सीसीपी सरकार और धार्मिक जगत के द्वारा फैलाये गये अफवाहों में विश्वास करने की समस्या की प्रकृति क्या है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
जो सत्य को नहीं समझते हैं वे हमेशा दूसरों का अनुसरण करते हैं: यदि लोग कहते हैं कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, तो तुम भी कहते हो कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है; यदि लोग कहते हैं कि यह दुष्टात्मा का कार्य है, तो तुम्हें भी संदेह हो जाता है, या तुम भी कहते हो कि यह किसी दुष्टात्मा का कार्य है। तुम हमेशा दूसरों के शब्दों को तोते की तरह कहते हो और स्वयं किसी भी चीज का अंतर करने में असमर्थ होते हो, न ही तुम स्वयं सोचने में सक्षम होते हो। यह कोई बिना स्थिति वाला व्यक्ति है, जो विभेद करने में असमर्थ है—इस प्रकार का व्यक्ति निरर्थक अभागा है! तुम हमेशा दूसरों के वचनों को दोहराते हो: आज ऐसा कहा जाता है कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, परन्तु ऐसी सम्भावना है कि कल कोई कहेगा कि यह पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, और कुछ नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म हैं—फिर भी तुम इसे समझ नहीं पाते हो, और जब तुम इसे दूसरों के द्वारा कहा गया देखते हो, तो तुम भी वही बात कहते हो। यह वास्तव में पवित्र आत्मा का कार्य है, परन्तु तुम कहते हो कि यह मनुष्य का कार्य है, क्या तुम पवित्र आत्मा के कार्य की ईशनिंदा करने वालों में से एक नहीं बन गए हो? इसमें, क्या तुमने परमेश्वर का विरोध नहीं किया क्योंकि तुम विभेद नहीं कर सकते हो? कौन जानता है, हो सकता है कि एक दिन कोई मूर्ख दिखाई दे जाए जो कहता हो कि "यह किसी दुष्टात्मा का कार्य है," और जब तुम इन वचनों को सुनोगे तो तुम हैरानी में पड़ जाओगे, और एक बार फिर दूसरों के शब्दों में बँध जाओगे। हर बार जब कोई अशांति मचाता है तो तुम अपनी स्थिति में खड़े रहने में असमर्थ हो जाते हो, और यह सब इसलिए है क्योंकि तुम सत्य को धारण नहीं करते हो।
"वचन देह में प्रकट होता है" में "जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकते हैं" से
वे जो सच्चाई सुनकर अपनी गर्दन न में हिलाते हैं, जो मौत की बातें सुनकर अत्यधिक मुस्कराते हैं, वे शैतान की संतान हैं, और नष्ट कर दी जाने वाली वस्तुएं हैं। ऐसे लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें विवेक की कमी होती है, जब कुछ कपटपूर्ण घटित होता है, तो वे शैतान के साथ जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। और कोई कोई कह सकता है कि उनमें विवेक नहीं है, लेकिन वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहां सत्य नहीं है, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि नाज़ुक समय पर वे कभी सत्य के पक्ष में खड़े हुए हों, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि कभी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश की हो, तो क्या वाकई उनमें विवेक नहीं है? वे हमेशा शैतान के पक्ष में ही क्यों खड़े जाते हैं? वे कभी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते जो सत्य के पक्ष में सही और उचित हो? ऐसी स्थिति क्या वाकई उनकी क्षणिक दुविधा के कारण पैदा होती है? जिस व्यक्ति में विवेक की जितनी कमी होगी, वह सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पायेगा। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य व्यक्ति बुराई को गले लगाता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग शैतान की निष्ठावान संतान हैं? वे शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा क्यों बोलते हैं? उनका हर शब्द, हर कार्य, हर हाव-भाव पूरी तरह सिद्ध करता है कि वे कोई सत्य के प्रेमी नहीं हैं, बल्कि वे सत्य से घृणा करने वाले लोग हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना पूरी तरह यह सिद्ध करता है कि ये लोग जो आजीवन शैतान की खातिर लड़ते रहते हैं, ऐसे तुच्छ राक्षस हैं जिन्हें शैतान वाकई चाहता है। क्या ये तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं?
"वचन देह में प्रकट होता है" में "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
कुछ लोगों की प्रथम प्रतिक्रिया क्या होती है जब वे परमेश्वर के बारे में कोई अफवाह या निन्दात्मक बात सुनते हैं? उनकी पहली प्रतिक्रिया है: मुझे नहीं पता कि यह अफवाह सही है या नहीं, इसका अस्तित्व है या नहीं, इसलिए मैं प्रतीक्षा करूँगा और देखूँगा। तब वे विचार करना आरम्भ कर देते हैं: इसे सत्यापित करने का कोई तरीका नहीं है, क्या इसका अस्तित्व है? क्या यह अफवाह सच है या नहीं? यद्यपि ऐसे व्यक्ति इसे ऊपरी तौर पर प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं, फिर भी उसके हृदय ने पहले से ही सन्देह करना आरम्भ कर दिया है, पहले से ही परमेश्वर का इनकार करना शुरू कर दिया है। इस प्रकार की प्रवृत्ति, इस प्रकार के दृष्टिकोण का सार क्या है? क्या यह विश्वासघात नहीं है? उनका सामना किसी मामले से होने से पहले, तुम नहीं देख सकते हो कि इस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है—ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वे परमेश्वर से संघर्ष नहीं करते हैं, मानो कि वे परमेश्वर को एक शत्रु के रूप में नहीं मानते हैं। हालाँकि, जैसे ही उनका सामना इससे होता है, वे तुरन्त शैतान के साथ खड़े हो जाते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। यह क्या बताता है? यह बताता है कि मनुष्य और परमेश्वर विरोधी हैं! ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य को अपने शत्रु के रूप में मानता है, बल्कि मनुष्य का सार ही अपने आपमें परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। इस बात की परवाह किए बिना कि कोई व्यक्ति कितने लम्बे समय से परमेश्वर का अनुसरण करता है, वह कितनी कीमत चुकाता है; इस बात की परवाह किए बिना कि कोई व्यक्ति किस प्रकार परमेश्वर की स्तुति करता है, किस प्रकार वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने से स्वयं को रोकता है, यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रेम करने के लिए अपने आपको उकसाता भी है, वह कभी भी परमेश्वर के साथ परमेश्वर के रूप में व्यवहार नहीं कर सकता है। क्या यह मनुष्य के सार के द्वारा निर्धारित नहीं होता है? यदि तुम उसके साथ परमेश्वर के रूप में व्यवहार करते हो, तुम सचमुच में विश्वास करते हो कि वह परमेश्वर है, तो क्या तब भी तुम्हें उसके प्रति कोई सन्देह होता है? क्या तब भी तुम्हारे हृदय में उसके सम्बन्ध में कोई प्रश्न चिन्ह हो सकता है? नहीं हो सकता है। इस संसार के चलन बहुत ही दुष्टतापूर्ण हैं, यह मनुष्य जाति बहुत बुरी है—ऐसा कैसे है कि उसके बारे में तुम्हारी कोई धारणाएँ नहीं हैं? तुम स्वयं ही बहुत दुष्ट हो—ऐसा कैसे है कि इस बारे में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है? फिर भी थोड़ी सी अफवाहें और कुछ निन्दा, परमेश्वर के बारे में इतनी बड़ी धारणाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, इतने सारे विचारों को उत्पन्न कर सकती हैं, जो दर्शाता है कि तुम्हारी कद-काठी कितनी अपरिपक्व है! बस थोड़े से मच्छरों की "भनभनाहट," और कुछ घिनौनी मक्खियाँ, बस इतना ही काफी है तुम्हें धोखा देने के लिए? यह किस प्रकार का व्यक्ति है?
"वचन देह में प्रकट होता है" में "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" से
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?