पाँचवाँ मोड़ : संतान

06 अगस्त, 2018

विवाह करने के पश्चात्, व्यक्ति अगली पीढ़ी को बड़ा करना आरंभ करता है। इस पर किसी का वश नहीं चलता कि उसकी कितनी और किस प्रकार की संतानें होंगी; यह भी, व्यक्ति के भाग्य द्वारा निर्धारित होता है जो सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनियत है। यह पाँचवाँ मोड़ है जिससे किसी व्यक्ति को गुज़रना होता है।

यदि किसी का जन्म किसी के बच्चे की भूमिका निभाने के लिए हुआ है, तो वह किसी और के माता-पिता की भूमिका निभाने के लिए अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करता है। भूमिकाओं में होने वाला यह बदलाव व्यक्ति को भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों से जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का अनुभव कराता है। यह व्यक्ति को जीवन के अनुभवों की भिन्न-भिन्न स्थितियों से भी परिचित कराता है, जिनके माध्यम से सृजनकर्ता की संप्रभुता के बारे में उसे पता चलता है, जो हमेशा एक ही तरह से अभिनीत होती है, और जिसके द्वारा उसका इस सच से सामना होता है कि कोई भी सृजनकर्ता की पूर्वनियति का उल्लंघन या उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता है।

1. किसी की संतान का क्या होगा इस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता

जन्म, बड़ा होना और विवाह, ये सभी विभिन्न मात्राओं में, विभिन्न प्रकार की निराशा लाते हैं। कुछ लोग अपने परिवारों या अपने शारीरिक रंग-रूप से असंतुष्ट होते हैं; कुछ अपने माता-पिता को नापसंद करते हैं; कुछ लोगों को उस परिवेश से शिकायतें होती हैं जिसमें वे बड़े हुए हैं, या वे उससे अप्रसन्न होते हैं। और अधिकांश लोगों के लिए, इन सभी निराशाओं में विवाह सबसे अधिक असंतोषजनक होता है। कोई व्यक्ति अपने जन्म, परिवक्व होने, या अपने विवाह से चाहे कितना ही असंतुष्ट क्यों न हो, हर एक व्यक्ति जो इनसे होकर गुज़र चुका है, जानता है कि वह यह चुनाव नहीं कर सकता कि उसे कहाँ और कब जन्म लेना है, उसका रूप-रंग कैसा होगा, उसके माता-पिता कौन हैं, और कौन उसका जीवनसाथी है, वरन उसे केवल परमेश्वर की इच्छा को स्वीकार करना होगा। फिर भी जब लोगों द्वारा अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करने का समय आता है, तो वे अपने जीवन के प्रथम हिस्से की समस्त इच्छाओं को जिन्हें वे पूरा करने में असफल रहे थे, अपने वंशजों पर थोप देते हैं। ऐसा वे इस उम्मीद में करते हैं कि उनकी संतान उनके जीवन के प्रथम हिस्से की समस्त निराशाओं की भरपाई कर देगी। इसलिए, लोग अपने बच्चों को लेकर सभी प्रकार की कल्पनाओं में डूबे रहते हैं : उनकी बेटियाँ बड़ी होकर बहुत ही खूबसूरत युवतियाँ बन जाएँगी, उनके बेटे बहुत ही आकर्षक पुरुष बन जाएँगे; उनकी बेटियाँ सुसंस्कृत और प्रतिभाशाली होंगी और उनके बेटे प्रतिभावान छात्र और सुप्रसिद्ध खिलाड़ी होंगे; उनकी बेटियाँ सभ्य, गुणी, और समझदार होंगी, और उनके बेटे बुद्धिमान, सक्षम और संवेदनशील होंगे। वे उम्मीद करते हैं कि उनकी संतान, चाहे बेटे हों या बेटियाँ, अपने बुज़ुर्गों का आदर करेगी, अपने माता-पिता का ध्यान रखेगी, और हर कोई उनसे प्यार और उनकी प्रशंसा करेगा...। इस मोड़ पर जीवन के लिए आशा नए सिरे से अंकुरित होती है, और लोगों के दिल में नई उमंगें पैदा होने लगती हैं। लोग जानते हैं कि वे इस जीवन में शक्तिहीन और आशाहीन हैं, और उनके पास औरों से अलग दिखने का न तो दूसरा अवसर होगा, न फिर ऐसी कोई आशा होगी, और यह भी कि उनके पास अपने भाग्य को स्वीकार करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है। और इसलिए, वे अगली पीढ़ी पर, इस उम्मीद से अपनी समस्त आशाओं, अपनी अतृप्त इच्छाओं, और आदर्शों को थोप देते हैं, कि उनकी संतान उनके सपनों को पूरा करने और उनकी इच्छाओं को साकार करने में उनकी सहायता कर सकती है; कि उनकी बेटे-बेटियाँ परिवार के नाम को गौरवान्वित करेंगे, महत्वपूर्ण, समृद्ध, या प्रसिद्ध बनेंगे। संक्षेप में, वे अपने बच्चों के भाग्य को बहुत ऊँचाई पर देखना चाहते हैं। लोगों की योजनाएँ और कल्पनाएँ उत्तम होती हैं; क्या वे नहीं जानते कि यह तय करना उनका काम नहीं है कि उनके कितने बच्चे हैं, उनके बच्चों का रंग-रूप, योग्यताएँ कैसी हैं, इत्यादि बच्चों का थोड़ा-सा भी भाग्य उनके हाथ में नहीं है? मनुष्य अपने भाग्य के स्वामी नहीं हैं, फिर भी वे युवा पीढ़ी के भाग्य को बदलने की आशा करते हैं; वे अपने भाग्य से बचकर नहीं निकल सकते, फिर भी वे अपने बेटे-बेटियों के भाग्य को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। क्या वे अपने आप को अपनी क्षमता से बढ़कर नहीं आंक रहे हैं? क्या यह मनुष्य की मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? लोग अपनी संतान के लिए किसी भी हद तक जाते हैं, किन्तु अंत में, किसी व्यक्ति की योजनाएँ और इच्छाएं इसका निर्धारण नहीं कर सकतीं कि उसके कितने बच्चे हों, या उसके बच्चे कैसे हों। कुछ लोग दरिद्र होते हैं परन्तु उनके कई बच्चे होते हैं; कुछ लोग धनी होते हैं फिर भी उनकी एक भी संतान नहीं होती है। कुछ लोग एक बेटी चाहते हैं परन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होती है; कुछ लोग एक बेटा चाहते हैं परन्तु एक लड़के को जन्म देने में असफल रहते हैं। कुछ लोगों के लिए, बच्चे एक आशीर्वाद होते हैं; अन्य लोगों के लिए, वे एक श्राप होते हैं। कुछ दंपति बुद्धिमान होते हैं, फिर भी मंदबुद्धि बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ माता-पिता मेहनती और ईमानदार होते हैं, फिर भी जिन बच्चों का वे पालन-पोषण करते हैं वे आलसी होते हैं। कुछ माता-पिता दयालु और सच्चे होते हैं परन्तु उनके बच्चे कुटिल और शातिर बन जाते हैं। कुछ माता-पिता दिमाग और शरीर से स्वस्थ्य होते हैं किन्तु अपाहिज बच्चों को जन्म देते हैं। कुछ माता-पिता साधारण और असफल होते हैं, फिर भी उनके बच्चे महान उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं। कुछ माता-पिता की हैसियत निम्न होती है फिर भी उनके ऐसे बच्चे होते हैं जो श्रेष्ठता हासिल करते हैं। ...

2. आगामी पीढ़ी को बड़ा करने के बाद, लोग भाग्य के बारे में एक नई समझ प्राप्त करते हैं

विवाह करने वाले अधिकांश लोग लगभग तीस वर्ष की आयु में विवाह करते हैं, यह जीवन का ऐसा समय होता है जब एक व्यक्ति के पास मानवीय भाग्य कोई समझ नहीं होती है। किन्तु जब लोग बच्चों की परवरिश करना आरंभ करते हैं और उनकी संतान बड़ी होने लगती है, वे नई पीढ़ी को पिछली पीढ़ी के जीवन और सभी अनुभवों को दोहराते हुए देखते हैं, और वे अपने अतीत को उनमें प्रतिबिंबत होते हुए देखकर उन्हें एहसास होता है कि, युवा पीढ़ी जिस मार्ग पर चल रही है, उसे उनके मार्ग के समान ही न तो नियोजित किया जा सकता है और न ही चुना नहीं जा सकता है। इस सच का सामना होने पर, उनके पास यह स्वीकार करने के सिवाए और कोई विकल्प नहीं होता है कि हर एक व्यक्ति का भाग्य पूर्वनियत है; और इसे पूरी तरह से समझे बिना ही वे धीरे-धीरे अपनी इच्छाओं को दरकिनार कर देते हैं, और उनके दिल का जोश डगमगा जाता है और खत्म हो जाता है...। इस समयावधि के दौरान लोग अधिकांशतः जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों को पार कर चुके होते हैं और उन्होंने जीवन की एक नई समझ प्राप्त कर ली होती है, एक नया दृष्टिकोण अपना लिया होता है। इस आयु वाला व्यक्ति भविष्य से कितनी अपेक्षा कर सकता है और उम्मीद करने के लिए उनके पास कौन सी संभावनाएँ हैं? ऐसी कौन सी पचास साल की बूढ़ी स्त्री है जो अभी भी एक सुन्दर राजकुमार का सपना देख रही है? ऐसा कौन सा पचास साल का बूढ़ा पुरुष है जो अभी भी अपनी परी की खोज कर रहा है? ऐसी कौन सी अधेड़ उम्र की स्त्री है जो अभी भी एक भद्दी बतख़ से एक हंस में बदलने की आशा कर रही है? क्या अधिकांश बूढ़े पुरुषों में जवान पुरुषों के समान कार्यक्षेत्र में बहुत अधिक पाने की प्रबल प्रेरणा होती है? संक्षेप में, चाहे कोई पुरुष हो या स्त्री, जो कोई भी इस उम्र तक पहुँच चुका है, उसकी विवाह, परिवार, और बच्चों के प्रति अपेक्षाकृत कहीं अधिक तर्कसंगत, व्यावहारिक सोच होने की संभावना होती है। ऐसे व्यक्ति के पास अनिवार्य रूप से कोई विकल्प नहीं बचता, भाग्य को चुनौती देने की कोई इच्छा नहीं बचती है। जहाँ तक मनुष्य के अनुभव की बात है, जैसे ही कोई व्यक्ति इस आयु में पहुँचता है तो उसमें स्वाभाविक रूप से एक दृष्टिकोण विकसित हो जाता है : व्यक्ति को अपने भाग्य को स्वीकार कर लेना चाहिए; किसी के बच्चों का अपना भाग्य होता है; मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा निर्धारित किया जाता है। अधिकांश लोग जो सत्य को नहीं समझते हैं, इस संसार के सभी उतार-चढ़ावों, कुंठाओं, और कठिनाइयों को झेलने के बाद, मानव जीवन में अपनी अंतर्दृष्टि को तीन शब्दों में सारांशित करते हैं : यह भाग्य है! यद्यपि यह वाक्यांश मनुष्य के भाग्य के बारे में सांसारिक लोगों के निष्कर्ष और समझ को सारगर्भित ढंग से बताता है, और यद्यपि यह मानवजाति के असहाय होने को अभिव्यक्ति करता है और इसे तीक्ष्ण और सटीक कहा जा सकता है, फिर भी यह सृजनकर्ता की संप्रभुता को समझने से एकदम अलग है, और सृजनकर्ता के अधिकार के ज्ञान की जगह तो बिलकुल भी नहीं ले सकता है।

3. भाग्य पर विश्वास करना सृजनकर्ता की संप्रभुता के ज्ञान की जगह नहीं ले सकता है

इतने वर्षों तक परमेश्वर का अनुयायी रहने के पश्चात्, क्या भाग्य के बारे में तुम लोगों के ज्ञान और सांसारिक लोगों के ज्ञान के बीच कोई आधारभूत अंतर है? क्या तुम लोग सही मायनों में सृजनकर्ता की पूर्वनियति को समझ गए हो, और सही मायनों में सृजनकर्ता की संप्रभुता को जान गए हो? कुछ लोगों में, यह भाग्य है इस वाक्यांश की गहन, एवं गहराई से महसूस गई समझ होती है, फिर भी वे परमेश्वर की संप्रभुता पर जरा-सा भी विश्वास नहीं करते हैं, वे यह नहीं मानते हैं कि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित किया जाता है, और वे परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इस प्रकार के लोग मानो महासागर में इधर-उधर भटकते रहते हैं, लहरों के द्वारा उछाले जाते हैं, जलधारा के साथ-साथ बहते रहते हैं। उनके पास निष्क्रियता से इंतज़ार करने और अपने आप को भाग्य पर छोड़ देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है। फिर भी वे नहीं पहचानते हैं कि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है; वे स्वयं की पहल से परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझ सकते हैं, और इसके फलस्वरूप परमेश्वर के अधिकार के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं, भाग्य का प्रतिरोध करना बन्द नहीं कर सकते हैं, और परमेश्वर की देखभाल, सुरक्षा और मार्गदर्शन के अधीन जी नहीं सकते हैं। दूसरे शब्दों में, भाग्य को स्वीकार करना और सृजनकर्ता की संप्रभुता के अधीन होना एक ही बात नहीं है; भाग्य में विश्वास करने का अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करता है, पहचानता और जानता है; भाग्य में विश्वास करना मात्र उसकी सच्चाई और उसकी सतही प्रकटीकरण की पहचान है। यह इस बात को जानने से भिन्न है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर शासन करता है, और सभी चीज़ों के भाग्य पर प्रभुत्व का स्रोत सृजनकर्ता ही है, और निश्चित रूप से मानवजाति के भाग्य के लिए सृजनकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण से एकदम अलग है। यदि कोई व्यक्ति केवल भाग्य पर ही विश्वास करता है—यदि इसके बारे में गहराई से महसूस भी करता है—किन्तु फलस्वरूप मानवजाति के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने, पहचानने, उसके प्रति समर्पण करने, और उसे स्वीकार करने में समर्थ नहीं है, तो उसका जीवन एक त्रासदी, व्यर्थ में बिताया गया जीवन, एक खालीपन के सिवाय कुछ नहीं होगा; वह तब भी सृजनकर्ता के प्रभुत्व के अधीन नहीं आ पायेगा, सच्चे अर्थ में सृजित किया गया मनुष्य नहीं बन पायेगा, और सृजनकर्ता के अनुमोदन का आनन्द उठाने में असमर्थ होगा। जो व्यक्ति वास्तव में सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानता और अनुभव करता है उसे एक क्रियाशील स्थिति में होना चाहिए, न कि ऐसी स्थिति में जो निष्क्रिय या असहाय हो। जबकि ऐसा व्यक्ति यह स्वीकार कर लेगा कि सभी चीज़ें भाग्य के द्वारा निर्धारित होती हैं, लेकिन जीवन और भाग्य के बारे में उसकी एक सटीक परिभाषा होनी चाहिए : प्रत्येक जीवन सृजनकर्ता की संप्रभुता के अधीन है। जब कोई व्यक्ति पीछे मुड़कर उस मार्ग को देखता है जिस पर वह चला था, जब कोई व्यक्ति अपनी यात्रा की हर अवस्था को याद करता है, तो वह देखता है कि हर कदम पर, चाहे उसकी यात्रा कठिन रही हो या आसान, परमेश्वर उसका मार्गदर्शन कर रहा था, योजना बना रहा था। ये परमेश्वर की कुशल व्यवस्थाएँ थीं, और उसकी सावधानीपूर्वक की गयी योजनाएँ थीं, जिन्होंने आज तक, व्यक्ति की जानकारी के बिना उसकी अगुवाई की है। सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने, उसके उद्धार को प्राप्त करने में समर्थ होना—कितना बड़ा सौभाग्य है! यदि भाग्य के प्रति किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण नकारात्मक है, तो इससे साबित होता है कि वह हर उस चीज़ का विरोध कर रहा है जो परमेश्वर ने उसके लिए व्यवस्थित की है, और उसमें समर्पित होने की प्रवृत्ति नहीं है। यदि मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण सकारात्मक है, तो जब वह पीछे मुड़कर अपनी जीवनयात्रा को देखता है, जब वह सही मायनों में परमेश्वर की संप्रभुता को आत्मसात करने लगता है, तो वह और भी अधिक ईमानदारी से हर उस चीज़ के प्रति समर्पण करना चाहेगा जिसकी परमेश्वर ने व्यवस्था की है, परमेश्वर को उसके भाग्य का आयोजन करने देने और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह न करने के लिए उसमें अधिक दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास होगा। क्योंकि जब कोई यह देखता है कि जब वह भाग्य नहीं समझ पाता है, जब वह परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझ पाता है, जब वह जानबूझकर अँधेरे में टटोलते हुए आगे बढ़ता है, कोहरे के बीच लड़खड़ाता और डगमगाता है, तो यात्रा बहुत ही कठिन, और बहुत ही हृदयविदारक होती है। इसलिए जब लोग मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता को पहचान जाते हैं, तो चतुर मनुष्य परमेश्वर की संप्रभुता को जानना और स्वीकार करना चुनते हैं, उन दर्द भरे दिनों को अलविदा कहते हैं जब उन्होंने अपने दोनों हाथों से एक अच्छा जीवन निर्मित करने की कोशिश की थी, और वे स्वयं के तरीके से भाग्य के विरुद्ध लगातार संघर्ष करने और जीवन के अपने तथाकथित लक्ष्यों की खोज करना बंद कर देते हैं। जब किसी व्यक्ति का कोई परमेश्वर नहीं होता है, जब वह उसे नहीं देख सकता है, जब वह स्पष्टता से परमेश्वर की संप्रभुता को समझ नहीं सकता है, तो उसका हर दिन निरर्थक, बेकार, और हताशा से भरा होगा। कोई व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, उसका कार्य जो कुछ भी हो, उसके आजीविका के साधन और उसके लक्ष्यों की खोज उसके लिए बिना किसी राहत के, अंतहीन निराशा और असहनीय पीड़ा के सिवाय और कुछ लेकर नहीं आती है, ऐसी पीड़ा कि वह पीछे अपने अतीत को मुड़कर देखना भी बर्दाश्त नहीं कर पाता है। केवल तभी जब वह सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करेगा, उसके आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करेगा, और एक सच्चे मानव जीवन को खोजेगा, केवल तभी वह धीरे-धीरे सभी निराशाओं और पीड़ाओं मुक्त होगा, और जीवन की सम्पूर्ण रिक्तता से छुटकारा पाएगा।

4. केवल वही लोग सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं जो सृजनकर्ता की संप्रभुता के प्रति समर्पण करते हैं

क्योंकि लोग परमेश्वर के आयोजनों और परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते हैं, इसलिए वे हमेशा अवज्ञापूर्ण ढंग से, और एक विद्रोही दृष्टिकोण के साथ भाग्य का सामना करते हैं, और इस निरर्थक उम्मीद में कि वे अपनी वर्तमान परिस्थितियों के बदल देंगे और अपने भाग्य को पलट देंगे, हमेशा परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता तथा उन चीज़ों को छोड़ देना चाहते हैं जो उनके भाग्य में होती हैं। परन्तु वे कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं; वे हर मोड़ पर नाकाम रहते हैं। यह संघर्ष, जो किसी व्यक्ति की आत्मा की गहराई में चलता है, ऐसी गहन पीड़ा देता है जो किसी को अंदर तक छलनी कर देती है, इस बीच व्यक्ति अपना जीवन व्यर्थ में नष्ट कर देता है। इस पीड़ा का कारण क्या है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण है, या इसलिए है क्योंकि वह व्यक्ति अभागा ही जन्मा था? स्पष्ट है कि दोनों में कोई भी बात सही नहीं है। वास्तव में, लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, जिस तरह से वे अपना जीवन बिताते हैं, उसी कारण से यह पीड़ा होती है। हो सकता है कि कुछ लोगों ने इन चीज़ों को समझा ही न हो। किन्तु जब तुम सही मायनों में जान जाते हो, जब तुम्हें सही मायनों में एहसास हो जाता है कि मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, जब तुम सही मायनों में समझ जाते हो कि वह हर चीज़ जिसकी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए योजना बनाई और जो तुम्हारे लिए निश्चित की है, वह बहुत फायदेमंद और बहुत बड़ी सुरक्षा है, तब तुम्हें महसूस होता है कि तुम्हारी पीड़ा धीरे-धीरे कम हो रही है, और तुम्हारा सम्पूर्ण अस्तित्व शांत, स्वतंत्र, एवं बंधनमुक्त हो जाता है। अधिकांश लोगों की स्थितियों का आकलन करने से पता चलता है कि वे तटस्थ भाव से मनुष्य के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता के व्यावहारिक मूल्य एवं अर्थ को स्वीकार नहीं पाते हैं, यद्यपि व्यक्तिपरक स्तर पर वे उसी तरह से जीवन जीते रहना नहीं चाहते हैं, जैसा वे पहले जीते थे, और अपनी पीड़ा से राहत चाहते हैं; फिर भी तटस्थ भाव से वे सृजनकर्ता की संप्रभुता को सही मायनों में समझ नहीं ते और उसके अधीन नहीं हो सकते हैं, और वे यह तो बिलकुल भी नहीं जानते हैं कि सृजनकर्ता के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं को किस प्रकार खोजें एवं स्वीकार करें। इसलिए, यदि लोग वास्तव में इस तथ्य को पहचान नहीं सकते हैं कि सृजनकर्ता की मनुष्य के भाग्य और मनुष्य की सभी स्थितियों पर संप्रभुता है, यदि वे सही मायनों में सृजनकर्ता के प्रभुत्व के प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं, तो उनके लिए किसी का भाग्य उसके अपने हाथों में होता है, इस अवधारणा द्वारा प्रेरित न होना, और इसे न मानने को विवश न होना कठिन होगा। उनके लिए भाग्य और सृजनकर्ता के अधिकार के विरुद्ध अपने तीव्र संघर्ष की पीड़ा से छुटकारा पाना कठिन होगा, और कहने की आवश्यकता नहीं कि उनके लिए सच में बंधनमुक्त और स्वतंत्र होना, और ऐसा व्यक्ति बनना कठिन होगा जो परमेश्वर की आराधना करते हैं। अपने आपको इस स्थिति से मुक्त करने का एक बहुत ही आसान तरीका है जो है जीवन जीने के अपने पुराने तरीके को विदा कहना; जीवन में अपने पुराने लक्ष्यों को अलविदा कहना; अपनी पुरानी जीवनशैली, जीवन को देखने के दृष्टिकोण, लक्ष्यों, इच्छाओं एवं आदर्शों को सारांशित करना, उनका विश्लेषण करना, और उसके बाद मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा और माँग के साथ उनकी तुलना करना, और देखना कि उनमें से कोई परमेश्वर की इच्छा और माँग के अनुकूल है या नहीं, उनमें से कोई जीवन के सही मूल्य प्रदान करता है या नहीं, यह व्यक्ति को सत्य को अच्छी तरह से समझने की दिशा में ले जाता है या नहीं, और उसे मानवता और मनुष्य की सदृशता के साथ जीवन जीने देता है या नहीं। जब तुम जीवन के उन विभिन्न लक्ष्यों की, जिनकी लोग खोज करते हैं और जीवन जीने के उनके अनेक अलग-अलग तरीकों की बार-बार जाँच-पड़ताल करोगे और सावधानीपूर्वक उनका विश्लेषण करोगे, तो तुम यह पाओगे कि उनमें से एक भी सृजनकर्ता के उस मूल इरादे के अनुरूप नहीं है जिसके साथ उसने मानवजाति का सृजन किया था। वे सभी, लोगों को सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसकी देखभाल से दूर करते हैं; ये सभी ऐसे जाल हैं जो लोगों को भ्रष्ट बनने पर मजबूर करते हैं, और जो उन्हें नरक की ओर ले जाते हैं। जब तुम इस बात को समझ लेते हो, उसके पश्चात्, तुम्हारा काम है जीवन के अपने पुराने दृष्टिकोण को अपने से अलग करना, अलग-अलग तरह के जालों से दूर रहना, परमेश्वर को तुम्हारे जीवन को अपने हाथ में लेने देना और तुम्हारे लिए व्यवस्थाएं करने देना; तुम्हारा काम है केवल परमेश्वर के आयोजनों और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करने का प्रयास करना, अपनी कोई निजी पसंद मत रखना, और एक ऐसा इंसान बनना जो परमेश्वर की आराधना करता है। यह सुनने में आसान लगता है, परन्तु इसे करना बहुत कठिन है। कुछ लोग इसकी तकलीफ सहन कर सकते हैं, कुछ नहीं कर सकते हैं। कुछ लोग पालन करने के इच्छुक होते हैं, कुछ लोग अनिच्छुक होते हैं। जो लोग अनिच्छुक होते हैं उनमें ऐसा करने की इच्छा और दृढ़ संकल्प की कमी होती है; वे एकदम स्पष्ट रूप से परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में अवगत हैं, बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि यह परमेश्वर ही है जो मनुष्य के भाग्य की योजना बनाता है और उसकी व्यवस्था करता है, और फिर भी वे हाथ-पैर मारते और संघर्ष करते हैं, और अपने भाग्य को परमेश्वर के हाथों में सौंपने और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने के लिए सहमत नहीं होते हैं; यही नहीं, वे परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं से नाराज़ रहते हैं। अतः हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो स्वयं देखना चाहते हैं कि वे क्या करने में सक्षम हैं; वे अपने दोनों हाथों से अपने भाग्य को बदलना चाहते हैं, या अपनी ताकत से खुशियाँ प्राप्त करना चाहते हैं, यह देखना चाहते हैं कि वे परमेश्वर के अधिकार की सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते हैं या नहीं और परमेश्वर की संप्रभुता से ऊपर उठ सकते हैं या नहीं। मनुष्य की त्रासदी यह नहीं है कि वह एक सुखी जीवन की चाह करता है, यह नहीं है कि वह प्रसिद्धि एवं सौभाग्य के पीछे भागता है या कोहरे के बीच अपने स्वयं के भाग्य के विरुद्ध संघर्ष करता है, परन्तु यह है कि सृजनकर्ता के अस्तित्व को देखने के पश्चात्, इस तथ्य को जानने के पश्चात् भी कि मनुष्य के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता है, वह अपने मार्ग में सुधार नहीं कर पाता है, अपने पैरों को दलदल से बाहर नहीं निकाल सकता है, बल्कि अपने हृदय को कठोर बना देता है और निरंतर ग़लतियाँ करता रहता है। लेशमात्र पछतावे के बिना, वह कीचड़ में लगातार हाथ पैर मारना, सृजनकर्ता की संप्रभुता के विरोध में अवज्ञतापूर्ण ढंग से निरन्तर स्पर्धा करना अधिक पसंद करता है, और दुखद अंत तक विरोध करता रहता है। जब वह टूट कर बिखर जाता है और उसका रक्त बह रहा होता है केवल तभी वह अंततः हार मान लेने और पीछे हटने का निर्णय लेता है। यह असली मानवीय दुःख है। इसलिए मैं कहता हूँ, ऐसे लोग जो समर्पण करना चुनते हैं वे बुद्धिमान हैं, और जो संघर्ष करने और बचकर भागने का चुनाव करते हैं, वे वस्तुतः महामूर्ख हैं।

वचन देह में प्रकट होता है में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III' से उद्धृत

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