पाखंड क्या है?

12 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

"फरीसी" शब्द की परिभाषा क्या है? यह कोई ऐसा व्यक्ति है जो पाखंडी है, जो नकली है और अपने हर कार्य में नाटक करता है, अच्छा, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करता है। क्या वे वास्तव में इस तरह के हैं? वे पाखंडी हैं, और इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है वह झूठ है, वह सब ढोंग है—यह उनका असली चेहरा नहीं है। उनका असली चेहरा उनके हृदयों के भीतर छिपा है; यह दिखायी नहीं देता है। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, यदि वे सत्य को नहीं समझते हैं, तो उनके द्वारा प्राप्त सिद्धांत क्या बन जाते हैं? क्या वे सिद्धांत के वचन बन जाते हैं जो लोग अक्सर बोलते हैं? लोग ढोंग करने और अपने को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए इन तथा-कथित सही सिद्धांतों का उपयोग करते हैं। वे जहाँ कहीं भी जाते हैं, जिन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, वे जो कहते हैं, और उनका बाहरी व्यवहार दूसरों को सही और अच्छा लगता है। वे सभी व्यक्ति की अवधारणाओं और रुचि के अनुरूप हैं। दूसरों की नज़रों में, वे धर्मनिष्ठ और विनम्र होते हैं। वे सहनशीलता और सहिष्णुता में सक्षम होते हैं, और वे दूसरों से प्रेम कर सकते हैं और परमेश्वर से प्यार कर सकते हैं—लेकिन वास्तव में, यह सब नक़ली है; यह सब केवल ढोंग है और एक तरीका है जिससे वे अपने को भरते हैं। बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे ज़रा से भी वफ़ादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतही तौर पर, उन्होंने अपने परिवार और अपनी आजीविका को छोड़ दिया है, वे कड़ी मेहनत करते हैं और खुद को व्यय करते हैं—लेकिन वास्तव में वे कलीसिया से गुप्त रूप से मुनाफा कमा रहे हैं और चढ़ावों को चुरा रहे हैं! जो कुछ भी वे बाहर प्रकट करते हैं, उनका सारा व्यवहार नक़ली है! एक पाखंडी फरीसी होने का यही अर्थ है। "फरीसी"—ये लोग कहाँ से आते हैं? क्या वे अविश्वासियों के बीच दिखाई देते हैं? ये सभी विश्वासियों के बीच दिखाई देते हैं। ये विश्वासी उनमें क्यों बदल जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर के वचनों ने उन्हें इस तरह का बना दिया है? वह कौन सा मुख्य कारण है कि वे उस तरह के लोगों में बदल जाते हैं? कारण है कि उन्होंने ग़लत रास्ता अपना लिया है। उन्होंने परमेश्वर के वचनों को एक उपकरण के रूप में लिया हैं जिससे वे स्वयं को शस्त्र-सज्जित करते हैं; वे खुद को इन वचनों के साथ शस्त्र-सज्जित करते हैं और उन्हें जीवित रहने के लिए, और बिना कुछ दिए कुछ पाने के लिए, पूँजी के रूप में मानते हैं। वे सिद्धांतों का उपदेश देने के अलावा कुछ नहीं करते हैं, मगर उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया है। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर के मार्ग का कभी भी अनुसरण नहीं करने के बावज़ूद वचनों और सिद्धान्तों का उपदेश देना जारी रखते हैं? ये पाखण्डी फरीसी हैं। उनका कथित अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण, वह थोड़ा सा जो उन्होंने त्यागा और व्यय किया है वह पूरी तरह से मज़बूरी में किया गया है, यह सब उनके द्वारा किया गया नाटक है। वे पूरी तरह से नक़ली हैं; यह सब ढोंग है। इन लोगों के हृदयों में परमेश्वर के प्रति जरा सी भी श्रद्धा नहीं है, और वे परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था भी नहीं रखते हैं। इससे भी अधिक, वे अविश्वासियों में से हैं। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे इस तरह के रास्ते पर चलेंगे, और वे फरीसी बन जाएँगे। क्या यह डरावना नहीं है?

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक' से उद्धृत

इस्राएल में "फरीसी" एक प्रकार की उपाधि हुआ करती थी। अब वह उसके बजाय एक ठप्पा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि फरीसी एक प्रकार के व्यक्ति के प्रतिनिधि बन गए हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ हैं? वे नारे लगाते हैं; वे ढोंग करने में, ठाट-बाट में, अपने असली आत्म को छिपाने में कुशल होते हैं, और वे महान कुलीनता, महान पवित्रता और ईमानदारी, महान निष्पक्षता और सम्मान का दिखावा करते हैं। नतीजतन, वे सत्य का ज़रा भी अभ्यास नहीं करते। वे कार्य कैसे करते हैं? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं, उपदेश देते हैं, दूसरों को भलाई करने, बुराई न करने, परमेश्वर का विरोध न करने की शिक्षा देते हैं; वे प्रीतिकर बातें कहते हैं और दूसरों के सामने अच्छा व्यवहार करते हैं, किंतु जब दूसरों की पीठ फिरती है, तो वे चढ़ावे की चीज़ें चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा था कि वे "मच्छर तो छान डालते हैं, परंतु ऊँट निगल जाते हैं।" इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतह पर तो अच्छा लगता है—वे आडंबरपूर्ण तरीके से नारेबाजी करते हैं, बड़े-बड़े सिद्धांत बोलते हैं, और उनके शब्द सुखद लगते हैं, लेकिन उनके कर्म अव्यवस्थित गड़बड़झाला होते हैं, पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी। उनके व्यवहार और बाह्य रूप सब ढोंग, सब धोखाधड़ी हैं; उनके दिलों में न तो सत्य के लिए ज़रा-सा भी प्रेम है, न ही सकारात्मक चीज़ों के लिए। वे सत्य से क्षुब्ध हैं, उस सबसे क्षुब्ध हैं जो परमेश्वर से आता है, और सकारात्मक चीजों से क्षुब्ध हैं। वे किस चीज़ से प्यार करते हैं? क्या वे निष्पक्षता और धार्मिकता से प्यार करते हैं? (नहीं।) तुम कैसे कह सकते हो कि वे इन चीज़ों से प्यार नहीं करते? (प्रभु यीशु काम करने और स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने आया, फिर भी उन्होंने उसकी निंदा की।) अगर उन्होंने उसकी निंदा न की होती, तो क्या तुम यह कहने में सक्षम होते? प्रभु यीशु के कार्य करने के लिए आने से पहले, तुम किस आधार पर कह सकते थे कि उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद नहीं है? तुम यह कह पाने में सक्षम नहीं रहे होगे, है ना? उनका सारा व्यवहार ढोंग है, और वे इस अच्छे व्यवहार का ढोंग दूसरों के विश्वास को ठगने के लिए करते हैं। क्या यह पाखंड और छल नहीं है? क्या ऐसे धोखेबाज सत्य से प्रेम कर सकते हैं? उनके इस अच्छे व्यवहार का छिपा हुआ उद्देश्य क्या है? उनके उद्देश्य का एक भाग दूसरों को ठगना है; दूसरा भाग दूसरों को धोखा देना, उन पर विजय पाना और उनसे अपनी आराधना करवाना, और अंत में, पुरस्कार पाना है। इतनी बड़ी धोखाधड़ी करने के लिए उनकी तकनीकें कितनी चतुर होंगी? तो, क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? बेशक नहीं। वे हैसियत से प्यार करते हैं, वे प्रसिद्धि और संपत्ति से प्यार करते हैं, और वे पुरस्कार प्राप्त करना चाहते हैं। क्या वे लोगों के मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर के वचनों को व्यवहार में लाते हैं? बिलकुल नहीं। वे उनके ज़रा-से हिस्से को भी नहीं जीते; वे बस लोगों को धोखा देने और उन पर विजय पाने के लिए, अपनी हैसियत बचाने और प्रतिष्ठा मजबूत करने के लिए स्वांग रचते हैं और अपने को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक बार जब ये चीजें हाथ में आ जाती हैं, तो वे इनका उपयोग पूँजी हासिल करने और आय के एक स्रोत के रूप में करते हैं। क्या यह घृणास्पद नहीं है? इसे उनके इन सभी व्यवहारों में देखा जा सकता है कि सत्य से प्रेम न करना ही उनका सार है, क्योंकि वे सत्य को कभी व्यवहार में नहीं लाते। इस बात का क्या संकेत है कि वे सत्य को व्यवहार में नहीं लाते? यह सबसे बड़ा संकेत था : प्रभु यीशु काम करने आया था और उसने जो कुछ कहा वह सही था, उसने जो कुछ कहा वह सत्य था। उन्होंने इन बातों के साथ कैसा व्यवहार किया? (उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया।) क्या उन्होंने प्रभु यीशु के वचनों को इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे मानते थे कि वे गलत हैं, या उन्होंने यह जानते हुए भी उन्हें अस्वीकार किया कि वे सही हैं? (उन्होंने यह जानते हुए भी उन्हें अस्वीकार किया कि वे सही हैं।) और इसका क्या कारण हो सकता है? वे सत्य से प्रेम नहीं करते, और वे सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं। प्रभु यीशु ने जो कहा, वह सब बिना किसी त्रुटि के था, सही था, और हालाँकि उन्हें प्रभु यीशु के वचनों में उसके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कोई गलती नहीं मिली, फिर भी उन्होंने कहा, "क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं?" उन्होंने प्रभु यीशु के वचनों में दोष ढूँढ़ने की कोशिश की, ताकि उसके खिलाफ इस्तेमाल कर सकें, और कोई भी दोष न मिलने पर उन्होंने उसकी निंदा की, और फिर उन्होंने साजिश रची : "उसे सूली पर चढ़ा दो। या तो वह रहेगा या हम।" इस तरह वे प्रभु यीशु के खिलाफ खड़े हो गए। भले ही वे यह नहीं मानते थे कि प्रभु यीशु प्रभु है, वह एक अच्छा व्यक्ति तो था जिसने न तो सांसारिक व्यवस्था को तोड़ा और न ही मूसा की व्यवस्था को; फिर भी उन्होंने प्रभु यीशु की निंदा क्यों की? उन्होंने प्रभु यीशु के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? इससे यह देखा जा सकता है कि ये लोग कितने दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण हैं—वे परम दुष्ट हैं! फरीसी अपना जो दुष्ट चेहरा उजागर करते हैं, वह उनके दयालुता के छद्मावरण से ज्यादा अलग नहीं हो सकता। ऐसे कई लोग हैं जो यह नहीं पहचान सकते कि उनका कौन-सा चेहरा असली है और कौन-सा नकली, फिर भी प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सभी को प्रकट किया। फरीसी खुद को कितनी अच्छी तरह से छिपाते हैं, वे बाहर से कितने दयालु लगते हैं—अगर तथ्यों का खुलासा न हुआ होता, तो कोई भी यह देख पाने में सक्षम न होता कि असल में वे क्या हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है' से उद्धृत

यदि, अपने विश्वास में, लोग सत्य को पालन किए जाने वाले विनियमों के एक समुच्चय के रूप में मानते हैं, तो क्या उनका विश्वास धार्मिक अनुष्ठानों में बदलने के लिए उत्तरदायी नहीं है? और इस तरह के धार्मिक अनुष्ठानों और ईसाई धर्म के बीच क्या अंतर है? वे चीज़ों को जिस तरह से कहते हैं उसमें अधिक गहरे और अधिक प्रगतिशील हो सकते हैं, लेकिन यदि उनका विश्वास सिर्फ विनियमों का एक समुच्चय और एक प्रकार का अनुष्ठान बन जाता है, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि यह ईसाई धर्म में बदल गया है? (हाँ, ऐसा होता है।) पुरानी और नई शिक्षाओं के बीच अंतर हैं, लेकिन यदि शिक्षाएँ एक तरह के सिद्धांत से ज्यादा कुछ नहीं हों और लोगों के लिए मात्र अनुष्ठान का, सिद्धान्त, का एक रूप बन गयी हों—और, इसी तरह से, यदि वे इससे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं या सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, तो क्या उनका विश्वास केवल ईसाई धर्म के समान नहीं है? सार रूप में, क्या यह ईसाई धर्म नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, तुम लोगों के व्यवहार में और अपने कर्तव्यों को करने में, किन चीज़ों में तुम्हारे दृष्टिकोण और स्थितियाँ ईसाई धर्म में विश्वासियों के समान या उसी तरह की हैं? (विनियमों का पालन करने में, और वचनों और सिद्धान्तों से सज्जित होने में।) (आध्यात्मिक होने के दिखावे और अच्छा व्यवहार दर्शाने वाला होने, और धर्मपरायण और विनम्र होने पर ध्यान केन्द्रित करने में।) तू बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार वाला होने की तलाश करता है, अपने आप को एक प्रकार के आध्यात्मिकता के आभास से भरने, आध्यात्मिक सिद्धान्त बोलने, ऐसी चीज़ों को कहने जो आध्यात्मिक रूप से सही हों, ऐसी चीज़ों को करने जो सापेक्ष रूप से मानव अवधारणाओं और कल्पनाओं में अनुमोदित हैं, और धार्मिक होने का ढोंग करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करता है। तू जो कुछ कहता और करता है उसमें तू ऊँचाई से वचनों और सिद्धांतों को बोलता है, लोगों को अच्छा करने, धार्मिक लोग बनने, और सत्य को समझने के लिए सिखाता है; तू आध्यात्मिक होने के बारे में हवा लगाता है, और तू एक सतही आध्यात्मिकता टपकाता है। हालाँकि अभ्यास में, तूने कभी भी सत्य की तलाश नहीं की है; जैसे ही तू किसी समस्या का सामना करता है, तो तू परमेश्वर को एक तरफ उछालते हुए, पूरी तरह से मानवीय इच्छा के अनुसार कार्य करता है। तूने कभी भी सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं किया, तू कभी भी यह नहीं समझ पाया है कि सत्य में किस बारे में बोला गया है, परमेश्वर की इच्छा क्या है, मनुष्य से उसे किन मानकों की अपेक्षा है—तूने इन मामलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया है या अपने को उनके साथ चिंतित नहीं किया है। क्या लोगों के ऐसे बाहरी कृत्य और आंतरिक स्थितियाँ—अर्थात्, इस प्रकार का विश्वास—परमेश्वर के लिए भय मानने और बुराई से दूर रहने को शामिल करता है? यदि लोगों की आस्था और उनके सत्य के अनुसरण के बीच कोई संबंध नहीं है, तो क्या वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं करते हैं? इस बात की परवाह किए बिना कि वे लोग जिनका सत्य का अनुसरण करने से कोई संबंध नहीं है कितने वर्षों तक विश्वास कर सकते हैं, क्या सच्ची, परमेश्वर का भय मानने वाली श्रद्धा प्राप्त कर सकते हैं अथवा नहीं और बुराई से दूर रह सकते हैं या नहीं? (वे ऐसा नहीं कर सकते हैं।) तो ऐसे लोगों का बाहरी व्यवहार क्या होता है? वे किस प्रकार के मार्ग पर चल सकते हैं? (फरीसियों का मार्ग।) वे अपने आप को किस चीज़ से सज्जित करने में अपने दिनों को बिताते हैं? क्या ये चीज़ें वचन और सिद्धांत नहीं हैं? क्या वे अपने आप को फरीसियों की तरह अधिक बनाने, अधिक आध्यात्मिक, और ऐसे लोगों की तरह अधिक बनाने के लिए जो कथित रूप से परमेश्वर की सेवा करते हैं, अपने आप को वचनों और सिद्धांतों से सज्जित, सुशोभित करते हुए, अपने दिनों को नही बिताते हैं? बस इन सभी पद्धतियों की प्रकृति क्या है? क्या यह परमेश्वर की आराधना करना है? क्या यह उस में वास्तविक विश्वास है? (नहीं, यह विश्वास नहीं है।) तो वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर को धोखा दे रहे है; वे बस एक प्रक्रिया के चरण को पूरा कर रहे हैं, और धार्मिक अनुष्ठानों में संलग्न हो रहे हैं। वे विश्वास के ध्वज को लहरा रहे हैं और धार्मिक संस्कारों को निभा रहे हैं, आशीष पाने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। वे परमेश्वर की आराधना बिल्कुल नहीं करते हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'यदि तू हर समय परमेश्वर के सामने रह सकता है केवल तभी तू उद्धार के पथ पर चल सकता है' से उद्धृत

"प्रतिरूपण" शब्द में कार्यकारी भाग व्यक्तित्व है। तो मसीह-विरोधी अपना किस तरह का व्यक्तित्व गढ़ते हैं? वे क्या दिखने की कोशिश करते हैं? उनका यह स्वांग निश्चित ही प्रतिष्ठा और साख के लिए होता है। इसे इन चीज़ों से अलग नहीं किया जा सकता, अन्यथा वे शायद इस तरह का दिखावा नहीं करेंगे—कोई वजह नहीं है कि वे ऐसी मूर्खता करें। यह देखते हुए कि इस तरह का व्यवहार निंदनीय, घृणित और वितृष्णापूर्ण माना जाता है, वे फिर भी ऐसा क्यों करते हैं? निस्संदेह उनके अपने लक्ष्य और मंतव्य हैं—इसमें इरादे और मंशाएँ शामिल हैं। अगर मसीह-विरोधियों को लोगों के मन में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानी है, तो उन्हें यह कोशिश करनी होगी कि लोग उन्हें ऊंची नज़र से देखें। और लोग किस तरह ऐसा करेंगे? लोगों की धारणाओं में अच्छा माने जाने वाले कुछ व्यवहारों और अभिव्यक्तियों का स्वांग रचने के साथ-साथ, मसीह-विरोधियों का एक दूसरा पहलू यह है कि वे कुछ ऐसे व्यवहारों और छवियों का भी स्वांग रचते हैं जो लोगों की नज़रों में महान और भव्य हैं, ताकि वे लोगों की नज़रों में ऊपर उठ सकें। कलीसियाओं में लोग अक्सर कुछ ऐसे व्यक्तियों का सामना करते हैं जो आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं, ताकि दूसरों को ऐसा लगे कि वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, और बहुत आध्यात्मिक हैं। और क्या लोग आध्यात्मिक व्यक्तियों को अद्भुत और भव्य नहीं मानते हैं? (हाँ)। मसीह-विरोधी चाहे जिस किसी भी प्रकार या क़िस्म के व्यक्ति को प्रतिरूपित करें, उसे इस तरह का होना होगा जिसे लोग अच्छा, और भव्य, और महान मानते हों, अन्यथा वे उसे प्रतिरूपित नहीं करेंगे। यदि वे शैतान को प्रतिरूपित करें, तो क्या लोग उन्हें आदरपूर्वक देखेंगे? यदि वे एक बदमाश, एक लुटेरे, एक ठग, या एक वेश्या को प्रतिरूपित करें, तो क्या लोग उनके बारे में बहुत अच्छा सोचेंगे? (नहीं)। यदि वे कहें कि वे एक फरीसी या यहूदा हैं, तो क्या लोग उन्हें नापसंद नहीं करेंगे? (हाँ)। ऐसे व्यक्तियों को स्पष्ट रूप से नकारात्मक या बुरा माना जाता है। मसीह-विरोधी ऐसा कभी नहीं करेंगे। तो वे किसे प्रतिरूपित करते हैं? वे उन लोगों को प्रतिरूपित करते हैं, जो लोगों के मन में, भव्य, अच्छे और अद्भुत माने जाते हैं। सबसे पहले कलीसियाओं के वो लोग हैं जो कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, जिनके पास आध्यात्मिक अनुभव और गवाही है, जिन्होंने परमेश्वर की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त किए हैं, संकेतों और आश्चर्यों का अनुभव किया है, महान दर्शनों को निहारा है, और जिन्हें कुछ अद्वितीय अनुभव हुए हैं; ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों के साथ होते समय बहुत कुछ बोलते हैं, जो दो या तीन घंटे या इससे भी लंबे समय तक इसे जारी रख सकते हैं; ऐसे लोग भी होते हैं जिनके तरीके, साधन, और चीज़ों को करने के सिद्धांत कलीसिया के नियमों के साथ मेल खाते हैं; और फिर ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर में बहुत विश्वास रखते हुए नज़र आते हैं। इन लोगों को आध्यात्मिक व्यक्तियों के रूप में जाना जाता है, और वे अपेक्षाकृत आध्यात्मिक होते हैं। तो मसीह-विरोधी आध्यात्मिक लोगों को कैसे प्रतिरूपित करते हैं? वे ठीक इन्हीं चीज़ों को करते हैं, जिनके कारण लोग उन्हें आध्यात्मिक मान लें। और जब वे इन चीज़ों को करते हैं, तो क्या वे चीज़ें सहज ही, दिल से की जाती हैं? नहीं। मसीह-विरोधी केवल नकल करते हैं, नियमों का पालन करते हैं। और जब वे इन चीज़ों को करते हैं, तो लोगों को इसमें से कुछ सही व्यवहार के रूप में प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, जब वे किसी मुद्दे का सामना करते हैं, तो वे फ़ौरन प्रार्थना करते हैं, लेकिन जब वे ऐसा करते हैं तो वे सभी प्रचलित हरक़तों से गुज़रते हैं। दरअसल, वे सचमुच तलाश और प्रार्थना नहीं कर रहे होते हैं; वे तो बस लोगों से यह कहलवाने की कोशिश कर रहे होते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और परमेश्वर में बहुत श्रद्धा रखते हैं, और जब वे किसी मुद्दे का सामना करते हैं तो वे जाकर प्रार्थना करने लगते हैं। इससे भी अधिक, चाहे वे कितने भी गंभीर रूप से बीमार हो जाएँ, वे चिकित्सा उपचार लेने के लिए तब नहीं जाते हैं जब उन्हें जाना चाहिए या तब दवा नहीं खाते जब उन्हें खानी चाहिए। लोग कहते हैं, "यदि तुम दवा नहीं लेते हो, तो तुम्हारी बीमारी और भी बदतर हो सकती है। एक समय प्रार्थना के लिए होता है, और दवा के लिए भी एक समय होता है। तुम्हें बस अपने विश्वास के अनुसार चलने की आवश्यकता है और तुम्हें अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए।" वे जवाब देते हैं, "सब ठीक है—मेरे पास परमेश्वर है, मुझे डर नहीं है।" बाहर से, वे शांत और निर्भय और विश्वास से भरे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन अंदर से वे बुरी तरह से घबराए होते हैं; अकेले में, वे दवा की गोली पर गोली खाते हैं, और ज़रा-सा भी कष्ट होने पर वे उसी पल, चुपके से डॉक्टर के पास दौड़ जाते हैं। यदि लोग उन्हें दवा लेते हुए देख लेते हैं, और उनसे पूछते हैं कि यह क्या है, तो वे कहते हैं, "मैं अभी कुछ स्वास्थ्यपूरक ले रहा हूँ। ये मुझे ऊर्जा देते हैं, ताकि अपना कर्तव्य निभाते समय मैं अटक न जाऊँ।" वे यह भी कहते हैं, "बीमारी परमेश्वर द्वारा किया गया एक परीक्षण है। जब हम बीमारी के बीच रहते हैं, तो हम बीमार हो जाते हैं; जब हम परमेश्वर के वचनों के बीच रहते हैं, तो बीमारी चली जाती है। हमें बीमारी के बीच नहीं रहना चाहिए—अगर हम परमेश्वर के वचनों के बीच रहें, तो यह बीमारी गायब हो जाएगी।" सतही तौर पर वे अक्सर लोगों को यही सिखाते हैं, दूसरों की मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं। लेकिन जब उनके साथ कुछ होता है, तो वे अकेले में ही इसे खुद से हल करने का प्रयास करते हैं। बाह्य रूप से, वे अभी भी कहते हैं: सभी चीज़ों में परमेश्वर पर भरोसा करो, सब कुछ परमेश्वर के हाथों में होता है। लेकिन यह वास्तव में वो नहीं जो वे अकेले में किया करते हैं। उनका कोई सच्चा विश्वास नहीं होता है। जब वे किसी समस्या का सामना करते हैं, तो वे अन्य लोगों के सामने प्रार्थना करते और कहते हैं कि वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण कर रहे हैं, कि यह मुद्दा परमेश्वर से आया है, और लोगों को शिकायत नहीं करनी चाहिए। लेकिन, अपने मन में, वे सोच रहे होते हैं : "मैं इतना निष्ठावान हूँ और अपना कर्तव्य निभाने में बहुत मेहनत करता हूँ, फिर यह बीमारी मुझ पर कैसे आ पड़ी है? और किसी अन्य को यह क्यों नहीं हुई है? वे कोई शिकायत करने का साहस तो नहीं करते, लेकिन उनके मन में परमेश्वर के बारे में संदेह उठते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर का किया हुआ सब कुछ सही नहीं होता। हालाँकि, बाहर से वे यही दिखावा करते हैं कि कुछ भी ग़लत नहीं है, कि बीमार होने के बावजूद, बीमारी अब भी उन्हें रोकती हुई नज़र नहीं आती है, वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, वे अभी भी वफ़ादार हैं, और अभी भी खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकते हैं। जब उन्हें एक प्रतिरूपक कहा जाता है, तब उनका व्यवहार दूषित दिखाई देता है। ऐसे व्यक्ति का विश्वास और उसकी आज्ञाकारिता नकली होती है, वैसी ही उनकी वफ़ादारी होती है। वहाँ कोई सच्ची आज्ञाकारिता नहीं होती है, न ही सच्चा विश्वास, परमेश्वर पर वास्तविक भरोसा करना, और मामलों को उसके हाथों में सौंप देना, तो वे और भी बहुत कम करते हैं। उन्हें परवाह नहीं होती है कि परमेश्वर द्वारा क्या व्यवस्था की गई है, या परमेश्वर की इच्छा क्या है; वे स्वयं अपनी भ्रष्टता की जाँच नहीं करते हैं, वे इस बात की जाँच नहीं करते हैं कि उनके साथ समस्या क्या है, और न ही समस्याएँ खड़ी होने पर वे समस्याओं का समाधान करते हैं, लेकिन वे बाहरी रूप से दिखावा करते हैं कि कुछ भी उन्हें रोक नहीं रहा है, कि वे समर्पण करने में सक्षम हैं, और उन्हें आस्था है, और वे दृढ़ रह सकते हैं। बहरहाल, अपने मन में वे सोच रहे होते हैं, "क्या यह बीमारी मुझे इसलिए हुई कि परमेश्वर मुझसे नफ़रत करता है? और अब, जब कि वह मुझसे घृणा करता है, क्या मैं एक सेवाकर्मी हूँ? क्या परमेश्वर सेवा प्रदान करने के लिए मेरा उपयोग कर रहा है? क्या अभी भी मेरा कोई प्रयोजन है? क्या परमेश्वर मुझे उजागर करने के लिए, मुझे इस कर्तव्य को निभाने से रोकने के लिए, इसका उपयोग कर रहा है?" बाहर से एक आध्यात्मिक व्यक्ति होने का ढोंग करते हुए, शिकायत नहीं करते हुए, अपने मन में वे यही सोचते हैं, और उनके साथ कुछ घटित होने पर वे कहते हैं "इसके पीछे परमेश्वर के दयापूर्ण इरादे हैं"। वे खुले तौर पर शिकायत नहीं करते हैं, लेकिन उनके दिल चिढ़ जाते हैं, और उनके मन एक तूफानी समुद्र की तरह झोंटे खाते हैं; शिकायतें, और परमेश्वर के बारे में संदेह और प्रश्न, सभी एक साथ आ जाते हैं। बाहर से, वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते रहते हैं और अपना कर्तव्य निभाने में तत्पर रहते हैं, लेकिन अपने दिलों में, वे पहले ही अपना कर्तव्य त्याग चुके होते हैं। क्या ढोंग करने का मतलब यह नहीं है?

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (18)' से उद्धृत

ये मसीह-विरोधी आध्यात्मिक लोगों की भूमिका निभाना चाहते हैं, वे भाइयों और बहनों में विशिष्ट बनना चाहते हैं, ऐसे लोग जिनके पास सत्य है और जो सत्य को समझते हैं, ताकि वे ऐसे लोगों की मदद कर सकें जो कमज़ोर और अधपके हैं। और यह भूमिका निभाने के पीछे उनका क्या मकसद है? सबसे पहले तो, वे यह मानते हैं कि वे पहले ही देह से ऊपर उठ चुके हैं, वे सांसारिक सरोकारों को पीछे छोड़ चुके हैं, वे सामान्य मानवता की दुर्बलताओं को त्याग चुके हैं, और सामान्य मानवता की दैहिक जरूरतों से उबर चुके हैं; वे खुद को ऐसे व्यक्ति समझते हैं जो परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण कामों की जिम्मेदारी ले सकते हैं, जो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रख सकते हैं, जिनके मस्तिष्क परमेश्वर के वचनों से ओतप्रोत हैं। वे खुद को ऐसे लोगों की शैली में ढाल लेते हैं जो पहले से ही परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके हैं और उसे प्रसन्न कर चुके हैं, और जो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रख सकते हैं, और परमेश्वर द्वारा अपने मुख से किए गए वायदे के अनुसार मनोरम गंतव्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए वे अक्सर आत्म-संतुष्ट होते हैं और खुद को दूसरों से अलग समझते हैं। ऐसे शब्दों और वाक्यांशों का इस्तेमाल करके जो उन्हें याद होते हैं और जिन्हें वे अपने मस्तिष्क में समझने में समर्थ होते हैं, वे दूसरों को धिक्कारते हैं, उनकी निंदा करते हैं और उनके बारे में निष्कर्ष निकालते हैं; इसी तरह, वे अक्सर ऐसे अभ्यासों और बातों का भी इस्तेमाल करते हैं जो उनकी अपनी धारणाओं की उपज होते हैं, ताकि दूसरों के बारे में निष्कर्ष निकालकर उन्हें सीख दे सकें, दूसरों से भी इन अभ्यासों और बातों का पालन करवा सकें, और इस तरह, भाइयों और बहनों के बीच वह दर्जा हासिल कर सकें जो वे चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे सही शब्द और वाक्यांश बोल सकते हैं, सही सिद्धांतों की बात कर सकते हैं, कुछ नारे लगा सकते हैं, परमेश्वर के घर में थोड़ी-सी जिम्मेदारी उठा सकते हैं, थोड़े-से महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं, अगुवाई करने के लिए तैयार हैं, और लोगों के किसी समूह में व्यवस्था बनाए रख सकते हैं, तो इसका मतलब है कि वे आध्यात्मिक हैं, और उनकी स्थिति सुरक्षित है। और इसलिए, आध्यात्मिक होने का ढोंग करते हुए और अपने अध्यात्म की शेखी बघारते हुए, वे सर्वशक्तिमान होने और कुछ भी कर सकने का दिखावा भी करते हैं, एक संपूर्ण व्यक्ति होने का दिखावा, और सोचते हैं कि वे सब कुछ कर सकते हैं और हर चीज में श्रेष्ठ हैं। शायद किसी को अपने कंप्यूटर के साथ कोई समस्या होगी और वह उन्हें इसे ठीक करने के लिए कहेगा, और वे कहेंगे कि इसे ठीक करना तो आसान है; हालाँकि उनके अंदर, उनका दिल तेज़ी से धड़क रहा होगा—वे नहीं जानते कि इसे कैसे ठीक किया जाए, और मरम्मत के कुछ प्रयासों के बाद सभी फाइलें खो जाती हैं। वो व्यक्ति उनसे पूछता है कि क्या वे वास्तव में इसे ठीक कर सकते हैं, और वे कहते हैं, "मैं कर सकता हूँ, मैंने इसे पहले भी किया है, लेकिन अब मैं किसी कारण से भूल गया हूँ। मुझे सोचने दो। हालाँकि, मेरे पास अभी बहुत काम है, मेरे पास समय नहीं है। बेहतर होगा कि इसे ठीक करने के लिए किसी और को ढूँढो।" वे ढोंग करने में निपुण होते हैं, है ना? वे दिखावा करते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। क्या तुम सब उन लोगों से परिचित हो, जो हमेशा ढोंग किया करते हैं? उनका एक नाम है; क्या तुम्हें पता है कि यह क्या है? क्या प्रधान स्वर्गदूत हमेशा सोचता था कि वह कुछ भी कर सकता था? (हाँ)। क्या ऐसे लोगों में प्रधान स्वर्गदूत का स्वभाव नहीं है? वे कभी नहीं कहते हैं, "यह मुझसे परे है" या "मैं यह नहीं कर सकता" या "मैं इसके लिए सही नहीं हूँ" या "मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा है" या "मुझे नहीं पता, किसी और से इसे देखने के लिए कहो"। वे कभी ऐसी बातें नहीं कहते। चाहे यह जो भी हो, अगर तुम उनसे किसी मामले के बारे में पूछते हो, भले ही वे ऐसा नहीं कर सकते हों या कभी इस तरह की चीज़ का उन्होंने सामना नहीं किया हो, वे तुम्हें ऐसा कोई कारण बताएँगे या जवाब देंगे जिससे तुम यह सोचोगे कि वे सब कुछ अच्छी तरह कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं, हर बात में वे सक्षम हैं, कि उनके लिए कुछ भी करना कोई समस्या नहीं है। वे किस तरह के व्यक्ति बनने की कोशिश कर रहे हैं? वे सर्वसमर्थ बनने की कोशिश कर रहे हैं—वे प्रकाश के स्वर्गदूत होने का ढोंग कर रहे हैं। क्या वे ऐसे होते हैं? क्योंकि ऐसे लोग हमेशा यह दिखावा करने की कोशिश करते हैं कि वे हर चीज़ में माहिर हैं, अगर तुम उन्हें किसी और के साथ काम करने, उनसे सीखने, उनके साथ चीज़ों पर चर्चा करने, उनके साथ संगति करने, या उनके साथ किसी समस्या पर संवाद करने के लिए कहोगे, तो वे इन चीज़ों के लिए असमर्थ होते हैं। वे कहेंगे, "मुझे किसी के साथ जुड़ने की आवश्यकता नहीं है, मुझे किसी सहायक की आवश्यकता नहीं है। मुझे कुछ भी करने में मेरी सहायता करने के लिए किसी और की आवश्यकता नहीं है, मैं अपने दम पर ठीक हूँ, मैं यह सब कर सकता हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ, कुछ भी मुझसे परे नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं जिसे करने में मैं असमर्थ हूँ, ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं नहीं कर सकता हूँ। मैं कौन हूँ? मैं तुम लोगों जैसा बिल्कुल नहीं हूँ: तुम केवल एक काम करने में सक्षम हो, और तुम इसके विशेषज्ञ नहीं हो। मैंने एक चीज़ सीखी, लेकिन मैं कुछ भी कर सकता हूँ—एक चीज़ में महारत हासिल करके, मैं फिर सब कुछ सदृशता द्वारा समझ सकता हूँ। मैं लेख लिख सकता हूँ और विदेशी भाषाएँ बोल सकता हूँ; हो सकता है कि अब मैं एक भी विदेशी भाषा बोलने में सक्षम नहीं हूँ, लेकिन अगर मुझे सीखना पड़े, तो मैं बिना किसी समस्या के पाँच विदेशी भाषाओं में महारत हासिल कर लूँगा।" जब अन्य लोग उनसे पूछते हैं कि क्या वे किसी फिल्म में अभिनय कर सकते हैं, क्या वे गा सकते हैं और नृत्य कर सकते हैं, तो वे कहते हैं कि वे ये सब कर सकते हैं। वे शेखी बघारने में बहुत अच्छे हैं, है ना? वे सर्वसमर्थ, कुछ भी करने में सक्षम, होने का ढोंग करते हैं—वास्तव में, उनकी प्रकृति प्रधान स्वर्गदूत की है! जब लोग उनसे पूछते हैं कि क्या वे परमेश्वर में विश्वास करने के वर्षों के दौरान कभी कमज़ोर हुए हैं, तो वे कहते हैं, "कमज़ोर? परमेश्वर अपनी बातों को बहुत स्पष्ट रूप से कहता है, मैं कभी कमज़ोर नहीं हो सकता। कमज़ोर होना परमेश्वर को निराश करना है। हमें अपना सारा प्रयास परमेश्वर के प्रेम का ऋण चुकाने में जुटाना चाहिए।" जब लोग उनसे पूछते हैं, "क्या तुम इतने सालों से दूर रहने के बाद, घर की कमी महसूस करते हो? और जब तुम घर के बारे में सोचते हो तो क्या तुम कभी रोते हो?" वे जवाब देते हैं, "रोने का क्या है? परमेश्वर मेरे दिल में है। जैसे ही मैं परमेश्वर के बारे में सोचता हूँ, घर की कमी का महसूस होना बंद हो जाता है। घर पर अविश्वास करने वाले लोग राक्षस हैं, वे शैतान हैं—मैं उनके नरकदंड के लिए प्रार्थना करता हूँ।" जब लोग उनसे पूछते हैं कि क्या वे परमेश्वर पर विश्वास करने के वर्षों के दौरान कभी भी भटके हैं, तो वे कहते हैं, "भटकना? जब परमेश्वर अपने वचनों को इतनी स्पष्टता से बोलता है तो मैं भटक कैसे सकता हूँ? भटकने के लिए तुम्हें हास्यास्पद होना और आध्यात्मिक मामलों को समझने में असमर्थ होना पड़ेगा। मेरी तरह की योग्यता वाले लोग कैसे भटक सकते हैं? मैं ग़लत रास्ता कैसे अपना सकता हूँ? कभी नहीँ।" वे हर चीज़ में अच्छे होते हैं, हर चीज़ में दूसरे लोगों से बेहतर। और जो लोग कमज़ोर और नकारात्मक हैं, उनके बारे में वे क्या सोचते हैं? वे कहते हैं कि जो लोग कमज़ोर और नकारात्मक होते हैं वे अपनी ऊर्जा बर्बाद करते हैं। क्या बात यही है? कुछ मामलों में, कमज़ोर और नकारात्मक होना सामान्य बात है; कुछ मामलों में, इस तरह से महसूस करने का एक कारण होता है। उनके द्वारा अपनी ऊर्जा बर्बाद करना समस्या की व्याख्या कैसे कर सकता है? यह वह अदाकारी है जिसे मसीह-विरोधी किया करते हैं: वे आध्यात्मिक होने का, कुछ भी करने में सक्षम होने का, हर दोष से मुक्त होने का, कोई कमी न होने का, कोई कमज़ोरी न होने का, ढोंग करते हैं और इससे भी अधिक, वे विद्रोही नहीं होने का, और कभी भी उल्लंघन न किए होने का, नाटक करते हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (18)' से उद्धृत

चाहे कैसा भी परिवेश हो, या चाहे कहीं भी वे अपना कर्तव्य निभा रहे हों, ये मसीह-विरोधी दूसरों से अपना असली रवैया और सत्य और परमेश्वर के बारे में अपने हृदय की गहराइयों में छिपी अपनी असली धारणाओं को छिपाते हुए ऐसा जतलाते हैं कि वे दुर्बल नहीं हैं, कि उनमें परमेश्वर के लिए असीम प्रेम है, उनमें परमेश्वर के लिए भरपूर आस्था है, कि वे कभी भी नकारात्मक नहीं हुए। वास्तव में, क्या अपने हृदय की गहराइयों में वे सचमुच खुद को सर्वशक्तिमान समझते हैं? क्या वे सचमुच ऐसा समझते हैं कि उनमें कोई दुर्बलता नहीं है? नहीं। तो, यह जानते हुए कि उनमें दुर्बलता, विद्रोहीपन और भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे दूसरों के सामने इस तरह की बातें और व्यवहार क्यों करते हैं? उनका उद्देश्य स्पष्ट है : यह बस दूसरों के सामने और उनके बीच अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए है। उन्हें लगता है कि अगर दूसरों के सामने कोई खुलकर नकारात्मक हो, खुलकर ऐसी बातें कहे जो दुर्बलता की प्रतीक हों और विद्रोहीपन को उजागर करती हों, और इनके बारे में जानकारी होने की बात कहे, तो यह ऐसी चीज़ है जिससे उनकी प्रतिष्ठा और साख को नुकसान पहुँच सकता है, यह नुकसान की बात है। वे यह कहने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे कि वे दुर्बल और नकारात्मक हैं, कि वे संपूर्ण न होकर मात्र एक सामान्य व्यक्ति हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे यह स्वीकार कर लेंगे कि वे एक सामान्य व्यक्ति हैं, एक छोटा और गौण व्यक्ति, तो लोगों के मन में उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होगी, कि वे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर पाएँगे, और वे लोगों के मन में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठेंगे। और इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, वे अपनी यह प्रतिष्ठा खो नहीं सकते, बल्कि इसे बचाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं। जब भी उनका किसी समस्या से सामना होता है, वे आगे बढ़ते हैं—लेकिन यह देखकर कि उनका भेद खुल सकता है, कि लोग उनकी असलियत को भाँप सकते हैं, वे जल्दी-से छिप जाते हैं। अगर उन्हें लगता है कि कुछ कर सकने की गुंजाइश है, अगर उन्हें अपनी नुमाइश का अवसर नज़र आता है, यह दिखाने का कि वे इसमें माहिर हैं, कि उन्हें इस मामले की जानकारी है, और वे इसे समझते हैं, और इस समस्या को हल कर सकते हैं, तो वे दूसरों की वाह-वाही बटोरने के लिए झट-से आगे बढ़कर इस अवसर को लपक लेते हैं, उन्हें यह जतलाते हुए कि वे इस मामले में सिद्धहस्त हैं। यदि किसी परिस्थिति में, कोई उनसे पूछे कि किसी मुद्दे के बारे में उनकी समझ क्या है, और उनका नज़रिया क्या है, तो वे मितभाषी रहते हैं, और वे बाकी सभी को पहले बोलने देते हैं। उनके मितभाषी होने का एक कारण होता है: ऐसा नहीं है कि उनके पास कोई नज़रिया नहीं होता, परंतु वे डरते हैं कि सीधे बोलने से उनकी नाक कट जाएगी, या वे कुछ अज्ञानपूर्ण या तुच्छ बात कह देंगे जिससे कोई भी सहमत नहीं होगा। यह एक कारण है। एक दूसरा कारण यह है कि उनके पास कोई नज़रिया नहीं होता है, और उनमें यूं ही कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती है। इन दो कारणों, या कई अन्य कारणों से, वे बोलने से और अपनी बात को व्यक्त करने से कतराते हैं, वे अपने असली चेहरे को उजागर करने से डरते हैं, वे अपने वास्तविक आध्यात्मिक क़द और वास्तविक दृष्टिकोण का खुलासा करने से और अपनी छवि को नुकसान पहुँचाने से डरते हैं। और इसलिए, जब लोग अपने नज़रिए, विचार और समझ पर सहभागिता करते हैं, तो वे किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयानों को थाम लेते हैं, ऐसे बयानों को जो अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण और तर्कसंगत होते हैं, और वे अपने स्वयं के बयान के रूप में उनका उपयोग करते हैं, वे उनका सार-तत्व ले लेते हैं और उन पर हर किसी से सहभागिता करते हैं, और ऐसा करके वे लोगों के मन में अपना एक उच्च स्थान बना लेते हैं। जब वास्तव में एक दृष्टिकोण व्यक्त करने का समय आता है, तो वे कभी भी खुलकर लोगों को अपनी वास्तविक स्थिति के बारे में नहीं बताते हैं, या लोगों को यह नहीं जानने देते हैं कि वे वास्तव में क्या सोचते हैं, उनकी योग्यता कैसी है, उनकी मानवता कैसी है, समझने की उनकी शक्तियाँ कैसी हैं, और क्या उन्हें सत्य का सही ज्ञान है। और इसलिए, डींग मारने और आध्यात्मिक तथा एक आदर्श व्यक्ति होने का दिखावा करने के साथ-साथ, वे अपने असली चेहरे और वास्तविक आध्यात्मिक क़द को ढँकने की भी पूरी कोशिश करते हैं। वे कभी भी भाई-बहनों के सामने अपनी कमज़ोरियों को नहीं बताते हैं, न ही वे कभी खुद अपनी कमियों और कमज़ोरियों को पहचानते हैं; इसके बजाय, वे उन्हें ढँकने की पूरी कोशिश करते हैं। लोग उनसे पूछते हैं, "तुमने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, क्या तुम्हें कभी परमेश्वर के बारे में कोई संदेह हुआ है?" वे उत्तर देते हैं, "नहीं"। उनसे पूछा जाता है, "क्या तुम्हारे परिवार के सदस्यों की मृत्यु होने पर तुम रोए थे?" वे जवाब देते हैं, "नहीं, मैंने एक भी आँसू नहीं बहाया था।" उनसे पूछा जाता है, "तुम इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हो, तुमने इतना कुछ दिया है और खुद को इतना अधिक खपाया है, क्या तुम्हें कभी इस पर कोई अफ़सोस हुआ है?" वे उत्तर देते हैं, "नहीं।" उनसे पूछा जाता है, "जब तुम बीमार थे और तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, क्या इससे तुम परेशान हुए थे, क्या तुम्हें घर की याद सताती थी? और वे जवाब देते हैं, "कभी नहीं।" वे खुद को बहुत पक्के, दृढ़-इच्छाशक्ति वाले, बलिदान करने में सक्षम, खुद को खपाने में सक्षम व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हैं—एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो बस अकाट्य हो, त्रुटिरहित हो। और अगर तुम एक सामान्य भाई या बहन के रूप में खुलकर संगति करते हुए, उन्हें यह बताओ कि उनमें क्या दोष हैं, तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? वे स्वयं को साबित और प्रमाणित करने के लिए, स्थिति को बचाने के लिए, जो तुमने कहा उसका अवमूल्यन करने के लिए, तुम इसे वापस ले लो इसके लिए, अपना भरसक प्रयास करते हैं और अंत में वे स्वीकार करते हैं कि उनके साथ यह समस्या नहीं है, और वे अब भी अपने को वैसा परिपूर्ण, आध्यात्मिक व्यक्ति मानते हैं जैसा लोग सोचते हैं कि वे हैं। क्या यह सब ढोंग नहीं है? जो कोई भी सोचता है कि वह परिपूर्ण और सर्वसमर्थ है, केवल दिखावा कर रहा है। मैं क्यों कहता हूँ कि वह केवल दिखावा कर रहा है? मैं उन सभी को एक ही रंग में क्यों रंग रहा हूँ? क्या कोई भी परिपूर्ण होता है? क्या कोई सर्वसमर्थ होता है? "सर्वसमर्थ" का क्या अर्थ है? क्या इसका मतलब सर्वशक्तिमान है? इस ब्रह्मांड में, दुनिया भर में कोई भी व्यक्ति सर्वशक्तिमान नहीं है; केवल परमेश्वर सर्वसमर्थ है, और केवल परमेश्वर ही सर्वशक्तिमान है। तो लोग क्या होते हैं अगर वे खुद के सर्वसमर्थ और सर्वशक्तिमान होने का दावा करते हैं? लोगों के बीच प्रधान स्वर्गदूत वे ही हैं, वे ही राक्षस हैं, और वे ही मसीह-विरोधी हैं। मसीह-विरोधी यह ढोंग करते हैं कि वे सर्वसमर्थ हैं, कि वे परिपूर्ण हैं। क्या मसीह-विरोधी खुद को जानते हैं? (नहीं)। वे स्वयं को नहीं जानते हैं, तो क्या वे स्वयं को जानने के बारे में संगति दे सकते हैं? (कुछ पाखंडी लोग ऐसा करते हैं)। सही है; ये लोग खुद को जानने के बारे में संगति करने का दिखावा करते हैं। तो उन लोगों द्वारा खुद को जानने पर संगति करने और वास्तव में खुद को जानने के बीच अंतर क्या है? (पाखंडी लोग खुद को जानने के बारे में संगति इसलिए करते हैं कि दूसरे लोग उनके बारे में अच्छा सोचें, और वे अपना अच्छा पक्ष दिखा सकें। जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को जानते और विश्लेषित करते हैं, जिससे वे खुद का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हैं और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से कुछ पछतावा प्रकट करने के लिए आगे आते हैं)। एक अंतर है। जब मसीह-विरोधी खुद को जानने की बात करते हैं, तो वे खुद को उन चीज़ों का उपयोग करके समझाते हैं और साबित करते हैं, जिसे हर कोई जानता है और देखता है, ताकि लोग उन्हें सही समझें, उन्हें अच्छा समझें, और यह सोचें कि वे तो खुद को जानते हैं जब कि वे बहुत ग़लत नहीं हैं, और वे फिर भी अपनी ग़लतियों को मानने और पश्चाताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आ सकते हैं। उनका उद्देश्य क्या होता है? लोगों को धोखा देना। वे वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभावों को ज़रा भी विश्लेषित नहीं करते हैं जिससे लोग उनसे सीख सकें। लोग उनके बारे में अधिक अच्छा सोचें इसके लिए जब वे खुद को जानने का उपयोग करते हैं, तब इसका क्या परिणाम होता है? वे लोगों को धोखा देते हैं। यह अपने आप को जानना कैसा होता है? लोगों को धोखा देने के लिए, और इस उद्देश्य से कि लोग उनके बारे में और भी अच्छा सोचें, खुद को जानने की बात का और अभ्यास का इस तरह उपयोग करना, लोगों को छलना है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (18)' से उद्धृत

कुछ लोग केवल आपातकालीन स्थितियों के लिए, या खुद को त्याग कर दूसरों की मदद करने के लिए खुद को कुछ विशेष सत्यों से लैस करते हैं, न कि अपनी परेशानियों को हल करने के लिए; हम उन्हें "निस्वार्थ लोग" कहते हैं। वे दूसरों को सत्य की कठपुतलियाँ और खुद को इसके स्वामी के रूप में मानते हैं, वे दूसरों को सत्य को कस कर पकड़े रहना और निष्क्रिय न होना सिखाते हैं, जबकि वे खुद दर्शकों की तरह किनारे खड़े रहते हैं। ये किस प्रकार के लोग हैं? वे स्वयं को कुछ सत्यों से लैस कर लेते हैं पर केवल दूसरों को भाषण देने के लिए, जबकि स्वयं के विनाश को रोकने के लिए वे कुछ नहीं करते। यह कितना दयनीय है! यदि उनके शब्द दूसरों की मदद कर सकते हैं, तो वे उनकी सहायता क्यों नहीं कर सकते हैं? हमें उन्हें ढोंगी के रूप में अंकित करना चाहिए, जिनके पास कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य के वचनों की आपूर्ति करते हैं और दूसरों से उनका अभ्यास करने का आग्रह करते हैं, लेकिन खुद उनका अभ्यास करने की कोई कोशिश नहीं करते। क्या वे घृणा के योग्य नहीं हैं? स्पष्ट रूप से, वे स्वयं तो सत्य के वचनों को अभ्यास में नहीं ला सकते, लेकिन दूसरों को ऐसा करने के लिए बाध्य करते हैं—यह कैसा क्रूर तरीका है! वे दूसरों की मदद करने के लिए वास्तविकता का उपयोग नहीं कर रहे हैं; वे दूसरों को पोषण प्रदान करने के लिए प्रेम का उपयोग नहीं कर रहे हैं। वे सिर्फ लोगों को धोखा दे रहे हैं और उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि यह सिलसिला जारी रहता है, और प्रत्येक व्यक्ति सत्य के वचनों को अगले व्यक्ति को सौंपता रहता है, तो क्या इसका परिणाम यह नहीं होगा कि हर व्यक्ति सत्य के वचनों को सिर्फ बोलता रहेगा, लेकिन खुद उनका अभ्यास करने में असमर्थ रहेगा? ऐसे लोग कैसे बदल सकते हैं? वे अपनी ही समस्याओं को नहीं पहचानते; उनके लिए आगे कोई मार्ग कैसे हो सकता है?

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनके पास एक मार्ग होता है' से उद्धृत

तुम कितनी धार्मिक परम्पराओं का पालन करते हो? कितनी बार तुमने परमेश्वर के वचन के खिलाफ विद्रोह किया है और अपने तरीके से चले हो? कितनी बार तुम परमेश्वर के वचनों को इसलिए अभ्यास में लाए हो क्योंकि तुम उसके भार के बारे में सच में विचारशील हो और उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हो? परमेश्वर के वचन को समझो और उसे अभ्यास में लाओ। अपने सारे कामकाज में सिद्धांतवादी बनो, इसका अर्थ नियम में बंधना या बेमन से बस दिखावे के लिए ऐसा करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचन में जीवन व्यतीत करना है। केवल इस प्रकार का अभ्यास ही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। जो काम परमेश्वर को प्रसन्न करता हो वह कोई नियम नहीं बल्कि सत्य का अभ्यास होता है। कुछ लोगों में अपनी ओर ध्यान खींचने की प्रवृत्ति होती है। अपने भाई-बहनों की उपस्थिति में वे भले ही कहें कि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हैं, परंतु उनकी पीठ पीछे वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और पूरी तरह अलग ही व्यवहार करते हैं। क्या वे धार्मिक फरीसी नहीं हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो सच में परमेश्वर से प्यार करता है और जिसमें सत्य है वह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होता है, परंतु वह बाहर से इसका दिखावा नहीं करता। अगर कभी इस तरह के हालात पैदा हों, तो वह सत्य का अभ्यास करने को तैयार रहता है और अपने विवेक के विरुद्ध जाकर नहीं बोलता है या कार्य नहीं करता। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, जब कोई बात होती है तो वह अपनी बुद्धि से कार्य करता है और अपने सिद्धांतों पर टिका रहता है। इस तरह का व्यक्ति ही सच्ची सेवा कर सकता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ज़बानी जमा खर्च करते हैं; दिनभर चिंता में भौंहें चढ़ाए अपना समय गँवाते रहते हैं, अच्छा व्यक्ति होने का नाटक करते हैं, और दया के पात्र होने का दिखावा करते हैं। कितनी घिनौनी हरकत है! यदि तुम उनसे पूछो कि "क्या तुम बता सकते हो कि तुम परमेश्वर के ऋणी कैसे हो?" तो वे निरुत्तर हो जाते। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा मत करो; बल्कि परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम वास्तविक अभ्यास से दर्शाओ और सच्चे हृदय से उससे प्रार्थना करो। जो लोग परमेश्वर से केवल मौखिक रूप से और बेमन से व्यवहार करते हैं वे सभी पाखंडी हैं, कुछ लोग जब भी प्रार्थना करते हैं, तो परमेश्वर के प्रति आभार व्यक्त करते और पवित्र आत्मा द्वारा द्रवित किए बिना ही रोना आरंभ कर देते हैं। इस तरह के लोग धार्मिक रिवाजों और धारणाओं से ग्रस्त होते हैं; वे लोग हमेशा इन धार्मिक रिवाजों और धारणाओं के साथ जीते हैं, और मानते हैं कि इन कामों से परमेश्वर प्रसन्न होता है और सतही धार्मिकता या दुःखभरे आँसुओं को पसंद करता है। ऐसे बेतुके लोगों से कौन-सी भलाई हो सकती है? कुछ लोग अपनी विनम्रता का प्रदर्शन करने के लिए, दूसरों के सामने बोलते समय अपनी अनुग्रहशीलता का दिखावा करते हैं। कुछ लोग दूसरों के सामने जानबूझकर किसी नितान्त शक्तिहीन मेमने की तरह चापलूसी करते हैं। क्या यह तौर–तरीका राज्य के लोगों के लिए उचित है? राज्य के व्यक्ति को जीवंत और स्वतंत्र, भोला-भाला और स्पष्ट, ईमानदार और प्यारा होना चाहिए, और एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्रता की स्थिति में जिये। उसमें सत्यनिष्ठा और गरिमा होनी चाहिए, और वो जहाँ भी जाए, वहीँ गवाही दे; ऐसे लोग परमेश्वर और मनुष्य दोनों को प्रिय होते हैं। जो लोग विश्वास में नौसिखिये होते हैं, वो बहुत सारे अभ्यास दिखावे के लिए करते हैं; उन्हें सबसे पहले निपटारे और कष्टों से गुज़रना चाहिए। जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर का विश्वास है, वे ऊपरी तौर पर दूसरों से अलग नहीं दिखते, किन्तु उनके कामकाज प्रशंसनीय होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही परमेश्वर के वचनों को जीने वाला इंसान समझा जा सकता है। यदि तुम विभिन्न लोगों को उद्धार में लाने के लिए प्रतिदिन सुसमाचार का उपदेश देते हो, लेकिन अंतत:, तुम नियमों और सिद्धांतों में ही जीते रहते हो, तो तुम परमेश्वर को गौरवान्वित नहीं कर सकते। ऐसे लोग धार्मिक पाखंडी होते हैं।

जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, तो वे पूछते हैं, "बहन, आजकल कैसा चल रहा है?" तो संभव है कि वह ये उत्तर दे, "मैं परमेश्वर की कृतज्ञ हूँ, लेकिन मैं उसकी इच्छा पूरी नहीं कर पाती हूँ।" दूसरी संभव है कि कहे, "मैं भी परमेश्वर की कृतज्ञ हूँ और उसे संतुष्ट नहीं कर पाती।" ये कुछ वाक्य और शब्द ही उनके हृदय की गहराई में मौजूद अधम चीजों को व्यक्त कर देते हैं; ऐसी बातें अत्यधिक घृणित और अत्यंत अरुचिकर होती हैं। ऐसे लोगों की प्रकृति परमेश्वर से उलट होती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान देते हैं वे वही बोलते हैं जो उनके दिल में होता है, और संगति में अपना दिल खोल देते हैं। ऐसे लोग न तो किसी झूठी कवायद में शामिल नहीं होते हैं, न झूठा शिष्टाचार दिखाते हैं, न खोखली हँसी-खुशी का प्रदर्शन करते हैं। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी सांसारिक नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ लोगों में, समझ के निपट अभाव की हद तक, दिखावे की आदत होती है। जब कोई गाता है, तो वह नाचने लगते हैं, वो समझ ही नहीं पाते कि उनका खेल पहले ही खत्म हो चुका है। ऐसे लोग धर्मपरायण या सम्माननीय नहीं होते, बहुत ही तुच्छ होते हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब कुछ लोग आध्यात्मिक जीवन के बारे में संगति करते हैं, तो यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते, फिर भी वे अपने हृदय में उसके प्रति सच्चा प्रेम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरे लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि किसी मनुष्य के प्रति। इस बारे में लगातार दूसरों को बताने का क्या फायदा है? तुम्हें वास्तविकता में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।

इंसान के दिखावटी काम क्या दर्शाते हैं? वे देह की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, यहाँ तक कि दिखावे के सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वे केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा को दर्शा सकते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, लेकिन तुम दूसरों में जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते या परमेश्वर से प्रेम करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे ऐसे कार्य परमेश्वर को संतुष्ट करेंगे? तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कार्य परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं, और वे आत्मिक हैं, किन्तु सच में वे सब बेतुके हैं! तुम मानते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम करना चाहते हो, वे ठीक वही चीजें हैं जिनसे परमेश्वर आनंदित होता है। क्या तुम्हारी पसंद परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो चीज़ तुम्हें अच्छी लगती है, परमेश्वर उसी से घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर नापसंद और अस्वीकार करता है। यदि तुम खुद को कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो; इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने के बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर की इच्छा को पूरा किया जा सकता है? यदि तुम्हारे काम सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम एकदम नाकारा हो। ऐसे लोग किस तरह के होते हैं जो दिखावे के लिए तो अच्छे काम करते हैं लेकिन वास्तविकता से रहित होते हैं? ऐसे लोग सिर्फ पाखंडी फरीसी और धार्मिक लोग होते हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते और परिवर्तन नहीं कर सकते, तो तुम लोग और भी ज़्यादा पाखंडी बन जाओगे। जितने ज़्यादा पाखंडी बनोगे, उतने ही ज़्यादा परमेश्वर का विरोध करोगे। और अंत में, इस तरह के लोग निश्चित रूप से हटा दिए जाएँगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इंसान को अपनी आस्था में, वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए—धार्मिक रीति-रिवाजों में लिप्त रहना आस्था नहीं है

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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