषयवस्तु समाहित है, वे व्यवस्था के युग के दौरान मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर के मार्गदर्शन के विशिष्ट विवरण हैं, इन्हें व्यवस्था के युग के लोगों द्वारा स्वीकार और इनका पालन किया जाना था, ये व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य का अभिलेख हैं, और वे संपूर्ण मनुष्यजाति की परमेश्वर द्वारा अगुआई और मार्गदर्शन का वास्तविक प्रमाण हैं।

मनुष्यजाति परमेश्वर की शिक्षाओं और भरण-पोषण से सदा के लिए अवियोज्य है

इन नियमों में हम देखते हैं कि अपने कार्य के प्रति, अपने प्रबंधन के प्रति, और मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति गंभीर, कर्तव्यनिष्ठ, कठोर और दायित्वपूर्ण है। वह कार्य जो उसे मनुष्यजाति के बीच करना ही चाहिए, रत्ती भर भी विसंगति के बिना, वह अपने चरणों के अनुसार करता है, वे वचन जो मनुष्यजाति के बीच उसे बोलने ही चाहिए, रत्ती भर भी त्रुटि या चूक के बिना, वह बोल रहा है, मनुष्य को यह देखने दे रहा है कि वह परमेश्वर की अगुआई से अवियोज्य है, और उसे दिखा रहा है कि वह सब जो परमेश्वर करता और कहता है मनुष्यजाति के लिए कितना अधिक महत्वपूर्ण है। परमेश्वर ने बिलकुल आरंभ में—व्यवस्था के युग के दौरान—ये सीधी-सादी चीज़ें कीं, इस बात की परवाह किए बिना कि अगले युग में मनुष्य किस प्रकार का है। उस युग में परमेश्वर, संसार और मनुष्यजाति के बारे में लोगों की धारणाएँ परमेश्वर के लिए अमूर्त और अस्पष्ट थीं, और यद्यपि उनमें कुछ जाने-बूझे विचार और अभिप्राय थे, किंतु वे सब अस्पष्ट और ग़लत थे, और इस प्रकार मनुष्यजाति उनके लिए परमेश्वर की शिक्षाओं और भरण-पोषण से अवियोज्य थी। सबसे आरंभिक मनुष्यजाति बिल्कुल कुछ भी नहीं जानती थी, और इसलिए परमेश्वर को, जीवित रहने के सबसे सबसे सतही और बुनियादी सिद्धांतों और जीने के लिए आवश्यक विनियमों से, इन चीजों को थोड़ा-थोड़ा करके मनुष्य के हृदय में डालकर, मनुष्य को सिखाना शुरू करना पड़ा। इन नियमों के माध्यम से, जो वचनों के थे, और इन विनियमों के माध्यम से उसने मनुष्य को अपनी क्रमिक समझ, अपनी अगुआई का क्रमिक बोध और समझ, और अपने और मनुष्य के बीच के संबंध की मूलभूत अवधारणा दी। यह प्रभाव प्राप्त करने के बाद ही, परमेश्वर, थोड़ा-थोड़ा करके, वह कार्य कर पाया था जो उसने बाद में किया। इस प्रकार ये नियम और व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य मनुष्यजाति को बचाने के उसके कार्य की आधारशिला, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य का पहला चरण हैं। यद्यपि, व्यवस्था के युग के कार्य से पहले, परमेश्वर ने आदम, हव्वा और उनके वंशजों से बात की थी, फिर भी वे आज्ञाएँ और शिक्षाएँ इतनी व्यवस्थित या विशिष्ट नहीं थीं कि एक-एक करके मनुष्य को दी जातीं, और उन्हें लिखा नहीं गया था, न ही वे नियम बनी थीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि, उस समय, परमेश्वर की योजना उतनी दूर तक नहीं गई थी; जब परमेश्वर मनुष्य को इस चरण तक ले आया, केवल तभी वह व्यवस्था के युग के ये नियम बोलना आरंभ कर सका, और मनुष्य से इन्हें कार्यान्वित करवाना आरंभ कर सका था। यह आवश्यक प्रक्रिया थी, और यह परिणाम अवश्यंभावी था। ये सीधे-सादे रीति-रिवाज़ और नियम मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के चरण और उसकी प्रबंधन योजना में प्रकट हुई परमेश्वर की बुद्धि दर्शाते हैं। परमेश्वर जानता है कि उसकी गवाही देने वाले लोगों का एक समूह प्राप्त कर सकने के उद्देश्य से, और उसके समान एक मन वाले लोगों का एक समूह प्राप्त कर सकने के उद्देश्य से, आरंभ करने के लिए किस विषयवस्तु और किन साधनों का उपयोग करना है, आगे बढ़ाने के लिए किन साधनों का उपयोग करना है, और समाप्त करने के लिए किन साधनों का उपयोग करना है। वह जानता है कि मनुष्य के भीतर क्या है, और जानता है कि मनुष्य में क्या कमी है। वह जानता है कि उसे क्या पोषण देना है, और उसे मनुष्य की अगुआई कैसे करनी चाहिए, और इसलिए वह यह भी जानता है कि मनुष्य को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। मनुष्य कठपुतली के समान है : उसे परमेश्वर की इच्छा की भले ही कोई समझ नहीं थी, किंतु उसके पास आज तक, चरण-दर-चरण, परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य की अगुआई में चलने के सिवा और कोई चारा नहीं था। परमेश्वर को जो करना था उसके बारे में उसके हृदय में कोई धुँधलापन नहीं था; उसके हृदय में बहुत ही सुस्पष्ट और सजीव योजना थी, और वह जो कार्य करना चाहता था उसे उसने, सतही से गहराई की ओर आगे बढ़ते हुए, अपने चरणों और अपनी योजना के अनुसार कार्यान्वित किया। यद्यपि उसने उस कार्य की ओर संकेत नहीं किया था जो उसे बाद में करना था, फिर भी उसका बाद का कार्य कड़ाई से उसकी योजना के अनुसार निरंतर कार्यान्वित होता और प्रगति करता रहा, जो परमेश्वर के स्वरूप का आविर्भाव है, और परमेश्वर का अधिकार भी है। वह अपनी प्रबंधन योजना के चाहे जिस चरण का कार्य कर रहा हो, उसका स्वभाव और उसका सार स्वयं उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बिल्कुल सत्य है। युग, या कार्य का चरण चाहे जो हो, ऐसी भी चीज़ें हैं जो कभी नहीं बदलेंगी : परमेश्वर किस प्रकार के लोगों से प्रेम करता है, किस प्रकार के लोगों से वह घृणा करता है, उसका स्वभाव और वह सब जो वह है और उसका है। यद्यपि ये नियम और सिद्धांत जो परमेश्वर द्वारा व्यवस्था के युग के दौरान स्थापित किए गए थे आज के लोगों को बहुत ही सीधे-सादे और सतही प्रतीत होते हैं, और यद्यपि उन्हें समझना और प्राप्त करना आसान है, फिर भी उनमें परमेश्वर की बुद्धि है, और फिर भी उनमें परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप है। क्योंकि प्रकट रूप से इन सीधे-सादे नियमों के भीतर मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का उत्तरदायित्व और देखरेख, साथ ही उसके विचारों का उत्कृष्ट सार अभिव्यक्त हुए हैं, जो इस प्रकार मनुष्य को सच में इस तथ्य अहसास होने देते हैं कि परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, और सभी चीज़ें उसके हाथ से नियंत्रित होती हैं। मनुष्यजाति चाहे जितना अधिक ज्ञान पर निपुणता प्राप्त कर ले, या वह चाहे जितने सिद्धांत और रहस्य समझ ले, परमेश्वर के लिए इनमें से कुछ भी मनुष्यजाति के लिए उसके भरण-पोषण का, और उसकी अगुवाई का स्थान लेने में सक्षम नहीं है; मनुष्यजाति परमेश्वर के मार्गदर्शन और परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य से हमेशा अवियोज्य रहेगी। ऐसा है मनुष्य और परमेश्वर के बीच अवियोज्य संबंध। परमेश्वर तुम्हें चाहे आज्ञा, या नियम दे, या उसकी इच्छा को समझने के लिए तुम्हें सत्य प्रदान करे, वह चाहे जो करे, परमेश्वर का लक्ष्य सुंदर कल की ओर मनुष्य का मार्गदर्शन करना है। परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन और वह जो कार्य करता है दोनों उसके सार के एक पहलू का प्रकाशन हैं, और उसके स्वभाव तथा उसकी बुद्धि के एक पहलू का प्रकाशन हैं; और वे उसकी प्रबंधन योजना का अपरिहार्य चरण हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए! परमेश्वर जो कुछ करता है उसमें उसकी इच्छा होती है; परमेश्वर ग़लत टीका-टिप्पणियों से भयभीत नहीं होता है, न ही वह अपने बारे में मनुष्य की किन्हीं भी धारणाओं या विचारों से डरता है। वह किसी भी मनुष्य, विषय या वस्तु से अबाधित, बस अपना कार्य करता है और अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार अपना प्रबंधन आगे बढ़ाता है।

अच्छा है। आज के लिए बस इतना ही है। अगली बार फिर मिलेंगे!

9 नवंबर, 2013

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