आप सबने गवाही दी है कि प्रभु यीशु अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करने और न्याय कार्य करने लौट आये हैं। मैं यह क्यों नहीं समझ पाया? मैं बस विश्वास करता हूँ कि प्रभु बादलों पर लौटेंगे; मैं केवल यह विश्वास करता हूँ कि जब प्रभु लौटेंगे, तो उसमें विश्वास करने वाले सभी लोग तुरंत बदल दिए जायेंगे और प्रभु से मिलने के लिए हवा में उठा लिए जायेंगे। जैसा कि पौलुस ने कहा, "पर हमारा स्वदेश स्वर्ग पर है; और हम एक उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के वहाँ से आने की बाट जोह रहे हैं: वह अपनी शक्‍ति के उस प्रभाव के अनुसार जिसके द्वारा वह सब वस्तुओं को अपने वश में कर सकता है, हमारी दीन-हीन देह का रूप बदलकर, अपनी महिमा की देह के अनुकूल बना देगा" (फिलिप्पियों 3:20-21)। और आप सब कहते हैं कि प्रभु का लौटना देहधारण के लिए है, मनुष्य के पुत्र के रूप में प्रकट होने के लिए है और सत्य व्यक्त करके अंत के दिनों में न्याय कार्य करने के लिए है। मैं समझता हूँ, यह असंभव है! चूंकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, परमेश्वर के एक अकेले वचन ने स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीज़ों की सृष्टि की, और मरे हुओं को फिर से जीवित कर दिया। परमेश्वर एक वचन से हमें पवित्रता में बदल सकते हैं। सत्य व्यक्त करके मनुष्य के साथ न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए, प्रभु को देहधारण करने की क्या ज़रूरत है?

15 मार्च, 2021

उत्तर: परमेश्वर का कार्य सदा अथाह होता है। परमेश्वर की भविष्यवाणियों को कोई भी स्पष्टता से नहीं समझा सकता। मनुष्य साकार होने पर ही किसी भविष्यवाणी को समझ सकता है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि कोई भी परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और सर्वशक्तिमत्ता की थाह नहीं पा सकता। जब अनुग्रह के युग में कार्य करने के लिए प्रभु यीशु प्रकट हुए, कोई भी उनकी थाह नहीं पा सका। जब राज्य के युग में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों का न्याय कार्य करते हैं, तो कोई भी पहले से उसको भी नहीं जान सकता| इसलिए, मानवजाति, परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करने और न्याय कार्य के लिए देहधारण कर लेने की बात की कदापि कल्पना नहीं कर सकती। परंतु परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाने पर महाविपत्ति आयेगी। उस समय, अनेक लोग अनुभव करेंगे कि परमेश्वर का वचन साकार हो गया है। परन्तु पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। वे महाविपत्ति में केवल रोते-चीखते अपने दांत पीस सकेंगे। यह कि परमेश्वर अंत के दिनों में मनुष्य को शुद्ध करने और बचाने के लिए न्याय का कार्य कैसे करते हैं, विजयी लोगों का एक समूह यानी प्रथम फल कैसे बनाते हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को पढ़ने के बाद यह और अधिक स्पष्ट हो जाएगा।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "तुम लोगों को परमेश्वर की इच्छा देख पाना चाहिए, और तुम्हें देखना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य आकाश और पृथ्वी और अन्य सब वस्तुओं के सृजन जितना सीधा-सरल नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि आज का कार्य उन लोगों का कायापलट करना है जो भ्रष्ट किए जा चुके हैं, जो बेहद सुन्न हैं, यह उन्हें शुद्ध करने के लिए है जो सृजित तो किए गए थे किंतु शैतान द्वारा वशीभूत कर लिए गए। यह आदम और हव्वा का सृजन नहीं है, यह प्रकाश का सृजन, या प्रत्येक पौधे और पशु का सृजन तो और भी नहीं है। परमेश्वर शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई चीज़ों को शुद्ध करता है और फिर उन्हें नए सिरे से प्राप्त करता है; वे ऐसी चीज़ें बन जाती हैं जो उसकी होती हैं, और वे उसकी महिमा बन जाती हैं। यह वैसा नहीं है जैसा मनुष्य कल्पना करता है, यह आकाश और पृथ्वी और उनमें निहित सभी वस्तुओं के सृजन जितना, या शैतान को अथाह कुण्ड में जाने का श्राप देने के कार्य जितना सीधा-सरल नहीं है; बल्कि, यह मनुष्य का कायापलट करने का कार्य है, उन चीज़ों को जो नकारात्मक हैं, और उसकी नहीं हैं, ऐसी चीजों में बदलने का कार्य है जो सकारात्मक हैं और उसकी हैं। परमेश्वर के कार्य के इस चरण के पीछे का यही सत्य है। तुम लोगों को यह समझना ही चाहिए, और विषयों को अत्यधिक सरलीकृत करने से बचना चाहिए। परमेश्वर का कार्य किसी भी साधारण कार्य के समान नहीं है। इसकी उत्कृष्टता और बुद्धिमता मनुष्य की सोच से परे है। परमेश्वर कार्य के इस चरण के दौरान सभी चीज़ों का सृजन नहीं करता है, किंतु वह उन्हें नष्ट भी नहीं करता है। इसके बजाय, वह अपनी सृजित की गई सभी चीज़ों का कायापलट करता है, और शैतान द्वारा दूषित कर दी गई सभी चीजों को शुद्ध करता है। और इस प्रकार, परमेश्वर एक महान उद्यम आरंभ करता है, जो परमेश्वर के कार्य का संपूर्ण महत्व है। इन वचनों में परमेश्वर का जो कार्य तुम देखते हो, क्या वह सचमुच इतना सीधा-सरल है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या परमेश्वर का कार्य उतना सरल है जितना मनुष्य कल्पना करता है?)

"मनुष्य की देह को शैतान के द्वारा भष्ट कर दिया गया है, उसे एकदम अन्धा करके बुरी तरह से नुकसान पहुँचाया गया है। परमेश्वर देह में आकर निजी तौर पर कार्य इसलिए करता है क्योंकि उसके उद्धार का लक्ष्य हाड़-माँस का इंसान है, और इसलिए भी क्योंकि परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ने के लिए शैतान भी मनुष्य की देह का उपयोग करता है। दरअसल, शैतान के साथ युद्ध इंसान पर विजय पाने का कार्य है, और साथ ही, इंसान परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य भी है। इस तरह, देहधारी परमेश्वर का कार्य आवश्यक है। शैतान के हाथों भ्रष्ट होकर इंसान शैतान का मूर्त रूप बन गया है, परमेश्वर के हाथों हराये जाने का लक्ष्य बन गया है। इस तरह, पृथ्वी पर शैतान से युद्ध करने और मनुष्यजाति को बचाने का कार्य किया जाता है। इसलिए शैतान से युद्ध करने के लिए परमेश्वर का मनुष्य बनना आवश्यक है। यह अत्यंत व्यावहारिकता का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)

"आदिम मानव-जाति परमेश्वर के हाथों में थी, किंतु शैतान के प्रलोभन और भ्रष्टता की वजह से, मनुष्य को शैतान द्वारा बाँध लिया गया और वह इस दुष्ट के हाथों में पड़ गया। इस प्रकार, परमेश्वर के प्रबधंन-कार्य में शैतान पराजित किए जाने का लक्ष्य बन गया। चूँकि शैतान ने मनुष्य पर कब्ज़ा कर लिया था, और चूँकि मनुष्य वह पूँजी है जिसे परमेश्वर संपूर्ण प्रबंधन पूरा करने के लिए इस्तेमाल करता है, इसलिए यदि मनुष्य को बचाया जाना है, तो उसे शैतान के हाथों से वापस छीनना होगा, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य को शैतान द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद उसे वापस लेना होगा। इस प्रकार, शैतान को मनुष्य के पुराने स्वभाव में बदलावों के माध्यम से पराजित किया जाना चाहिए, ऐसे बदलाव, जो मनुष्य की मूल विवेक-बुद्धि को बहाल करते हैं। और इस तरह से मनुष्य को, जिसे बंदी बना लिया गया था, शैतान के हाथों से वापस छीना जा सकता है। यदि मनुष्य शैतान के प्रभाव और बंधन से मुक्त हो जाता है, तो शैतान शर्मिंदा हो जाएगा, मनुष्य को अंततः वापस ले लिया जाएगा, और शैतान को हरा दिया जाएगा। और चूँकि मनुष्य को शैतान के अंधकारमय प्रभाव से मुक्त किया जा चुका है, इसलिए एक बार जब यह युद्ध समाप्त हो जाएगा, तो मनुष्य इस संपूर्ण युद्ध में जीत के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ लाभ बन जाएगा, और शैतान वह लक्ष्य बन जाएगा जिसे दंडित किया जाएगा, जिसके पश्चात् मानव-जाति के उद्धार का संपूर्ण कार्य पूरा कर लिया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)

"अंत के दिनों के कार्य में वचन चिह्न और चमत्कार दिखाने से कहीं अधिक शक्तिमान है, और वचन का अधिकार चिह्नों और चमत्कारों के अधिकार से कहीं बढ़कर है। वचन मनुष्य के हृदय में गहरे दबे सभी भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर देता है। तुम्हारे पास उन्हें अपने आप पहचानने का कोई उपाय नहीं है। जब उन्हें वचन के माध्यम से तुम्हारे सामने प्रकट किया जाता है, तब तुम्हें स्वाभाविक रूप से उनका पता चल जाएगा; तुम उनसे इनकार करने में समर्थ नहीं होगे, और तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे। क्या यह वचन का अधिकार नहीं है? यह आज वचन के कार्य द्वारा प्राप्त किया जाने वाला परिणाम है। इसलिए, बीमारी की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने से मनुष्य को उसके पापों से पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता, न ही चिह्नों और चमत्कारों के प्रदर्शन से उसे पूरी तरह से पूर्ण बनाया जा सकता है। चंगाई करने और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार मनुष्य को केवल अनुग्रह प्रदान करता है, किंतु मनुष्य का देह फिर भी शैतान से संबंधित होता है और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव फिर भी मनुष्य के भीतर बना रहता है। दूसरे शब्दों में, जिसे शुद्ध नहीं किया गया है, वह अभी भी पाप और गंदगी से संबंधित है। केवल वचन के माध्यम से स्वच्छ कर दिए जाने के बाद ही मनुष्य को परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह पवित्र बन सकता है। ... न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))

"अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

"परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सके और उसकी गवाही दे सके। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का परमेश्वर द्वारा न्याय के बिना, संभवतः मनुष्य अपने धार्मिक स्वभाव को नहीं जान सकता था, जो कोई अपराध नहीं करता और न वह परमेश्वर के अपने पुराने ज्ञान को एक नए रूप में बदल पाता। अपनी गवाही और अपने प्रबंधन के वास्ते, परमेश्वर अपनी संपूर्णता को सार्वजनिक करता है, इस प्रकार, अपने सार्वजनिक प्रकटन के ज़रिए, मनुष्य को परमेश्वर के ज्ञान तक पहुँचने, उसको स्वभाव में रूपांतरित होने और परमेश्वर की ज़बर्दस्त गवाही देने लायक बनाता है। मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण परमेश्वर के कई विभिन्न प्रकार के कार्यों के ज़रिए प्राप्त किया जाता है; अपने स्वभाव में ऐसे बदलावों के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने और उसके पास जाने लायक नहीं हो पाएगा। मनुष्य के स्वभाव में रूपांतरण दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधन और अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का एक आदर्श, एक नमूना, परमेश्वर का गवाह और ऐसा व्यक्ति बन गया है, जो परमेश्वर के दिल के क़रीब है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर को जानने वाले ही परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं)

"जो अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य के दौरान अडिग रहने में समर्थ हैं—यानी, शुद्धिकरण के अंतिम कार्य के दौरान—वे लोग होंगे, जो परमेश्वर के साथ अंतिम विश्राम में प्रवेश करेंगे; वैसे, वे सभी जो विश्राम में प्रवेश करेंगे, शैतान के प्रभाव से मुक्त हो चुके होंगे और परमेश्वर के शुद्धिकरण के अंतिम कार्य से गुज़रने के बाद उसके द्वारा प्राप्त किए जा चुके होंगे। ये लोग, जो अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा चुके होंगे, अंतिम विश्राम में प्रवेश करेंगे। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के कार्य का मूलभूत उद्देश्य मानवता को शुद्ध करना है और उन्हें उनके अंतिम विश्राम के लिए तैयार करना है; इस शुद्धिकरण के बिना संपूर्ण मानवता अपने प्रकार के मुताबिक़ विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत नहीं की जा सकेगी, या विश्राम में प्रवेश करने में असमर्थ होगी। यह कार्य ही मानवता के लिए विश्राम में प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)

अंत के दिनों में, परमेश्वर मनुष्य को केवल एक वचन से बदल देने की बजाय, उसका शुद्धिकरण कर उसे परिपूर्ण बनाने के लिए, सत्य व्यक्त करके न्याय कार्य करने के लिए देहधारण करते हैं। क्या इसके अन्दर कोई सत्य और रहस्य है? जिस तरीके से परमेश्वर अंत के दिनों में अपने न्याय कार्य के द्वारा मनुष्य का शुद्धिकरण कर उसे परिपूर्ण बनाते हैं, वह बिलकुल उतना सरल नहीं है, जितनी हम कल्पना करते हैं। केवल एक वचन से, प्रभु यीशु ने लाज़र को मृत से जीवित कर दिया। परंतु परमेश्वर के लिए उस मानवजाति का, जिसे शैतान ने परमेश्वर का विरोध करने और उसके विरुद्ध कार्य करने के लिए बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है, शुद्धिकरण और बदलाव कर, परमेश्वर को समझने, उनकी आज्ञा का पालन करने और आराधना करने वाली मानवजाति बनाना, हज़ारों वर्षों तक जीवित राक्षसों के रूप में भ्रष्ट हो चुकी मानवजाति को, बीस-तीस वर्ष में, सत्य और मानवता वाली मानवजाति में बदलना, शैतान से युद्ध करने की प्रक्रिया है। क्या यह एक सरल मामला है? यदि परमेश्वर एक ही वचन से मरे हुओं को उठा देते हैं और हमारे शरीर को बदल देते हैं, तो क्या यह शैतान को अपमानित कर सकेगा? अंत के दिनों में, शैतान ने मानवजाति को हजारों वर्षों तक भ्रष्ट किया है। शैतान की प्रकृति और स्वभाव मनुष्य में गहरे पैठ गयी है। मानवजाति घमंडी, स्वार्थी, कपटी, बुरी और लालची हो गई है। यश और धनलाभ के लिए लोग एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र करते हैं, धोखा देते हैं, और एक-दूसरे की ह्त्या करते हैं। मानवजाति सत्य से घृणा करती है। वह बहुत पहले से परमेश्वर की शत्रु बन चुकी है। वे शैतान जैसे हैं, जो परमेश्वर का विरोध कर उसको धोखा देते हैं। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का उद्धार वास्तव में शैतान से युद्ध करना है। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "मनुष्य की देह को इतना ज़्यादा भ्रष्ट किया जा चुका है कि वह परमेश्वर का इस हद तक विरोध करती है कि वह खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध कर बैठती है और उसके अस्तित्व को ही नकारती है। यह भ्रष्ट देह बेहद अड़ियल है, देह के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने और उसे परिवर्तित करने से ज़्यादा कठिन और कुछ भी नहीं। शैतान परेशानियाँ खड़ी करने के लिए मनुष्य की देह में आता है, और परमेश्वर के कार्य में व्यवधान उत्पन्न करने और उसकी योजना को बाधित करने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है। इस प्रकार इंसान शैतान बनकर परमेश्वर का शत्रु हो गया है। मनुष्य को बचाने के लिए, पहले उस पर विजय पानी होगी। इसी चुनौती से निपटने के लिए परमेश्वर जो कार्य करने का इरादा रखता है, उसकी खातिर देह में आता है और शैतान के साथ युद्ध करता है। उसका उद्देश्य भ्रष्ट मनुष्य का उद्धार, शैतान की पराजय और उसका विनाश है, जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करता है। परमेश्वर मनुष्य पर विजय पाने के अपने कार्य के माध्यम से शैतान को पराजित करता है, और साथ ही भ्रष्ट मनुष्यजाति को भी बचाता है। इस प्रकार, यह एक ऐसा कार्य है जो एक ही समय में दो लक्ष्यों को प्राप्त करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)

परमेश्वर शैतान द्वारा परमेश्वर के विरुद्ध कार्य करने के लिए भ्रष्ट की गयी मानवजाति को एक ऐसी मानवजाति में बदलना चाहते हैं, जो सच में परमेश्वर की आज्ञा मानती है और परमेश्वर के अनुरूप है। यह कार्य अत्यंत कठिन है। यह परमेश्वर द्वारा स्वर्ग, पृथ्वी और हर चीज़ के सृजन से कहीं अधिक कठिन है। शून्य से स्वर्ग, पृथ्वी तथा हर चीज़ का सृजन, परमेश्वर के एक वचन से संपन्न हुआ। परन्तु बुरी तरह से भ्रष्ट मानवजाति का शुद्धिकरण कर उसे बदलने के लिए, मनुष्य के साथ न्याय कर उसका शुद्धिकरण करने के लिए, परमेश्वर को देहधारी बनकर अनेक सत्य अभिव्यक्त करने होंगे। हमारे लिए परमेश्वर का न्याय और ताड़ना अनुभव करने, भ्रष्टाचार को दूर करने और शुद्धिकरण प्राप्त करने के लिए, एक लंबे समय की प्रक्रिया की जरूरत है। यह परमेश्वर की शैतान से युद्ध की प्रक्रिया भी है। शैतान के मूल इरादे के अनुसार, मनुष्य जीवित राक्षसों के रूप में भ्रष्ट हो चुके हैं। यदि परमेश्वर इन जीवित राक्षसों को मनुष्यों में बदल सकें, तो शैतान को विश्वास हो जाएगा, इसलिए परमेश्वर शैतान जैसों से युद्ध करने के लिए, अपनी मूल योजना के अनुरूप देहधारी बनते हैं। पहले मनुष्य पर विजय प्राप्त करने के लिए सत्य व्यक्त करके, और फिर उसका शुद्धिकरण कर उसे सत्य के साथ परिपूर्ण करके। जब हम सत्य को समझ कर परमेश्वर को जान लेते हैं, तब हम शैतान द्वारा अपने भ्रष्ट होने के सच को स्पष्ट देख सकेंगे और शैतान से घृणा करना शुरू करेंगे, शैतान को त्याग देंगे, और शैतान को श्राप देंगे। अंतत:, हम शैतान के विरुद्ध जबरदस्त विद्रोह करेंगे और पूर्ण रूप से परमेश्वर की ओर हो जायेंगे। ताकि परमेश्वर मानवजाति को शैतान के चंगुल से वापस छीन सकें। ये लोग जिनकी रक्षा हुई है, वे परमेश्वर द्वारा शैतान को हरा कर हथियाये हुए लोग हैं। इस प्रकार कार्य करके ही परमेश्वर वास्तव में शैतान को हरा कर उसका अपमान कर सकते हैं। यही परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय कार्य की अंदर की कहानी भी है। हालांकि परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य बीस-तीस वर्ष तक ही चलता है, फिर भी उन्होंने विजयी लोगों का एक समूह बनाया, जो प्रकाशित वाक्यों की पुस्तक की इन भविष्यवाणियों को पूरा करता है: "ये वे हैं जो स्त्रियों के साथ अशुद्ध नहीं हुए, पर कुँवारे हैं; ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं; ये तो परमेश्‍वर के निमित्त पहले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं" (प्रकाशितवाक्य 14:4)। ये विजयी परमेश्वर के कमाए और इस्तेमाल किये प्रथमफल हैं। मानवजाति के इतिहास की तुलना में, ये बीस-तीस वर्ष क्या पलक झपकने जैसे नहीं हैं? बाइबल कहती है, "प्रभु के यहाँ एक दिन हज़ार वर्ष के बराबर है, और हज़ार वर्ष एक दिन के बराबर है" (2 पतरस 3:8)। यदि इसमें कहा गया है कि जब प्रभु अंत के दिनों में लौटेंगे, तो वे एक ही क्षण में, पलक झपकते ही हमारे शरीर को बदल देंगे, यह परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य द्वारा हासिल प्रभावों के लिए भी उतना ही उपयुक्त है। इसको इस रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। परन्तु हम पौलुस के कथनों का सरलता से यह अर्थ निकाल सकते हैं कि जो प्रभु में विश्वास करते हैं, वे प्रभु के लौटने पर उनसे मिलने के लिए उसी क्षण बदल दिए जायेंगे और हवा में उठा लिए जायेंगे। इसलिए, हम आलसी होकर, हमें परिवर्तित और स्वर्गारोहित किये जाने के लिए, प्रभु के बादलों पर अवरोहित होने की प्रतीक्षा करते रहे। क्या पौलुस का कथन भ्रमित करने वाला नहीं है? परमेश्वर के कार्य को लेकर हम धारणाओं और कल्पनाओं से भरे नहीं हो सकते। परमेश्वर का कार्य हर कदम पर व्यावहारिक, ठोस और सुस्पष्ट है। देहधारी सर्वशाक्तिमान परमेश्वर व्यावहारिक परमेश्वर हैं। जो सत्य व्यक्त कर मनुष्य की रक्षा करने के लिए संसार में आते हैं। यदि हम इसे स्वीकार नहीं करते हैं, तो क्या हम परमेश्वर का विरोध कर उनके विरुद्ध विद्रोह नहीं कर रहे? हम परमेश्वर से प्रशंसा और आशीष कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

"बदलाव की घड़ी" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: आप इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य को अभिव्यक्त करते हैं और अंतिम दिनों में न्याय का अपना कार्य करते हैं। मुझे लगता है कि प्रभु यीशु में हमारा विश्वास और पवित्र आत्मा के कार्य की स्वीकृति का मतलब है कि हमने पहले से ही परमेश्वर के न्याय का अनुभव किया है। सबूत के तौर पर यहाँ प्रभु यीशु के वचन दिए गए हैं: "क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो वह सहायक तुम्हारे पास न आएगा; परन्तु यदि मैं जाऊँगा, तो उसे तुम्हारे पास भेजूँगा। वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" (यूहन्ना 16:7-8)। हमारा मानना है कि, हालांकि प्रभु यीशु का कार्य छुटकारे का कार्य था, जब वे स्वर्ग तक पहुंच गए तो पेन्तेकोस्त के दिन, पवित्र आत्मा उतर आया और उसने मनुष्यों पर काम किया: "वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा।" यह आखिरी दिनों में परमेश्वर के न्याय का कार्य होना चाहिए, इसलिए हम जिस बात को जानना चाहते हैं, वो यह है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा अंतिम दिनों में किए गए न्याय के कार्य और प्रभु यीशु के कार्य के बीच वास्तव में क्या भिन्नताएँ हैं?
अगला: आप सब गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु का पुनरागमन हो गया है, कोई और नहीं, स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर बनकर, जिन्होंने अंत के दिनों में न्याय कार्य करते समय सत्य व्यक्त किया है। यह कैसे संभव हो सकता है? प्रभु हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलवाने के लिए वास्तव में आयेंगे, वे अंत के दिनों में न्याय करने के लिए हमें पीछे कैसे छोड़ सकते थे? मुझे लगता है कि प्रभु यीशु में विश्वास करके और पवित्र आत्मा के कार्य को ग्रहण करके, हम पहले ही परमेश्वर के न्याय कार्य का अनुभव करने लगे हैं। प्रभु यीशु के वचन में साक्ष्य है: "क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आयेगा; परंतु यदि मैं जाऊंगा, तो मैं उसे तुम्हारे पास भेजूँगा। और वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" (यूहन्ना 16:7-8)। हमें लगता है कि जब प्रभु यीशु पुनर्जीवित होकर स्वर्गारोहित हुए, तो पिंतेकुस्‍त में पवित्र आत्मा मनुष्यों पर कार्य करने के लिए नीचे आया। इससे पहले ही लोग अपने पापों, धर्मपरायणता और न्याय के लिए, स्वयं को दोष दे चुके थे। जब हम प्रभु के सामने स्वीकार कर पश्चाताप कर लेते हैं, तो हम वास्तव में प्रभु के न्याय का अनुभव कर रहे होते हैं। इसलिए हम विश्वास करते हैं कि हालांकि प्रभु यीशु का कार्य छुटकारे का था, प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के बाद, पिंतेकुस्‍त में उतरे पवित्र आत्मा का कार्य अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य होना चाहिए। यदि यह न्याय कार्य न हुआ होता, तो "वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" कैसे हुआ होता? इसके अलावा, प्रभु में विश्वास करने वाले लोग होने के नाते, पवित्र आत्मा द्वारा अक्सर हमें छुआ, फटकारा और अनुशासित किया जाता है। इसलिए, प्रभु के सामने, हम हमेशा रोते और पश्चाताप करते रहते हैं। प्रभु में अपनी श्रद्धा के कारण हमारे भीतर पैदा हुए बहुत-से अच्छे व्यवहार से ही हम पूरी तरह परिवर्तित हो सके हैं। क्या यह परमेश्वर के न्याय का अनुभव करने के कारण नहीं है? अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय कार्य जिसकी आप सब चर्चा कर रहे हैं, वह प्रभु यीशु के कार्य से अलग कैसे है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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