धार्मिक दुनिया के सभी पादरी और एल्डर्स बाइबल के अच्छे जानकार हैं और अक्सर दूसरों से इसकी व्याख्या किया करते हैं और लोगों से बाइबल का निष्ठापूर्ण पालन करवाते हैं। क्या ऐसा करने में, वे प्रभु को ऊँचा नहीं उठाते और उसकी गवाही नहीं देते हैं? आप कैसे कह सकते हैं कि वे लोगों को धोखा दे रहे हैं, कि वे पाखंडी फरीसी हैं?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

हर पंथ और संप्रदाय के अगुवाओं को देखो। वे सभी अभिमानी और आत्म-तुष्ट हैं, और वे बाइबल की व्याख्या संदर्भ के बाहर और उनकी अपनी कल्पना के अनुसार करते हैं। वे सभी अपना काम करने के लिए प्रतिभा और पांडित्य पर भरोसा करते हैं। यदि वे कुछ भी उपदेश करने में असमर्थ होते, तो क्या वे लोग उनका अनुसरण करते? कुछ भी हो, उनके पास कुछ ज्ञान तो है ही, और वे सिद्धांत के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, या वे जानते हैं कि दूसरों को कैसे जीता जाए, और कुछ चालाकियों का उपयोग कैसे करें, जिनके माध्यम से वे लोगों को अपने सामने ले आए हैं और उन्हें धोखा दे चुके हैं। नाम मात्र के लिए, वे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने अगुवाओं का अनुसरण करते हैं। अगर वे उन लोगों का सामना करते हैं जो सच्चे मार्ग का प्रचार करते हैं, तो उनमें से कुछ कहेंगे, "हमें परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में हमारे अगुवा से परामर्श करना है।" देखिये, परमेश्वर में विश्वास करने के लिए कैसे उन्हें किसी की सहमति की आवश्यकता है; क्या यह एक समस्या नहीं है? तो फिर, वे सब अगुवा क्या बन गए हैं? क्या वे फरीसी, झूठे चरवाहे, मसीह-विरोधी, और लोगों के सही मार्ग को स्वीकार करने में अवरोध नहीं बन चुके हैं?

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अनुसरण करना ही परमेश्वर में सच्चे अर्थ में विश्वास करना है' से उद्धृत

जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, और जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य से अवगत होते हैं फिर भी परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करते, वे तो परमेश्वर के और भी बड़े विरोधी होते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें विचलित करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे "मज़बूत देह" वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं? जो लोग परमेश्वर के सामने अपने आपको बड़ा मूल्य देते हैं, वे सबसे अधिक अधम लोग हैं, जबकि जो स्वयं को दीन और विनम्र बनाए रखते हैं, वे सबसे अधिक आदरणीय हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को जानते हैं, और दूसरों के आगे परमेश्वर के कार्य की धूमधाम से उद्घोषणा करते हैं, जबकि वे सीधे परमेश्वर को देखते हैं—ऐसे लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। ऐसे लोगों में परमेश्वर की गवाही नहीं होती, वे अभिमानी और अत्यंत दंभी होते हैं। परमेश्वर का वास्तविक अनुभव और व्यवहारिक ज्ञान होने के बावजूद, जो लोग ये मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर का बहुत थोड़ा-सा ज्ञान है, वे परमेश्वर के सबसे प्रिय लोग होते हैं। ऐसे लोग ही सच में गवाह होते हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य होते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं

चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में विश्वास रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें उसका आज्ञापालन करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते हो, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसका आज्ञापालन किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और गैर-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है? सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो "खज़ाना" होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे "अदम्य नायक" हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने "पवित्र और अलंघनीय" कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में "राजा" बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ? यहाँ तक कि आधा-अधूरा आज्ञापालन करने वाले लोग भी अंत तक नहीं चल सकते, फिर इन आततायियों की तो बात ही क्या है जिनके हृदय में थोड़ी-सी भी आज्ञाकारिता नहीं है! इंसान परमेश्वर के कार्य को आसानी से ग्रहण नहीं कर सकता। इंसान अपनी सारी ताक़त लगाकर भी थोड़ा-बहुत ही पा सकता है जिससे वो आखिरकार पूर्ण बनाया जा सके। फिर प्रधानदूत की संतानों का क्या, जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने की कोशिश में लगी रहती हैं? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें ग्रहण करने की आशा और भी कम नहीं है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे

तू उतना अधिक ज्ञान बोल पाता है जितनी समुद्र तट पर रेत है, फिर भी इसमें से कुछ भी वास्तविक मार्ग नहीं है। यह करके क्या तू लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयत्न नहीं कर रहा है? क्या तू खोखला प्रदर्शन नहीं कर रहा है, जिसके समर्थन के लिए कुछ भी ठोस नहीं है? ऐसा समूचा व्यवहार लोगों के लिए हानिकारक है! जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत और उतना ही अधिक यह वास्तविकता से रहित, उतना ही अधिक यह लोगों को वास्तविकता में ले जाने में अक्षम; जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत, उतना ही अधिक यह तुझसे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करवाता है। ऊँचे से ऊँचे सिद्धांतों को अनमोल खजाने की तरह मत बरत; वे दुखदाई हैं और किसी काम के नहीं हैं! शायद कुछ लोग ऊँचे से ऊँचे सिद्धांतों की बात कर पाते हैं—लेकिन इनमें वास्तविकता का लेशमात्र भी नहीं होता, क्योंकि इन लोगों ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं किया है, और इसलिए उनके पास अभ्यास करने का कोई मार्ग नहीं है। ऐसे लोग दूसरों को सही राह पर ले जाने में अक्षम होते हैं और उन्हें केवल गुमराह ही करेंगे। क्या यह लोगों के लिए हानिकारक नहीं है? कम से कम, तुझे लोगों के वर्तमान कष्टों का निवारण तो करना ही चाहिए, उन्हें प्रवेश करने देना चाहिए; केवल यही समर्पण माना जाता है, और तभी तू परमेश्वर के लिए कार्य करने योग्य होगा। हमेशा आडंबरपूर्ण, काल्पनिक शब्द मत बोला कर, और दूसरों को अपने आज्ञापालन में बाँधने के लिए अनुपयुक्त अभ्यासों का उपयोग मत कर। ऐसा करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और यह केवल उनके भ्रम को ही बढ़ा सकता है। इस तरह करते रहने से बहुत वाद उत्पन्न होगा, जो लोगों को तुझसे घृणा करवाएगा। ऐसी है मनुष्य की कमी, और यह सचमुच अत्यंत लज्जाजनक है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वास्तविकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करो

फरीसियों के पाखंड की मुख्य अभिव्यक्ति क्या थी? उन्होंने केवल पवित्र ग्रंथ को डूबकर पढ़ा और सत्य को तलाश नहीं किया। उन्होंने जब परमेश्वर के वचनों को पढ़ा, तो प्रार्थना या तलाश नहीं की; इसके बजाय, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा, परमेश्वर ने क्या कहा और क्या किया था उसे पढ़ा, और इस तरह उसके वचनों को एक प्रकार के मत, एक सिद्धांत में बदल दिया जिसे उन्होंने दूसरों को पढ़ाया। यही है परमेश्वर के वचनों को डूबकर पढ़ना। तो उन्होंने ऐसा क्यों किया? ऐसी क्या चीज़ थी जिसे उन्होंने डूबकर पढ़ा? उनकी दृष्टि में, ये परमेश्वर के वचन नहीं थे, परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं थे, सत्य तो और भी कम थे, बल्कि वे विद्या का एक रूप थे। ऐसी विद्या को, उनकी दृष्टि में, आगे बढ़ाया जाना चाहिए था, इसका प्रसार किया जाना चाहिए था, और यही परमेश्वर और सुसमाचार के मार्ग का प्रसार भी था। इसी को उन्होंने "प्रवचन" कहा, और जिस धर्मोपदेश का उन्होंने प्रवचन दिया वह धर्मशास्त्र था।

... फरीसियों को जिस धर्मशास्त्र और मत में एक प्रकार के ज्ञान के रूप में महारत हासिल थी उसका उपयोग उन्होंने लोगों की निंदा करने और उन्हें सही या गलत आँकने के औज़ार के रूप में किया। इसका उपयोग उन्होंने प्रभु यीशु पर भी किया—और इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। उनके द्वारा लोगों का मूल्यांकन, और उनके साथ उनका व्यवहार कभी भी उनके सार पर या इस बात पर आधारित नहीं था कि उन्होंने जो कुछ कहा वह सही था या गलत, उनके वचनों का स्रोत या उत्पत्ति तो दूर की बात थी। उन्होंने केवल उन्ही कड़े शब्दों और सिद्धांतों के आधार पर लोगों की निंदा की और उन्हें आँका, जिसमें उन्हें महारत हासिल थी। और इसीलिए, इन फरीसियों ने यह जानते हुए भी कि प्रभु यीशु ने जो कुछ किया वह पाप नहीं था, और कानून का उल्लंघन नहीं था, उसकी निंदा की, क्योंकि प्रभु यीशु ने जो कहा वह उनकी महारत वाले ज्ञान और विद्या तथा उनके द्वारा प्रतिपादित धर्मशास्त्र के मत के विपरीत लग रहा था। और फरीसी इन शब्दों और वाक्यांशों के ऊपर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहते थे, वे इस ज्ञान से चिपट गए थे और इसे छोडना नहीं चाहते थे। अंत में एकमात्र संभावित परिणाम क्या रहा? उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीहा हैं जो आएंगे, या प्रभु यीशु ने जो कहा उसमें सत्य था, यह मानना तो दूर की बात थी कि प्रभु यीशु ने जो किया वह सत्य के अनुरूप था। उन्होंने प्रभु यीशु की निंदा करने के लिए कुछ निराधार आरोप ढूँढ निकाले—लेकिन वास्तव में, क्या वे अपने हृदय में इस बात को जानते थे कि उन्होंने जिन पापों के लिए उसकी निंदा की, क्या वे जायज़ थे? वे जानते थे। फिर भी उन्होंने इस तरह उसकी निंदा क्यों की? (वे इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहते थे कि उनके मन में जो उच्च और शक्तिशाली परमेश्वर है वह प्रभु यीशु हो सकता है, एक साधारण मनुष्य के पुत्र की इस छवि वाला।) वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करना चाहते थे। और इसे स्वीकार करने से इनकार की उनकी प्रकृति क्या थी? क्या इसमें परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश नहीं की गई थी? उनका मतलब यह था, "क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसने निश्चित रूप से किसी प्रतिश्ठित वंश में जन्म लिया होता। इसके अलावा, उसे शास्त्रियों और फरीसियों का संरक्षण स्वीकार करना चाहिए, इस ज्ञान को सीखना चाहिए, और पवित्र ग्रंथ को खूब पढ़ना चाहिए। इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही वह ‘देहधारी’ की उपाधि ग्रहण कर सकता है।" उनका विश्वास था कि, सबसे पहले, तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो; दूसरे, इस ज्ञान के बिना तुम परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते, तुम्हारा परमेश्वर होना तो दूर की बात रही; तीसरे, तुम मंदिर के बाहर काम नहीं कर सकते—तुम अब मंदिर में नहीं हो, तुम हमेशा पापियों के बीच रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह परमेश्वर के कार्य क्षेत्र से परे है। उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? पवित्र ग्रंथ से, मनुष्य के मन से, और उस धर्मशास्त्रीय शिक्षा से जो उन्होंने प्राप्त की थी। क्योंकि वे धारणाओं, कल्पनाओं, और ज्ञान के घमंड में डूबे हुए थे, इसलिए वे इस ज्ञान को सही, सत्य और मूल आधार मान रहे थे, और यह कि परमेश्वर कभी भी इन चीज़ों के विरुद्ध नहीं जा सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की? नहीं की। उन्होंने केवल खुद की धारणाओं और कल्पनाओं, और ख़ुद के अनुभवों को खंगाला, और इनका उपयोग उन्होंने परमेश्वर को परिभाषित करने और यह निर्धारित करने के लिए किया कि वह सही है या गलत। इसका अंतिम परिणाम क्या निकला? उन्होंने परमेश्वर के कार्य की निंदा की और उसे क्रूस पर चढ़ा दिया।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (7)' से उद्धृत

कई लोग परमेश्वर के वचनों को दिन-रात पढ़ते रहते हैं, यहाँ तक कि उनके उत्कृष्ट अंशों को सबसे बेशकीमती संपत्ति के तौर पर स्मृति में अंकित कर लेते हैं, इतना ही नहीं, वे जगह-जगह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, और दूसरों को भी परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति करके उनकी सहायता करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर की गवाही देना है, उसके वचनों की गवाही देना है; ऐसा करना परमेश्वर के मार्ग का पालन करना है; वे सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना है, ऐसा करना उसके वचनों को अपने जीवन में लागू करना है, ऐसा करना उन्हें परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने, बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने योग्य बनाएगा। परंतु परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हुए भी वे कभी परमेश्वर के वचनों पर खुद अमल नहीं करते या परमेश्वर के वचनों में जो प्रकाशित किया गया है, उसके अनुरूप अपने आप को ढालने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग छल से दूसरों की प्रशंसा और विश्वास प्राप्त करने, अपने दम पर प्रबंधन में प्रवेश करने, परमेश्वर की महिमा का गबन और उसकी चोरी करने के लिए करते हैं। वे परमेश्‍वर के वचनों के प्रसार से मिले अवसर का दोहन परमेश्‍वर का कार्य और उसकी प्रशंसा पाने के लिए करने की व्‍यर्थ आशा करते हैं। कितने ही वर्ष गुज़र चुके हैं, परंतु ये लोग परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में न केवल परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं, परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की प्रक्रिया में न केवल उस मार्ग को खोजने में असफल रहे हैं जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए, दूसरों को परमेश्वर के वचनों से सहायता और पोषण प्रदान करने की प्रक्रिया में न केवल उन्होंने स्वयं सहायता और पोषण नहीं पाया है, और इन सब चीज़ों को करने की प्रक्रिया में वे न केवल परमेश्वर को जानने या परमेश्वर के प्रति स्वयं में वास्तविक श्रद्धा जगाने में असमर्थ रहे हैं; बल्कि, इसके विपरीत, परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ और अधिक गहरी हो रही हैं; उस पर अविश्वास और अधिक बढ़ रहा है और उसके बारे में उनकी कल्पनाएँ और अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण होती जा रही हैं। परमेश्वर के वचनों के बारे में अपने सिद्धांतों से आपूर्ति और निर्देशन पाकर वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे बिलकुल मनोनुकूल परिस्थिति में हों, मानो वे अपने कौशल का सरलता से इस्तेमाल कर रहे हों, मानो उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य, अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो, और मानो उन्होंने एक नया जीवन जीत लिया हो और वे बचा लिए गए हों, मानो परमेश्वर के वचनों को धाराप्रवाह बोलने से उन्‍होंने सत्य प्राप्त कर लिया हो, परमेश्वर के इरादे समझ लिए हों, और परमेश्वर को जानने का मार्ग खोज लिया हो, मानो परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में वे अकसर परमेश्वर से रूबरू होते हों। साथ ही, अक्सर वे "द्रवित" होकर बार-बार रोते हैं और बहुधा परमेश्वर के वचनों में "परमेश्वर" की अगुआई प्राप्त करते हुए, वे उसकी गंभीर परवाह और उदार मंतव्य समझते प्रतीत होते हैं और साथ ही लगता है कि उन्होंने मनुष्य के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रबंधन को भी जान लिया है, उसके सार को भी जान लिया है और उसके धार्मिक स्वभाव को भी समझ लिया है। इस नींव के आधार पर, वे परमेश्वर के अस्तित्‍व पर और अधिक दृढ़ता से विश्वास करते, उसकी उत्कृष्टता की स्थिति से और अधिक परिचित होते और उसकी भव्यता एवं श्रेष्ठता को और अधिक गहराई से महसूस करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के वचनों के सतही ज्ञान से ओतप्रोत होने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विश्वास में वृद्धि हुई है, कष्ट सहने का उनका संकल्प दृढ़ हुआ है, और परमेश्वर संबंधी उनका ज्ञान और अधिक गहरा हुआ है। वे नहीं जानते कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव नहीं करेंगे, तब तक उनका परमेश्वर संबंधी सारा ज्ञान और उसके बारे में उनके विचार उनकी अपनी इच्छित कल्पनाओं और अनुमान से निकलते हैं। उनका विश्वास परमेश्वर की किसी भी प्रकार की परीक्षा के सामने नहीं ठहरेगा, उनकी तथाकथित आध्‍यात्मिकता और उनका आध्‍यात्मिक कद परमेश्वर के किसी भी परीक्षण या निरीक्षण के तहत बिलकुल नहीं ठहरेगी, उनका संकल्प रेत पर बने हुए महल से अधिक कुछ नहीं है, और उनका परमेश्वर संबंधी तथाकथित ज्ञान उनकी कल्पना की उड़ान से अधिक कुछ नहीं है। वास्तव में इन लोगों ने, जिन्होंने एक तरह से परमेश्वर के वचनों पर काफी परिश्रम किया है, कभी यह एहसास ही नहीं किया कि सच्ची आस्था क्या है, सच्ची आज्ञाकारिता क्या है, सच्ची देखभाल क्या है, या परमेश्वर का सच्चा ज्ञान क्या है। वे सिद्धांत, कल्पना, ज्ञान, हुनर, परंपरा, अंधविश्वास, यहाँ तक कि मानवता के नैतिक मूल्यों को भी परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए "पूँजी" और "हथियार" का रूप दे देते हैं, उन्‍हें परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का आधार बना लेते हैं। साथ ही, वे इस पूँजी और हथियार का जादुई तावीज़ भी बना लेते हैं और उसके माध्यम से परमेश्वर को जानते हैं और उसके निरीक्षणों, परीक्षणों, ताड़ना और न्याय का सामना करते हैं। अंत में जो कुछ वे प्राप्त करते हैं, उसमें फिर भी परमेश्वर के बारे में धार्मिक संकेतार्थों और सामंती अंधविश्वासों से ओतप्रोत निष्कर्षों से अधिक कुछ नहीं होता, जो हर तरह से रोमानी, विकृत और रहस्‍यमय होता है। परमेश्वर को जानने और उसे परिभाषित करने का उनका तरीका उन्हीं लोगों के साँचे में ढला होता है, जो केवल ऊपर स्वर्ग में या आसमान में किसी वृद्ध के होने में विश्वास करते हैं, जबकि परमेश्वर की वास्तविकता, उसका सार, उसका स्वभाव, उसका स्‍वरूप और अस्तित्‍व आदि—वह सब, जो वास्तविक स्वयं परमेश्वर से संबंध रखता है—ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें समझने में उनका ज्ञान विफल रहा है, जिनसे उनके ज्ञान का पूरी तरह से संबंध-विच्छेद हो गया है, यहाँ तक कि वे इतने अलग हैं, जितने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव। इस तरह, हालाँकि वे लोग परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति और पोषण में जीते हैं, फिर भी वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर सचमुच चलने में असमर्थ हैं। इसका वास्‍तविक कारण यह है कि वे कभी भी परमेश्वर से परिचित नहीं हुए हैं, न ही उन्होंने उसके साथ कभी वास्तविक संपर्क या समागम किया है, अत: उनके लिए परमेश्वर के साथ पारस्परिक समझ पर पहुँचना, या अपने भीतर परमेश्वर के प्रति सच्‍चा विश्‍वास पैदा कर पाना, उसका सच्चा अनुसरण या उसकी सच्ची आराधना जाग्रत कर पाना असंभव है। इस परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण ने—कि उन्हें इस प्रकार परमेश्वर के वचनों को देखना चाहिए, उन्हें इस प्रकार परमेश्वर को देखना चाहिए, उन्हें अनंत काल तक अपने प्रयासों में खाली हाथ लौटने, और परमेश्वर का भय मानने तथा बुराई से दूर रहने के मार्ग पर न चल पाने के लिए अभिशप्त कर दिया है। जिस लक्ष्य को वे साध रहे हैं और जिस ओर वे जा रहे हैं, वह प्रदर्शित करता है कि अनंत काल से वे परमेश्वर के शत्रु हैं और अनंत काल तक वे कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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