56. स्वार्थ की समस्या को हल कैसे करें

झंग जिंग, चेक रिपब्लिक

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य-वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए' से क्या अभिप्राय है? शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। तुम्हें पुरस्कार नहीं दिया जाएगा और परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा। क्या यह पूरी तरह से व्यर्थ नहीं है?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन हमें दिखाते हैं कि हम अपने कर्तव्य के लिए खुद को खपा सकते हैं, थोड़ी तकलीफ़ सह सकते हैं, लेकिन अगर इसे करने का हमारा मकसद परमेश्वर को संतुष्ट करना नहीं है और हमारे पास सत्य का अभ्यास करने की कोई गवाही नहीं है, बल्कि हम सिर्फ़ खुद को संतुष्ट कर रहे हैं, तो परमेश्वर इसे बुराई करने के रूप में देखेगा। यह उसके लिए नफ़रत के लायक है। कुछ साल पहले मैंने देखा कि एक बहन कलीसिया के काम में रुकावट पैदा कर रही थीं, लेकिन मैंने सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांतों को कायम रखने की हिम्मत नहीं की। मुझे डर था कि वो नाराज़ हो जाएंगी। मैंने सही समय पर उनकी कमी को उजागर नहीं किया, शिकायत नहीं की, जिसकी वजह से हमारे सुसमाचार के काम को नुकसान पहुंचा। इसमें मेरी भी गलती थी। जब भी मैं इस बारे में सोचती हूँ, मैं पछतावे और खेद से भर जाती हूँ।

मार्च 2018 की बात है, जब बहन चेन हमारी टीम में टीम की अगुआ बनकर शामिल हूईं। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वो अपना काम ज़िम्मेदारी से नहीं करती थीँ। कभी-कभी, हम जिन्हें प्रवचन देते थे, वो अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के बारे में ज़्यादा जानना चाहते थे, लेकिन वे तुरंत सहभागिता और गवाही का इंतज़ाम नहीं करती थीं। इससे सुसमाचार के काम में रुकावट आती थी। मैंने उनके साथ सहभागिता भी की, लेकिन मैंने उनकी समस्याओं पर बहुत कम बात की, क्योंकि मुझे डर था कि उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। वो बहाने बनाने लगीं कि उनके पास और भी काम हैं और वह सब कुछ एक साथ संभाल नहीं पायीं, लेकिन वह आगे बेहतर करने की कोशिश करेंगी। मुझे साफ़ दिख रहा था कि वो इसे हल्के में ले रही थीं। उन्होंने समस्या को संजीदगी से नहीं लिया। मुझे लगा कि मुझे कुछ और कहना चाहिए ताकि ऐसा फिर से न हो और कलीसिया का काम न रुके। मैं कुछ बोलने ही वाली थी कि मैंने सोचा, "अगुआ वो हैं, और मैं टीम की सिर्फ़ एक सदस्या हूँ। अगर मैं उनकी समस्या के बारे में उन्हें बताऊँगी तो क्या उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ ज़्यादा बोल रही हूँ, मैं दूसरों के काम में टाँग अड़ाती हूँ, अभिमानी और अनुचित तरीक़े से पेश आ रही हूँ? छोड़ो। मैं कुछ नहीं कहूँगी। वो अगुआ हैं, इसलिए उन्हें पता होना चाहिए कि यह काम कितना ज़रूरी है। वो आगे इन बातों का ध्यान रखेंगी।" मुझे थोड़ी बेचैनी महसूस हुई, लेकिन मैंने दोबारा उनसे इस बारे में बात नहीं की।

इसके कुछ दिनों के बाद ही, सोला फ़ाइड कलीसिया के एक प्रचारक अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के बारे में जानना चाहते थे। समय बहुत कम था, लेकिन इस ज़रूरी पल में, मैं बहन चेन से संपर्क नहीं कर पा रही थी। सहभागिता के लिए मैं तुरंत दूसरे सुसमाचार टीम अगुआ को ढूंढने लगी। जब बहन चेन को पता चला, तो उन्होंने मुझे सख़्ती से फटकार लगाते हुए कहा, "आपको ये करने के लिए किसी दूसरे टीम अगुआ की तलाश करने की क्यों ज़रूरत पड़ गई? यह मेरी समस्या है कि मैं समय पर अपना काम नहीं कर पायी और कोई भी समस्या मेरी ज़िम्मेदारी है। किसी और को लाना सिद्धांतों के मुताबिक नहीं है।" उस वक्त, मैं उनसे उनकी समस्याओं के बारे में सहभागिता करना चाहती थी, लेकिन मैंने यह सोचकर अपना इरादा बदल दिया, "उन्होंने अभी मुझे निपटाया है, डांटा है, अगर मैं इसके फ़ौरन बाद उनकी समस्याएँ गिनाने लगी, तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगी? हमारा एक-दूसरे से हर समय सामना होता है—अगर कोई मतभेद हुआ तो वो शायद मेरे लिए मुश्किल खड़ी कर देंगी। जाने दो। एक चिंता कम रहे, तो ही अच्छा है। मैं बस अपना काम ठीक से करूँगी।" इसलिए, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।

करीब एक महीना गुज़र गया, एक ईसाई कलीसिया में एक सहकर्मी को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य में दिलचस्पी जगी। मैंने कई बार बहन चेन को इसके बारे में याद दिलाया। मैंने कहा, "आपको किसी को उनके पास सहभागिता करने के लिए भेजना होगा।" उस वक़्त वो सहमत हो गईं, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि दो दिन गुज़रने के बाद भी उन्होंने कोई इंतज़ाम नहीं किया। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने सोचा, "मैंने आपको कई बार कहा और ये भी कहा कि यह ज़रूरी है। आपने इसे थोड़ी-भी संजीदगी से क्यों नहीं लिया? नहीं, मैं हमारे सुसमाचार के काम में इस तरह की रुकावट बर्दाश्त नहीं करूँगी। मुझे टीम के दूसरे भाई-बहनों के साथ चर्चा करनी होगी और देखना होगा कि हम इस बारे में क्या कर सकते हैं।'' मैं दूसरों से बात करने ही वाली थी कि फिर असमंजस में पड़ गई। अगर बहन चेन को पता चला कि मैं बाकी लोगों के साथ इस बारे में चर्चा कर रही हूँ, तो वह सोच सकती हैं कि मैं जानबूझकर उन्हें निशाना बना रही हूँ। अगर मैंने उन्हें नाराज़ किया, तो वो इसका बदला ले सकती हैं और मुझे अपने काम से हटाने का बहाना ढूंढ सकती हैं। आखिरकार बाहर निकली कील को ही हथौड़ी से ठोका जाता है। मैंने फ़ैसला किया कि मैं तब तक इंतज़ार करूँगी जब तक कोई और इसे सामने नहीं लाता।

उस दिन शाम को, यह सोचकर कि बहन चेन ने कितनी चीज़ों को नज़रअंदाज़ किया है, मुझे सच में चिंता होने लगी, लेकिन फिर भी बोलने की हिम्मत नहीं हुई। मैं सच में अपनी ज़िम्मेदारियां नहीं निभा रही थी। बेचैन होकर मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने लगी। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "किसी व्यक्ति की मानवता के सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण घटक उसके विवेक और सूझ-बूझ हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह एक बुरी मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। यह व्यक्ति भ्रष्ट इंसानियत को किस तरह से व्यक्त करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं। ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं। ... क्या इस तरह के इंसान में ज़मीर और विवेक होता है? क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के इंसान का ज़मीर किसी काम का नहीं होता, उसे कभी भी आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता। तो, क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन सीधे मेरे दिल में उतर गए। परमेश्वर जिस तरह के इंसान को उजागर कर रहा था, क्या मैं भी वैसी नहीं थी? मुझमें विवेक, इंसानियत की कमी थी, मैं अपने काम में लापरवाह थी। मैंने अपने हितों की रक्षा के लिए शांत और उदासीनता का रवैया अपना लिया। मैं परमेश्वर की इच्छा या कलीसिया के कार्य को बरकरार रखने पर ध्यान नहीं दे रही थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि बहन चेन अपने काम के बारे में संजीदा नहीं थीं और बिना सोचे-समझे काम कर रही थीं, और वो हमारे सुसमाचार के काम को नुकसान पहुंचा चुकी थीं। मुझे अपनी सहभागिता में ये मुद्दा उठाना चाहिए था। लेकिन मुझे डर था, वो कहेंगी कि मुझे अपने काम से काम रखना चाहिए, इसलिए मैंने उनकी समस्याओं पर ज़्यादा ज़ोर नहीं डाला। इसके बाद वो बिल्कुल भी नहीं बदलीं। मैं उनके काम के तरीके और नतीजों के बारे में दोबारा उनसे बात करना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि मैं उन्हें नाराज़ कर दूँगी, फिर वो मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करके मुझे काम से हटवा सकती हैं। मैंने आंखें मूंद लीं और नज़रअंदाज़ कर दिया। मैंने बस अपनी इज़्ज़त, हैसियत और हितों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर की खातिर खड़े होने की हिम्मत नहीं की, जबकि मैं देख रही थी कि एक टीम अगुआ जैसे-तैसे अपना काम चला रही हैं। मेरा ज़मीर कहाँ था? आपदाएं बद से बदतर होती जा रही हैं, इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को सच्चे मार्ग की जांच करनी चाहिए। लोगों को अंत के दिनों में परमेश्वर के उद्धार के कार्य को स्वीकार करवाना एक ऐसी ज़रूरत है जिस पर फौरन गौर करना चाहिए। लेकिन मैं इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले रही थी। मैं सिर्फ़ अपनी रक्षा करना चाहती थी, परमेश्वर के घर के हितों की नहीं। यह परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखना नहीं है। मैं कितनी मतलबी और घिनौनी थी। यह सोचकर मुझे महसूस होने लगा कि मैं सच में परमेश्वर को निराश कर रही हूँ। मैंने सोचा, "मैं इस तरह नहीं चल सकती। मुझे इस समस्या को हल करने का कोई रास्ता खोजना होगा।" बाद में, मैं टीम के कुछ भाई-बहनों के पास पहुंची और उनसे चर्चा की कि हम कैसे बहन चेन के मसले का हल निकाल सकते हैं। सभी इस बात पर एकमत थे कि उनकी ज़िम्मेदारियों को बांटने के लिए कोई न कोई होना चाहिए। इस तरह वे एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं और एक-दूसरे पर नज़र रख सकते हैं।

उसी दोपहर, मैंने बहन चेन को फ़ोन किया और बताया कि हमने क्या चर्चा की है, हमने उनके हालिया प्रदर्शन और उनकी वजह से सुसमाचार के काम को हुए नुकसान के बारे में विस्तार से बताया। मुझे हैरानी हुई जब बहन चेन को अपने बर्ताव पर ज़रा-सा भी पछतावा या मलाल नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने सीधे हमारी बातों को नामंज़ूर कर दिया। वो इस बात पर अड़ गईं कि उन्हें किसी दूसरे की मदद की कोई ज़रूरत नहीं है। मैंने देखा कि उन्हें खुद की समझ बिल्कुल नहीं थी, इसलिए मैंने उनके साथ सहभागिता जारी रखी, लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी बात ख़त्म कर पाती, वो कहने लगीं कि उन्हें कुछ काम है और फोन रख दिया। मैं सोचने लगी, "बहन चेन के पास रुतबा है, लेकिन वो व्यावहारिक काम नहीं करतीं और उन्हें साथी भी नहीं चाहिए। क्या ये तानाशाही नहीं है? अगर ऐसा चलता रहा, तो परमेश्वर के घर का काम रुक जाएगा। मुझे उन्हें इस परेशानी के बारे में बताना होगा।" अगले कुछ दिनों तक, मैं उन्हें संदेश भेजती रही, लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया। मैं बस परमेश्वर के घर के काम में रुकावट पड़ते` देख रही थी। मैंने सोचा कि अब कलीसिया के अगुआ को मुझे फ़ौरन ये बात बता देनी चाहिए, मैं ऐसा करने ही वाली थी कि फिर मुझे दुम दबाकर भागने की इच्छा होने लगी। मैंने सोचा, "अगर बहन चेन को पता चला कि मैंने अगुआ से बात की है, तो क्या होगा? अगर वो नाराज़ हो गईं और मुझे मेरे काम से हटाने का बहाना ढूंढने लगीं, तो मैं क्या करूंगी? क्या होगा अगर भाई-बहन कहने लगे कि मैं हमेशा बहन चेन के पीछे पड़ी रहती हूँ और मैं उनके साथ सही बर्ताव नहीं कर रही हूँ?" मैं असमंजस में थी। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो मैं बस टीम के काम को नुकसान होता हुआ देखती रहूँगी। लेकिन अगर मैंने कुछ कहा, तो हो सकता है वो मुझसे नाराज़ हो जाएं। तभी, एक बहन मुझसे पूछने लगी कि क्या मैं किसी दूसरी टीम में शामिल होना चाहूँगी। मैंने सोचा, "दूसरा काम करना अच्छा रहेगा, और मैं अपनी टीम को छोड़ पाऊँगी। मैं रोज़ गुनाहगार महसूस नहीं करूँगी, ऐसे तड़पूँगी नहीं।" मैंने बाद में टीम की एक और बहन के साथ इस बारे में बात की। उन्होंने मेरी बाती सुनी और फिर कहा, "आप हमारी टीम की सबसे वरिष्ठ सदस्या हैं और आप इस काम को सबसे ज़्यादा समझती हैं। बहन चेन हमारी टीम के मुद्दों से मुंह मोड़ रही हैं। क्या आपको लगता है कि टीम को छोड़कर जाने का यह सही समय है?" जब उन्होंने ऐसा कहा, तो मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे एहसास हुआ कि बाकी सदस्यों के मुकाबले में टीम के काम को मैं सबसे अच्छी तरह समझती थी, और मैं बस परमेश्वर के घर के काम को रुकते हुए चुपचाप देख रही थी। मैं न सिर्फ़ आंखें मूंद लेना चाहती थी, बल्कि दुम दबाकर भागना भी चाहती थी। इसे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना नहीं कहते हैं। मैं परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी कि वो मुझे रास्ता दिखाएँ।

उसके बाद मैंने अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "तुम्हें सकारात्मक भाव से प्रवेश करना होगा और सक्रिय होना होगा, निष्क्रिय नहीं। तुम्हें किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति या वस्तु के द्वारा विचलित नहीं होना है, और किसी के भी शब्दों से प्रभावित नहीं होना है। तुम्हारा स्वभाव स्थिर होना चाहिए, और चाहे लोग जो भी कहें, तुम फ़ौरन उसी पर अमल करना चाहिए जिसे तुम सच जानते हो। तुम्हारे मन में मेरे वचन सदैव कार्यरत रहें, चाहे तुम्हारे सामने कोई भी हो; तुम्हें मेरे लिए अपनी गवाही में दृढ़ और मेरे दायित्वों के प्रति विचारशील रहना होगा। तुम्हें बिना अपनी समझ-बूझ के लोगों के साथ अंधाधुंध सहमत होते हुए, भ्रमित नहीं होना है बल्कि इसके बजाय तुम में उन बातों का विरोध करने का साहस होना चाहिए जो मुझसे नहीं आतीं। यदि तुम स्पष्ट रूप से जानते हो कि कुछ गलत है, फिर भी चुप रहते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अभ्यास करता है। यदि तुम जानते हो कि कुछ गलत है और तुम विषय को घुमा देते हो, और शैतान तुम्हारा रास्ता रोकता है, जिससे तुम जो बोलते हो उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और तुम अंत तक टिके रहने में असमर्थ रहते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे दिल में अभी भी डर बैठा हुआ है। तब क्या ऐसा नहीं है कि तुम्हारा दिल अब भी शैतान से आने वाले विचारों से भरा हुआ है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 12)। "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। एक के बाद एक सवाल पढ़ते हुए, मुझे लगा जैसे परमेश्वर मेरे सामने खड़े थे, मुझसे हिसाब ले ररहे थे। हर वचन मेरे लिए एक झटका था। मैं खुद से ये भी पूछ रही थी, "क्या मैं परमेश्वर के बोझ के बारे में फ़िक्रमंद थी? क्या मैंने परमेश्वर के लिए धार्मिकता का अभ्यास किया है? क्या मैंने दृढ़ता के साथ सत्य का अभ्यास किया है?" हर सवाल का जवाब था, "नहीं।" परमेश्वर के अनुग्रह से मुझे इतना ज़रूरी काम सौंपा गया है, इसलिए मुझे भाई-बहनों के साथ इसे अच्छी तरह से करने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। मैंने टीम की अगुआ को जैसे-तैसे काम करते और बार-बार सुसमाचार के काम में देरी करते हुए देखा। वो एक झूठी अगुआ थीं जो व्यावहारिक काम नहीं करती थीं। मुझे खड़े होकर उनकी शिकायत करनी चाहिए थी। लेकिन मैं उन्हें नाराज़ करने और अपना काम खोने से डरती थी, इसलिए मैंने अपना मुँह बंद ही रखा और उन्हें परमेश्वर के घर के काम को बाधित करते देखती रही। मैं इसकी रक्षा करने के लिए खड़ी नहीं हुई। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी। मुझे न्याय या ज़िम्मेदारी की कोई समझ नहीं थी! मैंने हर मोड़ पर अपनी इज़्ज़त और हैसियत की रक्षा की। हालांकि मैंने कभी भी बहन चेन की तरह परमेश्वर के घर के सुसमाचार के काम में रुकावट नहीं डाली थी, लेकिन मैंने एक समस्या देखी, उस पर चुप रही और सत्य का अभ्यास नहीं किया। उन्हें परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाने देना, क्या इसे शैतान का साथ देना नहीं कहेंगे? क्या मैं किसी बाहरी इंसान का साथ नहीं दे रही थी, क्या मैं मुझे खिलाने वाले हाथ को काट कर शैतान की सहायक नहीं बन रही थी? ऐसा सोचने पर मुझे खुद से नफ़रत होने लगी। मैं इतनी स्वार्थी, मानवता से रहित कैसे हो सकती हूँ? मुझे पता था कि मैं ऐसे नहीं चल सकती थी। मैं सिर्फ़ अपने आप को बचाते हुए, फूँक-फूँक कर कदम नहीं रख सकती थी। मुझे सत्य का अभ्यास करना होगा, न्यायप्रिय इंसान बनना होगा, परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना होगा, उसके घर के हितों की रक्षा करनी होगी। मैंने उसी पल बहन चेन की शिकायत करने का फ़ैसला किया। तभी, मैंने एक बहन से सुना कि अफ़वाहें सुनने के बाद कुछ नए विश्वासी कमज़ोर और नकारात्मक हो रहे थे। बहन चेन ने किसी के लिए भी सही समय पर सहभागिता करके उनकी समस्याओं के समाधान का इंतज़ाम नहीं किया था और इसलिए वो लोग लगभग अपना विश्वास छोड़ चुके थे क्योंकि उन्हें गुमराह किया गया था। यह सुनकर मुझे अपने आप से नफ़रत होने लगी। ये मेरे सत्य का अभ्यास न करने का भयानक नतीजा था! उसके बाद, टीम के कुछ लोगों ने मिलकर कलीसिया के अगुआ से बहन चेन के मसलों के बारे में बात की। मुझे हैरानी हुई कि उन्होंने इसके बारे में पता किया और उसी दिन उन्हें हटा दिया। अगुआ ने मुझे बाद में फटकार लगाते हुए कहा, "वो इतने लंबे समय से काम में रुकावट डाल रही थीं; लेकिन आपने इसके बारे में कभी कुछ कहा क्यों नहीं?" ये सुनकर मुझे और भी अफ़सोस हुआ और दोषी महसूस करने लगी।

बाद में मैंने अपने बारे में सोचा, ये जानते हुए कि बहन चेन अपने काम में ज़िम्मेदार नहीं थीं और हमेशा परमेश्वर के घर के काम को रोक देती थीं, मैं उनको उजागर करने और उनकी शिकायत करने के लिए क्यों नहीं खड़ी हुई। मेरे सत्य का अभ्यास न करने की जड़ क्या थी? मैंने परमेश्वर के ये वचने पढ़े : "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि मैं सत्य का अभ्यास इसलिए नहीं कर रही थी क्योंकि मैं जीवन जीने के शैतानी फ़लसफ़ों से भरी हुई थी, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं," "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों," "जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर" और "कील जो सबसे बाहर निकली होती है वही हथौड़ी से ठोकी जाती है।" ये फ़लसफ़े बहुत पहले ही मेरा हिस्सा और मेरी प्रकृति बन गए थे। मैं स्वार्थी, चालाक और खुदगर्ज़ बन गई थी, क्योंकि मैं इन फ़लसफ़ों के मुताबिक जी रही थी। समस्या होने पर, मैं अपने हितों की रक्षा करने से खुद को रोक नहीं पाती थी। विश्वासी बनने से पहले, अपने पेशे और निजी जीवन में, जब भी मैं किसी इंसान को नाराज़ कर सकती थी, तो भले ही उन्होंने कुछ गलत किया हो, मैं चुप रह जाती थी। मैं विश्वासी बनने के बाद भी इन शैतानी फ़लसफ़ों के मुताबिक जीवन जीती रही। अपने काम में मैं खुद को अपने हितों की रक्षा करने से रोक नहीं पाती थी, और फिर मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती थी। बहन चेन उसी का एक उदाहरण थीं। मैंने देखा कि वो व्यावहारिक काम नहीं कर रही थीं और किसी दूसरे का सुझाव नहीं ले सकती थीं, वो एक झूठी अगुआ थीं, इसलिए मुझे खड़े होकर उनकी शिकायत करनी चाहिए थी। लेकिन मुझे डर था कि मेरी शिकायत का कोई असर नहीं होगा और मैं अपना काम खो बैठूंगी। "कील जो सबसे बाहर निकली होती है वही हथौड़ी से ठोकी जाती है," और "जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर" ज़िंदगी जीने के मेरे फ़लसफ़े थे। मैं कायर थी। मैंने एक गैर-ज़िम्मेदार इंसान को रुकावट खड़ी करने दी और सही कदम उठाने की हिम्मत नहीं की। मैं मतलबी और धोखेबाज़ थी। अपना काम करना और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना अच्छी बात है ये परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक है। जब कोई परमेश्वर के घर के काम में रुकावट खड़ी करता है, तो परमेश्वर के पक्ष में खड़े होने और उसके घर के हितों की रक्षा करने का यही सही समय होता है। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से यही अपेक्षा करता है। ये मेरा कर्तव्य और ज़िम्मेदारी है। लेकिन मैं अपने हितों के साथ समझौता करके आगे बढ़ने से डर रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर के घर के काम के लिए खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई। मैंने अपने कर्तव्य या ज़िम्मेदारियों को पूरा नहीं किया। मैं किस तरह की विश्वासी थी? मैंने कदम उठाने की हिम्मत नहीं की; शैतान के साथ समझौता किया और अपना मुँह बंद रखा। मैंने एक गैर-ज़िम्मेदार इंसान को परमेश्वर के घर के काम को रोकने दिया। मैंने सही कदम उठाने की हिम्मत नहीं की। मैं कायर की तरह पेश आ रही थी। मैं बिना निष्ठा या गरिमा के जी रही थी। मैंने साफ़ तौर से देखा कि बहन चेन परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाल रही थीं, लेकिन मैंने न सिर्फ़ इस मसले पर अपनी आँखें मूंद लीं बल्कि उससे दूर भागना चाहती थी। क्या इसे शैतान का साथ देना, परमेश्वर का विरोध करना नहीं कहेंगे? यह परमेश्वर के प्रति एक बड़ा अपराध है। सच में इसके बारे में सोचा जाए, तो मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर सकी और मुझे डर था कि अगर मैंने बहन चेन की शिकायत की, तो मैं अपना काम खो दूंगी। लेकिन असल में हुआ ये कि हम सभी ने जब बहन चेन की शिकायत की, तो उन्हें फौरन हटा दिया गया। इस बात ने मुझे शर्मिंदा कर दिया और दिखाया कि परमेश्वर के घर में, मसीह और सत्य का राज है। जो कोई भी सत्य का अभ्यास नहीं करता है और परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालता है, वो यहाँ पैर नहीं जमा सकता। अगर वो पश्चाताप नहीं करते हैं, तो देर-सवेर उन्हें हटा दिया जाएगा। लेकिन मैं सत्य के सिद्धांतों के मुताबिक चीज़ों को नहीं देख रही थी। मैं ताकत और हैसियत से बंधी थी। मैंने प्रभारी व्यक्ति को अपना वरिष्ठ माना और सोचा कि अगर मैंने उसे नाराज़ कर दिया, तो मैं परमेश्वर के घर में अपना पैर नहीं जमा पाऊँगी। मुझे लगा कि परमेश्वर का घर भी बाकी दुनिया की तरह अंधकारमय है जहां निष्पक्षता या न्याय नहीं है। क्या मैं परमेश्वर का तिरस्कार नहीं कर रही थी? अगर परमेश्वर ने मेरे लिए यह माहौल तैयार करके मुझे उजागर नहीं किया होता, उसके वचनों ने मुझे न्याय और ताड़ना नहीं दी होती, तो मुझे अभी भी नहीं पता होता कि शैतानी फ़लसफ़े के मुताबिक जीने के क्या भयानक नतीजे होते हैं। इससे मुझे एक चीज़ ज़रूर समझ आई कि एक विश्वासी होने के नाते, परमेश्वर के वचनों के मुताबिक जीना, सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों को बरक़रार रखना, सच में तसल्ली और सुकून देता है। एक विश्वासी को भी यही धार्मिक चीज़ करनी चाहिए। बाद में, टीम में हम सभी ने अपने अनुभव और हमें हासिल हुए फ़ायदों पर सहभागिता की। सभी ने कुछ हद तक कोई न कोई सबक सीखा था, ख़ासकर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में। हमारी टीम का काम धीरे-धीरे बेहतर होने लगा।

उसके बाद अपने काम के दौरान, दूसरी टीम की अगुआ, बहन लियू के साथ महीने भर से ज़्यादा समय तक समन्वय करने के बाद, मुझे पता चला कि वो अहंकारी और निरंकुश हैं। वो कभी भी दूसरों के सुझावों को स्वीकार नहीं करतीं और उन्होंने पहले भी परमेश्वर के घर के काम में रुकावट पैदा की है। मुझे पता था कि मुझे इस बार कलीसिया के अगुआ को बताना चाहिए। लेकिन फिर मैंने सोचा, "हमें एक साथ काम करते हुए बहुत लंबा समय नहीं हुआ है, इसलिए मैं उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानती हूँ। क्या मैं इस बारे में गलत हो सकती हूँ? क्या होगा अगर इसकी जाँच की जाए और पता चले कि उन्हें कोई बड़ी समस्या नहीं है? कलीसिया के अगुआ और बाकी लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं फ़िज़ूल की कमियाँ निकाल रही हूँ? अगर बहन लियू को पता चलेगा, तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगी? छोड़ो, मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।" मैं बस इस बात को टालने ही वाली थी, लेकिन मेरे ज़मीर की आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया। मुझे याद आया कि कैसे पहले भी सुसमाचार के काम को इसलिए नुकसान हुआ था क्योंकि मैंने सही समय पर बहन चेन के बारे में शिकायत नहीं की थी। मुझे उस बात का बहुत अफ़सोस था। मैंने सोचा, "मैं एक स्वार्थी और घिनौने तरीके से नहीं जी सकती। इस बार मेरे मन में कोई पछतावा नहीं रहना चाहिए।" तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "अपने कर्तव्य को निभाने वालो, चाहे तुम सत्य को कितनी भी गहराई से क्यों न समझो, यदि तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि तुम जो भी काम करो, उसमें परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचो, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं, इरादों, सम्मान और हैसियत को त्याग दो। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—तुम्हें कम से कम यह तो करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का, परमेश्वर के हितों का, उसके कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन विचारों को पहला स्थान देना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया, जो यह था कि मुझे अपने फ़ायदों को भुलाकर पहले परमेश्वर के घर के हितों पर ध्यान देना चाहिए। मुझे यह परवाह नहीं करनी चाहिए कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, बस वही करना चाहिए जो परमेश्वर के घर के काम के लिए सही है। हम एक दूसरे को लंबे समय से नहीं जानते थे और मैं उन्हें भी अच्छी तरह से नहीं जानती थी, लेकिन मैंने सच में देखा था कि उनके बर्ताव ने परमेश्वर के घर के काम में रुकावट पैदा की। मुझे पता था कि मैंने जो देखा, उसे दूसरों को बताना चाहिए, अपने इरादों को ठीक करके अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। मैंने बाद में कलीसिया के अगुआ को बहन लियू के मसलों के बारे में बताया और जांच के बाद, सिद्धांतों के मुताबिक उन्हें हटा दिया गया। जब मैंने यह खबर सुनी, तो मुझे तसल्ली और सुकून मिला और मुझे लगा कि मैंने परमेश्वर के घर के हितों को बरकरार रखा। मैंने यह भी अनुभव किया कि सार्थकता से जीने का एक ही तरीका है परमेश्वर के वचनों के मुताबिक जीना।

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