सत्य का अनुसरण कैसे करें (5)

इस अवधि में हमने सत्य का अनुसरण कैसे करें, इसके पहले पहलू पर संगति की, जो त्यागने के बारे में है। हमने मुख्य रूप से इस विषय के पहले भाग के बारे में बात की—विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ त्यागना। हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ त्यागने के विषय पर कितनी बार चर्चा की है? (चार बार।) क्या तुम लोगों के पास नकारात्मक भावनाएँ त्यागने का कोई मार्ग है? जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं पर हमने संगति की और सतही तौर पर उनका विश्लेषण किया, वे भावनाओं या विचारों के प्रकार प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में मूलभूत रूप में वे जीवन और मूल्य-प्रणालियों पर लोगों के गलत दृष्टिकोणों और उनके त्रुटिपूर्ण विचारों और नजरियों से उत्पन्न होते हैं। बेशक लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के उद्भव का कारण बनते हैं, जिनके परिणामस्वरूप विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ जन्म लेती हैं। इसलिए विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के उद्भव की अपनी उत्पत्ति और कारण होते हैं। जिन नकारात्मक भावनाओं पर हमने चर्चा की है, वे क्षणिक या आवेगपूर्ण विचार नहीं हैं, न ही वे इन शब्दों के सरल अर्थ में विचार और दृष्टिकोण या क्षणिक मनोदशाएँ हैं। इन भावनाओं में लोगों के जीवन के तरीके, वे जो अभ्यास करते हैं, और उनके विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ उन परिप्रेक्ष्यों और रवैयों को भी प्रभावित करने की क्षमता होती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों और दिमागों में गहरे छिपी होती हैं, वे उनके दैनिक जीवन में लगातार उनके साथ रहती हैं और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते समय उनके परिप्रेक्ष्यों और रुख को प्रभावित करती हैं। इन नकारात्मक भावनाओं का लोगों के दैनिक जीवन, आचरण और जीवन में उनके द्वारा चुने जाने वाले मार्गों पर अहम नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे अदृश्य रूप से लोगों के लिए विभिन्न प्रतिकूल परिणाम देती हैं। इसलिए लोगों को सत्य के अनुसरण के माध्यम से इन नकारात्मक भावनाओं को धीरे-धीरे समझना और हल करना चाहिए और धीरे-धीरे इन्हें त्याग देना चाहिए। इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागना किसी भौतिक वस्तु को त्यागने जैसा नहीं है, जिसके बारे में तुम अब नहीं सोचते और जो बाद में फिर तुम पर हावी नहीं होती; यह इन शब्दों के सरल अर्थ में किसी चीज को उठाकर त्याग देने का मामला नहीं है। तो इस संदर्भ में “त्यागने” का क्या मतलब है? मुख्य रूप से इसका मतलब यह है कि तुम्हें अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को और उन गलत परिप्रेक्ष्यों और रवैयों को उजागर कर उनका गहन विश्लेषण करना चाहिए, जिनसे तुम लोगों और चीजों को देखते हो, जब तक कि तुम सत्य को समझ नहीं लेते। तभी तुम सच में अपनी नकारात्मक भावनाओं को त्यागने में सक्षम होगे। चाहे तुम में जो भी नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हों, तुम्हें प्रासंगिक सत्य खोजकर उनका समाधान करना चाहिए, जब तक कि तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और मार्ग न हों। केवल तभी तुम पीड़ा, बंधन और नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त हो सकते हो, अंततः सत्य के और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए गए परिवेशों के प्रति समर्पित होने की क्षमता प्राप्त कर सकते हो और इस तरह अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रह सकते हो। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम अपनी नकारात्मक भावनाओं और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को पूरी तरह से त्याग सकते हो। उन्हें पूरी तरह से त्यागने के लिए इतनी जटिल प्रक्रिया क्यों आवश्यक है? इसका कारण यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ मूर्त वस्तुएँ नहीं हैं। वे ऐसी भावनाएँ नहीं हैं, जो अस्थायी रूप से व्यक्ति के दिमाग पर कब्जा करती या उसे पीड़ित करती हैं। वे स्थापित, पहले से मौजूद, यहाँ तक कि गहराई से जड़ें जमाए हुए विचार और दृष्टिकोण हैं, जो लोगों के भीतर आकार लेते हैं, और लोगों पर उनका प्रभाव विशेष रूप से गंभीर होता है। इसलिए इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के लिए विभिन्न तरीके और कदम आवश्यक होते हैं। त्यागने की यह प्रक्रिया ही सत्य का अनुसरण करने की भी प्रक्रिया होती है, है न? (हाँ, है।) इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने की प्रक्रिया वाकई सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया है। इसलिए नकारात्मक भावनाओं का सामना करने का एकमात्र तरीका सत्य खोजकर परमेश्वर के वचनों के आधार पर उनका समाधान करना है। क्या तुम इस कथन का अर्थ समझते हो? (हाँ।)

जब हमने पहली बार नकारात्मक भावनाओं पर संगति करनी शुरू की, तो जिन विभिन्न सत्यों पर हमने पहले संगति की थी, उन्होंने आम तौर पर इस विषय को नहीं छुआ था, इसलिए यह तुम सभी लोगों के लिए एक बहुत ही अनजाना विषय था। लोगों को लगता है कि नकारात्मक भावनाएँ होना सामान्य बात है और वे उन्हें भ्रष्ट स्वभावों से अलग समझते हैं; वे मानते हैं कि नकारात्मक भावनाएँ भ्रष्ट स्वभाव नहीं होते और उनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। यह गलत है। कुछ लोगों का मानना है कि नकारात्मक भावनाएँ केवल अस्थायी विचार या भाव हैं जिनका लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और इसलिए उनका मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे उन्हें त्यागते हैं या नहीं। अब संगति और गहन विश्लेषण के कई सत्रों के माध्यम से यह साबित हो गया है कि नकारात्मक भावनाओं का लोगों पर बेशक वास्तविक प्रभाव पड़ता है। अतीत में हम हमेशा भ्रष्ट स्वभावों को समझने और उनका विश्लेषण करने को लेकर संगति करते थे, और भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते समय हम नकारात्मक भावनाओं को केवल थोड़ा-सा छूते थे, लेकिन हम उन पर ज्यादा विस्तार से संगति नहीं करते थे। अब कई ठोस चर्चाओं के बाद मुझे आशा है कि तुम लोग इस विषय पर ध्यान केंद्रित कर सकते हो और अपने दैनिक जीवन में इन नकारात्मक भावनाओं का गहन विश्लेषण कर उन्हें समझना सीखना शुरू कर सकते हो। जब तुम उनके सार को समझ जाते हो, तो तुम उन्हें अस्वीकार कर उनके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो और धीरे-धीरे उन्हें त्याग सकते हो। केवल इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बाद ही तुम सत्य का अनुसरण करने के सही रास्ते पर आ सकते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो। ये वे कदम हैं जो तुम्हें उठाने ही चाहिए, क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) हालाँकि जब लोगों के जीवन, अस्तित्व और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों की बात आती है, तो हो सकता है कि नकारात्मक भावनाएँ लोगों पर उसी हद तक हावी न हों और उन्हें उसी हद तक नियंत्रित न करें, जिस हद तक भ्रष्ट स्वभाव करते हैं, ये नकारात्मक भावनाएँ अपरिहार्य भी होती हैं। कुछ खास स्थितियों में और कुछ हद तक जब लोगों के विचारों को बाँधने और उनके द्वारा सत्य की स्वीकार्यता को प्रभावित करने की और वे सही मार्ग पर चलते हैं या नहीं, इसकी बात आती है, तो उनके नकारात्मक प्रभाव भ्रष्ट स्वभावों के नकारात्मक प्रभावों से कम उल्लेखनीय नहीं होते। तुम लोग धीरे-धीरे अपने भविष्य के अनुसरणों, अनुभव और अभ्यास में इसे समझना करना शुरू कर दोगे। फिलहाल चूँकि यह विषय अभी-अभी तुम्हारे सामने आया है, इसलिए तुम में से कुछ लोगों को इसका कोई भान या ज्ञान नहीं होगा, और इसकी समझ तो बिल्कुल भी नहीं होगी। जब तुम भविष्य में इस विषयवस्तु का अनुभव करोगे, तो महसूस करोगे कि नकारात्मक भावनाएँ उतनी सरल नहीं होतीं, जितनी सरल लगती हैं। वे लोगों के विचारों, उनके दिल की गहराइयों, यहाँ तक कि उनके अवचेतन में भी एक महत्वपूर्ण स्थान और जगह रखती हैं। यह कहा जा सकता है कि ये नकारात्मक भावनाएँ काफी हद तक व्यक्तियों को अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य करने के लिए उकसाती और विवश करती हैं और वे लोगों पर भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण और बंधन को उकसाती और विवश करती हैं। जब बात लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने की आती है, तो वे लोगों को हठपूर्वक अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने पर मजबूर कर देती हैं, इसलिए तुम्हें इन नकारात्मक भावनाओं को कम नहीं आँकना चाहिए। वास्तव में एक संदर्भ में नकारात्मक भावनाओं के भीतर कई नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण छिपे होते हैं, और दूसरे संदर्भ में लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के भीतर अलग-अलग मात्रा में विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ छिपी होती हैं। संक्षेप में, ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों पर कब्जा कर लेती हैं, और उनका सार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के समान ही होता है। वे दोनों नकारात्मकता के पहलू हैं और वे नकारात्मक चीजें हैं। यहाँ “नकारात्मक चीजों” का क्या अर्थ है? वे किस बारे में बताती हैं? एक पहलू यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के जीवन-प्रवेश में सकारात्मक भूमिका नहीं निभातीं। वे परमेश्वर के सामने आने, सक्रिय रूप से उसके इरादे खोजने और फिर उसकी आज्ञाकारिता हासिल करने में तुम्हारा मार्गदर्शन या तुम्हारी सहायता नहीं कर सकतीं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भीतर छिपी होती हैं, तो उनके दिल परमेश्वर से दूर होते हैं, वे उससे सावधान रहते और बचते हैं, यहाँ तक कि वे गुप्त रूप से, सूक्ष्मता से और अनजाने ही परमेश्वर पर संदेह कर सकते हैं, उसे नकार सकते हैं और उस पर निर्णय भी सुना सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से क्या ये नकारात्मक भावनाएँ सकारात्मक चीजें हैं? (नहीं, वे सकारात्मक चीजें नहीं हैं।) यह एक पहलू है। दूसरे पहलू में ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों को सत्य के प्रति समर्पित होने के लिए परमेश्वर के समक्ष नहीं ले जातीं। ये लोगों को उन मार्गों पर और उन लक्ष्यों और दिशाओं की ओर ले जाती हैं, जो सत्य का खंडन और विरोध करते हैं। यह निर्विवाद है। ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के भीतर जो कार्य करती हैं, वह है उनसे अपनी और अपने दैहिक हितों की रक्षा करवाना और अपना घमंड, गर्व और हैसियत कायम रखवाना। वे लगातार तुम्हें बेबस करती और बाँधती हैं, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को सुनने, एक ईमानदार व्यक्ति बनने और सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वे तुम्हें विश्वास दिला देती हैं कि अगर तुम सत्य का अभ्यास करोगे तो नुकसान में रहोगे, कि तुम अपनी इज्जत और हैसियत खो दोगे, दूसरे तुम्हारा उपहास उड़ाएँगे और दुनिया के सामने तुम्हारा असली व्यक्तित्व उजागर हो जाएगा। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों को नियंत्रित करती हैं, उनके विचारों पर हावी रहती हैं और उन्हें सिर्फ इन नकारात्मक चीजों के बारे में ही सोचने पर मजबूर कर देती हैं। अब क्या इन नकारात्मक चीजों का सार सत्य के विपरीत है? (हाँ।) इसलिए जहाँ नकारात्मक भावनाएँ तुम्हें लगातार इन चीजों की याद दिलाती हैं, वहीं वे तुम्हें सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने से लगातार रोकती भी हैं। वे सत्य के तुम्हारे अनुसरण में दीवारों की तरह और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की दिशा में तुम्हारे मार्ग में रुकावटों की तरह काम करती हैं। जब भी तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, ईमानदारी से बोलना चाहते हो, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहते हो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहते हो या ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहते हो, कीमत चुकाना चाहते हो और परमेश्वर के प्रति अपनी वफादारी दिखाना चाहते हो, तभी ये नकारात्मक भावनाएँ तुरंत फूट पड़ती हैं और तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक देती हैं। वे लगातार तुम्हारे विचारों में उभरकर और तुम्हारे दिमाग में कौंधकर तुम्हें बताती हैं कि इस तरह से कार्य करने पर तुम क्या खो दोगे, तुम्हारा अंत क्या होगा, परिणाम क्या होंगे और तुम क्या हासिल कर पाओगे। वे तुम्हें बार-बार याद दिलाती और चेतावनी देती हैं, तुम्हें सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से रोकती हैं। इसके बजाय वे तुम्हें अपने बारे में सोचने, अपने हितों पर विचार करने को मजबूर करती हैं, और नतीजतन, तुम सत्य का अभ्यास करने या आसानी से परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ हो जाते हो। पल भर में तुम्हारे विचार इन नकारात्मक भावनाओं से बाधित और नियंत्रित हो जाते हैं। हालाँकि तुम पहले सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के इच्छुक होते हो और उसे संतुष्ट करना चाहते हो, जब तुम्हारे भीतर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तो तुम अनजाने ही उनका अनुसरण करते हो और उनके द्वारा नियंत्रित हो जाते हो। वे तुम्हारा मुँह बंद कर देती हैं, तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देती हैं, और तुम्हें वह करने से रोकती हैं जो तुम्हें करना चाहिए और वे शब्द बोलने से रोक देती हैं जो तुम्हें बोलने चाहिए। इसके बजाय तुम झूठे, भ्रामक और आलोचनात्मक शब्द बोल देते हो और ऐसे कार्यों में संलग्न हो जाते हो, जो सत्य का उल्लंघन करते हैं। तुम्हारा हृदय तुरंत भावहीन हो जाता है और मुसीबत में फँस जाता है। तुम्हारे मूल विचार और योजनाएँ अच्छी हैं—तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपनी निष्ठा अर्पित करना चाहते हो और तुम में सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा, आकांक्षा और इच्छाशक्ति है। लेकिन नाजुक क्षणों में ये नकारात्मक भावनाएँ तुम पर नियंत्रण कर लेती हैं। तुम में उनके खिलाफ विद्रोह करने या उन्हें अस्वीकारने की क्षमता नहीं होती, और अंत में तुम सिर्फ इन नकारात्मक भावनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर सकते हो। जब नकारात्मक भावनाएँ लोगों को सताती और परेशान करती हैं, जब वे लोगों के विचारों को नियंत्रित कर उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं, तो लोग बहुत शक्तिहीन, असहाय और दयनीय दिखाई देते हैं। जब कोई बड़ा मुद्दा नहीं होता और जब कोई सिद्धांत शामिल नहीं होते, तो लोग सोचते हैं कि उनके पास असीमित ताकत है, कि वे संकल्प और आस्था में मजबूत हैं, और उन्हें लगता है कि वे प्रेरणा से भरे हुए हैं। वे मानते हैं कि वे परमेश्वर से पर्याप्त प्रेम नहीं कर पाते, वे सोचते हैं कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और वे कोई गलत काम नहीं कर सकते, कि वे विघ्न-बाधाएँ पैदा करने में असमर्थ हैं, और वे निश्चित रूप से जानबूझकर बुराई करने में असमर्थ हैं। लेकिन जब कुछ होता है, तो वे वैसी प्रतिक्रिया दिए बिना क्यों नहीं रह पाते, जैसी प्रतिक्रिया वे देते हैं? उनके ये अनैच्छिक कार्य सुनियोजित या वांछित नहीं होते, लेकिन वे फिर भी होते हैं और वास्तविकता बन जाते हैं, और वे उस तरह बिल्कुल नहीं होते जिस तरह वे लोग कार्य करना चाहते थे। यह कहना होगा कि इन चीजों का घटित होना और ऐसी घटनाओं का बार-बार सामने आना नकारात्मक भावनाओं के कारण होता है। यह स्पष्ट है कि लोगों पर नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव और उनका नियंत्रण उतना सरल नहीं होता जितना लोग कल्पना करते हैं, न ही उन्हें उतनी आसानी से हल किया जा सकता है और उन्हें छोड़ना या उनके खिलाफ विद्रोह करना भी निश्चित रूप से उतना आसान नहीं है। चाहे लोग आम तौर पर कितनी भी जोर से नारे लगाएँ, चाहे उनका संकल्प आम तौर पर कितना भी मजबूत हो, या उनकी आकांक्षाएँ कितनी भी ऊँची हों, या परमेश्वर-प्रेमी दिल और उसमें उनकी आस्था कितनी भी ज्यादा हों, जब वास्तविकता से सामना होता है तो उस संकल्प और आस्था और उन आकांक्षाओं और आदर्शों का कोई प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? वे क्षणिक नकारात्मक भावनाओं से कैसे प्रभावित हो जाते हैं और दबा दिए जाते हैं? इससे स्पष्ट है कि लोगों के जीवन में नकारात्मक भावनाएँ घर कर चुकी हैं; वे लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के साथ सह-अस्तित्व में रहती हैं और उनमें लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों को प्रभावित और नियंत्रित करने की क्षमता होती है, ठीक वैसे ही जैसे भ्रष्ट स्वभावों में होती है। साथ ही और ज्यादा गंभीरता से वे लोगों के शब्दों और कार्यों को नियंत्रित करती हैं, और इससे भी ज्यादा वे तमाम तरह की स्थितियों में उनके हर खयाल और विचार और उनके हर कार्य और व्यवहार को नियंत्रित करती हैं। तो क्या इन नकारात्मक भावनाओं का समाधान करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) नकारात्मक भावनाएँ सकारात्मक चीजें नहीं हैं, इसे दो तरीकों से चित्रित किया जा सकता है : पहले, नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति को सक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आने के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं; दूसरे, वे व्यक्ति को वास्तविकता से सामना होने पर सत्य का सफलतापूर्वक अभ्यास करने और सत्य में प्रवेश करने में सक्षम नहीं बना सकतीं, जैसा कि वे चाहते हैं। वे लोगों के सत्य के अनुसरण में बाधक चीजें हैं, वे लोगों को सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने से रोकती हैं। इसलिए नकारात्मक भावनाओं का समाधान अवश्य करना चाहिए। नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव और सार पर नजर डालने से देखा जा सकता है कि ये सकारात्मक चीजें नहीं हैं। इसके अलावा यह कहा जा सकता है कि उनके सार में, भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में कुछ हद तक लोगों को बाधित और नियंत्रित करने की ज्यादा क्षमता है। तो क्या तुम लोग कहोगे कि इन नकारात्मक भावनाओं की मौजूदगी एक गंभीर समस्या है? (हाँ।) अगर इन नकारात्मक भावनाओं का समाधान न किया जाए, तो किन नतीजों की उम्मीद की जा सकती है? तुम निश्चित हो सकते हो कि ये भावनाएँ व्यक्ति को लंबे समय तक नकारात्मकता में जीने पर मजबूर कर देंगी, और उनमें लोगों को सत्य का अनुसरण करने से रोकते हुए उन्हें विवश और बाध्य करने की और भी ज्यादा क्षमता होती है। क्या ऐसी गंभीर समस्या का समाधान होना चाहिए? इसका समाधान होना चाहिए। अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के साथ-साथ लोगों को अपनी नकारात्मक भावनाओं का भी समाधान करना चाहिए। अगर लोग अपनी नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लें, तो सत्य का उनका अनुसरण बहुत सुचारु रूप से होगा और इसमें कोई उल्लेखनीय बाधा नहीं आएगी।

भ्रष्ट स्वभाव लोगों के कुछ सतही स्तर के उद्गारों और नजरियों के साथ-साथ कुछ अवस्थाओं में भी छिपे होते हैं, तो तुम नकारात्मक भावनाओं को कैसे पहचानोगे? तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कैसे करते हो? क्या तुम लोगों ने पहले इस पर विचार किया है? (नहीं।) स्वभाव और भावनाएँ दो अलग-अलग तरह की चीजें हैं। अगर हम केवल स्वभावों और भावनाओं के बारे में बात करें, तो क्या उनके शाब्दिक अर्थों के बीच अंतर करना आसान है? स्वभावों से तात्पर्य उन चीजों से है जो व्यक्ति के प्रकृति सार से निकलती हैं, जबकि भावनाएँ मूल रूप से एक तरह की मनोवैज्ञानिक अवस्था होती हैं जो लोगों में कुछ करते समय होती है। हम इन शब्दों की शाब्दिक व्याख्या चाहे कैसे भी करें, हर हाल में, लोगों की भावनाओं—विशेष रूप से उनकी नकारात्मक भावनाओं—में कई नकारात्मक विचार होते हैं। जब व्यक्ति ये नकारात्मक भावनाएँ रखता है, तो यह उसे नकारात्मक स्थिति में और विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व में जीने के लिए प्रेरित कर सकता है, है न? (सही है।) ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों में लंबे समय तक छिपी रह सकती हैं, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उन्हें कभी भी इन भावनाओं के बारे में पता नहीं चलेगा या इनकी उपस्थिति महसूस नहीं होगी; ये उनके भ्रष्ट स्वभावों की तरह हर समय लोगों के साथ रहती हैं। कई बार, ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के भीतर छिपी होती हैं, और ये गलत विचार और दृष्टिकोण लोगों के परमेश्वर पर संदेह करने, अपनी वास्तविक आस्था खो देने, यहाँ तक कि परमेश्वर से तमाम तरह की अनुचित माँगें करने और अपना सामान्य विवेक खो देने का कारण बनते हैं। विभिन्न कारणों, विचारों और दृष्टिकोणों की परतों तले ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों और उनके विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के भीतर छिपी होती हैं, और पूरी तरह से उस व्यक्ति का प्रकृति सार दर्शाती हैं। भ्रष्ट स्वभाव उन विभिन्न अवस्थाओं में अभिव्यक्त होते हैं, जो लोगों के आचरण और कार्यकलापों के माध्यम से प्रकट होती हैं—ये विभिन्न अवस्थाएँ अपने भीतर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव लिए होती हैं। हालाँकि नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव एक-दूसरे से भिन्न हैं, फिर भी कुछ बातों में उनके बीच एक आवश्यक संबंध है, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे से गुँथे हुए और अविभाज्य भी हो सकते हैं। कुछ मामलों में, वे एक-दूसरे का समर्थन कर सकते हैं, एक-दूसरे को बढ़ावा दे सकते हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हो सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। उदाहरण के लिए, जिस संताप, चिंता और व्याकुलता के बारे में हमने पिछली बार संगति की थी, वे एक तरह की नकारात्मक भावना हैं। इस तरह की नकारात्मक भावना के कारण लोग संताप, चिंता और व्याकुलता में रहते हैं। जब लोग इन भावनाओं में फँस जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे कुछ विचार और दृष्टिकोण बना लेते हैं, जो उन्हें परमेश्वर पर संदेह करने, उसके बारे में अटकलें लगाने, उससे सावधान रहने, उसे गलत समझने, यहाँ तक कि उसकी आलोचना कर उस पर हमला करने की ओर ले जाते हैं और वे परमेश्वर से अनुचित और लेनदेनपरक माँगें भी कर सकते हैं। इस बिंदु पर, ये नकारात्मक भावनाएँ पहले ही बिगड़कर भ्रष्ट स्वभावों में ढल चुकी होती हैं। तो, इस उदाहरण से तुम लोगों ने क्या समझा है? क्या तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कर सकते हो? मुझे बताओ। (नकारात्मक भावनाएँ कुछ गलत विचारों और दृष्टिकोणों को जन्म देती हैं, जबकि भ्रष्ट स्वभाव ज्यादा गहराई तक दबे होते हैं और लोगों को परमेश्वर को गलत समझने और उससे सावधान रहने के लिए प्रेरित करते हैं।) मैं एक उदाहरण देता हूँ। संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को ले लो। मान लो, कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाता है, और वह अपनी बीमारी के बारे में सोचता है और नतीजतन संताप, चिंता और व्याकुलता का अनुभव करता है। ये चीजें उसके दिल पर नियंत्रण कर लेती हैं, जिससे उसे अपनी बीमारी के गंभीर होने और मृत्यु के साथ आने वाले विभिन्न परिणामों का डर रहता है। फिर वह मृत्यु से डरने लगता है, मृत्यु को अस्वीकारने लगता है और उससे बचना चाहता है। विचारों और भावों की यह श्रृंखला उसकी बीमारी के कारण उत्पन्न होती है। इस बीमारी के संदर्भ में यह व्यक्ति कई सक्रिय विचार उत्पन्न करता है। इन सक्रिय विचारों का स्रोत उसके दैहिक हितों पर आधारित होता है और स्पष्ट रूप से यह सत्य पर या इस तथ्य पर आधारित नहीं होता कि परमेश्वर सभी चीजों को नियंत्रित करता है। इसीलिए हम इन्हें नकारात्मक भावनाओं की श्रेणी में रखते हैं। उस व्यक्ति को अपनी बीमारी के कारण बुरा लगता है, लेकिन बीमारी तो उसे पहले ही हो चुकी है, और उसे इसका सामना करना होगा—वह इससे बच नहीं सकता, इसलिए वह सोचता है, “अरे नहीं, मुझे इस बीमारी का सामना कैसे करना चाहिए? मुझे इसका इलाज करना चाहिए या नहीं? अगर मैंने इलाज नहीं करवाया तो क्या होगा? अगर इलाज करवाया तो क्या होगा?” सोचते-सोचते वह व्यग्र हो जाता है। अपनी बीमारी के बारे में उसके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण उसे संताप, चिंता और व्याकुलता में फँसा देते हैं। तो क्या इस नकारात्मक भावना ने पहले ही प्रभावी होना शुरू नहीं कर दिया है? (हाँ, कर दिया है।) जब वह पहली बार अपनी बीमारी का अनुभव करना शुरू करता है, तो वह उसका इलाज करने का प्रयास करने का इरादा रखता है, लेकिन फिर उसे लगता है कि ऐसा करना उचित नहीं है, और इसके बजाय वह अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाते हुए अपनी आस्था के अनुसार जीने की सोचता है, जबकि अभी भी उसे बीमारी के गंभीर होने की चिंता लगी रहती है। इसे सँभालने का उचित तरीका क्या है? उसके पास मार्ग नहीं है। अपनी नकारात्मक भावनाओं के प्रभुत्व के तहत वह इस मामले को लेकर हमेशा संतप्त, चिंतित और व्याकुल महसूस करता है, और जब उसके भीतर संताप, चिंता और व्याकुलता पैदा हो जाती है, तो वह उन्हें त्याग नहीं पाता। वह अपनी बीमारी से त्रस्त रहता है—उसे इसके बारे में क्या करना चाहिए? वह सोचने लगता है, “सब ठीक है, मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ। परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा। मुझमें आस्था है।” लेकिन, कुछ समय बाद, बीमारी में सुधार नहीं होता, और परमेश्वर उसे ठीक नहीं करता। व्यक्ति इस मामले को लेकर संतप्त, चिंतित और व्याकुल महसूस करता रहता है, कहता है, “परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं? मुझे बस इंतजार करना होगा, परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा। मुझमें आस्था है।” वह कहता है कि उसमें आस्था है, लेकिन वास्तव में वह अंदर ही अंदर यह सोचते हुए अपनी नकारात्मक भावनाओं के बीच जी रहा होता है, “क्या होगा अगर परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया और मैं गंभीर रूप से बीमार हो गया और मर गया? क्या मैंने अपना कर्तव्य व्यर्थ ही निभाया होगा? क्या मैं कोई आशीष प्राप्त नहीं कर पाऊँगा? मुझे परमेश्वर से कहना चाहिए कि मुझे ठीक कर दे।” इसलिए वह परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है, “परमेश्वर, मेरे कई वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के आधार पर क्या तुम मेरी बीमारी दूर कर सकते हो?” आगे सोचने पर उसे एहसास होता है, “मेरा परमेश्वर से यह कहना सही नहीं है। मुझे परमेश्वर के सामने ऐसी फालतू माँगें नहीं रखनी चाहिए। मुझमें आस्था होनी चाहिए।” जब उसमें आस्था होती है, तो उसे अपनी बीमारी में थोड़ा सुधार हुआ महसूस होता है, लेकिन थोड़ी देर बाद वह सोचता है, “मुझे नहीं लगता कि मेरी बीमारी वास्तव में सुधरी है। लगता है कि यह और भी बदतर हो गई है। मुझे क्या करना चाहिए? मैं और ज्यादा प्रयास करूँगा और अपना कर्तव्य और ज्यादा मेहनत से निभाऊँगा, मैं और ज्यादा पीड़ा सहूँगा, ज्यादा कीमत चुकाऊँगा, और प्रयास करूँगा कि परमेश्वर मुझे ठीक कर दे। मैं परमेश्वर को अपनी निष्ठा और आस्था दिखाऊँगा, और उसे दिखाऊँगा कि मैं यह परीक्षण स्वीकार कर सकता हूँ।” कुछ समय बाद, न केवल उसकी बीमारी में सुधार नहीं होता, बल्कि वह और भी बदतर हो जाती है, और वह अधिकाधिक दुखी महसूस करता है और सोचता है : “परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया है। मुझे क्या करना चाहिए? परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं?” उसका संताप, चिंता और व्याकुलता और बढ़ जाती है। इस संदर्भ में, वह लगातार अपनी बीमारी के कारण संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाओं के बीच जीता है। समय-समय पर, वह परमेश्वर में कुछ “आस्था” विकसित करता है और समय-समय पर अपनी थोड़ी-सी वफादारी और दृढ़ संकल्प अर्पित करता है। चाहे वह कुछ भी करे या कोई भी तरीका अपनाए, हर हाल में, वह लगातार संताप, चिंता और व्याकुलता की भावनाओं में फँसा रहता है। वह अपनी बीमारी से गहराई से बँधा रहता है और जो कुछ भी करता है, अपनी बीमारी सुधारने, ठीक करने और उससे मुक्ति पाने के लिए करता है। जब व्यक्ति ऐसी नकारात्मक भावनाओं के बीच रहता है, तो वह सिर्फ थोड़े समय के लिए अपनी बीमारी के बारे में नहीं सोचता; बल्कि, उन नकारात्मक भावनाओं के प्रभुत्व के तहत, उसकी सोच अक्सर बहुत सक्रिय होती है। जब ये सक्रिय विचार साकार नहीं किए जा सकते या जब वास्तविकता उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होती, तो समय-समय पर, अपनी इच्छा के विरुद्ध उसके मन में अनगिनत विचार या नजरिये उभरते हैं। वह कहता है, “अगर परमेश्वर मुझे ठीक नहीं करता, तो भी मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा, लेकिन अगर परमेश्वर वाकई मुझे ठीक नहीं करता, तो उसमें मेरी आस्था बेकार है और मुझे बीमारी का इलाज खुद करना होगा।” देखो, वह मन ही मन सोचता है, “अगर परमेश्वर मुझे ठीक नहीं करता, तो भी मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगा—परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है,” लेकिन साथ ही, वह यह भी सोच रहा होता है, “अगर परमेश्वर वाकई मुझे ठीक नहीं करेगा, तो मुझे बीमारी का इलाज खुद करना होगा। अगर इसका इलाज मुझे खुद करना पड़ा, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा। अगर परमेश्वर में मेरी आस्था मेरी बीमारी भी ठीक नहीं कर सकती, तो मुझे परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए? क्यों परमेश्वर दूसरों को तो ठीक करता है, पर मुझे नहीं?” वह लगातार अपनी नकारात्मक भावनाओं में उलझा रहता है, और न केवल वह अपने गलत विचार और दृष्टिकोण उलटने या बदलने में असमर्थ रहता है, बल्कि अपनी बीमारी का अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ये नकारात्मक भावनाएँ उसे धीरे-धीरे परमेश्वर को गलत समझने, परमेश्वर के बारे में शिकायत करने और परमेश्वर पर संदेह करने के लिए प्रेरित कर देती हैं। यह प्रक्रिया उसकी नकारात्मक भावनाओं के क्रमिक परिवर्तन और उसके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करने लगने की प्रक्रिया है। जब कोई भ्रष्ट स्वभाव व्यक्ति के क्रियाकलापों पर नियंत्रण कर लेता है, तो उस व्यक्ति में अब केवल नकारात्मक भावनाएँ ही नहीं होंगी—उसके भीतर कुछ विचार और दृष्टिकोण या निर्णय और संकल्प उत्पन्न होंगे, जो कुछ क्रियाकलाप उत्पन्न करेंगे। जब किसी तरह की भावना किसी तरह की अवस्था में बदल जाती है, तो यह केवल नकारात्मक भावनाओं, किसी चीज के बारे में सोचने या किसी निश्चित स्थिति में रहने का मामला नहीं रह जाता, यह उस स्थिति के विचार, दृष्टिकोण और संकल्प उत्पन्न करने, गतिविधि और क्रियाकलाप उत्पन्न करने का मामला हो जाता है। तो, इन विचारों, दृष्टिकोणों, गतिविधियों और कार्यकलापों पर कौन हावी रहता है? यह एक भ्रष्ट स्वभाव होता है, जो उन पर हावी रहता है। क्या परिवर्तन की यह प्रक्रिया अब पूरी तरह सुगम नहीं हो गई होती? (हाँ, हो गई होती है।) पहले, लोग किसी निश्चित संदर्भ में नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न करते हैं, और ये नकारात्मक भावनाएँ सिर्फ कुछ सरल विचार, दृष्टिकोण और भाव होते हैं, पर ये तमाम विचार नकारात्मक होते हैं। ये नकारात्मक विचार लोगों की भावनाओं में स्थिर हो जाते हैं और उनके विभिन्न गलत अवस्थाएँ उत्पन्न करने का कारण बनते हैं। जब लोग गलत अवस्थाओं में रह रहे होते हैं, और निर्णय ले रहे होते हैं कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, और कौन-से नजरिये अपनाने चाहिए, तो उनके भीतर गलत दृष्टिकोण और सिद्धांत बन जाते हैं, और तब इसमें उनका भ्रष्ट स्वभाव शामिल हो जाता है। यह इतनी सीधी-सी बात है। क्या यह अब स्पष्ट है? (हाँ, यह स्पष्ट है।) तो, मुझे इसके बारे में बताओ। (कुछ संदर्भों में, लोग कुछ नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। पहले तो ये नकारात्मक भावनाएँ कुछ नकारात्मक विचारों से आगे नहीं बढ़तीं। जब ये नकारात्मक विचार विभिन्न गलत अवस्थाओं को जन्म देते हैं और लोग यह निर्णय लेना कि क्या करना चाहिए, और कुछ नजरिये अपनाना शुरू कर देते हैं, तो उन पर कुछ विचार और सिद्धांत हावी हो जाते हैं। तब इसमें उनका भ्रष्ट स्वभाव शामिल हो जाता है।) इस पर विचार करो और देखो कि क्या तुम इसे समझते हो। क्या यह आसान नहीं है? (है।) यह आसान लगता है, लेकिन क्या तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कर सकते हो? चाहे सैद्धांतिक रूप से उनमें अंतर करना आसान हो या नहीं, क्या तुम लोगों ने नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर समझ लिया है? (हाँ।)

अगर वे विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ, जिनके बारे में हमने संगति की है, तुम लोगों के हृदय में मौजूद हैं, तो क्या तुम उन्हें पहचानकर उनका विश्लेषण कर सकते हो? (हम उन्हें कुछ हद तक पहचान सकते हैं।) अगर वे तुममें हों, तो तुम्हें उन्हें पहचानने में सक्षम होना चाहिए। नकारात्मक भावनाओं को पहचानने का उद्देश्य सिर्फ उनके बारे में सामान्य सैद्धांतिक समझ हासिल करना या उनका अर्थ समझना ही नहीं है। यह नकारात्मक भावनाओं की व्यावहारिक समझ हासिल करने के बाद उनकी यातना से मुक्त होना और उन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागना है जो लोगों के भीतर मौजूद नहीं होनी चाहिए, जैसे कि वे नकारात्मक भावनाएँ, जिनके बारे में हमने पहले संगति की थी। अब, नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच के अंतर के आधार पर, जिसके बारे में हमने अभी संगति की है, क्या हम कह सकते हैं कि नकारात्मक भावनाएँ वह मूल कारण या संदर्भ है, जो लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के लिए प्रेरित करता है? उदाहरण के लिए, बीमारी के मामले में, अगर तुम बीमारी के कारण संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाएँ विकसित नहीं करते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हें उस मामले का ज्ञान और अनुभव है, कि तुममें सही विचार और दृष्टिकोण और सच्चा समर्पण है। नतीजतन, उस संबंध में तुम्हारे विचार और क्रियाकलाप सत्य के अनुरूप होने चाहिए। इसके विपरीत, अगर तुम किसी मामले को लेकर लगातार नकारात्मक भावनाएँ अनुभव करते हो, और इसके कारण लगातार नकारात्मक भावनाओं में फँसे रहते हो, तो यह स्वाभाविक है कि इन नकारात्मक भावनाओं के कारण तुममें विभिन्न नकारात्मक अवस्थाएँ उत्पन्न होंगी। जब तुम इन गलत अवस्थाओं में होगे, तो ये नकारात्मक अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने का कारण बनेंगी। तब तुम शैतानी फलसफों के आधार पर कार्य करोगे, हर तरह से सत्य का उल्लंघन करोगे और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जिओगे। इसलिए, चाहे हम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच कैसे भी अंतर करें, संक्षेप में, ये दोनों चीजें जुड़ी हुई और अविभाज्य हैं। विशेष रूप से, ये इस बात में एकसमान सार साझा करती हैं कि नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव दोनों ही नकारात्मक चीजें हैं—वे एकसमान सार और अंतर्निहित विचार और दृष्टिकोण साझा करते हैं। जो विचार और दृष्टिकोण नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं, वे सब नकारात्मक होते हैं, वे सब शैतानी फलसफे होते हैं, और ये नकारात्मक चीजें लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने और अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर आचरण और कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।)

पिछली बार हमने संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति की थी। अब, हम नकारात्मक भावनाओं के एक और पहलू के बारे में संगति करने जा रहे हैं, जो सार में संताप, चिंता और व्याकुलता के ही समान है, लेकिन प्रकृति में और भी ज्यादा नकारात्मक है। वह कौन-सी भावना है? यह मन की वह अवस्था है, जिसका सामना लोग अपने दैनिक जीवन में सबसे ज्यादा बार करते हैं—दमन। क्या तुम सभी ने “दमन” शब्द के बारे में सुना है? (हाँ, सुना है।) तो कृपया “दमन” शब्द का उपयोग करते हुए एक वाक्य बनाओ या कोई उदाहरण दो। मैं एक उदाहरण से शुरुआत करता हूँ। कुछ लोग कहते हैं, “ओह, मैं अक्सर अपना कर्तव्य निभाते समय दमित महसूस करता हूँ और खुद को इससे मुक्त नहीं कर पाता।” क्या यह वाक्य सही ढंग से बनाया गया है? (हाँ।) अब, तुम लोगों की बारी है। (जब मेरे साथ कोई बात हो जाती है, तो मैं हमेशा भ्रष्टता प्रकट करता हूँ और मुझे लगातार चिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करना पड़ता है, इसलिए मैं दमित महसूस करता हूँ।) तुम दमित महसूस करते हो, क्योंकि तुम खुद को बहुत ज्यादा जानने की कोशिश करते हो। इस दमन का संदर्भ क्या है? इसका कारण क्या है? वह यह है कि तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं हो, और ऐसा लगता है कि आगे चलकर न तो तुम्हारे पास कोई संभावना है और न गंतव्य, और तुम्हें कभी भी बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए तुम दमित महसूस करते हो। और कौन साझा करना चाहता है? (बड़े लाल अजगर के देश में परमेश्वर में विश्वास करने से लोग दमित महसूस करते हैं।) यह अपने परिवेश के कारण दमित महसूस करना है। (जब मैं अपना कर्तव्य निभा रहा होता हूँ, तब अपने अगुआ द्वारा लगातार निगरानी किए जाने से मैं दमित महसूस करता हूँ।) अच्छा कहा, यह दमन की भावना को बहुत ठोस रूप से व्यक्त करता है। (अपना कर्तव्य निभाते समय मुझे हमेशा विफलताओं और आघातों का सामना करना पड़ता है, इससे मैं दमित महसूस करता हूँ।) आघात और विफलताएँ तुम लोगों को दमित महसूस कराती हैं, मानो आगे बढ़ने का कोई रास्ता न हो। जब तुम लोगों का काम धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, तो क्या तुम दमित महसूस करते हो? (हाँ।) इसमें कुछ हद तक सकारात्मक संकेतार्थ है। मुझे और बताओ। (जब अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा मेरी काट-छाँट की जाती है, तो मैं दमित महसूस करता हूँ।) यही वास्तविकता है, है न? (जब मुझे अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम नहीं मिलते, तो मैं दमित महसूस करता हूँ।) इस दमन का क्या कारण है? क्या ऐसा सचमुच इसलिए होता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम नहीं मिले होते? क्या तुम्हें यह डर नहीं होता कि तुम्हारा कर्तव्य समायोजित कर दिया जाएगा या तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा? (हाँ।) ये तुम्हारे दमन के ठोस कारण हैं। दमन की कोई अन्य भावनाएँ? मुझे उनके बारे में बताओ। (मेरे सभी साथी मुझसे बेहतर हैं, इसलिए मैं दमित महसूस करता हूँ।) ईर्ष्या के कारण होने वाली परेशानी है—दमन। क्या दमन के कोई अन्य मुद्दे हैं? (मैं अपने कार्यक्षेत्र में लंबे समय से प्रगति की कमी के कारण दमित महसूस करता हूँ।) यह दबाव है या दमन? यह थोड़ा दबाव है। तो यह दबाव होना अच्छी बात है। क्या तुम्हें बस इस दबाव को प्रेरणा में बदलने की जरूरत नहीं है? जब हर टीम के सदस्यों के कर्तव्य हमेशा समायोजित किए जाते हैं, तो क्या तुम लोग दमित महसूस नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) तुम तब भी दमित महसूस करते हो। तुम लोगों द्वारा बोले गए गए वाक्यों से ऐसा लगता है कि तुम सभी लोग दमन की भावना का अनुभव करते हो। ऐसा लगता है कि लोगों का अंतर्मन बहुत अस्थिर, निरंतर बेचैन और एक तरह के अदृश्य दबाव में रहता है, यही कारण है कि उनके भीतर दमन की भावना उत्पन्न होती है, और फिर वे दमन की इस नकारात्मक भावना के बीच जीते हैं। क्या यह अच्छी चीज है? (नहीं, यह अच्छी चीज नहीं है।) यह अच्छी चीज नहीं है। तो क्या इसका समाधान नहीं किया जाना चाहिए? चूँकि यह अच्छी चीज नहीं है, इसलिए इसका समाधान किया जाना चाहिए। जब लोग लगातार नकारात्मक भावना के बीच रहते हैं, चाहे वह कोई भी भावना हो, छोटे स्तर पर वह उनके शरीर और दिमाग पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है, जिससे उनका स्वस्थ रहना और सशक्त होना बाधित हो सकता है। बड़े स्तर पर, लोगों पर विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव उनके दैनिक जीवन में भोजन, कपड़े, घर और परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतों तक ही सीमित नहीं रहता। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लोगों और चीजों को देखने के उनके तरीके के साथ-साथ उनके आचरण और कार्यों को भी प्रभावित करता है। और भी विशेष रूप से, यह उनके कर्तव्यों में उनकी दक्षता, प्रगति और प्रभावशीलता को प्रभावित करता है। निस्संदेह, इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह इसे प्रभावित करता है कि लोगों को अपने कर्तव्य निभाने से क्या मिलता है और परमेश्वर में उनकी आस्था का उन्हें जो फल मिलना चाहिए, उसे भी प्रभावित करता है। लोगों के मन लगातार इन नकारात्मक भावनाओं से ग्रस्त और बँधे रहते हैं, उनके दिल अक्सर परेशान रहते हैं और वे अक्सर अशांति, बेचैनी और आवेग जैसी भावनाओं में रहते हैं। जब लोग इन भावनाओं में फँस जाते हैं, तो उनका सामान्य जमीर और विवेक, और साथ ही उनका सामान्य जीवन और उनके कर्तव्यों का सामान्य निर्वाह बाधित, प्रभावित और नष्ट हो जाता है। इसलिए, तुम्हें इन नकारात्मक भावनाओं का तुरंत समाधान करना चाहिए और उन्हें अपने सामान्य जीवन और कार्य को और ज्यादा प्रभावित करने से रोकना चाहिए। दमन की जिस अवधारणा पर आज हमने चर्चा की है, वह सार में उन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के समान ही है, जिनके बारे में हमने पहले बात की थी। लोग अकसर बहुत-सी चीजों को लेकर चिंतित और शंकित रहते हैं, या अपने दिल की गहराइयों में बहुत बेचैनी पाल लेते हैं, इसलिए वे दमित महसूस करते हैं। अगर दमन की यह भावना लंबे समय तक अनसुलझी रही, तो लोग अपने दिलों में और भी ज्यादा बेचैन और व्यथित हो जाएँगे। कुछ विशिष्ट परिवेशों और संदर्भों में, लोग अपनी स्थितियों पर काबू पाने के लिए कुछ चरम दृष्टिकोण अपनाकर, मानवता के जमीर और विवेक के नियंत्रण से भी मुक्त हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मानव-शरीर की कुछ नकारात्मक भावनाओं को झेलने की सहज क्षमता की एक सीमा होती है। जब वह सीमा और चोटी आ जाती है, तो लोग मानवता के विवेक की रुकावटों से मुक्त हो जाएँगे और अपनी भावनाएँ और अपने दिल की गहराई में मौजूद तमाम तरह के तर्कहीन विचार बाहर निकालने के लिए कुछ चरम नजरिये अपनाएँगे।

तुम लोगों ने अभी स्वयं द्वारा दिए गए वाक्यों के जरिए लोगों के दमित महसूस करने के कुछ अलग कारण व्यक्त किए हैं। आज हम मुख्य रूप से तीन कारणों और वजहों पर संगति करेंगे कि लोगों में दमन की यह नकारात्मक भावना क्यों उभरती है। पहला यह है कि बहुत-से लोग अपने दैनिक जीवन में या अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, महसूस करते हैं कि वे जैसा चाहें वैसा नहीं कर पाते। यह पहला कारण है : जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थता। जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है मन में आने वाली हर इच्छा के अनुसार कार्य न कर पाना। वे जो चाहें, जब चाहें और जैसे चाहें, वैसा कर पाना एक ऐसी अपेक्षा है, जो इन लोगों के काम और जीवन दोनों में होती है। हालाँकि विभिन्न कारणों से, जिनमें कानून, जीवन-परिवेश या किसी समूह के नियम, प्रणालियाँ, शर्तें और अनुशासनात्मक युक्तियाँ आदि शामिल हैं, लोग अपनी इच्छाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। नतीजतन, वे अपने दिल की गहराइयों में दमित महसूस करते हैं। दो-टूक कहें तो यह दमन इसलिए होता है कि लोग व्यथित महसूस करते हैं—कुछ लोगों को अन्याय भी महसूस होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का अर्थ है अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाना—इसका अर्थ है कि व्यक्ति विभिन्न कारणों से और विभिन्न वस्तुनिष्ठ परिवेशों और स्थितियों के प्रतिबंधों के चलते जिद्दी या स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा अनमने रहते हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय ढिलाई बरतने के तरीके ढूँढ़ते हैं। कभी-कभी कलीसिया के काम में शीघ्रता आवश्यक होती है, लेकिन वे वैसे करना चाहते हैं, जैसा वे चाहते हैं। अगर वे शारीरिक रूप से बहुत अच्छा महसूस नहीं करते, या कुछ दिनों तक उनकी मनोदशा खराब रहती है और वे उदासी महसूस करते हैं, तो वे कलीसिया का काम करने के लिए कठिनाई सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होते। वे खास तौर से आलसी और आराम-तलब हो जाते हैं। जब उनमें प्रेरणा की कमी होती है, तो उनका शरीर सुस्त हो जाता है और वे हिलने-डुलने को तैयार नहीं होते, लेकिन उन्हें अगुआओं द्वारा काट-छाँट का और अपने भाई-बहनों द्वारा आलसी कहे जाने का डर होता है, इसलिए अन्य सभी के साथ अनिच्छा से काम करने के सिवाय वे कुछ नहीं कर पाते। लेकिन वे इस बारे में बहुत अनिच्छुक, नाखुश और निरुत्सुक महसूस करेंगे। वे अपकृत, व्यथित, नाराज और थका हुआ महसूस करेंगे। वे अपनी इच्छानुसार कार्य करना चाहते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और व्यवस्थाओं से अलग होने या उनके विरुद्ध जाने का साहस नहीं करते। नतीजतन, समय के साथ उनके भीतर एक भावना उभरने लगती है—दमन। जब यह दमनात्मक भावना उनमें घर कर जाती है, तो वे धीरे-धीरे उदासीन और कमजोर दिखाई देने लगते हैं। किसी मशीन की तरह उन्हें अब इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होती कि वे क्या कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे वही करते हैं जो उनसे रोज करने के लिए कहा जाता है, और उसी तरह करते हैं जिस तरह से उन्हें करने के लिए कहा जाता है। हालाँकि सतह पर वे बिना रुके, बिना थमे, बिना अपने कर्तव्य निभाने वाले परिवेश से दूर गए अपने काम करते रहेंगे, लेकिन अपने दिल में वे दमित महसूस करेंगे और सोचेंगे कि उनका जीवन थकाऊ और शिकायतों से भरा है। उनकी सबसे बड़ी वर्तमान इच्छा यह होती है कि एक दिन वे दूसरों के द्वारा और नियंत्रित न हों, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं द्वारा और प्रतिबंधित न हों, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं से मुक्त हो जाएँ। वे जो चाहें, जब चाहें करना चाहते हैं, अगर उन्हें अच्छा लगता है तो थोड़ा काम करते हैं और अगर अच्छा नहीं लगता तो नहीं करते। वे किसी भी दोष से, कभी भी काट-छाँट या निपटान से, और किसी के निरीक्षण, निगरानी या उनका प्रभारी होने से मुक्ति के लिए लालायित रहते हैं। वे सोचते हैं कि जब वह दिन आएगा, तो वह बड़ा दिन होगा और वे बहुत स्वतंत्र और मुक्त महसूस करेंगे। हालाँकि वे अभी भी छोड़कर जाने या हार मानने को तैयार नहीं होते; वे डरते हैं कि अगर वे अपने कर्तव्य नहीं निभाते, अगर वे वाकई जो चाहते हैं वह करते हैं और एक दिन स्वतंत्र और मुक्त हो जाते हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर से भटक जाएँगे, और वे डरते हैं कि अगर परमेश्वर ने उन्हें और नहीं चाहा, तो वे कोई आशीष प्राप्त नहीं कर पाएँगे। कुछ लोग खुद को दुविधा में पाते हैं : अगर वे अपने भाई-बहनों पर भुनभुनाने की कोशिश करते हैं, तो उनके लिए बोलना मुश्किल हो जाएगा। अगर वे प्रार्थना में परमेश्वर की ओर मुड़ते हैं, तो वे अपना मुँह खोलने में असमर्थ महसूस करेंगे। अगर वे शिकायत करते हैं, तो उन्हें लगेगा कि वे खुद ही दोषी हैं। अगर वे शिकायत नहीं करते, तो वे असहज महसूस करेंगे। उन्हें आश्चर्य होता है कि उनका जीवन इतना शिकायतों से भरा हुआ, उनकी इच्छा के इतना विपरीत और इतना थका देने वाला क्यों लगता है। वे इस तरह से नहीं जीना चाहते, वे बाकी सबके साथ मिल-जुलकर नहीं रहना चाहते, वे जो चाहें, जैसे चाहें करना चाहते हैं, और उन्हें आश्चर्य होता है कि वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते। उन्हें लगता था कि वे सिर्फ शारीरिक रूप से थके हुए हैं, लेकिन अब उनके दिल भी थका हुआ महसूस करते हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि उनके साथ क्या हो रहा है। मुझे बताओ, क्या यह दमनात्मक भावनाओं के कारण नहीं है? (है।)

कुछ लोग कहते हैं, “सभी कहते हैं कि विश्वासी स्वतंत्र और मुक्त होते हैं, विश्वासी विशेष रूप से प्रसन्न, शांतिपूर्ण और आनंदमय जीवन जीते हैं। मैं दूसरों की तरह खुशी और शांति से क्यों नहीं जी पाता? मुझे कोई आनंद महसूस क्यों नहीं होता? मैं इतना दमित और थका हुआ क्यों महसूस करता हूँ? दूसरे लोग इतना सुखी जीवन कैसे जीते हैं? मेरा जीवन इतना दयनीय क्यों है?” बताओ, इसका क्या कारण है? उनका दमन किस कारण हुआ? (उनके भौतिक शरीर संतुष्ट नहीं थे और उनकी देह पीड़ित थी।) जब व्यक्ति का भौतिक शरीर पीड़ित होता है और उसे लगता है कि इसके साथ गलत किया गया है, अगर वह अपने दिलो-दिमाग में इसे स्वीकार सकता है, तो क्या उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसकी शारीरिक पीड़ा अब उतनी बड़ी नहीं रही? अगर उसे अपने दिलो-दिमाग में सुख, शांति और आनंद मिलता है, तो क्या वह अभी भी दमित महसूस करेगा? (नहीं।) इसलिए यह कहना कि दमन शारीरिक पीड़ा के कारण होता है, अमान्य है। अगर दमन अत्यधिक शारीरिक पीड़ा के कारण उत्पन्न होता है, तो क्या तुम लोग पीड़ित नहीं हो? क्या तुम लोग इसलिए दमित महसूस करते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? क्या तुम लोग इसलिए दमनात्मक भावनाओं में फँस जाते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? (नहीं।) क्या तुम लोग अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हो? (कुछ हद तक व्यस्त रहते हैं।) तुम सभी काफी व्यस्त रहते हो, सुबह से शाम तक काम करते रहते हो। सोने और खाने के अलावा तुम अपना लगभग पूरा दिन कंप्यूटर के सामने बिताते हो, अपनी आँखें और मस्तिष्क थका देते हो, अपना शरीर थका देते हो, लेकिन क्या तुम दमित महसूस करते हो? क्या यह थकान तुम में दमन लाएगी? (नहीं।) लोगों के दमन का कारण क्या होता है? यह निश्चित रूप से शारीरिक थकान के कारण नहीं होता, तो इसका कारण क्या होता है? अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है। एक और समूह ऐसे लोगों का है, जो शारीरिक सुख के पीछे नहीं भागते। वे चीजों को अपनी सनक और मनोदशा के अनुसार करना चाहते हैं। जब वे खुश होते हैं तो वे ज्यादा कष्ट सह पाते हैं, वे पूरे दिन लगातार काम कर सकते हैं, और अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उन्हें थकान महसूस होती है, तो वे कहेंगे, “मैं थका हुआ नहीं हूँ, अपना कर्तव्य करने से मैं थक कैसे सकता हूँ!” लेकिन अगर वे किसी दिन नाखुश होते हैं, तो तुम्हारे एक अतिरिक्त मिनट काम करने के लिए कहने पर ही वे नाराज हो जाएँगे, और अगर तुम उन्हें थोड़ा डाँट दो, तो वे कहेंगे, “बोलना बंद करो! मैं दमित महसूस करता हूँ। अगर तुम बोलते रहे, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं करूँगा, और यह तुम्हारी गलती होगी। अगर भविष्य में मुझे आशीष न मिले तो यह तुम्हारी वजह से होगा और इसकी सारी जिम्मेदारी तुम पर होगी!” असामान्य स्थिति में होने पर लोग अस्थिरमति हो जाते हैं। कभी-कभी वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होंगे, लेकिन कभी-कभी थोड़े से कष्ट के बारे में भी शिकायत करेंगे, यहाँ तक कि कोई छोटी-सी समस्या भी उन्हें परेशान कर देगी। जब उनकी मनोदशा खराब होती है, तो वे अपने कर्तव्य करना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, भजन गाना या सभाओं में भाग लेना और धर्मोपदेश नहीं सुनना चाहेंगे। वे बस कुछ समय के लिए अकेले रहना चाहेंगे और किसी के लिए भी उनकी मदद या समर्थन करना असंभव होगा। कुछ दिनों बाद हो सकता है वे इससे उबर जाएँ और बेहतर महसूस करें। जो भी चीज उन्हें संतुष्ट करने में विफल रहती है, वह उन्हें दमित महसूस कराती है। क्या इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी नहीं होता? (हाँ, होता है।) वे खास तौर से जिद्दी होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर वे तुरंत सो जाना चाहते हैं, तो वे ऐसा करने पर जोर देंगे। वे कहेंगे, “मैं थक गया हूँ और अभी सोना चाहता हूँ। जब मुझमें ऊर्जा नहीं रहती, तो मुझे सोना पड़ता है!” अगर कोई कहता है, “क्या तुम दस मिनट और नहीं रुक सकते? यह कार्य सच में जल्दी ही पूरा हो जाएगा, फिर हम सब आराम कर सकेंगे, यह कैसा रहेगा?” वह जवाब देगा, “नहीं, मुझे अभी सोने जाना है!” अगर कोई उन्हें मनाता है, तो वे अनिच्छा से कुछ समय के लिए रुक तो जाएँगे, पर दमित और नाराज महसूस करेंगे। वे अक्सर इन मामलों में दमित महसूस करते हैं और भाई-बहनों से मदद स्वीकारने या अगुआओं द्वारा निरीक्षण किए जाने के लिए तैयार नहीं होते। अगर वे कोई गलती करते हैं, तो वे दूसरों को अपने निपटान या काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देंगे। वे किसी भी तरह से बंधन में नहीं रहना चाहते। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मुझे खुशी मिल सके, तो मैं अपने लिए चीजें कठिन क्यों बनाऊँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों हो? लोगों को खुशी से रहना चाहिए। उन्हें इन नियमों और उन प्रणालियों पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। उनका हमेशा पालन करने से क्या लाभ? अभी इसी क्षण मैं जो चाहूँ सो करने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए।” इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी और स्वच्छंद होता है : वह खुद को किसी भी रुकावट से पीड़ित नहीं होने देता, न ही वह किसी कार्य-परिवेश में रुकावट महसूस करना चाहता है। वे परमेश्वर के घर के नियमों और सिद्धांतों का पालन नहीं करना चाहते, वे उन सिद्धांतों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते जिनका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए, यहाँ तक कि वे उस चीज का भी पालन नहीं करना चाहते जो जमीर और विवेक कहते हैं कि उन्हें करना चाहिए। वे जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, वे वही करना चाहते हैं जिससे उन्हें खुशी मिले, जो उन्हें फायदा पहुँचाए और जिसमें उन्हें आराम महसूस हो। उनका मानना होता है कि इन रुकावटों के तहत रहना उनकी इच्छा का उल्लंघन होगा, यह एक तरह का आत्म-अपमान होगा, यह अपने प्रति बहुत कठोरता होगी, और लोगों को इस तरह नहीं रहना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोगों को अपने दैहिक सुख और कामनाओं के साथ-साथ अपने आदर्शों और इच्छाओं का बेलगाम आनंद लेते हुए स्वतंत्र और मुक्त होकर जीना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने तमाम विचारों का आनंद लेना चाहिए, जो चाहे कहना चाहिए, जो चाहे करना चाहिए और जहाँ चाहे जाना चाहिए और ऐसा उन्हें बिना नतीजों या अन्य लोगों की भावनाओं की परवाह किए और खासकर बिना अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों पर विचार किए करना चाहिए, या उन कर्तव्यों पर जो विश्वासियों को निभाने चाहिए, या उन सत्य वास्तविकताओं पर जिन्हें उन्हें कायम रखना और जीना चाहिए, या उस जीवन-मार्ग पर जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए। लोगों का यह समूह हमेशा समाज में और अन्य लोगों के बीच जैसा चाहे वैसा करना चाहता है, लेकिन चाहे वे कहीं भी जाएँ, वे उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर मानवाधिकारों पर जोर देता है, लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता देता है, वह मानवता की और लोगों के साथ सहनशीलता और धैर्य बरतने की परवाह करता है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद वे अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं में मुक्त रूप से लिप्त हो पाएँगे, लेकिन चूँकि परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश और विनियम हैं, इसलिए वे अभी भी जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। इसलिए परमेश्वर के घर में शामिल होने के बाद भी उनकी इस नकारात्मक दमनात्मक भावना का समाधान नहीं हो पाता। वे किसी तरह की जिम्मेदारियाँ निभाने या कोई मिशन पूरा करने या एक सच्चा इंसान बनने के लिए नहीं जीते। परमेश्वर में उनका विश्वास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए नहीं होता। चाहे वे जिन भी लोगों के बीच हों, जिन भी परिवेशों में हों या जिस भी पेशे में हों, उनका अंतिम लक्ष्य खुद को ढूँढ़ना और तृप्त करना होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य इसी के इर्द-गिर्द घूमता है और आत्म-तृप्ति उनके जीवन भर की इच्छा और उनके अनुसरण का लक्ष्य होती है।

तुम में से कुछ भाई-बहनों की मेजबानी करने और उनके लिए भोजन पकाने के लिए जिम्मेदार हैं और उस स्थिति में तुम्हें भाई-बहनों से पूछना चाहिए कि उन्हें क्या खाना पसंद है, खुद से पूछो कि परमेश्वर के घर के क्या सिद्धांत और अपेक्षाएँ हैं, और फिर इन दो तरह के सिद्धांतों के आधार पर उनकी मेजबानी करो। अगर तुम उत्तरी चीन के लोगों की मेजबानी कर रहे हो, तो गेहूँ के व्यंजन ज्यादा बनाओ, जैसे उबले हुए बन, मंडारिन रोल और भरवाँ बन। कभी-कभी तुम चावल या चावल के नूडल्स भी बना सकते हो, जिन्हें दक्षिणी चीन के लोग खाते हैं। यह सब स्वीकार्य है। मान लो जिन लोगों की तुम मेजबानी कर रहे हो, उनमें से ज्यादातर दक्षिणी चीन से हैं। उन्हें गेहूँ के व्यंजन पसंद नहीं, उन्हें चावल पसंद हैं, और अगर वे चावल न खाएँ तो उन्हें लगता है जैसे उन्होंने खाना ही नहीं खाया। इसलिए उनकी मेजबानी करने पर तुम्हें अक्सर चावल बनाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि तुम्हारे व्यंजन दक्षिणी चीन के लोगों के स्वाद के अनुरूप हों। अगर तुम दक्षिणी और उत्तरी चीन दोनों के लोगों की मेजबानी कर रहे हो, तो तुम दो तरह के भोजन बना सकते हो और लोगों को उनकी पसंद का खाना चुनने दो, जिससे उन्हें चुनाव की स्वतंत्रता मिल सके। इस तरह से भाई-बहनों की मेजबानी करना सिद्धांतों के अनुरूप है—यह बहुत सीधा मामला है। अगर ज्यादातर लोग संतुष्ट हो जाते हैं, तो यह काफी है। तुम्हें कुछ ऐसे व्यक्तियों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं, जो असंतुष्ट रहते हैं। हालाँकि अगर मेजबानी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति सत्य नहीं समझता और सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालना नहीं जानता, और हमेशा अपनी पसंद के आधार पर कार्य करता है, जो चाहे भोजन बना लेता है, बिना यह सोचे कि लोग इसे खाकर खुश होंगे या नहीं—यह किस तरह की समस्या है? यह अत्यधिक जिद्दीपन और स्वार्थपरता है। कुछ लोग चीन के दक्षिण से हैं, और जिन लोगों की वे मेजबानी करते हैं, उनमें से ज्यादातर उत्तर से होते हैं। वे रोज चावल बनाते हैं, बिना इस बात पर विचार किए कि भाई-बहन इसके आदी हैं या नहीं, और जब तुम उनकी काट-छाँट करने की कोशिश करते हो और उन्हें कुछ सलाह देते हो, तो उनके भीतर एक निश्चित प्रकार की भावना उभरती है, और उनका दिल प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी हो जाता है और आक्रोश से भर जाता है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में खाना बनाना आसान नहीं है। इन लोगों की सेवा करना बहुत कठिन है। मैं तुम लोगों के लिए खाना बनाने के लिए सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करता हूँ, लेकिन तुम लोग फिर भी बहुत नकचढ़े रहते हो। चावल खाने में क्या बुराई है? क्या हम दक्षिणी लोग दिन में तीन बार चावल नहीं खाते? क्या यह जीने का बहुत अच्छा तरीका नहीं है? हम तुम लोगों से ज्यादा मजबूत हैं और हमारे पास ज्यादा ऊर्जा है। हमेशा नूडल्स और उबले हुए बन खाने में क्या अच्छा है? क्या उससे तुम्हारा पेट भर जाता है? मुझे नूडल्स अच्छे क्यों नहीं लगते? इन्हें खाने से मेरा पेट क्यों नहीं भरता? खैर, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। मैं समझता हूँ, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य करने के लिए मुझे इसे सहना होगा और खुद पर संयम रखना होगा। अगर मैंने खुद पर संयम न रखा, तो मुझे बदला जा सकता है या हटाया जा सकता है। तो फिर मुझे सिर्फ नूडल्स और उबले हुए बन ही बनाने होंगे!” वे रोज नाराजगी जताते हुए ऐसा करते रहते हैं और सोचते हैं, “मैं भोजन में चावल भी नहीं खा सकता। मुझे हर भोजन में खाने को सिर्फ चावल चाहिए। चावल के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। मैं चावल खाना चाहता हूँ!” हालाँकि वे अनिच्छा से रोज नूडल्स और उबले हुए बन बनाते हैं, लेकिन उनकी मनोदशा बेहद खराब रहती है। वे अत्यधिक उदास क्यों महसूस करते हैं? वह इसलिए कि वे दमित महसूस करते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे तुम लोगों की सेवा करनी है और वह खाना बनाना है जो तुम लोगों को पसंद है, न कि वह जो मैं खाना चाहता हूँ। मुझे हमेशा तुम लोगों को ही क्यों संतुष्ट करना पड़ता है, खुद को क्यों नहीं?” वे व्यथित और दमित महसूस करते हैं और उनका जीवन थका देने वाला होता है। वे कोई भी अतिरिक्त कार्य करने से इनकार कर देते हैं, और जब वे थोड़ा-सा काम करते भी हैं तो लापरवाही से करते हैं; कोई काम न करने पर उन्हें बदले जाने या हटा दिए जाने का डर रहता है। नतीजतन, एकमात्र चीज जो वे कर सकते हैं, वह है खुशी, स्वतंत्रता या मुक्ति के किसी क्षण का अनुभव किए बिना अनिच्छा और अरुचि से इस तरह से कार्य करके अपना कर्तव्य करना। लोग उनसे पूछते हैं, “भाई-बहनों की मेजबानी करने और उनके लिए भोजन पकाने के बारे में तुम कैसा महसूस करते हो?” वे जवाब देते हैं, “यह वास्तव में उतना थकाऊ नहीं है, लेकिन मैं दमित महसूस करता हूँ।” लोग कहते हैं, “तुम दमित क्यों महसूस करते हो? तुम्हारे पास चावल, आटा और सब्जियाँ हैं—तुम्हारे पास सब-कुछ है। यहाँ तक कि इन चीजों को खरीदने के लिए तुम्हें अपना पैसा भी खर्च नहीं करना है। तुम्हें बस समय-समय पर खुद को थकाना और अन्य लोगों की तुलना में थोड़ा ज्यादा काम करना है। क्या तुम्हें यही नहीं करना चाहिए? परमेश्वर में विश्वास करना और अपना कर्तव्य करना आनंददायक चीजें हैं। ये स्वैच्छिक होती हैं। तो तुम दमित क्यों महसूस करते हो?” वे उत्तर देते हैं, “हालाँकि मैं ये चीजें स्वेच्छा से ही करता हूँ, पर मैं लगातार चावल नहीं खा सकता और अपनी पसंद की और खुद को स्वादिष्ट लगने वाली चीजें खाते हुए जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। अपने लिए कुछ स्वादिष्ट बनाने की कोशिश करता पाए जाने पर मुझे आलोचना का डर रहता है, इसलिए मैं दमित महसूस करता हूँ और कभी खुश नहीं होता।” इस तरह के लोग दमनात्मक भावनाओं के बीच रहते हैं, क्योंकि वे भोजन की अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाते।

कुछ लोग कलीसिया के खेतों में सब्जियाँ उगाते हैं। उन्हें ऐसा कैसे करना चाहिए? उन्हें ऋतुओं, जलवायु, तापमान, और जिन लोगों को खिलाना है उनकी संख्या के आधार पर सब्जियों की उपयुक्त फसल बोनी चाहिए। विभिन्न सब्जियों की खेती के संबंध में परमेश्वर के घर में नियम हैं, जो कई लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। कुछ सब्जियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें लोग रोजाना खाना पसंद करते हैं और कुछ सब्जियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें खाने में लोगों को मजा नहीं आता। कुछ की मात्रा नियंत्रित होती है और अन्य का सेवन मौसम के अनुसार किया जाता है। इस तरह लोगों के खा सकने की मात्रा सीमित होती है। कुछ लोगों ने सोचा, “ओह, हम कभी इन सब्जियों को खाने का पूरा आनंद नहीं ले पाते। हम थोड़ी-सी ही खाते हैं, और वे चली जाती हैं। वे सबके लिए पर्याप्त नहीं होतीं! चेरी टमाटर की तरह हमें हर बार सिर्फ थोड़ी-सी, मुट्ठी भर ही सब्जियाँ मिलती हैं, और इससे पहले कि हम उनका स्वाद चख सकें, वे खत्म हो जाती हैं। अच्छा हो अगर हम उन्हें कटोरी भरकर खा सकें!” तो जिस जगह तकरीबन दस लोग रहते थे, वहाँ उन्होंने चेरी टमाटर के दो सौ पौधे लगा दिए। वे सुबह उठते ही उन्हें कटोरी भरकर खाना शुरू कर देते और रात को सोने तक खाते रहते थे। कटोरी भरकर चेरी टमाटर और आम टमाटर खाना और टोकरी भर खीरे खाना उनके लिए बहुत रोमांचक होता था। उन्हें लगा कि वे स्वर्गिक, आनंदमय दिन थे। इस तरह के लोग अपने क्रियाकलापों में परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं कर सकते और वे विज्ञान के सिद्धांतों का भी पालन नहीं कर सकते। वे किसी की भी बात सुनने से इनकार कर देते हैं, अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं, हर चीज में सिर्फ अपना ही ध्यान रखते हैं और जैसा चाहे वैसा करते हैं। नतीजतन, परमेश्वर के घर के नियंत्रण, निरीक्षण और प्रबंधन के तहत इन लोगों पर, जो मुँह भरकर फल खाना चाहते थे, प्रतिबंध लगा दिया गया, और कुछ का निपटान और काट-छाँट की गई। मुझे बताओ, तुम लोगों को क्या लगता है कि वे अब कैसा महसूस कर रहे हैं? क्या वे बेहद निराश महसूस नहीं करते? क्या उन्हें नहीं लगता कि दुनिया बेरंग है और परमेश्वर के घर में कोई प्रेम या गर्मजोशी नहीं है? क्या वे बेहद दमित महसूस नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) वे लगातार सोचते हैं, “जैसा मैं चाहता हूँ वैसा करने में क्या बुराई है? क्या मैं कुछ सब्जियाँ खाने का भी आनंद नहीं ले सकता? वे मुझे कटोरी भर चेरी टमाटर तक नहीं खाने देंगे। कितने कंजूस हैं! परमेश्वर का घर लोगों को आजादी नहीं देता। अगर हम चेरी टमाटर खाना चाहते हैं, तो वे हमें उन लोगों की संख्या के आधार पर उन्हें उगाने के लिए कहते हैं, जिन्हें खिलाने की जरूरत है। मेरे दो-तीन सौ पौधे लगाने में क्या दिक्कत है? अगर हम उन सबको न खा पाए, तो जानवरों को ही खिला देंगे।” क्या तुम्हारे लिए कटोरा भर खाना उचित है? क्या तुम्हारे उपभोग पर संयम और सीमा नहीं होनी चाहिए? परमेश्वर द्वारा सृजित विभिन्न खाद्य पदार्थ जिन्हें लोग खाते हैं, उनके खाने का अनुपात उनकी उपज और मौसमी उपलब्धता पर आधारित होना चाहिए। मुख्य खाद्य पदार्थ वे होने चाहिए जिनकी ज्यादा उपज होती है, जबकि कम उपज, छोटी ऋतुओं वाले, कम विकास-अवधि वाले या प्रतिबंधित उपज वाले खाद्य पदार्थों का कम मात्रा में सेवन किया जाना चाहिए—कुछ विशिष्ट स्थानों में तो लोग उन्हें बिल्कुल भी नहीं खाते, और इससे उन्हें कोई कमी नहीं लगती। यह उचित है। लोग हमेशा इच्छाएँ पालते हैं और लगातार अपनी भूख मिटाना चाहते हैं। क्या यह उचित है? हमेशा इच्छाएँ और भूख पालना उचित नहीं होता। परमेश्वर के घर के अपने नियम हैं। परमेश्वर के घर में कार्य के सभी पहलुओं में विनियम, प्रबंधन और उचित प्रणालियाँ हैं। अगर तुम परमेश्वर के घर के सदस्य बनना चाहते हो, तो तुम्हें इसके विनियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। तुम्हें ढीठ नहीं होना चाहिए, बल्कि समर्पित होना सीखना चाहिए और इस तरीके से कार्य करना चाहिए जो सभी को संतोषजनक लगे। यह जमीर और विवेक के मानकों के अनुरूप होता है। परमेश्वर के घर के कोई भी विनियम किसी एक व्यक्ति के लाभ के लिए स्थापित नहीं किए गए हैं, वे परमेश्वर के घर में सभी लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं। वे परमेश्वर के घर के कार्य और हितों की रक्षा के लिए हैं। ये नियम और प्रणालियाँ उचित हैं और अगर लोगों में जमीर और विवेक है तो उन्हें उनका पालन करना चाहिए। इसलिए चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, एक संदर्भ में तुम्हें उसे परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रणालियों के अनुसार करना चाहिए, और दूसरे संदर्भ में लगातार अपने व्यक्तिगत हितों और परिप्रेक्ष्य के आधार पर कार्य करने के बजाय यह सब बनाए रखना तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व भी है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम परमेश्वर के घर में रहने और काम करने पर विशेष रूप से दमित महसूस करते हो, तो यह परमेश्वर के घर के नियमों, प्रणालियों या प्रबंधकीय तरीकों की किसी समस्या के कारण नहीं है, बल्कि यह तुम्हारी व्यक्तिगत समस्या है। मान लो, तुम हमेशा आत्म-तृप्ति पाना और परमेश्वर के घर में अपनी इच्छाएँ पूरी करना चाहते हो, और हमेशा बिना किसी शांति या खुशी के बेहद दमित, कैद में और बँधा हुआ महसूस करते हो। मान लो, तुम लगातार असहज और अपकृत महसूस करते हो, किसी भी मामले में जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते, जैसा चाहे वैसा नहीं खा या पहन सकते, तुम्हें फैशनेबल या आकर्षक तरीके से कपड़े नहीं पहनने दिए जाते, और इन चीजों के कारण तुम रोज दुखी और असहज महसूस करते हो। मान लो, तुम्हें अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत करना हमेशा असहज लगता है, और तुम सोचते हो, “ये लोग हमेशा मेरे साथ सत्य के बारे में संगति करते हैं, यह बहुत परेशानी भरा है! मैं इस तरह से आचरण नहीं करना चाहता। मैं बस खुशी, संतुष्टि और आजादी से जीना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि मैं उतना खुश और स्वतंत्र नहीं हूँ, जितना मैंने परमेश्वर में विश्वास करते हुए होने की सोची थी। मैं किसी के द्वारा बाध्य नहीं होना चाहता। हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो मुझे प्रबंधित और बाधित करते हैं, और मैं दमित महसूस करता हूँ।” इस तरह के लोग ऐसा जीवन-परिवेश नापसंद करते हैं और उसके प्रति घृणा महसूस करते हैं। लेकिन आशीष प्राप्त करने के लिए उनके पास इसके लिए प्रतिबद्ध होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। उनके पास अपनी निराशा व्यक्त करने के लिए कोई जगह नहीं होती, वे चिल्लाने की हिम्मत नहीं करते और अकसर दमित महसूस करते हैं। ऐसे लोगों से निपटने का एकमात्र समाधान, सबसे अच्छा तरीका उन्हें यह बताना है : “तुम जा सकते हो। जाओ और जो चाहो खाओ, जो कपड़े पहनना चाहो पहनो, जो जीवन जीना चाहो जिओ, जो चीजें करना चाहो करो, अपना मनचाहा करियर बनाओ और जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करना चाहो करो। परमेश्वर का घर तुम्हें रोक नहीं रहा। तुम्हारे हाथ-पैर मुक्त और स्वतंत्र हैं, साथ ही तुम्हारा हृदय भी। तुम किसी से बँधे नहीं हो। एक निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर के प्रति प्रतिबद्ध होने के अलावा किसी ने भी यह कहते हुए तुम पर ये नियम नहीं थोपे हैं कि तुम्हें परमेश्वर के घर में रहना है, रहना चाहिए और रहना पड़ेगा, वरना परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ कुछ कर देगा।” मैं तुम्हें सच बता रहा हूँ, परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ कुछ नहीं करेगा। अगर तुम जाना चाहते हो, तो किसी भी समय जा सकते हो। बस परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें कलीसिया को लौटा दो और तुम्हारे पास जो भी काम है, उसे सौंप दो। तुम जब चाहो जा सकते हो। परमेश्वर का घर तुम पर प्रतिबंध नहीं लगाता, यह तुम्हारी कैद या जेल नहीं है। परमेश्वर का घर एक स्वतंत्र स्थान है और उसके द्वार पूरी तरह खुले हैं। अगर तुम दमित महसूस करते हो, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते, और इसका मतलब यह है कि यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। यह वह सुखद निवास नहीं है जिसे तुम पाना चाहते हो, न ही यह वह जगह है जहाँ तुम्हें रहना चाहिए। अगर तुम ऐसे तरीके से रह रहे हो जो तुम्हारी इच्छा के बहुत विरुद्ध है, तो तुम्हें चले जाना चाहिए। क्या तुम समझ रहे हो? परमेश्वर का घर कभी छद्म-विश्वासियों या सत्य का अनुसरण न करने वालों को मजबूर नहीं करता। अगर तुम व्यवसाय करना, अमीर बनना, करियर बनाना या दुनिया में जाकर नाम कमाना चाहते हो, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत लक्ष्य है, और तुम्हें धर्मनिरपेक्ष दुनिया में लौट जाना चाहिए। परमेश्वर का घर कभी लोगों की स्वतंत्रता में आड़े नहीं आता। परमेश्वर के घर के दरवाजे खुले हैं। छद्म-विश्वासी और सत्य का अनुसरण न करने वाले किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़कर जा सकते हैं।

कुछ लोग अपने कर्तव्य करने और सत्य के बारे में संगति करने के लिए तैयार ही नहीं होते। उन्होंने कलीसियाई जीवन के साथ सामंजस्य नहीं बैठाया है, वे इससे सामंजस्य बैठाने में असमर्थ हैं और हमेशा खास तौर से दुखी और असहाय महसूस करते रहते हैं। खैर मैं उन लोगों से कहूँगा : तुम्हें जल्दी से चले जाना चाहिए। अपने लक्ष्य और दिशा तलाशने के लिए धर्मनिरपेक्ष दुनिया में जाओ और वह जीवन जिओ, जो तुम्हें जीना चाहिए। परमेश्वर का घर कभी किसी पर दबाव नहीं डालता। कलीसिया का कोई भी नियम, प्रणाली या प्रशासनिक आदेश एक व्यक्ति के रूप में तुम पर लक्षित नहीं है। अगर तुम उन्हें कठिन पाते हो, उनका पालन नहीं कर सकते, और खास तौर से दुखी और दमित महसूस करते हो, तो तुम छोड़कर जाने का चुनाव कर सकते हो। जो लोग सत्य स्वीकारने और सिद्धांत कायम रखने में सक्षम हैं, वे ही कलीसिया में बने रहने के लिए उपयुक्त हैं। बेशक अगर तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हो, तो क्या तुम्हारे लिए कोई और उपयुक्त जगह होगी? हाँ, दुनिया बहुत बड़ी है, और तुम्हारे लिए कोई उपयुक्त जगह होगी। संक्षेप में, अगर तुम यहाँ दमित महसूस करते हो, अगर तुम मुक्ति नहीं पा सकते, अगर तुम बार-बार अपना गुस्सा जाहिर करना चाहते हो और तुम्हारी प्रकृति के फूट पड़ने की आशंका हमेशा रहती है, तो तुम खतरे में हो और परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हो। दुनिया बहुत बड़ी है, और तुम्हारे लिए हमेशा कोई न कोई उपयुक्त जगह होगी। उसे खुद आराम से ढूँढ़ो। क्या यह इस मामले को सँभालने का उचित तरीका नहीं है? क्या यह तर्कसंगत नहीं है? (हाँ, है।) अगर ये लोग इतने असहज महसूस करते हैं, और तुम अभी भी इन्हें यहाँ रखना चाहते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? उन्हें जाने दो और अपने सपने साकार करने में उनकी सफलता की कामना करो, ठीक है? उनके सपने क्या हैं? (कटोरी भर-भरकर चेरी टमाटर खाना।) वे पूरे साल हर भोजन में चावल और मछली भी खाना चाहते हैं। उनके और क्या सपने हैं? रोज स्वाभाविक रूप से जागना, जब चाहें तब काम करना, और जब वे काम न करना चाहें तो किसी के द्वारा उनका प्रबंधन या निरीक्षण न किया जाना। क्या यही उनका सपना नहीं है? (हाँ, यही है।) कितना भव्य सपना है! कितना ऊँचा है! मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों के पास अच्छी संभावनाएँ हैं? क्या वे अपना उचित कार्य करते हैं? (नहीं।) संक्षेप में कहें तो इस तरह के लोग हमेशा दमित महसूस करते हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो उनकी इच्छा दैहिक सुख भोगने और अपनी इच्छाएँ पूरी करने की होती है। वे बहुत स्वार्थी हैं, वे सब-कुछ अपनी सनकों के अनुसार और जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, नियमों की अवहेलना करते हैं और मामले सिद्धांतों के अनुसार नहीं सँभालते, बस अपनी भावनाओं, प्राथमिकताओं और इच्छाओं के आधार पर चीजें और अपने हितों के अनुसार कार्य करते हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव होता है और ऐसे लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। जो लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते, वे जो कुछ भी करते हैं, जहाँ भी जाते हैं, उसमें दमित महसूस करते हैं। यहाँ तक कि अगर वे अकेले भी रह रहे होते, तो भी वे दमित महसूस करते। अच्छे शब्दों में कहें तो ये लोग होनहार व्यक्ति नहीं होते और अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। ज्यादा सटीक रूप से कहें तो उनकी मानवता असामान्य होती है और वे थोड़े सीधे-सादे होते हैं। अपना उचित कार्य करने वाले लोग कैसे होते हैं? वे भोजन, कपड़े, मकान और परिवहन जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों को सरल तरीके से लेने वाले लोग होते हैं। अगर ये चीजें सामान्य मानक तक होती हैं, तो उनके लिए यही पर्याप्त होता है। वे जीवन में अपने मार्ग, मनुष्यों के रूप में अपने मिशन, अपने जीवन-दृष्टिकोण और मूल्यों के बारे में ज्यादा परवाह करते हैं। मंदबुद्धि लोग पूरे दिन किस बारे में सोचा करते हैं? वे उचित मामलों पर विचार न करके हमेशा इस बारे में सोचा करते हैं कि कैसे काम में ढिलाई बरतें, कैसे चालें चलें ताकि जिम्मेदारी से बच सकें, कैसे अच्छा खाएँ और मौज-मस्ती करें, कैसे शारीरिक आराम और सुख से रहें। इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करने की व्यवस्था और परिवेश में दमित महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर में लोगों से अपने कर्तव्यों से संबंधित कुछ सामान्य और व्यावसायिक ज्ञान सीखने की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे उन्हें बेहतर ढंग से निभा सकें। परमेश्वर के घर में लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे बार-बार परमेश्वर के वचनों को खाएँ-पिएँ ताकि वे सत्य की बेहतर समझ प्राप्त कर सकें, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें और जान सकें कि प्रत्येक कार्य के लिए सिद्धांत क्या हैं। ये सभी चीजें जिनके बारे में परमेश्वर का घर संगति करता है और जिनका उल्लेख करता है, उन विषयों, व्यावहारिक मामलों आदि से संबंधित होते हैं, जो लोगों के जीवन और उनके द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के दायरे में आती हैं, और वे लोगों को अपना उचित कार्य करने और सही मार्ग पर चलने में मदद करने के लिए होती हैं। ये व्यक्ति जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते और मनमर्जी करते हैं, ये उचित चीजें नहीं करना चाहते। जो कुछ भी वे चाहते हैं, उसे करके वे जो अंतिम लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, वह है शारीरिक सुख, आनंद और आराम, और किसी भी तरह से प्रतिबंधित या अपकृत न होना। वे जो चाहते हैं यह उसे पर्याप्त रूप से खा पाने और जैसा चाहे वैसा कर पाने के लिए होता है। यह उनकी मानवता की गुणवत्ता और उनके आंतरिक लक्ष्यों के कारण होता है कि वे अक्सर दमित महसूस करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति कर लो, वे नहीं बदलेंगे और उनके दमन का समाधान नहीं होगा। वे बस इसी तरह के लोग होते हैं; वे बस ऐसी चीजें हैं जो अपना उचित कार्य नहीं करतीं। हालाँकि सतही तौर पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने कोई बड़ी बुराई की है या वे बुरे लोग हैं, और हालाँकि वे सिर्फ सिद्धांतों और विनियमों को कायम रखने में विफल रहे प्रतीत होते हैं, पर वास्तव में उनका प्रकृति सार यह होता है कि वे अपना उचित कार्य नहीं करते या सही मार्ग पर नहीं चलते। इस तरह के लोगों में सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का अभाव होता है और वे सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता प्राप्त नहीं कर सकते। वे उन लक्ष्यों के बारे में नहीं सोचते, उन पर विचार नहीं करते या उनका अनुसरण नहीं करते, जिनका सामान्य मानवता वाले लोगों को अनुसरण करना चाहिए, या उन जीवन रवैयों और अस्तित्व के उन तरीकों के बारे में जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को अपनाना चाहिए। उनका दिमाग रोजाना इस विचार से भरा रहता है कि शारीरिक आराम और आनंद कैसे पाया जाए। लेकिन कलीसियाई जीवन-परिवेश में वे अपनी शारीरिक प्राथमिकताएँ पूरी नहीं कर पाते, इसलिए वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनकी ये भावनाएँ इसी तरह उत्पन्न होती हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों का जीवन थका देने वाला नहीं होता? (होता है।) क्या उनका जीवन दयनीय होता है? (नहीं, वह दयनीय नहीं होता।) यह सही है, वह दयनीय नहीं होता। हलके ढंग से कहें तो ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। समाज में कौन लोग होते हैं, जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते? वे आलसी, मूर्ख, कामचोर, गुंडे, बदमाश और आवारा—ऐसे ही लोग होते हैं। वे कोई नए कौशल या क्षमताएँ नहीं सीखना चाहते, न ही वे गंभीर करियर बनाना या नौकरी ढूँढ़ना चाहते हैं ताकि अपना गुजारा कर सकें। वे समाज के आलसी और आवारा लोग हैं। वे कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, और फिर बिना कुछ लिए कुछ पाना चाहते हैं, और अपने हिस्से के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। वे अवसरवादी हैं। ये अवसरवादी कभी अपने कर्तव्य करने को तैयार नहीं होते। अगर चीजें थोड़ी-सी भी उनके अनुसार नहीं होतीं, तो वे दमित महसूस करते हैं। वे हमेशा स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, वे किसी भी तरह का काम नहीं करना चाहते, और फिर भी वे अच्छा खाना और अच्छे कपड़े पहनना चाहते हैं, और जो चाहे खाना और जब चाहे सोना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब ऐसा दिन आएगा, तो वह निश्चित ही अद्भुत होगा। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं सहना चाहते और भोग-विलास के जीवन की कामना करते हैं। इन लोगों को जीना भी थका देने वाला लगता है; वे नकारात्मक भावनाओं से बँधे होते हैं। वे अकसर थका हुआ और भ्रमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। वे अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहते या अपने उचित मामले नहीं सँभालना चाहते। वे किसी नौकरी पर टिके रहना और उसे अपना पेशा और कर्तव्य, अपना दायित्व और जिम्मेदारी मानकर शुरू से आखिर तक लगातार करते रहना नहीं चाहते; वे उसे खत्म करके परिणाम प्राप्त करना नहीं चाहते, न ही उसे यथासंभव सर्वोत्तम मानक के अनुसार करना चाहते हैं। उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। वे बस बेमन से कार्य करना चाहते हैं और अपने कर्तव्य को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब उन्हें थोड़ा दबाव या किसी तरह के नियंत्रण का सामना करना पड़ता है, या जब उन्हें थोड़ा ऊँचे स्तर पर रखा जाता है या थोड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनके भीतर ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें जीना थका देने वाला लगता है और वे दुखी रहते हैं। जीना थका देने वाला लगने का एक बुनियादी कारण यह है कि ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है। उनकी समझ क्षीण होती है, वे पूरा दिन कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, सपनों में जीते हैं, दिवा-स्वप्न देखते हैं, हमेशा अत्यधिक अजीबोगरीब चीजों की कल्पना करते हैं। यही कारण है कि उनके दमन का समाधान करना बहुत कठिन होता है। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं। एकमात्र चीज जो हम कर सकते हैं, वह यह है कि उन्हें परमेश्वर का घर छोड़ने, दुनिया में लौटने और आराम और सुख की अपनी जगह खोजने के लिए कह दें।

जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। जब यह रूपांतरण होता है, तो तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना दमनात्मक नहीं है। तुम्हारी दमित अवस्था और भावनाएँ रूपांतरित होकर हलकी हो जाएँगी, और वे पहले से अलग होंगी। तुम महसूस करोगे कि इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में आनंद मिलेगा। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना, आचरण करना और अपना कर्तव्य निभाना, कठिनाइयाँ सहना और कीमत चुकाना, नियमों का पालन करना और सिद्धांतों के आधार पर काम करना अच्छा है। तुम महसूस करोगे कि सामान्य लोगों को इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। जब तुम सत्य के अनुसार जीते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारा दिल स्थिर और शांत है और तुम्हारा जीवन सार्थक है। तुम सोचोगे : “मुझे यह पहले क्यों नहीं पता चला? मैं इतना जिद्दी क्यों था? पहले मैं शैतान के फलसफों और स्वभाव के अनुसार जीता था, न तो इंसान की तरह जीता था न ही भूत की तरह, और जितना ज्यादा जीता था, उतना ही ज्यादा यह पीड़ादायक महसूस होता था। अब जब मैं सत्य समझता हूँ, तो मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा छोड़ सकता हूँ और अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में बिताए गए जीवन की सच्ची शांति और खुशी महसूस कर सकता हूँ!” क्या तब तुम्हारी मनोदशा बदल नहीं गई होगी? (हाँ।) जब तुम जान जाते हो कि तुम्हारा जीवन पहले दमनात्मक और दुखद क्यों लगता था, जब तुम अपने कष्ट का मूल कारण ढूँढ़ लेते हो और समस्या हल कर लेते हो, तो तुम्हें बदलाव की उम्मीद होगी। अगर तुम सत्य की दिशा में प्रयास करते हो, परमेश्वर के वचनों पर ज्यादा श्रम करते हो, सत्य के बारे में ज्यादा संगति करते हो और अपने भाई-बहनों की अनुभवात्मक गवाहियाँ भी सुनते हो, तो तुम्हारे पास एक स्पष्ट मार्ग होगा, तब क्या तुम्हारी अवस्था में सुधार नहीं होगा? अगर तुम्हारी अवस्था में सुधार होता है, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाएँगी और अब तुम्हें उलझाएँगी नहीं। बेशक विशेष परिस्थितियों या संदर्भों में कभी-कभार दमन और पीड़ा की भावनाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, लेकिन अगर तुम उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजोगे, तो ये दमनात्मक भावनाएँ गायब हो जाएँगी। तुम अपना कर्तव्य निभाते समय अपनी ईमानदारी, पूरी शक्ति और निष्ठा अर्पित करने में सक्षम होगे और तुम्हें उद्धार की आशा होगी। अगर तुम इस तरह के रूपांतरण से गुजरने में सक्षम हो, तो तुम्हें परमेश्वर का घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। इस रूपांतरण से गुजरने की तुम्हारी क्षमता यह साबित करेगी कि तुम्हारे लिए अभी भी आशा है—बदलाव की आशा, उद्धार की आशा। वह साबित करेगी कि तुम अभी भी परमेश्वर के घर के सदस्य हो, लेकिन तुम विभिन्न स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों और व्यक्तिगत वजहों या विभिन्न बुरी आदतों और विचारों से बहुत लंबे समय तक और बहुत गहराई से प्रभावित थे, जिसके कारण तुम्हारा जमीर सुन्न और भावनाहीन हो गया, तुम्हारी तर्कशक्ति कमजोर हो गई और तुम्हारी शर्म की भावना मिट गई। अगर तुम इस तरह के रूपांतरण से गुजर सको, तो परमेश्वर का घर तुम्हारे वहाँ रहकर अपना कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और हाथ में लिए अपने काम को पूरी तरह से खत्म करने के लिए स्वागत करेगा। निस्संदेह जिन लोगों में ये नकारात्मक भावनाएँ हों, उनकी मदद सिर्फ प्रेमपूर्ण हृदय से ही की जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार करता है और बार-बार चेताने के बावजूद पश्चात्ताप नहीं करता, तो हमें उसे विदा कर देना चाहिए। लेकिन अगर कोई वास्तव में बदलने, पलटने, अपना ढर्रा बदलने का इच्छुक है, तो हम उनके रहने का हार्दिक स्वागत करते हैं। अगर वे वास्तव में रहने और अपने पिछले नजरिए और जीने के तरीके बदलने के इच्छुक हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय धीरे-धीरे रूपांतरण से गुजरने में सक्षम हैं, और जितने ज्यादा समय तक अपना कर्तव्य निभाते हैं उतना ही बेहतर होते जाते हैं, तो हम ऐसे लोगों के रहने का स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि उनमें सुधार होता जाएगा। हम उनके लिए बड़ी शुभकामना भी व्यक्त करते हैं : हम कामना करते हैं कि वे अपनी नकारात्मक भावनाओं से उबरें, उनमें और न उलझें या उनकी छाया में और न घिरें, इसके बजाय वे अपना उचित कार्य करें और सही मार्ग पर चलें, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सामान्य लोगों को जो करना चाहिए वही करें और जैसे जीना चाहिए वैसे ही जिएँ, और परमेश्वर के घर में परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार नियमित रूप से अपने कर्तव्य निभाएँ, जीवन में और न भटकें। हम उनके अच्छे भविष्य की कामना करते हैं, और यह भी कि वे अब जैसा चाहे वैसे न करें, या सिर्फ सुख-प्राप्ति और शारीरिक आनंद की चिंता न करें, बल्कि अपने कर्तव्य निभाने, जीवन में जिस मार्ग पर वे चलते हैं उसके और सामान्य मानवता को जीने से संबंधित मामलों के बारे में ज्यादा सोचें। हम तहे-दिल से कामना करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में खुशी से, स्वतंत्रतापूर्वक और मुक्त होकर रहें और यहाँ अपने जीवन में दैनिक शांति और खुशी अनुभव करें, गर्मजोशी और आनंद महसूस करें। क्या यह सबसे बड़ी शुभकामना नहीं है? (हाँ, है।) मैंने अपनी शुभकामना व्यक्त कर दी है और मैं तुम सभी लोगों को उन्हें अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देने के लिए आमंत्रित करता हूँ। (हमारी हार्दिक शुभकामना है कि वे परमेश्वर के घर में खुशी से, स्वतंत्रतापूर्वक और मुक्त होकर रह सकें, दैनिक शांति और खुशी का अनुभव कर सकें और यहाँ अपने जीवन में गर्मजोशी और आनंद महसूस कर सकें।) और कुछ? तहे-दिल से यह शुभकामना देने के बारे में क्या खयाल है कि वे अब दमनात्मक भावनाओं के चंगुल में न रहें? (हाँ, यह अच्छा रहेगा।) यह मेरी शुभकामना है। क्या तुम लोगों के पास उनके लिए कोई और शुभकामनाएँ हैं? (मेरी हार्दिक शुभकामना है कि वे अपने कर्तव्य निभाने में निरंतर सुधार करते हुए अपना उचित कार्य कर पाएँ।) क्या यह एक अच्छी शुभकामना है? (हाँ।) कोई अन्य शुभकामनाएँ? (मेरी हार्दिक शुभकामना है कि वे जल्दी ही सामान्य मानवता को जीना शुरू कर सकें।) यह शुभकामना बहुत ऊँची भले न हो, पर मुझे लगता है कि यह व्यावहारिक है। मनुष्यों को सामान्य मानवता को जीना चाहिए और दमित महसूस नहीं करना चाहिए। हम वे कठिनाइयाँ सहने में असमर्थ क्यों रहते हैं, जिन्हें दूसरे सहन कर सकते हैं? अगर व्यक्ति में जमीर, विवेक और सामान्य मानवता की शर्म की भावना, और साथ ही अनुसरण, जीने के तरीके और अपने अनुसरण में वे उचित लक्ष्य हों जो सामान्य लोगों के पास होने चाहिए, तो वह दमित महसूस नहीं करेगा। क्या यह बहुत अच्छी शुभकामना नहीं है? (हाँ, है।) और कुछ? (मेरी हार्दिक शुभकामना है कि वे अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्वक सहयोग करें, परमेश्वर के घर में उसका प्रेम महसूस करें और परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें।) क्या यह अपेक्षा ऊँची है? (नहीं।) चूँकि यह ऊँची नहीं है, तो क्या इसे हासिल करना आसान है? परमेश्वर के घर का प्रेम महसूस करना वास्तविकता के अनुरूप है—इन लोगों को यही चाहिए, है न? (हाँ।) इस तरह के लोगों के लिए ऊँची अपेक्षाएँ नहीं हैं। पहले और मुख्य रूप से उनमें सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होना जरूरी है। उन्हें जीवन में निष्क्रिय रहना या भटकना नहीं चाहिए; उन्हें जीना, अपना उचित कार्य करना, अपनी जिम्मेदारियाँ उठाना और अपने कर्तव्य निभाना सीखना चाहिए। फिर उन्हें यह सीखने की जरूरत है कि कैसे जिएँ, कैसे सामान्य मानवता को जिएँ, और कैसे अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य अच्छी तरह से निभाएँ। ऐसा करके वे परमेश्वर के घर में आराम, शांति और आनंद महसूस कर पाएँगे और यहाँ रहकर अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होंगे। अपनी दमनात्मक, नकारात्मक भावनाओं से मुक्त होने के बाद थोड़ा-थोड़ा करके वे सत्य का अनुसरण करने और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने में सक्षम होंगे। ये इस तरह के लोगों के लिए अपेक्षाएँ हैं। उनकी उम्र चाहे जो भी हो, हमें उनके प्रति कोई भव्य इच्छाएँ या ऊँची अपेक्षाएँ नहीं हैं, बस ये ही हैं जिनके बारे में हमने बात की है। सबसे पहले उन्हें अपना उचित कार्य करना सीखने की जरूरत है, एक वयस्क और सामान्य व्यक्ति की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाना सीखने की जरूरत है, और फिर नियमों का पालन करना और परमेश्वर के घर का प्रबंधन, निरीक्षण, काट-छाँट और निपटान स्वीकारना और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना सीखने की जरूरत है। यही वह सही रवैया है, जिसे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति को अपनाना चाहिए। दूसरे, उन्हें उन जिम्मेदारियों, दायित्वों, विचारों और दृष्टिकोणों की सही समझ और ज्ञान होना चाहिए, जिनमें सामान्य मानवता का जमीर और विवेक शामिल होता है। तुम्हें अपनी नकारात्मक भावनाओं और दमन से छुटकारा पाना चाहिए और अपने जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का सही ढंग से सामना करना चाहिए। तुम्हारे लिए ये अतिरिक्त चीजें या बोझ या बंधन नहीं हैं, बल्कि वे चीजें हैं जिन्हें एक सामान्य वयस्क के रूप में तुम्हें सहन करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक वयस्क को, चाहे तुम्हारा लिंग कुछ भी हो, तुम्हारी काबिलियत कुछ भी हो, तुम कितने भी सक्षम हो या तुम में कितनी भी प्रतिभाएँ हों, वे सभी चीजें सहन करनी चाहिए जो वयस्कों को सहन करनी चाहिए, जिनमें शामिल हैं : जीवन-परिवेश जिनके साथ वयस्कों को सामंजस्य बैठाना चाहिए, जिम्मेदारियाँ, दायित्व और मिशन जो तुम्हें हाथ में लेने चाहिए, और वह काम जिसका तुम्हें दायित्व उठाना चाहिए। पहले, तुम्हें दूसरों से यह अपेक्षा करने के बजाय कि वे तुम्हें कपड़े देंगे और खाना खिलाएँगे, या गुजारे के लिए दूसरों के श्रम के फल पर निर्भर रहने के बजाय इन चीजों को सकारात्मक रूप से स्वीकारना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें विभिन्न प्रकार के नियमों, विनियमों और प्रबंधन के साथ तालमेल बैठाकर उन्हें स्वीकारना सीखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश स्वीकारने चाहिए और अन्य लोगों के बीच अस्तित्व और जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना सीखना चाहिए। तुम में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होना चाहिए, अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों को सही ढंग से लेना चाहिए और अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं को सही ढंग से सँभालना और हल करना चाहिए। ये सभी वे चीजें हैं जिनसे सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को निपटना चाहिए, यह भी कहा जा सकता है कि यही वह जीवन और जीवन-परिवेश है जिसका किसी वयस्क को सामना करना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक वयस्क के रूप में तुम्हें अपने परिवार के सहयोग और उसका भरण-पोषण करने के लिए अपनी क्षमताओं पर भरोसा करना चाहिए, चाहे तुम्हारा जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो। यह कठिनाई तुम्हें सहनी चाहिए, यह जिम्मेदारी तुम्हें निभानी चाहिए और यह दायित्व तुम्हें पूरा करना चाहिए। तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए जो एक वयस्क को उठानी चाहिए। चाहे तुम कितना भी कष्ट सहो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाओ, चाहे तुम कितना भी दुखी महसूस करो, तुम्हें अपनी शिकायतें निगल लेनी चाहिए और कोई नकारात्मक भावना विकसित नहीं करनी चाहिए या किसी के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह वह चीज है जो वयस्कों को सहन करनी चाहिए। एक वयस्क के रूप में तुम्हें इन चीजों का दायित्व उठाना चाहिए—बिना शिकायत या प्रतिरोध किए, और खास तौर से उनसे बचे या उन्हें नकारे बिना। जीवन में भटकते रहना, निष्क्रिय रहना, जैसे चाहे वैसे काम करना, जिद्दी या मनमौजी होना, जो तुम करना चाहते हो वह करना और जो नहीं करना चाहते वह न करना—जीवन में किसी वयस्क का यह रवैया नहीं होना चाहिए। हर वयस्क को एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, चाहे उन्हें कितने भी दबाव का सामना करना पड़े, जैसे मुसीबतें, बीमारियाँ, यहाँ तक कि विभिन्न कठिनाइयाँ भी—ये वे चीजें हैं जो सभी को अनुभव करनी और सहनी चाहिए। ये एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होती हैं। अगर तुम दबाव नहीं झेल सकते या पीड़ा नहीं सह सकते, तो इसका मतलब है कि तुम बहुत नाजुक और बेकार हो। जो जीवित है, उसे यह कष्ट अवश्य सहना होगा, और कोई भी इसे टाल नहीं सकता। चाहे समाज में हो या परमेश्वर के घर में, यह सभी के लिए समान होती है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें उठाना चाहिए, एक भारी बोझ जिसे एक वयस्क को उठाना चाहिए, वह चीज जो उसे उठानी चाहिए, और तुम्हें इससे बचना नहीं चाहिए। अगर तुम हमेशा इस सबसे बचने या इसे त्यागने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ बाहर निकल आएँगी, और तुम हमेशा उनमें उलझे रहोगे। हालाँकि अगर तुम यह सब ठीक से समझ और स्वीकार सको, और इसे अपने जीवन और अस्तित्व का एक आवश्यक हिस्सा मानो, तो ये मुद्दे तुम्हारे लिए नकारात्मक भावनाएँ विकसित करने का कारण नहीं होने चाहिए। एक लिहाज से तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने सीखना चाहिए, जो वयस्कों को उठाने और निभाने चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामान्य मानवता के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना सीखना चाहिए। बस जैसा चाहे वैसा मत करो। सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या उद्देश्य होता है? यह काम बेहतर ढंग से पूरा करने और वे दायित्व और जिम्मेदारियाँ बेहतर ढंग से निभाने के लिए है, जिन्हें एक वयस्क के रूप में तुम्हें पूरा करना और निभाना चाहिए, ताकि तुम्हारे काम में आने वाली समस्याओं के कारण होने वाला नुकसान कम किया जा सके, और तुम्हारे कार्य के परिणाम और दक्षता बढ़ाई जा सके। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए। अगर तुम में सामान्य मानवता है, तो तुम्हें लोगों के बीच काम करते समय इसे हासिल करना चाहिए। जहाँ तक काम के दबाव की बात है, चाहे यह ऊपर वाले से आता हो या परमेश्वर के घर से, या अगर यह दबाव तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा तुम पर डाला गया हो, यह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें सहन करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, “यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।” यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम करने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए। बड़े स्तर पर यह परमेश्वर की शिक्षा और माँग है। छोटे स्तर पर यह वह रवैया, दृष्टिकोण, मानक और सिद्धांत है, जो हर व्यक्ति को अपने आचरण और कार्यकलापों में अपनाना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रणालियों का पालन करना सीखना चाहिए, तुम्हें अनुपालन करना सीखना चाहिए, नियम सीखने चाहिए और शिष्ट तरीके से आचरण करना चाहिए। यह व्यक्ति के आचरण का एक अनिवार्य हिस्सा है। तुम्हें अपना सारा समय काम करने के बजाय किसी भी चीज पर गंभीरता से विचार न करते हुए और अपने दिन बेकार गँवाते हुए या गलत कार्यों में संलग्न रहते हुए और गैर-विश्वासियों की तरह जीने के अपने ही तरीके का अनुसरण करते हुए भोग-विलास करने में नहीं बिताना चाहिए। दूसरों से अपना तिरस्कार न करवाओ, उनकी आँख की किरकिरी या उनके पैर का काँटा न बनो, हर किसी को इस बात के लिए बाध्य न करो कि वे तुमसे दूर हो जाएँ या तुम्हें नकार दें, और किसी कार्य में अड़चन या बाधा न बनो। यह वह जमीर और विवेक है जो एक सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और यह वह जिम्मेदारी भी है जो किसी भी सामान्य वयस्क को उठानी चाहिए। ये उन चीजों का हिस्सा हैं जो तुम्हें यह जिम्मेदारी वहन करने के लिए करनी चाहिए। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।)

अगर तुम दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति हो, अगर तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को उठा सकते हो जो लोगों को वहन करने चाहिए, वे चीजें जो सामान्य मानवता वाले लोगों को हासिल करनी चाहिए, और वे चीजें जो वयस्कों को अपने अनुसरण के उद्देश्यों और लक्ष्यों के रूप में हासिल करनी चाहिए, और अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ उठा सकते हो, तो तुम चाहे जो भी कीमत चुकाओ और चाहे जितना भी दर्द सहो, तुम शिकायत नहीं करोगे, और जब तक तुम इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के रूप में पहचानते हो, तुम किसी भी पीड़ा को सहन करने में सक्षम होगे और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे। उस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति कैसी होगी? वह अलग होगी; तुम अपने दिल में शांति और स्थिरता महसूस करोगे और आनंद अनुभव करोगे। देखो, सिर्फ सामान्य मानवता को जीने की कोशिश करने और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और मिशन का अनुसरण करने से, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को वहन करना और हाथ में लेना चाहिए, लोग अपने दिलों में शांति और खुशी महसूस करते हैं और आनंद अनुभव करते हैं। वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुँचे, जहाँ वे सिद्धांतों के अनुसार मामलों का संचालन कर सत्य प्राप्त कर रहे हों, और उनमें पहले से ही कुछ बदलाव आ चुका हो। ऐसे लोग वे होते हैं, जिनमें जमीर और विवेक होता है; वे ईमानदार लोग हैं, जो किसी भी कठिनाई पर काबू पा सकते हैं और कोई भी कार्य कर सकते हैं। वे मसीह के अच्छे सैनिक हैं, वे प्रशिक्षण से गुजरे हैं और कोई भी कठिनाई उन्हें हरा नहीं सकती। मुझे बताओ, तुम लोग इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या इन लोगों में धैर्य नहीं है? (है।) उनमें धैर्य है और लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। क्या ऐसे लोग अब भी दमित महसूस करेंगे? (नहीं।) तो फिर उन्होंने इन दमनात्मक भावनाओं को कैसे बदला? किस कारण से ये दमन की भावनाएँ उन्हें न तो परेशान करेंगी और न ही उन तक पहुँचेंगी? (इसलिए कि वे सकारात्मक चीजों को पसंद करते हैं और अपने कर्तव्यों का बोझ उठाते हैं।) यह सही है, यह अपना उचित कार्य करने के बारे में है। जब लोग उचित मामलों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और जब उनकी सामान्य मानवता का जमीर और विवेक और जिम्मेदारी और मिशन की भावना सब सक्रिय हो जाती हैं, तो चाहे उन्हें कहीं भी रखा जाए, वे अच्छा ही करते हैं। वे बिना किसी दमन, संताप या अवसाद के किसी भी कार्य में सफल हो सकते हैं। क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर ऐसे लोगों को आशीष देता है? क्या जिन लोगों में ऐसा जमीर, विवेक और सामान्य मानवता होती है, उन्हें सत्य का अनुसरण करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा? (नहीं।) सामान्य मानवता के अनुसरणों, दृष्टिकोणों और अस्तित्व के तरीकों के आधार पर सत्य का अनुसरण करना उनके लिए बहुत कठिन नहीं होगा। जब लोग इस बिंदु पर पहुँचते हैं, तो वे सत्य समझने, सत्य का अभ्यास करने, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से दूर नहीं होते। यहाँ “दूर नहीं” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि अपने आचरण पर उनका परिप्रेक्ष्य और उनके द्वारा चुनी गई अस्तित्व की पद्धति पूरी तरह से सकारात्मक और सक्रिय होती है, वह अनिवार्य रूप से उस सामान्य मानवता के अनुरूप होती है जिसकी परमेश्वर माँग करता है। इसका मतलब है कि वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित मानकों तक पहुँच गए हैं। जब ऐसे व्यक्ति इन मानकों को पूरा कर लेते हैं, तो वे सत्य सुनते ही समझ सकते हैं और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत कम कठिन होगा। उनके लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना आसान होगा। कुल कितने पहलू हैं, जो सामान्य मानवता वाले लोगों को करने चाहिए? वे मोटे तौर पर तीन हैं। वे कौन-से हैं? मुझे बताओ। (पहला उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को वहन करना सीखने के बारे में है, जो एक वयस्क को लेने और और वहन करने चाहिए। दूसरा है सामान्य मानवता के साथ अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सह-अस्तित्व में रहना सीखना और जैसा चाहे वैसा न करना। और तीसरा है सामान्य मानवता के दायरे के भीतर परमेश्वर की शिक्षाओं का पालन करना सीखना, और उन रवैयों, दृष्टिकोणों, मानकों और सिद्धांतों का पालन करना सीखना जो व्यक्ति के आचरण में होने चाहिए, जिसका अर्थ है नियमों का पालन करना।) ये तीन पहलू हैं, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होने चाहिए। अगर लोग इन पहलुओं पर सोचना और ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दें और उनके लिए कड़ी मेहनत करें, तो वे अपना उचित कार्य करना शुरू कर देंगे—क्या तब भी वे नकारात्मक भावनाएँ अनुभव करेंगे? क्या वे तब भी दमित महसूस करेंगे? जब तुम अपना उचित कार्य करते हो और अपने उचित मामले सँभालते हो, और वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व उठाते हो जो वयस्कों को उठाने चाहिए, तो तुम्हारे पास करने और सोचने के लिए इतना कुछ होगा कि तुम अत्यधिक व्यस्त होगे। खासकर जो वर्तमान में परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, क्या उनके पास दमित महसूस करने का समय होता है? बिल्कुल समय नहीं होता। तो उन लोगों के साथ क्या मामला है, जो दमित महसूस करते हैं, जिनकी मनोदशा खराब हो जाती है, और अपने साथ थोड़ी अप्रिय घटना होने पर जो निराश या उदास महसूस करते हैं? वह मामला यह है कि वे खुद को सही चीजों में व्यस्त नहीं रखते और निष्क्रिय रहते हैं। वह मामला यह है कि वे अपना उचित काम नहीं करते और उन चीजों को नहीं देख पाते जो उन्हें करनी चाहिए, इसलिए उनका दिमाग निष्क्रिय और विचार बेकाबू हो जाते हैं। वे निरंतर सोचते रहते हैं, बिना किसी मार्ग के, इसलिए वे दमित महसूस करते हैं। जितना ज्यादा वे सोचते हैं, उतना ही ज्यादा वे व्यथित और असहाय महसूस करते हैं, और उनके पास उतना ही कम मार्ग बचता है; जितना ज्यादा वे सोचते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि उनका जीवन निरर्थक है, कि वे दुखी हैं, और उतना ही ज्यादा वे दयनीय महसूस करते हैं। उनमें मुक्त होने की ताकत नहीं होती और अंततः वे दमन की इन भावनाओं में फँस जाते हैं। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) वास्तव में, इस समस्या को हल करना आसान है, क्योंकि ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए, तुम्हारे सोचने-विचारने के लिए इतनी सारी उचित चीजें हैं कि तुम्हारे पास उन बेकार चीजों, उन आनंद चाहने वाली गतिविधियों के बारे में सोचने का समय ही नहीं होगा। जिन लोगों का दिमाग निष्क्रिय रहता है, वे ऐसी चीजों के बारे में सोच पाते हैं, वे काम करने के बजाय आराम करना पसंद करते हैं, वे लालची आवारा होते हैं और वे अपना उचित कार्य नहीं करते। जो लोग अपना उचित कार्य नहीं करते, वे अक्सर खुद को दमनात्मक भावनाओं में फँसा हुआ पाते हैं। ये लोग खुद को सही चीजों में व्यस्त नहीं रखते, जबकि ऐसे ढेरों महत्वपूर्ण मामले हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है, और वे उनके बारे में नहीं सोचते या उन पर कार्रवाई नहीं करते। इसके बजाय उन्हें अपने मन को भटकने देने, अपने भौतिक शरीर के बारे में शिकायत और विलाप करने, अपने भविष्य के बारे में चिंता करने और जो दर्द उन्होंने सहा है और जो कीमत उन्होंने चुकाई है, उस पर कुढ़ने का समय मिल जाता है। जब वे यह सब हल नहीं कर पाते, सह नहीं पाते या इन कुंठाओं को निकालने के लिए कोई निकास नहीं खोज पाते, तो वे दमित महसूस करने लगते हैं। जब वे परमेश्वर का घर छोड़ने के बारे में सोचते हैं तो उन्हें आशीष खोने का डर होता है, वे बुराई करने पर नरक में जाने से डरते हैं, और वे सत्य का अनुसरण करने या अपने कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए भी तैयार नहीं होते। नतीजतन, वे दमित महसूस करते हैं। क्या यही मामला नहीं है? (यही है।) यह सही है। अगर व्यक्ति अपना उचित कार्य करे और सही मार्ग पर चले, तो ये भावनाएँ उत्पन्न ही नहीं होंगी। अगर वे कभी-कभी अस्थायी विशेष परिस्थितियों के कारण दमनात्मक भावनाएँ अनुभव करते भी हैं, तो वे सिर्फ अस्थायी मनोदशाएँ होंगी, क्योंकि जीवन का सही तरीका और अस्तित्व पर सही दृष्टिकोण रखने वाले लोग इन नकारात्मक भावनाओं पर तुरंत काबू पा लेंगे। नतीजतन, तुम बार-बार खुद को दमन की भावनाओं में फँसा हुआ नहीं पाओगे। इसका मतलब यह है कि दमन की ऐसी भावनाएँ तुम्हें परेशान नहीं करेंगी। तुम अस्थायी तौर पर खराब मनोदशाओं का अनुभव कर सकते हो, लेकिन तुम उनमें फँसोगे नहीं। यह सत्य का अनुसरण करने के महत्व पर प्रकाश डालता है। अगर तुम अपना उचित कार्य करना चाहते हो, अगर तुम वे जिम्मेदारियाँ उठाते हो जो वयस्कों को उठानी चाहिए, और एक सामान्य, अच्छा, सकारात्मक और सक्रिय जीवन जीना चाहते हो, तो तुममें ये नकारात्मक भावनाएँ विकसित नहीं होंगी। ये दमनात्मक भावनाएँ तुम्हें ढूँढ़ नहीं पाएँगी या तुमसे चिपक नहीं पाएँगी।

तो हमने दमन का हल करने के मुद्दे और कठिनाई के बारे में संगति समाप्त कर ली है, जिसमें पहले उल्लिखित तीन पहलू शामिल हैं। हम तहे-दिल से चाहते हैं कि जो लोग दमन की भावनाओं में उलझ गए हैं, और जो लोग दमन की भावनाओं में फँस तो गए हैं लेकिन उनसे मुक्त होना चाहते हैं, वे अब इन भावनाओं से नियंत्रित न हों। हमें आशा है कि वे जल्दी ही दमन की नकारात्मक भावनाओं से बाहर निकल आएँ और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जी पाएँ, अस्तित्व का एक सामान्य और उचित तरीका अपनाएँ। क्या यह एक शुभकामना है? (हाँ।) तो फिर तुम लोगों को भी यह शुभकामना देनी चाहिए। (हम कामना करते हैं कि जो लोग दमन की भावनाओं में उलझ गए हैं, और जो लोग दमन की भावनाओं में फँस तो गए हैं लेकिन उनसे मुक्त होना चाहते हैं, वे अब इन भावनाओं से नियंत्रित न हों। हमें आशा है कि वे जल्दी ही दमन की नकारात्मक भावनाओं से बाहर आ जाएँ और अस्तित्व का एक सामान्य और उचित तरीका अपनाते हुए एक सामान्य व्यक्ति की तरह जिएँ।) यह शुभकामना यथार्थपरक है। अब जब हमने अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त कर दी हैं, तो ये लोग दमन की भावनाओं से मुक्त हो पाएँगे या नहीं, यह अंततः उनके व्यक्तिगत चुनाव पर निर्भर करता है—यह एक आसान मामला होना चाहिए। वास्तव में यह ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी चाहिए। अगर व्यक्ति में सत्य और सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने के लिए पर्याप्त दृढ़ संकल्प और इच्छा है, तो उसके लिए दमन की भावनाओं से मुक्त होना आसान होगा। यह कोई मुश्किल काम नहीं होगा। अगर किसी को सत्य और सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने में आनंद नहीं आता, और उन्हें सकारात्मक चीजें पसंद नहीं आतीं, तो उन्हें दमन की भावनाओं में फँसे रहने दो। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो। हमें अब उनके लिए शुभकामनाएँ व्यक्त करने की जरूरत नहीं है, ठीक है न? (ठीक है।) यह स्थिति को सँभालने का दूसरा तरीका है। हर समस्या का एक समाधान होता है और हर चीज सत्य सिद्धांतों और लोगों की वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर देखी और हल की जा सकती है। हमने आज के लिए अपनी शुभकामनाएँ पूरी कर ली हैं और हमने कई अलग-अलग स्थितियों पर गहन सहभागिता की है। हमने वह सब कह दिया है, जो इस तरह के व्यक्ति के बारे में कहा जाना चाहिए, तो चलो यह चर्चा यहीं समाप्त करते हैं।

12 नवंबर 2022

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