आप लोग यह गवाही देते हैं कि देहधारी परमेश्वर, बाहरी स्वरूप में एक साधारण व्यक्ति की तरह दिखते हैं, स्वयं प्रभु यीशु की तरह, उनमें न सिर्फ़ सामान्य मानवता है, बल्कि उनमें दिव्यता भी है। इतना तो पक्का है। परमेश्वर के देहधारण की सामान्य मानवता और भ्रष्ट मनुष्य की सामान्य मानवता के बीच क्या अंतर है?

11 मार्च, 2021

उत्तर: भाई गुओ ने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। एक ऐसा सवाल जो देहधारी परमेश्वर की हमारी समझ के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। जब परमेश्वर देह धारण कर मसीह बने, तो मनुष्य सीधे तौर पर मसीह में सामान्य मानवता को देख सकता है। मसीह अपनी सामान्य मानवता में ही सत्य को व्यक्त करते हैं और अपना काम करते हैं। यहाँ तक कि जब वे संकेत देते और चमत्कार करते थे, वे ऐसा सामान्य मानवता में रहकर करते थे, उनके बारे में कुछ भी अलौकिक नहीं है। इससे हम मसीह की मानवता की सामान्य प्रकृति को देखने में सक्षम होते हैं, इसी कारण, बहुतों के लिए यह विश्वास करना मुश्किल है कि मसीह ही देहधारी परमेश्वर हैं। इस प्रकार, अनुग्रह के युग के दौरान जो लोग प्रभु यीशु का अनुसरण किया करते थे, वे उन्हें मसीह यानी परमेश्वर का पुत्र बुलाते थे, लेकिन लगभग किसी ने भी स्वयं परमेश्वर के रूप में प्रभु यीशु का आज्ञापालन नहीं किया और ना ही उनकी आराधना की। ऐसा क्यों हुआ? मेरा मानना है कि ऐसा ख़ास तौर पर इसलिए हुआ होगा क्योंकि मसीह की मानवता बहुत ही साधारण है, इसमें बिलकुल कुछ भी अलौकिक नहीं है। मनुष्यों की नज़रों में, मसीह बस एक साधारण व्यक्ति हैं। इसलिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पवित्र आत्मा ने चाहे जो गवाही दी हो, लोगों को तब भी प्रभु यीशु को परमेश्वर के रूप में स्वीकार करने में कठिनाई थी। दूसरी बात यह थी कि उस युग के लोगों ने प्रभु यीशु के वचन को बहुत कम अनुभव किया था, इसलिए सत्य को समझना और मसीह के दिव्य सार को जानना उनके लिए बहुत ही मुश्किल था। मसीह में सामान्य मानवता है, लेकिन बहुत कम लोगों को मसीह की सामान्य मानवता की पूरी समझ है। मसीह पाप से मुक्त हैं, उनकी सामान्य मानवता पवित्र है। वे अशुद्धियों, भ्रष्टाचार, अहंकार और विद्रोही स्वभाव से मुक्त हैं, और निश्चित रूप से उनमें न्यूनता और स्वार्थ का अभाव है। यह मनुष्य की मानवता से बहुत ही अलग है, इन दोनों की कोई तुलना ही नहीं हो सकती। इसे स्पष्ट रूप से समझने के लिए, आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़ें।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की हुई देह परमेश्वर की अपनी देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इसी तरह, उसकी देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इस तरह की देह केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धार्मिक और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महिमामयी और प्रतापी है; वह ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य, नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, वह ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इसलिए उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया जा सकता; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह परमेश्‍वर नहीं बल्कि मनुष्य है, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है; यह संभव नहीं कि शैतान परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट कर सके। इस प्रकार, इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य और मसीह एक ही स्थान के भीतर रहते हैं, यह केवल मनुष्य है, जो शैतान द्वारा काबू और उपयोग किया जाता है और जाल में फँसाया जाता है। इसके विपरीत, मसीह शैतान की भ्रष्टता के लिए शाश्वत रूप से अभेद्य है, क्योंकि शैतान कभी भी उच्चतम स्थान तक आरोहण करने में सक्षम नहीं होगा, और कभी भी परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच पाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))

"मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होती है। यद्यपि वह देह में है, किंतु उसकी मानवता पूर्ण रूप से देह वाले एक मनुष्य के समान नहीं है। उसका अपना अनूठा चरित्र है और यह भी उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होता है। ... मसीह की मानवता पूर्णतः उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित होती है। उसके मानवता के साधारण जीवन से अलग, उसकी मानवता के अन्य सभी काम उसकी दिव्यता द्वारा प्रेरित, प्रभावित और निर्देशित होते हैं। यद्यपि मसीह में मानवता है, पर इससे उसकी दिव्यता का कार्य बाधित नहीं होता और ऐसा ठीक इसलिए है क्योंकि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित है; हालांकि उसकी मानवता दूसरों के साथ आचरण में परिपक्व नहीं है, इससे उसकी दिव्यता का सामान्य कार्य प्रभावित नहीं होता। जब मैं यह कहता हूँ कि उसकी मानवता भ्रष्ट नहीं हुई है, तब मेरा मतलब है कि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्देशित की जा सकती है और यह कि वह साधारण मनुष्य की तुलना में उच्चतर समझ से संपन्न है। उसकी मानवता उसके कार्य में दिव्यता द्वारा निर्देशित होने के लिए सबसे अनुकूल है; उसकी मानवता दिव्यता के कार्य को अभिव्यक्त करने के लिए सबसे अनुकूल है और साथ ही ऐसे कार्य के प्रति समर्पण करने के सबसे योग्य है। जब परमेश्वर देह में कार्य करता है, वह कभी उस कर्तव्य से नज़र नहीं हटाता, जिसे मनुष्य को देह में होते हुए पूरा करना चाहिए; वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है। उसमें परमेश्वर का सार है और उसकी पहचान स्वयं परमेश्वर की पहचान है। केवल इतना है कि वह पृथ्वी पर आया है और एक सृजित किया प्राणी बन गया है, जिसका बाहरी आवरण सृजन किए प्राणी का है और अब ऐसी मानवता से संपन्न है, जो पहले उसके पास नहीं थी; वह स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है; यह स्वयं परमेश्वर का अस्तित्व है तथा मनुष्य उसका अनुकरण नहीं कर सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से, हम यह समझते हैं कि क्योंकि देहधारी परमेश्वर में दिव्‍य सार है और पवित्र आत्मा उनके भीतर साकार होकर उपस्थित रहता है, शैतान उन्हें भ्रष्ट करने में असमर्थ है। यह इसलिए क्योंकि मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन हैं। वे शैतान के भ्रष्टाचार के लिए अभेद्य हैं। बिलकुल वैसे ही, अगर एक दिन हमें पूर्ण सत्य प्राप्त हो जाएगा, तो शैतान भी हमें धोखा देने और भ्रष्ट करने में असमर्थ होगा। तब हम सचमुच परमेश्वर के हो जायेंगे। अब हम स्पष्ट रूप से यह देख सकते हैं कि हमारी अपनी भ्रष्ट मानवता और मसीह की साधारण मानवता में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। मसीह की सामान्य मानवता के भीतर, सामान्य मनुष्य का विवेक और तार्किकता है, उनके हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम और परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता है। जब मसीह अपनी सामान्य मानवता में कार्य करते और बोलते हैं, शैतान की दुष्ट शक्तियां चाहे उनकी कितनी भी बदनामी करें, उनकी कितनी भी निंदा और तिरस्कार करें, चाहे उनको अपने कार्य में कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़े, वे हमेशा पूरी तरह से परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं, और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए, वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। बिलकुल वैसे ही जब प्रभु यीशु शैतान की परीक्षा देने के लिए चालीस दिनों तक जंगल में चले गए थे, तब उन्होंने सांसारिक धन और शक्ति के प्रलोभन पर विजय प्राप्त की और शैतान को पूरी तरह से परास्त कर दिया। और खास तौर पर जब प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया जाने वाला था, अपनी मानवता में निहित कमजोरी के बावजूद, अपने दिल में मौजूद कष्टदायक पीड़ा के बावजूद, प्रभु यीशु ने परमेश्वर की इच्छा से काम करने को बाकी सभी चीजों से ऊपर रखा, उन्होंने परमेश्वर की इच्छा का त्याग करने के बजाय अपने जीवन का त्याग करना और अपने जीवित शरीर में कीलें बिंधवाना पसंद किया। कोई भी भ्रष्ट मनुष्य इस अद्भुत कार्य को पूरा नहीं कर सकता। प्रभु यीशु में ज़रा सा भी अहंकार और आत्ममुग्धता नहीं है। हालांकि वे स्वयं परमेश्वर हैं, मनुष्य के साहचर्य में रहते हैं, फिर भी प्रभु यीशु कभी अपने आपको परमेश्वर के स्थान पर नहीं रखते। उन्होंने शांति से अपने आपको लोगों के बीच छिपा लिया, लोगों के साथ वचन बोलते और कार्य करते रहे, मनुष्य की सेवा और आपूर्ति करते रहे; उन्होंने लोगों की बीमारी को ठीक किया और उनके भीतर के शैतान को बाहर निकाला, उन्होंने उनकी चिंताओं को किया और उनकी कठिनाइयों का समाधान किया, यहां तक कि पापियों के बीच भी जाकर बैठे। देहधारी प्रभु यीशु से हम यह देखते हैं कि मसीह की मानवता कितनी पवित्र और अच्छी है। मसीह सामान्य मानवता के सभी पहलुओं को प्रकट करते हैं। मसीह सही अर्थों में परमेश्वर से प्रेम करते हैं और उनका आज्ञापालन करते हैं, वे दूसरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि अपने आपसे करते हैं। इस प्रकार, मसीह परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, परमेश्वर का कार्य करने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं।

इस सहभागिता के माध्यम से, हमने समझा है कि कैसे मसीह की मानवता ही वास्तव में सामान्य मानवता है। मसीह, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, अपना कार्य करने और उनकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं। अगर हमारी मानवता मसीह की मानवता की तरह सामान्य हो सकती है, तो क्या हम स्‍वर्गीय पिता की इच्छा पूरी नहीं कर पाएंगे? दुर्भाग्यवश, हम सब शैतान के द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किये जा चुके हैं। हमारी मानवता शैतानी स्वभाव से भरी है, हमारे शब्द और कार्य हमारी शैतानी प्रकृति से प्रभावित होते हैं, ये हमारे अहंकारी, विश्वासघाती, लालची, स्वार्थी, सत्य से घृणा करने वाली, बुराई की आराधना करने वाली प्रकृति से प्रभावित होते हैं। हम राक्षसों की तरह जीते हैं, ऐसी मानवता में कुछ भी सामान्य नहीं है! भले ही हम प्रभु में विशवास रखते हैं, मगर हम सही अर्थों में उनका आज्ञापालन नहीं करते। जब परमेश्वर का कार्य हमारी अवधारणाओं और भ्रांतियों के अनुरूप नहीं होता है, तो हम परमेश्वर के ख़िलाफ़ विद्रोह करते हैं, उनका विरोध करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर को धोखा भी देते हैं। यहाँ तक कि जो लोग प्रभु के लिए काफी खर्च करते हैं, जो उनकी सेवा में अथक कार्य करते हैं, वे सिर्फ़ पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने के लिए ऐसा करते हैं। वे अपने खुद के लाभ के लिए ऐसा करते हैं, न कि परमेश्वर की इच्छा के विचार से, या परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए। क्या यह भ्रष्ट मानवजाति की सही स्थिति नहीं है? जैसा कि स्पष्ट है, भ्रष्ट मनुष्य का असली सार शैतानी है, यह परमेश्वर का प्रतिरोधी और विश्वासघाती है, मनुष्य जो प्रकट करता है वह सब शैतानी स्वभाव है, उसमें ज़रा सी भी मानवता नहीं है। लेकिन देहधारी मसीह अलग हैं। क्योंकि मसीह में दिव्य सार है और उन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट नहीं किया है, वे पाप रहित हैं। मसीह के भीतर कोई विद्रोह या प्रतिरोध नहीं है, कोई अहंकार, स्वार्थ या विश्वासघात नहीं है। मसीह परमेश्वर का आज्ञापालन करने और पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करने में सक्षम हैं। सिर्फ़ मसीह की मानवता ही सामान्य मानवता है। यही देहधारी परमेश्वर की सामान्य मानवता और भ्रष्ट मनुष्य की मानवता के बीच का वास्तविक अंतर है। ऐसे कई लोग हैं जो मसीह की सामान्य मानवता को नहीं जानते और यहाँ तक कि मसीह के विरूद्ध धारणाएं और पूर्वाग्रह भी बनाते हैं। यहाँ मुद्दा क्या है? भ्रष्ट मनुष्य बहुत ही अभिमानी और बुराइयों से ग्रस्त है! वे अपने दिलों में शैतान की आराधना करते हैं, और शैतान को जाने बिना उसका अनुसरण भी करते हैं; वे पूरे मनोयोग से मसीह का विरोध और उनकी निंदा करते हैं। ये बहुत ही बुरी बात है! वे पूरी तरह से पतित हैं! परमेश्वर शरीर रूप में प्रकट हुए हैं, और वे सामान्य मानवता में रहकर अपना कार्य पूरा करते हैं, फिर भी लोग अपने अंधेपन में, उन्हें देख नहीं पाते हैं, उन्हें पहचान नहीं सकते हैं। ऐसे में वे परमेश्वर की प्रशंसा पाने की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं? वे स्वर्ग के राज्य में आरोहित होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

"भक्ति का भेद - भाग 2" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: अनुग्रह के युग में परमेश्वर ने पाप की भेंट बनने और मनुष्य के पापों का बोझ अपने ऊपर लेने के लिए देह धारण की थी। इन सारी बातों का कोई कारण है। प्रभु यीशु को पवित्र आत्मा ने राजी किया था और वे अपने पापरहित शरीर में मानवजाति के छुटकारे के लिए मनुष्य के पुत्र बने। सिर्फ़ ऐसा करने की वजह से ही शैतान को नीचा दिखाया गया। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में फिर से देह धारण की है। हमने इसे हकीकत के तौर पर देखा है। मैं यही पूछना चाहता था। परमेश्वर के दो देह धारण थोड़े अलग-अलग हैं, पहला यहूदिया में था, और दूसरा चीन में है। अब, ऐसा क्यों है कि मानवजाति को बचाने का कार्य करने के लिए परमेश्वर को दो बार देह धारण करना चाहिए? परमेश्वर के दो देहधारणों का असली महत्व क्या है?
अगला: इन दिनों आपकी सहभागिता और गवाही को सुनकर, मुझे यह स्पष्ट हो गया है कि अंत के दिनों में प्रभु का दूसरा आगमन, यहाँ न्याय का कार्य करने के लिए देह धारण है। लेकिन हम देह धारण के सत्य को नहीं समझते हैं और इसलिए आसानी से सीसीपी सरकार तथा धार्मिक संसार के पादरियों और एल्डर्स की अफवाहों और झूठों से छले जाते हैं। नतीजतन, हम देहधारी परमेश्वर को सिर्फ़ एक मनुष्य समझ लेते हैं और यहाँ तक कि उनका विरोध और तिरस्कार भी करते हैं। इसलिए, मैं देह धारण के सत्य के बारे में आप लोगों से पूछना चाहता हूँ। देह धारण क्या है? देहधारी मसीह और परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए गए भविष्यद्वक्‍ताओं और प्रेरितों के बीच क्या अंतर है?

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संदर्भ के लिए बाइबल के पद: "वैसे ही मसीह भी बहुतों के पापों को उठा लेने के लिये एक बार बलिदान हुआ; और जो लोग उसकी बाट जोहते हैं उनके उद्धार...

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