परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना और पीना चाहिए और परमेश्वर के वचनों पर किस तरह चिंतन करना चाहिए?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर के वचन को खाने-पीने के सिद्धांत के दो पहलू हैं : एक का संबंध ज्ञान से है और दूसरे का संबंध प्रवेश करने से है। तुम्हें कौन से वचन जानने चाहिए? तुम्हें दर्शन से जुड़े वचन जानने चाहिए (जैसे कि परमेश्वर का कार्य अब किस युग में प्रवेश कर चुका है, अब परमेश्वर क्या प्राप्त करना चाहता है, देहधारण क्या है और ऐसी अन्य बातें, ये सभी बातें दर्शन से संबंधित हैं)। उस मार्ग के क्या मायने हैं जिसमें मनुष्य को प्रवेश करना चाहिए? यह परमेश्वर के उन वचनों का उल्लेख करता है जिन पर मनुष्य को अमल करना और चलना चाहिए। परमेश्वर के वचन को खाने और पीने के ये दो पहलू हैं। अब से, तुम परमेश्वर के वचन को इसी तरह खाओ-पियो। यदि तुम्हें दर्शन के बारे में वचनों की स्पष्ट समझ है तो सब समय पढ़ते रहने की आवश्यकता नहीं है। मुख्य बात है प्रवेश करने से संबंधित वचनों को अधिक खाना और पीना, जैसे कि किस प्रकार परमेश्वर की ओर अपने हृदय को मोड़ना है, किस प्रकार परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय को शांत करना है, कैसे देह का परित्याग करना है। यही सब है जिस पर तुम्हें अमल करना है। परमेश्वर के वचन को कैसे खाए-पिएँ यह जाने बिना असली सहभागिता संभव नहीं है। जब एक बार तुम जान लेते हो कि परमेश्वर के वचन को कैसे खाए-पिएँ और समझ लेते हो कि कुंजी क्या है तो सहभागिता तुम्हारे लिए आसान होगी। जो भी मामले उठेंगे, तुम उनके बारे में सहभागिता कर पाओगे और वास्तविकता को समझ लोगे। बिना वास्तविकता के परमेश्वर के वचन से सहभागिता करने का अर्थ है, तुम यह समझ पाने में असमर्थ हो कि कुंजी क्या है, यह बात दर्शाती है कि तुम परमेश्वर के वचन को खाना-पीना नहीं जानते। कुछ लोग परमेश्वर का वचन पढ़ते समय थकान का अनुभव करते हैं। यह दशा सामान्य नहीं है। वास्तव में सामान्य बात यह है कि परमेश्वर का वचन पढ़ते हुए तुम कभी थकते नहीं, सदैव उसकी भूख-प्यास बनी रहती है, तुम सदैव सोचते हो कि परमेश्वर का वचन भला है। और वह व्यक्ति जो सचमुच प्रवेश कर चुका है वह परमेश्वर के वचन को ऐसे ही खाता-पीता है। जब तुम अनुभव करते हो कि परमेश्वर का वचन सचमुच व्यावहारिक है और मनुष्य को इसमें प्रवेश करना ही चाहिए; जब तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर का वचन मनुष्य के लिए बेहद सहायक और लाभदायक है, यह मनुष्य के जीवन के लिए रसद है, यह पवित्र आत्मा है जो तुम्हें ऐसी भावना देता है, और तुम्हें प्रेरित करता है। यह बात साबित करती है कि पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य कर रहा है और परमेश्वर तुमसे विमुख नहीं हुआ है। यह जानकर कि परमेश्वर सदैव बातचीत करता है, कुछ लोग उसके वचनों से थक जाते हैं, वे सोचते हैं कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने या न पढ़ने का कोई परिणाम नहीं होता। यह सामान्य दशा नहीं है। उनका हृदय वास्तविकता में प्रवेश करने की इच्छा नहीं करता, ऐसे लोगों में पूर्णता के लिए भूख-प्यास नहीं होती और न ही वे इसे महत्वपूर्ण मानते हैं। जब भी तुम्हें लगता है कि तुममें परमेश्वर के वचन की प्यास नहीं है तो यह संकेत है कि तुम्हारी दशा सामान्य नहीं है। अतीत में, परमेश्वर तुमसे कहीं विमुख तो नहीं हो गया, इसका पता इस बात से चलता था कि तुम्हारे भीतर शांति है या नहीं और तुम आनंद का अनुभव कर रहे या नहीं। अब, यह इस बात से पता चलता है कि तुममें वचन की प्यास है या नहीं। क्या उसके वचन तुम्हारी वास्तविकता हैं, क्या तुम निष्ठावान हो और क्या तुम वह करने योग्य हो जो तुम परमेश्वर के लिये कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को परमेश्वर के वचन की वास्तविकता के द्वारा जाँचा-परखा जाता है। परमेश्वर अपने वचनों को सभी मनुष्यों की ओर भेजता है। यदि तुम उसे पढ़ने के लिए तैयार हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, यदि नहीं तो वह तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा। परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करता है जो धार्मिकता के भूखे-प्यासे हैं और परमेश्वर को खोजते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर ने वचन पढ़ने के बाद भी उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया। परमेश्वर के वचनों को तुमने कैसे पढ़ा था? यदि तुमने उसके वचनों को इस ढंग से पढ़ा जैसे किसी घुड़सवार ने घोड़े पर बैठे-बैठे फूलों को देखा और वास्तविकता को कोई महत्व नहीं दिया, तो परमेश्वर कैसे तुम्हें प्रबुद्ध कर सकता है? कैसे वह व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन को संजो कर नहीं रखता परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया जा सकता है? यदि तुम परमेश्वर के वचन को सँजो कर नहीं रखते, तब तुम्हारे पास न तो सत्य होगा और न ही वास्तविकता होगी। यदि तुम उसके वचन को सँजो कर रखते हो, तब तुम सत्य का अभ्यास कर पाओगे; और तब ही तुम वास्तविकता को पाओगे। इसलिए स्थिति चाहे जो भी हो, तुम्हें परमेश्वर के वचन को खाना और पीना चाहिए, तुम चाहे व्यस्त हो या न हो, परिस्थितियां विपरीत हों या न हों, चाहे तुम परखे जा रहे हो या नहीं परखे जा रहे हो। कुल मिलाकर परमेश्वर का वचन मनुष्य के अस्तित्व का आधार है। कोई भी उसके वचन से विमुख नहीं हो सकता, उसके वचन को ऐसे खाना होगा जैसे वे दिन में तीन बार भोजन करते हैं। क्या परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया जाना और प्राप्त किया जाना इतना आसान हो सकता है? अभी तुम इसे समझो या न समझो, तुम्हारे भीतर परमेश्वर के कार्य को समझने की अंर्तदृष्टि हो या न हो, तुम्हें परमेश्वर के वचन को अधिक से अधिक खाना और पीना चाहिए। यह तत्परता और क्रियाशीलता के साथ प्रवेश करना है। परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद, जिसमें प्रवेश कर सको उस पर अमल करने की तत्परता दिखाओ, तुम जो नहीं कर सकते, उसे कुछ समय के लिए दरकिनार कर दो। आरंभ में हो सकता है, परमेश्वर के बहुत से वचन तुम समझ न पाओ, पर दो या तीन माह बाद या फिर एक वर्ष के बाद तुम समझने लगोगे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर एक या दो दिन में मनुष्य को पूर्ण नहीं कर सकता। अधिकतर समय, जब तुम परमेश्वर का वचन पढ़ते हो, तुम उस समय उसे नहीं समझ पाओगे। उस समय वह तुम्हें लिखित पाठ से अधिक प्रतीत नहीं होगा; केवल कुछ समय के अनुभव के बाद ही तुम उसे समझने योग्य बन जाओगे। परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है इसलिए उसके वचन को खाने-पीने के लिए तुम्हें अधिक से अधिक प्रयास करना चाहिए। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम समझने लगोगे, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब पवित्र आत्मा मनुष्य को प्रबुद्ध करता है, तब अक्सर मुनुष्य को उसका ज्ञान नहीं होता। वह तुम्हें प्रबुद्ध करता है और मार्गदर्शन देता है जब तुम उसके प्यासे होते हो, उसे खोजते हो। पवित्र आत्मा जिस सिद्धांत पर कार्य करता है वह परमेश्वर के वचन पर केंद्रित होता है जिसे तुम खाते और पीते हो। वे सब जो परमेश्वर के वचन को महत्व नहीं देते और उसके प्रति सदैव एक अलग तरह का दृष्टिकोण रखते हैं―अपनी संभ्रमित सोच में यह विश्वास करते हुए कि वे वचन को पढ़ें या न पढ़ें कुछ फर्क नहीं पड़ता―ऐसे लोग हैं जो वास्तविकता नहीं जानते। ऐसे व्यक्ति में न तो पवित्र आत्मा का कार्य और न ही उसके द्वारा दी गई प्रबुद्धता दिखाई देती है। ऐसे व्यक्ति बस साथ-साथ चलते हैं, वे बिना उचित योग्यताओं के मात्र दिखावा करने वाले लोग हैं, जैसे कि एक नीतिकथा में[क] नैनगुओ थे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है
जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, तो तुम्हें इनके सामने अपनी स्थिति की वास्तविकता को मापना चाहिए। यानी, जब तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव के दौरान अपनी कमियों का पता चले, तो तुम्हें अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ने, गलत अभिप्रेरणाओं और धारणाओं से मुँह मोड़ने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम हमेशा इन बातों का प्रयास करो और इन बातों को हासिल करने में अपने दिल को उँड़ेल दो, तो तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग होगा, तुम अपने अंदर खोखलापन महसूस नहीं करोगे, और इस तरह तुम एक सामान्य स्थिति बनाए रखने में सफल हो जाओगे। तब तुम ऐसे इंसान बन जाओगे जो अपने जीवन में भार वहन करता है, जिसमें आस्था है। ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, उन्हें अमल में नहीं ला पाते? क्या इसकी वजह यह नहीं है कि वे सबसे अहम बात को समझ नहीं पाते? क्या इसकी वजह यह नहीं है कि वे जीवन को गंभीरता से नहीं लेते? वे अहम बात को समझ नहीं पाते और उनके पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता, उसका कारण यह है कि जब वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो वे उनसे अपनी स्थितियों को जोड़ नहीं पाते, न ही वे अपनी स्थितियों को अपने वश में कर पाते हैं। कुछ लोग कहते हैं : "मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़कर उनसे अपनी स्थिति को जोड़ पाता हूँ, और मैं जानता हूँ कि मैं भ्रष्ट हूँ और मेरी क्षमता खराब है, लेकिन मैं परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के काबिल नहीं हूँ।" तुमने केवल सतह को ही देखा है; और भी बहुत-सी वास्तविक चीज़ें हैं जो तुम नहीं जानते : देह-सुख का त्याग कैसे करें, दंभ को दूर कैसे करें, स्वयं को कैसे बदलें, इन चीज़ों में कैसे प्रवेश करें, अपनी क्षमता कैसे बढ़ाएँ और किस पहलू से शुरू करें। तुम केवल सतही तौर पर कुछ चीज़ों को समझते हो, तुम बस इतना जानते हो कि तुम वाकई बहुत भ्रष्ट हो। जब तुम अपने भाई-बहनों से मिलते हो, तो तुम यह चर्चा करते हो कि तुम कितने भ्रष्ट हो, तो ऐसा लगता है कि तुम स्वयं को जानते हो और अपने जीवन के लिए एक बड़ा भार वहन करते हो। दरअसल, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बदला नहीं है, जिससे साबित होता है कि तुम्हें अभ्यास का मार्ग मिला नहीं है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7)
यदि तुम सत्य खोजना चाहते हो, सत्य को समझना और पाना चाहते हो, तो तुम्हें सीखना होगा कि परमेश्वर के सामने शांत कैसे होना है, सत्य पर चिंतन कैसे करना है और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कैसे करना है। क्या सत्य पर चिंतन करने की कोई औपचारिकताएँ हैं, जिनका पालन करना होता है? क्या कोई नियम हैं? क्या कोई समय-सीमाएं हैं? क्या यह किसी स्थान-विशेष पर करना होता है? नहीं—परमेश्वर के वचनों पर किसी भी समय और स्थान पर चिंतन किया जा सकता है। अगर तुम लोग अपने खोखले विचारों और काल्पनिक उड़ानों पर समय न गँवाकर, सत्य के चिंतन में लगाओ, तो दिन भर में तुम्हारा कितना समय व्यर्थ होने से बच जाएगा? जब लोग समय गँवाते हैं तो वो क्या करते हैं? वे लोग पूरा दिन बातचीत और गप्पें लगाने में खराब कर देते हैं, अपनी रुचि का काम करते हैं, व्यर्थ के कामों में लिप्त रहते हैं, जो गुज़रे ज़माने की निरर्थक बातों पर ही सोच-विचार करते रहते हैं, इन्हीं ख्यालों में डूबे रहते हैं कि कल क्या होगा, भविष्य का राज्य कहाँ होगा, नरक कहाँ है—क्या यह सब निरर्थक बातें नहीं हैं? अगर इस समय को सकारात्मक चीज़ों पर लगाया जाए—अगर तुम परमेश्वर के सामने शांत हो जाओ, परमेश्वर के वचनों पर अधिक चिंतन करो, सत्य पर संगति करो, अपने हर क्रिया-कलाप पर मंथन करो, जाँच के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने रखो और यह देखो कि क्या कोई ऐसे बड़े मामले हैं, जिन्हें तुम सुलझा या समझ नहीं पाए, विशेषकर ऐसे गंभीर क्षेत्र जहाँ तुम परमेश्वर के प्रति सबसे ज़्यादा विद्रोही हो और उन्हें सुलझाने के लिए उनके तद्नुरूप वचन खोज रहे हो, तो तुम धीरे-धीरे सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे।
परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में क्या शामिल है? इसमें तथा-कथित आध्यात्मिक शब्दों और सिद्धांतों को, जिन्हें तुम लोग बोलते रहते हो और जिन आध्यात्मिक सिद्धांतों को तुम सही मानकर अक्सर अभ्यास करते रहते हो और प्रार्थना में पढ़ते हो, उन सबको समेटना शामिल है: “मैं इन आध्यात्मिक वाक्याँशों और पारिभाषिक शब्दावली के सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट हूँ, मैं उनके शाब्दिक अर्थ को अच्छी तरह समझता हूँ, लेकिन उनकी वास्तविकता का क्या? उन्हें अमल में कैसे लाऊँ?” इस तरह से परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करना है; इस पहलू से शुरू करो। परमेश्वर में विश्वास रखते समय, अगर लोगों को उसके वचनों पर चिंतन करना नहीं आता, तो उन्हें सत्य में प्रवेश करने और उसे समझने में बड़ी मुश्किल होगी। अगर लोग सत्य न समझ पाएँ, तो क्या वे सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? अगर वे सत्य-वास्तविकता में प्रवेश न कर पाएँ, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं? अगर लोग न तो सत्य प्राप्त कर पाएँ और न ही सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाएँ, तो क्या वे परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर सकते हैं? ऐसा करना बहुत मुश्किल होगा। उदाहरण के लिए, अक्सर दोहराए गए इन वचनों को लो “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो,”: तुम्हें इन वचनों पर विचार करके अपने आपसे कहना चाहिए, “परमेश्वर का भय मानना क्या है? अगर मैं कुछ गलत बोल दूँ, तो यह परमेश्वर का भय मानना है या नहीं? ऐसा बोलना बुरा काम करना है या अच्छा काम करना? क्या परमेश्वर इसे याद रखता है? क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? कौन-सी चीज़ें बुरी हैं? मेरे विचार, अभिप्रेरणाएँ, सोच, दृष्टिकोण, प्रोत्साहन तथा जो बातें मैं कहता हूँ और जो काम मैं करता हूँ, उनका मूल और मेरे विभिन्न स्वभावों का प्रकटन—क्या ये सब चीज़ें बुरी मानी जाती हैं? परमेश्वर इनमें से किन बातों की अनुमति देता है? परमेश्वर को किन बातों से घृणा है? परमेश्वर किन कामों की निंदा करता है? ऐसे कौन-से मामले हैं जिनमें मैं भयंकर भूल कर सकता हूँ?” ये सब विचारणीय प्रश्न हैं। क्या तुम लोग नियमित रूप से सत्य पर चिंतन करते हो? तुम लोग कितना समय व्यर्थ गँवा चुके हो? तुम लोगों ने सत्य से जुड़े, परमेश्वर में आस्था से जुड़े, जीवन-प्रवेश से जुड़े, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से जुड़े कितने मामलों पर विचार किया है? जब परमेश्वर के वचनों पर तुम्हारा चिंतन या परमेश्वर में आस्था से जुड़ा तुम्हारा चिंतन और सत्य फल प्रदान करने लगता है, तो तुम जीवन-प्रवेश पा लेते हो। तुम लोगों को अभी तक नहीं पता कि आज इन बातों पर चिंतन कैसे करना है और तुमने जीवन-प्रवेश भी हासिल नहीं किया है। जब कोई जीवन-प्रवेश हासिल कर लेता है और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर पाता है और उन मामलों पर विचार करता है, तो वह सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर देता है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य के बारम्बार चिन्तन से ही आपको आगे का मार्ग मिल सकता है' से उद्धृत
जब तुम लोग परमेश्वर के वचन सुनते हो, तो क्या तुम सब इसे अपने आप पर लागू करते हो, या तुम लोग केवल सिद्धांत सुन रहे होते हो, एक कान से वचनों को सुनते और दूसरे से बाहर निकाल देते हो? तुम लोगों के भीतर किस तरह के दृष्टिकोण और अभिप्रेरणाएँ होती हैं? तुम लोग वास्तव में परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तरीका नहीं जानते हो। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के वचनों में से "जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी", शीर्षक वाले परिच्छेद को पढ़ने के बाद तुम सभी इतना ही समझते हो कि परमेश्वर कह रहा है कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, उन्हें हटा दिया जाएगा, कि परमेश्वर उन लोगों से खुश नहीं होता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और परमेश्वर की नज़रों में, वे अच्छे नहीं, बुरे हैं। लेकिन क्या तुम लोगों ने कभी यह सोचा है कि लोगों के कौन-से व्यवहार सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हैं, उनके कौन-से कार्य, दृष्टिकोण और वे मार्ग जिन पर वे चलते हैं, परमेश्वर द्वारा सत्य का अभ्यास नहीं करने की अभिव्यक्तियों के रूप में माने जाते हैं? क्या तुम जानते हो कि उस पर चिंतन कैसे करना है? तुम्हें नियमित रूप से ऐसा करना चाहिए, और तुम लोगों को इस बारे में सोचने के लिए एक साथ इकट्ठा होने तक का इंतज़ार नहीं करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर अक्सर चिंतन करना सीखना चाहिए। परमेश्वर का वचन क्या होता है? यह सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता है, यही सत्य, मार्ग और वो जीवन है जो परमेश्वर इंसान को प्रदान करता है। परमेश्वर के वचन सिद्धांत, प्रचार-वाक्य, या तर्क नहीं होते, न ही वे किसी तरह का दर्शन या ज्ञान होते हैं। बल्कि, उनका सरोकार इंसान के जीवन और उसके अस्तित्व से, उसके आचरण और स्वभाव से, हर उस बात से जो इंसान प्रकट करता है, और उन ख़यालों और मतों से होता है जो इंसान के दिल में पैदा होते हैं और उसके दिमाग में रहते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के बारे में तुम्हारा चिंतन इन सब चीज़ों से विच्छिन्न है, और यदि तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, और उपदेशों तथा सहभागिता को सुनते समय, स्वयं उनसे विलग रहते हो, तो जो तुम समझ पाते हो, वह सतही और सीमित होगा। तुम लोगों को यह सीखना होगा कि परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कैसे करें। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने के कई तरीके हैं : तुम उन्हें मौन रहकर पढ़ सकते हो और पवित्र आत्मा से प्रबोधन और प्रकाश चाहते हुए अपने दिल में प्रार्थना कर सकते हो; जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी संगति में तुम सहभागिता भी कर सकते हो और प्रार्थनापूर्वक पढ़ सकते हो; और यकीनन तुम परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और सराहना को गहनतर बनाने के लिए अपने चिंतन में सहभागिताओं और उपदेशों को समाहित कर सकते हो। इसके अनेक और भिन्न-भिन्न तरीके हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से कोई उन वचनों की और सत्य की समझ चाहता हो, तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर के वचनों पर चिंतन किया जाए और उन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़ा जाए। परमेश्वर के वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढने का उद्देश्य उनका व्याख्यान करना नहीं, न ही उन्हें कंठस्थ करना है; बल्कि उन वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढ़कर और उन पर चिंतन करके उनकी एक सटीक समझ हासिल करना और परमेश्वर द्वारा कथित इन वचनों के अर्थ और साथ ही उसके इरादे को जानना है। यह उन वचनों में अभ्यास का एक मार्ग पा लेना है, और स्वयं को मनमानी करने से रोकना है। साथ ही, यह परमेश्वर के वचनों में उजागर की गई सभी तरह की स्थितियों और लोगों के बीच भेद करने में सक्षम होना है, ताकि अभ्यास का एक ऐसा सटीक मार्ग पाया जा सके जिसके माध्यम से हर तरह के व्यक्ति के साथ व्यवहार किया जा सके। इसके साथ ही, यह भटकने से और उस राह पर कदम रखने से बचने के लिए है, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। एक बार जब तुम परमेश्वर के वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढ़ना और उन पर चिंतन करना जान लेते हो, और इसे प्रायः करते हो, केवल तभी परमेश्वर के वचन तुम्हारे दिल में जड़ें जमा सकेंगे और तुम्हारा जीवन बन सकेंगे।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (11)' से उद्धृत
इस पर ध्यान दिए बगैर कि तुमने सत्य की वास्तविकता के कौन से पहलू को सुना है, यदि तुम इसके विरुद्ध अपने आप को सँभालते हो, यदि तुम इन वचनों को अपने जीवन में कार्यान्वित करते हो, और उन्हें अपने स्वयं के अभ्यास में शामिल करते हो, तो तुम निश्चित रूप से कुछ हासिल करोगे, और निश्चित रूप से बदल जाओगे। यदि तुम इन वचनों को पेट में ठूँस लेते हो, और उन्हें अपने मस्तिष्क में याद कर लेते हो, तो तुम कभी भी नहीं बदलोगे। उपदेश सुनते समय, तुम्हें इस प्रकार विचार करना चाहिए : "ये वचन किस प्रकार की अवस्था का उल्लेख कर रहे हैं? ये सार के किस पहलू का उल्लेख कर रहे हैं? सत्य के इस पहलू को मुझे किन मामलों में लागू करना चाहिए? जब भी मैं सत्य के इस पहलू से संबंधित कुछ कार्य करता हूँ, तो क्या मैं सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहा होता हूँ? और जब मैं इसका अभ्यास कर रहा होता हूँ, तो क्या मेरी अवस्था इन वचनों के अनुसार होती है? अगर नहीं है, तो क्या मुझे खोज, संगति या प्रतीक्षा करनी चाहिए?" क्या तुम अपने जीवन में इस तरीके से अभ्यास करते हो? अगर नहीं करते, तो तुम्हारा जीवन परमेश्वरविहीन और सत्य से रहित है। तुम शब्दों और सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीते हो या अपने हितों, विश्वास और उत्साह के अनुसार जीवन जीते हो। जिन लोगों में वास्तविकता के रूप में सत्य नहीं है, उनमें कोई वास्तविकता नहीं है और जिन लोगों में अपनी वास्तविकता के रूप में परमेश्वर के वचन नहीं हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं किया है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास' से उद्धृत
परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ पाना कोई सरल बात नहीं है। इस तरह मत सोच : "मैं परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या कर सकता हूँ, और हर कोई मेरी व्याख्या को अच्छा कहता है और मुझे शाबाशी देता है, तो इसका अर्थ है कि मैं परमेश्वर के वचनों को समझता हूँ।" यह परमेश्वर के वचनों को समझने के समान नहीं है। यदि तूने परमेश्वर के कथनों के भीतर से कुछ प्रकाश प्राप्त किया है और तूने उसके वचनों के वास्तविक अर्थ को महसूस किया है, यदि तू उसके वचनों के पीछे के इरादे को और वे अंततः जो प्रभाव प्राप्त करेंगे, उसको व्यक्त कर सकता है, तो एक बार इन सब बातों की स्पष्ट समझ हो जाने पर, यह माना जा सकता है कि तुम्हारे पास कुछ अंश तक परमेश्वर के वचनों की समझ है। इस प्रकार, परमेश्वर के वचनों को समझना इतना आसान नहीं है। सिर्फ इसलिए कि तू परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की एक लच्छेदार व्याख्या दे सकता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तू इन्हें समझता है। तू चाहे उनके शाब्दिक अर्थ की व्याख्या कर पाये, तेरी व्याख्या तब भी मनुष्य की कल्पना और उसके सोचने के तरीके पर आधारित होगी। यह बेकार है! तुम परमेश्वर के वचनों को कैसे समझ सकते हो? मुख्य बात है कि उनके भीतर से सत्य को खोजना; केवल तभी तुम सच में समझ पाओगे कि परमेश्वर क्या कहता है। जब भी परमेश्वर बोलता है, तो वह निश्चित रूप से केवल सामान्यताओं में बात नहीं करता है। उसके द्वारा कथित प्रत्येक वाक्य के भीतर ऐसे विवरण होते हैं जो परमेश्वर के वचनों में निश्चित रूप से प्रकट किए जाने हैं, और वे अलग तरीके से व्यक्त किये जा सकते हैं। जिस तरीके से परमेश्वर सत्य को अभिव्यक्त करता है मनुष्य उसकी थाह नहीं पा सकता। परमेश्वर के कथन बहुत गहरे हैं और मनुष्य के सोचने के तरीके के माध्यम से उसे समझा नहीं जा सकता है। जब तक लोग प्रयास करते रहेंगे, तब तक वे सत्य के हर पहलू का पूरा अर्थ समझ सकते हैं; अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम इन्हें अनुभव कर सकते हो, शेष बचा विवरण पूरी तरह से तब भर दिया जाएगा जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, इस प्रकार वह तुम्हें इन ठोस अवस्थाओं की समझ देगा।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें' से उद्धृत
परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना तुम्हें सत्य समझने में तभी सक्षम बना सकता है जब इसे सही ढंग से किया जाये। हालाँकि, सिर्फ सत्य समझ लेने का मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। कुछ लोगों की क्षमता अच्छी होती है लेकिन वे सत्य से प्रेम नहीं करते; भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझ सकते हैं, पर वे उसका अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसे लोग सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? सत्य समझना सिद्धांतों को समझने जितना सरल नहीं है। सत्य समझने के लिए, तुम्हारे लिए यह जानना ज़रूरी है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना और पीना है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के प्रति प्रेम के सत्य से संबंधित अवतरण के खाने-पीने को लो। परमेश्वर का वचन कहता है : "जैसा कि 'प्रेम' के लिए कहा जाता है, यह एक ऐसा भाव है जो पूर्ण रूप से विशुद्ध व निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने, और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई अवरोध या कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट, और कोई धूर्तता नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और कुछ भी अशुद्ध नहीं होता।" परमेश्वर प्रेम को इस प्रकार परिभाषित करता है, और यह सत्य है। लेकिन तुम किससे प्रेम करोगे? क्या तुम अपने पति से प्रेम करोगी? अपनी पत्नी से करोगे? अपने भाईयों और बहनों से? नहीं। जब परमेश्वर प्रेम की बात करता है, तो वह तुम्हारे साथी मनुष्य के प्रति प्रेम के बारे में नहीं कहता है, बल्कि मनुष्य के परमेश्वर के प्रति प्रेम के बारे में कहता है। यह प्रेम सच्चा प्रेम है। इस सत्य को तुम्हें कैसे समझना चाहिए? इसका अर्थ है परमेश्वर चाहता है कि लोग उस पर संदेह न करें या उससे दूरी नहीं बनाएँ, बल्कि उसके प्रति ऐसा प्रेम रखें जो शुद्ध और निष्कलंक है। "निष्कलंक" का अर्थ है अनावश्यक इच्छाओं का न होना और परमेश्वर से अनावश्यक माँगें न करना, उसके सामने कोई शर्त न रखना और बहाने न बनाना। इसका अर्थ है कि वह पहले तुम्हारे दिल में आता है; इसका अर्थ है कि तुम्हारे हृदय में केवल उसके वचन हैं। यह एक ऐसी भावना है जो शुद्ध और निष्कलंक है। इस भावना का तुम्हारे हृदय में एक विशेष स्थान है; तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में विचार करते हो और उसे याद करते हो, और प्रत्येक क्षण उन्हें मन में ला सकते हो। प्रेम का अर्थ है अपने हृदय से प्रेम करना। हृदय से प्रेम करने में विचारशील होना, परवाह करना और तड़प शामिल है। अपने हृदय से प्रेम करने में सफल होने के लिए, तुम्हें पहले जानने की प्रक्रिया से गुज़रना होगा। वर्तमान समय में, जबकि तुम्हारे पास परमेश्वर का ज्ञान बहुत कम है, तुम्हें अपने हृदय का उपयोग उसके लिए लालायित होने, उसकी लालसा करने, उसकी आज्ञा मानने, उसके प्रति विचारशील होने, उससे प्रार्थना करने, और उसे पुकारने के लिए करना चाहिए; तुम्हें उसके विचारों और चिंताओं को साझा करने में भी सक्षम होना चाहिए। तुम्हें इन चीजों में अपना ध्यान लगाना होगा। बस दिखावटी प्रेम न करो, यह न बोलो : "प्रिय परमेश्वर! मैं तुम्हारे लिए यह कर रहा हूँ, मैं तुम्हारे लिए वह कर रहा हूँ!" केवल अपने हृदय से परमेश्वर को प्यार और संतुष्ट करना ही वास्तविक है। यद्यपि तुम ऐसा ज़ोर से नहीं बोलते हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है, अपने हृदय में तुम उसके बारे में सोच रहे होते हो। तुम अपने पति, अपनी पत्नी, अपने बच्चे, अपने माता-पिता को छोड़ सकते हो; लेकिन तुम्हारे हृदय परमेश्वर के बगैर नहीं रह सकता है। परमेश्वर के बिना, तुम जीवित नहीं रह सकते हो। इसका अर्थ है कि तुममें प्रेम है और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है। "अपने हृदय का उपयोग परमेश्वर से प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए करो।" इसमें कई चीज़ें शामिल हैं। परमेश्वर मनुष्य से सच्चे प्रेम की अपेक्षा करता है; दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपने हृदय से उससे प्रेम और उसकी परवाह करनी चाहिए, और उसे सदैव अपने मन में रखना चाहिए। इसका अर्थ बस वचनों को बोलना नहीं है, न ही इसका अर्थ यह है कि तुम अपने दायित्वों के साथ खुद को कैसे व्यक्त करते हो; बल्कि, मुख्य रूप से, इसका अर्थ है चीज़ों को हृदय से करना, अपने हृदय को तुम्हारे सभी कार्यों को नियंत्रित करने देना। इस तरह कार्य करने में कोई प्रेरणा नहीं होती, कोई मिलावट नहीं होती, कोई संदेह नहीं होता; इस तरह का हृदय कहीं अधिक शुद्ध होता है। तुम्हारे हृदय के संदेह कैसे व्यक्त होते हैं? वे तब व्यक्त होते हैं जब तुम हमेशा सोचते हो : "क्या परमेश्वर का ऐसा करना उचित है? परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहता है? अगर परमेश्वर के ऐसा कहने के पीछे कोई कारण नहीं है, तो मैं इसका पालन नहीं करुंगा। अगर परमेश्वर का ऐसा करना अन्यायपूर्ण है, तो मैं इसका पालन नहीं करुंगा। मैं फिलहाल इसे छोड़ दूंगा।" संदेह नहीं करने का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहताऔर करता है, वह सही है, और परमेश्वर के लिए कुछ भी सही या गलत नहीं होता है। मनुष्य को परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए, परमेश्वर के प्रति विचारशील होना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उनके विचारों और चिंताओं को साझा करना चाहिए। परमेश्वर जो भी कुछ भी करता है वह तुम्हें अर्थपूर्ण लगे या न लगे, चाहे यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुकूल हो या नहीं, और चाहे यह मनुष्य की समझ में आता हो या नहीं, लेकिन तुम हमेशा इन चीज़ों का पालन कर सकते हो, इनके प्रति एक श्रद्धापूर्ण, आज्ञाकारी हृदय रख सकते हो। क्या इस प्रकार का अभ्यास सत्य के अनुरूप नहीं है? क्या यह प्रेम की अभिव्यक्ति और अभ्यास नहीं है? इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के वचनों से परमेश्वर की इच्छा को और उसके कथनों के पीछे के अभिप्रायों को नहीं समझते हो, अगर तुम उन लक्ष्यों या परिणामों को नहीं समझते हो जिसे उसके वचन प्राप्त करना चाहते हैं, अगर तुम यह नहीं समझते हो कि उसके वचन मनुष्य में क्या पूर्ण और हासिल करना चाहते हैं, अगर तुम इन बातों को नहीं समझते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी तक सत्य को समझा नहीं है। परमेश्वर जो कहता है उसे क्यों कहता है? वह उस लहजे में क्यों बोलता है? वह अपने हर वचन में इतना ईमानदार और निष्कपट क्यों है? वह कुछ विशिष्ट वचनों को उपयोग के लिए क्यों चुनता है? क्या तुम जानते हो? अगर निश्चित होकर नहीं बता सकते, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर की इच्छा या उसके इरादों को नहीं समझते हो, तुम उनके वचनों के पीछे के संदर्भ को नहीं समझते हो। अगर तुम यह समझ नहीं पाते हो, तो तुम सत्य को कैसे प्राप्त कर सकते हो? सत्य को प्राप्त करने का अर्थ है परमेश्वर द्वारा बोले जाने वाले हर वचन के माध्यम से परमेश्वर के अर्थ को समझना; इसका अर्थ है समझ लेने के बाद तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने में समर्थ हो ताकि तुम परमेश्वर के वचनों को जी सको और वे तुम्हारी वास्तविकता बन जायेँ। तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचन को पूरी तरह से समझ लिए जाने पर ही तुम वास्तव में सत्य को समझ सकते हो।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल वे ही अगुआई कर सकते हैं जिनके पास सत्य की वास्तविकता है' से उद्धृत
सारांश में, अपने विश्वास में पतरस के मार्ग को अपनाने का अर्थ है, सत्य को खोजने के मार्ग पर चलना, जो वास्तव में स्वयं को जानने और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग भी है। केवल पतरस के मार्ग पर चलने के द्वारा ही कोई परमेश्वर के द्वारा सिद्ध बनाए जाने के मार्ग पर होगा। किसी को भी इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वास्तव में कैसे पतरस के मार्ग पर चलना है साथ ही कैसे इसे अभ्यास में लाना है। सबसे पहले, किसी को भी अपने स्वयं के इरादों, अनुचित कार्यों, और यहाँ तक कि अपने परिवार और अपनी स्वयं की देह की सभी चीज़ों को एक ओर रखना होगा। एक व्यक्ति को पूर्ण हृदय से समर्पित अवश्य होना चाहिए, अर्थात्, स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, सत्य की खोज पर ध्यान लगाना, और परमेश्वर के वचनों में उसके इरादों की खोज पर अवश्य ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और हर चीज़ में परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास करना चाहिए। यह अभ्यास की सबसे बुनियादी और प्राणाधार पद्धति है। यह वही था जो पतरस ने यीशु को देखने के बाद किया था, और केवल इस तरह से अभ्यास करने से ही कोई सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति हार्दिक समर्पण में मुख्यत: सत्य की खोज करना, परमेश्वर के वचनों में उसके इरादों की खोज करना, परमेश्वर की इच्छा को समझने पर ध्यान केन्द्रित करना, और परमेश्वर के वचनों से सत्य को समझना तथा और अधिक प्राप्त करना शामिल है। उसके वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था; इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर की इच्छा को समझने पर, साथ ही उसके स्वभाव और उसकी सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति को तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, उसकी इंसान से अपेक्षाओं के सभी पहलुओं को प्राप्त किया। पतरस के पास ऐसे बहुत से अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे; यह परमेश्वर की इच्छा के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्त्म तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर से सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय, पतरस ने मनुष्य के लिए परमेश्वर के न्याय के प्रत्येक वचन, मनुष्य के प्रकाशन के परमेश्वर के प्रत्येक वचन और मनुष्य की उसकी माँगों के प्रत्येक वचन के विरुद्ध सख्ती से स्वयं की जाँच की, और उन वचनों के अर्थ को जानने का पूरा प्रयास किया। उसने उस हर वचन पर विचार करने और याद करने की ईमानदार कोशिश की जो यीशु ने उससे कहे थे, और बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए। अभ्यास करने के इस तरीके के माध्यम से, वह परमेश्वर के वचनों से स्वयं की समझ प्राप्त करने में सक्षम हो गया था, और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों को समझने लगा, बल्कि मनुष्य के सार, प्रकृति और विभिन्न कमियों को समझने लगा—स्वयं को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। परमेश्वर के वचनों से, पतरस ने न केवल स्वयं की सच्ची समझ प्राप्त की, बल्कि परमेश्वर के वचनों में व्यक्त की गई बातों—परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसके स्वरूप, परमेश्वर की अपने कार्य के लिए इच्छा, मनुष्यजाति से उसकी माँगें—से इन वचनों से उसे परमेश्वर के बारे में पूरी तरह से पता चला। उसे परमेश्वर का स्वभाव, और उसका सार पता चला; उसे परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान और समझ मिली, साथ ही परमेश्वर की प्रेममयता और मनुष्य से परमेश्वर की माँगें पता चलीं। भले ही परमेश्वर ने उस समय उतना नहीं बोला, जितना आज वह बोलता है, किन्तु पतरस में इन पहलुओं में परिणाम उत्पन्न हुआ था। यह एक दुर्लभ और बहुमूल्य चीज़ थी। पतरस सैकड़ों परीक्षाओं से गुज़रा लेकिन उसका कष्ट सहना व्यर्थ नहीं हुआ। न केवल उसने परमेश्वर के वचनों और कार्यों से स्वयं को समझ लिया बल्कि उसने परमेश्वर को भी जान लिया। इसके साथ ही, उसने परमेश्वर के वचनों में इंसानियत से उसकी सभी अपेक्षाओं पर विशेष ध्यान दिया। परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए मनुष्य को जिस भी पहलू से परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, पतरस उन पहलुओं में पूरा प्रयास करने में और पूर्ण स्पष्टता प्राप्त करने में समर्थ रहा; ख़ुद उसके प्रवेश के लिए यह अत्यंत लाभकारी था। परमेश्वर ने चाहे जिस भी विषय में कहा, जब तक वे वचन जीवन बन सकते थे और सत्य हैं, तब तक उसने उन्हें अपने हृदय में रचा-बसा लिया ताकि अक्सर उन पर विचार कर सके और उनकी सराहना कर सके। यीशु के वचनों को सुनने के बाद, वह उन्हें अपने हृदय में उतार सका, जिससे पता चलता है कि उसका ध्यान विशेष रूप से परमेश्वर के वचनों पर था, और अंत में उसने वास्तव में परिणाम प्राप्त कर लिये। अर्थात्, वह परमेश्वर के वचनों पर खुलकर व्यवहार कर सका, सत्य पर सही ढंग से अमल कर सका और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो सका, पूरी तरह परमेश्वर की मर्ज़ी के अनुसार कार्य कर सका, और अपने निजी मतों और कल्पनाओं का त्याग कर सका। इस तरह, पतरस परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सका।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें' से उद्धृत
फुटनोट :
क. मूल पाठ में, "नीतिकथा में" यह वाक्यांश नहीं है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?