आप कहते हैं कि सिर्फ़ परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाले अनन्त जीवन का मार्ग पाते हैं। जब हमने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया था, तो हमने प्रभु का सुसमाचार फैलाने के लिए काफी कष्ट सहा और इसकी कीमत चुकाई। हम प्रभु के झुंड के चरवाहे बने, क्रूस उठाया और प्रभु का अनुसरण किया, हमने नम्रता, धैर्य और सहिष्णुता का पालन किया। क्या आप ये कह रहे हैं कि हम परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर रहे हैं? हम जानते हैं कि अगर हम इसे जारी रखते हैं, तो हम पवित्र हो जायेंगे और स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहित किये जायेंगे। क्या आपका मतलब है कि प्रभु के वचनों को इस तरह समझना और उनको अमल में लाना गलत है?
उत्तर: आपकी धारणा है कि अगर आप श्रम, त्याग, या अच्छे कर्म करते हैं, तो आप परमेश्वर की इच्छा का पालन कर रहे हैं। लेकिन क्या आपकी ये काल्पनिक धारणाएं परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं? क्या उनके पास परमेश्वर के वचनों का आधार है? आइए देखते हैं कि प्रभु यीशु ने क्या कहा था: प्रभु यीशु ने कहा था: "जो मुझ से, हे प्रभु! हे प्रभु! कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए? तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:21-23)। प्रभु यीशु के वचनों से हम देख सकते हैं कि जो लोग भविष्यवाणी करते हैं, शैतानों को बाहर निकालते हैं, और उनके नाम पर कई अद्भुत काम करते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो कष्ट उठाते हैं और प्रभु के लिए काम करते हैं। वे परमेश्वर की सेवा करते हैं, अपना पूरा समय उन्हें समर्पित करते हैं, और कई अच्छे व्यवहार करते हैं। लेकिन, क्यों प्रभु यीशु उनको अन्याय करने वाले लोग कहते हैं? हम यह कैसे समझें? आपकी धारणाओं से, जो कोई भी कष्ट उठाता है और प्रभु के लिए काम करता है और उनके लिए खर्च और त्याग करता है, वह परमेश्वर की इच्छा का पालन कर रहा है। यहूदी धर्म के मुख्य याजक, शास्त्री और फरीसी भी बहुत पवित्र दिखते थे। उन्होंने सुसमाचार का उपदेश देने के लिए दूर-दूर तक यात्रा की। तो क्यों प्रभु यीशु ने उनकी निंदा की और उन्हें श्राप दिया? यह बात विचार करने के लायक है, है ना? हम मनुष्य की धारणाओं का उपयोग करके परमेश्वर की इच्छा के पालन का निर्धारण नहीं कर सकते। परमेश्वर की इच्छा के लिए सही आज्ञाकारिता उन लोगों को संदर्भित करती है जो परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन कर सकते हैं, परमेश्वर के वचनों पर अमल कर सकते हैं, परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन कर सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा और आवश्यकताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं। आप कहते हैं कि जो भी प्रभु के लिए कष्ट उठाते हैं और कार्य करते हैं, वे परमेश्वर की इच्छा का पालन कर रहे हैं। तो आइए प्रभु यीशु की आवश्यकताओं का उपयोग करके उनका मूल्यांकन करें। मनुष्य के लिए प्रभु यीशु की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत क्या थी? "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)। लेकिन क्या हम ऐसा कर रहे हैं? परमेश्वर की इच्छा का पालन करने का मतलब है कि हम अपने हृदय, आत्मा और मन की गहराइयों के साथ परमेश्वर से प्रेम करें। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितना काम करते हैं, या हम कितना कष्ट उठाते हैं, हमारी कोई निजी महत्वाकांक्षा या अशुद्धता नहीं होनी चाहिए, हमें पूरी तरह से ख़ुद को परमेश्वर का आज्ञापालन और उनकी संतुष्टि और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए समर्पित होना चाहिए। हमें बिना क्षतिपूर्ति की मांग किए, अपनी ख़ुशी से परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए। परमेश्वर द्वारा परीक्षाओं और दुःखों के दौर में, हमें उनसे शिकायत नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें धोखा देना चाहिए, और ख़ुद को परमेश्वर की व्यवस्थाओं की दया दृष्टि पर छोड़ देना चाहिए। अब्राहम, यूहन्ना और पतरस की तरह, जब परमेश्वर परीक्षा लेते हैं तो हमें पूर्ण आज्ञाकारिता और बिना किसी शिकायत या सवाल के उसे स्वीकार करना चाहिए, और परमेश्वर के लिए अच्छी और बढ़िया गवाही देनी चाहिए। ये परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है। उन मांगों को देखते हुए, यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम सचमुच स्वर्गिक पिता की इच्छा का पालन करने वाले लोग हैं या नहीं हैं।
हम बहुत से ऐसे लोगों को देखते हैं जो प्रभु में विश्वास करने के बाद पीड़ा सहने, काम करने और त्याग करने में सक्षम होते हैं, लेकिन उनकी पीड़ा और त्याग में हम व्यक्तिगत इच्छा और महत्वाकांक्षा पाते हैं। वे पुरस्कार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद करते हैं। क्या यह परमेश्वर का इस्तेमाल करना और उनको धोखा देना नहीं है? यह कैसे सत्य पर अमल करके परमेश्वर को संतुष्ट करना है? लेकिन इससे भी बड़ी एक त्रासदी चल रही है। भले ही धार्मिक जगत के पादरी और एल्डर्स अक्सर कलीसिया में कार्य करते हैं और उपदेश देते हैं, और बाहर से अच्छे कार्य करते दिखाई देते हैं, फ़िर भी जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य करते हैं, तो अपने पद, प्रभाव और आय की सुरक्षा के लिए वे बिना सोचे-समझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का आकलन, आलोचना और निंदा करते हैं और उन्हें बदनाम करते हैं, और विश्वासियों को सच्चे मार्ग की जांच करने से रोकने की कोशिश करते हैं। क्या वे ऐसा करके ख़ुद को परमेश्वर का शत्रु नहीं बनाते हैं? यह कैसे उन फरीसियों के अपराधों से अलग है जिन्होंने प्रभु यीशु का विरोध किया था? ये यह साबित करने के लिए पर्याप्त तथ्य हैं कि लोगों को परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं है, कि लोगों की शैतानी प्रकृति बनी हुई है, और लोगों को जीवन के रूप में सत्य नहीं मिला है। यहां तक कि जो लोग परमेश्वर के लिए कष्ट उठा सकते हैं, श्रम और त्याग कर सकते हैं, वे ऐसा इसलिए करते हैं कि वे परमेश्वर के साथ अदला-बदली का व्यापार कर सकें। वे परमेश्वर पर इसलिए विश्वास करते हैं कि वे उनका आशीर्वाद पा सकें। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों का पालन बिल्कुल भी नहीं कर रहे हैं, और परमेश्वर की इच्छा की परवाह नहीं करते हैं, बहुत कम लोग परमेश्वर की आज्ञाकारिता और प्रेम के साक्षी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन कैसे कर रहे हो सकते हैं? और वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और अनन्त जीवन पाने के योग्य कैसे हो सकते हैं? आइये, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ें: "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य के लक्ष्य का निर्धारण इस आधार पर नहीं करते कि वह कितना कार्य करता है या वह कितने कष्टों से गुजरता है, बल्कि इस आधार पर करते हैं कि क्या वह सत्य धारण करता है, परमेश्वर के वचनों पर अमल करता है, और परमेश्वर की इच्छा का पालन करता है, क्योंकि सिर्फ़ वे जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करते हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के योग्य होंगे और अनन्त जीवन प्राप्त करेंगे। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्धारित किया जाता है, और इसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए, हम सभी को परमेश्वर में विश्वास से मिले मार्ग पर विचार करने की ज़रूरत है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर में विश्वास रखने और उनका अनुसरण करने के साथ-साथ हम पाप और परमेश्वर का विरोध भी करते हैं? इसका कारण पूरी तरह से हमारे भीतर छिपी पापी प्रकृति होती है। हमारी पापी प्रकृति के साथ, सत्य पूर्वक परमेश्वर का आज्ञापालन और उनसे प्रेम करना बहुत कठिन है। हमारी पापी प्रकृति परमेश्वर के लिए त्याग करने के दौरान हमारे लिए लेन-देन की कोशिश को छोड़ना और परमेश्वर का आशीष पाना काफी कठिन बना देती है। हमारी पापी प्रकृति परमेश्वर की परीक्षा का सामना करने पर, हमारे अंदर शिकायत, नकारात्मकता और धोखे का सृजन करती है। इसलिए अपनी पापी प्रकृति के साथ, हम किसी भी तरह परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाले, और पवित्र नहीं बन सकते हैं। यह पूरी तरह नामुमकिन है! हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा का सत्यता से पालन करने और पवित्र होने के लिए पापी प्रकृति की समस्या का समाधान करना ज़रूरी है। इसके होते हुए, अगर हम अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य और उनकी ताड़ना को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, तो हम कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पायेंगे। अगर हम अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का अनुभव नहीं करते, तो हमें कभी सत्य नहीं मिलेगा और हमारे जीवन स्वभाव में परिवर्तन नहीं होंगे या हम परमेश्वर के दिल में ज़गह नहीं बना पायेंगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
"सिंहासन से बहता है जीवन जल" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?